Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
आराम संस्थान ग्रन्थमाला : 31
प्रधान सम्पादक
प्रो. सागरमल जैन कलिकाल-सर्वज्ञ
प्रो. प्रेम सुमन जैन आचार्य हेमचन्द्र रचितम् । प्राकत व्याकरणम
(प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहितम् )
प्रथम भाग
व्याख्याता उपाध्याय पण्डितरत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज
संयोजक श्री उदयमुनि जी महाराज
सम्पादक डॉ. सुरेश सिसोदिया
प्रकाशक आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम संस्थान ग्रन्थमाला : 31
प्रधान सम्पादक प्रो. सागरमल जैन प्रो. प्रेमसुमन जैन
आचार्य हेमचन्द्र प्रणीतम् प्राकृत-व्याकरणम्
(प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहितम्)
प्रथम भाग
व्याख्याता उपाध्याय पण्डितरत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज .
संयोजक श्री उदयमुनि जी महाराज
सम्पादक
डॉ. सुरेश सिसोदिया
सम्पादन सहयोग मानमल कुदाल
प्रकाशक
आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुस्तक
: आचार्य हेमचन्द्र प्रणीतम् प्राकृत-व्याकरणम् प्रथम भाग (प्रियोदया हिन्दी-व्याख्या सहितम्)
व्याख्याता
: उपाध्याय पण्डित रत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज
सम्पादक
: डॉ. सुरेश सिसोदिया
सम्पादन सहयोग : मानमल कुदाल
प्रकाशक
: आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान
पद्मिनी मार्ग, राणा प्रताप नगर रोड़, उदयपुर-313 002 (राज.) फोन (0294) 2490628
संस्करण
: वर्ष 2006
मूल्य
:: रुपये 400/
मुद्रक
:: न्यू युनाईटेड प्रिन्टर्स, उदयपुर
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय प्राकृत भाषा जन-साधारण की भाषा के रूप में प्राचीन समय से ही विकास को प्राप्त होती रही है। वैदिक-युग तक यह भाषा जन-सामान्य की लोक प्रचलित भाषा रही है। महावीर ने इसी जन-भाषा 'प्राकृत' को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। जन-सामान्य की यही भाषा कुछ समय पश्चात् साहित्यिक भाषा के रूप
सामने आयी। आगम ग्रंथों. शिलालेखों एवं नाटकों आदि में इसका प्रयोग होने लगा। इसके पीछे जन-सामान्य का प्राकृत भाषा के प्रति सम्मान ही कहा जा सकता है। वेदों की रचना जिस भाषा में हुई, उस भाषा में भी प्राकृत भाषा के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। इससे यह तो स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा का विकास वैदिक युग से ही होने लगा था। अतः उस मूल लोक-भाषा में जो विशेषताएं थीं, वे बाद में वैदिक-भाषा, प्राकृत-भाषा में समान रूप से आती रही हैं। ___ प्राकृत व्याकरण शास्त्र की उपर्युक्त परम्परा से स्पष्ट है कि प्राकृत व्याकरण विद्वानों के अध्ययन का विषय रहा है। भारतीय एवं विदेशी विद्वानों ने भी आधुनिक युग में स्वतंत्र रूप से आगम ग्रन्थों का सम्पादन करते समय प्राकृत व्याकरण शास्त्र पर विशद प्रकाश डाला है। वर्तमान में भी प्राकृत व्याकरण के अध्ययन के लिए आधुनिक-शैली में प्राचीन परम्परा का सन्निवेश करते हुए विद्वानों ने इस दिशा में कुछ अध्ययन प्रस्तुत किए हैं।
प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से पण्डितरत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज की हेम-प्राकृत-व्याकरण जो दो भागों में श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर से प्रकाशित हई है, वह महत्वपूर्ण कति कही जा सकती है, किन्तु यह कृति वर्तमान में तो प्रायः अनुपलब्ध ही है। अतः विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत् छात्रों, साधु-साध्वियों एवं प्राकृत भाषा तथा व्याकरण के जिज्ञासुजनों को प्राकृत व्याकरण के समस्त सूत्रों का सरल एवं सहज ज्ञान उपलब्ध हो सके इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हमने हेम-प्राकृत-व्याकरण के पूर्व में प्रकाशित दोनों भागों को पुनः प्रकाशित करने का निर्णय लिया और इस हेतु पूर्व प्रकाशक संस्था 'श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर' से अनुमति प्राप्त कर इस कार्य को प्रारम्भ किया। ___ हमारे लिए प्रसन्नता की बात है कि संस्थान के अकादमीय संरक्षक प्रो. सागरमल जैन, मानद निदेशक प्रो. प्रेम सुमन जैन का संस्थान के विकास में हर सम्भव सहयोग एवं मार्गदर्शन मिल रहा है। संस्थान के सह निदेशक डॉ. सुरेश सिसोदिया ने संस्थान के पूर्व प्रभारी श्री मानमल जी कुदाल के सहयोग से हेम-प्राकृत-व्याकरण के दोनों भागों का सम्पादन किया है, इस हेतु हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। प्रूफ संशोधन मंडॉ. उदय चंद जैन एवं डॉ. शक्ति कुमार शर्मा का जो सहयोग मिला है, उस हेतु उनका भी आभार प्रकट करते हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ का प्रकाशन उदारमना सुश्रावक एवं संस्थान के संरक्षक श्री सुन्दरलाल जी दुगड़, कोलकाता द्वारा संस्थापित 'रूप-रेखा प्रकाशन निधि' के अन्तर्गत किया जा रहा है. इस हेत हम श्री सन्दरलाल जी दुगड़ के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। ___ ग्रंथ के सुन्दर एवं सत्वर मुद्रण के लिए हम न्यू युनाईटेड प्रिन्टर्स, उदयपुर को धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। सरदारमल कांकरिया
वीरेन्द्र सिंह लोढ़ा अध्यक्ष
महामंत्री
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
(सम्पादकीय) आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत प्राकृत व्याकरण जिसकी सरल हिन्दी व्याख्या उपाध्याय पण्डितरत्न श्री प्यारचन्दजी महाराज ने अत्यन्त परिश्रम पूर्वक की थी और उस प्राकृत व्याकरण का दो भागों में प्रकाशन वर्ष 1967 में श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर द्वारा किया गया था। प्राकृत भाषा एवं व्याकरण जिज्ञासु पाठकों के लिए प्राकृत व्याकरण की यह कृति अत्यन्त महत्वपूर्ण थी किन्तु 40 वर्ष की दीर्घ अवधि में यह पुस्तक वर्तमान में प्रायः अप्राप्य (Out of Print) हो गई है।
आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर ने इस पुस्तक की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए पूर्व प्रकाशक संस्था से अनुमति प्राप्त कर 'हेम प्राकृत व्याकरण' के दोनों भागों को पुनः सम्पादित कर नवीन रूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया और यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। मुझे प्रसन्नता है कि प्राकृत भाषा एवं व्याकरण के जिज्ञासुजनों के लिए अनुपलब्ध यह ग्रन्थ अब आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर द्वारा नवीन रूप से सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत दोनों संस्करणों के सम्पादन में मुझे संस्थान के पूर्व प्रभारी श्री मानमल कुदाल का विशेष सहयोग मिला, इस हेतु मैं हदय से उनका आभार प्रकट करता हूं। साथ ही डॉ. उदय चन्द जैन एवं डॉ. शक्ति कुमार शर्मा ने प्रूफ संशोधन में जो सहयोग दिया, उस हेतु उनके प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन एवं प्रूफ संशोधन में अत्यन्त सावधानी रखी गई है फिर भी दृष्टिदोष के कारण अथवा मानवीय स्वभावगत दुबर्लता के कारण यदि कहीं कोई अशुद्धि प्रतीत हो तो कृपालु पाठकगण उसे सुधार कर पढ़ने की कृपा करें। शब्दों की सिद्धि और साधनिका में प्रत्येक स्थान पर अनेकानेक सूत्रों की संख्या और क्रम दिये गये हैं। अतः हजारों शब्दों की सिद्धि में हजारों बार सूत्र-क्रम-संख्या का निर्देशन करना पड़ा है ऐसी स्थिति में सूत्र-क्रम-संख्या में कहीं-कहीं पर असम्बद्धता प्रतीत हुई हो, 'हैं' के स्थान 'है', 'है' के स्थान 'है', 'रेफ्' के स्थान 'पूर्ण अक्षर', 'पूर्ण अक्षर' के स्थान पर 'रेफ्', 'ब' के स्थान पर 'व','व' के स्थान पर 'ब', 'ब' के स्थान पर '' अथवा 'ज','' के स्थान 'अ' अथवा 'ज' तथा 'हलन्त अक्षरों" के स्थान पर पूर्ण अक्षर' अथवा 'पूर्ण अक्षर' के स्थान पर हलन्त अक्षर' हुए हैं, इस बात की पूर्ण सम्भावना है। अतः विज्ञ-पाठक से उसे सुधार कर पढ़ने का परम अनुग्रह है।
प्रस्तुत संस्करण के अक्षर टंकण का कार्य अत्यन्त परिश्रम पूर्ण था किन्तु श्री ताराचंद प्रजापत ने पूरे मनोयोग के साथ इस कार्य को पूर्णता प्रदान की, इस हेतु मैं उन्हें भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।
डॉ. सुरेश सिसोदिया
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशन सहयोगी)
श्रीमान् सुन्दरलाल जी दुगड़ सामाजिक क्षेत्र में कार्य करते हुए मुझे पांच दशक का दीर्घ अनुभव है। इस अवधि में विभिन्न सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थानों तथा श्रीसंघों आदि के माध्यम से शिक्षा, सेवा और चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य करने और आर्थिक संसाधन प्राप्त करने का भी मुझे एक दीर्घ अनुभव है। सामाजिक क्षेत्र में कार्य करते हुए अनेक व्यक्तियों और दानदाताओं से निकट का सम्पर्क रहा है। करोड़ों-करोड़ों रूपये का अनुदान उदारमना महानुभावों से प्राप्त कर रचनात्मक कार्यों में विनियोजित करने का मुझे अच्छा अनुभव रहा है। कई व्यक्तियों से मैं प्रभावित भी हूँ किन्तु इन सब में 'सुन्दरलाल दुगड़' का नाम लेते हुए मुझे अत्यन्त उल्लास होता है। ___ मैंने अपने सामाजिक जीवन में 'सुन्दर लाल दुगड' जैसा उदारमना व्यक्ति नहीं देखा। मैंने इन्हें सदैव अपने अनुज के रूप में ही महसूस किया है। सामाजिक कार्यों में सहभागिता की प्रेरणा यद्यपि मुझे मेरे अग्रज 'श्री पारसमलजी कांकरिया' से मिली किन्तु उसमें उल्लास एवं नवीन संचार सन्दरलाल दगड़ की उदारतापूर्ण दान देने की शैली से हुआ है। मेरे आग्रह पर कई दानदाताओं ने बड़ी मात्रा में अर्थ सहयोग किया है, उन सबको स्मरण करते हुए भी जब मैं इनकी ओर दृष्टि डालता हूं तो यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि मैं किसी भी रचनात्मक कार्य हेतु इनसे अनुदान दिलवाना चाहूं, यह बात ये मुझसे सुनने की अपेक्षा मेरी भावना को समझ कर तत्काल ही उदारतापूर्वक अनुदान देने में सदैव अग्रणी रहते हैं। 'नेकी कर और भूल जाओ' इस उक्ति को इन्होंने अपने जीवन व्यवहार में आत्मसात कर रखा है। विगत एक दशक में सम्पूर्ण भारत के विभिन्न प्रांतों में सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से इन्होंने स्कूलों, हॉस्पीटलों, छात्रावासों, स्थानकों, मंदिरों आदि में करोड़ों रूपये के स्थाई निर्माण कार्य करवाये हैं। साथ ही निर्धन एवं जरूरतमंदों तथा विधवाओं को आर्थिक सहयोग, छात्रों को शैक्षणिक सहयोग आदि देने में ये सदैव अग्रणी रहते हैं। किसी को भी अनुदान देने में यश
और प्रतिष्ठा प्राप्ति करने का अंश मात्र भाव भी मैंने इनमें कभी नहीं देखा। ये सदैव निस्पृह भाव से अनुदान देते हैं। इनकी दानशीलता और उदारवृत्ति की प्रशंसा करने की अपेक्षा मैं जिनदेव से कामना करता हूं कि 'लक्ष्मी' की कृपा इन पर सदैव बनी रहे और ये इसी प्रकार उदारता पूर्वक अनुदान देकर समाज के जरूरतमंद व्यक्तियों और संस्थाओं को सम्बल प्रदान करते रहे।
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
VI : हेम प्राकृत व्याकरण
दो वर्ष पूर्व एक समारोह में कलकत्ता के कुछ साथियों के साथ उदयपुर जाने का प्रसंग बना तब आगम संस्थान के एक कार्यक्रम में सुन्दरलाल जी भी मेरे साथ आए। वहां जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान डॉ. सागरमल जी जैन का विद्वत्ता पूर्ण उद्बोधन सुनने को मिला, डॉ. सा. ने अपने उद्बोधन में हेम प्राकृत व्याकरण' के दोनों भाग प्रकाशित करने तथा अन्य प्रकाशनों के लिए आगम संस्थान के समक्ष आर्थिक समस्या बनी रहने का जिक्र किया तब तत्काल ही इन्होंने आगम संस्थान की इस समस्या का सामाधान अपनी प्रिय पुत्री श्रीमती रूपरेखा के नाम से 'रूपरेखा प्रकाशन निधि' की स्थापना करके किया और प्रारम्भिक रूप से तत्काल ही इसमें पांच लाख रुपये की राशि भेंट की और समय-समय पर इस कोष में और अभिवृद्धि करने का आश्वासन भी दिया। इसी का परिणाम है कि आज श्री सुन्दरलाल जी दुगड़ के अर्थ सहयोग से हेम प्राकृत व्याकरण के दोनों भागों का प्रकाशन 'रूपरेखा प्रकाशन निधि के माध्यम से किया जा रहा है। इस हेतु मैं स्वयं अपनी ओर से तथा संस्थान परिवार की ओर से श्री सुन्दरलाल जी दुगड़ का हार्दिक आभार प्रकट करता हूं। जिनदेव से कामना करता हूं कि ये सस्वथ्य शतायु हों और अपने आत्मबल से अर्जित सम्पत्ति का विनियोजन इसी प्रकार रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों में सदैव करते रहें।
सरदारमल कांकारिया
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
क्र.सं. विषय 1. प्रकाशकीय 2. संपादकीय 3. प्रकाशन सहयोगी 4. व्याख्याकर्ता का वक्तव्य 5. हिन्दी व्याख्याता पं. रत्न उपाध्याय श्री प्यारचंद जी महाराज 6. ग्रन्थकार आचार्य हेमचन्द्र और उनका प्राकृत व्याकरण 7. ग्रन्थ की पूर्व प्रकाशक संस्था के प्रति आभार 8. प्राकृत व्याकरणस्य मूल-सूत्राणि 9. प्राकृत व्याकरण सूत्रानुसार-विषयानुक्रमणिका 10. प्राकृत व्याकरण-प्रियोदया हिन्दी व्याख्या 11. परिशिष्ठ भाग-अनुक्रमणिका 12. संकेत बोध 13 व्याकरण-आगत-कोष-रूप-शब्द-सूची 14. शुद्धि पत्र
XVIII
XIX
XXVIII
377
378
379
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याख्याकर्ता का वक्तव्य यह परम प्रसन्नता की बात है कि आजकल दिन प्रतिदिन प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन की वृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ रही है। किसी भी भाषा के अध्ययन में व्याकरण का पठन करना सर्वप्रथम आवश्यक होता है।
आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत प्राकृत-व्याकरण प्राकृत भाषा के लिए सर्वाधिक प्रामाणित और परिपूर्ण मानी जाती है। इसका पूरा नाम 'सिद्ध हेम शब्दानुशासन' है; यह आठ अध्यायों में विभक्त है; जिनमें से सात अध्यायों में तो संस्कृत व्याकरण की संयोजना है और आठवें अध्याय में प्राकत-व्याकरण की विवेचना है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकत-व्याकरण को चार पादों में विभाजित किया है, जिनमें से प्रथम और द्वितीय पाद में तो वर्ण-विकार तथा स्वर-व्यञ्जन से सम्बंधित नियम प्रदान किये हैं तथा अव्ययों का भी वर्णन किया है। तृतीय पाद में व्याकरण संबंधी शेष सभी विषय संगुंफित कर दिये हैं। चतुर्थ पाद में सर्वप्रथम धातुओं का बयान करके तत्पश्चात् निम्नोक्त भाषाओं का व्याकरण समझाया गया है :(1) शौरसेनी (2) मागधी (3) पैशाची (4) चूलिका पैशाची और (5) अपभ्रंश।
ग्रन्थकर्ता ने पाठकों एवं अध्येताओं की सुगमता के लिये सर्वप्रथम संक्षिप्त रूप से सारगर्भित सूत्रों की रचना की है; एवं तत्पश्चात् इन्हीं सूत्रों पर प्रकाशिका' नामक स्त्रोपज्ञवृत्ति अर्थात् संस्कृतटीका की रचना की है। आचार्य हेमचन्द्रकृत यह प्राकृत व्याकरण भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिये आजकल भारत के अनेक राजकीय एवं निजि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में प्राकत व्याकरण के अध्ययन हेतु मान्य ग्रन्थ है। ऐसी उत्तम और उपादेय कति की विस्तृत किन्तु सरल हिन्दी व्याख्या की अति आवश्यकता चिरकाल से अनुभव की जाती रही है; मेरे समीप रहने वाले श्री मेघराजजी म., श्री गणेशमुनिजी, श्री उदयमुनिजी आदि संतों ने जब इस प्राकृत-व्याकरण का अध्ययन करना प्रारम्भ किया था तब इन्होंने भी आग्रह किया था कि ऐसे उच्च कोटि के ग्रन्थ की सरल हिन्दी व्याख्या होना नितान्त आवश्यक है; जिससे कि अनेक व्यक्तियों को और भाषा प्रेमियों को प्राकृत-व्याकरण के अध्ययन का मार्ग सुलभ तथा सरल हो जाये। __ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधान आचार्य श्री 1008 श्री आत्मारामजी महा सा , शास्त्रज्ञ पं. रत्न श्री कस्तूरचंदजी महाराज, पं. मुनि श्री प्रतापमलजी महा , श्री मन्नालालजी महा. एवं श्री पन्नालालजी महा आदि संत-मुनिराजों की भी प्रेरणा, सम्मति, उद्बोधन एवम् सहयोग प्राप्त हुआ जिससे कि प्राकृत व्याकरण सरीखे ग्रन्थ को राष्ट्र में समुपस्थित करना अत्यन्त लाभदायक तथा हितावह प्रमाणित होगा। तदनुसार विक्रम संवत् 2016 के रायचूर (कर्णाटक-प्रान्त) के चातुर्मास में इस हिन्दी व्याख्या ग्रन्थ को तैयार किया गया। __ आशा है कि जनता के लिये यह उपयोगी सिद्ध होगा। इसमें मैंने ऐसा क्रम रखा है कि सर्व प्रथम मूल-सूत्र, तत्पश्चात मूल ग्रन्थकार की ही संस्कृत वृत्ति प्रदान की है; तदनन्तर मूल-वृत्ति पर पूरा-पूरा अर्थ बतलाने वाली विस्तृत हिन्दी व्याख्या लिखी है; इसके नीचे ही मूल वृत्ति में दिये गये सभी प्राकृत शब्दों के संस्कृत पर्यायवाची शब्द देकर तदनन्तर उस प्राकृत-शब्द की रचना में आने वाले सूत्रों का क्रम पाद-संख्या पूर्वक प्रदान करते हुए शब्द-साधनिका की रचना की गई है। यों ग्रन्थ में आये हुए हजारों की संख्या वाले सभी प्राकृत शब्दों की अथवा पदों की प्रामाणिक रूप से सूत्रों का उल्लेख करते हुए विस्तृत एवं उपादेय साधनिका की संरचना की गई है। इससे प्राकृत-शब्दों की रचना-पद्धति एवम् इसकी विशेषता सरलता के साथ समझ में आ सकेगी। पुस्तक को अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का भरसक प्रयत्न किया है। इसीलिये अन्त में प्राकत-रूपावलि तथा शब्द-कोष की भी संयोजना कर दी गई है। इससे शब्द के अनुसंधान में अत्यन्त सरलता का अनुभव होगा। ___ श्री पी एल वैद्य द्वारा सम्पादित और श्री भंडारकर ऑरिएण्टल रीसर्च इंस्टीट्यूट, पूना नं. 4 द्वारा प्रकाशित प्राकृत-व्याकरण के मूल संस्कृत भाग के आधार से मैनें 'प्रियोदय हिन्दी-व्याख्या' रूप कृति का इस प्रकार निर्माण किया है; एतदर्थ उक्त महानुभाव का तथा उक्त संस्था का मैं विशेष रूप से नामोल्लेख करता हूँ।
आशा है सहदय सज्जन इस कृति का सदुपयोग करेंगे। विज्ञेषु किम् बहुना? दीप मालिका, विक्रमाब्द 2016
प्रस्तुतकर्ता रायचूर (कर्णाटक)
उपाध्याय मुनि प्यारचंद
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
| हिन्दी-व्याख्याता पं रत्न उपाध्याय श्री प्यारचंद जी महाराज आचार्य हेमचन्द्र रचित प्राकृत-व्याकरण के ऊपर सरल और प्रसाद गुण सम्पन्न हिन्दी टीका के प्रणेता उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज सा है। आप श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय में प्रख्यात मुनिराज हो गये हैं। आपकी संगठन-शक्ति, व्यवस्था-कौशल, समयज्ञता एवं विचक्षणता तो आदर्श ही थी; किन्तु आपके हदय की विशालता, प्रकृति की भद्रता, गुणों की ग्राह्यता, विद्याभिरूचि, साहित्य-प्रेम और साहित्य-रचना-शक्ति भी महान थी। आप अपने गुरुदेव श्री 1008 श्री चौथमलजी महाराज सा के प्रधान और योग्य सम्मतिदाता शिष्य थे। आपने विक्रम संवत् 1669 के फाल्गुन शुक्ला पंचमी तिथि पर जैन-मुनि दीक्षा अंगीकार की थी। यह दीक्षा समारोह भारतीय-इतिहास में सुप्रसिद्ध वीर-भूमि चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में सुसंपन्न हुआ था। आपने अपने पूज्य गुरुदेव की जैसी सेवा की ओर जैसा उनका यश-सौरभ प्रसारित किया; वह स्थानकवासी मुनियों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य घटना है। ___ आप बाल-ब्रह्मचारी थे; आपने सतरह वर्ष जैसी प्रथम यौवन-अवस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आपका जन्म स्थान रतलाम (मध्य प्रदेश) है और आपके माता-पिता का शुभ नाम कम से श्रीमती मानकुंवरबाई और श्री पूनमचंदजी सा बोथरा (ओसवाल-जाति) है। आपका जन्म विक्रम संवत् 1952 है। जिस दिन से आपने जैन मुनि की दीक्षा-ग्रहण की थी; उस दिन से आपने आने गुरुदेव की अनन्य-भक्ति भाव सेवा-शुश्रुषा करनी प्रारम्भ कर दी। गुरुदेव की प्रसिद्धि के पीछे आपने अपने व्यक्तित्व को भी विस्मरण-सा कर दिया था। ___ आप स्पष्ट वक्ता थे और निर्भीक उपदेशक भी। इसी प्रकृति विशेषता के कारण से अखिल भारतीय स्थानकवासी समाज के सभी मुनियों को एक सूत्र में बांधने के शुभ प्रयन्न में उल्लेखनीय सहयोग प्रदान करके अपनी आपने कुशाग्र बुद्धि का जैसा प्रदर्शन किया; वह जैन मुनि इतिहास का एक अत्यन्त उज्ज्वल अंश है।
स्थानकवासी समाज के विद्वान मुनिवरों ने तथा सद्-गृहस्थ नेताओं ने आपकी विद्वत्ता और सच्चारित्र-शीलता को देख करके ही 'गणी' 'मंत्री' और 'उपाध्याय' जैसी महत्त्वपूर्ण पदवियों से आपको विभूषित किया था। आप 'हिन्दी, गुजराती, प्राकृत, संस्कृत, मराठी और कन्नड़' यों छह भाषाओं के ज्ञाता थे। आपने अनेक साहित्यिक पुस्तकों की रचना की है; जिनमें यह प्राकृत-व्याकरण, जैन-जगत के उज्ज्वल तारे और जैन जगत की महिलाएं आदि प्रमुख हैं।
आपके उपदेशों से प्रेरित होकर जैन-सद् गृहस्थों ने छोटी बड़ी अनेक संस्थाओं को संस्थापित किया है। आपने अपने जीवनकाल में पैदल ही पैदल हजारों माइलों की पदयात्रा की है तथा सैकड़ों हजारों श्रोताओं को सन्मार्ग पर प्रेरित किया। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मेवाड़, मालवा, मध्य प्रदेश, बरार, खानदेश, बम्बई, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र प्रदेश और कर्णाटक प्रान्त आदि विविध भारतीय क्षेत्र आपके चरणरज से गौरवान्वित हुए हैं।
नित नूतन पढ़ने में और सर्व ग्राह्य-भाग को संग्रह करने में तथा कल्याण मय पाठ्य सामग्री को प्रकाशित करने में आपकी हार्दिक अभिरूचि थी। इस संबंध में इतना ही पर्याप्त होगा कि चौंसठ वर्ष जैसी पूर्ण वृद्धावस्था में भी रायचूर के चातुर्मास में आप कन्नड़ भाषा का नियमित रूप से प्रतिदिन अध्ययन किया करते थे एवं कन्नड़ भाषा के वाक्यों को एक बाल विद्यार्थी के समान उच्च स्वर से कण्ठस्थ याद किया करते थे। आगन्तुक दर्शनार्थी और उपस्थित श्रोता-वृन्द आपके मधुर, कोमल कांत पदावलि से आनंद-विभोर हो जाया करते थे। आप जैन-दर्शन के अगाध विद्वान थे इसलिये जैन-दर्शन पर आपके अधिकार पूर्ण व्याख्यान होते थे। यह लिखना सर्वसाधारण जनता की दृष्टि से उचित ही समझा जायेगा कि जैन-मुनि पांच महाव्रतों के धारक होते हैं; तदनुसार आप 'अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह' व्रत के मन, वचन एवं काया से सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में भी प्रतिपालक थे।
हमारे चरित्र-नायक श्री उपाध्यायजी महाराज अखिल भारतीय स्थानकवासी समाज में अन्यन्त श्रद्धा पात्र तथा
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
x : हेम प्राकृत व्याकरण प्रतिष्ठा-पात्र मुनिवर थे; यही कारण है कि स्थानकवासी समाज के सभी मुनिराजों ने आपके स्वर्गारोहण हो जाने पर हादिक श्रद्धाजलि प्रकट की थी; आपके यशो-पूत गुणों का अभिनंदन किया था और आपके अभाव में उत्पन्न समाज की क्षति को अपूरणीय बतलाया था। इसी प्रकार से सैकड़ों गांवों, कस्बों तथा शहरों के जैन श्री संघों ने शोक-सभाएं करके आपके गुणानुवाद गाये थे; और हार्दिक खिन्नता-सूचक शोक प्रस्ताव पारित किये थे। उन शोक-प्रस्तावों का सारांश 'उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज के जीवन-चरित्र' से नीचे उघृत किया जा रहा है-'आप गम्भीर, शांत स्वभावी, सरल प्रकृति के संत थे। सौजन्य, सादगी एवं भव्यता की आप प्रतिमूर्ति थे। आपकी मंगल वाणी हदय में अमृत उडेल देती थी। आपके सजीव व्याख्यानों का श्रोताओं के हदय पर तलस्पर्शी प्रभाव पड़ता था। आप प्रभावशाली एवं महान उपकारी संत थे। वाणी, व्यवहार और विचार की समन्वयात्मक त्रिवेणी से उपाध्याय जी महाराज का व्यक्तित्व सदैव भरापूरा रहता था। उपाध्याय जी महाराज आगम-ज्ञाता थे, पण्डित थे, मिलनसार, शांत गम्भीर प्रतिज्ञावान और विचक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे। आप अनभवी, निस्पही, त्यागी, उदार और चारित्रवान मुनिराज थे। वे एक महान संत थे; उनका जीवन-आदर्श तथा उच्च था। यथानाम तथागुण के अनुसार वे प्यार की मूर्ति थे। वे सरल स्वभावी
और पर उपकारी थे। उपाध्याय जी महराज अपने जीवन में समाज को स्नेह का सौरभ और विचारों के प्रकाश निरन्तर देते रहे थे आप जैन समाज में एक चमकते हुए सितारे थे। आपका दिव्य जीवन प्रकाश स्तम्भ समान था। आप बहुत ही मिलनसार तथा प्रेम मूर्ति थे। समाज के आप महान मूक सेवक थे। "स्वकृत सेवा के फल से प्राप्त होने वाले यश से दूर रहना" यह आपके सन्दर जीवन की एक विशिष्ट कला थी। आपका जीवन ज्योतिर्मय, विकसित और विश्व-प्रेम की सुवासना से सुवासित था। आप समाज में एक आदर्श कार्यकर्ता थे' इत्यादि-इत्यादि रूप से उक्त शोक सभाओं में आपके मौलिक एवं सहजात गुणों पर प्रकाश डाल गया था।
विक्रम संवत 2016 में पौष शुक्ला दशम शुक्रवार को दिन के 9.15 बजे आपने भावना पूर्वक सहर्ष व्रत' के रूप में आहार पानी ग्रहण करने का सर्वथा ही परित्याग कर दिया था; ऐसे व्रत को जैन परिभाषा में संथारा व्रत' कहा जाता है। ऐसे इस महान व्रत को अंतिम समय आदर्श साधना के रूप में ग्रहण करके आप ईश-चिंतन में संलग्न हो गये थे; धर्म-ध्यान और उत्कृष्ट आत्म चिंतन में ही आप तल्लीन हो गये थे। यह स्थिति आधे घंटे तक रही एवं उसी दिन 945 बजे जैन समाज तथा अपने प्रिय शिष्यों से एवं मुनिवरों से सभी प्रकार का भौतिक संबंध परित्याग करके स्वर्ग के लिए अन्तर्ध्यान हो गये। ___ आपकी अंतिम रथ-यात्रा में लगभग बीस हजार की मानव भेदिनी उपस्थित थी; जो कि अनेक गांवों से आ-आकर एकत्र हुई थी। इस प्रकार इस प्राकृत-व्याकरण के हिन्दी व्याख्याता अपने भौतिक शरीर का परित्याग करके तथा अपनी अमर यशोगाथा की 'चारित्र-साहित्य-सेवा और त्याग' के क्षेत्र में परिस्थापना करके परलोकवासी हो गये।
आशा है कि प्राकृत व्याकरण के प्रेमी आपकी शिक्षा-प्रद यशोगाथा से कुछ न कुछ शिक्षा अवश्यमेव ग्रहण करेंगे। इति शुभम
उदय मुनि (सिद्धात शास्त्री)
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थकार आचार्य हेमचन्द्र और उनका प्राकृत व्याकरण
जैनाचार्यों में आचार्य हेमचन्द्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि हैं। उनका जन्म गुजरात के धन्धुका नामक गाँव में वि. सं. ११४५ (सन् १०८८) की कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था । हेमचन्द्र के पिता चाचदेव (चाचिगदेव) शैव धर्म को मानने वाले वणिक्थे । उनकी पत्नी का नाम पाहिनी था। हेमचन्द्र के बचपन का नाम चांगदेव था। चांगदेव बचपन से ही प्रतिभासम्पन्न एवं होनहार बालक था। उसकी विलक्षण प्रतिभा एवं शुभ लक्षणों को देखकर आचार्य देवचन्द्रसूरि ने माता पाहिनी से चांगदेव को मांग लिया व उसे अपना शिष्य बना लिया। आठ वर्ष की अवस्था में चांगदेव की दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के उपरान्त उसका नाम सोमचन्द्र रखा गया । सोमचन्द्र ने अपने गुरु से तर्क, व्याकरण, काव्य, दर्शन, आगम आदि अनेक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। उनकी असाधारण प्रतिभा और चरित्र के कारण सोमचन्द्र को २१ वर्ष की अवस्था में वि. सं. ११६६ में सूरिपद प्रदान किया गया। तब सोमचन्द्र का नाम हेमचन्द्रसूरि रख दिया गया। हेमचन्द्रसूरि का गुजरात राज्य परिवार से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। उनके पाण्डित्य से प्रभावित होकर गुर्जरेश्वर जयसिंह सिद्धराज ने उन्हें व्याकरण ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा दी थी। हेमचन्द्रसूरि ने अपनी अनन्य प्रतिभा का प्रयोग करते
जो संस्कृत और प्राकृत भाषा का प्रसिद्ध व्याकरण लिखा उसका नाम 'सिद्ध- हेम - व्याकरण' रखा, जिससे सिद्धराज का नाम भी अमर हो गया। हेमचन्द्र का कुमारपाल के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध था । कुमारपाल का राज्याभिषेक वि. सं. १९६४ में हुआ था, किन्तु इस राज्यप्राप्ति की भविष्यवाणी हेमचन्द्र ने सात वर्ष पहले ही कर दी थी। कुमारपाल ने हेमचन्द्र से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त की थी अतः वह उन्हें अपना गुरु मानता था । गुजरात के प्रतापी राजाओं की इस घनिष्ठता के कारण हेमचन्द्रसूरि ने निश्चिन्त होकर अनेक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों की रचना की है।
आचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण, छन्द, अलंकार, कोष, काव्य एवं चरित आदि विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। उसमें से कुछ प्रमुख ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है
१. सिद्व हेमशब्दानुशासन- इस विशाल ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं। व्याकरण के क्षेत्र में जो स्थान पाणिनि तथा शाकटायन के व्याकरण ग्रन्थों को प्राप्त है, वही प्रतिष्ठा हेमचन्द्र के इस ग्रन्थ को मिली है। इस ग्रन्थ के प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण एवं आठवें अध्ययन में प्राकृत व्याकरण का वर्णन है। पूरे ग्रन्थ में ३५६६ सूत्र हैं। प्रभावकचरित से ज्ञात होता है कि इस व्याकरण ग्रन्थ की तीन सौ विद्वानों ने प्रतिलिपियाँ करके उन्हें देश के कोने-कोने में पहुँचाया था । कालान्तर में भी इस व्याकरण पर सर्वाधिक व्याख्या साहित्य लिखा गया। इसी व्याकरणग्रन्थ को समझने के लिए हेमचन्द्र ने द्वयाश्रय महाकाव्य की रचना की थी। हेमशब्दानुशासन सांस्कृतिक दृष्टि से भी विशेष महत्व का ग्रन्थ है।
२. प्रमाणमीमांसा - जैन न्याय के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोग व्यवच्छेदिका एवं अयोगव्यवच्छेदिका नामक द्वात्रिंशिकाओं के अतिरिक्ति " प्रमाण-मीमांसा' नामक ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण भारतीय दर्शन को जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर दिया गया है। योगशास्त्र इनकी दूसरी महत्वपूर्ण दार्शनिक रचना है।
३. त्रिराष्टिशलाकापुरुषचरितं - इस महान ग्रन्थ की रचना कुमारपाल के अनुरोध से आचार्य हेमचन्द्र ने की थी । इस विशालकाय ग्रन्थ में जैनों के प्रसिद्ध कथानक, इतिहास, पौराणिक कथाओं एवं धर्म दर्शन का विस्तार से वर्णन हुआ है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ १० पर्वों में विभक्त है। गुजरात के समाज एवं संस्कृति की जानकारी के लिए भी इस ग्रन्थ में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। काव्य एवं शब्दशास्त्र की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ का विशेष महत्व है। ग्रन्थ की प्रशस्ति से कई ऐतिहासिक तथ्य भी प्राप्त होते हैं।
४ कोशग्रन्थ- आचार्य हेमचन्द्र ने कोश साहित्य से सम्बन्धित चार ग्रन्थ लिखे हैं- अभिधानचिन्तामणि, हेम अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला एवं निघंटुकोश । इन ग्रन्थों का संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं के
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
XII : हेम प्राकृत व्याकरण
शब्द-भण्डार को समझने के लिए विशेष महत्व है। ५. काव्यानुशासन : इस ग्रन्थ में आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यशास्त्र का स्वतन्त्र रूप से विवेचन किया है। काव्य की
परिभाषा एवं उसके भेद-प्रभेदों में कई नई स्थापनाएँ इस ग्रन्थ में की गई हैं। ६. छन्दोनुशासन : इस ग्रन्थ में छन्दशास्त्र का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। ७. व्याश्रयमहाकाव्य : संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में निबद्ध यह ग्रन्थ आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिभा का निकष है।
इसी ग्रन्थ का प्राकृत अंश कुमारपालचरित के नाम से प्रसिद्ध है। प्राकृत कुमारपालचरित जैन साहित्य में बहु प्रचलित ग्रन्थ है। पूर्णकलशगणि ने इस पर टीका लिखी है। परवर्ती कई ग्रन्थकारों ने इस काव्य को अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। बम्बई संस्कृत सीरीज के अन्तर्गत स. पा. पण्डित द्वारा १९०० ई. में इसका प्रथम बार सम्पादित संस्करण प्रस्तुत किया गया। १९३६ में पी एल वैद्य द्वारा इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है। इसके साथ परिशिष्ट में हेमचन्द्र-प्राकृत व्याकरण भी प्रकाशित की गई। प्रो. केशवलाल हिम्मतलाल कामदार द्वारा इस ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। हिन्दी अनुवाद के साथ कुमारपालचरित को पहली
बार श्री भगवती मुनि 'निर्मल' द्वारा प्रस्तुत किया गया है। प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ :
उपलब्ध सभी प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके ग्रन्थों का परिचय डॉ. पिशल ने अपने ग्रन्थ में दिया है। डोल्ची नित्ति ने अपनी जर्मन पुस्तक 'ले ग्रामेरिया प्राकृत' (प्राकृत के वैयाकरण) में
आलोचनात्मक शैली में प्राकृत के वैयाकरणों पर विचार किया है। इधर प्राकृत व्याकरण के बहुत से ग्रन्थ छपकर प्रकाश में भी आये हैं। उनके सम्पादकों ने भी प्राकृत वैयाकरणों पर कुछ प्रकाश डाला है। इस सब सामग्री के आधार पर प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों का परिचयात्मक मूल्यांकन हमने अन्यत्र प्रस्तुत किया है। आचार्य भरत :
प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में जिन संस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये हैं, इनमें भरत सर्व प्रथम हैं। प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-सर्वस्व के प्रारम्भ में अन्य प्राचीन प्राकृत वैयाकरणों के साथ भरत को स्मरण किया है। भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नहीं मिलता है। भरतनाट्यशास्त्र के १७वें अध्याय में ६ से २३ श्लोकों में प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त ३२वें अध्याय में प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं, किन्तु उनके स्रोतों का पता नहीं चलता है। ___ डॉ. पी एल वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन व्याकरण के १७वें परिशिष्ट में भरत के श्लोकों को संशोधि गत रूप में प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम वर्णित हैं। डॉ. वैद्य ने उन नियमों को भी स्पष्ट किया है। भरत ने कहा है कि प्राकृत में कौन से स्वर एवं कितने व्यंजन नहीं पाये जाते । कुछ व्यंजनों का लोप होकर उनके केवल स्वर बचते हैं। यथा
वचति कगतदयवा लोपं, अत्थं च से वहति सरा ।
खघथधभा उण हत्तं उति अत्थं अमुंचंता ।।८॥ प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति का भरत ने अंकित किया है कि शकार को सकार एवं नकार का सर्वत्र णकार होता है। यथा- विष-विस, शङ्का संका आदि । इसी तरह ट ड, ठ ढ, प व, ड ल, च य, थ ध, प फ आदि परिवर्तनों के सम्बन्ध में संकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा श्लोक १८ से २४ तक में उन्होंने संयुक्त वर्णो के परिवर्तनों को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त में कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैने कहे हैं बाकी देशी भाषा में प्रसिद्ध ही हैं, जिन्हें विद्वानों को प्रयोग द्वारा जानना चाहिये
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : XIII
-
एवमेतन्मया प्रोक्तं किंचित्प्राकृतलक्षणम् ।
शेषं देशीप्रसिद्वं च ज्ञेयं विप्राः प्रयोगताः ।। प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु महत्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भरत के समय में भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अतः भरत ने केवल सामान्य नियमों का ही संकेत करना आवश्यक समझा है। भरत के ये व्याकरण के नियम प्रमुख रूप से शौरसेनी प्राकृत के लक्षणों का विधान करते हैं। चण्ड-प्राकृतलक्षण :
प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में चंडकृत प्राकृतलक्षण सर्व प्राचीन सिद्ध होता है। भूमिका आदि के साथ डा० रूडोल्फ होएनले ने सन् १८८० में बिब्लिओथिका इंडिया में कलकत्ता से इसे प्रकाशित किया था । सन् १९२९ में सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला की ओर से यह अहमदाबाद से भी प्रकाशित हुआ है। इसके पहले १९२३ में भी देवकीकान्त ने इसको कलकत्ता से प्रकाशित किया था । ग्रन्थ के प्रारम्भ में वीर (महावीर) को नमस्कार किया गया है तथा वृत्ति के उदाहरणों में अर्हन्त (सूत्र ४६ व २४) एवं जिनवर (सूत्र ४८) का उल्लेख है। इससे यह जैन कृति सिद्ध होती है। ग्रन्थकार ने वृद्धमत के आधार पर इस ग्रन्थ के निर्माण की सूचना दी है, जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि चण्ड के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे। यद्यपि इस ग्रन्थ में रचना काल सम्बन्धी कोई संकेत नहीं है, तथापि अन्तःसाक्ष्य के आधार पर डॉ हीरालाल जैन ने इसे ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना स्वीकार किया है।
प्राकृतलक्षण में चार पाद पाये जाते हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में चंड ने प्राकृत शब्दों के तीन रूपों- तद्भव, तत्सम एवं देश्य- को सूचित किया है तथा संस्कृतवत् तीनों लिंगों और विभक्तियों का विधान किया है। तदनन्तर चौथे सूत्र में व्यत्यय का निर्देश करके प्रथमपाद के ५वें सूत्र से ३५ सूत्रों तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्ति रूपों को बताया गया है। द्वितीय पाद के २९ सूत्रों में स्वर परिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययों का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजनों के परिवर्तनों का विधान है। प्रथम वर्ण के स्थान पर तृतीय का आदेश किया गया है। यथा
एकं > एगं, पिशाची > विसाजी, कृतं > कदं आदि । इन तीन पादों में कुल ९९ सूत्र हैं, जिनमें प्राकृत व्याकरण समाप्त किया गया है। होएनले ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रन्थ की अन्य चार प्रतियों में चतुर्थपाद भी मिलता है, जिसमें केवल ४ सूत्र हैं। इनमें क्रमशः कहा गया है - १- अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता, २- पैशाची में र् और स् के स्थान पर ल और न् का आदेश होता है, ३- मागधी में र् और स् के स्थान पर ल और श् का आदेश होता है तथा ४- शौरसेनी में त् के स्थान पर विकल्प से द् आदेश होता है। इस तरह ग्रन्थ के विस्तार,रचना और भाषा स्वरूप की दृष्टि से चंड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते हैं। हेमचन्द्र ने भी चंड से बहुत कुछ ग्रहण किया है। वररुचि-प्राकृत प्रकाश :
प्राकृत वैयाकरणों में चण्ड के बाद वररुचि प्रमुख वैयाकरण है। प्राकृतप्रकाश में वर्णित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है। अतः विद्वानों ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना है। विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी एक वररुचि थे। वे सम्भवतः प्राकृत प्रकाश के ही लेखक थे । छठी शताब्दी से तो प्राकृतप्रकाश पर अन्य विद्वानों ने टीकाएं लिखना प्रारम्भ कर दी थीं। अतः वररुचि ने ४-५वीं शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रन्थ लिखा होगा। प्राकृतप्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतों के अनुशासन की दृष्टि से इसमें अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं।
प्राकृतप्रकाश में कुल बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के ४४ सूत्रों में स्वरविकार एंव स्वरपरिवर्तनों का निरूपण है।
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
XIV : हेम प्राकृत व्याकरण
दूसरे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का विधान है तथा इसमें यह भी बताया गया है कि शब्दों के असंयुक्त व्यंजनों के स्थान पर कितने विशेष व्यंजनों का आदेश होता है । यथा - ( १ ) प के स्थान पर व - शाप - सावो ; (२) न के स्थान पर ण- वचन वअण, (३) श, ष के स्थान पर, स-शब्द = सद्दो, वृषभ-वसहो आदि। तीसरे परिच्छेद के ६६ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के लोप, विकास एंव परिवर्तनों का अनुशासन है। अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दों का नियमन चौथे परिच्छेद के ३३ सूत्रों में हुआ है । यथा १२वें सूत्र मोविन्दुः में कहा गया है कि अंति हलन्तम् को अनुस्वार होता है - वृक्षम् = वच्छं, भद्रम् = भदं आदि ।
पांचवे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में लिंग और विभक्ति का अनुशासन दिया गया है। सर्वनाम शब्दों के रूप और उनके विभक्ति प्रत्यय छठे परिच्छेद के ६४ सूत्रों में वर्णित हैं। आगे सप्तम परिच्छेद में तिङ्न्तविधि तथा अष्टम में धात्वादेश वर्णन है। प्राकृत का धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण तुलनात्मक दृष्टि से विशेष महत्व का है। नवमें परिच्छेद में अव्ययों के अर्थ एवं प्रयोग दिये गये हैं। यथा- णवरः केवले ||७|| केवल अथवा एकमात्र के अर्थ में णवर शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरणार्थ - एसो णवर कन्दप्पो, एसा णवर सा रई । इत्यादि ।
यहाँ तक वररुचि ने सामान्य प्राकृत का अनुशासन किया है। इसके अनन्तर दसवें परिच्छेद के १४ सूत्रों में पैशाची भाषा का विधान है। १७ सूत्र वाले ग्यारहवें परिच्छेद में मागधी प्राकृत का तथा बारहवें परिच्छेद के ३२ सूत्रों में शौरसेनी प्राकृत का अनुशासन है। प्राकृत व्याकरण के गहन अध्ययन के लिए वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश एवं उसकी टीकाओं का अध्ययन नितान्त अपेक्षित है। महाराष्ट्री के साथ मागधी, पैशाची एवं शौरसेनी का इसमें विशेष विवेचन किया गया है। प्राकृतप्रकाश की इस विषयवस्तु से स्पष्ट है कि वररुचि ने विस्तार से प्राकृत भाषा के रूपों को अनुशासित किया है। चंड के प्राकृतलक्षण का प्रभाव वररुचि पर होते हुए भी कई बातों में उनमें नवीनता और मौलिकता है।
सिद्धहैमशब्दानुशासन :
प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचन्द्र के सिद्ध हैमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृत वैयाकरणों की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाएं विकसित हुई हैं। पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचन्द्र हैं (सन् १०८८ से ११७२ )। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इनकी विद्वत्ता की छाप इनके इस व्याकरण ग्रन्थ पर भी है। इस व्याकरण का अनेक स्थानों से प्रकाशन हुआ है। डा. पिशेल द्वारा सम्पादित होकर यह ग्रन्थ सन् १८७७-८० के बीच दो बार प्रकाशित हुआ है। डॉ. पी. एल. वैद्य द्वारा सम्पादित होकर १९३६ में यह प्राकृत व्याकरण छपा तथा संशोधित होकर १९५८ में इसका पुनः प्रकाशन हुआ। इसके गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी अनुवाद भी निकल चुके हैं। आगमवेत्ता पूज्य प्यारचंद जी महाराज द्वारा विशद हिन्दी व्याख्या के साथ ब्यावर से प्रकाशित इस ग्रन्थ के हिन्दी संस्करण में अनेक परिशिष्ट संलग्न हैं अतः उसकी विशेष उपयोगिता सिद्ध होती है। यह ग्रन्थ बहुत दिनों से अनुपलब्ध था, जिसका प्रकाशन आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर द्वारा अब किया जा रहा है।
हेमचन्द्र के इस व्याकरण ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं। प्रथम सात अध्यायों में उन्होंने संस्कृत व्याकरण का अनुशासन किया है, जिसकी संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में अलग महत्ता है। आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का निरूपण है। उसकी संक्षिप्त विषयवस्तु द्रष्टव्य है।
आठवें अध्याय के प्रथम पाद में २७१ सूत्र हैं। इनमें संधि, व्यंजनान्त शब्द; अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर - व्यत्यय और व्यंजन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है। इस पाद का प्रथम सूत्र अथ प्राकृतम् प्राकृत शब्द को स्पष्ट करते हुए यह निश्चित करता है कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के आधार पर सीखनी चाहिये । द्वितीय सूत्र बहुलम् द्वारा हेमचन्द्र ने प्राकृत के समस्त अनुशासनों को वैकल्पिक स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र ने न केवल साहित्यिक प्राकृतों को, अपितु व्यवहार की प्राकृत के रूपों को ध्यान में रखकर भी अपना व्याकरण लिखा है। इस पद के तीसरे सूत्र आर्षम् द्वारा ग्रन्थकार ने आर्षप्राकृत और सामान्य प्राकृत में भेद स्पष्ट किया है। इसके आगे के सूत्र स्वर आदि का अनुशासन
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : Xv
करते हैं। जिस बात को प्राचीन वैयाकरण चंड,वररुचि आदि ने संक्षेप में कह दिया था, हेमचन्द्र ने उसे न केवल विस्तार से कहा है. अपित अनेक नये उदाहरण भी दिये हैं। इस तरह प्राकत भाषा के विभिन्न स्वरूपों का सांगोपांग अनशासन हेमव्याकरण में हो सका है। ___ द्वितीयपाद के २१८ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तन, समीकरण, स्वर भक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययों का निरूपण है। यह प्रकरण आधुनिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। हेमचन्द्र ने संस्कृत के कई दयअर्थ वाले शब्दों को प्राकत में अलग-अलग किया है. ताकि भ्रान्तियाँ न हों। संस्कत के क्षण शब्द का अर्थ समय भी है और उत्सव भी । हेमचन्द्र ने उत्सव अर्थ में छणो (क्षणः) और समय अर्थ में खणो (क्षणः) रूप निर्दिष्ट किये हैं। इसी तरह हेम ने अव्ययों की भी विस्तृत सूची इस पाद में दी है। तृतीयपाद में १८२ सूत्र हैं, जिनमें कारक, विभक्तियों, कियारचना आदि सम्बन्धी नियमों का कथन किया गया है। शब्दरूप, कियारूप और कृत प्रत्ययों का वर्णन विशेष रूप से ध्यातत्व है। वैसे प्राकृतप्रकाश के समान ही इसका विवेचन हेम ने किया है, कारक व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डाला है। हेमप्राकृत व्याकरण का चतुर्थ पाद विशेष महत्वपूर्ण है इसके ४४८ सूत्रों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश प्राकृतों का शब्दानुशासन ग्रन्थकार ने किया है। इस पाद में धात्वादेश की प्रमुखता है। संस्कृत धातुओं पर देशी अपभ्रंश धातुओं का आदेश किया है। यथा- संस्कृत कथ्, प्राकृत-कह को बोल्ल, चव, जंप
आदि आदेश । मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची का अनुशासन तो प्राचीन वैयाकरणों ने भी संक्षेप में किया था। हेम ने इनको विस्तार से समझाया है। किन्तु इसके साथ ही चूलिका पैशाची की विशेषताएँ भी स्पष्ट की हैं। इस पाद के ३२९ सूत्र से ४४८ सूत्र तक उन्होंने अपभ्रंश व्याकरण पर पहली बार प्रकाश डाला है। उदाहरण के लिए जो अपभ्रंश के दोहे दिये हैं, वे अपभ्रंश साहित्य की अमूल्य निधि हैं। आचार्य हेम के समय तक प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया था । इस भाषा का विशाल साहित्य भी था । अपभ्रंश के भी विभिन्न रूप प्रचलित थे। अतः हेमचन्द्र ने प्राचीन वैयाकरणों के ग्रन्थों का उपयोग करते हुए भी अपने व्याकरण में बहुत-सी बातें नयी और विशिष्ट शैली में प्रस्तुत की हैं। हेम एवं अन्य प्राकृत वैयाकरण :
आचार्य हेमचन्द्र के पूर्व कई प्राकृत वैयाकरण हो चुके थे। हेमचन्द्र ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों का पर्याप्त उपयोग किया है। यद्यपि किसी का नाम नहीं लिया है। कश्चित्, केचित्, अन्यैः आदि शब्दों द्वारा इसकी सूचना दी है। प्राकृत व्याकरण के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि चंड एवं वररुचि का उन पर पर्याप्त प्रभाव है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि हेमचन्द्र में कोई मौलिकता नहीं है। डा डौल्ची नित्ति के इस कथन को समर्थन नहीं दिया जा सकता है कि हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण की पूर्णता और प्रौढ़ता प्राप्त नहीं की है या उसमें कोई विशेष प्रतिभा नहीं है। । वस्तुतः हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में उस समय तक प्रचलित सभी अनुशासनों को सम्मिलित किया है तथा जहाँ नये नियमों व उदाहरणों की आवश्यकता थी उनको अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। चंड के प्राकृत लक्षण सूत्र १७, १.८,१९, २३, २.४ हैमव्याकरण में ८३.२४,८३.७,८३९,८१.८ में उपलब्ध है। हेम ने आर्ष प्राकृत के उदाहरण वे ही दिये हैं, जो चंड ने। किन्तु स्वर और व्यंजन परिवर्तन के सिद्धान्त प्राकृत लक्षण में बहुत संक्षिप्त हैं, जिनका हेमचन्द्र ने बहुत विस्तार किया है। तद्धित, कृत प्रत्यय, धात्वादेश और अपभ्रंश व्याकरण का अनुशासन चंड की अपेक्षा हैमव्याकरण में नवीनता और विस्तार लिये हुए है। विषयक्रम और वर्णनशैली दोनो में हेमचन्द्र ने वररुचि का अनुकरण किया है। कुछ सिद्धान्त ज्यों के त्यों प्राकृतप्रकाश के उन्होने स्वीकार किये है। किन्तु अनेक बातों में हेमचन्द्र वररुचि से अपनी विशेषता रखते हैं। वररुचि ने धातुओं के अर्थान्तरों का कोई संकेत नहीं दिया है, जबकि हेम ने धातवोऽर्थान्तरेऽपि .... द्वारा धातुओं के बदलते हुए अर्थो का निर्देश किया है। ___ हेमचन्द्र ने यश्रुति का विधान किया है, जिसका वररुचि में अभाव है। सेतुबन्ध, गउडवहो आदि काव्यों में यश्रुति का प्रयोग है, जिसका हेम ने नियमन किया है। वररुचि ने जहां तीन-चार तद्धित प्रत्ययों का उल्लेख किया है, वहां हेम ने
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
XVI : हेम प्राकृत व्याकरण
सैकड़ों प्रत्ययों का नियमन किया है। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने हेम और वररुचि के सूत्रों की तुलना कर यह निष्कर्ष निकाला है कि हेमचन्द्र का व्याकरण अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों की अपेक्षा अधिक पूर्ण और वैज्ञानिक है। यही कारण है कि हैमव्याकरण से परवर्ती वैयाकरण भी प्रभावित होते रहे हैं। यद्यपि उनकी अपनी मौलिक उद्भावनाएं भी हैं, जो उनके व्याकरण ग्रन्थों के मूल्यांकन से स्पष्ट हो सकेंगी। हेमप्राकृत व्याकरण पर टीकाएं :
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण पर 'तत्वप्रकाशिका' नामक सुबोध-वृत्ति (बृहत्वृत्ति) भी लिखी है। मूलग्रन्थ को समझने के लिए यह वृत्ति बहुत उपयोगी है। इसमें अनेक ग्रन्थों से उदाहरण दिये गये हैं। एक लघुवृत्ति भी हेमचन्द्र ने लिखी है, जिसको 'प्रकाशिका' भी कहा गया है। यह सं १९२९ में बम्बई से प्रकाशित हुई है। हेमप्राकृतव्याकरण पर अन्य विद्वानों द्वारा भी टीकाएं लिखी गई हैं। यथा
१. द्वितीय हरिभद्रसूरि ने १५०० श्लोकप्रमाण हैमदीपिका नाम की टीका लिखी है, जिसे 'प्राकृतवृत्तिदीपिका भी __ कहा गया है। यह टीका अभी तक अनुपलब्ध है। २. जिनसागरसूरि ने ६७५० श्लोकात्मक 'दीपिका' नामक वृत्ति की रचना की है। ३. आचार्य हरिप्रभसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण के अष्टम अध्याय में आगत उदाहरणों की व्युत्पत्ति सूत्रों के
निर्देश-पूर्वक की है। ४. वि.सं. १५६१ में उदयसौभाग्यगणि ने 'हैमप्राकृतढुढिका' नामक वृति की रचना की है। इसे 'व्युत्पत्तिदीपिका भी
कहते है। यह वृति भीमसिंह माणेक, बम्बई से प्रकाशित हुई है। ५. मलधारी उपाध्याय नरचन्द्रसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण पर एक अवचूरि रूप ग्रन्थ की रचना की है। इसका नाम
'प्राकृतप्रबोध' है। न्यायकन्दली की टीका में राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। प्राकृतबोध की
पाण्डुलिपियां ला द. भारतीय विद्यामंदिर, अहमदाबाद में उपलब्ध हैं। ६. आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने हेमचन्द्र निर्मित वृत्ति को पद्य में निर्मित किया है। इसका नाम 'प्राकृतव्याकृति' है, जो
'अभिधानराजेन्द्र' कोश के प्रथम भाग के प्रारम्भ में रतलाम से वि.सं. १९७० में छपी है। ७ हेमचन्द्र द्वारा जो अपभ्रंश व्याकरण के प्रसंग में दोहे दिये गये हैं उन पर 'दोधवृत्ति' लिखी गयी है, जो
हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन से प्रकाशित हुई है। ८. 'हैमदोधकार्य' नामक एक टीका की सूचना 'जैनग्रन्थावली' से प्राप्त होती है। उसमें (पृ. ३०१) यह भी कहा गया ___ है कि १३ पत्रों की इस टीका की एक पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है।
हैमशब्दानुशासन पर दुढिका लिखी गई है। उसके दो चरण ही अब तक उपलब्ध और प्रकाशित थे। किन्तु चारों चरणवाली की एक प्रति श्वेताम्बर तेरापंथ श्रमण ग्रन्थ भंडार, लाडनूं में उपलब्ध है। मुनि श्री नथमल ने स्वरचित 'तुलसी मन्जरी' नामक प्राकृत-व्याकरण में इस (ढुढिका वृत्ति) का विशेष रूप से उपयोग किया है। तुलसीमंजरी अपनी सुबोध शैली एव विशद विवेचन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
इस तरह प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे हैमप्राकृतव्याकरण का कई दृष्टियों से महत्व है। आर्ष प्राकृत का सर्वप्रथम उसमें उल्लेख हुआ है। प्राकृत एवं अपभ्रंश भाशा के प्रायः सभी रूपों का उसमें अनुशासन हुआ है। न केवल साहित्य में प्रयुक्त शब्द, अपितु व्यवहार में प्रयुक्त प्राकृत, अपभ्रंश एवं देशी शब्दों का नियमन हेमचन्द्र ने किया है। इस तरह एक आदर्श प्राकृत व्याकरण की रचना कर हेमचन्द्र ने परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों को भी इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रेरित किया है। परवर्ती प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों के मूल्यांकन से यह स्पष्ट होता है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण ने उन्हें कितना आधार प्रदान किया है।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : XVII
संदर्भ १. दृष्टव्य- शास्त्री, नेमिचन्द्र : प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास। २. दृष्टव्य- बाठियां, कस्तूरमल : हेमचन्द्राचार्य जीवन-चरित, परिशिष्ट ३. शास्त्री, नेमिचन्द्र : आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन एक अध्ययन ४. दृष्टव्य; ई.वी. कावेल का मूल लेख तथा उसका अनुवाद - 'प्राकृत व्याकरण संक्षिप्त परिचय'; भारतीय
साहित्य; १०, अंक - ३-४, जुलाई-अक्टुबर १९६५। ५. हिमवत्सिन्धुसौवीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः।
उकारबहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत्।। ६२ ।। ६. दृष्टव्य, वैद्य, पी. एल. ; प्राकृत ग्रामर आफ सिक्किम; परिशिष्ट। ७. दृष्टव्यः 'द प्राकृतलक्षणम् एण्ड चंडाज् ग्रैमर आफ द एशिएन्ट प्राकृत' - डॉ होएनले। ८. कत्रे, 'प्राकृतभाषाएं और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान' पृ. ३६०। ९. कापड़िया, पाइय भाषाओ अने साहित्य, पृ.५५। १०. दृष्टव्य, डबराल द्वारा सम्पादित प्राकृतप्रकाश (मनोरमासहित), चौखम्बा प्रकाशन, वि. सं. १९९६ (द्वि.सं.)। ११. बनर्जी, एस आर ; 'प्राकृत वैयाकरणों की पाश्चात्य शाखा का विहंगमावलोकन' ,अनेकान्त १९, १-२, १९६६
(अप्रैल-जून)। १३. दृष्टव्य, नेमिचन्द्र शास्त्री ; आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासनः एक अध्ययन। १४. भायाणी, एच सी ; 'प्राकृतव्याकरणकारों (गुजराती), भारतीयविद्या, प्रकाशन २, ४ जुलाई १९४३, १५. डोल्ची नित्ति : ले ग्रामैरियां प्राकृत (प्राकृत के व्याकरणकार) पृ. १४७-५०।। १६ पंडित, प्रबोध; 'हेमचन्द्र एण्ड द लिग्विस्टिक ट्रेडिशन, महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण महोत्सव ग्रन्थ, बम्बई,
भाग १। १७. वर्मा, जगन्नाथ; आर्ष प्राकृत व्याकरण', काशी नगरी प्रचारिणी सभा, १९०९। १८. जैन संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा , छापर , १९७७
- प्रो. (डा.) प्रेम सुमन जैन
___ मानद निदेशक, आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
| ग्रन्थ की पूर्व प्रकाशक संस्था के प्रति आभार
आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत प्राकृत व्याकरण, प्राकृत भाषा के लिए सर्वाधिक प्रमाणिक और परिपूर्ण मानी जाती है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण को चार पादों में विभाजित किया है। आचार्य हेमचन्द्र कृत यह प्राकृत व्याकरण भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिए तथा अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल स्थान ढूंढने के लिए अत्यन्त उपयोगी है, इसलिए कई विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों आदि ने अपने पाठ्यक्रम में इस प्राकृत व्याकरण को स्थान दिया है। ऐसी उत्तम कृत्ति जिसकी सरल हिन्दी व्याख्या उपाध्याय पण्डित रत्न मुनिवर्य श्री प्यारचन्द जी महाराज ने की तदुपरान्त हिन्दी व्याख्या सहित इस प्राकृत व्याकरण के प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) द्वारा वर्ष 1967 में दो भागों में प्रकाशित कर पूर्ण किया गया।
श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) के तत्कालीन अध्यक्ष श्री देवराज जी सुराणा, मंत्री श्री अभयराज जी नाहर एवं संयोजक श्री उदयमुनि सिद्धान्त शास्त्री, सम्पादक श्री रतनलाल जी संघवी, सम्पादन सहयोगी श्री बसंतीलाल जी नलवाया आदि के प्रति हम विशेष आभार प्रकट करते है क्योंकि प्राकृत व्याकरण के प्रस्तुत संस्करण हेतु हमने इनके द्वारा प्रकाशित संस्कारणों का ही उपयोग किया है।
श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) द्वारा पूर्व में प्रकाशित संस्करण प्रायः अप्राप्य हो गये थे किन्तु इनकी उपयोगिता अत्यधिक थी। अतः आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर के संचालक मण्डल ने इसकी उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए, इसके पुनः प्रकाशन का निर्णय लिया और पूर्व प्रकाशक संस्था से इस हेतु अनुमति मांगी। लम्बे अंतराल के पश्चात् संघनिष्ठ सुश्रावक एडवोकेट श्री भंवरलाल जी ओस्तवाल, ब्यावर ने श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर (राजस्थान) के वर्तमान पदाधिकारियों से अनुमति प्राप्त कर हमें भिजवाई तभी हम प्रस्तुत संस्करण का प्रकाशन कर पाये। इस हेतु हम पूर्व प्रकाशक संस्था के तत्कालीन एवं वर्तमान पदाधिकारियों तथा पूर्व संस्करण के सहयोगी सभी चारित्र आत्माओं एवं विद्वानों के प्रति हदय से आभार प्रकट करते
डा. सुरेश सिसोदिया
सम्पादक
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूल-सूत्राणि
प्राकृत व्याकरणस्य प्रथमः पादः अथ प्राकृतम् ।।१-१।। बहुलम् ।।१-२।। आर्षम् ।।१-३।। दीर्घ-हस्वौ मिथो वृत्तौ ।।१-४।। पदयोः संधिर्वा ।।१-५।। न युवर्णस्यास्वे ।।१-६।। एदोतोः स्वरे ।।१-७।। स्वरस्योवृत्ते ।। १-८|| त्यादेः ।। १-९।। लुक् ।।१-१० ।। अन्त्यव्यञ्जनस्य ।। १-११ ।। न श्रदुदोः ।। १-१२ ।। निर्दुरोर्वा ।। १-१३ ।। स्वरेन्तरश्च ।। १-१४ ।। स्त्रियामादविद्युतः ।। १-१५।। रो रा ।। १-१६ ।। क्षुधोहा ।। १-१७ ।। शरदादेरत् ।। १-१८।। दिक्-प्रावृषोः सः ।। १-१९।। आयुरप्सरसोर्वा ।। १-२० ।। ककुभो हः ।।१-२१ ।। धनुषो वा ।।१-२२।। मोनुस्वारः ।।१-२३।। वास्वरे मश्च ।। १-२४।। ङ-ब-ण-नो व्यञ्जने ।। १-२५।। वक्रादावन्तः ।।१-२६ ।। क्त्वा--स्यादेर्ण-स्वोर्वा ।।१-२७।। विंशत्यादे लुक् ।।१-२८ ।। मांसादेर्वा ।। १--२९।। वदर्गेन्त्यो वा ।। १-३० ।। प्रावृट-शरत्तरणयः पुसि ।।१-३१।। स्नमदाम-शिरो-नभः ।। १-३२ ।। वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः ।।१-३३ ।। गुणाद्याः क्लीबे वा ।। १-३४।। वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम् ।। १-३५ ।। बाहोरात् ।। १-३६ ।। अतो डो विसर्गस्य ।। १-३७।। निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थोर्वा ।।१-३८।। आदेः ।। १-३९।। त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् ।। १-४० ।। पदादपेर्वा ।। १-४१ ।। इतेः स्वरात् तश्च द्विः ।।१-४२।। लुप्त-य-र-व-श-ष-सांश-ष-सां दीर्घः ।। १-४३ ।। अतः समृद्ध्यादौ वा ।।१-४४।। दक्षिणे हे ।।१-४५ ।। इः स्वप्नादौ ॥१-४६ ।। पक्वाङ्गार-ललाटे वा ।।१-४७।। मध्यम-कतमे द्वितीयस्य ।। १-४८ ।। सप्तपणे वा ।। १-४९।। मयट्य इर्वा ।।१-५० ।। ई हरे वा ।। १-५१ ।। हर शब्दे आदेरत ईर्वा भवति। हीरो हरो।। ध्वनि-विष्वचोरुः ।।१-५२ ।। वन्द्र-खण्डिते णा वा ।। १-५३ ।। गवये वः ।। १-५४ ।। प्रथमे प-थो र्वा ।। १-५५।। ज्ञो णत्वेभिज्ञादौ ।। १-५६ ।। एच्छय्यादौ ।। १-५७ ।। वल्ल्युत्कर-पर्यन्ताश्चर्ये वा ।।१-५८।। ब्रह्मचर्ये चः ।। १-५९ ।। तोन्तरि ।। १-६० ।। ओत्पद्म ।। १-६१ ।। नमस्कार-परस्परे द्वितीयस्य ।। १-६२।। वाो ।। १-६३ ।। स्वपावुच्च।। १-६४ ।। नात्पुनर्यादाई वा ।। १-६५ ।। वालाब्वरण्ये लुक् ।। १-६६ ।। वाव्ययोत्खाता दावदातः ।। १-६७ ।। घञ् वृद्धे र्वा ।।१-६८।। महाराष्ट्रे ।। १-६९।। मांसादिष्वनुस्वारे ।। १-७० ।। श्यामाके मः ।। १-७१ ।। इः सदादौ वा ।। १-७२ ।। आचार्ये चोच्च ।। १-७३ ।। ईः स्त्यान-खल्वाटे ।। १-७४ ।। उः सास्ना-स्तावके।। १-७५ ।। ऊद्वासारे ।। १-७६ ।। आर्यायां र्यःश्वश्र्वाम् ।। १-७७ ।। एद् ग्राह्ये ।। १-७८ ।। द्वारे वा ।। १-७९ ।। पारापते रो वा ।। १-८० ।। मात्रटि वा ।। १-८१ ।। उदोद्वाट्टै ।। १-८२ ।। ओदाल्यां पंक्तौ ।। १-८३ ।। ह्रस्व संयोगे ।। १-८४ ।। इत एद्वा ।। १-८५।। किंशुके वा ।। १-८६।। मिरायाम् ।। १-८७।। पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्रा-बिभीतकेष्वत् ।।१-८८।। शिथिलेगुदे वा।। १-८९।। तित्तिरौरः।। १-९०।। इतौ तो वाक्यादौ।। १-९१।। ईर्जिह्वा-सिंह-त्रिंशद्विशतौ त्या।। १-९२।। लुंकि निरः।। १-९३।। द्विन्योरूत्।। १-९४।। प्रवासीक्षौ ।। १-९५।। युधि ष्ठिरे वा ।। १-९६ ।। ओच्च द्विधाकृगः ।। १-९७ ।। वा निर्झरे ना ।। १-९८ ।। हरीतक्यामीतोत् ।।१-९९।। आत्कश्मीरे।। १-१००।। पानीयादिष्वित्। १-१०१ ।। उज्जीर्णे ।। १-१०२ ।। ऊहीन-विहीने वा ।।१-१०३।। तीर्थे हे ।।१-१०४।। एत्पीयूषापीड-बिभीतक-कीदशेद्दशे ।।१-१०५।। नीड-पीठे वा ।। १-१०६।। उतो मुकुलदिष्वत् ।। १-१०७।। वोपरौ ।। १-१०८।। गुरौ के वा ।। १-१०९।। इ( कुटौ।। १-११०।। पुरुषे रोः।। १-१११।। ईः क्षुते।। १-११२।। ऊत्सुभग-मुसले वा ।। १-११३।। अनुत्साहोत्सन्नेत्सच्छे।। १-११४ ।। लुंकि दुरो वा ।। १-११५।। ओत्संयोगे ।। १-११६।। कुतूहले वा हस्वश्च।। १-११७।। अदूतः सूक्ष्मे वा॥१-११८।। दुकूले वा लश्च द्विः।। १-११९।। ईर्वोद्वयूढे।। १-१२०।। उद्बु-हनुमत्कण्डूय - वातूले।। १-१२१।। मधूके वा।। १-१२२।। इदे तो नुपूरे वा।। १- १२३ ।। ओत्कूष्माण्डी-तूणीर-कूपरस्थूल-ताम्बूल-गुडूची-मूल्ये।।१-१२४|| स्थूणा-तूणे वा ।। १ -१२५।। ऋतोत्।। १-१२६।। आत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा।। १-१२७।। इत्कृपादौ।। १-१२८।। पृष्ठे वानुत्तरपदे ।। १-१२९ ।।मसृण-मृगाङ्क-मृत्यु-श्रृंग-धृष्टे वा ।। १-१३०।। उदृत्वादौ ।। १-१३१ ।। निवृत्त-वृन्दारक वा ।। १-१३२।। वृषभे वा वा ।। १-१३३।। गौणान्त्यस्य ।।१-१३४|| मातुरिद्वा ।।१-१३५।।उदूदोन्मृषि ।।१-१३६।।इदुतोवृष्ट-वृष्टि-पृथङ् मृदंग-नप्तृके ।। १-१३७ ।। वा बृहस्पतौ ।। १-१३८ ।।इदेदोढन्ते
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
xx : हेम प्राकृत व्याकरण ॥१-१३९ ।।रिः केवलस्य ।। १-१४०।। ऋणर्वृषभत्वृषौ वा ।। १-१४१ ।। दृशः क्विप्-टक्-सकः ।। १-१४२ ।।आदृते ढिः ॥१-१४३।। अरिदृप्ते॥१-१४४ ॥ तृत इलिः क्लृप्त-केलृन्ने ॥१-१४५ ।। एतइद्वा वेदना-चपेटा-देवर-केसरे।। १-१४६ । ऊः स्तेने वा ।। १-१४७ ।। ऐत एत् ।। १-१४८ ।। इत्सैन्धव-शनैश्चरे ।। १-१४९ ।। सैन्ये वा ।। १-१५०॥ अइदैत्यादौ च ।। १-१५१ ।। वैरादौ वा ।। १-१५२ ।। एच्च दैवे ।। १-१५३।। उच्चैर्नीचस्यैः ।। १-१५४ ।। ईद्धैर्ये ।। १-१५५ ।।
ओतोद्वान्योन्य-प्रकोष्ठाताद्य-शिरोवेदना-मनोहर-सरोरूहेक्तोश्च वः ।।१-१५६।। ऊत्सोच्छ्वासे ।। १-१५७ ।। गव्यउ-आअः ॥१-१५८ ।। औत ओत् ।। १-१५९ ।। उत्सौन्दर्यादौ ।। १-१६०|| कौक्षेयके वा ।। १-१६१ ।। अउः पौरादौ च ।। १-१६२ ।। आच्च गौरवे ।। १-१६३।। नाव्यावः ॥१-१६४ ।। एत् त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वर व्यञ्जनेन।। १-१६५ ।। स्थविर-विचकिलायस्कारे ।। १-१६६ ।। वा कदले ।। १-१६७ ।। वेतः कर्णिकारे ।। १-१६८ ।। अयो वैत् ।। १-१६९ ।। ओत्पूतर-बदर-नवमालिका-नवफलिका-पूगफले॥१-१७०॥ न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार -सुकुमारकुतूहलोदूखलोलूखले ॥ १-१७१ ।। अवापोते ।। १-१७२ ।। ऊच्चोपे ।। १-१७३ ।। उमो निषण्णे ॥ १-१७४ ।। प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ।। १-१७५ ।। स्वरादसंयुक्तस्यानादेः।। १-१७६ ।। क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्॥१-१७७।। यमुना-चामुण्डा-कामुकातिमुक्तके मोनुनासिकश्च।। १-१७८।। नावर्णात् पः।। १-१७९।। अवर्णो य श्रुतिः।। १-१८०।। कुब्ज-कर्पर-कीले कः खोऽपुष्पे।। १-१८१।। मरकत-मदकले गः कंदुके त्वादेः।। १-१८२।। किराते चः।। १-१८३।। शीकरे भ-हौ वा।। १-१८४॥ चंद्रिकायां मः॥१-१८५।। निकष-स्फटिक-चिकुरेहः।। १-१८६।। ख-घ-थ-ध-भाम्।। १-१८७|| पृथकि धो वा।। १-१८८।। श्रृङ्खले खः कः।।१-१८९।। पुन्नाग-भागिन्योर्गो मः।।१-१९०।। छागे लः।। १-१९१।। ऊत्वे दुर्भग-सुभगे वः।।१-१९२।।खचित-पिषाचयोश्चः स-ल्लो वा।।१-१९३।। जटिले जो झो वा।। १-१९४।। ।। टोड: १-१९५|| सटा-शकट-कैटभे ढः।। १-१९६।। स्फटिके लः।।१-१९७|| चपेटा-पाटौ वा।। १-१९८।। ठो ढः।। १-१९९।। अङ्कोठे ल्लः।। १-२००।। पिठरे हो वा रश्चडः।।१-२०१।। डोलः।। १-२०२।। वेणौ णो वा।।१-२०३।। तुच्छे तश्च-छौ वा।।१-२०४।। तगर-त्रसर-तुवरे टः।।१-२०५।। प्रत्यादौ डः।। १-२०६।। इत्वे वेतसे॥ १-२०७।। गर्भितातिमुक्तके णः।। १-२०८|| रूदिते दिनाण्णः।। १-२०९।। सप्ततौ रः।। १-२१०।। अतसी-सातवाहने लः।। १-२११ ।। पलिते वा।। २-२१२।। पीते वो ले वा।। १-२१३।। वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुलिंगे हः।।१-२१४।। मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमे थस्य ढः।।१-२१५।। निशीथ-पृथिव्यो
।। १-२१६।। दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्भ-दर्भ-कदन-दोहदे दो वा डः।।१-२१७।। दंश-दहोः।।१-२१८।। संख्या-गद्गदे रः।।१-२१९।। कदल्यामुद्रमे।। १-२२०।। प्रदीपि-दोहदे लः।। १-२२१।। कदम्बे वा।।१-२२२।। दीपौ धो वा।। १-२२३।। कदर्थिते वः।।१-२२४|| ककुदे हः।। १-२२५|| निषेध धो ढः।। १-२२६।। वौषधे।।१-२२७|| नो णः।। १-२२८|| वादौ।। १-२२९।। निम्ब-नापिते-ल-णहं वा।। १-२३०।। पो वः।। १-२३१।। पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः।। १-२३२।। प्रभूते वः।।१-२३३।। नीपापीडे मो वा।।१-२३४।। पापर्धी रः।। १-२३५।। फो भ-हौ।।१-२३६।। व:।। १-२३७।। बिसिन्यां भः।।१-२३८।। कबन्धे म-यौ।। १-२३९।। कैटभे भो वः ।। १-२४० ।। विषमे मो ढो वा ।।१-२४१ ।। मन्मथे वः ।। १-२४२ ।। वाभिमन्यौ ।। १-२४३ ।। भ्रमरे सो वा ।। १-२४४ || आदेर्यो जः ॥ १-२४५ ।। युष्मद्यर्थपरे तः ।। १-२४६ ।। यष्टयां लः ॥१-२४७ ॥वोत्तरीयानीय-तीय को ज्जः ॥१-२४८|| छायायां हो कान्तो वा ॥१-२४९।। डाह-वौ कतिपये ।। १-२५० ।। किरि-भेरे रो डः ।।१-२५१।। पर्याणे डा वा ॥१-२५२।। करवीरे णः ।।१-२५३।। हरिद्रादौ लः ।। १-२५४ ।। स्थूले लोरः ।।१-२५५।। लाहल-लांगल-लांगुले वादे णः ।।१-२५६।। ललाटे च ।। १-२५७|| शबरे बो मः ।।१-२५८|| स्वप्न-नीव्यो र्वा ॥१-२५९।।श-षोः सः ॥१-२६०॥ स्नुषायांण्हो न वा ।।१-२६१।। दश-पाषाणे हः ।।१-२६२।। दिवसे सः ॥१-२६३।। हो घोनुस्वारात् ॥१-२६४॥षट-शमी-शाव-सा-सप्तपर्णेष्वादेश्छः ।।१-२६५।। शिरायांवा ।।१-२६६।।लग भाजन-दनज-राजकले जः सस्वरस्य न वा ।। १-२६७।। व्याकरण-प्राकारागते कगोः ॥१-२६८|| किसलय-कालायस-हृदये यः ॥१-२६९।। दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पाद पीठन्तर्दः ।।१-२७०।। यावत्तावज्जीविता वर्तमानावट-प्रावरक-देव कुलैव मेवे वः।। १-२७१।।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : XXI
द्वितीयः पादः
संयुक्तस्य ।। २-१ ।। शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण-मृदुत्वे को वा ।। २-२।। क्षः खः क्वचितु छ-झौ ।। २-३ ।। ष्क-स्कयो म्नि ।। २-४ ।। शुष्क-स्कन्दे वा ।। २-५ ।। श्वेटकादौ ।। २-६ ।। स्थाणावहरे ।। २-७ ।। स्तम्भे स्तो वा ।। २-८ ।। थ-ठाव स्पन्दे ।। २-९ ।। रक्ते गो वा ।। २-१० ।।शुल्के ङ्गो वा ।। २-११ ।। कृति-चत्वरे चः ।। २-१२ ।। त्योऽचैत्ये ।। २--१३ ॥ प्रत्यूषे षश्च हो वा ।। २-१४ ।। त्व-थ्व-द्व-ध्वां-च-छ-ज-झाः क्वचित् । २-१५ ।। वृश्चिके रचेञ्चुर्वा ।। २-१६।। छोऽक्ष्यादौ ।। २-१७ ।। क्षमायां को ।। २-१८ ।। ऋक्षे वा ।। २-१९।। क्षण उत्सवे ।। २-२० ।। ह्रस्वात् थ्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले ।।२-२१ ।। सामर्थ्योत्सकोत्सवे वा ॥२-२२।। स्पहायाम् ।।२-२३ ।। द्य-य्य-यो जः ।। २-२४ ।। अभिमन्यौ ज-जौ वा ।। २-२५।। साध्वस-ध्य-यां-झः ।। २-२६ ।। ध्वजे वा ।। २-२७।। इन्धौ झा ।। २-२८|| वृत्त-प्रवृत्त-मृत्तिका-पत्तन-कदर्थिते टः ।। २-२९ ।। तस्याधृर्तादौ ।। २-३० ।। वृन्ते ण्टः ।। २-३१।। ठो स्थि-विसंस्थुले ।। २-३२।। स्त्यान-चतुर्थार्थ वा ।। २-३३ ।। ष्टस्यानुष्ट्रष्टासंदष्टे ।। २-३४ ।। गर्ते डः ।। २-३५ ।। संमर्द-वितर्दि-विच्र्छ च्छर्दि-कपर्द-मर्दिते र्दस्य ।। २-३६।। प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ।।२--३७।। कन्दरिका-भिन्दिपाले ण्डः ।। २-३८ ।। स्तब्धे ठ-ढौ ॥ २-३९|| दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्धे ढः ।। २-४०॥ श्रद्धर्द्धि-मूर्धिन्त वा ।। २-४१|| म्नज्ञो र्णः ।। २-४२ ।। पञ्चाशत्-पञ्चदश-दत्ते ।। २-४३।। मन्यौ न्तो वा ।। २-४४|| स्त्स्य थो समस्त-स्तम्बे ।। २-४५ ।। स्तवे वा ।।२--४६|| पर्यस्ते थ-टौ ॥२-४७।। वोत्साहे थो हश्च रः ।। २-४८|| आश्लिष्टेल-धौ ।। २--४९।। चिन्हे न्धो वा ॥२-५०।। भस्मात्मनोः पो वा ।। २-५१।। इम--क्मोः ।। २--५२।। ष्प-स्पयोः फः ।। २-५३।। भीष्मे ष्मः ।। २-५४ ॥श्लेष्मणि वा ।। २-५५।। ताम्रानेम्बः ।। २-५६।। ह्रो भो वा ।। २-५७|| वा विह्वले वौ वश्च ।। २-५८।। वोर्वे ।। २-५९|| कश्मीरे म्भो वा ।। २-६० । मो मः ।। २-६१।। ग्मो वा ।। २-६२।। ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये यो रः ।। २-६३।। धैर्य वा ।। २-६४।। एतः पर्यन्ते ।। २-६५।। आश्चर्ये ।। २-६६ ।। अतो रिआर-रिज्ज-रीअं ।। २-६७।। पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये ल्लः ।। २-६८।। बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा ।। २-६९।। बाष्पे हो श्रुणि ।। २-७०।। कार्षापणे ।। २-७१।। दुःख-दक्षिण-तीर्थे वा ।। २-७२।। कूष्माण्ड्यां ष्मो लस्तु ण्डो वा ।। २-७३।। पक्ष्म--श्म-ष्म-स्म-मां म्हः ।। २--७४।। सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-हण-क्षणां ण्हः ।। २-७५।। हलो ल्हः ॥२-७६।। क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स-.क.पामूर्ध्व लुक् ।।२-७७।। अधो मनयाम् ।। २-७८|| सर्वत्र ल-ब-रामवन्द्रे ॥२-७९।। द्रे रो न वा ॥२-८०|| धात्रयाम ।। २-८१।। तीक्ष्णे णः ।। २-८२।। जोबः ।। २-८३।। मध्याह्ने हः ।। २-८४।। दशार्हे ।। २-८५।। आदेः श्मश्रु-श्मशाने ।। २-८६।। श्चो हरिश्चन्द्रे ।। २-८७|| रात्रौ वा ।।२-८८।। अनादौ शेषादेशयोर्वृित्वम् ।। २-८९।। द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः ।। २-९०।। दीर्घ वा ।। २-९१।। न दीर्घानुस्वारात् ॥२-९२।। र-होः ।। २-९३।। धृष्टद्युम्ने णः ।। २-९४।। कर्णिकारे वा ।। २-९५।। दृप्ते ।। २-९६।। समासे वा ।। २-९७।। तैलादो ।। २-९८।। सेवादौ वा ।। २-९९।। शाइँ ङातपूर्वोत् ।। २-१००।। क्ष्मा-श्लाघा-रत्नेन्त्यव्यञ्जनात् ।। २-१०१।। स्नेहाग्न्योर्वा ।। २-१०२।। प्लक्षे लात् ।। २-१०३।। र्ह-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयास्वित् ।। २-१०४।। र्श-र्ष-तप्त-वजे वा ।। २-१०५।। लात् ।। २-१०६।। स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात् ।। २-१०७।। स्वप्ने नात् ।। २-१०८।। स्निग्धे वादितौ ॥२-१०९।। कृष्णे वर्णेवा ॥२-११०।। उच्चार्हति ।।२-१११।। पद्म-छद्म-मूर्ख-द्वारे वा।। २-११२।। तन्वीतुल्येषु ।।२-११३।। । एक स्वरे श्वः-स्वे ।। २-११४||ज्यायामीत् ।। २-११५।। करेणु-वाराणस्योर-णो-र्व्यत्ययः ।। २-११६।। आलाने लनोः ।। २-११७।। अचलपरेच-लोः ।। २-११८।। महाराष्ट्र ह-रोः ॥२-११९।। हदे ह-दोः ।। २-१२०।। हरिताले र-लोर्न वा । २-१२१।। लघुके ल-होः ।। २-१२२।। ललाटे ल-डोः ।। २-१२३।। ह्ये ह्योः ।। २-१२४।। स्तोकस्य थोक्क-थोव-थेवाः॥ २-१२५।। दुहित-भगिन्योधूआ-बहिण्यौ ।। २-१२६।। वृक्ष-क्षिप्तयो रुक्ख-छूढी ।।२-१२७|| वनिताया विलया ।।२-१२८|| गौणस्येषतकरः ।। २-१२९।। स्त्रिया इत्थी॥२-१३०॥धृतेर्दिहिः ॥२-१३१।। मार्जारस्य मञ्जर-वजरौ॥२-१३२।। वैडूर्यस्य वेरुलिअं।। २-१३३।। एण्हिं एत्ताहे इदानीमः ।। २-१३४।। पूर्वस्य पुरिमः ।। २-१३५।। त्रस्तस्य हित्थ-तट्ठी।। २-१३६।।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
XXII : हेम प्राकृत व्याकरण
बृहस्पती बहोभयः ।। २- १३७ ।। मलिनोभय- शुक्ति-छुप्तारब्ध-पदातेर्मइलावह - सिप्पि - छिक्काढत्त-पाइक्कं । । २-१३८ ।। दंष्ट्राया दाढा ।। २- १३९ ।। बहिसो बाहिं - बाहिरौ ।। २- १४० ।। अधसो हेट्टं ।। २ - १४१ ।। मातृ -पितुः स्वसुः सिआ - छौ ।। २-१४२।। तिर्यचस्तिरिच्छिः ।। २-१४३ ।। गृहस्य घरोपतौ ।। २-१४४ ।। शीलाद्यर्थस्येरः ।। २- १४५ ।। क्त्वस्तुमत्तूण- तुआणाः ।। २-१४६।। इदमर्थस्य केरः ।। २- १४७ ।। पर राजभ्यां क्क - डिक्कौ च ।। २-१४८ ।। युष्मदस्मदोञ - एच्चयः ।। २-१४९।। वतेर्व्वः ।। २-१५० ।। सर्वाङ्गादीनस्येकः ।। २- १५१ ।। पथो णस्येकट् ।। २- १५२ ।। ईयस्यात्मनो णयः ।। २- १५३ ।। त्वस्य डिमा-त्तणौ वा ।। २-१५४ ।। अनङ्कोठात्तैलस्य डेल्लः ।। २ - १५५ ।। यत्तदेतदोतोरित्तिअ एतल्लुक् च ।। २ - १५६ ।। इदं किमश्च डेत्तिअ-डेत्तिल-डेद्दहाः ।। २ - १५७ ।। कृत्वसो हुत्तं ।। २ - १५८ ।। आल्विल्लोल्लाल - वन्त - मन्तेत्तेर - मणामतोः ।। २ - १५९ ।। तो दो तसो वा ।। २ - १६० ।। त्रपो हि - ह - त्थाः ।। २- १६१ ।। वैकाद्दः सि सिअं इआ ।। २- १६२ । । डिल्ल - डुल्लौ भवे ।। २-१६३ ।। स्वार्थे कश्च वा ।। २-१६४ ।। ल्लो नवैकाद्वा ।। २- १६५ ।। उपरेः संव्याने ।। २ - १६६ ।। भ्रुवो मया डमया ।। २ - १६७ ।। शनै सो डिअम् ।। २-१६८।। मनाको न वा डयं च ।। २ - १६९ ।। मिश्राड्डालिअः ।। २- १७० ।। रो दीर्घात् ।। २ - १७१ ।। त्वादेः सः ।। २ - १७२ ।। विद्युत्पत्र - पीतान्धाल्लः ।। २ - १७३ ।। गोणादयः ।। २ - १७४ ।। अव्ययम् ।। २ - १७५ ।। तं वाक्योपन्यासे ।। २-१७६।। आम अभ्युपगमे ।। २ - १७७ ।। णवि वैपरीत्ये ।। २- १७८ ।। पुणरुत्तं कृत करणे ।। २ - १७९ ।। हन्दि विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप - निश्चय - सत्ये ।। २- १८० ।। हन्द च गृहाणार्थे ।। २ - १८१ ।। मिव पिव विव व्व व विअ इवार्थे वा ।। २- १८२ ।। जेण तेण लक्षणे ।। २ - १८३ ।। णइ चेअ चिअ च्च अवधारणे ।। २ - १८४ ।। बले निर्धारण - निश्चययोः ।। २-१८५।। किरेर हिर किलार्थे वा ।। २- १८६ ।। णवर केवले ।। २- १८७।। आनन्तर्ये णवरि ।। २ - १८८ ।। अलाहि निवारणे ।। २- १८९ ।। अण णाइं नञर्थे ।। २- १९० ।। माई मार्थे ।। २- १९१ ।। हद्धी निर्वेदे ।। २ - १९२ ।। वेव्वे भय वारण-विषादे ।। २- १९३ ।। वेव्व च आमन्त्रणे ।। २-१९४।। मामि हला हले सख्या वा ।। २- १९५ ।। दे संमुखीकरणे च ।। २ - १९६ ।। हुं दान-पृच्छा-निवारणे ।। २-१९७ ।। हु खु निश्चय-वितर्क-संभावन - विस्मये ।। २-१९८ ।। ऊ गर्हाक्षेप - विस्मय - सूचने ।। २ - १९९ ।। थू कुत्सायाम् ।। २-२०० ।। रे अरे संभाषण - रतिकलहे ।। २-२०१ ।। हरे क्षेपे च ।। २ - २०२ ।। ओ सूचना - पश्चात्तापे ।। २-२०३ || अव्वो सूचना - दुःख - संभाषणापराधविस्मयानन्दारद-भय-खेद - विषाद पश्चात्तापे ।। २- २०४ ।। अइ संभावने ।। २ - २०५ ।। वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ॥ २ - २०६ ।। मणे विमर्शे ।। २ - २०७ ।। अम्मो आश्चर्ये ।। २- २०८ ।। स्वयमोर्थे अप्पणो न वा ।। २ - २०९ ।। प्रत्येकमः पाडिक्कं पाडिएक्कं ।। २-२१०।। उअ पश्च ।। २-२११ ।। इहरा इतरथा ।। २ - २१२ । । एक्कसरिअं झगिति संप्रति ।। २ - २१३ ।। मोरउल्ला मुधा ।। २- २१४ ।। दरार्धाल्पे ।। २ - २१५।। किणो प्रश्ने ।। २- २१६ ।। इ - जे-राः पादपूरणे ।। २ - २१७ ।। प्यादयः ।। २-२१८।।
तृतीयः पादः
वीप्स्यात् स्यादेर्वीप्स्ये स्वरे मो वा । । ३ - १ || अतः सेर्डोः ।। ३ - २।। वैतत्तदः ।। ३ - ३ ।। जस् - शसोर्लुक् ।। ३ - ४ ।। अमोऽस्य ।।३-५।। टा-आमोर्णः ।।३-६ ।। भिसो हि हिँ हिं ।।३-७ ।। ङसेस् त्तो- दो-दु-हि- हिन्तो - लुकः ||३ - ८ || भ्यसस् तो दो दुहि हिन्तो सुन्तो ।। ३ - ९ ।। ङसः स्सः ||३ - १० || डे म्मि डे ।।३ - ११ ।। जस् - शस् - ङसि - तो- दो- द्वामि दीर्घः ।।३ - १२ ।। भ्यसि वा ।।३-१३।। टाण-शस्येत् ||३ - १४ || भिस्भ्यस्सुपि ॥३ - १५ ।। इदुतो दीर्घः । । ३ - १६ ।। चतुरो वा ।।३ - १७।। लुप्ते शसि ।।३-१८।। अक्लीबे सौ ||३ - १९ ।। पुंसि जसो डउ डओ वा ।।३ - २० ।। वो तो डवो । ३ - २१ ।। जस् - शसोर्णो वा ।।३ - २२ ।। ङसिङसोः पुं- क्लीबे वा ॥ ३ - २३ ।। टो णा ।। ३ - २४ ।। क्लीबे स्वरान्म् से: ।। ३ - २५ ।। जस् - शस्-इँ - इं- णयः सप्राग्दीर्घाः ।।३ - २६ ।। स्त्रियामुदोतौ वा ॥ ३ - २७।। ईतः से श्चा वा । । ३ - २८ ।। टा - ङस् - डेरदादिदेद्वा तु ङसेः । । ३ - २९ ।। नात आत् ।।३ - ३० ।। प्रत्यये ङी वा ।। ३-३१ ।। अजातेः पुंस ।।३ - ३२ ।। किं यत्तदोस्यमामि ||३-३३ ।। छाया - हरिद्रयोः ।।३ - ३४ ।। स्वस्त्रादेर्डा ।।३-३५ ।। ह्रस्वो मि ।। ३-३६ ।। नामन्त्र्यात्सौ मः ||३ - ३७ ।। डो दीर्घो वा ।। ३-३८ ।। ऋतोद्वा ।। ३-३९ ।। नाम्न्यरं वा । । ३ - ४० ।। वाप ए ।। ३-४१।। ईदूतोर्हस्वः ।।३-४२ ।। क्विपः ।। ३-४३ ।। ऋतामुदस्यमौसु वा । । ३ - ४४ ।। आरः स्यादौ । । ३ - ४५ ।। आ अरा मातुः । । ३ - ४६ ।। नाम्न्यरः । । ३ - ४७ ।। आ सौ न वा ।। ३ - ४८ । । राज्ञः । । ३ - ४९ ।। जस् - शस् ङसि - ङसां णो । । ३ - ५० ।। टोणा ।।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : XXIII
३-५१।। इर्जस्य णो-णा-ङो ।।३-५२।। इणममामा ।। ३-५३ ईद्भिस्भ्यसाम्सुपि ।। ३-५४।। आजस्य टा-ङसि-उस्सु सणाणोष्वण ।। ३-५५।। पुंस्यन आणो राजवच्च ।। ३-५६ ।। आत्मनष्टो णिआ णइआ॥३-५७।। अतः सर्वादेर्डेर्जसः ।। ३-५८।।- Dः स्सि-म्मि-त्थाः ।। ३-५९।। न वानिदमेतदो हिं।। ३-६०||- आमो डेसिं।।३-६१।।- कितद्भ्यां डामः ।। ३-६२।।-कियत्तद्भ्योङस : ।। ३-६३।। ईद्भ्यः स्सा से ।। ३-६४ ।।- डे हे डाला इआ काले।। ३-६५।।- उसे म्हा।।३-६६।।- तदो डोः ।। ३-६७।। किमो डिणो-डीसौ।। ३-६८|| इदमेतत्कि-यत्तभ्य ष्टो डिणा।।३-६९।।- तदो णः स्यादौ क्वचित्।।३-७०।। किमः कस्त्र-तसोश्च ।। ३-७१।। इदम इमः ।। ३-७२।। पुं-स्त्रियोर्न वायमिमिआ सौ।।३-७३।। स्सि-स्सयोरत्।।३-७४।। डेर्मे न हः ।। ३-७५।। न त्थः ।। ३-७६ ।। णोऽम्-शस्टा भिसि ।। ३-७७।। अमेणम् ।। ३-७८ ।। क्लीबे स्यमेदमिणमो च।।३-७९।। किमः किं ।। ३-८०।। वेदं-तदे तदो ङसाम्भ्यां से-सिमौ ।।३-८१।। वैतदो ङसेस्तो ताहे ।। ३-८२।। त्थे च तस्य लुक् ।। ३-८३।। एरदीतौ म्मौ वा।।३-८४।। वैसेणमिणमो सिना।।३-८५।। तदश्च तः सोक्लीबे ॥३-८६।। वादसो दस्य होनोदाम् ।।३-८७।। मुःस्यादौ ३-८८।। म्मावये औ वा ।। ३-८९।। युष्मद स्तं तुंतुवं तुह तुम सिना ॥३-९०॥ भे तब्भे तज्झ तम्ह तय्हे उय्हे जसा।।३-९१ ॥ तं तंतमंतह तमे तए अमा ||३-९२।। वो तुज्झ तब्भे तय्हे उव्हे भे शसा ।। ३-९३।। भे दि दे ते तइ तए तुम तुमइ तुमए तुमे तुमाइ टा ।।३-९४।। भे तुब्भेहिं उज्झेहिं तुम्हेहिं उय्हेहिं उय्हेहिं भिसा।। ३-९५।। तइ-तुव-तुम-तुह तुब्भा ङसौ।। ३-९६।। तुम्ह तुब्भ तहिन्तो ङसिना।। ३-९७।। तुब्भ-तुय्होयहोम्हा भ्यसि ॥३-९८|| तइ-तु-ते-तुम्हं, तुह-तुहं-तुव-तुम-तुमे-तुमो-तुमाइ-दि-दे-इ-ए- तुब्भोब्भोव्हा ङसा।।३-९९।। तु वो भे तुब्भ तुब्भं तुब्माण तुवाण तुमाण तुहाण उम्हाण आमा।।३-१००।। तुमे तुमए तुमाइ तइ तए ङिना। ३-१०१।। तु-तुव-तुम-तुह-तुब्भा डौ।। ३-१०२।। सुपि ।। ३-१०३।। ब्भो म्ह-ज्झौ वा ।। ३-१०४।। अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना।। ३-१०५।। अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं भे जसा।। ३-१०६।। णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा ३-१०७।। अम्हे अम्हो अम्हणे शसा।। ३-१०८।। मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा ॥३-१०९।। अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे भिसा। ३-११०।। मइ-मम-मह-मज्झा ङसौ।। ३-१११।। ममाम्हौ भ्यसि ।। ३-११२।। मे मई मम मह महं मज्झ मझं अम्ह अम्हें ङसा।।३-११३।। णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण आमा।। ३-११४।। मि मइ ममाइ मए मे छिना।। ३-११५। अम्ह-मम-मह मज्झा ङौ।।३-११६।। सुपि।। ३-११७।। त्रेस्ती तृतीयादौ ।। ३-११८।। द्वेर्दो वे।। ३-११९।। दुवे दोण्णि वेण्णि च जस्-शसा। ३-१२०।। त्रेस्तिण्णिः ।। ३-१२१।। चतुरश्चत्तारो चउरो चत्तारि ॥३-१२२।। संख्याया आमो ण्ह ण्हं ॥३-१२३।। शेषेऽदन्तवत्।। ३-१२४ ।। न दीर्घो णो।। ३-१२५।। ङसेर्लुक्।। ३-१२६।। भ्यसश्च हिः ।। ३-१२७।। डेर्डेः ।। ३-१२८।। एत्।। ३-१२९।। द्विवचनस्य बहुवचनम्।। ३-१३०।। चतुर्थ्याःषष्ठी ।।३-१३१|| तादी छे ।।३-१३२।। वधाड्डाइश्च वा।। ३-१३३।। क्वचिद् द्वितीयादेः।।३-१३४।। द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ।।३-१३५।। पंचम्यास्तृतीया च ।। ३-१३६।। सप्तम्या द्वितीया ॥३-१३७।। क्यङोर्य लुक् ।।३-१३८।। त्यादिनामाद्यत्रयस्याद्यस्येचेचौ ।। ३-१३९।। द्वितीयस्य सि से।। ३-१४०॥ तृतीयस्य मिः ।। ३-१४१।। बहुष्वाद्यस्य न्ति न्ते हरे।। ३-१४२।। मध्यमस्येत्था-हचौ ।।३-१४३।। तृतीयस्य मो-मु-माः ।। ३-१४४।। अत एव च से ।। ३-१४५।। सिनास्तेः सिः ।। ३-१४६।। मि-मो-मै-हि-म्हो-म्हा वा।। ३-१४७ अत्थिस्त्यादिना।।३-१४८॥णेरदेदावावे।।३-१४९।। गुर्वादेरविर्वा।।३-१५०।। भ्रमै राडो वा ।। ३-१५१।। लुगावी-क्त-भाव कर्मसु॥३-१५२।। अदेल्लुक्यादेरत आः।।३-१५३।। मौ वा।। ३-१५४।। इच्च मो-मु-मे वा।। ३-१५५।। क्ते ॥३-१५६।। एच्च क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु ।।३-१५७।। वर्तमाना-पञ्चमी-शतृषु वा।। ३-१५८।। ज्जा-ज्जे।। ३-१५९।। ईअ- इज्जौ क्यस्य ॥३-१६०।। दृशि-वचेर्डीस-डुच्चं॥३-१६१।। सी ही हीअ भूतार्थस्य ।। ३-१६२।। व्यंजनादीअः।। ३-१६३।। तेनास्तेरास्यहेसी।।३-१६४||ज्जात्सप्तम्या इर्वा ॥३-१६५|| भविष्यति हिरादिः ॥३-१६६॥ मि-मो-मु-मे स्सा हा न वा।। ३-१६७|| मो-मु-मानां हिस्सा हित्था ।।३-१६८।। मे: स्स।। ३-१६९।। कृ-दो-हं ॥३-१७०।। श्रु-गमि-रुदि-विदि-दृशि-मुचि-वचि-छिदि-भिदि-भुजां सोच्छं गच्छं रोच्छं वेच्छंदच्छं मोच्छंबोच्छं छेच्छं भेच्छं भोच्छं ।। ३-१७१।। सोच्छादय इजादिषु हि लुक्च वा।। ३-१७२।। दुसु मुविध्यादिष्वेकस्मिंस्त्रयाणाम् ।।३-१७३।। सोर्हिर्वा।। ३-१७४।।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
XXIV : हेम प्राकृत व्याकरण अत इज्ज-स्विज्ज-हिज्जे-लुको वा।। ३-१७५।। बहुणु न्तु ह मो ॥३-१७६ ।। वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्चज्जज्जा वा ।।३-१७७।। मध्ये च स्वरान्ताद्वा ।।३-१७८॥ क्रियातिपत्तेः।।३-१७९।। न्त-माणौ।। ३-१८०॥शत्रानशः ।।३-१८१|| ई च स्त्रियाम्।। ३-१८२।।
चतुर्थः पादः इदितो वा ॥४-१।। कथेर्वज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः ।।४-२॥ दुःखे णिव्वरः ॥४-३।। जुगुप्से झुण-दुगुच्छ-दुगुञ्छाः ।।४-४।। बुभुक्षि-वीज्योीरव-वोज्जौ ।।४-५|| ध्या-गो झा-गौ ।।४-६।। ज्ञो जाण-मुणौ ॥४-७।। उदो ध्मो धुमा।।४-८|| श्रदो धो दहः।। ४-९|| पिबेः पिज्ज-डल्ल-पट्ट-धोट्टाः।। ४-१०।। उद्वातेरोरुम्मा वसुआ ।।४-११।। निद्रातेरोहीरोङ्घौ ।। ४-१२।। आ राइग्घः।।४-१३।। स्नातेरब्भुत्तः।। ४-१४|| समः स्त्यः खाः ।। ४-१५।। स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः ।। ४-१६।। उदष्ठ-कुक्कुरौ ।।४-१७।। म्लेर्वा-प्वायौ।। ४-१८|| निर्मो निम्माण-निम्मवौ ।। ४-१९।। क्षेर्णिज्झरो वा ।।४-२०।। छदेणे णुम-नूम-सन्नुम-ढक्कौम्वाल-पव्वालाः।। ४-२१।। निवि पत्योर्णि होडः ।। ४-२२।। दूडो दूमः ॥ ४-२३॥ धवले र्दुमः।। ४-२४।। तुले रोहामः।। ४-२५।। विरिचेरोलुण्डोल्लुण्ड-पल्हत्थाः।।४-२६।। तडेराहोड-विहोडौ।।४-२७।। मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ।।४-२८|| उद्धृलेर्गुण्ठः ।। ४-२९।। भ्रमेस्तालिअण्ट-तमाडौ॥ ४-३०।। नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगाल-पलावाः।।४-३१।। दृशेव-दस-दक्खवाः।।४-३२।। उद्घटेरुग्गः ।। ४-३३।। स्पृहःसिहः।।४-३४।। संभावेरासंघः।।४-३५।। उन्नमेरूत्थंघोल्लाल-गुलु गुञ्छोप्पेलाः ।। ४-३६।। प्रस्थापेः पट्टव-पेण्डवौ ।। ४-३७॥ विज्ञपेर्वोक्कावुको ।। ४-३८|| अरल्लिव-चच्चुप्प-पणामाः।। ४-३९|| यापेर्जवः।। ४-४०।। प्लावेरोम्वाल-पव्वालौ ।। ४-४१।। विकोशेः पक्खोडः ॥ ४-४२।। रोमन्थे रोग्गाल-वग्गोलौ ।। ४-४३।। कमेर्णिहुवः।। ४-४४।। प्रकाशेणुव्वः ।। ४-४५।। कम्पेर्विच्छोलः।।४-४६।। आरोपेर्वल ।। ४-४७।। दोलेरडोलः ।। ४-४८।। रञ्जेराव ।। ४-४९।। घटेः परिवाडः।।४-५०।। वेष्टेः परिआलः ॥४-५१।। क्रियः किणो वेस्तु के च।। ४-५२।। भियो भा-बीहौ ।। ४-५३।। आलीङोल्ली ॥४-५४।। निलीङोर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्घ-लुक्क-लिक्क-ल्हिक्काः।। ४-५५।। विलीङेविरा।। ४-५६।। रुतेरुञ्ज-रुण्टौ ।। ४-५७।। श्रुटे र्हणः।। ४-५८|| धूगे धुंवः ।। ४-५९।। भुवे:-हुव-हवाः।।४-६०।। अविति हुः ।। ४-६१।। पृथक्-स्पष्टे णिव्वडः।।४-६२।। प्रभौ हुप्पो वा ।। ४-६३॥ क्ते हूः।। ४-६४॥ कृगे:कुणः ।। ४-६५।। काणेक्षिते णिआरः ॥ ४-६६॥ निष्टम्भावष्टम्भे णिठुह- संदाण।। ४-६७।। श्रमे वावम्फः।। ४-६८|| मन्युनौष्ठमालिन्ये णिव्वोलः ।। ४-६९|| शैथिल्यलम्बने पयल्लः ।। ४-७०|| निष्पाताच्छोटे णीलुञ्छः ।।४-७१।। क्षुरे कम्मः ।।४-७२।। चाटौ गुललः ।।४-७३|| स्मरेझै-झूर-भर-भल-लढ-विम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः।।४-७४।। विस्मुः पम्हुस-विम्हर-वीसराः ।। ४-७५।। व्याहगेः कोक्क-पोक्को ।। ४-७६।। प्रसरेः पयल्लोवेल्लो ।।४-७७॥ महमहोगन्धे ।। ४-७८|| निस्सरेीहर-नील- -धाड--वरहाडाः । ४-७९।। जाग्रेजग्गः ।।४-८०॥ व्याप्रेराअड्डः ।। ४-८१।। संवृगेः साहर-साहट्टो ।। ४-८२।। आटः सन्नामः ।। ४-८३।। प्रहगेः सारः ।। ४-८४।। अवतरेरोह-ओरसौ ।। ४-८५|| शकेश्चय-तर-तीर-पाराः ।। ४-८६।। फक्कस्थक्कः ।। ४-८७।। श्लाघः सलहः ।। ४-८८।। खचेर्वेअङः । ४-८९।। पचे: सोल्ल-पउलो ।। ४-९०।। मुचेश्छड्डा व हेड-मेल्लोस्सिक-रेअवणिल्लुञ्छ-धंसाडाः।। ४-९१।। दु:खे णिव्वलः ॥४-९२।। वय्चेर्वेहव-वेलव-जूर वो मच्छाः ।। ४-९३।। रचेरूग्गहावह,-विड,विड्डाः ।। ४-९४।। समारचेरूवहत्थ-सारव-समार-केलायाः॥४-९५।। सिचेः सिञ्च-सिम्पो ।। ४-९६।। प्रच्छः पुच्छः ।। ४-९७।। गर्जेर्बुक्कः ।। ४-९८।। वृषे ढिक्कः ।। ४-९९।। राजे रग्घ-छज्ज-सह-रीर-रेहाः ।। ४-१००।। मस्जेराउड्ड-णिउड्ड-बुड्ड-खुप्पाः।। ४-१०१।। पुजेरारोल-वमालौ ।। ४-१०२।। लस्जे बहः ।। ४-१०३।। तिजेरोसुक्कः ।। ४-१०४।। मृजेरुग्घुस-लुञ्छ-पुंछ-पुंस-फुस-पुस-लुह-हुल-रोसाणाः।। ४-१०५।। भञ्जर्वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरज करञ्ज-नीरजाः ॥ ४-१०६।। अनुव्रजेः पडिअग्गः।। ४-१०७।। अर्जेर्विढवः ।। ४-१०८।। युजो जुञ्ज जुज्ज-जुप्पाः।।४-१०९।। भुजो भुञ्ज-जिम-जेम कम्माण्ह-चमढ-समाण-चड्डाः ।।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण: XXV ४-११०।। वोपेन कम्मवः ।। ४- १११ ।। घटेर्गढः ।।४ - ११२ ।। समो गलः । । ४ - ११३ ।। हासेन स्फुटे र्मुरः ।।४- ११४ ।। मण्डोश्चिञ्च-चिञ्चअ-चिञ्चिल्ल, - रीड - टिविडिक्काः । । ४ - ११५ ।। तुडे स्तोड तुट्ट - खुट्ट- खुडोक्खु डोल्लुक्क णिलुक्क लुक्कोल्लू राः । । ४ - ११६ ।। घूर्णो घुल- घोल - घुम्म - पहल्लाः । । ४ - ११७ ।। विवृतेर्दसः । । ४ - ११८ ।। क्वथेरट्टः ।।४-११९।। ग्रन्थेर्गण्ठः ।।४-१२० ।। मन्थेर्घुसल-विरोलौ ।।४-१२१।। ह्लादेरवअच्छः ।। ४-१२२ ।। नेः सदो मज्जः ।। ४-१२३।। छिदेर्दुहाव-णिच्छल्ल-णिज्झौड - णिव्वर - णिल्लूर - लूराः । । ४ - १२४ ।। आङा ओ अन्दोद्दालौ ।।४ - १२५ ।। मृदो मल-मढ-परिहट्ट- खड्ड - चड्ड - मड्ड - पन्नाडाः ।।४ - १२६ ।। स्पन्देरचुलुचुलः ।।४ - १२७ ।। निरः पदेर्वलः ।। ४-१२८ ।। विसंवदेर्विअट्ट-विलोट्ट-फंसाः । । ४ -१२९ ।। रादो झड-पक्खोडौ ।। ४-१३० ।। आक्रन्देर्णीहरः ।। ४-१३१ ।। खिदेर्जूर-विसूरौ ।। ४-१३२।। रुधेरुत्थङ्घः । । ४ - १३३ ।। निषेधेर्हक्क : ।। ४- १३४ ।। क्रुधेर्जूरः ।।४-१३५ ।। जनो जा - जम्मौ ।। ४- १३६ ।। तनेस्तड-तड्ड-तड्डव-विरल्ला ।। ४-१३७।। तृपस्थिप्पः । । ४ -१३८ ।। उपसर्पेरल्लिअः ।। ४-१३९।। संतपेर्झङ्खः।। ४-१४०।। व्याकपेरोअग्गः।। ४-१४१।। समापेः समाणः ।।४ - १४२ ।। क्षिपे र्गलत्थाड्डक्ख-सोल्ल-पेल्ल - णोल्ल - छुह-हुल-परी - घत्ताः ।। ।४--१४३।। उत्क्षिपेर्गुलगुञ्छोत्थं घाल्लत्थोब्भुत्तोस्सिक्क हक्खुवाः ।। ४-१४४ ।। आक्षिपेर्णीरवः ।। ४-१४५।। स्वपेः कमवस-लिस-लोट्टाः ।। ४-१४६ ।। वेपेरायम्बायज्झौ ।। ४-१४७ ।। विलपेर्झङख - वडवडौ । ४-१४८ ॥ लिपो लिम्पः ।। ४-१४९ ।। गुप्येर्विर-णडौ।। ४-१५० ।। क्रपो वहो णिः । । ४ - १५१ ।। प्रदीपेस्तेअव-सन्दुम-- सन्धुक्काब्भुत्ता।। ४- १५२ ।। लुभेः संभावः ॥ ४-१५३ ।। क्षुभेः खउर-पड्डुहौ । । ४ - १५४ ।। आङो रभे रम्भ-ढवौ ।। ४- १५५ ।। उपालम्भे र्झख़-पच्चार - वेलवाः ।। ४-१५६।। अवेजृम्भो जम्भा । । ४ - १५७ ॥ भाराक्रान्ते नमे, र्णिसुढः । । ४ - १५८ । । विश्रमे र्णिव्वा ।।४ - १५९ ।। आक्रमेरोहावोत्थार च्छुन्दाः ।। ४-१६०।। भ्रमेष्टिरिटिल्ल-ढुं दुल्ल-ढंढल्ल= चक्कम्म- भम्मड - भमड- भमाड- तलअंट-झंटझम्प - भुम-गुम-फुम-फुस- दुम- दुस- परी- पराः । । ४ - १६१ । । गमेरइ - अइच्छाणुवज्जावज्जसोक्कुसाक्कुसपच्चड्ड-पच्छन्दणिम्मह - णी - ीणणोलुक्क - पदअ-रम्भ-परिअल्ल- वोल-परिअल णिरिणास णिवहावसेहावहरा ।। ४-१६२।। आङा अहिपच्चुअः । । ४ - १६३ ।। समा अब्भिः ।। ४-१६४ ।। अभ्याङोम्मत्थः । । ४ - १६५ ।। प्रत्याङा पलोट्टः ।। ४-१६६।। रामेः पड़िसा–परिसामौ ।। ४-१६७ ।। रमेः संखुड्ड - खेड्डोब्भाव - किलिकिञ्च - कोट्टुम - मोट्टाय - णीसर - वेल्लाः ।। ४-१६८ ।। पुरेरग्घाडाग्घवोध्दुमाङगुमाहिरेमाः । । ४ - १६९ ।। त्वरस्तुवर-जअडौ ।। ४-१७० ।। त्यादिशत्रोस्तूरः ।। ४-१७१ ।। तुरो त्यादौ ।। ४-१७२।। क्षरः खिर-झर - पज्झर - पच्चड - णिच्चल - णिट्टुआ: ।। ४- १७३ ।। उच्छल उत्थल्लः ।। ४-१७४।। विगलेस्थिप्प - निट्टुहौ ।। ४ - १७५ ।। दलि-वल्योर्विसट्ट - वम्फौ । । ४ - १७६ ।। भ्रंशेः फिड - फिट्ट - फुड-फुट्ट - चुक्क - भुल्लाः । । ४ - १७७ ।। नशेर्णिरणास- णिवहावसेह - पड़िसा - सेहावहराः ।। ४- १७८ ।। आवात्काशोवासः ।। ४--१७९ ।। संदिशेरप्पाहः ।। ४-१८० ।। दृशो निअच्छा पेच्छा वयच्छाव यज्झ वज्ज- सव्वव देक्खौ - अक्खावखाव अक्ख- पुलोअ - पुलअ-निआव आस-पासाः ।। ४-१८१ ।। स्पृशः फास- फंस-फरिस - छिव- छिहालुं खालिहाः ।। ४-१८२ ।। प्रविशे रिअः ।। ४-१८३ ।। प्रान्मृश- मुषोर्व्हस : ।। ४ - १८४ । । पिषे र्णिवह - णिरिणास - णिरिणज्ज - रोञ्च - चड्डा ।। ४-१८५ ।। भषेर्भुक्कः । । ४ - १८६ ।। कृषेः कड्ढ-साअड्ढाचाणञ्छाइञ्छाः ।। ४- १८७ ।। असावक्खोडः ।।४-१८८।। गवेषेढुँढुल्ल-ढण्ढोल-गमेस-घत्ताः ।। ४-१८९ ।। श्लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः ।। ४-१९० ।। म्रक्षे श्रचोप्पडः ।। ४-१९१।। कांक्षेराहहिलंघाहिलंख-वच्च - वम्फ-मह-सि-विलुम्पाः । । ४ - १९२ ।। प्रतीक्षेः सामय - विहीर - विरमाला ।। ४-१९३ ।। तक्षे स्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फाः । । ४ - १९४ ।। विकसेः कोआस वोसट्टौ ।। ४ - १९५ ।। हसे र्गुञ्ज ।। ४- १९६ ।। स्रंसेस - डिम्भौ ।। ४-१९७।। त्रसेर्डर बोज्ज वज्जाः । । ४-१९८ । । न्यसोणिम - णुमौ । । ४ - १९९ ।। पर्यसः पलोट्ट -पल्लट-पल्हत्थाः ।। ४-२००॥ निःश्वसे र्झङ्खः।।४--२०१ ।। उल्लसे रूस लोसुम्भ- णिल्लस- पुलआअ-गुञ्जोल्लारोआः ।।४-२०२।। भासेर्भिसः ।।४-२०३।। ग्रसेर्धिसः।। ४-२०४।। अवाद्गाहेर्वाहः ४ - २०५ ।। आरुहेश्चड - वलग्गौ । । ४ - २०६ ।। मुहेर्गुम्म- गुम्मडौ । । ४ -२०७।। दहेरहिऊलालुं खौ।। ४-२०८।। ग्रहो वल-गेण्ह-हर-पंग-निरुवाराहि पच्चुआ: ।। ४- २०९ ।। क्त्वा - तुम्-तव्येषु - घेत् ।। ४-२१० ।। वचो वोत्।। ४-२११ ।। रुद - भुज-मुचां तोन्त्यस्य । । ४ - २१२ । । दृशस्तेन टुः ।। २१३ ।। आ कृगो भूत-भविष्यतोश्च । । ४ - २१४ ।। गमिष्यमासां
-
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
XXVI : हेम प्राकृत व्याकरण
छः।।४-२१५।। छिदि-भिदो न्दः । । ४ - २१६ ।। युध-बुध-गृध- क्रुध - सिध-मुहां ज्झः ॥ ४-२१७।। रुधो न्ध-म्भौ च ।। ४-२१८।। सद-पतोर्डः।। ४-२१९।। क्वथ- वर्धा ढः ।। ४-२२० ।। वेष्टः ।। ४- २२१ ।। समोल्लः ।। ४- २२२ ।। वोदः । । ४ - २२३ ।। स्विदां ज्जः ।। ४-२२४ ।। व्रज-नृत-मदां च्चः । । ४ - २२५ ।। रूद-नमोर्वः । । ४ - २२६ ॥ उद्विजः ४ - २२७ ।। खाद - धावो लुक ।। ४-२२८ ।। सृजोरः । । ४ - २२९ ।। शकादीनां द्वित्वम् ।। ४-२३० ।। स्फुटि-चलेः । । ४ - २३१ ।। प्रादेर्मीलेः ।। ४-२३२ ।। उवर्णास्यावः ४ - २३३ ।। ऋवर्णास्यारः ४-२३४।। वृषादीनामरिः ।। ४-२३५ ।। रुषादीनां दीर्घः ।। ४-२३६ ।। युवर्णस्य गुणः । । ४ - २३७ ।। स्वराणां स्वरः ।। ४-२३८।। व्यञ्जनाददन्ते।। ४-२३९ ।। स्वरादनतो वा । । ४ - २४० ।। चि-जि-श्रृ-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो ह्रस्वश्च।। ४-२४१।। नवा कर्म-भावे व्व क्यस्य च लुक् ।। ४- २४२ ।। म्मश्चे: ।। ४- २४३ ।। हन्खनोन्त्यस्य ।। ४- २४४ ।। ब्भो दुह-लिह-वह-रूधामुच्चातः । । ४ - २४५ ।। दहो ज्झः । । ४ - २४६ । । बन्धो न्धः । । ४ - २४७ ।। समनूपादूधेः ॥४- २४८ ।। गमादीनां द्वित्वम् ।।४- २४९ ।। ह्र-कृ-तृ - ज्रामीरः ॥ ४- २५० ।। अर्जेर्विढप्पः । । ४ - २५१ ॥ ज्ञो णव्व णज्जौ । । ४ - २५२ ।। व्याहगेर्वाहिप्पः । ४-२५३।। आरभेराढप्पः।। ४-२५४ ।। स्निह-सिचोः सिप्पः । । ४ - २५५।। ग्रहेर्घेप्पः ।। ४-२५६।। स्पृशे रिछप्पः ।। ४-२५७।। क्तेनाप्फण्णादयः।। ४-२५८ ।। धातवोर्थान्तरेपि ।। ४ - २५९ ।। तो दोना दौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ।। ४-२६० ।। अधः क्वचित् ।। ४-२६१ ।। वादेस्तावति।। ४-२६२ ।। आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नं: ।। ४-२६३ ।। मो वा ।। ४-२६४ ।। भवद्भगवतोः।। ४-२६५।। न वा र्यो य्यः।। ४-२६६।। थो धः । । ४ - २६७ ।। इह -हचोर्हस्य ।। ४-२६८ ।। भुवो भः । । ४ - २६९ ।। पूर्वस्य पुरवः ४ - २७० ।। क्त्व इय-दूणौ।। ४-२७१ ।। कृ-गमो डडुअः । । ४ -२७२ ।। दि रि चे चोः । । ४ -२७३ ।। अतो देश्च । । ४ -२७४ ।। भविष्यति स्सिः ।।४-२७५।। अतो ङसे र्डा दो-डा दू । । ४ - २७६ ।। इदानीमो दाणिं । । ४ - २७७ ॥ तस्मात्ताः । । ४ - २७८ ।। मोन्त्ययाण्णो वेदे तोः ।। ४-२७९।। एवार्थ य्ये व ।। ४-२८० ।। हञ्जे चेट्याह्वाने ।। ४-२८१ ।। हीमाणहे विस्मय - निर्वेदे । । ४ - २८२ ।। णं नन्वर्थे ।। ४-२८३।। अम्महे हर्षे।। ४-२८४ ।। ही ही विदूषकस्य । । ४ - २८५ ।। शेषं प्राकृतवत् ।।४ - २८६ ।। इति शौरसेनी - भाषा - वितरण समाप्त अत एत् सौ पुंसि मागध्याम् । । ४ - २८७ ।। र-सोर्ल - शौ । । ४ - २८८ । । स-षोः संयोगे सोग्रीष्मे । । ४ - २८९ ।। दृ-ष्ठयोस्टः ।। ४-२९० ।। स्थ-र्थयोस्तः । । ४ - २९१ । । ज - द्य-यां-यः ।। ४- २९२ ।। न्य- ण्य-ज्ञ ञ्जां ञः । । ४ - २९३ ।। व्रजो जः । । ४ - २९४ ।। छस्य राचोनादौ।। ४-२९५ ।। क्षस्य कः ।। ४-२९६ ।। स्कः प्रेक्षाचक्षोः ।। ४-२९७ ।। तिष्ठ श्चिष्ठः ।। ४-२९८ ।। अवर्णाद्वाङसो डाहः ।। ४-२९९।। आमो डाहँ वा ।। ४-३०० ।। अहं वयमोर्हगे।। ४-३०१ ।। शेषं शौरसेनीवत्।। ४- ३०२ ।। ज्ञो ञ्ञः पैषाच्याम्।। ४-३०३ ।। राज्ञो वा चिञ्।। ४-३०४ ।। न्य- णयो ञः ।। ४-३०५ ।। णो नः ।। ४-३०६ ।। तदोस्तः।। ४-३०७।। लोळ ः ४-३०८ ।। श-षोः सः।। ४-३०९।। हृदये यस्य पः । । ४ - ३१० ।। टोस्तुर्वा ।। ४- ३११ ।। क्त्व स्तूनः ।। ४- ३१२ ।। धून- त्थू नौ ष्ट्वः ।। ४-३१३।। र्य-स्न-ष्टां रिय- सिन-सटाः क्वचित् ।। ४- ३१४ ।। क्यस्येय्यः । । ४ - ३१५ ।। कृगो डीरः ।। ४ - ३१६ ।। याद्दषादे दुस्तिः ।। ४- ३१७।। इचेचः । । ४ - ३१८ ।। आ - ते श्रच । । ४ - ३१९ ।। भविष्यत्येय्य एव ।। ४-३२० ।। अतो से तो- - डातु ।। ४- ३२१ ।। त दिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए । । ४ - ३२२ । । शेषं शौरसेनीवत् ।। ४-३२३।। नकग-च-जादि-षट्-शम्यन्तसूत्रोक्तम्। पैशाच्यां क-ग-च-ज-त-द- प-य-वां।। ४-३२४ ।। चूलिका - पैषाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ।। ४-३२५ ।। रस्य लो वा ।। ४--३२६।। नादि - युज्योरन्येषाम् ।। ४-३२७ ।। शेषं प्राग्वत्।। ४-३२८ ।। स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंषे ।। ४-३२९ ।। स्यादौ दीर्घ-हस्वौ ।। ४-३३० ।। स्यमोरस्योत् ।। ४- ३३१ ।। सौ पुंस्योद्वा।। ४-३३२।। ।। एट्टि ४--३३३।। ङ नेच्च।। ४-३३४ ।। भिस्येद्वा ।। ४-३३५ ।। ङसे है-हू ।। ४-३३६ ।। भ्यसो हुं।। ४-३३७ ।। ङसः सु-हो- स्सवः ॥ ४-३३८।। आमो हं।। ४-३३९ ।। हुं चेदुदभ्याम्।। ४-३४० ।। ङसि - भ्यस् - डीनां हे-हुं-हयः ।। ४-३४१ ।। आट्टो णानुस्वारौ।। ४-३४२ ।। एं येदुतः।। ४-३४३।। स्यम्-जस्-शसां लुक्।। ४-३४४ ।। पष्ठयाः।। ४-३४५ ।। आमन्त्र्ये जसो होः ।। ४-३४६ ।। भिस्सुपोर्हि।। ४-३४७।। स्त्रियां जस्-शसोरूदोत्।। ४-३४८ ।। ट ए ।। ४-३४९ ।। ङस् -ङस्योर्हे ।। ४-३५० ।। भ्यसमो हुः ।। ४-३५१ ।। ङे हिं।। ४-३५२ ।। क्लीबे जस्-रासोरिं । । ४ - ३५३ ।। कान्तस्यात उं स्यमों: ।। ४- ३५४ ।। सर्वादे ईसेर्हां ।। ४-३५५ ।। किमो डिहे वा।। ४-३५६ ।। ङे र्हि ।। ४-३५७ ।। यत्तत्किंभ्यो ङसो डासु र्न वा ।। ४-३५८ ।। स्त्रियां डहे ।। ४- ३५९ ।। यत्तदः स्यमोर्धं त्रं ।। ४-३६० ।। इदम इमुः क्लीबे ।। ४-३६१ ।। एतदः स्त्री-पुं-क्लीबे एह-एहो - एहु । । ४-३६२ ।। एइर्जस्-रासोः ।।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : XXVII
४-३६३।। अदस ओइ ।। ४-३६४।। इदम आयः।। ४-३६५।। सर्वस्य साहो वा।। ४-३६६।। किमः काइं-कवणौ वा।। ४-३६७।। युष्मदः सौ तुहं ।। ४-३६८।। जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हई।। ४-३६९।। टा-ङयमा पइं पड़।। ४-३७० ।। भिसा तुम्हेहिं ।। ४-३७१ ।। ङसि-ङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र।। ४-३७२।।भ्यसाम्भ्यां तुम्हह।। ४-३७३।। तुम्हासु सुपा।। ४-३७४।। सावस्मदो हउं।। ४-३७५।। जस्-शसोरम्हे अम्हई ।। ४-३७६ ।। टा-ङयमा मई ।। ४-३७७।। अम्हेहिं भिसा।। ४-३७८।। महु मज्झुङसि-ङस्-भ्याम्।। ४-३७९।। अम्हहं भ्यसाम्-भ्याम्।। ४-३८०।। सुपा अम्हासु।। ४-३८१।। त्यादेराद्य-त्रयस्य संबन्धिनो हिं न वा।। ४-३८२।। मध्य-त्रयस्याद्यस्य हिः।। ४-३८३।। बहुत्वे हुः।। ४-३८४ || अन्त्य-त्रयस्यदयस्य उं ।। ४-३८५।। बहुत्वे हुं।। ४-३८६।। हि-स्वयोरिदुदेत्।। ४-३८७।। वर्षीति-स्यस्य सः।। ४-३८८|| क्रियेः कीसु।। ४-३८९।। भुवः पर्याप्तौ हुच्चः।। ४-३९०।। ब्रूगो ब्रूवो वा।। ४-३९१।। ब्रजे बुबः।। ४-३९२।। द्दशेः प्रस्सः।। ४-३९३।। ग्रहे गुणहः।। ४-३९४।। तक्ष्यादीनां छोल्लादयः।। ४-३९५।। अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां-म- ग-घ-द-ध-ब-भाः।। ४-३९६।। मोनुनासिको वो वा ।। ४-३९७।। वाधा रो लुक् ।। ४-३९८।। अभूतोपि क्वचित्।। ४-३९९|| आपद्विपत्-संपदां द इः।। ४-४००।। कथं यथा-तथा थादेरेमेमेहेधा डितः।। ४-४०१।। याद्दक्ताद्दक्कीद्दगीद्दशांदादेर्डे हः।। ४-४०२।। अतांडइसः।। ४-४०३।। यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेत्य्वत्तु।। ४-४०४।। एत्थु कुत्रात्रे।। ४-४०५।। यावत्तावतोर्वादेर्मउंमहि।। ४-४०६।। वा यत्तदोतो.वडः ।। ४-४०७।। वेदं-किमोर्यादेः।। ४-४०८।। परस्परस्यादिरः।। ४-४०९।। कादि-स्थैदोतोरूच्चार-लाघवम् ।। ४-४१०।। पदान्ते उं-हुं-हिं-हंकाराणाम् ।। ४-४११।। म्हो भो वा।। ४-४१२।। अन्याद्दशोन्नाइसावराइसौ ।। ४-४१३।। प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्व-पग्गिम्वाः।। ४-४१४।। वान्यथोनुः।। ४-४१५।। कुतसः कउ कहन्ति ।। ४-४१६।। ततस्तदोस्तोः।। ४-४१७।। एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक-एम्व पर समाणु ध्रुव मंमणाउं ।। ४-४१८।। किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवेसहुं नाहिं।। ४-४१९।। पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्वइ जि एस्वहि पच्चलिउ एत्तहे।।४ - ४२०।। विषणणोक्त-वर्त्मनो-वुन्न-वुत्त-विच्चं।।४-४२१।। शीघ्रादीनां वहिल्लादयः।। ४ - ४२२।। हुहुरू-घुग्घादय शब्द-चेष्टानुकरणयोः।। ४-४२३।। घइमादयोनर्थकाः।। ४-४२४।। तादर्थ्य केहि-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणाः ।। ४-४२५।। पुनर्विनः स्वार्थे डुः।। ४-४२६।। अवष्यमो डें-डौ।। ४-४२७।। एकशसो डि।। ४-४२८।। अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक-क-लुक् च।। ४-४२९।। योग जाश्चैषाम्।। ४-४३०।। स्त्रियां तदन्ताड्डीः।। ४-४३१।। आन्तान्ताड्डाः।।४-४३२।। अस्येदे।। ४-४३३।। यष्मदादेरीयस्य डारः।। ४-४३४।। अतोत्तलः।। ४-४३५॥ त्रस्य डेत्तहे।। ४-४३६।। त्व-तलोः प्पणः।। ४-४३७॥ तव्यस्य इएव्वउं एव्वउं एवा।। ४-४३८|| क्त्व इ-इवि-अवयः।। ४-४३९।। एप्प्येप्पिणवेव्येयाविणवः ।। ४-४४०।। तुम एवमणाणहमणहिं च ।।४-४४१|| गमेरेप्पिणवेप्पयोरेलुंग् वा।। ४-४४२।। तृनोणअः।। ४-४४३।। इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः।। ४-४४४।। लिंगमतन्त्रम्।। ४-४४५।। शौरसेनीवत्।। ४-४४६।। व्यत्ययश्च।। ४-४४७।। शेषं संस्कृतवत् सिद्धम्।। ४-४४८।।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
or.M.m...3.४...
...
PF
MAM
E
प्राकृत-व्याकरण सूत्रानुसार-विषयानुक्रमणिका
प्रथम पादः क्रमांक विषय
सूत्रांक पृष्ठांक प्राकृत-शब्द आधार और स्वर व्यञ्जनादि विकल्प-सिद्ध सर्व शब्द संग्रह
आर्ष-रूप-संग्रह स्वरों की दीर्घ-हस्व-व्यवस्था स्वर संधि
५ से ९ स्वर अथवा व्यञ्जन की लोप-विधि
१० से १४ १६ शब्दान्त्य-व्यञ्जन के स्थान पर आदेश-विधि अनुस्वार-विधि अनुस्वार-लोप-विधि शब्द-लिंग-विधान विसर्ग-स्थानीय'ओ' विधान "निर और प्रति' उपसर्गों के लिए उपविधान अव्ययों में लोप विधि
४० से ४२ हस्व-स्वर से दीर्घ स्वर का विधान
४३ से ४५ 'अ' स्वर के स्थान पर क्रम से 'इ-अइ-ई-उ-ए-ओ-उ-आ-आई-" प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
४६ से ६५ 'अस्वर का वैकल्पिक रूप से लोप-विधान __ 'आ' स्वर के स्थान पर क्रम से 'आ-इ-ई-उ-ऊ-ए-उ और औ-ओ' प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
६७ से ८३ दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर की प्राप्ति का विधान __ 'इ' स्वर के स्थान पर क्रम से 'ए-अ-ई-इ-उ-'उ और ओ', प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
८५ से ९७ 'न' सहित 'इ'के स्थान पर 'ओ' प्राप्ति का विधान
९८ 'ईस्वर के स्थान पर क्रम से 'अ-आ-इ-उ-ऊ-उ-ए' प्राप्ति का विविध रूप से संविधान ९९ से १०६ 'उ' स्वर के स्थान पर क्रम से 'अ-इ-ई-ऊ-ओ' प्राप्ति का विविध रूप से संविधान १०७ से ११८ 'ऊ' स्वर के स्थान पर क्रम से अ-ई-इ-उ-तथा 'इ और ए' की तथा 'ओ' की प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
११९ से १२५ 'ऋ' स्वर के स्थान पर क्रम से 'अ-आ-इ-उ-'इ एवं उ तथा उ-ऊ-ओ, इ-उ, इए-ओ, रि और 'ढि' की प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
१२६ से १४४ 'ल' के स्थान पर 'इलि' आदेश प्राप्ति का विधान
१४५ 'ए' स्वर के स्थान पर क्रम से 'इ-ऊ' प्राप्ति का विधान
१४६ से १४७ 'ऐ' स्वर के स्थान पर क्रम से 'ए-इ-अइ 'ए और अइ' अ अ तथा ई प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
१४८ से १५५ ११५ "ओ" स्वर के स्थन पर वैकल्पिक रूप से "अ" की तथा "ऊ और अउ' एवं 'आअ' की प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
१५६ से १५८ १२१
2.
के कम
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : XXIX
२९
१७६
१२३ १२७ १३६ १३७ १४५
१४६
१४६ १४८
१५०
३७ ३८
१८९
१५५ १५५ १५६ १५७ १५७ १५७
१५९
१६१
४६
२०३
४७
"औ" स्वर के स्थान पर क्रम से"ओ-उ-अउ;"अ और अउ"तथा आवा" प्राप्ति का विविध रूप से संविधान
१५९ से १६४ व्यज्जन-लोप पूर्वक विभिन्न स्वरों के स्थान पर विभिन्न स्वरों की प्राप्ति का विधान १६५से १७५ व्यज्जन-विकर के प्रति सामान्य -निर्देश "क-ग-च-ज-त-द-प-य-व" व्यज्जनों के लोप होने का विधान
१७७ "म" व्यञ्जन की लोप-प्राप्ति और अनुनासिक प्राप्ति का विधान
१७८ "प" व्यञ्जन के लोप होन की निषेध विधि
१७९ लुप्त व्यञ्जन के पश्चात शेष रहे हुए "अ" के स्थान पर "य" श्रुति की प्राप्ति का विधान १८० "क" के स्थान पर "ख-ग-च-भ-म-ह" की प्राप्ति का विधान
१८१ से १८६ "ख -घ -थ -ध-भ" के स्थान पर "ह" की प्राप्ति का विधान
१८७ "थ" के स्थान पर "ध" की प्राप्ति का विधान
१८८ "ख" के स्थान पर "क" की प्राप्ति का विधान "ग" के स्थान पर "म-ल-व" की प्राप्ति का विधान
१९०से १९२ "च" के स्थान पर "स" और "ल" की प्राप्ति का विधान
१९३ "ज" के स्थान पर "झ" की प्राप्ति का विधान
१९४ "ट" के स्थान पर"ड-ढ-ल" की प्राप्ति का विधान
१९५ से १९८ "ठ"के स्थान पर "ढ-ल्ल-ह-ल" की प्राप्ति का विधान
१९९ से २०१ "ड"के स्थान पर "ल" की प्राप्ति का विधान
२०२ "ण" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ल" की प्राप्ति का विधान "त" के स्थान पर "च-छ-ट-ड-ण-पण-र-ल-व-ह" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान २०४ से २१४ "थ" के स्थान पर "ढ" की प्राप्ति का विधान
२१५ से २१६ "द" के स्थान पर "ड-र-ल-ध-व-ह" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान २१७ से २२५ "ध" के स्थान पर "ढ" की प्राप्ति का विधान
२२६ से २२७ "न" के स्थान पर"ण" की प्राप्ति का विधान
२२८ से २२९ "न" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ल" ओर "ह" की प्राप्ति का विधान
२३० "प"के स्थान पर "व-फ-म-र" की प्राप्ति का विधान
२३१ से २३५ "फ" के स्थान पर "भ" और "ह" की प्राप्ति का विधान
२३६ "ब"के स्थान पर "व-भ-म-य" की प्राप्ति का विधान
२३७ से २३९ "भ" के स्थान पर "व" की प्राप्ति का विधान
२४० "म" के स्थान पर"ढ-व-स" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान
२४१ से २४४ "य"के स्थान पर ज-त-ल-ज्ज-ह-"डाह-आह" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान २४५ से २५० "र" के स्थान पर "ड-डा-न-ल" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान
२५१ से २५४ "ल" के स्थान पर "र-ण" की प्राप्ति का विधान
२५५ से २५७ "ब" और "व" के स्थान पर "म" की प्राप्ति का विधान
२५८ से २५९ "श" और "ष" के स्थान पर "स" की प्राप्ति का विधान
२६० "ष" के स्थान पर "ह" की प्राप्ति का विधान
२६१ "श" और "ष" तथा "स" के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से)"ह" की प्राप्ति का विधान २६२ से २६३ "ह" के स्थान पर "घ" की प्राप्ति का विधान
२६४ "ष", "श" और "स" के स्थान पर "छ" की प्राप्ति का विधान
२६५ से २६६ स्वर सहित "ज-क-ग-य-द-व"व्यञ्जनों का विभिन्न रूप से एवं विभिन्न शब्दों में लोप-विधिका प्रदर्शन
२६७ से २७१
१६३ १६४ १७२
१७३
१७७
५० ५१
१७७
५२
१७९ १७९ १८३ १८४
५४
१८५
५८
१८५ १८६ १९१ १९४ १९५
६१
१९६
१९७
१९७
६५
१९८
६६
१९८
१९९
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
XXX : हेम प्राकृत व्याकरण
२०५ २०५ २०६
७०
२०६ २०९ २१० २१०
२११
२१३ २१४ २२१ २२३ २२५ २२५
FFFFFF
द्वितीय पादः ६८ संयुक्त व्यञ्जनों के लिए अधिकार-सूत्र "क्त-ष्ट-ग्ण-त्व" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "क" आदेश प्राप्ति
२ "क्ष" के स्थान "ख-छ-झ" की आदेश की प्राप्ति "ष्क-स्क-क्ष्व-स्थ-स्त" के स्थान पर विभिन्न रूप से और विभिन्न शब्दों में "ख" आदेश प्राप्ति का विधान
४ से ८ ७२ "स्त" के स्थान क्रम से "थ" और "ठ" की प्राप्ति
९ "क्त" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ग" की प्राप्ति
१० ७४ "ल्क" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ङ्ग" की प्राप्ति
११ ७५ अमुक संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर विविध रीति से ओर विविध रूपों में "च" की प्राप्ति १२ से १४ ७६ "त्व-थ्व-द्व-ध्व" के स्थान पर क्रम से"च-छ-ज-झ" की प्राप्ति ওও "श्च" के स्थान पर "ञ्चु" की वैकल्पिक प्राप्ति ७८ कुछ संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर विविध रीति से और विविध शब्दों में "छ" व्यञ्जन की प्राप्ति १७ से
विशेष संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर विविध आधार से "ज" और "ज" व्यञ्जन की प्राप्ति
संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर "झ" व्यञ्जन की प्राप्ति ८१ संयुक्त "न्ध" के स्थान पर "झा" की प्राप्ति ८२ "त" और "त" के स्थान पर "ट" की प्राप्ति
"न्त" के स्थान पर 'ण्ट' की प्राप्ति संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ठ" की प्राप्ति
३२ से ३४ संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ड" की प्राप्ति
३५ से ३७ संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ण्ड" की प्राप्ति "स्तब्ध" में संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर क्रम से "ठ" और "ढ" की प्राप्ति अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ढ" की प्राप्ति
४० से ४१ "स्न" और "ज्ञ" के स्थानपर "ण" की प्राप्ति अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ण" की प्राप्ति "मन्यु" शब्द में संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "न्त" की वैकल्पिक प्राप्ति अमुक संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर "थ" की प्राप्ति
४५-४६-४८ "पर्यस्त" में संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर क्रम से "थ" और "ट" की प्राप्ति ९४ "आश्लिष्ट" में संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर क्रम से "ल" और "थ" की प्राप्ति
"चिह्न" में संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "न्ध" की प्राप्ति ९६ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "प" की प्राप्ति
५१ से ५२ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "फ" की प्राप्ति
५३ से ५५ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "म्ब" की प्राप्ति ९९ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "भ" की प्राप्ति
५७ से ५९ "कश्मीर" में संयुक्त व्यंजन के स्थान पर "म्भ" की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति १०१ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "म" की प्राप्ति
६१ से ६२ १०२ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "र" की प्राप्ति
६३ से ६६ १०३ "र्य" के स्थान पर "रिअ-अर-रिज्जरीअ' और "ल्ल" की प्राप्ति का विधान
६७ से ६८ १०४ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "स" की प्राप्ति १०५ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ह" की प्राप्ति
७० से ७३
२२९
२२९ २३२ २३३
८७
२३३
२३४
२३५
२३६
२३६
२३६
२३८ २३९
२३९
२३९
'PPF
२४० २४२ २४२ २४३ २४४
१००
२४५
२४६
२४८
२४८
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम प्राकृत व्याकरण : XXXI
२५० २५४ २५७ २६१ २६२
२६५
२६६
२६८
२७०
०६ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "म्ह. बह और ल्ह" की प्राप्ति का विधान
७४ से ७६ १०७ "क्-ग-ट्-ड्-त्-द्-प-श-ए-स- क-X-प" के लोप होने का विधान
७७ १०८ "म-न-य" और "ल-ब-र" के लोप होने की विधि
७८ से ७९ १०९ "र"का वैकल्पिक-लोप ११० "ण","ञ्","ह" का वैकल्पिक लोप १११ आदि "श","श्च" और "त्र" की लोप-विधि ११२ शेष अथवा आदेश प्राप्त व्यञ्जन को "दित्व-प्राप्ति" का विधान ११३ "द्वित्व-प्राप्त व्यञ्जनों में से प्राप्त पूर्व व्यञ्जन के स्थान पर प्रथम अथवा तृतीय व्यञ्जन की प्राप्ति का विधान
० ११४ "दीर्घ" शब्द में "" के लोप होने के पश्चात् "घ" के पूर्व में आगम रूप "ग्" प्राप्ति का वैकल्पिक विधान
९१ ११५ अनेक शब्दों में लोपावस्था में अथवा अन्य विधि में आदेश रूप से प्राप्तव्य "द्विर्भाव" की प्राप्ति की निषेध विधि
९२ से ९६ ११६ अनेक शब्दों में आदेश प्राप्त व्यञ्जन में वैकल्पिक रूप से द्वित्व प्राप्ति का विधान ९७ से ९९ ११७ अमुक शब्दों में आगम रूप से "अ" और "इ" स्वर की प्राप्ति का विधान
१०० से १०८ ११८
अमुक शब्दों में आगम रूप से क्रम से 'अ" और "इ" दोनों ही स्वर की प्राप्ति का विधान १०९ से ११० "अर्हत्" शब्द में आगम रूप से क्रम से "उ","अ" और "इ" तीनों ही स्वर की प्राप्ति का विधान
१११ २० अमुक शब्दों में आगम रूप से "उ" स्वर की प्राप्ति का विधान
११२ से ११४ १२१ "ज्या" शब्द में आगम रूप से "ई" स्वर की प्राप्ति ।
११५ अमुक शब्दों में स्थित व्यञ्जनों को परस्पर में व्यत्यय भाव की प्राप्ति का विधान ११६ से १२४ १२३ । अमुक संस्कृत शब्दों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में सम्पूर्ण रूप से किन्तु वैकल्पिक रूप से नूतन शब्दादेश प्राप्ति का विधान
१२५ से १३८ १२४ अमुक संस्कृत शब्दों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में सम्पूर्ण रूप से और तित्यमेव नूतन शब्दादेश प्राप्ति का विधान
१३९ से १४४ १२५ "शील-धर्म-साधु" अर्थ में प्राकृत शब्दों में जोड़ने योग्य "इर" प्रत्यय का विधान
१४५ १२६ "क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में "तुम अत्-तूण-तूआण" प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति का विधान
१४६ १२७ "तद्धित" से संबंधित विभिन्न प्रत्ययों की विभिन्न अर्थ में प्राप्ति का विधान
१४७ से १७३ १२८ कुछ रूढ और देश्य शब्दों के सम्बन्ध में विवेचना
१७४ १२९ अव्यय शब्दों की भावार्थ-प्रदर्शन-पूर्वक विवेचना
१७५ से २१८
२७० २७४ २८० २९०
२९१ २९१ २९३
FF
२९४
२९७
३०३
३०५
३०७ ३०८ ३२८
३३७
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ॐ श्री अर्हत्-सिद्धेभ्यो नमः।।
आचार्य हेमचन्द्र रचितम् (प्रियोदय हिन्दी-व्याख्यया समलंकृतम्)
प्राकृत-व्याकरणम्
प्रथम पाद त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्गकेतुम् ।।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेक। ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।।१।।
अथ प्राकृतम् ॥१-१॥ अथ शब्द आनन्तर्यार्थोऽधिकारार्थश्च।। प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्। संस्कृतानन्तरं प्राकृतमधिक्रियते।। संस्कृतानन्तरंच प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम्। संस्कृतसमं तु संस्कृत लक्षणेनैव गतार्थम्। प्राकृते च प्रकृति-प्रत्यय-लिंग-कारक-समाससंज्ञादयः संस्कृत वद् वेदितव्याः। लोकाइति च वर्तते। तेन ऋ-ऋ-ल-ल ऐ-औ-ङ-ब-श-ष-विसर्जनीयप्लुत-वा वर्णसमाम्नायो लोकाद् अवगन्तव्यः। ङ-बी-स्व-वर्य संयुक्तौ भवत एव। ऐदौतौ च केषाचित्। कैतवम्। कैअवं। सौन्दर्यम्। सौंअरि। कौरवाः।। कौरवा।। तथा अस्वरं व्यञ्जनं द्विवचनं चतुर्थी-बहुवचनं च न भवति।।। __ अर्थः- "अथ" शब्द के दो अर्थ होते हैं:- (१) पश्चात् वाचक और (२) "अधिकार" या "आरंभ" अथवा "मंगलाचरण" वाचक। यहाँ पर "प्रकृति" शब्द का तात्पर्य "संस्कृत" है; ऐसा मूल ग्रंथकार का मन्तव्य है। तदनुसार संस्कृत से आया हुआ अथवा संस्कृत से उत्पन्न होने वाला शब्द प्राकृत-शब्द होता है; ऐसा आचार्य हेमचन्द्र का दृष्टिकोण है परन्तु भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ऐसा अर्थ ठीक नहीं है। किसी भी कोष में अथवा व्युत्पत्ति-शास्त्र में "प्रकृति" शब्द का अर्थ "संस्कृत" नहीं लिखा गया है। यहाँ "प्रकृति" शब्द के मुख्य अर्थ "स्वभाव" अथवा "जन-साधारण" लेने में किसी तरह का विरोध नहीं है। "प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध इति प्राकृतम्" अथवा प्रकृतीनां-साधारण जनानामिदं प्राकृतम्" यही व्युत्पत्ति वास्तविक और प्रमाणयुक्त मानी जा सकती है। तदनुसार यहाँ पर सुविधानुसार प्राकृत-शब्दों की साधनिका संस्कृत शब्दों के समानान्तर रूप का आधार लेकर की जायगी। क्योंकि बिना समानान्तर रूप के साधनिका की रचना नहीं की जा सकती है। जिस भाषा-प्रवाह का परिवर्तित रूप 'प्राकृत' में उपलब्ध है; वह भाषा-प्रवाह लुप्त हो गया है; अतः समानान्तर आधार के लिये हमें संस्कृत भाषा की ओर अभिमुख होना पड़ रहा है; ऐसे तात्पर्य की अभिव्यक्ति "प्रकृतिः संस्कृतम्" शब्दों द्वारा जानना। प्रथम संस्कृत-व्याकरण का निर्माण सात अध्यायों में करके इस आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण की रचना की जा रही है। संस्कृत व्याकरण के पश्चात् प्राकृत-व्याकरण का विधान करने का तात्पर्य यह है कि प्राकृत-भाषा के शब्द कुछ तो संस्कृत के समानान्तर ही होते हैं और कुछ की साधनिका करनी पड़ती है। अतः
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
2 : प्राकृत व्याकरण
प्राकृत शब्द 'देशज-शब्द' नहीं है; यह बतलाने के लिए उपरोक्त सूत्र की रचना की गई है। प्राकृत-भाषा में संस्कृत भाषा के जैसे ही जिन-जिन समानान्तर शब्दों की उपलब्धि पाई जाती है; उन शब्दों की साधना संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ही जानना। जो कि सात अध्यायों में पहले ही संगुफित कर दिये गये हैं। ___ संस्कृत रूपों से भिन्न रूपों में पाये जाने वाले शब्दों की सिद्धि-अर्थ इस व्याकरण की रचना की जा रही है। प्राकृत भाषा में भी प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास और संज्ञा इत्यादि सभी आवश्यकीय वैयाकरणीय व्यवस्थाएँ भी संस्कृत-व्याकरण के समान ही जानना। इनका सामान्य परिचय इस प्रकार है:- नाम, धातु, अव्यय, उपसर्ग आदि "प्रकृति" के अन्तर्गत समझे जाते हैं। संज्ञाओं में जोड़े जाने वाले "सि" आदि एवं धातुओं में जोड़े जाने वाले 'ति' आदि प्रत्यय कहलाते हैं। पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग ये तीन लिंग होते हैं। कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध, अधिकरण और संबोधन कारक होते हैं। - समास छह प्रकार के होते हैं-अव्ययीभाव, तत्पुरुष, द्वंद्व, कर्मधारय, द्विगु और बहुब्रीहि। यह अनुवृत्ति हेमचन्द्राचार्य रचित सिद्ध हेम व्याकरण के अनुसार जानना। स्वर और व्यञ्जनों की परंपराएँ पूर्व काल से चली आ रही है, इनमें से 'ऋ, ऋ, लु, ल, ऐ, औ, ङ,ब,श, ष, विसर्जनीय-विसर्ग और लुप्त को छोड़ करके शेष वर्ण-व्यवस्था लौकिक वर्ण-व्यवस्थानुसार समझ लेना चाहिये। 'ङ' और 'ब' ये अपने-अपने वर्ग के अक्षरों के साथ संयुक्त रूप से याने हलन्त रूप से पाये जाते हैं। 'ऐ' और 'औ' भी कहीं-कहीं पर देखे जाते हैं। जैसे-कैतवम् कैअवं। सौन्दर्यम् सौंअरिअं और कौरवाः कौरवा। इन उदाहरणों में 'ऐ' और 'औ' की उपलब्धि है। प्राकृत-भाषा में स्वर रहित व्यञ्जन नहीं होता है। द्विवचन और चतुर्थी का बहुवचन भी नहीं होता है। द्विवचन की अभिव्यक्ति बहुवचन के रूप में होती है, एवं चतुर्थी-बहुवचन का उल्लेख षष्ठी बहवचन के प्रत्यय संयोजित करके किया जाता है। ___ 'कैतवम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कैअवं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन से अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कैअवं' रूप सिद्ध हो जाता हैं। 'सौन्दर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सौअरिअं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १-१७७ से 'द' का लोप और २-७८ से 'य' का लोप २-१०७ से शेष हलन्त 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सौअरिअं' रूप सिद्ध हो जाता है। कौरवाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कौरवा' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहवचन में अकारान्त पल्लिग में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त ए के पूर्व में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर कौरवा' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१।।
बहुलम् ॥१-२॥ बहुलम् इत्यधिकृतं वेदितव्यम् आशास्त्रपरिसमाप्तेः।। ततश्च। क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा क्वचिद् अन्यदेव भवति। तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः।
अर्थः- प्राकृत-भाषा में अनेक ऐसे शब्द होते हैं; जिनके एकाधिक रूप पाये जाते हैं; इनका विधान इस सूत्र से किया गया है। तदनुसार इस व्याकरण के चारों पाद पूर्ण होवें, वहां तक इस सूत्र का अधिकार क्षेत्र जानना इस सूत्र की कहीं पर प्रवृत्ति होगी; कहीं पर अप्रवृत्ति होगी; कहीं पर वैकल्पिक प्रवृत्ति होगी और कहीं पर कुछ नवीनता होगी। यह सब हम यथास्थान पर बतलावेंगे। ॥१-२।।
आर्षम् ॥१-३॥ ऋषीणाम् इदम् आर्षम्। आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति। तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः। आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते।।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 3 अर्थ:- जो शब्द ऋषि-भाषा से संबंधित होता है; वह शब्द 'आर्ष' कहलाता है। ऐसे आर्ष शब्द प्राकृत भाषा में बहुतायत रूप से होते हैं। उन सभी का दिग्दर्शन हम यथास्थान पर आगे ग्रंथ में बतलावेंगें। आर्ष-शब्दों में सूत्रों द्वारा साधनिका का विधान वैकल्पिक रूप से होता है। तदनुसार कभी-कभी तो आर्ष-शब्दों की साधनिका सूत्रों द्वारा हो सकती है और कभी नहीं भी हुआ करती है। अतः इस सम्बन्ध में वैकल्पिक विधान जानना।।१-३।।
दीर्घ-हस्वौ मिथो वृत्तौ ॥१-४॥ वृत्तौ समासे स्वराणां दीर्घ हस्वौ बहुलं भवतः। मिथः परस्परम्॥ तत्र हस्वस्य दीर्घः।। अन्तर्वेदिः। अन्तावेई।। सप्तविंशतिः। सत्तावीसा।। क्वचिन्न भवति। जुवई-अणो। क्वचिद् विकल्पः। वारी-मई वारि-मई। भुज-यन्त्रम्। भुआ-यन्तं भुअ-यन्तं।। पतिगृहम्। पई-हरं पइ-हरं।। वेलू-वणं वेलु-वणं।। दीर्घस्य हस्वः। निअम्ब-सिल-खलिअ-वीइ-मालस्स।। क्वचिद् विकल्पः। जउँण-यडं जउंणा-यड। नइ-सोत्तं नई-सोत्तं। गोरि-हरं गोरी-हरं। वहु-मुहं वहू-मुहं।।
अर्थः- समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व अक्सर हो जाया करते हैं। हस्व स्वर के दीर्घ स्वर में परिणत होने के उदाहरण इस प्रकार हैं :___ अन्तर्वेदिः अन्तावेई। सप्तविंशतिः सत्तावीसा।। किसी किसी शब्द में हस्व स्वर से दीर्घ-स्वर में परिणति नहीं भी होती है। जैसे-युवति-जनः जुवई-अणो। किसी किसी शब्द में हस्व स्वर से दीर्घ-स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होती है। जैसे-वारि-मतिः-वारी मई। वारिमई भुज-यन्त्रम् भुआ-यन्तं अथवा भुअ-यन्त।। पति-गृहम्= पई-हरं अथवा पह-ह।। वेण वनम-वेल-वणं अथवा वेल-वणं। दीर्घ स्वर से हस्व स्वर में परिणत होने उदाहरण इस प्रकार है:- नितम्ब-शिला-स्खलित-वीचि-मालस्य-निअम्ब-सिल- खलिअ-वीइ-मालस्स। इस उदाहरण में 'शिला' के स्थान पर 'सिल' की प्राप्ति हुई है। किसी किसी शब्द में दीर्घ स्वर से हस्व स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होती है। उदाहरण इस प्रकार है:
यमुना-तटम्=जउँण-यडं अथवा जउँणा-यड।। नदी-स्रोतम्-नई-सोत्तं अथवा नई-सोत्तं।। गौरी गृहम् -गोरि-हरं अथवा गोरी-हरं। वधु-मुखम् वहु-मुहं अथवा वहू-मुहं।। इन उपरोक्त सभी उदाहरणों में दीर्घ स्वरों की और हस्व स्वरों की परस्पर में व्यत्यय स्थिति समझ लेनी चाहिये।
'अन्तर्वेदिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तावेई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४ से 'त' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर आ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'अन्तावेई रूप सिद्ध हो जाता है।
'सप्तविंशतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सत्तावीसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'प्' का लोप; १-४ से 'त' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ता' के पूर्व में 'प' का लोप होने से द्वित्व 'त्ता' की प्राप्ति; १-२८ से 'वि' पर स्थित अनुस्वार का लोप; १-९२ से शेष 'वि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर 'ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य 'स' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सत्तावीसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
युवति-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जुवइ-अणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का और (द्वितीय) 'ज' का लोप; १-२२८ में 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुवई-अणो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
4: प्राकृत व्याकरण
'वारि-मतिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वारीमइ, और वारि-मई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४ से 'रि' में स्थित 'इ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'तू' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप वारी - मई और वारि मइ सिद्ध हो जाते हैं।
भुज- यन्त्रम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप भुआ - यन्तं और भुअ-यन्तं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ज' का लोप; १-४ से शेष 'अ' को वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'त्र' में स्थित 'र्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप भुआ - यन्तं और भुअ-यन्तं सिद्ध हो जाते हैं।
'पतिगृहम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पई - हरं' और 'पइ-हर' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'त' का लोप; १-४ से शेष 'इ' को वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति; २ - १४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १ - १८७ आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप पई-हरं और पइ - हर सिद्ध हो जाते हैं।
'वेणु-वनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेलू-वणं' और 'वेलु-वेणं' हाते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २०३ से 'ण' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-४ से 'उ' को वैकल्पिक रूप से 'ऊ' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'वेलू-वणं' और 'वेलु-वणं' सिद्ध हो जाते हैं।
'नितम्ब-शिला- स्खलित - वीचि - मालस्य' संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निअम्ब-सिल, खलिअ-वीइ-मालस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या - १ - १७७ से दोनों 'त्' वर्णों का लोप; १ - २६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-४ से 'ला' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २- ७७ से हलन्त व्यञ्जन प्रथम 'स्' का लोप १-१७७ से 'च' का लोप; और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'ङस्' के स्थानीय प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'निअम्ब - सिल- खलिअ -वीइ - मालस्स' सिद्ध हो जाता है।
'यमुनातटम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जउँण - यड' और 'जउँणा - यड' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७८ से प्रथम 'म्' का लोप होकर शेष स्वर 'उ' पर अनुनासिक की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-४ से प्राप्त 'णा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ - १९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'जउँण - यड' और 'जउँणा - यड' सिद्ध हो जाते हैं।
'नदी - स्त्रोतम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नइ - सोत्तं' और 'नई-सोत्तं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-४ से शेष दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हस्व 'इ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-९८ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'नइ - सोत्तं' और 'नई - सोत्तं' सिद्ध हो जाते हैं।
'गौरीगृहम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गोरि-हरं' और 'गौरी - हरं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१५९ से 'ओ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से ह्रस्व 'इ' की प्राप्ति; २ - १४४
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 5 से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १-१८७ से आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोनों रूप 'गोरि हरं' और 'गोरी हरं' सिद्ध हो जाते हैं।
'वधु-मुखम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वहु-मुह' और 'वहू-मुह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' और 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-४ से प्राप्त हु' में स्थित हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'वहु-मुहं' और 'वहू-मुह सिद्ध हो जाते हैं १-४॥
पदयोः संधिर्वा ॥१-५।। संस्कृतोक्तः संधिः सर्वः प्राकृते पदयोर्व्यवस्थित-विभाषया भवति।। वासेसी वास-इसी। विसमायवो विसम-आयवो। दहि-ईसरो दहीसरो। साऊअयं साउ-उअयं।। पदयो रिति किम्। पाओ। पई। वच्छाओ। मुद्धाइ। मुद्धाए। महइ। महए। बहुलाधिकारात् क्वचिद् एक-पदेपि। काहिइ काही। बिइओ बीओ।
अथ :- संस्कृत-भाषा में जिस प्रकार से दो पदों की संधि परस्पर होती है; वही सम्पूर्ण संधि प्राकृत-भाषा में भी दो पदों में व्यवस्थित रीति से किन्तु वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे :- व्यास-ऋषिः वासेसी अथवा वास-इसी। विषम+ आतपः-विषमातपः-विसमायवो अथवा विसम-आयवो। दधि + ईश्वर-दधीश्वरः= दहि-ईसरा अथवा दहीसरो। स्वादु-उदकम्-स्वादूदकम् साऊअयं अथवा साउ-उअय।।
प्रश्नः- 'संधि दो पदों की होती है ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- क्योंकि एक ही पद में संधि-योग्य स्थिति भे रहे हुए स्वरों की परस्पर में संधि नहीं हुआ करती है; अतः दो पदों का विधान किया गया है। जैसेः पादः = पाओ। पतिः =पई। वृक्षात् वच्छाओ। मुग्धया मुद्धाई अथवा मुद्धाए। कांक्षति-महइ अथवा महए। इन (उदाहरणों में) प्राकृत-रूपों में संधि योग्य स्थिति में दो दो स्वर पास में आये हुए हैं; किन्तु ये संधि-योग्य स्वर एक ही पद में रहे हुए हैं; अतः इनकी परस्पर में संधि नहीं हुई है।
'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से किसी किसी एक ही पद में भी दो स्वरों की संधि होती हुई देखी जाती है। जैसेः करिष्यति-काहिइ अथवा काही। द्वितीयः बिइओ अथवा बीओ। इन उदाहरणों में एक ही पद में दो की परस्पर में व्यवस्थित रूप से किन्तु वैकल्पिक रूप से संधि हुई है। यह 'बहुलम्' सूत्र का ही प्रताप है।
'व्यास-ऋषिः' - संस्कृत रूप 'वासेसी' अथवा 'वास-इसी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या-२-७८ से 'य' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ए' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'इ' की प्राप्ति और १-५ से 'वास' में स्थित 'स' में रहे हुए 'अ' के साथ 'इसी' के 'इ' की वैकल्पिक रूप से संधि होकर दोनों रूप क्रम से 'वास इसी' और 'वासेसी' सिद्ध हो जाते हैं।
"विषम + आतपः ='विषमापतः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विसमायवो' अथवा 'विसम-आयवो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हए 'अ'के स्थान पर 'य' की प्राप्ति: १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति: १-५ से 'विसम' में स्थित 'म' में रहे हुए 'अ' के साथ 'आयव' के 'आ' की वैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'विसमायवो' और 'विसम-आयवो' सिद्ध हो जाते हैं।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
6 : प्राकृत व्याकरण
'दधि-ईश्वरः दधीश्वरः संस्कृत रूप है; इसके प्राकृत रूप 'दहि-ईसरो' और 'दहीसरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति, २-७९ से 'व' का लोप, १-२६० से शेष 'श' का 'स', १-५ से 'दहि' में स्थित 'इ' ने साथ 'ईसर' के 'ई' की वैकल्पिक रूप से सन्धि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दहि-ईसरो' और 'दहीसरो' सिद्ध हो जाते हैं।
स्वादु+उदकम् स्वादूदकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप साऊअयं और साउ-ऊअयं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' का लोप; १-१७७ से दोनों 'द्' का तथा 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-५ से 'साउ' में स्थित 'उ' के साथ 'उ अय' के 'ऊ' की वैकल्पिक रूप से सधि होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप साऊअयं और साउ-उअयं सिद्ध हो जाते हैं।
'पाद' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पतिः' संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य 'इ'को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर 'पई रूप सिद्ध हो जाता है। "वृक्षात्' संस्कृत पञ्चम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के
प्राप्ति: २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छछ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; ३-८ संस्कृत पंचमी प्रत्यय 'ङ्सि' के स्थानीय रूप 'त' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१२ से प्राकृत में प्राप्त प्रत्यय 'ओ' के पूर्व में 'वच्छ' के अन्त्य 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ'
की प्राप्ति होकर 'वच्छाओ' रूप सिद्ध होता है। ___ 'मुग्धया' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुद्धाए' और 'मुद्धाइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ३-२९ से संस्कृत तृतीया-विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'या' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ए' और 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-२९ से ही प्राप्त प्रत्यय 'ए' और 'इ' के पूर्व में अन्त्य स्वर 'आ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'मुद्धाए' एवं 'मुद्धाइ' सिद्ध हो जाते हैं।
कांक्षति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'महइ' और 'महए' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-१९२ से 'कांक्ष' धातु के स्थान पर 'मह' का आदेश; ४-२३९ से प्राप्त 'मह' में हलन्त 'ह' को 'अ' की प्राप्तिः ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और और 'ए' की प्राप्ति होकर दोनों रूप क्रम से 'महइ' और 'महए' सिद्ध हो जाते हैं। __ 'करिष्यतिः' क्रिया पद का संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'काहिइ' और 'काही' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-२१४ से मूल धातु 'कृ' के स्थान पर 'का' का आदेश, ३-१६६ से संस्कृत भविष्यत्-कालीन संस्कृत प्रत्ययांश 'ष्य' के स्थान पर 'हि' की प्राप्तिः एवं ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम परुष के एकवचन में 'इ'क में स्थित 'इ' के साथ आगे रही हुई 'इ' की संधि वैकल्पिक रूप से होकर दोनों रूप क्रम से 'काहिइ' और 'काही' सिद्ध हो जाते हैं।
"द्वितीयः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बिइओ' और 'बीओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से
स्थान पर
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 7 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का और 'य' का लोप; १-४ से द्वितीय दीर्घ 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति; १-५ से प्रथम 'इ' के साथ द्वितीय 'इ' की वैकल्पिक रूप से संधि होकर दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'बिइओ' और 'बीओ' सिद्ध हो जाते हैं। १-५।।
न युवर्णस्यास्वे ॥१-६।। इवर्णस्य उवर्णस्य च अस्वे वर्णे परे संधि न भवति। न वेरि-वग्गे वि अवयासो। वन्दामि अज्ज-वइरं।। दणु-इन्द रूहिर-लित्तो सहइ उइन्दो नह-प्पहावलि-अरूणो। संझा-वहु-अवऊढो णव-वारिहरोव्व विज्जुला-पडिभिन्नो।। युवर्णस्येति किम्। गूढोअर-तामरसाणुसारिणी भमर-पन्तिव्व। अस्व इति किम्। पुहवीसो।।
अर्थः- प्राकृत में 'इवर्ण' अथवा 'उवर्ण' के आगे विजातीय स्वर रहे हुए हों तो उनकी परस्पर में संधि नहीं हुआ करती है। जैसे:- न वैरिवर्गेऽपि अवकाशः न वेरि-वग्गे वि अवयासो। इस उदाहरण में 'वि' में स्थित 'इ' के आगे 'अ' रहा हुआ है; किन्तु संस्कृत के समान होने योग्य संधि का भी यहां निषेध कर दिया गया है; अर्थात् संधि का विधान नहीं किया गया है। यह 'इ' और 'अ' विषयक संधि-निषेध का उदाहरण हुआ। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- वन्दामि आर्य-वैरं-वन्दामि अज्ज-वरं। इस उदाहरण में 'वन्दामि' में स्थित अन्त्य 'इ' के आगे 'अ' आया हुआ है; परन्तु इनमें सधि नहीं की गई है। इस प्रकार प्राकृत में 'इ' वर्ण के आगे विजातीय-स्वर की प्राप्ति होने पर संधि नहीं हुआ करती है। यह तात्पर्य है। उपरोक्त गाथा की संस्कृत छाया निम्न है :
दनुजेन्द्ररूधिरलिप्तः राजते उपेन्द्रो नखप्रभावल्यरूणः।
सन्ध्या-वधूपगूढो नव वारिधर इव विद्युत्प्रतिभिन्नः।। इस गाथा में सधि-विषयक स्थिति को समझने के लिये निम्न शब्दों पर ध्यान दिया जाना चाहिये:-'दणु+इन्द; 'उ+इन्दो; 'प्पहावलि+अरूणो; 'वहु+अवऊढो; इन शब्दो में क्रम से 'उ' के पश्चात् 'इ; 'इ' के पश्चात् 'अ' एवं 'उ' के पश्चात् 'अ' आये हुए हैं; ये स्वर विजातीय स्वर हैं; अतः प्राकृत में इस सूत्र (१-६) में विधान किया गया है कि 'इ' वर्ण
और 'उ' वर्ण के आगे विजातीय स्वर आने पर परस्पर में संधि नहीं होती है जबकि संस्कृत भाषा में संधि हो जाती है। जैसा कि इन्हीं शब्दों के संबंध में उपरोक्त श्लोक में देखा जा सकता है।
प्रश्नः- 'इवर्ण' और 'उवर्ण' का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? अन्य स्वरों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया है?
उत्तरः- अन्य स्वर 'अ' अथवा 'आ' के आगे विजातीय स्वर आ जाय तो इनकी संधि हो जाया करती है; अतः 'अ' 'आ' की प्रथक् संधि-व्यवस्था होने से केवल 'इ' वर्ण और 'उ' वर्ण का ही मूल-सूत्र में उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है :- (संस्कृत-छाया) - गूढोदर- तामरसानुसारिणी-भ्रमरपङ्क्तिरिव =गूढोअर-तामरसाणुसारिणी भमर-पन्ति व्व; इस वाक्यांश में 'गूढ+उअर' और 'रस+अणुसारिणी' शब्द संधि-योग्य दृष्टि से ध्यान देने योग्य हैं। इनमें 'अ+उ' की संधि करके 'ओ' लिखा गया है। इसी प्रकार से 'अ+अ' की संधि करके 'आ' लिखा गया है। यों सिद्ध होता है कि 'अ' के पश्चात् विजातीय स्वर 'उ' के आ जाने पर भी संधि होकर 'ओ' की प्राप्ति हो गई। अतः यह प्रमाणित हो जाता है कि 'इ' अथवा 'उ' के आगे रहे हुए विजातीय स्वर के साथ इनकी संधि नहीं होती है; जबकि 'अ' अथवा 'आ' के आगे विजातीय स्वर रहा हुआ हो तो इनकी संधि हो जाया करती है।
प्रश्न:- “विजातीय' अथवा 'अस्व' स्वर का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः- 'इ' वर्ण अथवा 'उ' वर्ण के आगे विजातीय स्वर नहीं होकर यदि 'स्व-जातीय' स्वर रहे हुए हों तो इनकी
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
8 : प्राकृत व्याकरण परस्पर में संधि हो जाया करती है। इस भेद को समझाने के लिये 'अस्व' अर्थात् 'विजातीय' ऐसा लिखना पड़ा है। उदाहरण इस प्रकार है:-पृथिवीशः-पुहवीसो। इस उदाहरण में 'पुहवी+ईसो' शब्द है; इनमें 'वी' में रही हुई दीर्घ 'ई' के साथ आगे रही हुई दीर्घ 'ई' की सधि की जाकर एक ही वर्ण 'वी' का निर्माण किया गया है। इससे प्रमाणित होता है कि स्व-जातीय स्वरों की परस्पर में सधि हो सकती है। अतः मूल-सूत्र में अस्व' लिखकर यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि स्व-जातीय स्वरों की संधि के लिये प्राकृत-भाषा में कोई रूकावट नहीं है।
'न वैरि-वर्गेऽपि अवकाशः' संस्कृत-वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'न वैरि-वग्गे वि अवयासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; १-४१ से 'अपि' अव्यय के 'अ' का लोप; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ'को 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श'को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'न वेरि-वग्गे वि अवयासो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'वन्दामि आर्य-वैरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वन्दामि अज्ज-वइर' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आर्य में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अकी प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत-प्रत्यय अम्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वन्दामि अज्ज-वइरं रूप सिद्ध हो जाता है।
"दनुजेन्द्र-रुधिर-लिप्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दणु इन्द-रुहिर-लित्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-८४ से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'ए' स्वर के स्थान पर 'इ' स्वर की प्राप्ति; २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दणु-इन्द-रूहिर-लित्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'राजते' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सहइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१०० से 'राज्' धातु के स्थान पर 'सह' का आदेश; ४-२३९ से हलन्त धातु 'सह' के अन्त्यवर्ण 'ह' में 'अ' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सहइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'उपेन्द्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उइन्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; १-८४ शेष 'ए' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उइन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नख-प्रभावलि-अरुणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नह-प्पहावलि-अरुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-७९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नह-प्पहा-वलि-अरूणो रूप सिद्ध हो जाता है।
'सन्ध्या-वधु-उपगूढो' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संझा-वहु-अवऊढो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'न्'को अनुस्वार की प्राप्ति; २-२६ से 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१०७ से 'उप' के 'उ'को 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संझा-वहु-अवऊढो' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 9 'नव वारिधरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णव-वारिहरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णव-वारिहरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इव' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत-रूप 'व्व' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८२ से 'इव' के स्थान पर 'व्व' आदेश की प्राप्ति होकर 'व्व' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विद्युत-प्रतिभिन्नः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'विज्जुला-पडिभिन्नो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'छ्' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; २-१७३ से प्राप्त रूप 'विज्जु में 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३१ से वृत्ति में वर्णित (हे० २-४) के उल्लेख से स्त्रीलिंग रूप में 'आ' की प्राप्ति से 'विज्जुला' की प्राप्ति; १-११ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'ति' के 'त्' को 'ड्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर "विज्जुला-पडिभिन्नो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गूढोदर तामरसानुसारिणी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गूढोअर-तामरसाणुसारिणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; और १-२८८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'गूढोअर तामरसाणुसारिणी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भ्रमर-पक्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भमर-पन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'त्' होने से 'न' की प्राप्ति; २-७७ से 'क्' का लोप और १-११ से अन्त्य विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप होकर 'भमर-पन्ति' सिद्ध हो जाता है।
व्व अव्यय रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर कर दी गई है।
'पृथिवी + ईशः पृथ्वीशः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुहवीसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'क' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १-८८ से प्रथम 'ई के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-५ से द्वितीय 'ई' की सजातीय स्वर होने से संधि; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पुहवीसो' रूप सिद्ध हो जाता है। १-६।।
एदोतोः स्वरे ।।१-७॥ ___ एकार-ओकारयोः स्वरे परे संधिर्न भवति।। वहुआइ नहुल्लिहणे आबन्धन्तीए कञ्चुअं अङ्गे। मयरद्धय-सर-धोरणि-धारा छेअ व्व दीसन्ति।।१।।
उवमासु अपज्जत्तेभ-कलभ-दन्ता वहा समूरुजु। तं चेव मलिअ-बिस-दण्ड-विरस मालक्खिमो एण्हि।।२।।
अहो अच्छरि एदोतोरिति किम्।। अत्थालोअण-तरला इअर-कईणं भमन्ति बुद्धीओ।
अत्थच्चेअ निरारम्भमेन्ति हिअयं कइन्दाणं।।३।। अर्थः- प्राकृत शब्दों में अन्त्य 'ए' अथवा 'ओ' के पश्चात् कोई स्वर आ जाये तो परस्पर में इस 'ए' अथवा 'ओ' के साथ आगे आये हुए स्वर की संधि नहीं होती है। जैसा कि उपरोक्त गाथाओं में कहा गया है :
'नहुल्लिहणे आबन्धन्तीए' में 'ए' के पश्चात् 'आ' आया हुआ है'; तथा 'आलक्खिमो एण्हि' में 'ओ' के पश्चात्
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
10 प्राकृत व्याकरण
'ए' आया हुआ है। परन्तु इनकी संधि नहीं की गई है। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। उपरोक्त गाथाओं की संस्कृत - छाया इस प्रकार है:
वध्वाः (वधू-कायाः) नखोल्लेखने आबध्नत्या कञ्चुकमङ्गे । मकरध्वज-शर-धोरणि-धारा छेदा इव दृश्यन्ते ॥१॥ उपमासु अपर्याप्ते भदन्तावभासमूरुयुगम्। तदेव मृदित बिस दण्ड विरसमालक्षयामह इदानीम् ॥२॥
'ओ' के पश्चात् 'अ' आने पर भी इनकी परस्पर में संधि नहीं हुआ करती है। जैसे:- अहो आश्चर्यम् = अहो अच्छरिअं ।
प्रश्नः - 'ए' अथवा 'ओ' के पश्चात् आने वाले स्वरों की परस्पर में संधि नहीं होती है-ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- अन्य सजातीय स्वरों की संधि हो जाती है एवं 'अ' अथवा 'आ' के पश्चात् आने वाले 'इ' अथवा 'उ' की संधि भी हो जाया करती है। जैस- गाथा द्वितीय में आया है कि- 'अपज्जत + इभ' = अपज्जतेभ; दन्त + अवहास - दन्तावहास । गाथा तृतीय में आया है कि अत्थ + आलोअण अत्थालोअण; इत्यादि । यों अन्य स्वरों की संधि-स्थिति एवं 'ए' अथवा 'ओ' की संधि-स्थिति का अभाव बतलाने के लिए 'ए' अथवा 'ओ' का मूल सूत्र में उल्लेख किया गया है। तृतीय गाथा की संस्कृत छाया इस प्रकार है :
अर्थालोचन - तरला इतरकवीनां भ्रमन्ति बुद्धयः । अर्थाएव निरारम्भं यन्ति हृदयं कवीन्द्राणाम् ॥३॥
'वधूकायाः ' संस्कृत षष्ठ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वहुआइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व 'उ' ३ - २९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'या' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - १७७ से 'क्' का लोप होकर 'वहुआइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नखोल्लेखने' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नहुल्लिहणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १९८७ से दोनों 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-८४ से 'ओ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १ - १४६ से प्रथम 'ए' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति २ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थानीय रूप 'इ' के स्थान पर प्राकृत में भी 'ए' की प्राप्ति होकर 'नहुल्लिहणे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आबध्नत्याः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आबन्धन्तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६ से 'ब' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १- ३० से प्राप्त अनुस्वार के आगे 'ध' व्यञ्जन होने से अनुस्वार; के स्थान पर 'न्' की प्राप्ति; ३ - १८१ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी वर्तमान कृदन्त के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - १८२ से प्राप्त 'न्त' प्रत्यय में स्त्रीलिंग होने से 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; तदनुसार 'न्ती' की प्राप्ति; और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में ३ - २९ से संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आबन्धन्ती ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कञ्चुकम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कञ्चुअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से द्वितीय 'क' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कञ्चुअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अंगे' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'अंगे' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग में 'ङि' के स्थानीय रूप 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' की प्राप्ति होकर 'अंगे' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 11
'मकर- ध्वज-शर-धोरणि-धारा-छे दा' संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मयर-द्धय-सर-धोरणि-धारा-छेअ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष रहे 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-७९ से 'व' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' की द्वित्व ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और १-४ से अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'मयर-द्धय-सर-धोरणि-धारा-छेअ रूप सिद्ध हो जाता है। 'व्व' की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'दृश्यन्ते' संस्कृत क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दीसन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१६१ से 'दृश्य के स्थान पर 'दीस्' आदेश ४-२३९ से हलन्त प्राप्त 'दीस्' धातु में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दीसन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उपमासु' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उवमासु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में 'सुप् प्रत्यय की प्राप्ति; एवं १-११ से अन्त्य व्यञ्जन प्रत्ययस्थ 'प्' का लोप होकर 'उवमासु रूप सिद्ध हो जाता है।
'अपर्याप्तेभ (कलभ) दन्तावभासम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'अपज्जत्तेभ-कलभ दन्तावहासं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन ‘र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'ज्जा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-७७ से 'प' का लोप २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१८७ से तृतीय 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'अपज्जत्तेभ-कलभ-दन्तावहासं रूप सिद्ध हो जाता है।
ऊरुयुगम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ऊरुजुअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ग्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'ऊरुजु रूप सिद्ध हो जाता है।
'तदेव' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तं एव' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से (संस्कृत मूल रूप तत् में स्थित) अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार और 'एव' की स्थिति संस्कृत वत् ही होकर 'तं एव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृदित बिस दण्ड विरसम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मलिअ-बिस-दण्ड-विरसं होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१२६ से 'मद' धात के स्थान पर 'मल' आदेश; ३-१५६ से प्राप्त रूप'मल'
से प्राप्त रूप 'मल' में विकरण प्रत्यय रूप'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मलिअ-बिस-दण्ड-विरसं रूप सिद्ध हो जाता है।
'आलक्षयामह' सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलक्खिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ४-२३९ से हलन्त धातु' आलक्खे में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से 'ख' में प्राप्त 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और ३-१४४ से उत्तम पुरुष याने तृतीय पुरुष के बहुवचन में वर्तमान काल में 'मह' के स्थान पर 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आलक्खिमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इदानीम्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'एण्हि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३४ से सम्पूर्ण अव्यय
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
12 : प्राकृत व्याकरण
रूप' 'इदानीम् के स्थान पर प्राकृत में 'एण्हि आदेश की प्राप्ति होकर 'एण्हि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहो'! संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'अहो' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१७ की वृत्ति से 'अहो' रूप की यथा-स्थिति संस्कृत वत् ही होकर 'अहो' अव्यय सिद्ध हो जाता है।
'आश्चर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अच्छरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-६७ से 'य' के स्थान पर 'रिअ' आदेश और १-२३ से हलन्त अन्त्य 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'अच्छरिसिद्ध हो जाता है।
'अर्थालोचन-तरला' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थालोअण-तरला' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से रेफ रूप हलन्त 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ्' को द्वित्व'थ्थ' की प्राप्ति'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'अत्थ के अन्त्य 'अ' की आगे रहे हुए 'आलोचन-आलोअण' के आदि 'आ' के साथ संधि होकर 'अस्था' रूप की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-३१ से स्त्रीलिंग-अर्थ में मूल प्राकृत विशेषण रूप 'तरल' में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति
और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर 'अत्थालोअण-तरला रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'इतर-कषीनाम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इअर-कईणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्'
और 'व' का लोप; ३-१२ से मूल रूप 'कवि' में स्थित अन्त्य हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; ३-६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय आम्' के स्थानीय रूप 'नाम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति
और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'इअर-कईणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'भ्रमन्ति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भमन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; ४-२३९ से हलन्त धातु 'भम्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भमन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुद्धयः' संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बुद्धीओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२७ से मूल रूप 'बुद्धि' में स्थित अन्त्व हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति एवं ३-२७ से ही संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्'='अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बुद्धीओ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'अर्थाः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप (यहां पर) 'अत्थ' है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर 'त' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त रूप 'अत्थ' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप; और १-४ प्राकृत में प्राप्त बहुवचन रूप 'अत्था' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'अत्थ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एव' संस्कृत निश्चयवाचक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'च्चेअ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८४ से 'एव' के स्थान पर 'चेअ' आदेश और २-९९ से प्राप्त 'चेअ' में स्थित 'च' का द्वित्व'च्च' की प्राप्ति होकर 'च्चेअरूप सिद्ध हो जाता है। ___'निरारम्भम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'निरारम्भ ही होता है। इसमें एकरूपता
से साधनिका का आवश्यकता न होकर अथवा ३-५ से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राक़त में भी द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में 'निरारम्भ तक ही सिद्ध करते हैं क्योंकि इसका यन्ति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 13
रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या (हेम) ३-३-६ से मूल धातु 'इण्' की प्राप्ति; संस्कृतीय विधानानुसार मूल धातु 'इण्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'ण्' की इत्संज्ञा होकर लोप; ४-२३७ से प्राप्त धातु 'इ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हृदयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिअयं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'हिअयं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कवीन्द्राणाम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कइन्दाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' का लोप; १-४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; ३ - १२ से प्राप्त प्राकृत रूप 'कइन्द' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में 'आम्' प्रत्यय के स्थानीय रूप 'णाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'कइन्दाण' रूप सिद्ध हो जाता है। १-७।।
स्वरस्योद्वृत्ते ।। १-८।।
व्यञ्जन-संपृक्तः स्वरो व्यञ्जने लुप्ते योवशिष्यते स उवृत्त इहोच्यते । स्वरस्य उद्घृत्ते स्वरे परे संधिर्न भवति ।
विससिज्जन्त-महा-पसु - दंसण-संभम-परोप्परारूढा ।
गयणे च्चिअ गन्ध-उडिं कुणन्ति तुह कउल-णारीओ ॥ निसा - अरो । निसि - अरो । रयणी- अरो । मणुअत्तं ।।
बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । कुम्भ-आरो कुम्भारो । सु- उरिसो सूरिसो ।। क्वचित् संधिरेव सालाहणो चक्काओ ।।
अतएव प्रतिषेधात् समासे पि स्वरस्य संधौ भिन्नपदत्वम्॥
अर्थ - व्यञ्जन में मिला हुआ स्वर उस समय में 'उद्वृत्त-स्वर' कहलाता है; जबकि वह व्यञ्जन लुप्त हो जाता है और केवल 'स्वर' ही शेष रह जाता है। इस प्रकार अवशिष्ट 'स्वर' की संज्ञा 'उद्वृत्त स्वर' होती है। ऐसे उद्वृत्त स्वरों के साथ में पूर्वस्थ स्वरों की संधि नहीं हुआ करती है। इसका तात्पर्य यह है कि उद्वृत्त स्वर अपनी स्थिति को ज्यों की त्यों बनाये रखते हैं और पूर्वस्थ रहे हुए स्वर के साथ संधि-योग नहीं करते हैं। जैसे कि मूल गाथा में ऊपर 'गन्ध-पुटीम्'
प्राकृत रूपान्तर में 'गन्ध - उडिं' होने पर 'ध' में स्थित 'अ' की 'पुटीम्' में स्थित 'प्' का लोप होने पर उद्वृत्त स्वर रूप 'उ' के साथ संधि का अभाव प्रदर्शित किया गया है। यों 'उद्वृत्त-स्वर' की स्थिति को जानना चाहिये ।
ऊपर सूत्र की वृत्ति में उद्धृत प्राकृत- गाथा का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार है :
विशस्यमान - महा पशु-दर्शन- संभ्रम - - परस्परारूढाः । गगने एव गन्ध-पुटम् कुर्वति तव कौल - नार्यः ॥
अर्थ :- कोई एक दर्शक अपने निकट के व्यक्ति को कह रहा है कि -' तुम्हारी ये उच्च संस्कारों वाली स्त्रियां इन बड़े-बड़े पशुओं को मारे जाते देख कर घबडाई हुए एक दूसरी की ओट में याने परस्पर में छिपने के लिए प्रयत्न करती हुई और अपने चित्त को इस घृणामय वीभत्सकार्य से हटाने के लिये) आकाश में ही (अर्थात निराधार रूप से ही मानों) गन्ध-पात्र (की रचना करने जैसा प्रयत्न) करती है (अथवा कर रही है) काल्पनिक चित्रों की रचना कर रही है।
उद्वृत्त-स्वरों की संधि-अभाव- प्रदर्शक कुछ उदाहरण इस प्रकार है- निशाचरः - निसा - अरो; निशाचर= निसि - अरो; रजनी - चर:- रयणी - अरो; मनुजत्वम् = मणुअत्तं । इन उदाहरणों में 'च्' और 'ज्' का लोप होकर 'अ'
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
14 : प्राकृत व्याकरण
स्वर को उद्वृत्त-स्वर की संज्ञा प्राप्त हुई है और इसी कारण से प्राप्त उद्वृत्त 'अ' की संधि पूर्वस्थ स्वर के साथ नहीं होकर उद्वृत्त-स्वर अपने स्वरूप में ही अवस्थित रहा है; यों सर्वत्र उद्वृत्त स्वर की स्थिति को समझ लेना चाहिये। 'बहुलं सूत्र के अधिकार से कभी-कभी किसी किसी शब्द में उवृत्त स्वर की पूर्वस्थ स्वर के साथ वैकल्पिक रूप से संधि होती हुई देखी जाती है। जैसे-कुम्भकार : कुम्भ-आरो= अथवा कुम्भारो। सु-पुरुषः-सु-उरिसो अथवा सूरिसो। इन उदाहरणों में उद्वृत्त स्वर की वैकल्पिक रूप से संधि प्रदर्शित की गई है। किन्हीं किन्हीं शब्दों में उद्वृत्त स्वर की संधि निश्चित रूप से भी पाई जाती है। जैसे-शातवाहनः साल + आहणो=सालाहणो और चक्रवाकः चक्क + आओ-चक्काओ। इन उदाहरणों में उद्वृत्त स्वर की संधि हो गई है। परन्तु सर्व-सामान्य सिद्धान्त यह निश्चित किया गया है कि उद्वृत्त स्वर की संधि नहीं होती है; तदनुसार यदि अपवाद रूप से कहीं-कहीं पर उस उद्वृत्त स्वर की संधि हो जाय तो ऐसी अवस्था में भी उस उवृत्त स्वर का पृथक-अस्तित्व अवश्य समझा जाना चाहिये और इस अपेक्षा से उस उद्वृत्त स्वर को 'भिन्नत्व' पद वाला ही समझा जाना चाहिये। ___ 'विशस्यमान' संस्कृत विशेषण-रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विससिज्जन्त' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१६० से संस्कृत की भाव-कर्म-विधि में प्राप्तव्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१८१ से संस्कृत में प्राप्तव्य वर्तमान कृदन्त विधि के प्रत्यय 'मान' के स्थान पर प्राकृत में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विससिज्जन्त' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'महा-पशु-दर्शन' संस्कृत वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'महा-पसु-दसण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से प्रथम 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२६ से 'द' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप 'र' का लोप; १-२६० से द्वितीय 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'महा-पसु-दसण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'संभ्रम-परस्परारूढा' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संभम-परोप्परारूढा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-६२ से द्वितीय 'र' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'स्' के पश्चात् रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; ३-१२ से अन्त्य शब्द 'रूढ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्-अस्' का प्राकृत में लोप होकर 'संभम-परोप्परारूढा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गगने' संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गयणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'ग्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-११ से संस्कृतीय सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ पद 'गयण' में स्थित अन्त्य 'ण' के 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप एवं तत्पश्चात् शेष हलन्त 'ण' में पूर्वोक्त 'ए' प्रत्यय की संयोजना होकर 'गयणे' रूप सिद्ध हो जाता है।
"एव' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'च्चिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८४ से 'एव' के स्थान पर 'चिअ' आदेश और २-९९ से प्राप्त 'चिअ में स्थित 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर 'च्चिअरूप सिद्ध हो जाता है। __ 'गन्ध-पुटीम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गंध-उडि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; १-८ से पूर्वोक्त 'प्' का लोप होने से शेष 'उ' की उवृत्त स्वर के रूप में प्राप्ति और संधि का अभाव; १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ३-३६ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'गन्ध-उडि' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 15 'कुर्वति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुणन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६५ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' के स्थानापन्न रूप 'कुर्व' के स्थान पर प्राकृत में 'कुण' आदेश; और ३-१४२ से वर्तमान-काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कुणन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तव' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुह' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९९ से संस्कृतीय सर्वनाम 'युष्मत्' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त रूप 'तव के स्थान पर प्राकृत में 'तुह' आदेश-प्राप्ति होकर 'तुह' रूप सिद्ध हो जाता है। __'कौल-नार्यः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कउल-णारीओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति; २-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'कउल-णारीओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ निशा-चरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निसा-अरो' और निसि-अरो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-७२ से द्वितीय रूप में 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप में 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप; १-८ से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ संधि का अभाव; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य 'सि-स्' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'निसा-अरो' और 'निसि-अरो' सिद्ध हो जाते हैं।
'रजनी चरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रयणी-अरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' और 'च'का लोप: १-१८० से लोप हए'ज' के पश्चात शेष रहे हए 'अ'के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८ से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ संधि का अभाव और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रयणी अरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मनुजत्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मणुअत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज्' का लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'मणुअत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुम्भकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुम्भ-आरो' और कुम्भारो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; १-८ की वृत्ति से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ वैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कुम्भ-आरो' और 'कुम्भारो' सिद्ध हो जाते हैं।
'सु-पुरुषः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सु-उरिसो' और 'सूरिसो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; १-८ की वृत्ति से लोप हुए 'प्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर 'उ' के साथ वैकल्पिक रूप से संधि; तदनुसार १-५ से द्वितीय रूप में दोनों 'उ' कारों के स्थान पर दीर्घ 'ऊ कार की प्राप्ति; १-१११ से 'रु' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'सु-उरिसो' और 'सूरिसो' सिद्ध हो जाते हैं।
'शात-वाहनः' संस्कृत रूप है। इसक प्राकृत रूप '(साल + आहणो' =) 'सालाहणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श् के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-८
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
16 : प्राकृत व्याकरण
की वृत्ति से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' की उद्वृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने पर भी पूर्वस्थ 'ल' में स्थित 'अ' के साथ संधि; १ - २२८ से 'न; के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सालाहणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चक्रवाकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चक्काओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'व्' और द्वितीय (अन्त्य) 'क्' कालोप; १-८ की वृत्ति से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' की उवृत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने पर भी १-५ से पूर्वस्थ 'क्क' में स्थिति 'अ' के साथ उक्त 'आ' की सन्धि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'चक्काओ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-८।।
त्यादेः ।। १-९।।
तिबादीनां स्वरस्य स्वरे परे संधि र्न भवति ।। भवति इह । होइ इह ।।
अर्थ :- धातुओं में अर्थात् क्रियाओं में संयोजित किये जाने वाले काल बोधक प्रत्यय 'तिब्' 'तः' और 'अन्ति' आदि के प्राकृतीय रूप ‘इ', 'ए' 'न्ति', 'न्ते' और 'इरे' आदि में स्थित अन्त्य 'स्वर' की आगे रहे हुए सजातीय स्वरों के साथ भी संधि नहीं होती है। जैसे:- भवति इह । होइ इह । इस उदाहरण में प्रथम 'इ' तिबादि प्रत्यय सूचक है और आगे भी सजातीय स्वर 'इ' की प्राप्ति हुई; परन्तु फिर भी दोनों 'इकारों' की परस्पर में संधि नहीं हो सकती है। यों संधि-गत विशेषता को ध्यान 'रखना चाहिये।
'भवति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'होइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से संस्कृत धातु 'भू' के स्थानीय रूप विकरण-प्रत्यय सहित 'भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' आदेश और ३- १३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'होइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इह' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'इह' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-४४८ से साधनिका की आवश्यकता नहीं होकर 'इह' रूप ही रहता है । १-९ ।।
लुक् ।। १-१० ।। स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लुग् भवति ।। त्रिदशेशः । तिअसीसो।। निःश्वासोच्छ्वासौ । नीसासूसासा ।।
अर्थ :- प्राकृत-भाषा में (संधि-योग्य) स्वर के आगे स्वर रहा हुआ हो तो पूर्व के स्वर का अक्सर करके लोप हो जाया करता है। जैसे:- त्रिदश + ईशः = त्रिदशेशः = तिअस + ईसो - तिअसीसो और निःश्वास+ उच्छ्वासः निश्वासोच्छ्वासौ=नीसासो + ऊसासो - नीसासूसासा । इन उदाहरणों में से प्रथम उदाहरण में ' अ+ई' में से 'अ' का लोप हुआ है और द्वितीय उदाहरण में 'ओ + ऊ' में से 'ओ' का लोप हुआ है । यों 'स्वर के बाद स्वर आने पर पूर्व स्वर के लोप' की व्यवस्था समझ लेनी चाहिये।
'त्रिदश + ईश':- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तिअसीसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'त्रि' में स्थित 'र्' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप; १ - २६० से दोनों 'श' कारों के स्थान पर क्रम से दो 'स' कारों की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रथम 'स' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे 'ई' स्वर की प्राप्ति होने से लोप; तत्पश्चात् शेष हलन्त 'स्'
आगे रही हुई 'ई' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तिअसीसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निःश्वासः + उत् + श्वासः निश्वासोच्छवासौ' संस्कृत द्विवचनांत रूप है। इसका प्राकृत रूप (द्विवचन का
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 17
अभाव होने से) बहुवचनांत रूप 'नीसासो + ऊसासो - नीसासूसासा होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १३ से 'निः' में स्थित विसर्ग के स्थानीय रूप 'र्' का लोप; १ - ९३ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष 'नि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ प्राप्ति; १ - २६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्त; २-७९ से 'व' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होने से प्रथम पद 'नीसासो' की प्राप्ति; द्वितीय पद में १ - ११ की वृत्ति से 'उत्' में स्थित हलन्त 'त्' का लोप; १-४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष ह्रस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २- ७९ से 'व्' का लोप; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होने से द्वितीय पद 'ऊसासो' की प्राप्ति; १ - १० से प्रथम पद 'नीसासो' के अन्त्य व्यञ्जन 'सो' में स्थित 'ओ' स्वर के आगे 'ऊसासो' का 'ऊ' स्वर रहने से लोप; तत्पश्चात् शेष हलन्त व्यञ्जन 'स्' में 'ऊ' स्वर की संधि संयोजना; ३ - १३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति; तदनुसार ३-४ से प्राप्त रूप 'नीसासूसास' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप और ३ - १२ में प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर समासात्मक 'नीसासूसासा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १-१०।।
अन्त्यव्यञ्जनस्य ।। १-११ ।
शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्य लुग् भवति ।। जाव । ताव। जसो। तमो । जम्मो । समासे तु वाक्य- विभक्त्यपेक्षायाम् अन्त्यत्वम् अनन्त्यत्वं च । तेनोभयमपि भवति । सद्भिक्षुः सभिक्खू । सज्ज्नः । सज्जणो । एतद्गुणाः । एअ- गुणा । तद्गुणाः । तग्गुणा ।
अर्थ :- संस्कृत शब्दों में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन का प्राकृत रूपान्तरण में लोप हो जाता है। जैसे - यावत् = जाव; तावत्-ताव्; यशस् - यश: - जसो; तमस् - तमः तमो; और जन्मन् - जन्म - जम्मो; इत्यादि । समास-गत शब्दों में मध्यस्थ शब्दों के विभक्ति - बोधक प्रत्ययों का लोप हो जाता है; एवं मध्यस्थ शब्द गौण हो जाते हैं तथा अन्त्य शब्द मुख्य हो जाता है; तब मुख्य शब्द में ही विभक्ति- बोधक प्रत्यय संयोजित किये जाते हैं; तदनुसार मध्यस्थ शब्दों में स्थित अन्तिम हलन्त व्यञ्जन को कभी-कभी तो 'अन्त्य व्यञ्जन' की संज्ञा प्राप्त होती है और कभी-कभी ' अन्त्य व्यञ्जन'
संज्ञा नहीं भी प्राप्त होती है; ऐसी व्यवस्था के कारण से समास-गत मध्यस्थ शब्दों के अन्तिम हलन्त व्यञ्जन 'अन्त्य' और अनन्त्य' दोनों प्रकार से कहे जा सकते हैं। तदनुसार सूत्र संख्या १ - ११ के अनुसार जब समास- गत मध्यस्थ शब्दों में स्थित अन्तिम हलन्त व्यञ्जन को 'अन्त्य - व्यञ्जन' की संज्ञा प्राप्त तो उस ' अन्त्य - व्यञ्जन' का लोप हो जाता है और यदि उस व्यञ्जन को 'अन्त्य - व्यञ्जन' नहीं मानकर 'अनन्त्य व्यञ्जन' माना जायगा तो उस हलन्त व्यञ्जन का लोप नहीं होगा। जैसे- सद्- भिक्षुः = सभिक्खू इस उदाहरण में 'सद्' शब्द में स्थित 'द्' को ' अन्त्य - हलन्त - व्यञ्जन ' मानकर के इसका लोप कर दिया गया है। सत् + जनः सज्जनः = सज्जणो; इसमें 'सत्' के 'त्' को 'अनन्त्य' मान करके 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' के रूप में परिणत किया है। अन्य उदाहरण इस प्रकार है - एतद्गुणाः = एअ - गुणा और तद्-गुणाः-तग्गुणा; इन उदाहरणों में क्रम से अन्त्यत्व और अनन्त्यत्व माना गया है; तदनुसार क्रम से लोप - विधान और द्वित्व-विधान किया गया है। यों समास - गत मध्यस्थ शब्दों के अन्तिम हलन्त व्यञ्जन की ' अन्त्य - स्थिति' तथा अनन्त्य - स्थिति' समझ लेनी चाहिये।
4
'यावत्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'जाव' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य्' के स्थान पर : 'ज्' की प्राप्ति और १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'जाव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तावत्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'ताव' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप होकर 'ताव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'यशस्' (= यशः) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'यू' के स्थान
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
18 : प्राकृत व्याकरण
पर 'ज्' की प्राप्ति १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जस' को पुल्लिगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त (में प्राप्त) पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जसो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'तमस्' (= तमः) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'तम' को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
अकारान्त (में प्राप्त) पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तमो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'जन्मन्' - (जन्म) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जम्मो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से प्रथम हलन्त 'न्'
का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म'को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जम्म' को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त (में प्राप्त) पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जम्मो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सभिक्षुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सभिक्खू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'द्' का लोप; २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'सभिक्खू रूप सिद्ध हो जाता है।
'सज्जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सज्जणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ की वृत्ति से प्रथम हलन्त 'ज्' को अनन्त्यत्व की संज्ञा प्राप्त होने से इस प्रथम हलन्त 'ज्' को लोपाभाव की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सज्जणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एतद्गुणाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एअ-गुणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ में 'त्' का लोप; १-११ से हलन्त 'द्' को अन्त्य-व्यञ्जन की संज्ञा प्राप्त होने से 'द्' का लोप; ३-४ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'एअ-गुण' में प्रथमा-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय-प्रत्यय 'जस्' की प्राप्ति होकर लोप और ३-१२ से प्राप्त तथा लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'एअ-गुणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तद्गुणाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तग्गुणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ में नहीं किन्तु २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग्' की प्राप्ति; शेष साधनिका उपरोक्त 'एअ-गुणा' के समान ही ३-४ तथा ३-१२ से होकर 'तग्गुणाः' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-११।।
न श्रदुदोः ॥ १-१२ ॥ श्रद् उद् इत्येतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य लुग् न भवति।। सद्दहि सद्धा। उग्गय। उन्नयं।।
अर्थः- 'श्रद्' और 'उद्' में रहे हुए अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप नहीं होता है। जैसे:- श्रद+दधितम्= सधहिअं; श्रद् + धा=श्रद्धा-सद्दा; उद् + गतम् उग्गय और उद् + नतम् उन्नयं। प्रथम दो उदाहरणों में श्रद्' में स्थित 'द्' यथावत अवस्थित है; और अन्त के दो उदाहरणों में 'उद्' में स्थित 'द्' अक्षरान्तर होता हुआ अपनी स्थिति को प्रदर्शित कर रहा है; यों लोपाभाव की स्थिति 'श्रद्' और 'उद्' में व्यक्त की गई है।
'श्रद्दधितम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सद्दहि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'श' 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१२ से प्रथम 'द्' का लोपाभाव; १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सद्दहिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 19 'श्रद्धा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सद्धा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और १-१२ से 'द्' का लोपाभाव होकर 'सद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उद् + गतम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उग्गय होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का (प्रच्छन्न रूप से) लोप; २-८९ से (प्रच्छन्न रूप से) लुप्त 'द्' के पश्चात् आगे रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त'का लोपः१-१८० से लोप हए 'त' के पश्चात शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उग्गय रूप सिद्ध हो जाता है।
'उद् + नतम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उन्नय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का (प्रच्छन्न रूप से) लोप; २-८९ से (प्रच्छन्न रूप से) लुप्त 'द्' के स्थान पर आगे रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; १-१७७ से
:१-१८० से लोप हए'त' के पश्चात शेष रहे हए'अ'के स्थान पर 'य की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उन्नय रूप सिद्ध हो जाता है। १-१२।।
निर्दुरोर्वा ॥ १-१३ ॥ निर् दुर् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य वा लुग् भवति।। निस्सहं नीसह। दुस्सहो दूसहो। दुक्खिओ दुहिओ।।
अर्थः- “निर्' और 'दुर्' इन दोनों उपसर्गों में स्थित अन्त्य हलन्त-व्यञ्जन 'र' का वैकल्पिक रूप से लोप होता है। जैसे :- निर् + सहं (निःसह) के प्राकृत रूपान्तर निस्सहं और नीसह होते हैं। दुर् : सहः (=दुस्सहः) के प्राकृत रूपान्तर दुस्सहो और दूसहो होते हैं। इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि 'निस्सह' और 'दुस्सहो' में 'र' का (प्रच्छन्न रूप से) सद्भाव है; जबकि 'नीसह' और 'दूसहो' में 'र' का लोप हो गया है। दुःखितः दुक्खिओ और दूहिओ। इन उदाहरणों में से प्रथम में 'विसर्ग' के पूर्व रूप 'र' का प्रच्छन्न रूप से 'क' रूप में सद्भाव है और द्वितीय उदाहरण में उक्त 'र' का लोप हो गया है। यों वैकल्पिक रूप से 'दुर्' और 'निर्' में स्थित 'र' का लोप हुआ करता है। ___ "निःसह' (-निर् + सह) संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'निस्सह' और 'नीसह' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' के स्थान पर लोपाभाव होने से विसर्ग' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्त विसर्ग' के स्थान पर आगे 'स' होने से 'स्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'निस्सह सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (निर् + सह=) नीसहं में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' का लोप; १-९३ से 'न' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'नीसह भी सिद्ध हो जाता है।
'दुर् + सहः (-दुःसहः) संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुस्सहो' और 'दूसहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' का लोपाभावः ४-४४८ से अलुप्त 'र' के स्थानीय रूप 'विसर्ग' के स्थान पर आगे 'स्' वर्ण होने से 'स्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दुस्सहो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दुर् + सहः=) दूसहो में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' का लोप; १-११५ से हस्व 'उ' के स्थान पर 'ऊ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय-रूप 'दूसहो' भी सिद्ध हो जाता है।
'दुःखितः' (-दुर् + खितः) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुक्खिओ' और 'दुहिओ' होते हैं। इनमें से प्रथम
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
20 : प्राकृत व्याकरण रूप में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग का लोपाभाव; ४-४४८ से प्राप्त विसर्ग' के स्थान पर जिहवामूलीय रूप हलन्त 'क्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दुक्खिओ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दुःखितः=) 'दुहिओ' में सूत्र संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप 'विसर्ग' का लोप; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दुहिओ' सिद्ध हो जाता है। १-१३।।
स्वरेन्तरश्च ॥ १-१४ ।। अन्तरो निर्दुरोश्चान्त्य व्यञ्जनस्य स्वरे परे लुग् न भवति।। अन्तरप्पा। निरन्तरं। निरवसेसं।। दुरूत्तरं। दुरवगाह।। क्वचिद् भवत्यपि। अन्तोवरि।।
अर्थ :- 'अन्तर्', 'निर्' और 'दुर' उपसर्गो में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'र' का उस अवस्था में लोप नहीं होता है जबकि इस अन्त्य 'र' के आगे 'स्वर' रहा हुआ हो। जैसे-अन्तर् + आत्मा अन्तरप्पा। निर् + अन्तरं-निरन्तरं । निर् + अवशेषम् निरवसेसं। 'दुर' के उदाहरणः- दु+उत्तरं-दुरुत्तरं और दुर् + अवगाह- दुरवगाहं कभी-कभी उक्त उपसर्गों में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'र' के आगे स्वर रहने पर भी लोप हो जाया करता है। जैसे- अन्तर + उपरि अन्तरोपरि अन्तोवरि। अन्तर् + आत्मा अन्तरात्मा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तरप्पा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'र' के साथ प्राप्त 'अ' की संधि; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-११ से मूल संस्कृत शब्द-'आत्मन् के अन्त्य 'न्' का लोप, ३-४९ तथा ३-५६ की वृत्ति से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में 'न्' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष अकारान्त रूप में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर 'अन्तरप्पा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___"निरन्तरम' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निरन्तर होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से 'निर्' में स्थित अन्त्य ' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'अ' की सधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निरन्तर रूप सिद्ध हो जाता है।
निर् + अवशेषम् निरवशेषम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निरवसेसं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'अ' की संधि १-२६० से 'श' और 'ष' के स्थान पर 'स' और 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से अथवा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निरवसेसं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुर् + उत्तरं दुरुत्तरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुरूत्तरं 'होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ 'उ' की संधि और शेष साधनिका ३-२५ और १-२३ से 'निरवसेस के समान ही होकर 'दुरूत्तरं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुर् + अवगाहम् =दुरवगाहम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'दुरवगाह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ 'अ' की सधि और शेष साधनिका ३-२५ तथा १-२३ से 'निरवसेस के समान ही होकर 'दुरवगाह रूप सिद्ध हो जाता है।
'अन्तरोपरि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तोवरि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ की वृत्ति से प्रथम 'र' का लोप; १-१० से 'त' में स्थित 'अ' के आगे 'ओ' आ जाने से लोप; १-५ से हलन्त 'त्' के साथ आगे रहे हुए 'ओ' की संधि; और १-२३१ से 'प्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होकर 'अन्तोवरि' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४।।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 21 स्त्रियामादविद्युतः ॥ १-१५।। स्त्रियां वर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य आत्वं भवति विद्युच्छब्दं वर्जयित्वा। लुगपवादः।। सरित्। सरिआ।। प्रतिपद्। पाडिवआ।। संपद् संपआ।। बहुलाधिकाराद् ईषत्स्पृष्टतर य श्रुतिरपि। सरिया। पाडिवया। संपया।। अविद्युत् इति किम्॥ विज्जू॥ ___ अर्थः- 'विद्युत्' शब्द को छोड़ करके शेष अन्त्य हलन्त-व्यञ्जन वाले संस्कृत स्त्रीलिंग (वाचक) शब्दों के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर 'आत्व आ' की प्राप्ति होती है। यों व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग वाले संस्कृत शब्द प्राकृत में आकारान्त हो जाते हैं। यह सूत्र पूर्वोक्त (१-११ वाले) सूत्र का अपवाद रूप सूत्र है। उदाहरण इस प्रकार है:- सरित्सरिआ; प्रतिपद्-पाडिवआ; संपद्-संपआ इत्यादि। बहुलं' सूत्र के अधिकार से हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर प्राप्त होने वाले 'आ' स्वर के स्थान पर सामान्य स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने वाले ऐसे 'या' की प्राप्ति भी होती हुई पाई जाती है। जैसे:- सरित्सरिआ अथवा सरिया; प्रतिपद्=पाडिवआ अथवा पाडिवया और संपद्-संपआ अथवा संपया इत्यादि।
प्रश्न:- “विद्युत्' शब्द का परित्याग क्यों किया गया है ?
उत्तरः- चूंकि प्राकृत-साहित्य में 'विद्युत्' का रूपान्तर 'विज्जू' पाया जाता है; अतः परम्परा का उल्लंघन कैसे किया जा सकता है? साहित्य की मर्यादा का पालन करना सभी वैयाकरणों के लिये अनिवार्य है; तदनुसार 'विद्युत् विज्जू' को इस सूत्र-विधान से पृथक् ही रक्खा गया है इसकी साधनिका अन्य सूत्रों से की जायगी।
'सरित्' संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सरिआ' और 'सरिया होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१५ से प्रथम रूप में हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर क्रम से 'सरिआ' और 'सरिया' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'प्रतिपद्' संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पाडिवआ' और 'पाडिवया' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से प्रथम 'प' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' आदेश; १-२३१ से द्वितीय 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और १-१५ से हलन्त अन्त्य व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर क्रम से दोनों रूपों में 'आ' और 'या' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'पाडिवआ' तथा 'पाडिवया सिद्ध हो जाते हैं।
'संपद्' संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप 'संपआ' और 'संपया होते हैं इनमें सूत्र संख्या १-१५ से हलन्त अन्त्य व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर क्रम से दोनों रूप 'संपआ' और 'संपया' सिद्ध हो जाते हैं।
"विद्युत् संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विज्जू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'द्य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'विज्जू' रूप सिद्ध हो जाता है। १-१५।।
रो रा ।। १-१६ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्यान्त्यस्य रेफस्य रा इत्यादेशो भवति। आत्त्वापवादः। गिरा। धुरा। पुरा।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में स्त्रीलिंग रूप से वर्तमान जिन शब्दों के अन्त में हलन्त रेफ 'र' रहा हुआ है; उन शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में उक्त हलन्त रेफ रूप 'र' के स्थान पर 'रा' आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- गिर्-गिरा; धुर् धुरा
और पर-परा। इस सत्र को सत्र संख्या १-१५ का अपवाद रूप विधान समझना चाहिये। क्योंकि सत्र संख्या १-१५ में अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर 'आ' अथवा 'या' की प्राप्ति का विधान है; जबकि इसमें अन्त्य व्यञ्जन सुरक्षित रहता है और इस सुरक्षित रेफ रूप 'र' में 'आ' की संयोजना होती है; अतः यह सूत्र १-१५ के लिये अपवाद रूप है।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
22 प्राकृत व्याकरण
'गिर्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १६ से अन्त्य रेफ रूप 'र्' के स्थान पर 'रा' आदेश होकर 'गिरा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धुर्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धुरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १६ से अन्त्य रेफ रूप 'र्' के स्थान पर 'रा' की आदेश - प्राप्ति होकर 'धुरा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुर्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १६ से अन्त्य रेफ रूप 'र्' के स्थान पर 'रा' आदेश होकर 'पुरा' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-१६ ।।
क्षुधा ।। १-१७ ।।
क्षुध् शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हादेशो भवति । छुहा ॥
अर्थः- संस्कृत भाषा के ' क्षुध्' शब्द के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन ' ध्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'हा' आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:- क्षुध्= छुहा॥
'क्षुध्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छुहा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १७ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति और १ - १७ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन ' ध्' के स्थान पर 'हा' आदेश होकर 'छुहा' रूप सिद्ध हो जाता है। १-१७।।
शरदादेरत् ।। १-१८।
शरदादेरन्त्य व्यञ्जनस्य अत् भवति ।। शरद् । सरओ ।। भिसक्। भिसओ ॥
अर्थः- संस्कृत भाषा के 'शरद्' 'भिसक्' आदि शब्दों के अन्त्यस्थ हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होती है जैसे- शरद् - सरओ और भिसक्- भिसओ इत्यादि । ।
'शरद्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सरओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - १८ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में ‘सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' की प्राप्ति; 'ओ' के पूर्वस्थ 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप होकर 'सरओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भिषक् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिसओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति १ - १८ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर उपरोक्त 'सरओ' के समान ही 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिसओ' रूप सिद्ध हो जाता है । १- १८ ॥
दिक्- प्रावृषोः सः ।। १-१९।।
एतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य सो भवति ।। दिसा । पाउसो ||
अर्थः- संस्कृत शब्द 'दिक्' और 'प्रावृट्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर 'स' का आदेश होता है जैसे- दिक् = दिसा और प्रावट् - पाउसो ।
'दिक्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दिसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १९ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' स्थान पर प्राकृत में 'स' आदेश - प्राप्ति; और ३-३१ की वृत्ति से स्त्रीलिंग - अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दिसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रावृट्' (=प्रावृष्) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाउसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १- १७७ से 'व्' का लोप; १ - १३१ से लोप हुए 'व्' के पश्चात शेष रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १ - १९ से
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 23 अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ट्' (अथवा 'ष्' के स्थान पर 'स्') की प्राप्ति; १ - ३१ से प्राप्त रूप 'पाउस' को प्राकृत में पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पाउसो' रूप सिद्ध हो जाता है । १-१९।।
आयुरप्सरसोर्वा ।। १ -२० ।।
एतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य सो वा भवति ।। दीहाउसो दीहाऊ । अच्छरसा अच्छरा ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'आयुष्' और 'अप्सरस्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' और 'स्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'स' की प्राप्ति होती है। जैसे:- दीर्घायुष्- दीहाउसो अथवा दीहाऊ और अप्सरस्= अच्छरसा और अच्छरा ।
प्रत्यय
'दीर्घायुष्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दीहाउसो' और 'दीहाऊ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; १-१८७ से 'घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'य्' का लोप; १ - २० से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकरान्त पुल्लिंग रूप 'सि' स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दीहाउसो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- ' (दीर्घायुष्) ' दीहाऊ में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १८७ से 'घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य्' का लोप; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'ष्' का लोप और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दीहाऊ' भी सिद्ध हो जाता है।
'अप्सरस्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अच्छरसा' और 'अच्छरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - २१ से संयुक्त व्यञ्जन 'प्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; १ - २० से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३ - ३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप ' अच्छरस' में स्त्रीलिंग - अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अच्छरसा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- ( अप्सरस्= ) अच्छरा में ' अच्छरस्' तक की साधनिका उपरोक्त रूप के समान; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप अच्छर में स्त्रीलिंग - अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अच्छरा' सिद्ध हो जाता है । १ - २० ॥
ककुभो हः ।। १ - २१ ।।
ककुभ् शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हो भवति ॥ कउहा ॥
अर्थ:-संस्कृत शब्द 'ककुभ् ' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'भू' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे - ककुभ् =कउहा।
'ककुभ् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कउहा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; १-२१ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप 'कउह' में स्त्रीलिंग-अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कउहा' रूप सिद्ध हो जाता है ॥१-२१॥
धनुषो वा ।।१ - २२ ।
धनुः शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हो वा भवति ॥ धणुहं । धणू ॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'धनुष' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'ह' की प्राप्ति होती है । जैसे- धनुः = (धनुष = ) धणुहं और धणू ||
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
24 प्राकृत व्याकरण
'धनुष्'=(धनुः) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'धणुहं' और 'धणू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - २२ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'धणुह' सिद्ध हो जाता है।
'द्वितीय रूप- (धनुष्- ) धणू' में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ष्' का लोप; १ - ३२ से प्राप्त रूप ' धणु' को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'धणू' भी सिद्ध हो जाता है। १-२२ ।।
मोनुस्वारः ||१ - २३ ।।
अन्त्य मकारस्यानुस्वारो भवति । जलं फलं वच्छं गिरिं पेच्छ । क्वचिद् अनन्त्यस्यापि। वणम्मि। वर्णमि।।
अर्थः- पद के अन्त में रहे हुए हलन्त 'म्' का अनुस्वार हो जाता है। जैसे:- जलम् - जलं; फलम् - फलं; वृक्षम-वच्छं; और गिरिम् पश्य = गिरिं पेच्छ । किसी किसी पद में कभी-कभी अन्त्य - याने पद के अन्तर्भाग में रहे हुए हलन्त 'म्' का भी अनुस्वार हो जाता है। जैसे:- वने वणम्मि अथवा वर्णामि । इस उदाहरण में अन्तर्भाग में रहे हुए हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये।
'जलम्' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जल' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'जल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'फलम्' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फलं' होता है। इसमें उपरोक्त 'जल' के समान ही सूत्र संख्या ३-५ और १ - २३ से साधनिका की प्राप्ति होकर 'फल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वृक्षम' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' 'स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'वच्छ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गिरिम्' संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिरिं' होता है। इसमें उपरोक्त 'जल' के समान ही सूत्र संख्या ३-५ और १ - २३ से साधनिका की प्राप्ति होकर 'गिरिं रूप सिद्ध हो जाता है।
'पश्य' संस्कृत आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेच्छ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८१ से मूल हलन्त धातु 'दृश्' के स्थानीय रूप 'पश्य' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ्' आदेश की प्राप्ति; ४- २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'पेच्छ्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३- १७५ से आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में 'प्रत्यय - लोप' की प्राप्ति होकर 'पेच्छ' क्रियापद-रूप सिद्ध हो जाता है।
'वने' संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वणम्मि' और 'वर्णमि' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'डि' 'इ' प्रत्यय के स्थान पर संयुक्त 'म्मि' और १ - २३ से 'म्मि' में स्थित हलन्त 'म्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'वणम्मि' और 'वर्णमि' सिद्ध हो जाते हैं । १ - २३ ।।
वास्वरे मश्च ॥ १-२४॥
अन्त्य मकारस्य स्वरे परेऽनुस्वारो वा भवति । पक्षे लुगपवादो मस्य मकारश्च भवति ।। वन्दे उसभं अजिअं ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 25 उसभमजिअं च वन्दे । बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः । । साक्षात्। सक्खं । यत्। जं॥ तत्। तं॥ विष्वक्। वीसुं।। पृथक् पिहं ॥ सम्यक्। सम्मं इहं । इहयं। आलेट्टुअं। इत्यादि।।
अर्थः- यदि किसी पद के अन्त में रहे हुए हलन्त 'म्' के पश्चात् कोई स्वर रहा हुआ हो तो उस पदान्त हलन्त 'म्' का वैकल्पिक रूप से अनुस्वार होता है। वैकल्पिक पक्ष होने से यदि उस हलन्त 'म्' का अनुस्वार नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में सूत्र संख्या १ - ११ से 'म्' के लिये प्राप्तव्य लोप- अवस्था का भी अभाव ही रहेगा; इसमें कारण यह है कि आगे 'स्वर' रहा हुआ है; तदनुसार उक्त हलन्त 'म्' की स्थिति 'म्' रूप में ही कायम रहकर उस हलन्त 'म्' में आगे रहे' हुए 'स्वर' की संधि हो जाती है। यों पदान्त हलन्त 'म्' के लिये प्राप्तव्य 'लोप- प्रक्रिया' के प्रति यह अपवाद-रूप स्थिति जानना । जैसे:- वन्दे ऋषभम् अजितम् = वन्दे उसभं अजिअं अथवा उसभमजिअं च वन्दे । इस उदाहरण में यह व्यक्त किया गया है कि प्रथम अवस्था में 'उसभं' में पदान्त 'म्' का अनुस्वार कर दिया गया है और द्वितीय अवस्था में 'उसभमजि में पदान्त 'म्' की स्थिति यथावत् कायम रक्खी जाकर उसमें आगे रहे हुए 'अ' स्वर की संधि-संयोजना कर दी गई है; एवं सूत्र संख्या १ - ११ से 'म्' के लिये प्राप्तव्य लोप-स्थिति का अभाव भी प्रदर्शित कर दिया गया है; यों पदान्त 'म्' की सम्पूर्ण स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये ।
'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कभी-कभी पदान्त में स्थित 'म्' के अतिरिक्त अन्त्य हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर भी अनुस्वार की प्राप्ति हो जाया करती है। जैसे:- साक्षात् - सक्खं; यत्-जं; तत्-तं; इन उदाहरणों में हलन्त 'त्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं- विष्वक्-वीसुं; पृथक् = पिहं; सम्यक्=सम्मं; ऋधक् इहं । इन उदाहरणों में हलन्त 'क्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
संस्कृत शब्द 'इहक' के प्राकृत रूपान्तर 'इहयं' में किसी भी व्यञ्जन के स्थान पर 'अनुस्वार' की प्राप्ति नहीं हुई है, किन्तु सूत्र संख्या १ - २६ से अन्त्य तृतीय स्वर 'अ' में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति हुई है। इसी प्रकार से संस्कृत रूप आश्लेष्टुम के प्राकृत रूपान्तर ' आलेट्ठअ' में सूत्र संख्या २ - १६४ से पदान्त 'म्' के पूर्व स्वार्थक-प्रत्यय 'क' की प्राप्ति होकर 'आलेट्ठअं रूप का निर्माण हुआ है; तदनुसार इस हलन्त अन्त्य 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति हुई है; यों 'पदान्त 'म्' और इससे संबंधित 'अनुस्वार' संबंधी विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिये। ऐसा तात्पर्य वृत्ति में उल्लिखित 'इत्यादि' शब्द समझना चाहिये।
'वन्दे' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'वन्दे' ही है। इसमें सूत्र संख्या ४- २३९ हलन्त धातु 'वन्द्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ४-४४८ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एकवचन में संस्कृत की आत्मने पद-क्रियाओं में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' की प्राकृत में भी 'इ' की प्राप्ति; और १-५ से पूर्वस्थ विकरण प्रत्यय 'अ' के साथ प्राप्त काल-बोधक प्रत्यय 'इ' की संधि होकर 'वन्दे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ऋषभम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उसभ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'उसभ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अजितम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अजिअं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३-५ द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अजिअं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उसभमजिअ रूप में सूत्र संख्या १-५ से हलन्त 'म्' में आगे रहे हुए 'अ' की संधि-संयोजना होकर संधि-आत्मक पद 'उसभमजिअं' सिद्ध हो जाता है।
'साक्षात्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्ख' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'सा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' को द्वित्व 'ख्ख' की
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
26 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; १-४ से अथवा १-८४ से पदस्थ द्वितीय 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और १-२४ की वृत्ति से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'सक्खं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'यत् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ज' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'जं रूप सिद्ध हो जाता है।
'तत्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'तं रूप सिद्ध हो जाता है। __ "विष्वक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वीसु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४३ से हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; २-७९ से द्वितीय 'व' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'व् के पश्चात् शेष रहे हुए 'ष' को 'स' की प्राप्ति; १-५२ से प्राप्त व्यञ्जन 'स' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'वीसुंरूप सिद्ध हो जाता है।
'पृथक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३७ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'पिहं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सम्यक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सम्म होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'सम्म रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ऋधक्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२४ से अन्त्य 'क्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'इह रूप सिद्ध हो जाता है।
'इहक' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इहय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'क्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'क' का लोप और १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-२६ से अन्त्य स्वर 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'इहयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'आश्लेष्टकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलेठूअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'श्का लोप; २-३४ से 'ष्ट्र' के स्थान पर '' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'लू' को द्वित्व'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ् के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'क्' का लोप और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'आलेठुअं रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२४।।
ङ-ब-ण-नो व्य ञ्जने ।। १-२५।। ___ - न् इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति।। ङ। पङ्क्तिः । पंती॥ पराङ्मुखः। परंमुहो। बा कञ्चुकः। कंचुओ।। लाञ्छनम्। लंछण।। ण। पण्मुखः। छंमुहो।। उत्कण्ठा। उक्कंठा।। न। सन्ध्या। संझा।। विन्ध्यः। विंझो।।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 27 अर्थः-संस्कृत शब्दों में यदि 'ङ्''''ण' और 'न्' के पश्चात व्यञ्जन रहा हुआ हो तो इन शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में इन ‘ङ्' '' 'ण' और 'न्' के स्थान पर (पूर्व व्यञ्जन पर) अनुस्वार की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- 'ङ्' के उदाहरण:पङ्क्तिः = पंती और पराङ्मुखः परंमुहो। 'ब्' के उदाहरणः कञ्चुकः कंचुओ और लाञ्छनम्-लंछण। 'ण' के उदाहरणः- षण्मुखः छंमुहो और उत्कण्ठा-उक्कंठा। 'न्' के उदाहरणः- सन्ध्या संझा और विन्ध्यः-विंझो; इत्यादि। __ पङ्क्ति - संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पंती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ङ् के स्थान पर (पूर्व व्यञ्जन पर) अनुस्वार की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में स्थित हलन्त 'क्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर 'पंती' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पराङ्मुख' -संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'परंमुहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ङ्' के स्थान पर (पूर्व व्यञ्जन पर) अनुस्वार की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'परंमुहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कञ्चुकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कंचुओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कंचुओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'लाञ्छनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लंछणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ला' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'लंछणं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'षण्मुखः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छंमुहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति;
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छंमुहो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'उत्कण्ठा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उक्कंठा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व'क्क' की प्राप्ति और १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'उक्कंठा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सन्ध्या' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संझा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और २-२६ से 'ध्य्' के स्थान पर 'झ्' की प्राप्ति होकर 'संझा' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विन्ध्यः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विंझो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; २-२६ से 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विंझो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२५।।
वक्रादावन्तः ।। १-२६ ।। वक्रादिषु यथा दर्शनं प्रथमादेः स्वरस्य अन्त आगम रूपोऽनुस्वारो भवति।। वंक। सं। असुं। मंसू। पुंछं। गुंछ। मुंढा। पंसू। बुध। कंकोडो। कुंपलंदसणं। विछिओ। गिंठी। मंजारो। एष्वाद्यस्य।। वयंसो। मणंसी। मसिणी। मणसिला। पडंसुआ एषु द्वितीयस्य।। अवरिं। अणिउतयं। अइमुत्तयं। अनयोस्तृतीयस्य।। वक्र॥त्र्यस्र। अश्रु। श्मश्रु।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
28 : प्राकृत व्याकरण
पुच्छ। मूर्द्धन्। पर्शु। बुघ्न । कर्कोट । कुड्मल। दर्शन । वृश्चिक । गृष्टि । मार्जार। वयस्य । मनस्विन् । मनस्विनी । मनःशीला। प्रतिश्रुत्। उपरि । अतिमुक्तक । इत्यादि । । क्वचिच्छन्दः पूरणेपि । देवं नाग - सुवण्ण । । क्वचिन्न भवति । गिट्ठी । मज्जारो । मणसिला । मणासिला।। आर्षे ।। मणोसिला। अइमुत्तयं।।
अर्थः-संस्कृत भाषा के 'वक्र' आदि कुछ शब्द ऐसे है; जिनका प्राकृत रूपान्तर करने पर उनमें रहे हुए आदि-स्वर पर याने आदि-स्वर के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'वक्रम'=वंकं, ॥ त्र्यस्रम्=तंसं, अश्रु-अंसुं; श्मश्रुः=मंसू; पुच्छम् - पुंछं; गुच्छम्- गुंछं, मुर्द्धा मुंढा, पशु-पंसू; बुध्नम् =बंधं; कर्कोट :-कंकोडो; कुड्मलम्-कुंपलं; दर्शनम् - दंसणं; वृश्चिक:- विछिओ; गुष्टिः- गिंठी और मार्जारः = मंजारो; इन प्राकृत शब्दों के सर्वप्रथम अर्थात् आदि स्वर के अन्त में आगम रूप अनुस्वर की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। इसी प्रकार से संस्कृत भाषा के कुछ शब्द ऐसे हैं; जिनका प्राकृत रूपान्तर करने पर उनमें रहे हुए द्वितीय स्वर पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होती है। जैसे :- वयस्यः = वयंसो; मनस्वी - मणंसी; मनस्विनी - मणसिणी; मनःशिला = मणसिला और प्रतिश्रुत्= पडंसुआ; इन प्राकृत शब्दों के द्वितीय स्वर के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। इसी प्रकार से संस्कृत भाषा के कुछ शब्द ऐसे भी है; जिनका प्राकृत रूपान्तर करने पर उनमें रहे हुए तृतीय स्वर पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होती है जैसे:- उपरि-अवरिं; और अतिमुक्तकम् - अणिउँतयं अथवा अइमुत्तयं; इन प्राकृत शब्दों के तृतीय स्वर के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। इस प्रकार विदित होता है कि प्राकृत भाषा के किसी-किसी शब्द के प्रथम स्वर पर, किसी-किसी शब्द के द्वितीय स्वर पर और किसी-किसी शब्द के तृतीय स्वर पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होती हुई पाई जाती है; ऐसा विधान इस सूत्रानुसार जानना चाहिये।
जब कभी प्राकृत-भाषा के गाथा रूप छन्द में गणनानुसार वर्ण का अभाव प्रतीत होता हो तो वर्ण पूर्ति के लिये भी आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति देखी जाती है। जैसे:- 'देव - नाग - सुवण्ण' गाथा का एक चरण है; किन्तु इसमें लय टूटती है; अतः 'देव' पद पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति की जाकर यों लय-पूर्ति की जाती है कि:- 'देवं-नाग -सुवण्ण' इत्यादि। यों छन्द- पूर्ति के लिये भी 'आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति' का प्रयोग किया जाता है।
किन्हीं - किन्हीं शब्दों में प्राप्तव्य आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती हुई भी देखी जाती है। जैसेगृष्टिः=गिंठी अथवा गिट्ठी; मार्जार:- मंजारो अथवा मज्जारो; मनःशिला - मणसिला अथवा मणसिला अथवा मणासिला; एवं आर्ष-प्राकृत में इसका रूपान्तर मणोसिला भी पाया जाता है। इसी प्रकार से अति - मुक्तकम् के उपरोक्त दो प्राकृत रूपान्तरों- (अणिउँत और अइमुंतय) के अतिरिक्त आर्ष- प्राकृत में तृतीय रूप 'अइ-मुत्तयं' भी पाया जाता है।
'वक्रम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वंक' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - २६ से 'व' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'वंक' रूप सिद्ध हो जाता है।
'त्र्यत्रम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तंसं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'त्र' और 'स्र' में स्थित दोनों 'र्' का लोप; २- ७८ से 'य्' का लोप; १ - २६ से 'त' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'तंसं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अश्रु' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अंसुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६ से 'अ' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति २ - ७९ से 'श्रु' में स्थित 'र्' का लोप; १ - २६० से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु' के 'श्' को 'स्' की प्राप्ति; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अंसुं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्मश्रु' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मंसू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-८६ से प्रथम हलन्त 'शू' का लोप;
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 29 १-२६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु में स्थित 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'मंसू रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पुच्छम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुंछ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८६ से 'पु' पर आगम रूप अनुस्वार
की प्राप्ति; १-१७७ की वृत्ति से हलन्त 'च' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुंछ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गुच्छम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गुंछ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से 'गु' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-१७७ की वृत्ति से हलन्त 'च' का लोप और शेष साधनिका उपरोक्त 'पुंछ के समान ३-२५ तथा १-२३ से होकर 'गुंछ रूप सिद्ध हो जाता है।
'मूर्द्धा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुंढा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'मु' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से हलन्त 'र' का लोप; २-४१ से संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; १-११ से मूल संस्कृत रूप 'मूर्द्धन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-४९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'नकारान्त-शब्द' में अन्त्य 'न्' का लोप होने के पश्चात् शेष अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होकर 'मुंढा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पर्शः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पंसू' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से 'प' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर 'पंसू रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुध्नम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बुंध होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से 'बु' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७८ से 'न्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'बुंध रूप सिद्ध हो जाता है।
'कर्कोटः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कंकोडो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से प्रथम 'क' पर आगम रूप, अनुस्वार की प्राप्ति २-७९ से हलन्त 'र' का लोप; १-१९५ से 'ट् के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कंकोडो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'कुड्मलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुंपलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से 'कु' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-५२ से 'ड्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'कुंपलं' रूप सिद्ध हो जाता है। __'दर्शनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दंसणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से 'द' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'दंसणं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ "वृश्चिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विछिओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'वि' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर "विछिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
30 : प्राकृत व्याकरण
'गृष्टिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गिंठी' और 'गिट्ठी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'गि' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट्र के स्थान पर '' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'गिंठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(गृष्टि:=) गिट्ठी में सूत्र संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट्' के स्थान पर '' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व'' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति
और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'गिट्ठी भी सिद्ध हो जाता है।
'मार्जार'-संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मंजारो' और 'मज्जारो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से 'मा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मंजारो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(मार्जारः) मज्जारो में सूत्र संख्या १-८४ से 'मा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मज्जारो' भी सिद्ध हो जाता है।
'वयस्यः संस्कत रूप है। इसका प्राकत रूप 'वयंसो' होता है। इसमें सत्र संख्या १-२६ से प्रथम 'य' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७८ से द्वितीय 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वयंसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मनस्वी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मणंसी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'व् का लोप; १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'मनस्विन् में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'मणंसी रूप सिद्ध हो जाता है।
'मनस्विनी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मसिणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'व्' का लोप और १-२२८ से द्वितीय 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'मणसिणी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मनः शिला' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मणसिला,' 'मणसिला', 'मणासिला' और (आर्ष-प्राकृत में) 'मणोसिला' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-११ से 'मनस्=मनः' शब्द के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मणसिला' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६ के अतिरिक्त शेष सूत्रों की प्रथम-रूप के समान ही' प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मण-सिला' सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप में सूत्र संख्या १-४३ से प्राप्त द्वितीय रूप 'मण-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'मणा-सिला' सिद्ध हो जाता है।
चतुर्थ रूप में सूत्र संख्या १-३ से प्राप्त द्वितीय रूप 'मण-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ' को वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति होकर चतुर्थ आर्ष रूप 'मणो-सिला' भी सिद्ध हो जाता है।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 31 'प्रतिश्रुत्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पडंसुआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'प्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२०६ से 'ति' में स्थित 'त्' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति; १-८८ से प्राप्त 'डि' में स्थित 'इ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ड' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'श्रु' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से प्राप्त 'शु' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति और १-१५ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर स्त्रीलिंग अर्थक 'आ' की प्राप्ति होकर 'पडंसुआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'उपरि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवरि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०८ से 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और १-२६ से अन्त्य 'रि' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'अवरि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अतिमुक्तकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अणिउँतयं', अइमुंतयं और 'अइमुत्तयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२०८ से 'ति' में स्थित 'त्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७८ से 'म्' का लोप होकर शेष रहे हुए स्वर 'उ' पर अनुनासिक की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में स्थित हलन्त 'क्' का लोप; १-१७७ से अंतिम 'क्' का लोप; १-१८० से अंतिम 'क्' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'अणिउँतयं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(अतिमुक्तकम्=) अइमुंतयं में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ति' में स्थित 'त्' का लोप; १-२६ से 'मु' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में स्थित 'क्' का लोप; १-१७७ से अतिम 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही ३-५ और १-२३ से होकर द्वितीय रूप 'अइमुंत्तयं सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप- (अतिमुक्तकम्=) अइमुत्तयं में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ति' में स्थित 'त्' का लोप; २-७७ से 'क्त' में स्थित 'क
१९ से लोप हए'क' के पश्चात शेष रहे हए'त' को द्वित्व'त्त की प्राप्ति: १-१७७ से अतिम 'क' का लोपः १-१८० से लोप हए'क' के पश्चात शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही ३-५ और १-२३ से होकर तृतीय रूप 'अइमत्तयं सिद्ध हो जाता है। ___'देव-नाग-सुवर्ण संस्कृत वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'देव-नाग-सुवण्ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से देव में स्थित 'व' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से अंतिम संस्कृत व्यञ्जन 'ण' में स्थित रेफ रूप हलन्त ' का लोप और २-८९ से लोप हुए 'र के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति होकर प्राकृत-गाथा-अंश 'देव-नाग-सुवण्ण' सिद्ध हो जाता है। १-२६।।
क्त्वा-स्यादेर्ण-स्वोर्वा ।।१-२७॥ क्त्वायाः स्यादीनां च यो णसूतयोरनुस्वारोन्तो वा भवति। क्त्वा।। काऊणं काउण काउआणं काउआण।। स्यादि। वच्छेणं वच्छेण। वच्छेसुंवच्छेसु।। णस्वोरितिकिम्। करि। अग्गिणो।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में संबंध भूत कृदन्त के अर्थ में क्रियाओं में क्त्वा' प्रत्यय की संयोजना होती है; इसी क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सूत्र संख्या २-१४६ से 'तूण' और 'तुआण' अथवा 'ऊण' और 'उआण' प्रत्ययों की प्राप्ति का विधान है; तदनुसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों में स्थित अंतिम 'ण' व्यञ्जन पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे-कृत्वा-काऊणं अथवा काऊण, और काउआणं; अथवा काउआण। इसी प्रकार से प्राकृत-भाषा में संज्ञाओं में तृतीया विभक्ति के एकवचन में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में तथा सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में क्रम से 'ण' और 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति का विधान है; तदनुसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होती है। जैसे-वृक्षण-वच्छेणं अथवा वच्छेण; वृक्षाणाम्-वच्छाणं अथवा वच्छाण और वृक्षेषु-वच्छेसुं अथवा वच्छेसु; इत्यादि।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
32 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्न:- प्राप्तव्य 'ण' और 'सु' पर ही वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- प्राप्तव्य प्रत्यय 'ण' और 'सु' के अतिरिक्त यदि अन्य प्रत्यय रहे हुए हों तो उन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का कोई विधान नहीं है; तदनुसार अन्य प्रत्ययों के संबंध में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का अभाव ही समझना चाहिये। जैसे - कृत्वा = करिअ; यह उदाहरण संबंध भूत कृदन्त का होता हुआ भी इसमें 'ण' संयुक्त प्रत्यय का अभाव है; अतएव इसमें आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का भी अभाव ही प्रदर्शित किया गया है। विभक्तिबोधक प्रत्य का उदाहरण इस प्रकार है- अग्नयः = अथवा अग्नीन अग्गिणो; इस उदाहरण में प्रथमा अथवा द्वितीया के बहुवचन का प्रदर्शक प्रत्यय संयोजित है; परन्तु इस प्रत्यय में 'ण' अथवा 'सु' का अभाव है; तदनुसार इसमें आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का भी अभाव ही प्रदर्शित किया गया है; यों 'ण' अथवा 'सु' के सद्भाव में ही इन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है; यह तात्पर्य ही इस सूत्र का है।
'कृत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप काऊणं, काऊण, काउआणं, काउआण तथा करिअ होते हैं। इनमें से प्रथम चार रूपों में सूत्र संख्या ४-२१४ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत में 'का' की प्राप्ति; २- १४६
कृदन्त 'अर्थ में संस्कृत प्रत्यय ' त्वा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तूण' और 'तूआण' के क्रमिक स्थानीय रूप 'ऊण' और 'ऊआण' प्रत्ययों की प्राप्ति; १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ऊण' और 'ऊआण' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'ण' पर वैकल्पिक रूप से आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप 'काऊणं', 'काऊण,' 'काऊआणं' और 'काऊआण' सिद्ध हो जाते हैं।
पांचवें रूप - (कृत्वा =) करिअ में सूत्र संख्या ४- २३४ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'कर् में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २ - १४६ से संबंध भूत कृदन्त सूचक प्रत्यय ' क्त्वा' के स्थान पर प्राकृत में ' अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - ११ से प्राप्त प्रत्यय ' अत्' के अन्त में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'करिअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वृक्षेण' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वच्छेणं' और 'वच्छेण' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २ - ८९ से प्राप्त 'छ्' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च्' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ -१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ 'वच्छ' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'वच्छेणं' और 'वच्छेण' सिद्ध हो जाते हैं।
'वृक्षेषु' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वच्छेसुं' और 'वच्छेसु' होते हैं। इनमें 'वच्छ' रूप मूल अंग की प्राप्ति उपरोक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - १५ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' के पूर्वस्थ 'वच्छ' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'वच्छेसुं' और 'वच्छेसु' सिद्ध हो जाते हैं।
'अग्नयः' और 'अग्नीन्' संस्कृत के प्रथमान्त द्वितीयान्त बहुवचन क्रमिक रूप है। इनका प्राकृत रूप 'अग्गिणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग्' की प्राप्ति; और ३- २२ से प्रथमा विभक्ति तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'जस्=अस्' और 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अग्गिणो' रूप सिद्ध हो जाता है । १-२७।।
विंशत्यादे र्लुक् ।। १-२८ ।।
विंशत्यादीनाम् अनुस्वारस्य लुग् भवति । विंशतिः । वीसा ।। त्रिंशत्। तीसा। संस्कृतम्। सक्कयं ।। संस्कारः । सक्कारो इत्यादि ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 33
अर्थः- "विंशति' आदि संस्कृत शब्दों का प्राकृत-रूपान्तर करने पर इन शब्दों में आदि अक्षर पर स्थित अनुस्वार का लोप हो जाता है। जैसे- विंशतिः=वीसा; त्रिंशत्-तीसा; संस्कृतम् :: सक्कयं और संस्कार=सक्कारो; इत्यादि।
"विंशतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वीसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२८ से अनुस्वार का लोप; १-९२ से 'वि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति तथा १-९२ से ही स्वर सहित 'ति' व्यञ्जन का लोप अथवा अभाव; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप और ३-३१ से स्त्रीलिंग-अर्थक प्रत्यय 'आ' की प्राप्त रूप 'वीस' में प्राप्ति होकर 'वीसा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___"त्रिंशत् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तीसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२८ से अनुस्वार का लोप; २-७९ से 'त्रि' में स्थित हलन्त व्यञ्जन '' का लोप; १-९२ से हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति: १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप और ३-३१ से स्त्रीलिंग अर्थ प्राप्त रूप 'तीस' में प्राप्ति होकर 'तीसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'संस्कृतम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्कयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२८ से अनुस्वार का लोप; २-७७ से द्वितीय 'स्' का लोप; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; २-८९ से पूर्वोक्त लोप हुए 'स्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व'क्क' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर अनस्वार की प्राप्ति होकर 'सक्कयं रूप सिद्ध हो जाता है।
"संस्कारः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्कारो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२८ से अनुस्वार का लोप; २-७७ से द्वितीय हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'स्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सक्कारो रूप सिद्ध हो जाता है।१-२८।।
मांसादेर्वा ।। १-२९॥ मांसादीनामनुस्वारस्य लुग् वा भवति। मासं मंसं। मासलं मंसला कासं कसं। पासू पंसू। कह कह। एव एवं। नूण नूणं। इआणि इआणिं। दाणि दाणिं। कि करेमि किं करेमि। समुहं संमुह। केसुअंकिंसुआ सीहो सिंघो।। मांस। मांसल। कांस्य। पांसु। कथम्। एवम्। नूनम्। इदानीम्। किम्। संमुख। किंशुक। सिंह। इत्यादि।। ___ अर्थः-मांस आदि अनेक संस्कृत शब्दों का प्राकृत-रूपान्तर करने पर उनमें स्थित अनुस्वार का विकल्प से लोप हो जाया करता है। जैसे-मांसम्-मासं अथवा मंस; मांसलम्=मासलं अथवा मंसलं; कांस्यम्= कासं अथवा कंस; पांसुः पासू अथवा पंसू कथम्=कह अथवा कह; एवम् एव अथवा एवं; नूनम् नूण अथवा नूणं; इदानीम् इआणि अथवा इआणिं; इदानीम् (शौरसेनी में-) दाणि अथवा दाणिं; किम् करोमि कि करेमि अथवा किं करेमि; सम्मुखम-समुहं अथवा संमुहं; किंशुकम्= केसुअं अथवा किंसुअं; और सिंह: सीहो अथवा सिंघो; इत्यादि। ___ 'मांसम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मासं' और 'मंसं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२९ से 'मां' पर स्थित अनुस्वार का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मास' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(मांसम् =) मंसं में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'मां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'मंसं' भी सिद्ध हो जाता है।
'मांसलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मासलं' और 'मंसल होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
34 : प्राकृत व्याकरण
१ - २९ से 'मां' पर स्थित अनुस्वार का लोप ; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मासल' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (मांसलम् = ) 'मंसल' में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'मां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर 'मंसल' भी सिद्ध हो जाता है।
"कांस्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कास' और 'कंस' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २९ से 'क' पर स्थित अनुस्वर का लोप; २-७८ से 'य्' का लोप; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'कास' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप - (कांस्यम् = ) 'कंस' में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'कां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'कंस' भी सिद्ध हो जाता है।
'पांसुः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पासू' और 'पंसू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २९ से 'पाँ' पर स्थित अनुस्वार का लोप; और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पासू' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (पांसु = ) 'पंसू' में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'पां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'पंसू ' भी सिद्ध हो जाता है।
'कथम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कह' और 'कह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और १ - २९ से अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'कह' और 'कह' सिद्ध हो जाते हैं।
'एवम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एव' और 'एवं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'एव' और ' एवं ' सिद्ध हो जाते हैं।
'नूनम् ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नूण' / 'नूणं' होते हैं। १ - २२८ से द्वितीय 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'नूण' और 'नूणं' सिद्ध हो जाते हैं।
'इदानीम् ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप इआणि और इआणिं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - २७७ से 'द्' का लोप; १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; १ - ८४ से दीर्घ स्वर 'इ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'इआणि' और 'इआणिं' सिद्ध हो जाते हैं।
'इदानीम् ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके शौरसेनी भाषा में 'दाणि' और 'दाणिं' रूप होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४- २७७ से 'इदानीम्' के स्थान पर 'दाणि' आदेश और १ - २९ से अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'दाणि' और 'दाणिं' सिद्ध हो जाते हैं।
'किम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कि' और 'किं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'कि' और 'किं' सिद्ध हो जाते हैं।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 35 'करोमि' संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'करेमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत घातु 'कृ' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'अर्' आदेश; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु कर में विकरण प्रत्यय 'ए' की संधि
और ३-१४१ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की संयोजना होकर 'करेमि' रूप सिद्ध हो जाता है।
"संमुखम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'समुहं' और 'संमुहं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२९ से 'सं पर स्थित अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'समुहं' और 'संमुह सिद्ध हो जाते हैं।
"किंशुकम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केसुअं और किंसुअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८६ से 'इ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; १-२९ से 'कि' पर स्थित अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'केसुअं' और 'किंसुअं सिद्ध हो जाते
___'सिंहः' संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप 'सीहो' और 'सिंघो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-९२ से हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२९ से अनुस्वार का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सीहो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(सिंहः =) सिंघो में सूत्र संख्या १-२६४ से अनुस्वार के पश्चात् रहे हुए 'ह' के स्थान पर 'घ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'सिंघो' भी सिद्ध हो जाता है।।१-२९।।
- वर्गेन्त्यो वा ।। १-३० ।। __ अनुस्वारस्य वर्गे परे प्रत्यासत्ते स्तस्यैव वर्गस्यान्त्यो वा भवति।। पङ्को पंको। सङ्को संखो। अङ्गणं अंगणं। लघं। लंघण। कञ्चुओ कंचुओ। लञ्छणं लंछणं। अजिअं अजिओ सञ्झा संझा। कण्टओ कंटओ। उक्कण्ठा उक्कंठा। कण्डं कंड। सण्ढो संढो। अन्तरं अंतरं। पन्थो पंथो। चन्दो चंदो बन्धवो बंधवो। कम्पइ कंपइ। वम्फइ वंफइ। कलम्बो कलंबो। आरम्भो आरंभो।। वर्ग इति किम्। संसओ। संहरइ।। नित्यमिच्छन्त्यन्ये।।
अर्थः-प्राकृत-भाषा के किसी शब्द में यदि अनुस्वार रहा हुआ हो और उस अनुस्वार के आगे यदि कोई वर्गीय-(कवर्ग-चवर्ग-टवर्ग-तवर्ग और पवर्ग का) अक्षर आया हुआ हो तो जिस वर्ग का अक्षर आया हुआ हो; उसी वर्ग का पञ्चम-अक्षर उस अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हो जाया करता है। जैसे-क वर्ग के उदाहरणः- पङ्क=पको अथवा पंको; शङ्खः सङ्को अथवा संखो; अङ्गणम् अङ्गणं अथवा अंगणं; लङ्घनम् लघणं अथवा लंघणं। च वर्ग के उदाहरणः- कञ्चुक-कञ्चुओ अथवा कंचुओ; लाञ्छनम् लञ्छणं अथवा लंछणं; अजितम् अजिअं अथवा अजि। सन्ध्यासञ्झा अथवा संझो। ट वर्ग के उदाहरण-कण्टक: कण्टओ अथवा कटओ;
अथवा उक्कंठाः काण्डम कण्डं अथवा कंडः षण्ढः =सण्ढो अथवा संढो। त वर्ग के उदाहरण-अन्तरमअन्तरं अथवा अंतरं; पंथः पन्थो अथवा पंथो; चन्द्रः-चन्दो अथवा चंदो; बान्धवः बन्धवो अथवा बंधवो। कम्पते-कम्पइ अथवा कंपइ; कांक्षति-वम्फइ अथवा वंफइ; कलंब-कलम्बो अथवा कलंबो और आरंभ आरम्भो अथवा आरंभो इत्यादि।
प्रश्नः- अनुस्वार के आगे वर्गीय अक्षर आने पर ही अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से उसी अक्षर के वर्ग का पंचम अक्षर हो जाता है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ?
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
36 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः- यदि अनुस्वार के आगे वर्गीय अक्षर नहीं होकर कोई स्वर अथवा अवर्गीय-व्यञ्जन आया हुआ होगा तो उस अनुस्वार के स्थान पर किसी भी वर्ग का ('म्' के अतिरिक्त) पंचम अक्षर नहीं होगा; इसलिये 'वर्ग' शब्द का भार-पूर्वक उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है-संशय-संसओ और संहरति-संहरइ; इत्यादि। किन्ही-किन्ही व्याकरणाचार्यों का मत है कि प्राकृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए अनुस्वार की स्थिति नित्य अनुस्वार रूप ही रहती है एवं उसके स्थान पर वर्गीय पंचम-अक्षर की प्राप्ति जैसी अवस्था नहीं प्राप्त हुआ करती है। __ 'पंकः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पङ्को और पंको होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ङ्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर 'ङ्' वैकल्पिक रूप से और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप पङ्को' तथा 'पंको' सिद्ध हो जाते हैं।
'शंखः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सङ्खो और संखो होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'पङ्को-पंकों के अनुसार ही १-२५; १-३० और ३-२ से प्राप्त होकर क्रम से दोनों रूप संलों और संखा सिद्ध हो जाते हैं। ____ अङ्गणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अङ्गणं' और 'अंगण' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त ङ् के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'ङ्' व्यञ्जन की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'अंङ्गणं' और 'अंगणं' सिद्ध हो जाते हैं। __ 'लङ्घनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'लङ्घणं' और लंघणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त अङ्गणं-अंगणं के अनुसार ही १-२५,१-३०, ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर क्रमशः दोनों रूप 'लङ्घणं' और 'लंघणं सिद्ध हो जाते हैं।
'कञ्चुकः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कञ्चुओ' और 'कंचुओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ब्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त '' व्यञ्जन की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कञ्चुओ' और 'कंचुओ' सिद्ध हो जाते हैं।
'लाञ्छनम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'लञ्छणं' और लंछणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ला' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त 'ज्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'अ' व्यञ्जन की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'लञ्छणं' और 'लंछणं सिद्ध हो जाते हैं। __ 'अञ्जितम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अजिअं और अजिअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ब्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ब्' व्यञ्जन की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अजिअं और 'अजिअं दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
'सन्ध्या' संस्कत रूप है। इसके प्राकत रूप 'सञ्झा' और 'संझा' होते हैं। इनमें सत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्या के स्थान पर 'झा' की प्राप्ति और १-३० से पूर्व
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 37 में प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'य्' व्यञ्जन की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'सञ्झा' और 'संझा' सिद्ध हो जाते हैं।
'कण्टकः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कण्टओ' और 'कंटओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ण्' व्यञ्जन की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय ‘क्' व्यञ्जन का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कण्टओ' और 'कंटओ' सिद्ध हो जाते हैं।
'उत्कण्ठा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उक्कण्ठा' और 'उक्कंठा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन ‘त्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'क्' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; १ - २५ से हलन्त व्यञ्जन ‘ण्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'ण्' व्यञ्जन की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'उक्कण्ठा' और 'उक्कंठा' सिद्ध हो जाते हैं।
'काण्डम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कण्ड' और 'कंड' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - २५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १ - ३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'ण्' व्यञ्जन की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कण्ड' और 'कंड' सिद्ध हो जाते हैं।
'षण्ढः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सण्ढो और संढो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त ‘ण्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'सण्ढो' और 'संढो' सिद्ध हो जाते हैं।
'अन्तरम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अन्तरं' और 'अंतर' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १- ३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'न्' व्यञ्जन की प्राप्ति; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'अन्तरं' और 'अंतर' सिद्ध हो जाते हैं।
'पन्थः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पन्थो' और 'पंथो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १ - ३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप हलन्त 'न्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'पन्थो' और 'पंथो' सिद्ध हो जाते हैं।
'चन्द्रः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'चन्दो' और 'चंदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'न्' व्यञ्जन की प्राप्ति; २-८० से हलन्त 'र्' व्यञ्जन का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'चन्दो' और 'चंदो' सिद्ध हो जाते हैं।
'बान्धवः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बन्धवो' और 'बंधवो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'बा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - २५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'न्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'बन्धवो' और 'बंधवो' सिद्ध हो जाते हैं।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
38: प्राकृत व्याकरण
'कम्पते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कम्पई' और 'कंपइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कम्पइ' और 'कंपइ सिद्ध हो जाते हैं।
'कांक्षति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत (आदेश-प्राप्त) रूप 'वम्फई' और 'वंफई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-१९२ से संस्कृत धातु 'कांक्ष्' के स्थान पर प्राकृत में 'वम्फ' की आदेश प्राप्ति; १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त धातु रूप 'वम्फ्' और 'वंफ्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप "वम्फड' और 'वंफड' सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'कलम्बः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कलम्बो' और 'कलंबो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कलम्बो' और 'कलंबो' सिद्ध हो जाते हैं। _ 'आरम्भः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'आरम्भो' और 'आरंभो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' व्यञ्जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'आरम्भो' और 'आरंभो' सिद्ध हो जाते हैं। __ 'संशयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संसओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संसओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'संहरति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संहरइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से मूल प्राकृत धातु 'संहर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संहरइ' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३०।।
प्रावृट-शरत्तरणयः पुसि ॥१-३१।। प्रावृष् शरद् तरणि इत्येते शब्दाः पुंसि पुल्लिङ्गे प्रयोक्तव्याः।। पाउसो। सरओ। एस तरणी।। तरणि शब्दस्य पुंस्त्रीलिङ्गत्वेन नियमार्थमुपादानम्॥
अर्थः- संस्कृत भाषा में प्रावृष (अर्थात् वर्षा ऋतु) शरद् (अर्थात् ठंड ऋतु) और तरणि (अर्थात् नौका नाव विशेष) शब्द स्त्रीलिंग रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं; परन्तु प्राकृत-भाषा में इन शब्दों का लिंग-परिवर्तन हो जाता है और ये पुल्लिग रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं। जैसे-प्रावृष्=पाउसो; शरद्=सरओ और एषा तरणिः एस तरणी। संस्कृत-भाषा में 'तरणि' शब्द के दो अर्थ होते हैं; १-सूर्य और २-नौका; तदनुसार 'सूर्य-अर्थ' में तरणि शब्द पुल्लिंग होता है और 'नौका' अर्थ' में यही तरणि शब्द स्त्रीलिंग वाला हो जाता है; किन्तु प्राकृत भाषा में 'तरणि' शब्द नित्य पुल्लिग ही होता है; इसी तात्पर्य-विशेष को प्रकट करने के लिये यहां पर 'तरणि' शब्द का मुख्यतः उल्लेख किया गया है।
'पाउसो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९ में की गई है। 'सरओ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८ में की गई है।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 39 'एषा' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप- (पुल्लिंग में) 'एस' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में मूल - सर्वनाम रूप 'एत्त्' के स्थान पर 'सि' प्रत्यय का योग होने पर 'एस' आदेश होकर 'एस' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तरणिः' संस्कृत स्त्रीलिंग वाला रूप है। इसका प्राकृत (पुल्लिंग में) रूप 'तरणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३१ से 'तरणि' शब्द को स्त्रीलिंगत्व से पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'तरणी' रूप सिद्ध हो जाता है ।१ - ३१ ।। स्नमदाम - शिरो - नभः ।। १–३२ ।।
दामन् -शिरस्-नभस्-वर्जितं सकारान्तं नकारान्तं च शब्दरूपं पुंसि प्रयोक्तव्यम्।। सान्तम्। जसो। पआ। तमो । तेओ । उरो ।। नान्तम्। जम्मो । नम्मो मम्मो ॥ अदाम शिरो नभ इति किम् । दाम । सिरं । नहं । यच्च सेयं वयं सुमणं सम्मं चम्ममिति दृश्यते तद् बहुलाधिकारात्।।
अर्थः- दामन्, शिरस् और नभस् इन संस्कृत शब्दों के अतिरिक्त जिन संस्कृत शब्दों के अन्त में हलन्त 'स्' अथवा हलन्त 'न्' हैं; ऐसे सकारान्त अथवा नकारान्त संस्कृत शब्दों का प्राकृत रूपान्तर करने पर इनके लिंग में परिवर्तन हो जाता है; तदनुसार ये नपुंसकलिंग से पुल्लिंग बन जाते हैं। जैसे- सकारान्त शब्दों के उदाहरण यशस्= जसो; पयस्-पओ; तमस=तमो; तेजस्-तेओ; उरस्-उरो; इत्यादि । नकारान्त शब्दों के उदाहरण- जन्मन्- जम्मो; नर्मन्नम्मो और मर्मन्-मम्मो; इत्यादि।
प्रश्न- दामन्, शिरस् और नभस् शब्दों का लिंग परिवर्तन क्यों नहीं होता है ?
उत्तर- ये शब्द प्राकृत-भाषा में भी नपुंसकलिंग वाले ही रहते हैं; अतएव इनको उक्त 'लिंग परिवर्तन' वाले विधान से पृथक् ही रखना पड़ा है। जैसे:- दामन् -दामं; शिरस् - सिरं और नभस् - नहं । अन्य शब्द भी ऐसे पाये जाते हैं; जिनके लिंग में परिवर्तन नहीं होता है; इसका कारण 'बहुलं' सूत्रानुसार ही समझ लेना चाहिये। जैसे- श्रेयस् सेयं; वयस् वयं; सुमनस=सुमणं; शर्मस्-सम्मं और चर्मन् - चम्मं; इत्यादि । ये शब्द सकारान्त अथवा नकारान्त हैं और संस्कृत भाषा में इनका लिंग नपुंसकलिंग है; तदनुसार प्राकृत रूपान्तर में भी इनका लिंग नपुंसकलिंग ही रहा है; इनमें लिंग का परिवर्तन नहीं हुआ है; इसका कारण 'बहुलम्' सूत्र ही जानना चाहिये । भाषा के प्रचलित और बहुमान्य प्रवाह को व्याकरणकर्त्ता पलट नहीं सकते हैं। 'जसो ' शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है।
'पयस्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'य्' का लोप; १-११ से 'स्' का लोप; १-३२ से नपुंसकलिंगत्व से पुल्लिंगत्व का निर्धारण; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तमो' शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११ में की गई है।
'तेजस्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'तेओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १-११ से अन्त्य ‘स्' का लोप; १-३२ से पुल्लिंगत्व का निर्धारण; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तेओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उरस' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'उरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ११ से अन्त्य 'स्' का लोप; १-३२ से पुल्लिंगत्व का निर्धारण; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जम्मो' शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११ में की गई है।
'नर्मन्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नम्मो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
40 : प्राकृत व्याकरण 'म' का द्वित्व ‘म्म'; १-११ से अन्त्य 'न्' का लोप; १-३२ से पुल्लिंगत्व का निर्धारण; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नम्मो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'मर्मन्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मम्मो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से द्वितीय 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १-११ से 'न्' का लोप; १-३२ से पुल्लिगत्व का निर्धारण; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मम्मो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'दामन्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'दाम' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'न्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'दाम' रूप सिद्ध हो जाता है।
"शिरस्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सिरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-११ से अन्त्य 'स्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'सिरं रूप सिद्ध हो जाता है।
__ 'नभस्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-११ से 'स्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसक होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर नहरूप सिद्ध हो जाता है। __'श्रेयस्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सेयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' का 'स्'; २-७९ से 'र' का लोप; १-११ से 'स्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३
से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'सेयं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'वयस्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वयं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'स्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसक होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'वयं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सुमनस्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सुमणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-११ से अन्त्य 'स्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुमणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शर्मन् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सम्म होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; १-११ से अन्त्य 'न्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुसंक होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'सम्म रूप सिद्ध हो जाता है।
'चर्मन्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'चम्म होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व ‘म्म'; १-११ से 'न्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसक होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर 'चम्म रूप सिद्ध हो जाता है। १-३२।।
वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः ॥ १-३३ ।। अक्षिपर्याया वचनादयश्च शब्दाः पुसि वा प्रयोक्तव्याः।। अक्ष्याः । अज्ज वि सा सवइ ते अच्छी। नच्चावियाइँ तेणम्ह अच्छीइं।। अञ्जल्यादिपाठादक्षिशब्दः स्त्रीलिङ्गे पि। एसा अच्छी। चक्खू चक्खूइं। नयणा नयणाई। लोअणा लोअणाई। वचनादि। वयणा वयणाई। विज्जुणा विज्जूए। कुलो कुलं। छन्दो छन्द। माहप्पो माहप्पं। दुक्खा दुक्खाई।। भायणा भायणाई। इत्यादि।। इति वचनादयः।। नेत्ता नेत्ताई। कमला कमलाई इत्यादि तु संस्कृतवदेव सिद्धम्।।
अर्थः- आँख के पर्यायवाचक शब्द और वचन आदि शब्द प्राकृत भाषा में विकल्प से पुल्लिंग में प्रयुक्त किये जाने
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 41 चाहिये। जैसे कि आँख अर्थक शब्द:- 'अज्ज वि सा सवइ ते अच्छी' अर्थात वह (स्त्री) आज भी तुम्हारी (दोनों) आंखों को भाप देती है; अथवा सौगंध देती है। यहां पर अच्छी' को पुल्लिंग मानकर द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय जोड़ा गया है। 'नच्चादियाइँ तेणम्ह अच्छीई' अर्थात् उसके द्वारा मेरी आँखें नचाई गई। यहाँ पर 'अच्छीइं लिखकर 'अच्छी' शब्द को नपुंसक में प्रयुक्त किया गया है। अंजली आदि के पाठ से 'अक्षि' शब्द स्त्रीलिंग में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। जैसे-एसा अच्छी अर्थात् यह आँख। यहां पर अच्छी शब्द स्त्रीलिंग में प्रयुक्त किया गया है।
'चक्खू चक्खूइं' =आंखें। प्रथम रूप प्रथमा बहुवचन के पुल्लिंग का है; जबकि दूसरा रूप प्रथमा बहुवचन के नपुंसकलिंग का है। इसी प्रकार नयणा और नयणाई; लोअणा और लोअणाई; ये शब्द भी आंख वाचक हैं। इनमें प्रथम रूप तो प्रथमा बहुवचन में पुल्लिंग का है; और द्वितीय रूप प्रथमा बहुवचन में नपुंसकलिंग का है।
वचन आदि के उदाहरण इस प्रकार है-'वयणा' और 'वयणाई'; अर्थात वचन। प्रथम रूप पुल्लिंग में प्रथमा बहुवचन का है और द्वितीय रूप नपुंसकलिंग में प्रथमा बहुवचन का है। विज्जुणा, विज्जूए अर्थात् विद्युत से। प्रथम रूप पुल्लिंग में तृतीया एकवचन का है; और द्वितीय रूप स्त्रीलिंग में तृतीया एकवचन का है। कुलो कुलं अर्थात् कुटुम्ब। प्रथम रूप पुल्लिंग में प्रथमा एकवचन का है और द्वितीय रूप नपुंसकलिंग में प्रथमा एकवचन का है। छन्दो-छन्दं अर्थात् छन्द। यह भी क्रम से पुल्लिंग और नपुंसकलिंग है; तथा प्रथमा एकवचन के रूप हैं। __'माहप्पो माहप्पं' अर्थात माहात्म्य। यहां पर भी क्रम से पुल्लिंग और नपुंसकलिंग है; तथा प्रथमा एकवचन के रूप हैं। 'दुक्खा दुक्खाई अर्थात् विविध दुःख। ये भी क्रम से पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में लिखे गये हैं; तथा प्रथमा बहुवचन के रूप हैं। 'भायणा भायणाइंभाजन बर्तन। प्रथम रूप पुल्लिंग में और द्वितीय रूप नपुंसकलिंग में है। दोनों की विभक्ति प्रथमा बहुवचन है। यों उपरोक्त वचन आदि शब्द विकल्प से पुल्लिंग भी होते हैं और नपुंसकलिंग भी। किन्तु नेत्ता और नेत्ताई अर्थात् आंख तथा कमला और कमलाई अर्थात् कमल इत्यादि शब्दों के लिंग संस्कृत के समान ही होते हैं; अतः यहां पर वचन आदि के साथ इनकी गणना नहीं की गई है।
'अद्य' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'ध' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति होकर 'अज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'सा' संस्कृत सर्वनाम स्त्रीलिंग शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सा' ही होता है। 'सा' सर्वनाम का मूल शब्द 'तद्' है। इसमें सूत्र संख्या ३-८६ से 'तद्' को 'स' आदेश हुआ। ३-८७ की वृत्ति में उल्लिखित 'हेम व्याकरण २-४-१८ से 'आत्' सत्र से स्त्रीलिंग में 'स' का 'सा' होता है। तत्पश्चात ३-३३ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के योग से 'सा' रूप सिद्ध होता है।
'शपति' संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'सवई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-१३९ से 'ति' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम पुरुष के एकवचन में वर्तमान काल का रूप 'सवइ' सिद्ध हो जाता है।
'तव' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ते' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९९ से 'तव' के स्थान पर 'ते' आदेश होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'अक्षिणी' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अच्छी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' का 'छ' २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-३३ से 'अच्छि' शब्द को पुल्लिंग पद की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में शस् प्रत्यय की प्राप्ति होकर उसका लोप; और ३-१८ से अतिम स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होकर 'अच्छी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नर्त्तिते' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नच्चावियाइँ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
42: प्राकृत व्याकरण
'अ'; ४ - २२५ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'च्च'; यहां पर प्रेरक अर्थ होने से 'इत' के स्थान पर सूत्र संख्या ३- १५२ से 'आवि' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १० से 'च्च' में स्थित 'अ' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; ३ - १३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - २६ से 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'हूँ' का आदेश; तथा पूर्व के स्वर 'अ' को दीर्घता प्राप्त होकर 'नच्चाविआइँ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तेन' संस्कृत सर्वनाम है; इसका प्राकृत रूप तेण होता है। इसमें सूत्र संख्या १- ११ से मूल शब्द 'तद्' के 'द्' का लोप; ३ - ६ से तृतीया एकवचन में 'ण' की प्राप्ति; ३ -१४ से 'त' में स्थित 'अ' का 'ए' होकर 'तेण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अस्माकम् ' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'अम्ह' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - ११४ से मूल शब्द अस्मद् को षष्ठी बहुवचन के 'आम्' प्रत्यय के साथ अम्ह आदेश होता है। यों ' अम्ह' रूप सिद्ध हो जाता है। वाक्य 'तेण अम्ह' में 'ण' में स्थित 'अ' के आगे 'अ' आने से सूत्र संख्या १-१० से 'ण' के 'अ' का लोप होकर संधि हो जाने पर 'ते म्ह' सिद्ध हो जाता है।
'अक्षीणि' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अच्छीई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १७ से 'क्ष' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च्'; ३ - २६ से द्वितीया बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और इसी सूत्र में अन्त्य स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'अच्छीई' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एषा' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'एसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ११ से मूल शब्द एतत् के अंतिम 'तू' का लोप; ३-८६ से 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्रथमा एकवचन में 'एत' का 'एस' रूप होता है । २-४ -१८ से लौकिक 'से स्त्रीलिंग का 'आ' प्रत्यय जोड़कर संधि करने से 'एसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
सूत्र
'अक्षि: ' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अच्छी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १७ से 'क्ष' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च्' ; १ - ३४ से इसका स्त्रीलिंग निर्धारण; ३ - १९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व 'इ' को दीर्घ 'ई' प्राप्त होकर 'अच्छी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चक्षुष्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'चक्खू' 'चक्खू' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २ - ३ से 'क्ष' को 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व 'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख्' का 'क्' ; १ - ११ से 'स्' का लोप; १-३३ से 'चक्खू' शब्द को विकल्प से पुल्लिंगता प्राप्त होने पर ३ - १९ से 'सि' प्रथमा एकवचन के प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व 'उ' को दीर्घ 'ऊ' होकर चक्खू रूप सिद्ध हो जाता है एवं पुल्लिंग नहीं होने पर याने नपुंसकलिंग होने पर ३ - २८ से प्रथमा बहुवचन के 'जस' प्रत्यय स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति के साथ पूर्व हस्व स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'चक्खूइं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नयनानि' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'नयणा' और 'नयणाई' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिंगता की प्राप्ति; ३ - ४० से 'जस् शस्' यानें प्रथमा और द्वितीया बहुवचन की प्राप्ति होकर इनका लोप; ३ - १२ से अंतिम 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर 'नयणा' रूप सिद्ध होता है एवं जब पुल्लिंग नहीं होकर नपुंसकलिंग हो तो ३ - २६ से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नयणाई' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लोचनानि' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'लोअणा' और 'लोअणाई' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिंगता की प्राप्ति; ३-४ से 'जस् - शस्' याने प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन की प्राप्ति होकर इनका लोप; ३-१२ से अंतिम 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर 'लोअणा' रूप सिद्ध हो जाता है। एवं जब पुल्लिंग नहीं होकर नपुंसकलिंग हो तो ३ - २६ से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लोअणाई' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वचनानि' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'वयणा' और 'वयणाई' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १- १७७ से 'च्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' का 'य'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिंगता की प्राप्ति; ३-४
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 43 से 'जस्-शस्' याने प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन की प्राप्ति होकर इनका लोप; ३-१२ से अंतिम 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर 'वयणा' रूप सिद्ध हो जाता है। एवं जब पुल्लिंग नहीं होकर नपुंसकलिंग हो तो ३-२६ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'वयणाई रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'विद्युत् मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'विज्जुणा' और 'विज्जूए' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'ध' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; १-११ से अन्त्य 'त्' का लोप: १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिगता की प्राप्ति; ३-२४ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' की प्राप्ति होकर 'विज्जुणा' शब्द की सिद्धि हो जाती है। एवं स्त्रीलिंग होने की दशा में ३-२९ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' आदेश; एवं 'ज्जु के हस्व 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'विज्जूए' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कुल' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कुलो' और 'कुलं' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'कुलो' रूप सिद्ध हो जाता है। और १-३३ से 'नपुंसक' होने पर ३-२५ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'कुलं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'छन्दस्' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'छन्दो' और 'छन्द होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१ से 'स्' का लोप; १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिंगता की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'छन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है और नपुंसक होने पर ३-२५ से प्रथमा एकवचन में 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'छन्द रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'माहात्म्य' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'माहप्पो' और 'माहप्पं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'हा' के 'आ' का 'अ'; २-७८ से 'य' का लोप; २-५१ से 'त्म' का आदेश 'प'; २-८९ से प्राप्त 'प' का द्वित्व 'प्प';१-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगता का निर्धारण; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर 'माहप्पो' रूप
जाता है और १-३३ से नपुंसक विकल्प रूप से होने पर ३-२५ से 'सि' के स्थान पर 'म्' प्रत्यय; एवं १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'माहप्पं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'दुःख' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'दुक्खा' और 'दुक्खाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१३ से दुर् के '' का अर्थात् विसर्ग का लोप; २-८९ से 'ख' का द्वित्व 'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्'; १-३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से दीर्घता प्राप्त होकर 'दुक्खा रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकता के विकल्प में ३-२६ से अतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दुक्खाई रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'भाजन' मूल संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भायणा' और 'भायणाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से 'अ' का 'य'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से अंतिम स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'भायणा' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकत्व के विकल्प में ३-२६ से अतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भायणाई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'नेत्र' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'नेत्ता' और 'नेत्ताइं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से अंतिम स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'नेत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकत्व के विकल्प में ३-२६ से अंतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नेत्ताई रूप सिद्ध हो जाता है।
सिद्ध ह
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
44: प्राकृत व्याकरण
'कमल' मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कमला' और 'कमलाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' का लोप; ३-१२ से
अतिम स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'कमला' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकत्व के विकल्प में ३-२६ से अंतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कमलाई रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३।।
गुणाद्याः क्लीबे वा ।। १-३४॥ गुणादयः क्लीबे वा प्रयोक्तव्याः।। गुणाई गुणा।। विहवेहिं गुणाई मग्गन्ति। देवाणि देवा। बिन्दूई। बिन्दुणो। खग्गं खग्गो। मण्डलग्गं मण्डलग्गो। कररूहं कररूहो। रुक्खाइं रुक्खा। इत्यादि।। इति गुणादयः॥
अर्थः- 'गण' इत्यादि शब्द विकल्प से नपुंसक लिंग में और पुल्लिंग में प्रयुक्त किये जाने चाहिये। जैसे 'गुणाई' और 'गुणा से रूक्खाइं और 'रुक्खा ' तक जानना। इनमें पूर्व पद नपुंसकलिंग में है और उत्तर पद पुल्लिंग में प्रयुक्त किया गया है। 'गुणा' पद की १-११ में सिद्धि की गई है और १-३४ से विकल्प रूप से नपुंसकलिंगत्व होने पर ३-२६ से
अतिम स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गुणाई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ विभवैः' संस्कृत पद है। इसका प्राकृत रूप 'विहवेहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह'; ३-७ से तृतीया बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर 'हिं होता है। ३-१५ से अन्त्य 'व' के 'अ' का 'ए' होकर 'विहवेहि' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'गुणाई शब्द की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। विशेषता यह है कि 'ई' के स्थान पर यहा पर 'ई' प्रत्यय है। जो कि सूत्र संख्या ३-२६ के समान स्थिति वाला ही है।
'मृगयन्ते संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'मग्गन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग्' का द्वित्व 'ग्ग'; ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन के प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय का आदेश होकर 'मग्गन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
"देवाः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'देवाणि' और 'देवा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३४ से नपुंसकत्व की प्राप्ति करके ३-२६ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति; होकर 'देवाणि' रूप सिद्ध होता है। जब देव शब्द पुल्लिंग में होता है; तब ३-४ से 'जस्-शस्' का लोप होकर एवं ३-१२ से अन्त्य स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर 'देवा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'बिन्दवः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'बिन्दूई' और 'बिन्दुणो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३४ से नपुंसकत्व की प्राप्ति करके ३-२६ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिन्दूई रूप सिद्ध हो जाता है। जब बिन्दु शब्द पुल्लिंगत्व में होता है; तब ३-२२ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'णो' आदेश होकर 'बिन्दुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'खड्गः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'खग्ग' और 'खग्गो' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-२७७ से 'ड्का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-३४ से नपुंसकत्व की प्राप्ति करके ३-२५ से प्रथमा एकवचन नपुंसकलिंग में 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'खग्गं रूप सिद्ध हो जाता है। जब पुल्लिंग में होता है; तब ३-२ से प्रथमा एकवचन के 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'खग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मंडलानः' संस्कृत शब्द है; इसके प्राकृत रूप 'मण्डलग्ग' और 'मण्डलग्गो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ला' के 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-३४ से विकल्प रूप से नपुंसकत्व की प्राप्ति होने से ३-२५ से प्रथमा एकवचन में 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मण्डलग्गं रूप सिद्ध हो जाता है। जब पुल्लिगत्व होता है तब ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'मण्डलग्गो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 45
'कररुहः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कररुह' और 'कररुहो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३४ से विकल्प रूप से नपुंसकत्व की प्राप्ति होने से ३-२५ प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कररूह' रूप सिद्ध हो जाता है। जब पुल्लिगत्व होता है; तब ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'कररुहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वृक्षाः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'रुक्खाई' और 'रुक्खा ' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से वृक्ष का आदेश 'रूक्ख' हो जाता है; १-३४ से विकल्प रूप से नपुंसकत्व की प्राप्ति ३-२६ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन में 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'ई का आदेश सहित अन्त्य स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर याने 'ख' का 'खा' होकर 'रुक्खाइं रूप सिद्ध हो जाता है। जब पुल्लिंगत्व होता है; तब ३-४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' की प्राप्ति और इनका लोप; ३-१२ से अन्त्य स्वर की दीर्घता होकर 'रुक्खा ' रूप सिद्ध हो जाता है।१-३४।।
वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम् ॥ १-३५ ।। इमान्ता अञ्जल्यादयश्च शब्दाः स्त्रियां वा प्रयोक्तव्याः।। एसागरिमा एस गरिमा। एसा महिमा एस महिमा। एसा निल्लज्जिमा एस निल्लज्जिमा। एसा धुत्तिमा एस धुत्तिमा।। अञ्जल्यादि। एसा अञ्जली एस अञ्जली। पिट्ठी पिटुं| पृष्ठमित्वे कृते स्त्रियामेवेत्यन्ये॥ अच्छी अच्छि। पण्हा पण्हो। चोरिआ चोरिओं एवं कुच्छी। बली। निही। बिही। रस्सी गण्ठी। इत्यञ्जल्यादयः।। गड्डा गड्डो इति तु संस्कृतवदेव सिद्धम्। इमेति तन्त्रेण त्वादेशस्य डिमाइत्यस्य पृथ्वादीम्नश्चसंग्रहः। त्वादेशस्य स्त्रीत्वमेवेच्छन्त्येके। अर्थः-जिन शब्दों के अंत में 'इमा' है; वे शब्द और अञ्जली आदि शब्द प्राकृत में विकल्प रूप से स्त्रीलिंग में
य जाने चाहिये। जैसे-'एसा गरिमा एस गरिमा से लगाकर 'एसा धुत्तिया-एस धुत्तिया' तक जानना। अंजली आदि शब्द भी विकल्प से स्त्रीलिंग में होते हैं। जैसे-एसा अज्जली एस अज्जली। 'पिट्ठी पिटुंगे। लेकिन कोई कोई 'पृष्ठम्' के रूप पिटुं में 'इत्व' करने पर इस शब्द को स्त्रीलिंग में ही मानते हैं। इसी प्रकार अच्छी से गण्ठी तक 'अंजल्यादय' के कथनानुसार विकल्प से इन शब्दों को स्त्रीलिंग में जानना। गड्डा और गड्डो शब्दों की लिंग सिद्धि संस्कृत के समान ही जान लेना। 'इमा' तन्त्र से युक्त इमान्त शब्द और 'त्व' प्रत्यय के आदेश में प्राप्त 'इमा' अन्त वाले शब्द; यों दोनों ही प्रकार के 'इमान्त' शब्द यहां पर विकल्प रूप से स्त्रीलिंग में माने गये हैं। जैसे-पृथु+इमा= प्रथिमा आदि शब्दों को यहां पर इस सूत्र की विधि अनुसार जानना। अर्थात् इन्हें भी विकल्प से स्त्रीलिंग में जानना। किन्हीं किन्हीं का मत ऐसा है कि 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर आदेश रूप से प्राप्त होने वाले 'डिमा' के 'इमान्त' वाले शब्द नित्य स्त्रीलिंग में ही प्रयुक्त किये जाँय।।
'एसा' शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-३३ में की गई है।
'गरिमा' संस्कृत रूप है। इसका मूल शब्द 'गरिमन्' है। इसमें सूत्र संख्या १-१५ से 'न्' का लोप होकर 'आ' होता है। यों 'गरिमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एस' शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-३१ में की गई है।
'महिमा' संस्कृत रूप है। इसका मूल शब्द 'महिमन्' है। इसमें सूत्र संख्या १-१५ से 'न्' का लोप होकर 'आ' होता है यों 'महिमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
"निर्लज्जत्वम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'निल्लज्जिमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; २-१५४ से त्वम् के स्थान पर 'डिमा' अर्थात 'इमा' का आदेश १-१० से 'ज' में स्थित 'अ' का लोप होकर 'ज' में 'इमा' मिलकर 'निल्लज्जिमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धूर्तत्वम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'धुत्तिमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-८४ से 'धू' के दीर्घ ऊ का हस्व उ; २-१५४ से त्वम्' के स्थान पर 'डिमा' अर्थात 'इमा' का आदेश; १-१० से 'त' में स्थित 'अ' का लोप होकर 'त्' में 'इमा' मिलकर 'धुत्तिमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
46 : प्राकृत व्याकरण
___ 'अञ्जलिः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप (एसा) 'अञ्जली' और (एस) 'अञ्जली' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-३५ से अञ्जली विकल्प से स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों लिंगों में प्रयुक्त किये जाने का विधान है। अतः ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में और स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर का दीर्घ स्वर हो जाता है; यों (एसा) 'अञ्जली' और (एस) 'अञ्जली' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
"पृष्ठमः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पिट्ठी' और 'पिटुं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१२९ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट'; १-४६ से 'ठ्ठ' में स्थित 'अ' की 'इ'; १-३५ से स्त्रीलिंग में होने पर और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई होकर 'पिट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३५ से विकल्प से नपुंसक होने की दशा में ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'पिट्ठ रूप सिद्ध हो जाता है।
'अच्छी'-शब्द सूत्र संख्या १-३३ में सिद्ध किया जा चुका है।
'अक्षिम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अच्छि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' का 'छ'; २-८९ से द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च'; १-३५ से विकल्प से स्त्रीलिंग नहीं होकर नपुंसकलिंग होने पर; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अच्छि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रश्नः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पण्हा' और 'पण्हो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७५ से 'श्न' का 'ह' आदेश; १-३५ से स्त्रीलिंग विकल्प से होने पर प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ के सूत्रानुसार 'आ' प्रत्यय प्राप्त होकर 'पण्हा' रूप सिद्ध हो जाता है। एवं लिंग में वैकल्पिक विधान होने से पुल्लिंग में ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पण्हो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'चौर्यम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'चोरिआ' और 'चोरिअं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१५९ से औ' का 'ओ'; २-१०७ से 'इ' का आगम होकर 'र' में मिलने पर 'रि' हुआ। १-१७० से 'य' का लोप; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से स्त्रीलिंग वाचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य 'म्' का लोप होकर 'चोरिआ रूप सिद्ध हो जाता है। दूसरे रूप में सूत्र संख्या १-३५ में जहाँ स्त्रीलिंग नहीं गिना जायगा; अर्थात नपुंसकलिंग में ३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग का 'म्' प्रत्यय; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर वहां 'चोरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कुक्षि' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कुच्छी है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' का 'छ्'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; ३-१९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई होकर कुच्छी' रूप सिद्ध हो जाता है। - 'बलि' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'बली' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर 'बली' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निधि' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'निही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' का 'ह'; १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; ३-१९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का 'ई' होकर 'निही रूप सिद्ध हो जाता है। __ "विधि संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' का 'ह'; १-३५ से
स्त्रीलिंग का निर्धारण; ३-१९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का 'ई' होकर 'विही रूप सिद्ध • हो जाता है।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 47 _ 'रश्मि' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'रस्सी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'म्' का लोप; १-२६० से 'श्' का 'स'; २-८९ से 'स्' का द्वित्व 'स्स'; ३-१९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का 'ई' होकर 'रस्सी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ग्रन्थिः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'गण्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१२० से ग्रथि के स्थान पर गण्ठि आदेश होता है। १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; ३-१९ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का दीर्घ 'ई' होकर 'गण्ठी रूप सिद्ध हो जाता है।
__ 'गर्ता' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'गड्डा' और 'गड्डो' बनते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-३५ से संयुक्त 'त्' का 'ड'; २-८९ से प्राप्त 'ड' का द्वित्व 'ड्ड'; १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; सिद्ध हेम व्या० के सूत्र २-४-१८ से 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गड्डा' रूप सिद्ध हो जाता है और पुल्लिंग होने पर प्रथमा एकवचन में ३-२ से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'गड्डो' रूप सिद्ध हो जाता है। १-३५।।
बाहोरात् ॥ १-३६ ॥ बाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारान्तादेशो भवति।। बाहाए जेण धरिओ एक्काए।। स्त्रियामित्येव। वामेअरो बाहू॥
अर्थः-'बाहु' शब्द के स्त्रीलिंग रूप में अन्त्य 'उ' के स्थान पर 'आ' आदेश होता है। जैसे बाहु का 'बाहा' यह रूप स्त्रीलिंग में ही होता है और पुल्लिंग में 'बाहु' का 'बाहु' ही रहता है।
'बाहुना' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'बाहाए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३६ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; और अन्त्य 'उ' के स्थान पर 'आ' का आदेश; ३-२९ से तृतीया के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'बाहाए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'येन' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'जेण' होता है। संस्कृत मूल शब्द 'यत्' है; इसमें १-११ से 'त्' का लोप; १-२४५ से 'य' का 'ज'; ३-६ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण'; ३-१४ से प्राप्त 'ज' में स्थित 'अ' का 'ए' होकर 'जेण' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'धृत' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'धरिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३४ से'ऋ' का 'अर्'; ४-२३९ से हलन्त 'र' में 'अ'का आगम; सिद्ध हेम व्याकरण के ४-३२ से 'त' प्रत्यय के होने पर पूर्व में 'इ' का आगम; १-१० से प्राप्त 'इके पहिले रहे हए 'अ'का लोप: १-१७० से 'त' का लोप: ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'धरिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एकेन' संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप स्त्रीलिंग में 'एक्काए' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९९ से 'क' का द्वित्व'क्क ', सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से स्त्रीलिंग में अकारान्त का 'आकारान्त'; और ३-२९ से तृतीया के एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एक्काए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वामेतरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वामेअरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'वामेअरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बाहुः संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप 'बाहू' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'विसर्ग' का लोप होकर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ होकर 'बाहू' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-३६।।
अतो डो विसर्गस्य ॥ १-३७॥ __संस्कृतलक्षणोत्पन्नस्यातः परस्य विसर्गस्य स्थाने डो इत्यादेशो भवति। सर्वतः। सव्वओ।। पुरतः। पुरओ।। अग्रतः। अग्गओ।। मार्गतः। मग्गओ।। एवं सिद्धावस्थापेक्षया। भवतः। भवओ। भवन्तः।। भवन्तो।। सन्तः। सन्तो।। कुतः। कुदो।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
48 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः-संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्राप्त हुए 'अः' में स्थित विसर्ग के स्थान पर 'डो' अर्थात् 'ओ' आदेश हुआ करता है। जैसे-'सर्वतः' में 'सव्वओ'। यों आगे के शेष उदाहरण 'मार्गतः' में मग्गओ तक जान लेना। अन्य प्रत्ययों से सिद्ध होने वाले शब्दों में भी यदि 'अः प्राप्त हो जाय; तो उस अः' में स्थित विसर्ग के स्थान पर 'डो' अर्थात 'ओ' आदेश हुआ करता है। जैसे-'भवतः' में 'भवओ'। 'भवन्तः' में 'भवन्तो'। यों ही 'सन्तो' और 'कुदो' भी समझ लेना।
'सर्वतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सव्वओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' का आदेश होकर 'सव्वओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुरतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पुरओ' है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप, १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'पुरओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
अग्रतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अग्गओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७२ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'अग्गओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मार्गतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकत रूप 'मग्गओ' होता है। इसमें सत्र संख्या १-८४ से 'मा' के 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'मग्गओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'भवतः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भवओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'भवओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भवन्तः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भवन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'भवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सन्तः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'सन्तो' रूप सिद्ध हो जाता हैं।
'कुतः संस्कृत शब्द है। इसका शैरसेनी भाषा में 'कुदो रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२६० से 'त' का 'द'; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर 'कुदो रूप सिद्ध हो जाता है।१-३७।।
निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थोर्वा ॥१-३८।। निर् प्रति इत्येतो माल्य शब्दे स्थाधातौ च परे यथासंख्यम् ओत् परि इत्येवं रूपो वा भवतः। अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः। ओमाला निम्मल्लं।। ओमालयं वहइ। परिट्ठा। पइट्ठा। परिट्ठिअं पइट्ठि। ___ अर्थः-'माल्य' शब्द के साथ में यदि निर् उपसर्ग आवे तो निर् उपसर्ग के स्थान पर आदेश रूप से विकल्प से 'ओ' होता है। तथा स्था धातु के साथ में यदि 'प्रति' उपसर्ग आवे तो 'प्रति' उपसर्ग के स्थान पर आदेश रूप से विकल्प से 'परि' होता है। इस सूत्र में दो उपसर्गों की जो बात एक ही साथ कही गई है। इसका कारण यह है कि सम्पूर्ण उपसर्ग के स्थान पर आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-निर्माल्यम् का 'ओमालं' और 'निम्मल्लं'। प्रतिष्ठा का 'परिट्ठा' और 'पइट्ठा' 'प्रतिष्ठितम्' का 'परिट्ठिअं' और 'पइट्ठि। ___ निर्माल्यम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'ओमालं' और 'निम्मल्लं' दोनों होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से विकल्प से 'निर्' का 'ओ'; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'ओमाल रूप सिद्ध होता है। द्वितीय रूप में १-८४ से 'मा' में स्थित 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल';
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 49 ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'निम्मल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ "निर्माल्यकम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'ओमालयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से (विकल्प से) 'निर्' का 'ओ'; २-७८ से 'य' का लोप; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से 'क' के 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'ओमालयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'वहति' संस्कृत धातु रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वहई' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर 'वहइ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'प्रतिष्ठा' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'परिटा' और 'पट्टा' होते है। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से 'प्रति' के स्थान
से 'परि आदेशः २-७७ से'ष' का लोप: २-८९ से'ठ' का द्वित्व'ठठ': २-९० से प्राप्त पर्व'ठ'का'ट' सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'आ' की प्राप्ति होकर 'परिहा' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में जहां 'परि' आदेश नहीं होगा; वहां पर सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से '' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट्'; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'आ' की प्राप्ति होकर 'पइट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है। __'प्रतिष्ठितम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'परिट्रिअं और 'पइट्ठिअं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-३८ से विकल्प से 'प्रति' के स्थान पर 'परि' आदेश; २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से 'ठ्' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'परिट्रिअं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में जहां परि' आदेश नहीं होगा; वहां 'पइट्ठि रूप सिद्ध हो जाता है।।१-३८।।
आदेः ॥ १-३९॥ आदेरित्यधिकारः कगचज (१-१७७) इत्यादि सूत्रात् प्रागविशेषे वेदितव्यः॥
अर्थः-यह सूत्र आदि अक्षर के संबंध में आदेश देता है कि इस सूत्र से प्रारंभ करके आगे १–१७७ सूत्र से पूर्व में रहे हुए सभी सूत्रों के सम्बन्ध में यह विधान है कि जहाँ विशेष कुछ भी नहीं कहा गया है; वहां इस सूत्र से शब्दों में रहे हुए आदि अक्षर के सम्बन्ध में कहा हुआ उल्लेख' समझ लेना। अर्थात् सूत्र संख्या १-३९ से १-१७६ तक में यदि किसी शब्द के सम्बन्ध में कोई उल्लेख हो; और उस उल्लेख में आदि मध्य, अन्त्य अथवा उपान्त्य जैसा कोई उल्लेख न हो तो समझ लेना कि यह उल्लेख आदि अक्षर के लिये है; न कि शेष अक्षरों के लिये।।१-३९।।
त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् ।। १-४० ।। त्यदादेरव्ययाच्च परस्य तयोरेव त्यदाद्यव्यययोरादेः स्वरस्य बहुलं लुग् भवति।। अम्हेत्थ अम्हे एत्था जइमा जइ इमा। जइह जइ अहं।
अर्थः-सर्वनाम शब्दों और अव्ययों के आगे यदि सर्वनाम शब्द और अव्यय आदि आ जाय; तो इन शब्दों में रहे हुए स्वर यदि पास-पास में आ जाँय; तो आदि स्वर का बहुधा करके लोप हो जाया करता है।
'वयम्' संस्कृत शब्द है। इसका मूल 'अस्मद् के प्रथमा के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय सहित सूत्र संख्या ३-१०६ 'अम्हे' आदेश होता है। यों अम्हे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अत्र' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'एत्थ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५७ से 'अ' का 'ए'; और २-१६१ से 'त्र' के स्थान पर 'स्थ होकर 'एत्थ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
50 प्राकृत व्याकरण
'अम्हे +
हे + एत्थ = अम्हेत्थ ;' यहाँ पर सूत्र संख्या १ - ४० से एत्थ के आदि 'ए' का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर अम्हेत्थ रूप सिद्ध हुआ। तथा जहाँ लोप नहीं होता है; वहाँ पर 'अम्हे एत्थ' होगा। यदि संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप जइ होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य' का 'ज'; और १-१७७ से 'द्' का लोप होकर 'जइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इयम्' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'इमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७२ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के परे रहने पर मूल शब्द 'इदम्' का 'इम' आदेश होता है। तत्पश्चात् सिद्ध हेम व्याकरण के ४-४-१८ से स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय लगाकर 'इमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जइ+इमा=जइमा;' यहाँ पर सूत्र संख्या १- ४० से 'इमा' के आदि स्वर 'इ' का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर 'जइमा' रूप सिद्ध हो जाता है। तथा जहाँ लोप नहीं होता है; वहाँ पर 'जइ इमा' होगा ।
'अहम्' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप भी 'अहं' ही होता है । अस्मद् मूल शब्द में सूत्र संख्या ३ - १०५ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर अस्मद् का 'अहं' आदेश होता है। यों 'अहं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जइ + अहं=जइह;' यहाँ पर सूत्र संख्या १- ४० से ' अहम् के आदिस्वर 'अ' का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर 'जइह' रूप सिद्ध हो जाता है। तथा जहाँ पर लोप नहीं होता है, वहाँ पर 'जइ अहं' होगा ।।१ - ४० ।।
पदादपेर्वा ।। १-४१ ।।
पदात् परस्य अपेरव्ययस्यादे लुंग् वा भवति ।। तं पि तमवि । किं पि किमवि । केण वि । केणावि । कहं पि कहमवि ।।
अर्थः-पद के आगे रहने वाले अपि अव्यय के आदि स्वर 'अ' का विकल्प से लोप हुआ करता है। जैसे- तं पि तमवि। इत्यादि रूप से शेष उदाहरणों में भी समझ लेना। इन उदाहरणों में एक स्थान पर तो लोप हुआ है; और दूसरे स्थान पर लोप नहीं हुआ है। लोप नहीं होने की दशा में संधि योग्य स्थानों पर संधि भी हो जाया करती है।
'त' की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
'अपि' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप यहाँ पर 'पि' । इसमें सूत्र संख्या १-४१ से 'अ' का लोप होकर 'पि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अपि' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अवि' है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' होकर 'अवि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'किं' शब्द की सिद्धि १ - २९ में की गई है।
'केन' संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'केण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से 'किम्' का 'क' ; ३-६ से तृतीया एकवचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण'; ३-१४ से 'क' के 'अ' का 'ए' होकर 'केण' रूप सिद्ध हो जाता है। इसी के साथ में ' अपि' अव्यय है; अतः 'ण' में स्थित 'अ' और 'अपि' का 'अ' दोनों की संधि १-५ से होकर 'केणावि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कथमपि' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'कहमवि' होता है। इसकी सिद्धि १ - २९ में कर दी गई है । ।१-४२ ।। : स्वरात् तरच द्विः ।।१-४२।।
इतेः
पदात् परस्य इतेरादे र्लुग् भवति स्वरात् परश्च तकारो द्विर्भवति । किं ति। जं ति। दिट्ठं ति। न जुत्तं ति।। स्वरात्। तहति। झति । पिओ त्ति । पुरिसो त्ति ।। पदादित्येव । इअ विञ्झ-गुहा-निलयाए । ।
अर्थः-यदि 'इति' अव्यय किसी पद के आगे हो तो इस 'इति' की आदि 'इ' का लोप हो जाया करता है और यदि 'इ'
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 51 लोप हो जाने के बाद शेष रहे हुए 'ति' के पूर्व-पद के अंत में स्वर रहा हुआ हो तो इस 'ति' के 'त' का द्वित्व 'त्त' हो जाता है। जैसे-'किम इति का किं ति'; 'यत् इति का जंति'; 'दृष्टम् इति का दिळं ति' और 'न युक्तम् इति का न जुत्तं ति'। इन उदाहरणों में 'इति' अव्यय पदों के आगे रहा हुआ है; अतः इनमें 'इ' का लोप देखा जा रहा है। स्वर-संबंधित उदाहरण इस प्रकार है:- 'तथा इति' का 'तह त्ति'; 'झग इति' का 'झ त्ति'; "प्रियः इति' का 'पिओ त्ति'; 'पुरुषः इति' का 'पुरिसो त्ति' इन उदाहरणों में 'इति' के शेष रूप 'ति' के पूर्व पदों के अंत में स्वर है; अतः 'ति' के 'त्' का द्वित्व 'त्त' हो गया है। ___ 'पदात्' ऐसे शब्द का उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि यदि 'इति' अव्यय किसी पद के आगे न रह कर वाक्य के आदि में ही आ जाय तो 'इ' का लोप नहीं होता जैसे कि 'इअ विज्झ-गुहा-निलयाए' में देखा जा सकता है।
'कि' शब्द की सिद्धि १-२९ में की गई है।
(किम्) इति संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'किंति' होता है। सूत्र संख्या १-४२ से 'इति' के 'इ' का लोप होकर 'ति' रूप हो जाता है 'यद् इति' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'जंति' होता है। 'जं' की सिद्धि १-२४ में कर दी गई है। और 'इति' के 'ति' की सिद्धि भी इसी सूत्र में ऊपर कर दी गई है। __'दृष्टं' इति संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'दिटुं ति' होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' का 'इ'; २-३४० से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ळ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; ३-५ से द्वितीया के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय के 'अ' का लोप; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'दिह्र रूप सिद्ध हो जाता है और १-४२ से 'इति' के 'इ' का लोप होकर 'टुिंति' सिद्ध हो जाता है।
(न) युक्तम् (इति') संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'न जुत्तं ति' है। इनमें से 'न' की सिद्धि १-६ में की गई है। और 'ति' की सिद्धि भी इसी सूत्र में की गई है। जुत्तं की साधनिका इस प्रकार है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; २-७७ से 'क्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'जुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। __'तथा' इति संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'तह त्ति' होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-४२ से इति के 'इ' का लोप; और 'त्ति' के 'त' का द्वित्व 'त'; १-८४ से 'हा' के 'आ' का 'अ' होकर 'तह त्ति' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'झग' इति' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'झत्ति' होता है। इनमें सूत्र संख्या १-११ से 'ग्' का लोप; १-४२ से इति के 'इ' का लोप; तथा 'ति' के 'त' का द्वित्व 'त्त' होकर 'झत्ति' रूप बन जाता है। __ "प्रियः' (इति) संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पिओ त्ति' होता है। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ'; होकर 'पिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'त्ति' की सिद्धि इसी सूत्र में की गई है। __ 'पुरुषः' इति संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पुरिसो' त्ति होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१११ से 'रू' के 'उ' को 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर 'पुरिसो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'त्ति' की सिद्धि इसी सूत्र में की गई है। _ 'इति' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'इअ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९१ से 'ति' में रही हुई 'इ' का 'अ' १-१७७ से 'त्' का लोप होकर 'इअ रूप सिद्ध हो जाता है।
'विंध्य' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विझ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से 'ध्य' का 'झ'; १-३० से अनुस्वार का 'ज्' होकर 'विञ्झ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
52 : प्राकृत व्याकरण
'गुहा' शब्द का रूप संस्कृत और प्राकृत में 'गुहा' होता है। 'निलयायाः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निलयाए होता है। इसमें सूत्र संख्या ३- २९ से ङस् याने षष्ठी के एकवचन के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'निलयाए' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-४२।
लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां दीर्घः ।। १-४३ ।।
प्राकृतलक्षणवशालुप्ता याद्या उपरि अधो वा येषां शकारषकारसकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीर्घो भवति ।। शस्य य लोपे । पश्यति । पासइ । कश्यपः । कासवो । आवश्यकं । आवासयं ।। रलोपे । विश्राम्यति । वीसमइ । विश्रामः । वीसामो।। मिश्रम्। मीसं ॥ संस्पर्शः । संफासो ॥ वलोपे । अश्वः । आसो विश्वसिति । वीससइ ।। विश्वासः । वीसासो।। शलोपे। दुश्शासनः। दूसासणो ।। मनः शिला । मणासिला ।। षस्य यलोपे । शिष्यः। सीसो।। पुष्यः। पूसो।। मनुष्यः ।
सो ॥ रोपे । कषकः । कासओ ।। वर्षाः । वासा।। वर्षः वासो । वलोपे । विष्वाणः । वीसाणो ।। विष्वक्। वीसुं ।। षलोपे। निष्षिक्तः। नीसित्तो।। सस्य यलोपे । सस्यम् । सासं ।। कस्यचित् कासइ रलोपे । उम्रः । ऊसो । विश्रम्भः । वीसम्भो।। वलोपे। विकस्वरः । विकासरो ।। निःस्वःनीसो।। सलोपे । निस्सहः । नीसहो । नदीर्घानुस्वरात् (२-९२) इति प्रतिषेधात् सर्वत्र अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् (२-८९) इति द्वित्वाभावः॥
अर्थः- प्राकृत व्याकरण के कारण से शकार, षकार और सकार से संबंधित य, र, व, श, ष, स, का पूर्व में अथवा पश्चात् में लोप होने पर शकार, षकार और सकार के आदि स्वर का दीर्घ स्वर हो जाता है। जैसे-शकार के साथ में रहे हुए 'य' के लोप के उदाहरण- इसमें 'श्' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ होता है। जैसे- पश्यति पासइ । कश्यपः - कासवो । आवश्यकं=आवासयं। यहाँ पर 'य' का लोप होकर 'श्' के पूर्व स्वर का दीर्घ हुआ है।
शकार के साथ में रहे हुए 'र' के लोप के उदाहरण । जैसे - विश्राम्यति वीसमइ || विश्रामः - वीसामो || मिश्रम् - मीसं ।। संस्पर्शः-संफासो।। इनमें 'श्' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
शकार के साथ में रहे हुए 'व' के लोप के उदाहरण । जैसे अश्वः = आसो || विश्वसिति = वीससइ || विश्वासः-वीसासो।। इनमें 'श्' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
कार के साथ में रहे हुए 'श' के लोप के उदाहरण । जैसे- दुश्शासन:- दूसासणो । मनः शिला मणाः सिला। इसमें भी ' श्' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
=
षकार के साथ में रहे हुए 'य' के लोप के उदाहरण । जैसे- शिष्यः- सीसो। पुष्यः -पूसो || मनुष्यः - मणूसो । इनमें 'ष' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
कार के साथ में रहे हुए 'र' के लोप के उदाहरण । जैसे-कर्षकः- कासओ । वर्षा :- वासा ।। वर्षः = वासो । यहाँ पर 'ष' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
षकार के साथ में रहे हुए 'व' के लोप के उदाहरण । जैसे- विष्वाणः-विसाणो ।। विष्वक् = वीसुं। इसमें 'ष' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
षकार के साथ में रहे हुए 'ष' के लोप के उदाहरण । जैसे- निष्षिक्तः-नीसित्तो। यहां पर 'ष' के पूर्व में रहे हुए स्वर दीर्घ हुआ है।
सकार के साथ में रहे हुए 'य' के लोप के उदाहरण । जैसे- सस्यम् - सासं । कस्यचित् - कासइ ।। यहां पर 'स' के पूर्व हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
में रहे
सकार के साथ में रहे हुए 'र' के लोप के उदाहरण । जेसे उम्र: ऊसो । विस्रम्भः वीसम्भो । यहां पर 'स' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
सकार के साथ में रहे हुए 'व' के लोप के उदाहरण । जैसे-विकस्वर:- विकासरो । निःस्वः = नीसो । यहां पर 'स' के पूर्व में हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 53
सकार के साथ में रहे हुए 'स' के लोप के उदाहरण। जैसे-निस्सहः-नीसहो। यहां पर 'स' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है।
यहां पर वर्ण के लोप होने पर इसी व्याकरण के पाद द्वितीय के सूत्र संख्या ८९ के अनुसार शेष वर्ण को द्वित्व वर्ण की प्राप्ति होनी चाहिये थी; किन्तु इसी व्याकरण के पाद द्वितीय के सूत्र संख्या ९२ के अनुसार द्वित्व प्राप्ति का निषेध कर दिया गया है। अतः द्वित्व का अभाव जानना। __'पश्यति' संस्कृत क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप 'पासई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-४३ से 'प' के 'अ' का 'आ'; १-२६० से 'श्' का 'स'; ३-१३९ से प्रथम पुरुष के वर्तमान काल के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर 'पासइ' रूप सिद्ध हो जाता है। , 'कश्यपः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कासवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'क' के 'अ' का 'आ'; १-२३१ में 'प' का 'व'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'विसर्ग' अथवा 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर 'कासवो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आवश्यकम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आवासयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'व' के 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से 'क' के शेष 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्'; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'आवासयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'विश्राम्यति' संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'वीसमइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' की 'इ' का दीर्घ 'ई'; १-८४ से 'सा' के 'आ'; का 'अ'; २-७८ से 'य' का लोप; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर 'वीसमइ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'विश्रामः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वीसामो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' की 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'वीसामो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"मिश्रम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मीसं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' के स्थान पर 'म्'; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'मीसं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'संस्पर्शः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'संफासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से 'स्प' का 'फ'; २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से 'फ' के 'अ' का 'आ'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'संफासो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अश्वः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-४३ से आदि 'अ' का 'आ'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा पुल्लिंग एकवचन में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'आसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विश्वसिति' संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप 'वीससइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' के 'इ' को दीर्घ 'ई'; ४-२३९ से 'सि' के 'इ' का 'अ'; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल में एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर 'वीससइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विश्वासः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वीसासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' के 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'वीसासो' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
54 प्राकृत व्याकरण
'दुश्शासन:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'दूसासणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'श्' का लोप; १-४३ से 'उ' को दीर्घ 'ऊ'; १ - २६० से 'श' का 'स'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; ३-२ से प्रथमा पुल्लिंग एकवचन में 'ति' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'दूसासणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मणासिला' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६ में की गई है।
'शिष्यः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सीसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य' का लोप; १ - २६० से‘श' और 'ष' का ‘स'; १-४३ से 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'सीसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुष्यः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पूसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; १ - २६० से ‘ष' का 'स'; १-४३ से ‘उ' का दीर्घ 'ऊ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'पूसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मनुष्यः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मणूसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; १ - २६० से 'ष' का 'स'; १-४३ से 'उ' का दीर्घ 'ऊ' ; १ - २२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'मणूसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कर्षक:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कासओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - ४३ से आदि 'क' के 'अ' का 'आ'; १ - २६० से 'ष' का 'स'; १ - १७७ से 'क' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'कासओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वर्षाः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वासा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - ४३ से 'व' के 'अ' का 'आ'; १ - २६० से 'ष' का 'स'; ३ - ४ से प्रथमा के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति तथा लोप; और ३- १२ से 'स' के 'अ' का 'आ' होकर 'वासा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वर्ष: ' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - ४३ से 'व' के 'अ' का 'आ' १ - २६० से 'ष' का 'स'; ३-२ से प्रथमा एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'वासो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विष्वाणः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वीसाणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' का लोप; १-४३ से 'वि' के 'इ' को दीर्घ 'ई' ; १ - २६० से 'ष' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'वीसाणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वीसुं' शब्द की सिद्धि १ - २४ में की गई है।
'निष्षिक्तः ' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नीसित्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'ष्' का लोप; १ - ४३ से 'नि' के 'इ' को दीर्घ 'ई' ; १ - २६० से 'ष' का 'स'; २-७७ से 'क्' का लोप; ३-२ से प्रथमा में पुल्लिंग के एकवचन में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'नीसित्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सस्यम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सास' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; १-४३ से 'स' के 'अ' का 'आ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' के स्थान पर 'म्'; और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'सास' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कस्यचित्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'कास' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; १-४३ से 'क' के 'अ' का 'आ'; १ - १७७ से 'च्' का लोप; १ - ११ से 'त्' का लोप होकर 'कास' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उम्र:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'ऊसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-४३ से
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 55 हस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'ऊसो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'विश्रम्भः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वीसम्भो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से 'वि' के हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'वीसम्भो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विकस्वरः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विकासरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'व्' का लोप; १-४३ से 'क' के 'अ' का 'आ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'विकासरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'निःस्वः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नीसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'निः' में रहे हुए विसर्ग अर्थात 'स्' का लोप; १-४३ से 'नि' के हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई'; १-१७७ से 'व' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'ओ' की प्राप्ति होकर 'नीसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"निस्सहं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नीसहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से आदि 'स्' का लोप; १-४३ से 'नि' में रही हुई हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'नीसहो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४३।।
अतः समृद्ध्यादौ वा ॥१-४४॥ समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरकारस्य दी? वा भवति। सामिद्धी समिद्धी। पासिद्धी पसिद्धी। पायडं पयड। पाडिवआ पडिवआ। पासुत्तो पसुत्तो। पाडिसिद्धी पडिसिद्धी। सारिच्छो सरिच्छो। माणंसी मणंसी। माणसिणी मणसिणी। आहिआई अहिआई। पारोहो परोहो। पावासू पवासू। पाडिप्फद्धी पडिप्फद्धी।। समृद्धि। प्रसिद्धि। प्रकट। प्रतिपत। प्रसुप्त। प्रतिसिद्धि। सदृक्षा मनस्विन्। मनस्विनी। अभियाति। प्ररोह। प्रवासिन्। प्रतिस्पर्द्धिन।। आकृतिगणोयम्। तेन। अस्पर्शः। आफंसो।। परकीयम्। पारकरं। पारक्क।। प्रवचन। पावयण।। चतुरन्तम्। चाउरन्तं इत्याद्यपि भवति।। __ अर्थः-'समृद्धि' आदि शब्दों में रहे हुए 'अ' का विकल्प से दीर्घ अर्थात 'आ' होता है जैसे-समृद्धि-सामिद्धी और समिद्धी।। प्रसिद्धि-पासिद्धी और पसिद्धी।। प्रकट-पायड और पयड।। प्रतिपत्=पाडिवआ और पडिवआ। यों आगे भी शेष शब्दों में समझ लेना चाहिये।
वृत्ति में 'आकृति गणोऽयम्' कह कर यह तात्पर्य समझाया है कि जिस प्रकार ये उदाहरण दिये गये हैं; वैसे ही अन्य शब्दों में भी आदि 'अ' का दीर्घ 'आ' आवश्यकतानुसार समझ लेना। जैसे कि-अस्पर्षः आफंसो।। परकीयम्=पारकरं और पारक्क।। प्रवचनम्= पावयण।। चतुरन्तम् चाउरन्तं इत्यादि रूप से 'अ' का 'आ' जान लेना।
'समृद्धिः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'सामिद्धी' और 'समिद्धी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-४४ से विकल्प से आदि 'अ' का 'आ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' का दीर्घ 'ई' होकर 'सामिद्धी' और 'समिद्धी' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्रसिद्धीः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पासिद्धी' और 'पसिद्धी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है। ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व-'इ' दीर्घ 'ई' होकर 'पासिद्धी' और 'पसिद्धी' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।
'प्रकटम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पायड' और 'पयड होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है। १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-१९५ से 'ट' का 'ड'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पायडं' और 'पयड' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
56 : प्राकृत व्याकरण
'प्रतिपदा' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पाडिवआ' और 'पडिवआ' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से " का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है; १-२०६ से 'त' का 'ड'; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१५ से अन्त्य व्यञ्जन अर्थात् 'द्' के स्थान पर 'आ'; होकर 'पाडिवआ' और 'पडिवआ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'प्रसुप्तः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पासुत्तो' और 'पसुत्तो' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ का विकल्प से 'आ'; २-७७ से द्वितीय 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'पासुत्तो' और 'पसुत्तो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। __'प्रतिसिद्धिः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पाडिसिद्धी' और 'पडिसिद्धी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ'; १-२०६ से 'त' का 'ड'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'पाडिसिद्धी' और 'पडिसिद्धी रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'सदृक्षः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'सारिच्छो' और 'सरिच्छो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'दृ' का 'रि' १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ'; २-३ से 'क्ष' का 'छ' २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ' २-९० से प्राप्त पूर्व'छ' का 'च' और ३-२ से प्रथमा पुल्लिंग एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'सारिच्छो' और 'सरिच्छो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'मणंसी' की सिद्धि १-२६ में की गई है। 'माणंसी' की सिद्धि १-४४ से आदि 'अ' का दीर्घ 'आ' होकर होती है। शेष सिद्ध मणंसी के समान जानना। 'मणसिणी' की सिद्धि १-२६ में की गई है। 'माणसिणी' में १-४४ से आदि 'अ' का दीर्घ 'आ' होकर यह रूप सिद्ध हो जाता है।
'अभियाती' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'आहिआई' और 'अहिआई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ'; १-१७७ से 'य' का और 'त्' का लोप; तथा ३-१८२ से कृदन्त की 'ई प्राप्त होकर 'आहिआई' और 'अहिआई रूप सिद्ध हो जाते हैं।
प्ररोहः- संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पारोहो' और 'परोहो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ'; ३-२ से प्रथमा में पुल्लिंग के एकवचन के 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पारोहो' और 'परोहो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'प्रवासी संस्कृत शब्द है। इसका मूल 'प्रवासिन्' है। इसके प्राकृत रूप पावासू और पवासू होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ'; १-९५ से 'इ' का 'उ'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; और ३-१९ से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर पावासू और पवासू रूप सिद्ध हो जाते हैं। _ 'प्रतिस्पर्धी संस्कृत शब्द है। इसका मूल रूप 'प्रतिस्पर्द्धिन्' है। इसके प्राकृत रूप 'पाडिप्फद्धी' और 'पडिप्फद्धी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से दोनों 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से दीर्घ 'आ'; १-२०६ से 'त' का 'ड'; २-५३ से 'स्प' का 'फ'; २-८९ से प्राप्त 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' का 'प्'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; और ३-१९ से अन्त्य 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर पाडिप्फद्धी और पडिप्फद्धी रूप सिद्ध हो जाते हैं। __'अस्पर्शः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आफंसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४४ की वृत्ति से आदि 'अ' का 'आ'; ४-१८२ से स्पर्श के स्थान पर 'फंस' का आदेश; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आफंसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'परकीयम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पारकर' और 'पारक्क' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४४ की
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 57 वृत्ति से आदि 'अ' का 'आ'; २-१४८ से 'कीयम्' के स्थान पर 'केर' और 'क्क' की प्राप्ति; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर पारकरं और 'पारक्क रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्रवचनम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पावयणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'च' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'पावयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'चतुरन्तम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'चाउरन्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'चाउरन्त' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४४।।
दक्षिणे हे ॥१-४५ ॥ दक्षिण शब्दे आदेरतो हे परे दीर्घा भवति।। दाहिणो। ह इति किम्। दक्खिणो॥
अर्थः-दक्षिण शब्द में यदि नियमानुसार 'क्ष' का 'ह' हो जाय तो ऐसा 'ह' आगे रहने पर 'द' में रहे हुए 'अ' का 'आ' होता है। जैसे कि-दक्षिणः= दाहिणो। 'ह' ऐसा क्यों कहा? क्योंकि यदि 'ह' नहीं होता तो 'द' के 'अ' का 'आ' नहीं होगा। जैसे कि दक्षिणः-दक्खिणो।।
'दक्षिणः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'दाहिणो' और 'दक्खिणो' दोनों होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७२ से विकल्प से 'क्ष' का 'ह'; १-४५ से आदि 'अ' का 'आ'; ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर दाहिणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'दक्खिणो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४५।।
इः स्वप्नादौ ।। १-४६ ॥ स्वप्न इत्येवमादिषु आदरेस्य इत्वं भवति।। सिविणो। सिमिणो।। आर्षे उकारोपि। सुमिणो। ईसि। वेडिसो। विलिओ विअणंमुइङ्गो। किविणो। उत्तिमो। मिरिआ दिण्ण।। बहुलाधिकाराण्णत्वाभावे न भवति। दत्त। देवदत्तो।। स्वप्न। ईषत्। वेतस। व्यलीक। व्यजन। मृदङ्ग। कृपण। उत्तम। मरिच। दत्त इत्यादि।।
अर्थः- 'स्वप्न' आदि इन शब्दों में आदि 'अ' की 'इ' होती है। जैसे-स्वप्नः सिविणो और सिमिणो।। आर्षरूप में 'उ' भी होता है-जैसे-सुमिणो।। ईषत्-ईसि।। वेतसः-वेडिसो।। व्यलीकम् विलि। व्यजनम् विअणं। मृदङ्ग-मुइंगो।। कृपणः किविणो।। उत्तमः उत्तिमो।। मरिचम्-मिरि।। दत्तम्-दिण्ण।। __ 'बहुलम्' के अधिकार से जब दत्तम् में 'ण' नहीं होता है; अर्थात दिण्णं रूप नहीं होता है; तब दत्तम् में आदि 'अ' की 'इ' भी नहीं होती है। जैसे-दत्तम् दत्त।। देवदत्तः=देवदत्तो।। इत्यादि।। __ 'स्वप्नः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप सिविणो; सिमिणो; और आर्ष में 'सुमिणो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४६ से 'व' के 'अ' की 'इ'; १-१७७ से 'व' का लोप; २-१०८ से 'न' से पूर्व 'प' में 'इ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प्' का 'व'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर "सिविणो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'सिमिणो' में सूत्र संख्या १-२५९ से 'व' के स्थान पर 'म्' हो जाता है; तब 'सिमिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
58 : प्राकृत व्याकरण
तृतीय रूप में सूत्र संख्या १ - ४६ की वृत्ति के अनुसार 'आर्ष' में आदि 'अ' का 'उ' भी हो जाता है। यों सुमिणो रूप सिद्ध हो जाता है। शेष सिद्धि ऊपर के समान जानना ।
'ईषत्' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'ईसि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' का 'स'; १-४६ से 'स' के 'अ' की 'इ'; १- ११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'ईसि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वेतसः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वेडिसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'त' के 'अ' की 'इ'; १-२०७ से ‘त' का ‘ड'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'वेडिसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्यलीकम्' संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'विलिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; १-४६ से प्राप्त 'व' के 'अ' की 'इ'; १-८४ से 'ली' के दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ' ; १ - १७७ से 'क्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विलिअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्यजनम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विअणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; १ - ४६ से प्राप्त 'व' के 'अ' की 'इ'; १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १ - २२८ से 'न' का 'ण' ३ - २५ से प्रथमा में एकवचन में नपुंसकलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विअण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृदङ्गः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मुइगो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३७ से 'ऋ' का 'उ'; १-४६ से 'द' के 'अ' की 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'मुइगो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कृपण:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'किविणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-४६ से 'प' के 'अ' की 'इ'; १ - २३१ से 'प' का 'व'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'किविणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उत्तम:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'उत्तिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ४६ से 'त्त' के 'अ' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन 'में' पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'उत्तिमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मरिचम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मिरिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'म' के 'अ' की 'इ'; १-१७७ से 'च्' का लोप; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मिरिअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दत्तम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'दिण्णं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ४६ से 'द' के 'अ' की 'इ'; २-४३ से 'त्त' के स्थान पर 'ण' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दिण्णं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'देवदत्तः' संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप 'देवदत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'देवदत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-४६ ॥
पक्वाङ्गार- ललाटे वा ।। १–४७।।
एष्वादेरत इत्वं वा भवति ।। पिक्कं पक्कं । इङ्गालो अङ्गारो । णिडालं णडालं ।।
अर्थः- इन शब्दों में-पक्व - अङ्गार- और ललाट में आदि में रहे हुए 'अ' की 'इ' विकल्प से होती है। जैसे-पक्कम्=पिक्कं और पक्कं | अङ्गारः - इङ्गालो और अङ्गारो । ललाटम् - णिडालं और णडालं ।। ऐसा जानना।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 59 'पक्वम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पिक्क' और 'पक्क' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४७ से आदि 'अ' की विकल्प से 'इ'; १-१७७ से 'व' का लोप; २-८९ से शेष 'क' का द्वित्व 'क्क'; ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पिक्क' और 'पक्क' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अङ्गारः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'इङ्गालो' और अङ्गारो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४७ से आदि 'अ' की विकल्प से 'इ'; १-२५४ से 'र' का 'ल' विकल्प से, और ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'इङ्गालो' और 'अङ्गारो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'ललाटम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'णिडालं' और 'णडालं' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२५७ से
१-४७ से प्राप्त 'ण' के 'अ'की विकल्प से 'ड':१-१९५ से 'ट'का 'ड':२-१२३ से द्वितीय'ल' और प्राप्त 'ड' का व्यत्यय (आगे का पीछे और पीछे का आगे); ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'णिडालं' और 'णडालं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-४७।।।
मध्यम-कतमे द्वितीयस्य ॥ १-४८ ॥ मध्यम शब्दे कतम शब्दे च द्वितीयस्यात इत्वं भवति।। मज्झिमो। कइमो।। अर्थः- मध्यम शब्द में और कतम शब्द में द्वितीय 'अ' की 'इ' होती है। जैसे-मध्यमः मज्झिमो। कतमः कइमो।।
'मध्यमः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मज्झिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४८ से द्वितीय 'अ' की 'इ'; २-२६ से 'ध्य' का 'झ'; २-८९ से प्राप्त 'झ' का द्वित्व 'झ्झ'; २-९० से प्राप्त 'झ्' का 'ज्'; ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'मज्झिमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कतमः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कइमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-४८ से शेष द्वितीय 'अ' की 'इ'; ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'कइमो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-४८।।
सप्तपणे वा ।। १-४९।। सप्तपणे द्वितीयस्यात इत्वं वा भवति।। छत्तिवण्णो। छत्तवण्णो।। अर्थः-सप्तपर्ण शब्द में द्वितीय 'अ' की 'इ' विकल्प से होती है। जैसे-सप्तपर्णः-छत्तिपण्णो और छत्तवण्णो।। 'सप्तवर्णः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'छत्तिवण्णो' और 'छत्तवण्णो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'स' का 'छ'; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-४९ से द्वितीय 'अ' की याने 'त' के 'अ' की 'इ' विकल्प से; १-२३१ से 'प' का 'व'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; और ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'छत्तिवण्णो ' और 'छत्तवण्णो ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-४९।।
__ मयट्य इ र्वा ।। १-५० ।। मयट् प्रत्यये आदेरतः स्थाने अइ इत्यादेशो भवति वा।। विषमयः। विसमइओ। विसमओ।
अर्थः-'मयट्' प्रत्यय में आदि 'अ' के स्थान पर 'अइ' ऐसा आदेश विकल्प से हुआ करता है। जैसेविषमयः विसमइओ और विसमओ॥
"विषमयः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'विसमइओ' और 'विसमओ' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२६०
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
60 : प्राकृत व्याकरण
से 'ष' का 'स'; १-५० से 'मय' में 'म' के 'अ' के स्थान पर 'अइ' आदेश की विकल्प से प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'विसमइओ' और 'विसमओरूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-५०।।
ई हरे वा ॥ १-५१ ॥ हर शब्दे आदेरत ईर्वा भवति। हीरो हरो।। अर्थः-हर शब्द में आदि के 'अ' की 'ई' विकल्प से होती है। जैसे-हरः-हीरो और हरो।।
'हरः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'हीरो' और 'हरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-५१ से आदि 'अ' की विकल्प से 'ई'; और ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'हीरो' और 'हरो रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-५१॥
ध्वनि-विष्वचोरुः ।।१-५२ ।। अनयोरादेरस्य उत्वं भवति।। झुणी। वीसुं। कथं सुणओ। शुनक इति प्रकृत्यन्तरस्य।। श्वन् शब्दस्य तु साणो इति प्रयोगौ भवतः।। __ अर्थः-ध्वनि और विष्वक् शब्दों के आदि 'अ' का 'उ' होता है। जैसे-ध्वनिः-झुणी। विष्वक्-वीसुं।। 'सुणओ' रूप कैसे हुआ? उत्तर-इसका मूल शब्द भिन्न है; और वह शुनक है। इससे 'सुणओ बनता है और 'श्वन्' शब्द के प्राकृत रूप 'सा' और 'साणो' ऐसे दो रूप होते हैं। __ 'ध्वनिः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'झुणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१५ से 'ध्व' का 'झ'; १-५२ से आदि 'अ' का 'उ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-१९ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'झुणी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वीसु' शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४ में की गई है।
'शुनकः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सुणआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१७७ से 'क'का लोप; ३-२ से पुल्लिग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ होकर 'सणओ रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्वन्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श्' का 'स्'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-४९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'श्वन्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'साणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-२६० से 'श्' का 'स्'; ३-५६ से 'न्' के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति; १-४ से 'स' के 'अ' के साथ में आण' के 'आ' की संधि और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ होकर 'साणो' रूप सिद्ध हो जाता है।॥१-५२॥
वन्द्र-खण्डिते णा वा ।। १-५३ ।। अनयोरादेरस्य णकारेण सहितस्य उत्वं वा भवति।। वुन्द्रं वन्द्र। खुडिओ। खण्डिओ।
अर्थः-वन्द्र शब्द में आदि 'अ' का विकल्प से 'उ' होता है। सूत्रानुसार यहाँ पर 'ण' तो दिखलाई नहीं देता है परन्तु प्राकृत व्याकरण की हस्तलिखित पाटन की प्रति में वन्द्र' के स्थान पर चण्ड' लिखा हुआ हैं। अतः ‘चण्ड' और खण्डित में 'ण' के साथ आदि 'अ' का 'उ' विकल्प से होता है। जैसे वन्द्रम् का वुन्द्रं और वन्द्रं और चन्द्र। खण्डितः का खुडिओ और खण्डिओ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 61
'वन्द्रम्' संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप 'वुन्द्र' और 'वन्द' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - ५३ से आदि 'अ' का विकल्प से 'उ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वुन्द' और 'वन्द्र' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'खण्डितः ' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'खुडिओ' और 'खण्डिआ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-५३ से आदि 'अ' का 'ण्' सहित विकल्प से 'उ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'खुडिओ' और 'खण्डिओ' रूप सिद्ध हो जाते है ।।१ - ५३ ।
गवये वः ।। १-५४ ॥
गवय शब्दे वकाराकारस्य उत्वं भवति ।। गउओ । गउआ ।
अर्थः- गवय शब्द में 'व' के 'अ' का 'उ' होता है। जैसे- गवयः - गउओ और गउआ ||
'गवयः' संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'गउओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' और 'य्' का लोप; १ - ५४ से लुप्त 'व' के 'अ' का 'उ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'गडओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
गवया संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'गउआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' और 'य्' का लोप; १-५४ से लुप्त 'व' के 'अ' का 'उ'; और सिद्ध-हेम-व्याकरण के २-४ -१८ से 'आत्' से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर 'गउआ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-५४ ॥
प्रथमे प-थोर्वा ॥। १-५५।।
प्रथम शब्दे पकार थकारयोरकारस्य युगपत् क्रमेण च उकारो वा भवति ।। पुदुमं पुढमं पद्मं पढमं । । अर्थः- प्रथम शब्द में 'प' के और 'थ' के 'अ' का 'उ' विकल्प से एक साथ भी होता है और क्रम से भी होता है। जैसे- प्रथमम् = (एक साथ का उदहारण) पुढमं । (क्रम के उदाहरण) पुढमं और पदुम । (विकल्प का उदाहरण) पढमं ।
'प्रथमम' संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप चार होते हैं। पुढुमं, पुढमं, पढुमं और पढमं । इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; १ - २१५ से 'थ' का 'ढ'; १ - ५५ से 'प' और प्राप्त 'ढ' के 'अ' का 'उ' विकल्प से; युगपद् रूप से और क्रम से; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर पुदुमं, पुढमं, पढुमं और पढमं रूप सिद्ध हो जाते हैं । । १-५५ ।।
ज्ञो णत्वेभिज्ञादौ ।। १-५६ ।।
अभिज्ञ एवं प्रकारेषु ज्ञस्य णत्वे कृते ज्ञस्यैव अत उत्वं भवति । अहिष्णू । सव्वण्णू। कयण्णू। आगमण्णू।। णत्व इति किम्। अहिज्जो । सव्वज्जो । अभिज्ञादावितिकिम् । प्राज्ञः । पण्णो । येषां ज्ञस्य णत्वे उत्वं दृश्यतेते अभिज्ञादयः ।।
अर्थः- अभिज्ञ आदि इस प्रकार के शब्दों में 'ज्ञ' का 'ण' करने पर 'ज्ञ' में रहे हुए 'अ' का 'उ' होता है। जैसे-अभिज्ञः=अहिण्णू। सर्वज्ञ = सव्वण्णू । कृतज्ञः कयण्णू । आगमज्ञः- आगमण्णू । 'णत्व' ऐसा ही क्यों कहा गया है ? क्योंकि यदि 'ज्ञ' का 'ण' नहीं करेंगे तो वहां पर 'ज्ञ' में रहे हुए 'अ' का 'उ' नहीं होगा । जैसे- अभिज्ञः = अहिज्जो । सर्वज्ञः सव्वज्जो।। अभिज्ञ आदि में ऐसा क्यों कहा गया है ? क्योंकि जिन शब्दों में 'ज्ञ' का 'ण' करने पर भी 'ज्ञ' में रहे हुए 'अ' का 'उ' नहीं किया गया है, उन्हें 'अभिज्ञ- आदि शब्दों की श्रेणी में मत गिनना । जैसे- प्राज्ञः पण्णो ।। अतएव जिन शब्दों में 'ज्ञ' का 'ण' करके 'ज्ञ' के 'अ' का 'उ' देखा जाता है उन्हें ही 'अभिज्ञ' आदि की श्रेणी वाला जानना ।
'अभिज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अहिण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'भ' का 'ह';
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
62 : प्राकृत व्याकरण
२-४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'अहिष्णू' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सर्वज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सव्वण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'सव्वण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कृतज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कयण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से 'त' के 'अ' का 'य'; २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'कयण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आगमज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आगमण्णू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण' ; १-५६ से 'ण' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'आगमण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अभिज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अहिज्जो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'भ' का 'ह'; २-८३ से 'ज्ञ' में रहे हुए 'ञ्' का लोप; २-८९ से शेष 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'अहिज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सर्वज्ञः ' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सव्वज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; २-८३ से 'ज्ञ' में रहे हुए 'ञ्' का लोप; २-८९ से शेष 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में ‘सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'सव्वज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्राज्ञः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; १-८४ से 'पा' के 'आ' का 'अ'; २- ४२ से 'ज्ञ' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पण्णो' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-५६ ।।
एच्छय्यादौ ।। १-५७ ।।
शय्यादिषु आदेरस्य एत्वं भवति ।। सेज्जा। सुन्दरं । गेन्दुअं। एत्थ ।। शय्या । सौन्दर्य । कन्दुक । अत्र || आर्षे पुरे कम्मं । अर्थ::- शय्या आदि शब्दों में आदि 'अ' का 'ए' होता है। जैसे- शय्या= सेज्जा। सौन्दर्यम् = सुन्देरं । कन्दुकम् = गेन्दुआं अत्र=एत्थ।। आर्ष में आदि 'आ' का 'ए' भी देखा जाता है। जैसे- पुरा कर्म-पुरे कम्म ||
'शय्या' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सेज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५७ से 'श' के आदि 'अ' का 'ए'; १-२६० से‘श' का 'स'; २-२४ से 'य्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; और सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ आकारान्त स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर 'सेज्जा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सौन्दर्यम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सुन्दर' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १६० से 'औ' का 'उ'; १-५७ से 'द' के 'अ' का 'ए'; २-६३ से 'र्य' का 'र'; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ‘म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुन्दर' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कन्दुकम्' संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'गेन्दुअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८२ से आदि 'क' का 'ग'; १-५७ से प्राप्त 'ग' के 'अ' का 'ए'; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; ३ - २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गेन्दुअ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'एत्थ' की सिद्धि १ -४० में की गई है।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 63 'पुराकर्म संस्कृत शब्द है। इसका आर्ष प्राकृत रूप 'पुरेकम्म' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५७ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुरेकम्म रूप सिद्ध हो जाता है।।१-५७।।
वल्ल्यु त्कर-पर्यन्ताश्चर्य वा ॥१-५८॥ एषु आदेरस्य एत्वं वा भवति। वेल्ली वल्ली। उक्केरो उक्करो। पेरन्तो पज्जन्तो। अच्छेरं अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरिज्जं अच्छरी।
अर्थः-वल्ली, उत्कर, पर्यन्त और आश्चर्य में आदि 'अ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-वल्ली-वेल्ली और वल्ली। उत्करः उक्केरो और उक्करो। पर्यन्तः पेरन्तो और पज्जन्तो। आश्चर्यम्=अच्छेरं, अच्छरिअं इत्यादि।
'वल्ली' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'वेल्ली' और 'वल्ली' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-५८ से आदि 'अ' का विकल्प से 'ए' और ३-१९ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर दीर्घ का दीर्घ ही होकर 'वेल्ली' और 'वल्ली' रूप सिद्ध हो जाते हैं। _ 'उत्करः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'उक्केरो' और 'उक्करो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क्क'; १-५८ से 'क' के 'अ' का विकल्प से 'ए'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'उक्केरो' और 'उक्करो' रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ 'पर्यन्तः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पेरन्तो' और 'पज्जन्तो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-५८ से 'प' के 'अ' का 'ए'; २-६५ से 'य' का 'र'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पेरन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पज्जन्तो में सूत्र संख्या २-२४ से 'र्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पज्जन्ता' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'आश्चर्यम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'अच्छेरं', अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिजं और अच्छरीअं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-२१ से 'श्च' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' का 'च'; २-६६ से 'य' का 'र'; १-५८ से 'छ' के 'अ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर अच्छेरं रूप सिद्ध हो जाता है। २-६७ से पक्ष में 'य' का विकल्प से 'रिअ'; 'अर'; 'रिज्ज' और 'रीअ ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिज्जं और अच्छरीअंरूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-५८।।
ब्रह्मचर्य चः ॥ १-५९ ॥ ब्रह्मचर्य रब्दे चस्य अत एत्वं भवति।। बम्हचे।। अर्थः- ब्रह्मचर्य शब्द में 'च' के 'अ' का 'ए' होता है। जैसे - बह्मचर्यम्=बम्ह चे।। 'ब्रह्मचर्यम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'बम्हचेरं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७४ से 'ह्म' का 'म्ह', २-६३ से 'र्य' का 'र' ; १-५९ से 'च' के 'अ' का 'ए', ३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग में, 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'बम्हचेरं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-५९।।
तोन्तरि ॥ १-६० ॥ __ अन्तर शब्दे तस्य अत एत्वं भवति। अन्तः पुरम्। अन्ते उरं। अन्तश्चारी। अंतेआरी। क्वचिन्न भवति। अन्तग्गय। अन्तो-वीसम्भ-निवेसिआणं।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
64 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- अन्तर शब्द में 'त' के 'अ' का 'ए' होता है। जैसे - अन्तः पुरम अन्ते उरं। अन्तश्चारी= अन्तेआरी। कहीं-कहीं पर अन्तर के 'त' के 'अ' का 'ए' नहीं भी होता है। जैसे- अन्तर्गतम् = अन्तग्गय। अन्तरविश्रम्भ-निवेसितानाम् अन्तो वीसम्भ-निवेसिआणं।
'अन्तःपुरम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अन्ते उर' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'र' अथवा विसर्ग का लोप, १-६० से 'त' के 'अ'का 'ए'.१-१७७ से 'प' का लोप: ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति, १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अन्तेउरं रूप सिद्ध हो जाता है।
'अन्तश्चारी' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तेआरी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'श' का लोप; १-६० से 'त' के 'अ'का 'ए'१-१७७ से 'च'का लोप. ३-१९ से प्रथमा एकवचन में पल्लिंग में
ग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर की दीर्घता होकर 'अन्तेआरी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अन्तर्गतम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तग्गय होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'र' का लोप २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग'.१-१७७ से द्वितीय 'त' का लोप.१-१८० से 'त' के शेष अ.
'अ'का 'य',३-२५ से प्रथमा एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति, १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अन्तग्गय रूप सिद्ध हो जाता है।
'अन्तर-विश्रम्भ-निवेसितानाम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अन्तो-वीसम्भ-निवेसिआणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३७ से अन्तर के 'र' का 'ओ, २-७९ से 'श्र के 'र' का लोप, १-२६० से 'श'का 'स'१-४३ से 'वि' की 'इ' की दीर्घ 'ई' १–१७७ से 'त्' का लोप, ३-६ से षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय 'आम्' याने 'नाम्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त 'ण' के पहले के स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ', १-२७ से 'ण' पर अनुस्वार का आगम होकर 'अन्तो वीसम्भ-निवेसिआणं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-६०।।
ओत्पद्मे ।। १-६१ ।। पद्म शब्दे आदेरत ओत्वं भवति।। पोम्म।। पद्म-छद्म (२-११२) इति विश्लेषे न भवति। पउम।।
अर्थः-पद्म शब्द में आदि 'अ' का 'ओ' होता है। जैसे-पद्मम्=पोम्म। किन्तु सूत्र संख्या २-११२ से विश्लेष अवस्था में आदि 'अ' का 'ओ' नहीं होता है। जैसे-पद्मम्=पउम।। __'पद्मम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पोम्म' और 'पउम' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६१ से आदि 'अ' का 'ओ'; २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व ‘म्म'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पोम्म रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में २-७७ से 'द्' का लोप; २-११२ से 'द्' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पउम रूप सिद्ध हो जाता है। 'छद्म' की सिद्धि आगे २-११२ में की जायगी।।१-६१।।
नमस्कार-परस्परे द्वितीयस्य ।। १-६२।। अनयो द्वितीयस्य अत ओत्वं भवति ।। नमोक्कारो। परोप्परं।।
अर्थः-नमस्कार और परस्पर इन दोनों शब्दों में द्वितीय 'अ' का 'ओ' होता है। जैसे-नमस्कारः= नमोक्कारो। परस्परम्=परोप्परं।।
'नमस्कारः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नमोक्कारो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६२ से द्वितीय 'अ' का 'ओ'; २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क्क'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के ... स्थान पर 'ओ' होकर 'नमोक्कारो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 65
'परस्परम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'परोप्पर* होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६२ से 'द्वितीय-अ' का 'ओ'; २-७७ से ‘स्' का लोप; २ - ८९ से द्वितीय 'प' का द्वित्व 'प्प' ; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'परोप्परं रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-६२ ।। वार्षौ ।। १-६३ ।।
अर्पयतो धातो आदेरस्य ओत्वं वा भवति ।। ओप्पेइ अप्पेइ । ओप्पिअं अप्पिअं । ।
अर्थः- ‘अर्पयति' धातु में आदि 'अ' का विकल्प से 'ओ' होता है। जैसे- अर्पयति = ओप्पेइ और अप्पे | अर्पितम् = ओप्पिअं और अप्पिअं ।।
'अर्पयति' संस्कृत प्रेरणार्थक क्रिया पद है। इसके प्राकृत रूप 'ओप्पेइ' 'अप्पेइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६३ से आदि 'अ' का विकल्प से 'ओ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३ -१४९ से प्रेरणार्थक में 'णि' प्रत्यय के स्थान पर यहां पर प्राप्त 'अय' के स्थान पर 'ए'; और ३- १३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष में एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर 'ओप्पेइ' और 'अप्पेइ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अर्पितम्' संस्कृत भूत कृदन्त क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप 'ओप्पिअ' और 'अप्पिअं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६३ से आदि 'अ' का विकल्प से 'ओ' ; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३ - १५६ से भूत कृदन्त के 'त' प्रत्यय के पहिले आने वाली 'इ' की प्राप्ति मौजूद ही है; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'ओप्पि ' 'अप्पिअ' रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-६३ ।।
स्वपावुच्च ।। १-६४ ॥ स्वपितौ धातौ आदेरस्य ओत् उत् च भवति ।। सोवइ सुवइ ।।
अर्थः- ‘स्वपिति' धातु में आदि 'अ' का 'ओ' होता है और 'उ' भी होता है। जैसे- स्वपिति=सोवइ और सुवइ।।
'स्वपिति' संस्कृत क्रियापद है; इसका धातु ष्वप् है। इसका प्राकृत रूप 'सोवइ' और 'सुवइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त 'प्' में 'अ' का संयोजन; १ - २६० से 'ष्' का 'स्'; २- ७९ से 'व' का लोप; १ - २३१ से 'प्' का 'व्'; १-६४ से आदि 'अ' का 'ओ' और 'उ' क्रम से ३ - १३९ से वर्तमान काल प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' होकर क्रम से 'सोवइ' और 'सुवइ' रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-६४।। १-६५ ।।
नात्पुनर्यादाई वा ॥
नञः परे पुनः शब्दे आदेरस्य 'आ' 'आइ' इत्यादेशौ वा भवतः । न उणा ।। न उणाइ । पक्षे न उण। न उणो ।। केवलस्यापि दृश्यते। पुणाइ।।
अर्थः-'नञ्' अव्यय के पश्चात् आये हुए 'पुनर्' शब्द में आदि 'अ' को 'आ' और 'आइ' ऐसे दो आदेश क्रम से और विकल्प से प्राप्त होते हैं। जैसे- न पुनर्-न उणा और न उणाइ । पक्ष में- न उण और न उणो भी होते हैं। कहीं-कहीं पर 'न' अव्यय नहीं होने पर भी 'पुनर्' शब्द में विकल्प रूप से उपरोक्त आदेश 'आइ' देखा जाता है। जैसे- पुनर- पुणाइ ।।
'न पुनः' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप 'न उणा'; 'न उणाइ;' 'न उण;' और 'न उणा' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; १ - २२८ से पुनर् के 'न' का 'ण'; १-११ से विसर्ग याने 'र्' का लोप; १-६५ से प्राप्त 'ण' के 'अ' को क्रम से और विकल्प से 'आ' एवं 'आइ' आदेशों की प्राप्ति होकर न उणा; न उणाइ; और न उण रूप सिद्ध हो जाते हैं । एवं पक्ष में १ - ११ के स्थान पर १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'न उणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
66 : प्राकृत व्याकरण
'पुनः' का रूप पक्ष में 'पुणाइ' भी होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १-११ से विसर्ग अर्थात् 'र्' का लोप; और १-६५ से 'अ' को केवल 'आइ' आदेश की प्राप्ति होकर 'पुणाइ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-६५।। वालाब्वरण्ये लुक् ।। १-६६ ।।
अलाब्वरण्य शब्दयोरादेरस्य लुग् वा भवति । लाउं अलाउं। लाऊ, अलाऊ । रण्णं अरण्णं ।। अत इत्येव । आरण्ण- कुञ्जरो व्व वेल्लन्तो ॥
अर्थः-अलाबू और अरण्य शब्दों के आदि 'अ' का विकल्प से लोप होता है। जैसे- अलाबुम्-लाउं और अलाउं । अरण्यम्=रण्णं और अरण्णं ।। ' अरण्य' के आदि में 'अ' हो; तभी उस 'अ' का विकल्प से लोप होता है। यदि 'अ' नहीं होकर अन्य स्वर हो तो उसका लोप नहीं होगा। जैसे- आरण्य कुञ्जर- इव रममाणः- आरण्ण कुञ्जरो व्व वेल्लन्तो - इस दृष्टान्त में 'आरण' में 'आ' है; अतः इसका लोप नहीं हुआ।
'अलाबुम्' संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप 'लाउ' और 'अलाउ' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'ब्' का लोप; १-६६ से आदि 'अ' का विकल्प से लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'लाउ' और 'अलाउं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अलाब: ' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'लाऊ' और 'अलाऊ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'ब्' का लोप; १-६६ से आदि-अ-का विकल्प से लोप; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर क्रम से 'लाऊ' और 'अलाऊ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अरण्यम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'रण्णं' और 'अरण्णं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-६६ से आदि 'अ' का विकल्प से लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'रण्णं' और 'अरण्णं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'आरण्य' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आरण्ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; और २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'ण्ण' होकर 'आरण्ण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुञ्जरः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कुञ्जरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'कुञ्जरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्व' की सिद्धि १-६ में की गई है।
'रममाणः' संस्कृत वर्तमान कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेल्लन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- १६८ से रम् धातु को 'वेल्ल' आदेश; ३ - १८१ से माण याने आनश् प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वेल्लन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-६६ ।।
वाव्ययोत्खाता दावदातः
१-६७
अव्ययेषु उत्खातादिषु च शब्देषु आदेराकारस्य अद् वा भवति ।। अव्ययम् । जह जहा । तह तहा अहव अहवा । व वा । ह हा । इत्यादि । । उत्खातादि । उक्खयं उक्खायं । चमरो चामरो । कलओ कालओ ठविओ ठाविओ । परिट्ठविओ परिट्ठाविओ । संठविओ संठाविओ । पययं पाययं । तलवेण्टं तालवेण्टं । तल वोण्टं ताल वोण्टं । हलिओ हालिओ । नराओ नाराओ । बलया बलाया । कुमरो कुमारो । खइरं खाइरं । । उत्खात । चामर । कालक। स्थापित । प्राकृत। ताल वृन्त। हालिका । नाराच। बलाका। कुमार। खादिर । इत्यादि । केचिद् ब्राह्मण पूर्वाह्वयोर - पीच्छन्ति । बम्हणो बाम्हणो । पुव्वण्हो पुव्वाण्हो । । दवग्गी। दावग्गी । चडू चाडू । इति शब्द - भेदात् सिद्धम् ॥
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 67 अर्थः-कुछ अव्ययों में और उत्खात आदि शब्दों में आदि में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'अ' हुआ करता है। अव्ययों दृष्टान्त इस प्रकार है-यथा-जह और जहा । तथा तह और तहा । अथवा = अहव और अहवा । वा=व और वा । हा ह और हा ।। इत्यादि ।
उत्खात आदि के उदाहरण इस प्रकार हैं :- 'उत्खातम्' = उक्खयं और 'उक्खायं । चामरः चमरो और चामरो । कालकः-कलआ और कालओ । स्थापितः -ठविओ और ठाविओ । प्रतिस्थापितः = परिट्ठविओ और परिट्ठाविआ । संस्थापितः = संठविओ और संठााविओ । प्राकृतम् = पययं और पाययं ।
तालवृन्तम्-तलवेण्टं और तालवेष्टं । तलवोण्टं, तालवोष्ट | हालिक:-हलिओ और हालिओ । नाराचः = नराओ और नाराओ। बलाका=बलया और बलाया। कुमारः = कुमरो और कुमारो। खादिरम - खइरं और खाइरं ।। इत्यादि रूप से जानना। कोई-कोई ब्राह्मण और पूर्वान्ह शब्दों के आदि 'आ' का विकल्प से 'अ' होना मानते हैं। जैसे-ब्राह्मणः-बम्हणो और बाम्हणो । पूर्वांण्हः- पुव्वण्हो और पुव्वाण्हो || दवाग्निः - दावाग्निः दवग्गी और दावग्गी। चटुः और चाटु:-चडू और चाडू। अंतिम चार रूपों में- (दवग्गी से चाडू तक में ) - भिन्न भिन्न शब्दों के आधार से परिवर्तन होता है; अतः इनमें यह सूत्र १ - ६७ नहीं लगाया जाना चाहिये । अर्थात् इनकी सिद्धि शब्द-भेद से याने अलग अलग शब्दों से होती है। ऐसा जानना ।
'यथा' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप जह और जहा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य' का 'ज'; और १-१८७ से 'थ' का ह; १-६७ से 'आ' का विकल्प से 'अ' होकर 'जह' और 'जहा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
' तथा ' संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत रूप 'तह' और 'तहा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'थ' का 'ह'; और १-६७ से 'आ' का विकल्प से 'अ' होकर 'तह' और 'तहा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अथवा' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप 'अहव' और 'अहवा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ' का 'ह' और १-६७ से 'आ' का विकल्प से 'अ' होकर 'अहव' और 'अहवा' होते हैं।
'वा' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप 'व' और 'वा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से 'आ' का विकल्प से 'अ' होकर 'व' और 'वा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'हा' संस्कृत अव्यय हैं। इसके प्राकृत रूप 'ह' और 'हा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १- ६७ से 'आ' का विकल्प से 'अ' होकर 'ह' और 'हा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'उत्खातम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'उक्खयं' और 'उक्खाय' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से आदि 'त्' का लोप; २-८९ से 'ख' का द्वित्व 'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख्' का 'क्'; १- ६७ से 'आ' का विकल्प से 'अ'; १ - १७७ से द्वितीय 'तू' का लोप; १ - १८० से 'त्' के 'अ' का 'य'; ३- २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'उक्खयं' और 'उक्खाय' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'चामरः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'चमरो' और 'चामरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से 'चमरो' और 'चामरो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'कालकः ' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कलओ' और 'कालओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से 'कलओ' और 'कालआ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'स्थापित: ' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'ठविओ' और 'ठाविओ' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ४-१६ से 'स्था' का 'ठा'; १-६७ से प्राप्त 'ठा' के 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-२३१ से 'प' का 'व' ; १ - १७७ से 'त्' का लोप;
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
68 : प्राकृत व्याकरण
३- २ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से 'ठविओ' और 'ठाविओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्रतिस्थापितः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'परिट्ठविओ' और 'परिट्ठाविओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-३८ से ‘प्रति' के स्थान पर 'परि'; ४ - १६ से 'स्था' का 'ठा'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्' ; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-६७ से प्राप्त 'ठा' के 'आ' का विकल्प से 'अ'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'परिट्ठविओ' और 'परिट्ठाविओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'संस्थापितः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'संठविओ' और 'संठाविओ' होते हैं; इनमें सूत्र संख्या ४- १६ से 'स्था' का 'ठा'; १-६७ से प्राप्त 'ठा' के 'आ' का विकल्प से 'अ' ; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'संठविओ' और 'संठाविओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्राकृतम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पयय' और 'पायय' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-६७ से 'पा' के 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १ - १७७ से 'क्' और 'त्' का लोप ; १ - १८० से 'क्' और 'त्' के शेष दोनों 'अ' को क्रम से 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पयय' और 'पायय' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'तालवृन्तम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'तलवेण्टं, 'तालवेण्टं, 'तलवोण्ट' और तालवोण्टं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ' ; १-१३९ से 'क्र' का 'ए' और 'ओ' क्रम से; २ - ३१ से 'न्त' का 'ण्ट'; ३–२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'तलवेण्ट', 'तालवेण्टं,' 'तलवोण्ट' और 'तालवोण्ट' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'हालिक:' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'हलिओ' और 'हालिओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से आदि ‘आ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से 'हलिआ' और 'हालिओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'नाराचः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नराओ' और 'नाराओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'च्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से 'नराओ' और 'नाराओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'बलाका' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'बलया' और 'बलाया' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' का 'य'; और सिद्ध हेम व्याकरण के २-४ -१८ आकारान्त स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर क्रम से 'बलया' और 'बलाया' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'कुमारः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कुमरो' और 'कुमारो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १- ६७ से 'आ' का विकल्प से 'अ'; और ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'कुमरो' और 'कुमारो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'खादिरम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'खइ' और 'खाइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - ६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'द' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'खइर' और 'खाइर' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 69
'ब्राह्मणः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'बम्हणो' और 'बाम्हणो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७४ से 'ह्म' का 'म्ह'; १-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'बम्हणा' और 'बाम्हणो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'पूर्वाह्णः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पुव्वण्हो' और 'पुव्वाण्हा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; १-८४ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; १-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ':२-७५ से 'हण' का 'ण्ह': और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'पुव्वण्हो' और 'पुव्वाण्हो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'दवाग्निः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'दावग्गी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-८४ से 'वा' के 'आ' का 'अ'; ३-१९ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' का दीर्घ स्वर 'ई' होकर 'दवग्गी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दावाग्निः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप "दावग्गी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; १-८४ से 'वा' के 'आ' का 'अ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' का दीर्घ स्वर 'ई' होकर 'दावग्गी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चदुः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'चडू' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' का 'ड'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'चडू' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चाटुः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'चाडू' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' का 'ड'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर 'चाड' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-६७।।
घबू वृद्धे ा ॥१-६८॥ घ निमित्तो यो वृद्धि रूप आकारस्तस्यादिभूतस्य अद् वा भवति।। पवहो पवाहो। पहरो पहारो। पयरो पयारो। प्रकारः प्रचारो वा। पत्थवो पत्थावो।। क्वचिन भवति। रागः राओ।
अर्थः-घम् प्रत्यय के कारण से वृद्धि प्राप्त आदि 'आ' का विकल्प से 'अ' होता है। जैसे-प्रवाह: पवहो और पवाहो।। प्रहार:=पहरो और पहारो।। प्रकारः अथवा प्रचारः पयरो और पयारो।। प्रस्तावः पत्थवो और पत्थावो।। कहीं-कहीं पर 'आ' का 'अ' नहीं भी होता है। जैसे-रागः-राओ। - 'प्रवाहः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पवहो' और पवाहो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-६८ से 'आ' का विकल्प से 'अ'; और ३-२ से प्रथमा एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से 'पवहो' और 'पवाहो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्रहारः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पहरो' और 'पहारो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-६८ से 'आ' का विकल्प से 'अ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से 'पहरो' और 'पहारो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'प्रकारः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पयरो' और 'पयारो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-६८ से 'आ' का विकल्प से 'अ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से पयरो और पयारो रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रचारः के प्राकृत रूप 'पयरो' और 'पयारो' की सिद्धि ऊपर लिखित 'प्रकार' शब्द की सिद्धि के समान ही जानना।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
70: प्राकृत व्याकरण
'प्रस्ताव:' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पत्थवो' और 'पत्थावो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; २–८४ से ‘त्त' का 'थ'; २-८९ से प्राप्त 'थ' का द्वित्व ' थ्थ'; २-९० से प्राप्त पूर्व ' थ्' का 'त्' ; १-६८ से 'आ' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से 'पत्थवो' और 'पत्थावो' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'रागः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'राओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'म्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'राओ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-६८ ।। महाराष्ट्रे ।। १-६९।।
महाराष्ट्र शब्दे आदेराकारस्य अद् भवति ।। मरहट्ठ । मरहट्टो ||
अर्थः-महाराष्ट्र शब्द में आदि 'आ' का 'अ' होता है । जैसे- महाराष्ट्रम् - मरहट्टं । महाराष्ट्रः = मरहट्ठो ।
'महाराष्ट्रम् ' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मरहट्ठ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६९ आदि 'आ' का 'अ'; १-८४ से 'रा' के 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'ट्र' के 'र्' का लोप; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ट्' का 'ट्'; २ - ११९ से 'ह' और 'र' वर्णों का व्यत्यय; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मरहट्ठ' रूप सिद्ध हो जाता है।
महाराष्ट्रः = 'मरहट्ठो' शब्द पुल्लिंग और नपुंसकलिंग दोनों लिंग वाला होने से पुल्लिंग में ३-२ से 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'मरहट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है ॥१-६९ ।।
मांसादिष्वनुस्वारे ।। १-७० ।।
मांसप्रकारेषु अनुस्वारे सति आदेरातः अद् भवति । मंसं । पंसू । पंसणो । कंसं । कसिओ । वसिओ । पंडवो । संसिद्धिओ। संजत्तिओ।। अनुस्वार इति किम् । मासं । पासू।। मांस। पांसु । पांसन। कांस्य। कॉसिक। वाशिक । पाण्डव। सांसिद्धिक। सांयात्रिक । इत्यादि । ।
अर्थः--मांस आदि जैसे शब्दों में अनुस्वार करने पर आदि 'आ' का 'अ' होता है। जैसे- मांसम्-मंसं । पांशूः-पंसू। पांसनः=पंसणो। कांस्यम्= कसं। कांसिकः=कसिओ। वाशिकः-वंसिओ। पाण्डवः-पंडवो। सांसिद्धिकः-संसिद्धिओ। सांयात्रिकः-संजत्तिओ। सूत्र में अनुस्वार का उल्लेख क्यों किया ?
उत्तर-यदि अनुस्वार नहीं किया जायगा तो 'आदि आ' का 'अ' भी नहीं होगा। जैसे- मांसम् =मासम्। पांशुः =पासू।। इन उदाहरणों में आदि 'आ' का 'अ' नहीं किया गया है। क्योंकि अनुस्वार नहीं है।
मंसं शब्द की सिद्धि १ - २९ में की गई है।
पंसू शब्द की सिद्धि १ - २६ में की गई है। 'पांसनः ' 'संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'पंसणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७० से 'आ' का 'अ'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पंसणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
कंसं की सिद्धि १ - २९ में की गई है।
'कासिक : ' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कसिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; १–७० से आदि ‘आ' का 'अ'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'कसिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वाशिकः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वंसिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स';
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 71 १-७० से 'आदि आ' का 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'वसिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'पाण्डवः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पंडवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७० से आदि 'आ' का 'अ'; १-२५ से 'ण' का अनुस्वार; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'पंडवो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सासिद्धिकः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'संसिद्धिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७० से आदि 'आ' का 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'संसिद्धिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सांयात्रिकः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'संजत्तिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७० से आदि 'आ' का 'अ'; १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-८४ से द्वितीय 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'संजत्तिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। मांसं और पासू शब्दों की सिद्धि भी १-२९ में की गई है।।१- ७०।।
श्यामाके मः ॥ १-७१ ।। श्यामाके मस्य आतः अद् भवति।। सामओ।। अर्थः-श्यामाक में 'मा' के 'आ' का 'अ' होता है। जैसे-श्यामाकः-सामओ।। 'श्यामाकः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सामओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' का 'स'; २-७८ से 'य' का लोप; १-७१ से 'मा' के 'आ' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'सामआ' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-७१।।
इ: सदादो वा ॥ १-७२ ॥ सदादिषु शब्देषु आत इत्वं वा भवति।। सइ सया। निसिअरो निसा-अरो। कुप्पिसो कुप्पासो॥ अर्थः-सदा आदि शब्दों में 'आ' की 'इ' विकल्प से होती है। जैसे-सदा-सइ और सया। निशाचरः= निसिअरो और निसाअरो।। कूर्पासः कुप्पिसो और कुप्पासो।।।
'सदा' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप 'सइ' और 'सया' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द' का लोप; और १-७२ से शेष 'आ' की 'इ' विकल्प से होकर 'सई' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-१७७ से 'द' का लोप; और १-१८० से शेष 'अ' अर्थात् 'आ' का 'या' होकर 'सया' रूप सिद्ध हो जाता है। निसिअरा और निसाअरो शब्दों की सिद्धि १-८ में की गई है।
'कूर्पासः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कुप्पिसा' और 'कुप्पासो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'कू' के 'ऊ' का 'उ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; १-७२ से 'आ' की विकल्प से 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'कुप्पिसो' 'कप्पासो' रूप सिद्ध हो जाता है।॥१-७२॥
आचार्ये चोच्च ।। १-७३ ।। आचार्य शब्दे चस्य आत इत्वम् अत्वं च भवति। आइरिओ, आयरिओ।। अर्थः-आचार्य शब्द में 'चा' के 'आ' की 'इ' और 'अ' होता है। जैसे-आचार्यः-आइरिओ और आयरिओ।।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
72: प्राकृत व्याकरण
'आचार्यः' संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप 'आइरिओ' और 'आयरिओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-७३ से 'चा' के 'आ' की 'इ' और 'अ'; २-१०७ से 'र्य' के पूर्व में 'इ' का आगम होकर 'रिअ' रूप; १-१७७ से 'च' और 'य्' का लोप; द्वितीय रूप में १ - १८० प्राप्त 'च' के 'अ' का 'य्' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आइरिओ' और 'आयरिओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-७३ ।।
ई: स्त्यान - खल्वाटे ।। १-७४ ।।
स्त्यान खल्वाटयोरादेरात ईर्भवति ।। ठीणं । थीणं । थिण्णं । इति खादेशे सिद्धम् ॥
खल्लीडो । संखायं इति तु समः स्त्यः खा (४-१५ )
अर्थः- स्त्यान और खल्वाट शब्दों के आदि 'आ' की 'इ' होती है। जैसे- स्त्यानम् = खल्वाटः-खल्लीडो।। संखायं - ऐसा प्रयोग तो सम् उपसर्ग के बाद में आने वाली स्त्यै होने वाले 'खा' आदेश से सिद्ध होता है।
'स्त्यानम्' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'ठीणं', 'थीणं' और 'थिण्णं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७८ से ‘य' का लोप; २-३३ से 'स्त' का 'ठ'; १-७४ से 'आ' की 'ई'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; यों 'ठीण' हुआ। द्वितीय रूप में 'स्त' का २-४५ से ‘थ'; यों ' थीण' हुआ। तृतीय रूप में २-९९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; और १-८४ से ' थी' के 'ई' की ह्रस्व 'इ'; यों ‘थिण्ण" हुआ। बाद में ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'ठीणं', 'थीणं', और 'थिण्णं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'खल्वाट:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'खल्लीडो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व्' का लोप; २-८९ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; १-७४ से 'आ' की 'ई'; १ - १९५ से 'ट' का 'ड'; और ३-२ प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'खल्लीडो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'संस्त्यानम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'संखाय' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४ - १५ से 'स्त्या' के स्थान पर 'खा' का आदेश; २-७८ से 'न्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' का 'य'; ३- २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'संखाय' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-७४ ।।
म् = ठीणं, थीणं, थिण्णं ।। धातु के स्थान पर (४-१५) से
उ: सास्ना-स्तावके ।। १-७५ ।।
अनयोरादेरात उत्वं भवति ।। सुहा । थुवओ ।।
अर्थः- सास्ना और स्तावक शब्दों में आदि 'आ' का 'उ' होता है। जैसे- सास्ना = सुण्हा । स्तावक:: = थुवओ।
'सास्नाः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सुण्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७५ से 'स्ना' का 'ण्हा'; १–७५ से आदि 'आ' का 'उ'; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४ १८ से स्त्रीलिंग आकारान्त शब्दों में प्रथमा के एकवचन में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सुण्हा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्तावकः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'थुवओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ४५ से 'स्त' का 'थ'; १-७५ से आदि 'आ' का 'उ'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'थुवओ' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-७५।।
ऊद्वासारे ।। १-७६ ।।
आसार शब्दे आदेरात ऊद् वा भवति । ऊसारो । आसारो ।।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 73 अर्थः-आसार शब्द में आदि 'आ' का विकल्प से 'ऊ' होता है। जैसे-आसार: ऊसारो और आसारो।।
'आसारः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'ऊसारा' और 'आसारो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-७६ से आदि 'आ' का विकल्प से 'ऊ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से "ऊसारो' और 'आसारो रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-७६ ।।
आर्यायां यः श्वश्राम् ।। १-७७ ।। आर्या शब्देश्वश्र्वां वाच्यायां यस्यात ऊर्भवति।। अज्जू।। श्वश्र्वामिति किम्। अज्जा।।
अर्थः-आर्या शब्द का अर्थ जब 'सासु होवे तो आर्या के 'या' के 'आ' का 'ऊ' होता है। जैसे-आर्या-अज्जु- (सासु)। श्वश्रु-याने सासु ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर- जब आर्या का अर्थ सासु नहीं होगा; तब 'र्या' के 'आ' का 'ऊ' नहीं होगा। जैसे-आर्या-अज्जा।। (साध्वी)।
'आर्या'-संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अज्जू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७७ से 'या' के 'आ' का 'ऊ'; २-२४ से 'र्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व'ज्ज'; १-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; ३-१९ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर की दीर्घता-होकर अर्थात् 'उ' का 'ऊ' ही रहकर 'अज्जू रूप सिद्ध हो जाता है।
'आर्या' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'र्य' का 'अ'; २-८९ से प्राप्त 'जका द्वित्व 'ज्ज'; १-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ के अनुसार स्त्रीलिंग में प्रथमा के एकवचन में आकारान्त शब्द में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अज्जा' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-७७।।
एद् ग्राह्ये ।। १-७८ ।। ग्राह्य शब्दे आदेरात् एद् भवति।। गेज्झां अर्थः-ग्राह्य शब्द में आदि 'आ' का 'ए' होता है। जैसे-ग्राह्यम्=गेज्झं। 'ग्राह्यम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'गेझं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-७८ से आदि 'आ' का 'ए'; २-२६ से 'ह्य' का 'झ'; २-८९ से प्राप्त 'झ' का द्वित्व 'झ्झ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' का 'ज्'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गेझं रूप सिद्ध हो जाता है।। ७८।।
द्वारे वा ॥ १-७९ ।। द्वार शब्दे आत एद् वा भवति।। दे। पक्षे। दुआरं दारं वारं।। कथं नेरइओ नारइओ। नैरयिक नारयिक शब्दयो भविष्यति।। आर्षे अन्यत्रापि। पच्छेकम्म। असहेज्ज देवासुरी।।
अर्थः-द्वार शब्द में 'आ' का 'ए' विकल्प से होता है। जैसे-द्वारम्=देरं। पक्ष में-दुआरं दारं और वारं जानना। नेरइओ और नारइओ कैसे बने हैं ? उत्तर- 'नैरयिक' ऐसे मूल संस्कृत शब्द से नेरइओ बनता है और 'नारयिक' ऐसे मूल संस्कृत शब्द से 'नारइओ' बनता है। आर्ष प्राकृत में अन्य शब्दों में भी 'आ' का 'ए' देखा जाता है। जैसे - पश्चात कर्म-पच्छे कम्म। यहां पर 'चा' के 'आ' का 'ए' हुआ है। इसी प्रकार से असहाय्य देवासुरी- असहेज्ज देवासुरी। यहां पर 'हा' के 'आ' का 'ए' देखा जाता है।
'द्वारम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'देरं 'दुआर' 'दार' और 'बार' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-७९ से 'आ' का 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देरं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में २-११२ से
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
74 : प्राकृत व्याकरण
विकल्प से 'द' में 'उ' का 'आगम'; १-१७७ से 'व्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुआरं रूप सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप में १-१७७ से 'व्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दारं रूप सिद्ध हो जाता है। चतुर्थ रूप में २-७७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वारं रूप सिद्ध हो जाता है।
'नैरयिकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नेरइओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; १-१७७ से 'य' और 'क' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'नेरइओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नारकिकः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'नारइओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से दोनों 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'नारइओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __'पश्चात् कर्म' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छे कम्म' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'श्च' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च'; १-७९ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; १-११ से 'त्' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पच्छे कम्म' रूप सिद्ध हो जाता है।
'असहाय्य' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'असहेज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७९ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; २-२४ से 'य्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; यों 'असहेज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है। देवासुरी का संस्कृत और प्राकृत रूप समान ही होता है।।१-७९।।
पारापते रो वा ॥ १-८० ।। पारापत शब्दे रस्थस्यात एद् वा भवति।। पारेवओ पारावओ।। अर्थः-पारापत शब्द में 'र' में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-पारापतः पारेवओ और पारावओ।
'पारापतः' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'पारेवआ' और 'पारावओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८० से 'रा' के 'आ' को विकल्प से 'ए'; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'पारेवओ' और 'पारावओ' रूप सिद्ध हो जाते है।।१-८०।।
मात्रटि वा ॥१-८१ ।। मात्रट्प्रत्यये आत एद् वा भवति।। एत्तिअमेत्त। एत्तिअमत्त।। बहुलाधिकारात् क्वचिन्मात्रशब्दे पि। भोअण-मेत्त।।
अर्थ:-मात्रट प्रत्यय के 'मा' में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-एतावन्-मात्रं-एत्तिअमेत्तं और एत्तिअमत्त।। बहुलाधिकार से कभी-कभी 'मात्र' शब्द में भी 'आ' का 'ए' देखा जाता है। जैसे-भोजन-मात्रम् भोअण-मेत्त।।
'एतावन्'-मात्रम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'एत्तिअमेत्तं' और 'एत्तिअमत्त होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१५७ में एतावन् के स्थान पर 'एत्तिअ आदेश; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-८१ से 'मा' में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'ए'; द्वितीय रूप में १-८४ से 'मा' के 'आ' का 'अ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'एत्तिअमेत्तं' और 'एत्तिअमत्तं' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 75
'भोजन-मात्रम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भोअणं-मेत्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८१ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; और ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'भोअण-मेत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-८१।।
उदोद्वा ।। १-८२ ।। आई शब्दे आदेरात उद् ओच्च वा भवतः।। उल्लं। ओल्लं।। पक्षे। अल्लं। अद्द।। बाह-सलिल-पवहेण उल्लेइ॥ __ अर्थः-आई शब्द में रहे हुए 'आ' का 'उ' और 'ओ' विकल्प से होते हैं। जैसे-आर्द्रम्-उल्लं ओल्लं पक्ष में अल्लं और अद्द। बाष्प-सलिल-प्रवाहेण आर्द्रयति-बाह-सलिल-पवहेण उल्लेइ।। अर्थात् अश्रुरुप जल के प्रवाह से गीला करता है।
'आर्द्रम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'उल्लं' 'ओल्लं', 'अल्लं' और 'अई' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८२ से आदि 'आ' का विकल्प से 'उ' और 'ओ'; २-७९ से उर्ध्व 'र' का लोप; २-७७ से 'द्' का लोप; १-२५४ से शेष 'र' का 'ल'; २-८९ से प्राप्त 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'उल्लं' और 'ओल्ल' रूप सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप में १-८४ से 'आ' का 'अ'; और शेष साधनिका ऊपर के समान ही जानना। यों अल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'आर्द्रम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७९ से दोनों 'र' का लोप; २-८९ शेष 'द' का द्वित्व 'द'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अद्द रूप सिद्ध हो जाता है।
'बाष्पः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'बाह' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७० से 'ष्य' का 'ह' होकर 'बाह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सलिलः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सलिल' ही होता है।
'प्रवाहेन' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पवहेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-६८ से 'आ' का 'अ'; ३-६ से तृतीया विभक्ति के पुल्लिंग में एकवचन के प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-१४ से 'ण' प्रत्यय के पूर्व में रहे हुए 'ह' के 'अ' का 'ए' होकर पवहेण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आर्द्रयतिः' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद है; इसका प्राकृत रूप 'उल्लेइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८२ से 'आ' का 'उ'; २-७७ से 'द्' का लोप; १-२५४ से 'र' का 'ल'; २-८९ से प्राप्त 'ल' का द्वित्व ल्ल'; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-१५८ से शेष विकरण 'अ' का 'ए'; ३-१३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'उल्लेइ' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-८२।।
ओदाल्यां पंक्तौ ।। १-८३ ।। आली शब्दे पङ्क्तिवाचिनि आत ओत्वं भवति।। ओलो।। पङ्क्तावितिकिम्। आली सखी।।
अर्थः-'आली' शब्द का अर्थ जब पक्ति हो; तो उस समय में आली के 'आ' का 'ओ' होता है। जैसे आली= (पक्ति अर्थ में-) ओली। 'पक्ति' ऐसा उल्लेख क्यों किया? उत्तर-जब 'आली' शब्द का अर्थ पक्तिवाचक नहीं होकर 'सखी' वाचक होता है; तब उसमें 'आ' का 'ओ' नहीं होता है। जैसे-आली= (सखी अर्थ में) आली।।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
76 : प्राकृत व्याकरण
'आली' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'ओली' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८३ से 'आ' का 'ओ' होकर 'ओली' रूप सिद्ध हो जाता है। आली संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आली' ही होता है।।१-८३।।
हस्व संयोगे ॥ १-८४ ।। दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे हस्वो भवति। आत्। आम्रम्। अम्ब।। ताम्रम्। तम्ब।। विरहाग्निः। विरहग्गी।। आस्यम्। अस्स।। ईत्। मुनीन्द्रः। मुणिन्दो।। तीर्थम्। तित्थ।। ऊत्। गुरुल्लापाः गुरूल्लावा।। चूर्णः चुण्णो।। एत्। नरेन्द्रः। नरिन्दो॥ म्लेच्छः। मिलिच्छो।। दिठिक्क-थण-वटै।। ओत् अधरोष्ठः अहरूटुं।। नीलोत्पलम्। नीलुप्पल।। संयोग इतिकिम् आयासं। ईसरो। ऊसवो।
अर्थः-दीर्घ स्वर के आगे यदि संयुक्त अक्षर हो तो; उस दीर्घ स्वर का हस्व स्वर हो जाया करता है। 'आ' स्वर के आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों का उदाहरण; जिनमें कि 'आ' का 'अ' हुआ है। उदाहरण इस प्रकार है:- आम्रम्-अम्ब।। ताम्रम्=तम्ब।। विरहाग्निः-विरहग्गी।। आस्यम्-अस्सं। इत्यादि।। ___ 'ई' स्वर के आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'ई' की 'इ' हुई है। जैसे कि-मुनीन्द्रः- मुणिन्दो।। तीर्थम् तित्थं।। इत्यादि।। 'ऊ' स्वर के आगे संयुक्त अक्षरों वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'ऊ' का 'उ' हुआ है। जैसे कि-गुरूल्लापाः-गुरुल्लावा।। चूर्णः चुण्णो।। इत्यादि। 'ए' स्वर के आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'ए' का 'इ' हुआ है। जैसे नरेन्द्रः नरिन्दो।। म्लेच्छ: मिलिच्छा।। दृष्टेक स्तन वृत्तम् दिट्ठिक्क-थण-वद।।
'ओ' स्वर के आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'ओ' का 'उ' हुआ है। जैसे अधरोष्ठः अहरुटुं।। नीलोत्पलम् नीलुप्पलं।। ___ संयोग अर्थात् 'संयुक्त अक्षर' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर-यदि दीर्घ स्वर के आगे संयुक्त अक्षर नहीं होगा तो उस दीर्घ स्वर का हस्व स्वर नहीं होगा। जैसे-आकाशम् आयासं। ईश्वर-ईसरो और उत्सवः ऊसवो। वृत्ति में यथा दर्शनं शब्द लिखा हुआ है; जिसका तात्पर्य यह है कि यदि शब्दों में दीर्घ का हस्व किया हुआ देखा जावे तो हस्व कर देना; और यदि दीर्घ का हस्व नहीं किया हुआ देखा जावे तो हस्व नहीं करना; जैसे-ईश्वरः ईसरो; और उत्सवः ऊसवो। इनमें 'ई' और 'ऊ' दीर्घ है; किन्तु इन्हें हस्व नहीं किया गया है।
'आम्रम्: संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अम्ब होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-५६ से 'म्र' का 'म्ब'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर 'अम्ब रूप सिद्ध हो जाता है।
ताम्रमः संस्कृत शब्द है; इसका प्राकृत रूप तम्बं होता है; इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'ता' के 'आ' का 'अ'; २-५६ से 'म्र का 'म्ब'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तम्बं रूप सिद्ध हो जाता है।
विरहाग्निः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप विहग्गी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' का अ; २-७८ से 'न' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग' और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर दीर्घ होकर 'विरहग्गी' रूप सिद्ध हो जाता है।
आस्यम्: संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप अस्सं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से 'स' का द्वित्व स्स'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अस्सं रूप सिद्ध हो जाता है।
मुनीन्द्रः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मुणिन्दो होता है। इसमें, सूत्र-संख्या-१-८४ से 'ई' की 'इ'; १-२२८
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 77
से 'न' का ‘णा'; २-७९ से 'र' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुणिन्दो रुप सिद्ध हो जाता है।
तीर्थम्: -संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तित्थं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से 'ई' की 'इ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'थ' का द्वित्व 'थ्थ'; २-९० से प्राप्त 'थ्' का 'त्'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तित्थं रूप सिद्ध हो जाता है।
गुरूल्लापा:- संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप गुरूल्लावा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'ऊ' का 'उ'; १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-४ से प्रथमा के बहुवचन मे पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय का लोप; ३-१२ से लुप्त जस्' के पूर्व में रहें हुए 'अ' का 'आ' होकर गुरूल्लावा रूप सिद्ध हो जाता है।
चूर्णः- संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत रूप चुण्णो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'ऊ' का 'उ'; २-७९ से 'र का' लोप; २-८९ से 'णा' का 'पणा'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर चुण्णो रूप सिद्ध हो जाता है।
नरेन्द्रः- संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप नरिन्दो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से 'ए' की 'इ'; २-७९ से 'र' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नरिन्दो रूप सिद्ध हो जाता है।
म्लेच्छ;- संस्कृत शब्द है। इसका इसका प्राकृत रूप मिलिच्छो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में याने 'म्' में 'इ' की प्राप्ति ; १-८४ से 'ए' की 'इ'; ३-२ से प्रथम के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मिलिच्छो रूप सिद्ध होता जाता है।
दृष्टैक (दृष्ट+एक) संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दिटिक्क होता है इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ' का 'ट्'; १-८४ से 'ए' की 'इ'; २-९९ से 'क' का द्वित्व 'क्क'; १-१० से 'ठ' में रहे 'अ' का लोप; और 'ठ' में 'इ' की संधि होकर दिट्ठिक्क रूप सिद्ध हो जाता है।
स्तन संस्कृत शब्द है; इसका प्राकृत रूप थण होता है इसमें सूत्र-संख्या २-४५ से 'स्त' का 'थ'; और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर 'थण' रूप सिद्ध हो जाता हैं
वृत्तम् संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत रूप वढें होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-२९ से 'त्त' का 'ट'; २-८९ से शेष 'ट' का द्वित्व 'दृ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वटै रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अधरोष्ठः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप अहरुटुं होता है। इसमे सूत्र संख्या -१-१८७ से 'घ'; का 'ह'; १-८४ से 'ओ' का 'उ'; २-३४ 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ' का 'ट'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अहरुटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
नीलोत्पलम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप नीलुप्पलं होता है इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ओ' का 'उ'; २-७७ से 'त' का लोप: २-८९ से 'प' का द्वित्व 'प्प': ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नीलुप्पलं रूप सिद्ध हो जाता है।
आकाशम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप आयासं होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-७७ से 'क्' का लोप; १-८० से शेष 'अ' का 'य'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आयासं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
78 : प्राकृत व्याकरण
ईश्वरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप ईसरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ईसरो रूप सिद्ध हो जाता है।
उत्सवः संस्कृत शब्द है। इसका प्राक्त रूप ऊसवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११४ से 'उ' का 'ऊ' और २-७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊसवो' रूप सिद्ध होता है ।।१-८४।।
इत एद्वा ॥ १-८५॥ संयोग इति वर्तते। आदेरिकारस्य संयोगे परे एकारो वा भवति।। पेण्ड पिण्डंधम्मेल्लं धम्मिल्लं। सेन्दूरं सिन्दूरं। वेण्हू विण्हू। पेटुं पिटुं। बेल्लं बिल्ल।। क्वचिन्न भवति। चिन्ता।। ___अर्थ :- 'संयोग' शब्द ऊपर के १-८४ सूत्र से ग्रहण कर लिया जाना चाहिये। संयोग का तात्पर्य 'संयुक्त अक्षर' से है। शब्द में रही हई आदि हस्व'ई' के आगे यदि संयक्त अक्षर आ जाय: तो उस आदि 'इ' का 'ए' विकल्प से हआ करता है। जैसे-पिण्डम्-पेण्डं और पिण्ड। धम्मिल्लम्-धम्मेल्लं और धम्मिल्ल। सिन्दूरम् सेन्दूरं और सिन्दूरं।। विष्णुः वेण्हू और विण्हू।। पिष्टम्=पेटुं और पिटुं।। बिल्वम् बेल्लं और बिल्लं।। कहीं कहीं पर हस्व 'इ' के आगे संयुक्त अक्षर होने पर भी उस हस्व 'इ' का 'ए' नहीं होता है। जैसे-चिन्ता चिन्ता।। यहाँ पर 'इ' का 'ए' नहीं हुआ है।
पिण्डम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पेण्डं और पिण्डं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेण्डं और पिण्डं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
धम्मिल्लम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप धम्मेल्लं और धम्मिल्लं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से धम्मेल्लं और धम्मिल्लं रूप सिद्ध हो जाते हैं। __सिन्दूरम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप सेन्दूरं और सिन्दूरं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सेन्दूरं और सिन्दूरं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
विष्णुः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप वेण्हू और विण्हू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८५ से 'ज्ञ' का विकल्प से 'ए'; २-७५ से 'ष्ण' का ‘ण्ह'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ स्वर याने हस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर क्रम से वेण्हू और विण्हू रूप सिद्ध हो जाते है।
पिष्टम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पेटुं और पिटुं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ्' का 'ट्', ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेटुं और पिटुं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
बिल्वम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप बेल्लं और बिल्लं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; १-१७७ से 'व' का लोप; २-८९ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से बेल्लं और बिल्लं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
चिन्ता संस्कृत शब्द है और इसका प्राकृत रूप भी चिन्ता ही होता है ।।१-८५।।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 79
किंशके वा ।। १-८६॥ किंशुक शब्दे आदेरित एकारो वा भवति।। केसुअंकिंसुआ।
अर्थ :- किंशुक शब्द में आदि 'इ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे-किंशुकम्-केसुअं और किसु। केसुअं और किंसुअं की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है ।।१-८६।।
मिरायाम् ॥ १-८७॥ मिरा शब्दे इत एकारो भवति।। मेरा।।
अर्थः- मिरा शब्द में रही हुई 'इ' का 'ए' होता है। जैसे मिरा-मेरा।।
मिरा देशज शब्द है। इसका प्राकृत रूप मेरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८७ से 'इ' का 'ए' होकर 'मेरा' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-८७||
पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्रा-बिभीतकेष्वत् ।।१-८८॥ एषु आदेरितोकारो भवति। पहो। पुहई। पुढवी। पडंसुआ। मूसओ। हलद्दी। हलद्दा। बहेडओ।। पन्थं किर देसितेति तु पथि शब्द समानार्थस्य पन्थ शब्दस्य भविष्यति।। हरिद्रायां विकल्प इत्यन्ये। हलिही हलिहा।।। ___ अर्थ- पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुत-मूषिक-हरिद्रा, और बिभीतक; इन शब्दों मे रही हुई आदि 'इ' का 'अ' होता है। जैसे-पथिन् (पन्था)=पहो; पृथिवी-पुहई और पुढवी। प्रतिश्रुत्=पडंसुआ।। मूषिक: मूसओ।। हरिद्रा-हलद्दी और हलद्दा।।
बहेडओ।। पन्थ शब्द का जो उल्लेख किया गया है। वह पथिन शब्द का नहीं बना हआ है। किन्त 'मार्ग-वाचक' और यही अर्थ रखने वाले 'पन्थ' शब्द से बना हुआ है। ऐसा जानना। कोई-कोई आचार्य 'हरिद्रा' शब्द में रही हुई 'इ' का 'अ' विकल्प रूप से मानते हैं। जैसे-हरिद्रा-हलिद्दी और हलद्दा ये दो रूप उपरोक्त हलिद्दी और हलद्दा से अधिक जानना। इन चारों रूपों में से दो रूपों में तो 'इ' है और दो रूपों में 'अ' है। यों वैकल्पिक-व्यवस्था जानना।
पन्था संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पहो होता है। इसका मूल शब्द पथिन् है। इसमें सूत्र-संख्या १-८८ से 'इ' का 'अ'; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-११ से 'न्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
पृथिवी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पुहई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-८८ से आदि 'इ' का 'अ'; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-१७७ से 'व' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ याने 'ई' का 'ई' होकर 'पुहई रूप सिद्ध हो जाता है।
पृथिवी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पुढवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-२१६ से 'थ' का 'ढ'; १-८८ से आदि 'इ' का 'अ'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ याने 'ई' का 'ई' ही रहकर 'पुढवी' रूप सिद्ध हो जाता है।
पडंसुआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है।
भषिक: संस्कत शब्द है। इसका प्राकत रूप मसओ होता है। इसमें सत्र-संख्या १-८८ से 'इ' का 'अ':१-२६० से 'ष' का 'स':१-१७७ से 'क' का लोप: और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मूसओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
हरिद्रा संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप हलद्दी और हलद्दा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८८ से 'इ' का 'अ'; १-२५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'द' का द्वित्व '६' ३-३४ से 'आ' की विकल्प से 'इ'; और ३-२८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में हलद्दी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में हे० २-४-१८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर हलद्दा' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
80 : प्राकृत व्याकरण
बिभीतकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप बहेडओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८८ से 'इ' का 'अ'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१०५ से 'ई' का 'ए'; १-२०६ से 'त' का 'ड'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर बहेडओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
हरिद्रा संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप हलिद्दी और हलिद्दा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल'; २-७९ से द्र के 'र' का लोप; २-८८ से 'द' का द्वित्व 'द्द' ३-३४ से 'आ' की विकल्प से 'इ'; और ३-२८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में हलद्दी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में हे ०२-४-१८ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' होकर 'हलद्दा' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-८८।।
शिथिलेगदे वा।। १-८९।। __ अनयोरादेरितोद् वा भवति।। सढिला पसढिला सिढिलं। पसिढिल।। अङ्गुअं इङगुआ। निर्मित शब्दे तु वा आत्वं न विधेयम्। निर्मात निर्मित शब्दाभ्यामेव सिद्धेः।।
अर्थः- शिथिल और इंगुद शब्दों में आदि 'इ' का विकल्प से 'अ होता है। जैसे-शिथिलम्-सढिलं और सिढिलं। प्रशिथिलम्=पसढिलं और पसिढिलंइंगुदम् अंगुअं और इंगुआ। निर्मित शब्द में तो विकल्प रूप से 'इ' का 'आ' करने की आवश्यकता नहीं है। निर्मात संस्कृत शब्द से निम्माओ होगा; और निर्मित शब्द से निम्मिओ होगा। अतः इनमें आदि 'इ' का 'अ' ऐसे सूत्र की आवश्यकता नहीं है।
शिथिलमं संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप सढिलं और सिढिलं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८९ से आदि 'इ' का विकल्प से 'अ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सढिलं और सिढिलं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
प्रशिथिलम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पसढिलं और पसिढिलं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८९ से आदि 'इ' का विकल्प से 'अ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पसढिलं और पसिढिलं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
इंगुदम संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप अंगुअं और इंगुअं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८९ से 'इ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से अंगुअं और इंगुअंरूप सिद्ध हो जाता है।।१-८९।।
तित्तिरौरः।।१-९०॥ तित्तिरिशब्दे रस्येतोद् भवति ।। तित्तिरो ।। अर्थ :-तित्तिरि शब्द में 'र' में रही हुई 'इ' का 'अ' होता है। जैसे-तित्तिरिः तित्तिरो ।। तित्तिरिः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तित्तिरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-९० से 'रि' में रही हुई 'इ' का ''; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय होकर तित्तिरा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९०।।
इतो तो वाक्यादौ।। १-९१।। वाक्यादिभूते इति शब्दे यस्तस्तत्संबन्धिन इकारस्य अकारो भवति।। इअ जम्पि आवसणे। इअ विअसिअ-कुसुमसरो।। वाक्यादाविति किम्। पिओति। पुरिसो ति।।
अर्थ :-यदि वाक्य के आदि में 'इति' शब्द हो तो; 'ति' में रही हुई 'इ' का 'अ' होता है। जैसे इति कथितावासाने
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 81
=इअ जम्पिआवसाणे। इति विकसित-कुसुमशरः इअ विअसिअ-कुसुम-सरो।। मूल-सूत्र में वाक्य के आदि में ऐसा क्यों लिखा गया है? उतर-यदि यह 'इति' अव्यय वाक्य की आदि में नहीं होकर वाक्य में अन्य स्थान पर हो तो; उस अवस्था में 'ति' की 'इ' का 'अ' नहीं होता है। जैसे-प्रियः इति=पिओति। पुरू इति-पुरिसोति।। 'इअ की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है।
कथितावसाने संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप जम्पिआवसाणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२ से 'कथ्' धातु के स्थान पर 'जम्प' का आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण' ३-११ सप्तमी विभक्ती के एकवचन में पुल्लिंग में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जम्पिआवसाणे रूप सिद्ध हो जाता है।
विकसित-कुसुम-शरः संस्कृत शब्द है। इनका प्राकृत रूप विअसिअ-कुसुम-सरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या -१७७ से 'विकसित' के 'क' और 'त्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर विअसिस-कुसुम-सरो रूप सिद्ध हो जाता है। पिओति और पुरिसोति की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है ।।१-९१।।
ईर्जिह्वा-सिंह-त्रिंशविंशतो त्या।। १-९२।। जिह्वादिषु इकारस्य तिशब्देन सह ईर्भवति।। जीहा। सीहो। तीसा। वीसा।। बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति। सिंह-दत्तो। सिंह-राओ।।
अर्थ :-जिह्वा सिंह और त्रिंशत् शब्द में रही हुई 'इ' की 'ई होती है। तथा विंशति शब्द में 'ति' के साथ याने 'ति' का लोप होकर के 'इ' की 'ई होती है। जैसे-जिह्वा जीहा। सिंहः-सीहो। त्रिंशत्-तीसा। विंशतिः-वीसा।। बहुलाधिकार से कहीं कहीं . पर सिंह आदि शब्दों में 'इ' की 'ई' नहीं भी होती है। जैसे-सिंह-दत्तः सिंह-दत्तो। सिंह-राजः-सिंह-राओ।। इत्यादि।।
जिह्वा संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप जीहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-९२ से 'इ' की 'ई'; १-१७७ से 'व्' का लोप; हे०२-४-१८ से स्त्रीलिंग आकारान्त में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जीहा रूप सिद्ध हो जाता है।
सीहो शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या-१-२९ में की गई है। तीसा और वीसा शब्दोंकी सिद्धि सूत्र-संख्या-१-२८ में की गई है। सिंह-दत्तः संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप सिंह-दत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर सिंह-दत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
सिंह-राजः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिंह-राओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर सिंह-राओ रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९२।।
लुंकि निरः।। १-९३।। निर् उपसर्गस्य रेफलोपे सति इत ईकारो भवति।। नीसरइ। नीसासो॥ लुकीति किम्। निण्णओ। निस्सहाइँ अङ्गाई।। __अर्थ :-जिस शब्द में निर्' उपसर्ग हो; और ऐसे 'निर्' के 'र' का याने 'रेफ' का लोप होने पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' हो जाती है। जैसे-निर्सरति-नीसरइ। निश्र्वास नीसासो।। 'लुक' ऐसा क्यों कहा गया है। उतर- जिन शब्दों में इस सूत्र का उपयोग नहीं किया जायगा; वहाँ पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' नहीं होकर 'नि' के पर-वर्ती ब्यञ्जन का अन्य सूत्रानुसार द्वित्व हो जायगा। जैसे-निर्णयः निण्णओ। निसंहानि अङ्गानि निस्सहाइँ अङ्गाइं। इन उदाहरणों में व्यञ्जन का द्वित्व हो गया है।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
82 : प्राकृत व्याकरण
निर्सरति संस्कृत क्रिया है। इसका प्राकृत रूप नीसरइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१३ से 'निर्' के 'र' का लोप; १-९३ से आदि 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल में एकवचन 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर नीसरइ रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्वासः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप नीसासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१३ से 'निर्' के 'र' का लोप; १-९३ से 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-१७७ से 'व' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर नीसासो रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्णयः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'निण्णओ' होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय लगकर निण्णओ रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्सहानि संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निस्सहाइँ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'सद्वित्व'स्स': ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहवचन में नपंसकलिंग में 'जस' और 'शस' प्रत्ययों के स्थान पर 'ई प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर 'निस्सहाइँ रूप सिद्ध हो जाता है।
अंगाणि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अङ्गाइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन में नपुसंकलिंग में 'जस्' और 'शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर 'अंगाई रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९३।।
द्विन्योरूत्।। १-९४॥ द्विशब्दे नावुपसर्गे च इत उद् भवति।। द्वि। दुमतो। दुआई। दुविहो। दुरेहो। दु-वयण।। बहुलाधिकारात् क्वचित् विकल्पः।। दु-उणो। बि उणो॥ दुइओ। बिइओ।। क्वचिन भवति। द्विजः। दिओ।। द्विरदः दिरओ। क्वचिद् ओत्वमपि। दो वयण।। नि। णुमज्जइ। णुमत्रो।। क्वचिन्न भवति। निवडइ।। ___ अर्थ :-'द्वि' शब्द में और 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है। जैसे-'द्वि' के उदाहरण-द्विमात्रः दुमतो। द्विजातिः=दुआई। द्विविधः दुविहो। द्विरेफ:-दुरेहो। द्विवचनम्-दु-वयण।। 'बहुलम्' के अधिकार से कहीं कहीं पर 'द्वि' शब्द की 'इ' का 'उ' विकल्प से भी होता है। जैसे कि-द्विगुणः-दु-उणो और बि-उणो।। द्वितीयः-दुइओ और बिइओ।। कहीं कहीं पर 'द्वि' शब्द में रही हुई 'इ' में किसी भी प्रकार का कोई रूपान्तर नहीं होता है; जैसे कि-द्विजः-दिओ। द्विरदः=दिरओ।। कहीं कहीं पर 'द्वि' शब्द में रही हुई 'इ' का 'ओ' भी होता है। जैसे कि-द्वि-वचनम्=दो वयणं। 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं :-निमज्जति=णुमज्जइ। निमग्नः=णुमनो। कहीं कहीं पर 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' नहीं होता है। जैसे-निपतति-निवडइ।।
द्विमात्रः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुमत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुमत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विजातिः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दुआई होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-७७ से 'व्' और 'ज्' एवं 'त्' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर दुआई रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विविधः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुविहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' का लोप; १-९४ से आदि 'इ' का 'उ'; १-१८७ से 'घ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुविहो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 83 द्विरेफः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दुरेहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; १-२३६ से 'फ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुरेहो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विवचनं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दुवयणं होता है; इसमें सूत्र-संख्या-१-१-७७ से आदि 'व्' और 'च्' का लोपः १-९४ से 'इ'का'उ':१-१८० से'च' के शेष 'अ'का 'य': १-२२८ से 'न' का 'ण': ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुवयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विगुणः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दु-उणो और बि-उणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-९४ से 'इ' का 'उ'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दु-उणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' और 'ग्' का
1; 'व' का 'ब' समान श्रुति से; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर बि-उणा रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीयः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुइओ और बिइओ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व'; 'त्'; और 'य'; का लोप; १-९४ से आदि 'इ' का विकल्प से 'उ'; १-१०१ से द्वितीय 'ई' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन से पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय का 'ओ' होकर दुइओ रूप सिद्ध हो जाता है।
"बिइओ' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५ में कर दी गई है।
द्विजः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' और 'ज्' का लोप; • और ३-२ प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'दिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विरदः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दिरओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' का और द्वितीय 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'दिरओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विवचनम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दो वयणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से आदि 'व्' और 'च्' का लोप; १-९४ की वृति से 'इ' का 'ओ'; १-१८० से 'च' के शेष 'अ' का 'य'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दो-वयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
निमज्जति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप णुमज्जइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२२८ से 'न्' का 'ण'; १-९४ से आदि 'इ' का 'उ'; और ३-३९ से वर्तमान-काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'णुमज्जई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ निमग्नः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप णुमन्नो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२२८ से 'न्' का 'ण'; १-९४ से 'इ' का 'उ'; २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से 'न' का द्वित्व 'न'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णुमन्नो' रूप सिद्ध हो जाता है।
निपतति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप निवडइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२३१ से 'प' का 'व' ४-२१९ से पत् धातु के 'त्' का 'ड्'; और ३-१३९ से वर्तमान-काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'निवडइ' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९४।।
प्रवासीक्षौ ।। १-९५॥ अनयोरादेरित उत्वं भवति। पावासुओ। उच्छू।।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
84 : प्राकृत व्याकरण
अथ :-प्रवासी और इक्षु शब्दों में आदि 'इ' का 'उ' होता है। जैसे-प्रवासिकः पावासुओ। इक्षुः उच्छू।।
प्रवासिकः संस्कृत विशेषण शब्द है। इसका प्राकृत रूप पावासुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप, १-४४ से 'प' के 'अ' का 'आ'; १-९५ से 'इ' का 'उ'; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर पावासुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
इक्षुः संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत रूप उच्छू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-९५ से 'इ' का 'उ'; २-१७ से 'क्ष' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर उच्छू रूप सिद्ध हो जाता है।।१–९५।।
युधिष्ठिरे वा ॥ १-९६॥ युधिष्ठिर शब्दे आदेरित उत्वं वा भवति।। जहुट्ठिलो। जहिट्ठिलो।। अर्थ :-युधिष्ठिर शब्द में आदि 'इ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे-युधिष्ठिरः जहुट्ठिलो और जहिट्ठिलो।।
युधिष्ठिरः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप जहुट्ठिलो और जहिट्ठिलो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या-१-२४५ से 'य' का 'ज्'; १-१०७ से 'उ' का 'अ'; १-१८७ से 'ध्' का 'ह'; १-९६ से आदि 'इ' का विकल्प से 'उ'; २-७७ से 'ए' का लोप; २-८९ से 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ्' का 'ट'; १-२५४ से 'र' का 'ल'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से जहुट्ठिलो और जहिटिलो रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-९६।।
ओच्च द्विधाकृगः ।। १-९७ ॥ द्विधा शब्दे कृग् धातोः प्रयोगे इत ओत्वं चकारादुत्वं च भवति।। दोहा-किज्जइ। दुहा-किज्जइ।। दोहा-इओ दुहा-इ।। कृग इति किम्। दिहा-गय।। क्वचित् केवलस्यापि।। दुहा वि सो सुर-वहू-सत्थो॥
अर्थ :-द्विधा शब्द के साथ में यदि कृग् धातु का प्रयोग किया हुआ हो तो 'द्विधा' में रही हुई 'इ' का 'ओ' और 'उ' क्रम से होता है। जैसे द्विधा क्रियते दोहा-किज्जइ और दुहा-किज्जइ।। द्विधाकृतम्-दोहा-इअं और दुहा-इ'कृग्' ऐसा उल्लेख क्यों किया? उत्तर-यदि द्विधा के साथ में कृग्' नहीं होगा तो 'इ' का 'ओ' और 'उ' नहीं होगा। जैसे-द्विधा-गतम्-दिहा-गय।। कहीं-कहीं पर केवल द्विधा ही हो और कृग् धातु साथ में नहीं हो तो भी 'द्विधा' के 'इ' का 'उ' देखा जाता है। जैसे-द्विधापि सः सुर वधू-सार्थः दुहा वि सो सुर-वहू-सत्थो। यहाँ पर 'द्विधा' में रही हुई 'इ' का 'उ' हुआ है।।
द्विधा क्रियते संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप दोहा-किज्जइ और दुहा-किज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-९७ से 'द्वि' के 'इ' का क्रम से 'ओ' और 'उ'; १-८७ से 'ध' का 'ह'; २-७९ से 'र' का लोप; ३-१६० से संस्कृत में कर्मणि वाच्य में प्राप्त 'इय' प्रत्यय के स्थान पर 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति, १-१० से 'इ' का लोप; ४-१३९ से प्रथम पुरुष के एकवचन में वर्तमान काल के 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोहा-किज्जइ और दुहा-किज्जइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
द्विधा-कृतम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप दोहा-इअं और दुहा-इअं होते हैं। इनमें से दोहा और दुहा की सिद्धि तो ऊपर के अनुसार जानना। शेष कृतम् रहा। इसकी सिद्धि इस प्रकार है
सूत्र-संख्या-१-१२८ से 'ऋ' की 'इ' १-१७७ से 'क्' और 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोहा-इअं और दुहा-इअं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
द्विधा-गतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दिहा-गयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व' और 'त्'
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 85 का लोप; १-१८७ से 'ध' का 'ह'; १-१८० से 'त्' के शेष 'अ' का 'य' ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दिहा-गयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुहा' की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। "वि' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। सः संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप सो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-८६ से 'सो' रूप सिद्ध हो जाता है।
सुर-वधू-सार्थः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सूर-वहू-सत्थो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' का 'ह'; १-८४ से 'सा' के 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'थ' का द्वित्व 'थ्थ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' का 'त्'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सूर-वहू-सत्थो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-९७||
वा निर्झरे ना ।। १-९८ ।। निर्झर शब्दे नकारेण सह इत ओकारो वा भवति ॥ ओज्झरो निज्झरो ।।
अर्थ :-निर्झर शब्द में रही हुई 'नि' याने 'न्' और 'इ' दोनों के स्थान पर 'ओ' का विकल्प से आदेश हुआ करता है। जैसे-निर्झरः ओज्झरो और निज्झरो। विकल्प से दोनों रूप जानना।
निर्झरः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप ओज्झरो और निज्झरा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-९८ से 'नि' का विकल्प से 'ओ'; २-७९ से 'र' का लोप २-८९ से 'झ' का द्वित्व 'झ्झ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' का 'ज्'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से ओज्झरो और निज्झरो रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-९८।।
हरीतक्यामीतोत् ।।१-९९।। हरीतकीशब्दे आदेरीकारस्य अद् भवति ।। हरडई।। अर्थ :-'हरीतकी' शब्द में आदि 'ई' का 'अ' होता है। जैसे-हरीतकी-हरडई।।
हरीतकी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप हरडई होता है। इसमें सूत्र सख्या १-९९ से आदि 'ई' का 'अ'; १-२०६ से 'त' का 'ड'; १-१७७ से 'क्' का लोप; होकर हरडई रूप सिद्ध होता है।।१-९९।।
आत्कश्मीरे।। १-१००।। कश्मीरे शब्दे ईत आद् भवति।। कम्हारा।। अर्थ :-कश्मीर शब्द में रही हुई 'ई' का 'आ' होता है। जैसे-कश्मीराः कम्हारा।।
कश्मीराः संस्कृत शब्द है। इसका प्रांत रूप कम्हारा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७४ से 'श्म' का 'म्ह'; १-१०० से 'ई' का 'आ'; ३-४ से प्रथमा के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं लोप; ३-१२ से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर कम्हारा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१००।।
पानीयादिष्वित्। १-१०१ ॥ पानीयादिषु शब्देषु ईत इद् भवति।। पाणि अलिआ जिअइ। जिअउ। विलिओ करिसो। सिरिसो। दुइ तइआ गहिरं। उवणि आणिअंपलिविआ ओसिअन्त। पसि। गहिआ वम्मिओ। तयाणिं।। पानीय। अलीक।। जीवति। जीवतु। वीडित। करीष। शिरीश। द्वितीय। तृतीय। गभीर। उपनीत। आनीत। प्रदीपीत। अवसी-दत्। प्रसीद। गृहीत। वल्मीक। तदानीम् इति पानियादयः।। बहुलाधिकारादेषु क्वचिन्नित्यं क्वचिद् विकल्पः। तेन। पाणी। अली जीअइ। करीसो। उवणीओ। इत्यादी। सिद्धम्।।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
86 : प्राकृत व्याकरण
अर्थ :-पानीय आदि शब्दों में रही हुई 'ई' का 'इ' होती है। जैसे-पानीयम्=पाणी अलीकम् अलिआंजीवती-जिअइ। जीवतु-जिअउ। त्रीडितम्-विलिआ करीषः करिसो। शिरीषः सिरिसो। द्वितियम् दुइओ तृतीयम्=तइ गभीरम्=गहिरम् उपनीतम् उवणि आनीतम् आणि प्रदीपितम्=पलिविध अवसीदतम् ओसिअन्त। प्रसीद-पसि। गृहीतम गहि। वल्मीकः-वम्मिओ। तदानीम्=तयाणिं। इस प्रकार ये सब 'पानीय आदि' जानना। बहुल का अधिकार होने से इन शब्दों में कहीं कहीं पर तो 'ई' की 'ई' नित्य होती है; और कहीं कहीं पर 'ई' की 'इ' विकल्प से हुआ करती है। इस कारण से पानीयम्=पाणीअं और पाणिअं; अलीकम् अलीअं और अलिअं; जीवति-जिअइ और जीअइ; करीषः-करीसो और करिसो; उपनीतः-उवणीओ और उवणिओ। इत्यादि स्वरूप वाले होते हैं। ___ पानीयम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पाणिअं और पाणीअं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' का हस्व 'इ'; १-१७७ से 'य्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पाणिअंरूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर पाणीअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ अलीकग् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रुप 'अलिअं' और 'अलीअं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१०१ से 'दीर्घ ई' का ह्रस्व 'इ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि 'प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर अलिंअरुप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रुप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ईं ज्यों की त्यों ही रह कर 'अलीअं रुप सिद्ध हो जाता है। ___ जीवति संस्कृत अकर्मक क्रिया है; इसके प्राकृत रुप जिअइ और जीअइ होते हैं। मूल धातु 'जीव है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से 'व् में 'अ की प्राप्ति; १-१०१ से दीर्घ 'ई की हस्व 'ई १-१७७ से 'व् का लोप; ३-१३९ से र्वतमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ई प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिअइ रुप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर जीअइ रूप सिद्ध हो जाता है।
जीवतु संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रुप 'जिअउ होता है। इसमें 'जिअ तक सिद्धि उपर के अनुसार जानना और ३-१७३ से आज्ञार्थ में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'तु' प्रत्यय के स्थान पर 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जीअउ रूप सिद्ध हो जाता है।
वीडितम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप विलिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-२०२ से 'ड' का 'ल' १-१७७ से 'त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विलिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
करीषः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप करिसा और करीसो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर करिसो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर करीसा रूप सिद्ध हो जाता है।
शिरीषः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिरिसो होता है। इनमें सूत्र-संख्या-१-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-२६० से 'श' तथा 'ष' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिरिसो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीयम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुइअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व'; त् और 'य' का लोप; १-९४ से आदि 'इ' का 'उ'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुइअंरूप सिद्ध हो जाता है।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 87
तृतीयम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तइअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'त्' और 'य' का लोप; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तइअं रूप सिद्ध हो जाता है।
भीरम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गहिरम् होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'भ' का 'ह' ; १ - १०१ सेदीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गहिरं रूप सिद्ध हो जाता है।
उपनीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप उवणिअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' का 'व्'; १- २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उवणिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
आनीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप आणिअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आणिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रदीपितग् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पलिविअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; १-२२१ से‘द' का 'ल'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १ - २३१ से 'प' का 'व्'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पलिविअं रूप सिद्ध हो जाता है।
अवसीदतम् संस्कृत वर्तमान कृदन्त है। इसका प्राकृत रूप ओसिअन्तं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७२ से 'अव' का 'ओ' ; १ - १०९ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-१८१ से 'रातृ' प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय का आदेश; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ओसिअन्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रसीद संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप पसिअ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; होकर पसिअ रूप सिद्ध हो जाता है।
गृहीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गहिअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ' ; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गहिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
वल्मीकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप वम्मिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'ल्' का लोप; २-८९ से 'म्' का द्वित्व 'म्म'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १ - १७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वम्मिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
तदानीम् संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप तयाणिं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप; १ - १८० से शेष 'आ' का 'या'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'तयाणि' रूप सिद्ध हो जाता है।
पाणीअं, अलीअं, जीआइ, करीसो शब्दों की सिद्धि ऊपर की जा चुकी है।
उपनीतः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप उवणीओ और उवणिओ होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' का 'व'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उवणीओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में १ - १०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; होकर उवणिओ रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-१०१ ॥
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
88 : प्राकृत व्याकरण
उज्जीर्णे ॥ १-१०२ ॥ जीर्ण शब्दे ईत उद् भवति।। जुण्ण सुरा ।। क्वचिन्न भवति। जिण्णे भोअणमत्ते।
अर्थ :-जीर्ण शब्द में रही हुई 'ई' का 'उ' होता है। जैसे-जीर्ण-सुरा-जुण्ण-सुरा। कहीं कहीं पर इस 'जीर्ण' में रही हुई 'ई' का 'उ' नहीं होता है। किन्तु दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ' देखी जाती है। जैसे-जीर्णे भोजन-मात्रे-जिण्णे भोअणमते।।
जीर्णः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप जुण्ण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०२ से 'ई' का 'उ'; २-७९ से 'र' का लोप; और २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण' होकर 'जुण्ण' रूप सिद्ध हो जाता है।
सुरा संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप भी सुरा ही होता है। __ जीर्णे संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप जिण्ण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'ई' की 'इ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; और ३-११ से सप्तमी के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'ङि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जिण्णे' रूप सिद्ध हो जाता है।
भोजन-मात्रे संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप भोअण-मत्ते होता हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से 'आ' का 'अ';२-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त'; और ३-११ से सप्तमी के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'ङि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भोअण-मत्ते रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१०२।।
ऊहीन-विहीने वा ॥१-१०३।। अनयोरीत ऊत्वं वा भवति।। हूणो, हीणो। विहूणो विहीणो।। विहीन इतिकिम्। पहीण-जर-मरणा।
अर्थ :-हीन और विहीन इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ई' का विकल्प से 'ऊ' होता है। जैसे- हीनः-हूणो और हीणो।। विहीनः विहूणो और विहीणो।। विहीन-इस शब्द का उल्लेख क्यों किया ? उत्तर-यदि विहीन शब्द में 'वि' उपसर्ग नहीं होकर अन्य उपसर्ग होगा तो 'हीन' में रही हुई 'ई' का 'ऊ' नहीं होगा। जैसे-प्रहीन-जर-मरणा:=पहीण-जर-मरणा। यहाँ पर 'प्र' अथवा 'प' उपसर्ग है और 'वि' उपसर्ग नहीं है; अतः 'ई' का 'ऊ' नहीं हुआ है। __ हीनः संस्कृत विशेषण है; इसके प्राकृत रूप हूणो और हीणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१०३ से 'ई' का विकल्प से 'ऊ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से हूणो और हीणा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
विहीनः संस्कृत विशेषण है; इसके प्राकृत रूप विहूणा और विहीणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१०३ से 'ई' का विकल्प से 'ऊ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से विहूणो और विहीणो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
प्रहीन संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप पहीण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; और १-२२८ से 'न' का 'ण'; होकर पहीण रूप सिद्ध हो जाता है।
जरा-मरणाः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप जर-मरणा होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; ३-४ से प्रथमा के बहुवचन में पुल्लिंग 'जस्'; प्रत्यय की प्राप्ति; एवं लोप; और ३-१२ से 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर जर-मरणा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१०३।।
तीर्थे हे ॥१-१०४॥ .. तीर्थ शब्दे हे सति ईत ऊत्वं भवति।। तूह।। हइति किम्। तित्थं।।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 89 अर्थ :-तीर्थ शब्द में थ' का 'ह' करने पर तीर्थ में रही हुई 'ई' का 'ऊ' होता है। जैसे-तीर्थम्=तूह। 'ह' ऐसा कथन क्यों किया गया है ? उत्तर-जहाँ पर तीर्थ में रहे हुए ‘र्थ' का 'ह' नहीं किया जायगा; वहाँ पर 'ई' का 'ऊ' नहीं होगा। जैसे-तीर्थम्-तित्थं।
तीर्थम संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तूहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०४ से 'ई' का 'ऊ'; २-७२ से 'र्थ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तूहं रूप सिद्ध हो जाता है। "तित्थं' शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८४ में की गई है।।१-१०४।।
एत्पीयषापीड-बिभीतक-कीद्दरोद्दशे ॥१-१०५।। एषु ईत एत्वं भवति।। पेऊसं। आमेलो। बहेडओ। केरिसो। एरिसो।।
अर्थ :-पीयूश, अपीड, बिभीतक, कीद्दश, और ईद्दश शब्दों में रही हुई 'ई' की 'ए' होती है। जैसे पीयूशम्-पेऊस; आपीड: आमेलो; बिभीतक: बहेडओ; कीद्दशः केरिसो; ईद्दशः एरिसो।।
पीयूशम्-संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पेऊसं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०५ से 'ई' की 'ए'; १-१७७ से 'य्' का लोप; १-२६० से 'ष' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पेऊसं रूप सिद्ध हो जाता है।
आपीडः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप आमेलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३४ से 'प' का 'म्'; १-१०५ से 'ई' की 'ए'; १-२०२ से 'ड' का 'ल'; और ४-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आमेला रूप सिद्ध हो जाता है।
बहेडओ की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है।
कीदशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप केरिसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०५ से 'ई' की 'ए'; १–१४२ से 'द' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर केरिसो रूप सिद्ध हो जाता है।
ईद्दशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप एरिसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०५ से 'ई' की 'ए'; १-१४२ से 'द' की रि; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर एरिसो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१०५।।
नीड-पीठे वा ।। १-१०६।। अनयोरीत एत्वं वा भवति ।। नेडं नीडं। पेढं पीढं।
अर्थः- नीड और पीठ इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ई' का 'ए' विकल्प से होता है। जैसे- नीडम्=नेडं और नीडं। पीठम्=पेढं और पीढं।
नीडम संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप नेडं और नीड होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१०६ से 'ई' की विकल्प से 'ए'; और ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से नेडं और नीडं रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ पीठम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पेढं और पीढं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१०६ से 'ई' की विकल्प से 'ए'; १-१९९ से 'ठ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेढं और पीढं रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१०६।।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
90 : प्राकृत व्याकरण
उतो मुकुलदिष्वत् ।। १-१०७।। मुकुल इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरूतोत्वं भवति।। मउला मउलो। मउरं मउडं अगरूं। गरूई। जहुट्ठिलो। जहिट्ठिलो। सोअमल्ली गलोई।। मुकुल। मुकुर। मुकुट। अगुरू। गुर्वी। युधिष्ठिर। सौकुमाय। गुडूची। इति मुकुलादयः। क्वचिदाकारो वि। विद्रुतः। विद्दाओ।
अर्थः - मुकुल इत्यादि इन शब्दों में रहे हुए आदि 'उ' का 'अ' होता है। जैसे- मुकुलम् मडलं और मउलो। मुकुरम् मउरं। मुकुटम् मउड। अगुरुम् अगरूं। गुर्वी गुरुई। युधिष्ठिरः-जहुठ्ठिलो और जुहुठ्ठिलो। सौकुमार्यम् सोअमल्ला गुडूची-गलोई। इस प्रकार इन शब्दों को मुकुल आदि में जानना। किन्हीं किन्हीं शब्दों में आदि 'उ' का 'आ' भी हो जाया करता है। जैसे-विद्रुतः विद्दाओ। इस 'विद्दाओ' शब्द में आदि 'उ' का 'आ' हुआ है। ऐसा ही अन्यत्र भी जानना। ___ मुकुलम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मउलं होता है। इनमें सूत्र-संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्तिः और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मउलं' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप से लिंग के भेद से पुल्लिग मान लेने पर ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मउलो रूप सिद्ध हो जाता है। ___मुकुरं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मउर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मउरं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मुकुटं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मउड' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१९५ से 'ट' का 'ड'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मउडं रूप सिद्ध हो जाता है।
अगुरुं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अगरु' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अगरूं रूप सिद्ध हो जाता है।
गुर्वी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'गरुई' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से 'उ' का 'अ'; २-११३ से 'वी' का 'रूवी; १-१७७ से प्राप्त 'रूवी' में से 'व्' का लोप होकर 'गरुई रूप सिद्ध हो जाता है।
जहुठ्ठिलो और जहिढिलो शब्दों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९६ की गई है।
'सौकुमार्यम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सोअमल्लं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१५९ से 'औ' का 'ओ; १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-६८ से 'र्य' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सोअमल्ल' रूप सिद्ध हो जाता है।
गुडूची संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप गलोई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; १-२०२ से 'ड' का 'ल'; १-१७७ से 'च्' का लोप होकर 'गलोई रूप सिद्ध हो जाता है।
'विद्रुतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'विदाओ' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१०७ की वृत्ति से 'उ' का 'आ'; २-८९ से 'द' का द्वित्व 'द'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विद्दाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।||१-१०७।।
वोपरौ ॥ १-१०८।। उपरावुतोद् वा भवति। अवरिं। उवरि।।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 91
अर्थः उपरि शब्द में रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'अ' हुआ करता है। जैसे-उपरि =अवरिं और उवरि।। अवरि शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई हैं 'उपरि' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'उवरि' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; और १-२६ से अनुस्वार की प्राप्ति होकर उवरि' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१०८।।
गुरौ के वा ॥ १-१०९॥ गुरौ स्वार्थ के सति आदेरूतोद् वा भवति।। गुरुओ गुरुओ।। क इति किम्? गुरू।।
अर्थः 'गुरु' शब्द में स्वार्थ-वाचक 'क' प्रत्यय लगा हुआ हो तो 'गुरु' के आदि में रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'अ' होता है। जैसे:- गुरुकः गुरुओ और गुरुओ। 'क' ऐसा क्यों लिखा है?
उत्तर:- यदि स्वार्थ-वाचक 'क' प्रत्यय नहीं लगा हुआ हो तो 'गुरु' के आदि 'उ' का 'अ' नहीं होगा। जैसे - गुरुः गुरू।।
गुरुकः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप गरुओ और गुरुओ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१०९ से आदि 'उ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से गरूओ और गुरूओ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
गुरुः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'गुरु' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्वस्व स्वर को दीर्घ स्वर होकर 'गुरु' रूप सिद्ध हो जाता है।।१०९।।
इर्भु कुटौ।। १-११०॥ भृकुटावादेरूत इर्भवति।। भिउडी।। अर्थः- भृकुटि शब्द में रहे हुए आदि 'उ' की 'इ' होती है। जैसे भ्रुकुटिः भिउडी।। 'भृकुटि' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भिउडी' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-११० से आदि 'उ' की 'इ'; १–१७७ से 'क्' का लोप; १-१९५ से 'ट' का 'ड'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर भिउडी रूप सिद्ध हो जाता है।।।१-११०।।
पुरुषे रोः।। १-१११।। पुरुषशब्दे रोरूत इर्भवति। पुरिसो। पउरिसं।। अर्थः- पुरुष शब्द में 'रु' में रहे हुए 'उ' की 'इ' होती है। जैसे- पुरुष-पुरिसो। पोरुषम्=पउरिसं।। पुरिसो शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है।
पौरुषं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पउरिसं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' का 'अउ'; १-१११ से 'रु' के 'उ' की 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पउरिसं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१११।।
ईः क्षुते।। १-११२।। क्षुतशब्दे आदेरूत ईत्वं भवति ।। छीअं॥ अर्थः- क्षुत शब्द में रहे हुए आदि 'उ' की 'ई' होती है। जैसे -क्षुतम् छी। क्षुतं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप छीअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से 'क्ष' का 'छ'; १-११२ से 'उ'
-१७७ से 'त्' का लोप, ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छीअं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-११२।।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
92: प्राकृत व्याकरण
ऊत्सुभग-मुसले वा ।। १-११३।।
अनयोरादेरुत ऊद् वा भवति ।। सूहवो सुहओ । मूसलं मुसलं ।।
अर्थः- सुभग और मुसल इन दोनों शब्दों में रहे हुए आदि 'उ' का विकल्प से दीर्घ 'ऊ' होता है। जैसे - सुभगः सुहवो और सुहओ। मुसलम्=मूसलं और मुसलं ।।
'सुभगः ' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'सूहवो' और 'सुहओ' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - ११३ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ऊ-; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १ - १९२ से प्रथम रूप में 'ऊ' होने पर 'ग' का 'व'; और द्वितीय रूप में 'ऊ' नहीं होने पर १ - १७७ से 'ग' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'सूहवो' और 'सुहओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मुसलं' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप मूसलं और मुसलं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - ११३ से आदि 'उ' का विकल्प से दीर्घ 'ऊ'; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'मूसलं' और 'मुसलं' रूप सिद्ध हो जाता है।।।१-११३।। अनुत्साहोत्सन्नेत्सच्छे।। १-११४।।
उत्साहोत्सन्नवर्जिते शब्दे यौ त्सच्छौ तयोः परयोरादेरुत ऊद् भवति।। त्स। ऊसुओ। ऊसवो। ऊसित्तो। ऊसरइ ।। छ। उद्गताः शुका यस्मात् सः ऊसुओ । ऊससइ ।। अनुत्साहोत्सन्न इति किम् । उच्छाहो । उच्छन्नो॥
अर्थः- उत्साह और उत्सन्न इन दो शब्दों को छोड़ करके अन्य किसी शब्द में 'त्स' अथवा 'च्छ' आवे; तो इन 'त्स' अथवा 'च्छ' वाले शब्दों के आदि 'उ' का 'ऊ' होता है। 'त्स' के उदाहरण इस प्रकार है:
उत्सुकः-ऊसुओ। उत्सव:- ऊसवो। उत्सिक्तः - ऊसित्तो । उत्सरति - ऊसरइ । 'च्छं' के उदाहरण इस प्रकार है:- जहाँ सेतोता । (पक्षी विशेष) निकल गया हो वह 'उच्छुक' होता है। इस प्रकार उच्छुकः-ऊसुओ।। उच्छ्बसति=ऊससइ।। उत्साह और उत्सन्न इन दोनों शब्दों का निषेध क्यों किया ? उत्तरः- इन शब्दों में 'त्स' होने पर भी आदि 'उ' का 'ऊ' नहीं होता है अतः दीर्घ 'ऊ' की उत्पत्ति का इन शब्दों में अभाव ही जानना । जैसे- उत्साहः उच्छाहो। उत्सन्नः- उच्छन्नो ।।
उत्सुकः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'ऊसुओ' होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - ११४ से आदि 'उ' का 'ऊ' २-७७ से 'तू' का लोप; १ - १७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊसुओं' रूप सिद्ध हो जाता है।
ऊसवो शब्द की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ८४ में की गई है।
‘उत्सिक्तः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'ऊसित्तो' होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - ११४ से आदि 'उ' का 'ऊ'; २-७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; २-८९ से शेष द्वितीय 'त' का द्वित्व 'त्त'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'ऊसित्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उत्सरति' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद है; इसका प्राकृत रूप 'ऊसरइ' होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-११४ से आदि 'उ' का 'ऊ'; २-७७ से 'त्' का लोप; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊसरइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उच्छुक'=(उत्+शुकः)–संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप 'ऊसुओं' होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-११४ से आदि 'उ' का 'ऊ'; २-७७ से 'त्' का लोप; १ - २६० से 'श' का 'स' १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग से ‘सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऊसुओ रूप सिद्ध हो जाता है
उच्छ्वसति (उत्श्रसति)=संस्कृत सकर्मक क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप ऊससइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - ११४
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 93 से आदि 'उ' का 'ऊ'; २-७७ से 'त्' का लोप; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स' और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऊससई रूप सिद्ध हो जाता है।
'उत्साह': संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'उच्छाहो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२१ से 'त्स' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उच्छाहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"उत्सन्नः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'उच्छन्नो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२१ से 'त्स' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ' २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्'; का 'च्' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उच्छन्नो रूप सिद्ध हो जाता है।।११-११४।।
लुंकि दुरो वा ॥ १-११५।। दुपसर्गस्य रेफस्य लोपे सति उत ऊत्वं वा भवति।। दूसहो दुसहो। दूहवो दुहओ।। लुकीति किम्। दुस्सहो विरहो। ___ अर्थः- 'दुर्' उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप होने पर 'दु' मे रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'ऊ'- होता है। जैसेःदुःसह= दूसहो और दुसहो।। दुर्भगः दूहवो और 'दुहओ' 'र' का लोप होने पर ऐसा उल्लेख क्यों किया?
उत्तर:- यदि 'दुर्' उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप नहीं होगा तो 'दु' में रहे हुए 'उ' का भी दीर्घ 'ऊ' नहीं होगा। जैसे:दुस्सहः विरहः दुस्सहो विरहो। यहाँ पर 'र' का 'स्' हो गया है और उसका लोप नहीं हुआ है; अतः 'दु' में स्थित 'उ' का भी 'ऊ' नहीं हुआ है, ऐसा जानना।
दूसहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३ में की गई। दुर्सहः (दुस्सहः) संस्कृत विशेषण है इसका प्राकृत रूप दूसहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुसहो रूप सिद्ध हो जाता है। ___'दुर्भगः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'दूहवो' और 'दुहओ' होते है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' का लोप; १-११५ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ऊ'; १-१८७ से 'भ' का 'ह; १-१९२ से आदि दीर्घ 'ऊ' वाले प्रथम रूप में 'ग' का 'व': और १-१७७ से ह्वस्व 'उ' वाले द्वितीय रूप में 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'दूहवो' और 'दुहओ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दुस्सहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३ में की गई है।
'विरहः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'विरहो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विरहो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-११५।।
__ ओत्संयोगे ।। १-११६।। संयोगे परे आदेरुत ओत्वं भवति।। तोण्डं। मोण्डं। पोक्खरं कोट्टिम। पोत्थओ। लोद्धओ। मोत्था। मोग्गरो। पोग्गलं। कोण्ढो। कोन्तो। वोक्कन्त।।
अर्थः- शब्द में रहे हुए आदि 'उ' के आगे यदि संयुक्त अक्षर आ जाय; तो उस 'उ' का 'ओ' हो जाया करता है। जैसे- तुण्डम्=तोण्ड। मुण्ड्-मोण्ड। पुष्करम् = पोक्खरं। कुट्टिमम् =कोट्टिम। पुस्तकः= पोत्थओ। लुब्धकः लोद्धओ। मस्ता=मोत्था। मुद्गरः=मोग्गरो। पुद्गल्=पोग्गलं। कुष्ठः कोण्ढो। कुंतः कोन्तो। व्युत्क्रान्तम=वोक्कन्त।
तुण्डम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तोण्डं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ; ३-२५
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
94 : प्राकृत व्याकरण
२-४५
से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तोण्डं रूप सिद्ध हो जाता है।
मुण्डम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मोण्डं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपंसुकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मोण्डं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'पुष्कर संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पोक्खरं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; २-४ से 'क' का 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व 'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का क्; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय से स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पोक्खरं रूप सिद्ध हो जाता है। ___'कुट्टिम संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कोट्टिम' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कोट्टिम रूप सिद्ध हो जाता है। 'पुस्तकः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पोत्थओ' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का ओ;
त' का 'थ'.२-८९ से प्राप्त 'थका दित्व 'थथ'. २-९० से प्राप्त पर्व 'थ' का 'त':१-१७७ से 'क' का लोप: और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पोत्थओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'लुब्धकः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'लोद्धओ' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; २-७९ से 'ब' लोप, २-८९ से शेष 'ध' का द्वित्व ध्ध', २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' का 'द्', १-१७७ से 'क' लोप
और ३-२ से प्रथमा एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लोद्धओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मुस्ता' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'मोत्था' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; २-४५ से 'स्त' का 'थ'; २-८९ से प्राप्त 'थ' का द्वित्व 'थ्थ' ; और २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' का 'त्' होकर 'मोत्था' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मुद्गरः' संस्कृत शब्द है; इसका प्राकृत रूप 'मोग्गरो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' का द्वित्व 'ग् ग'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग मे 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मोग्गरो रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुद्गल' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पोग्गलं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पोग्गलं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कुण्ठः' संस्कृत शब्द है, इसका प्राकृत रूप 'कोण्ढो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; १-१९९ से 'ठ' का 'ढ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'कोण्ढो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुन्तः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कोन्तो' होता है; इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से आदि 'उ' का 'ओ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कोन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
न्युत्क्रान्तं संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप वोक्कन्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-११६
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 95 से आदि 'उ' का 'ओ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २- ७७ से 'तू' का लोप; २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क्क'; १-८४ से 'का' में रहे हुए 'आ' का 'अ'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वोक्कन्तं' रूप सिद्ध हो जाता है।।।१-११६।।
कुतूहले वा हस्वश्च ।। १-११७।।
कुतूहल शब्दे उत ओद् वा भवति तत्संनियोगे हस्वरच वा ।। कोऊहलं कुऊहलं कोउहल्लं ।।
अर्थः- कुतूहल शब्द में रहे हुए आदि 'उ' का विकल्प से 'ओ' होता है। और जब 'ओ 'होता है, तब 'तू' में रहा हुआ दीर्घ 'ऊ' विकल्प से ह्रस्व हो जाया करता है। जैसे - कुतूहल- कोऊहलं; कुऊहलं; और कोउहल्लं । तृतीय रूप में आदि 'उ' का 'ओ' हुआ है; अतः उसके पास वाले-याने संनियोग वाले 'तू' में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'उ' हो गया है।
'कुतूहल' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप कोऊहलं; कुऊहलं; कोउहल्लं होते हैं इनमें सूत्र - संख्या १-११७ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ओ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से कोऊहलं और कुहलं रूप सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप में सूत्र - संख्या १ - ११७ से आदि 'उ' का 'ओ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-११७ से 'ओ' की संनियोग अवस्था होने के कारण से द्वितीय दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; २-९९ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुसवार होकर 'कोउहल्ल' रूप सिद्ध हो जाता है । । १ - ११७ ।।
अदूतः सूक्ष्मे वा ।। १-११८।।
सूक्ष्म शब्दे ऊतोद् वा भवति ।। सहं सुहं | | आर्षे । सुहुमं ।।
में
अर्थः- सूक्ष्म शब्द में रहे हुए 'ऊ' का विकल्प से 'अ' होता है। जैसे- सूक्ष्मम् = सण्हं और सुहं । आर्ष प्राकृत 'सुहुम' रूप भी पाया जाता है।
'सूक्ष्म' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप सण्हं और सुहं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - ११८ से 'ऊ' का विकल्प से 'अ'; २-७५ से 'क्ष्म' का 'ह'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप सण्हं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-११८ के वैकल्पिक विधान के अनुस्वार 'ऊ' का 'अ' नहीं होने पर १-८४ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ' होकर 'सुह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सूक्ष्म' संस्कृत विशेषण है। इसका आर्ष में प्राकृत रूप 'सुहुम' होता है। इसमें सूत्र- संख्या २ - ३ से 'क्ष्' का 'ख्'; १-१८७ से प्राप्त 'ख्' का 'ह'; २- ११३ से प्राप्त 'ह' में 'उ' की प्राप्ति; १-८४ से 'सू' में रहे हुए 'ऊ' का 'उ'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग मे 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुहुम' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१ - ११८ ॥
दुकूले वा लश्च द्विः ।। १-११९।।
दुकूल शब्दे ऊकारस्य अत्वं वा भवति । तत्संनियोगे च लकारो द्विर्भवति ।। दुअल्लं, दुऊलं ।। आर्षे दुगुल्लं ।।
अर्थः- दुकूल शब्द में रहे हुए द्वितीय दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से 'अ' होता है; इस प्रकार 'अ' होने पर आगे रहे हुए 'ल' का द्वित्व 'ल्ल' हो जाता है; जैसे- दुकूलम् = दुअल्लं और दुऊलं | | आर्ष-प्राकृत में दुकूलम का दुगुल्लं रूप भी होता है।
दुकूलं संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप दुअल्लं और दुऊलं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'क' का
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
96 : प्राकृत व्याकरण
लोप; १-११९ से 'ऊ' का विकल्प से 'अ'; और 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दुअल्लं और दुऊल रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दुकूलम् संस्कृत शब्द है। इसका आर्ष-प्राकृत में दुगुल्लं रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-३ से 'दुकूल' का दुगुल्ल; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्तिः और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुगुल्लं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-११९।।
ईर्वोद्वयूढे।। १-१२०॥ उद्वयूढशब्दे ऊत ईत्वं वा भवति।। उव्वीढं। उव्वूढं।। अर्थः- उद्वयूढ शब्द से रहे हुए दीर्घ 'ऊ' की विकल्प से दीर्घ 'ई' होती है। जैसे-उद्वयूढम् उव्वीढं और उव्वूढ।।
'उद्वयूढम्' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'उव्वीढं' और 'उव्वूढ' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से 'व्' का द्वित्व 'व्व';१-१२० से दीर्घ 'ऊ' की विकल्प से दीर्घ 'ई'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'उव्वीद' और 'उव्वूढ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१२०।।
उर्भु-हनुमत्कण्डूय-वातूले।। १-१२१।। एषु ऊत उत्वं भवति।। भुमया। हणुमन्तो। कण्डुअई। वाउलो।।
अर्थः- श्रू, हनुमत, कण्डूयति और वातूल इन शब्दों में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ' होता है। जैसे- धूमया = भुमया। हनूमान-हणुमन्तो। कण्डूयति-कण्डुअइ। वातूलः=वाउलो। __ 'भ्रमया' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भुमया' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १–१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ' होकर भुमया रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'हनुमान्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप ‘हणुमन्तो' होता है। इसका मूल शब्द हनूमत् है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; २-१५९ से, स्वार्थ में 'मत्' प्रत्यय के स्थान पर 'मन्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हणुमन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कण्डूयति' संस्कृत सकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप कण्डुअइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कण्डुअइ रूप सिद्ध हो जाता है।
'वातूलः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'वाउलो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व, 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वाउलो' रूप सिद्ध हो जाता है।। १-१२१।।
मधुके वा।। १-१२२।। मधूक शब्दे ऊत उद् वा भवति।। महुअं महू। अर्थः- मधूक शब्द में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से हस्व'उ' होता है। जैसे -मधूकम्-महुअं और महुआ 'मधूक' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'महुअं' और 'महूअं होते है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' का 'ह'; १-१२२ से दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से हस्व 'उ'; १-१७७ से 'क' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 97 नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'महुअं' और 'महूअं रूप सिद्ध हो जाते हैं।।।१-१२२।।
इदेतौ नुपूरे वा।। १-१२३।। नूपुर शब्दे ऊत इत् एत् इत्येतो वा भवतः।। निउरं नेउरं। पक्षे नूउर।।
अर्थः- नूपुर शब्द में रहे हुए आदि दीर्घ 'ऊ' के विकल्प से 'इ' और 'ए होते हैं। जैसे-नूपुरम् निउरं, नेउरं और पक्ष में नूउरं। प्रथम रूप में 'ऊ' की 'इ'; द्वितीय रूप में 'ऊ' का 'ए'; और तृतीय रूप में विकल्प-पक्ष के कारण से 'ऊ' का "ऊ' ही रहा।
'नूपुरम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'निउर','नेउर' और 'नूउर' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१२३ से आदि दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से 'इ' और 'ए'; और पक्ष में 'ऊ'; १-१७७ से 'प्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'निउर', 'नेउर' और 'नूउर' रूप सिद्ध हो जाते हैं।। १–१२३।।
ओत्कूष्माण्डी-तूणीर-कूर्पर-स्थूल-ताम्बूल-गुडूची-मूल्ये।।१-१२४।। एषु ऊत ओद् भवति।। कोहण्डी कोहली। तोणीरं कोप्परं। थोरं। तम्बोलं। गलोई मोल्लं।।
अर्थः-कूष्माण्डी, तूणीर, कूर्पर, स्थूल, ताम्बूल, गुडुची और मूल्य में रहे हुए 'ऊ' का 'ओ' होता हैं जैसेकूष्माण्डी-कोहण्डी और कोहली। तूणीरम्=तोणीरं। कूर्परम् कोप्परं। स्थूलम्-थोरं। ताम्बूलम् तम्बोल। गुडूची-गलोई। मूल्यं मोल्लं॥
कूष्माण्डी संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'कोहण्डी' और 'कोहली' होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; २-७३ से 'ष्मा' का 'ह'; और इसी सूत्र से 'ण्ड' का विकल्प से 'ल'; होकर क्रम से 'कोहण्डी' और 'कोहली' रूप सिद्ध हो जाते हैं। - 'तूणीरम्' संस्कृत शब्द हैं इसका प्राकृत रूप 'तोणीरं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तोणीरं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'कूर्परम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कोप्पर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कोप्परं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्थूलं' संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप 'थोरं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'स' का लोप; १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; १-२५ से 'ल' का 'र'; ३-२५५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति, और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'थोरं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ताम्बूलं' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तम्बोल' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्तः 'म्' का अनुस्वार होकर 'तम्बोल' रूप सिद्ध हो जाता है।
गलोई शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०७ में की गई है।
'मूल्यं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मोल्लं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ' ; २-७८ से"य' का लोप; २-८९ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन नपुंसकलिंग में सि'
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
98 : प्राकृत व्याकरण
प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मोल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१२४||
स्थूणा-तूणे वा ।। १ -१२५।। अनयोरूत ओत्वं वा भवति। थोणा थूणा। तोणं तूण।। अर्थः- स्थूणा ओर तूण शब्दों में रहे हुए 'ऊ' का विकल्प से 'ओ' होता है। जैसे-स्थूणा-थोणा और थूणा। तूणम् तोणं और तूण।।
स्थूणा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप थोणा और थूणा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-१२५ से 'ऊ' का विकल्प से 'ओ' होकर थोणा और थूणा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तूणं संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप तोणं और तूणं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१२५ से 'ऊ' को विकल्प से 'ओ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तोणं' और 'तूणं रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१२५।।
ऋतोत्।। १-१२६॥ आदेकारस्य अत्वं भवति। घृतम्। घय।। तृणम्। तणं। कृतम्। कयं। वृषभः।। वसहो।। सृगः। मओ।। घृष्टः। घट्टो।। दृहाइअमिति कादिपाठात्।।
अर्थः- शब्द में रही हुई आदि 'ऋ' का 'अ' होता है। जैसे - घृतम् घयं।। तृणम्-तणं।। कृतम् कयं।। वृषभः वसहो मृगः=मओ।। घृष्टः-घटो।। द्विधा-कृतम् दुहाइअं इत्यादि शब्दों की सिद्धि कृपादि के समान अर्थात् सूत्र-संख्या १-१२८ के अनुसार जानना।
घृतम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घयं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१२६ से 'ऋ'का 'अ'; १-१७७ से "त' का लोपः १-१८० से शेष 'अ'का 'य': ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर घयं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'तुणम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तणं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कृतम्' संस्कृत अव्यय है इसका प्राकृत रूप कयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'कयं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'वृषभः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वसहो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृगः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मओ' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'घृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'घट्टो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
दुहाइअंशब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है।।१-१२७।।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा ।। १-१२७।।
एषु आर्ऋत आद् वा भवति ।। कासा किसा । माउक्कं मउअं । माउक्कं मउत्तणं ।।
अर्थः- कृशा, मृदुक और मृदुत्वः इन शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' का विकल्प से 'आ' होता है। जैसे- कृशा - कासा और किसा।। मृदुकम्=माउक्कं और मउअं ' मृदुत्वम् - माउक्कं और मउत्तणं ।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 99
'कृशा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कासा' और 'किसा' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ९ - १२७ से 'ऋ' का विकल्प से 'आ'; १ - २६० से 'श' का 'स' होकर प्रथम रूप कासा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या १ - १२८ से 'ऋ' की 'इ' और शेष पूर्ववत् होकर 'किसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृदुकम्' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'माउक्क' और 'मउअं' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १२७ से 'ऋ' का विकल्प से 'आ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क्क; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन
नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउक्कं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या १- १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १ - १७७ 'द्' और 'क्' का लोप और शेष पूर्व रूपवत् होकर 'मउअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
मृदुत्वं संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'माउक्क' और 'मउत्तणं' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १२७ से 'ऋ' का 'आ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; २-२ से 'त्व' के स्थान पर विकल्प से 'क्' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'क्क'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउक्कं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र- संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; २ - १५४ से 'त्व' के स्थान पर विकल्प से 'तण' का आदेश और शेष पूर्ववत् होकर 'मउत्तणं' रूप सिद्ध
जाता है ।।१ - १२७।।
इत्कृपादौ।। १-१२८।।
I
कृपाइत्यादिषु शब्देषु आर्ऋत इत्वं भवति ।। किवा । हिययं । मिट्टं रसे एवं । अन्यत्र मट्ठ । दिट्ठ । दिट्ठी । सिट्ठ सिट्ठी गिट्टी गिण्ठी । पिच्छी । भिऊ। भिङ्गो । भिङ्गारो । सिङ्गारो । सिआलो । घिणा । घुसिणं । विद्ध- कई । समिद्धी । इद्धी । गिद्धी । किसो । किसाणू। किसरा । किच्छं । पिप्पं । किसिओ। निवो। किच्चा । किई । घिई । किवो । किविणो । किवाणं । विञ्चुओ। वित्तं । वित्ती हिअं । वाहित्तं । बिहिओ । विसी । इसी । विइण्हो । छिहा । सइ । उक्किटं । निसंसो॥ क्वचिन्न भवति। रिद्धी कृपा। हृदय। मृष्ट। दृष्ट। दृष्टि। सृष्ट। सृष्टि। गृष्टि । पृथ्वी। भृगु। भृङ्ग। भृङ्गार। शृङ्गार। मृगाल। घृणा । घुसृण । वृद्ध कवि । समृद्धि । ऋद्धि । गृद्धि । कृरा । कृशानु । कृसरा । कृछ । तृप्त । कृषित। नृप । कृत्या । कृति धृति । कृप । कृपण । कृपाण । वृश्चिक । वृत्त । वृत्ति । हृत । व्याहृत । वृहित । वृसी । ऋषि । वितृष्ण । स्पृहा । सकृत। उत्कृष्ट। नृशंस।।
अर्थः- कृपा आदि शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' की 'इ' होती है। जैसे- कृपा किवा । हृदयम् = हिययं । मृष्टम् = (रस वाचक अर्थ में ही) मिट्ठ। मृष्ठम् (रस से अतिरिक्त अर्थ में) मट्टं । दृष्टम् = विट्ठ। दृष्टि:- दिट्ठी | सृष्टम् = सिट्ठ| सृष्टि:- सिट्ठी | गृष्टिः = गिट्टी और गिण्ठी । पृथ्वी = पिच्छी । भृगुः - भिऊ । भृङ्गः भिङ्गो = भिङ्गो । भृङ्गारः - भिङ्गारो । श्रृङ्गारः - सिङ्गारो । श्रृगालः-सिआलो। घृणा=घिणा । घुसृणम् = घुसिणम् । वृद्ध कविः विद्ध-कई । समृद्धिः = समिद्धि। ऋद्धि- इद्धि । गृद्धिः - गिद्धी । कृशः-किसो। कृशानुः- किसाणू । कृसरा-किसरा । कृच्छम्-किच्छं=तृप्तम्-तिप्पं। कृषितः किसिओ। नृपः निवो। कृत्या=किच्चा। कृतिः=किई। घृतिः=घिई। कृपः - किवो । कृपणः = किविणो । कृपाणम्-किवाणं । वृश्चिक:- विञ्चुओ । वृत्तम् = वित्तं । वृत्तिः-वित्ती=हतम् = हिअं। व्याहृतम्-वाहित्तं। बृंहितः- बिहिओ। वृसी-विसी । ऋषि :- इसी । वितृष्णः - विइण्हो । स्पृहा = छिहा। सकृत्=सइ। उत्कृष्टम्=उक्किट्ठ । नृशंसः निसंसो। किसी किसी शब्द में ऋ की 'इ' नहीं भी होती है। जैसे- ऋद्धिः- रिद्धी।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
100 : प्राकृत व्याकरण
‘कृपा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किवा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से आदि 'ऋ' की 'इ'; और १-२३१ से 'प' का 'व' होकर 'किवा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'हृदयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हियय होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हिययं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मृष्टम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मिटुं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मिटुं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मृष्टम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मट्ट होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ में 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दिटुं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है।
'दृष्टि:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दिट्ठी' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ में 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ': २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठठ': २-९० से प्राप्त पर्व 'ठ' का 'ट':३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'दिट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
सृष्टम्ः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'सिटुं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ में 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सिटुं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'सृष्टि: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिट्ठी' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ में 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'सिट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'गृष्टि' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गिट्ठी' और 'गिण्ठी' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' का 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'गिट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; १-२६ से प्रथम आदि स्वर 'इ' के
गे आगम रूप अनस्वार की प्राप्तिः और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर 'गिण्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
"पृथ्वी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिच्छी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-१५ से 'थ्व' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' का 'च'; होकर पिच्छी रूप सिद्ध हो जाता है।
भृगुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भिऊ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर भिऊ रूप सिद्ध हो जाता है। • 'भृगः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिङ्गो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; ३-२ से
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 101 प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भिङ्गो रूप सिद्ध हो जाता है।
'शृंगारः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिङ्गारो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिङ्गो रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रृंगारः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिङ्गारो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श्' का 'स्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर स्वर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिङ्गारो रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रृंगालः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिआलो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श्' का 'स्' और १-१७७ से 'ग्' का लोप, और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिआलो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'घृणा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घिणा' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; होकर "घिणा' रूप सिद्ध हो जाता है। __'घुसणं' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घुसिणं' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'घुसिणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
वृद्ध-कविः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विद्धकई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से 'व्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर विद्धकई रूप सिद्ध हो जाता है।
समिद्धिः शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है।
ऋद्धिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप इद्धी हो जाता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर इद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ गृद्धि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गिद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर गिद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। __कृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप किसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श्' का 'स'; और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसो रूप सिद्ध हो जाता है। __ कृशानुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किसाणु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसाणू रूप सिद्ध हो जाता है। __ कृसरा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किसरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; होकर किसरा रूप सिद्ध हो जाता है।
कृछम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किच्छं होता है। इसमें संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-७९ से अन्त्य
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
102 : प्राकृत व्याकरण
'र' का लोप; २-८९ से शेष 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर किच्छं रूप सिद्ध हो जाता है।
तृप्तं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तिप्पं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की इ; २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से शेष 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर तिप्पं रूप सिद्ध हो जाता है।
कृषितः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप किसिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स्'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसिओ रूप सिद्ध हो जाता है।
नृपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' १-२३१ से 'प' का 'व'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निवो रूप सिद्ध हो जाता है।
कृत्या स्त्रीलिंग शब्द है। इसका प्राकृत रूप किच्चा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'ऋ' की 'ई'; २-१३ से 'त्य' का 'च' और २-८९ से प्राप्त 'च' का द्वित्व'च्च' होकर किच्चा रूप सिद्ध हो जाता है।
कृतिः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप किई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' १-१७७ से 'त' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर किई रूप सिद्ध हो जाता है।
धृतिः संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप धिई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ'की 'इ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर धिई रूप सिद्ध हो जाता है।
कृपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-२३१ से प्' का 'व्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर 'किवो' रूप सिद्ध हो जाता है।
किविणो शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४६ में की गई है।
कृपाणम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किवाणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-२३१ से 'प्' का 'व्' ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुसार होकर किवाणं रूप सिद्ध हो जाता हैं।
वश्चिकः संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप विञ्चुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ'की 'इ': २-१६ से स्वर सहित 'श्चि' के स्थान पर 'ञ्चुका ओदश; १-१७७ से क् का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विञ्चुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
वृत्तम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वित्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'ई'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वित्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
वृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वित्ती होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' ३-१९ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर वित्ती रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 103 वृत्तम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप हिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हिअंरूप सिद्ध हो जाता है। _ व्याहतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वाहित्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-८९ से 'त्' का द्वित्व 'त्त'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वाहित्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
बृहितः संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप बिहिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिहिओ रूप सिद्ध हो जाता है।
बृसी संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप विसी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ' होकर विसी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ ऋषिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप इसी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'ए' का 'स्' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'इ' का दीर्घ स्वर ई होकर इसी रूप सिद्ध हो जाता है।
वितृष्णः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप विइण्हा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-७५ से ‘ण्ण' का ‘ण्ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विइण्हो रूप सिद्ध हो जाता है।
स्पृहा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छिहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२३ से 'स्प्' का 'छ्' और १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; होकर छिहा रूप सिद्ध हो जाता है।
सकृत संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप सइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१७७ से 'क्' का लोप; १–१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर सइ रूप सिद्ध हो जाता है। . उत्कृष्टम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप उक्किटुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से 'क्' का द्वित्व क्क्'; २-३४ से 'ष्ट्' का 'ठ्';२-८९ से प्राप्त 'ठ्' का द्वित्व 'ठ'; २-६० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उक्किटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
नृशंसः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निसंसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निसंसो रूप सिद्ध हो जाता है।
ऋद्धिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रिद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४० से 'ऋ' की 'रि'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर रिद्धी रूप सिद्ध हो जाता है।। १-१२८।।
पृष्ठे वानुत्तरपदे ।। १-१२९ ।। पृष्ठ शब्देऽनुत्तर पदे ऋत इद् भवति वा॥ पिट्ठी पट्ठी।। पिट्ठि परिढुविध। अनुत्तर पद इति किम्। महिवटुं।।
अर्थ-यदि पृष्ठ शब्द किसी अन्य शब्द के अन्त में नहीं जुडा हुआ हो; अर्थात् स्वतंत्र रूप से रहा हुआ हो अथवा संयुक्त शब्द में आदि रूप से रहा हुआ हो तो 'पृष्ठ' शब्द में रही हुई 'ऋ' की 'इ' विकल्प से होती है। जैसे-पृष्ठिः पिट्ठी
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
104 : प्राकृत व्याकरण
और पट्टी। पृष्ठ-परिस्थापितम् पिट्टि परिदृवि सूत्र में अनुत्तर पद' ऐसा क्यों लिखा गया है? उत्तर-यदि 'पृष्ठ' शब्द आदि में नहीं होकर किसी अन्य शब्द के साथ में पीछे जुडा हुआ होगा तो पृष्ठ शब्द में रही हुई 'ऋ' की 'इ' नहीं होगी। जैसे-मही-पृष्ठम् महिवट्ठ।। यहाँ पर 'ऋ' की 'इ' नहीं होकर 'अ हुआ है।।
पिट्ठी शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है।
पृष्ठिः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पट्टी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पृष्ठ-परिस्थापितम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पिट्ठि-परिटुविअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; १-४६ से प्राप्त
की 'इ':४-१६ से 'स्था' धात के स्थान पर 'ठा' का आदेश: १-६७ से 'ठा' में रहे हए'आ' का 'अ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; १-२३१ से 'प्' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिट्ठि-परिट्ठविअंरूप सिद्ध हो जाता है।
महीपृष्ठम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महिवटुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-४ से 'ई' की 'इ'; १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-२३१ से 'प्' का ''; २-३४ से 'ष्ठ' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर महिवटुं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१२९||
मसूण-मृगाङ्क-मृत्यु-श्रृंग-धृष्टे वा ।। १-१३०॥ एषु ऋत इद् वा भवति।। मसिणं मसण। मिअङ्को मयङ्को। मिच्चू। मच्चू। सिंङ्ग संग। धिट्ठो।। धट्ठो।
अर्थः-मसृण, मृगांङ्ग, मृत्यु, श्रृंङ्ग, और धृष्ट; इन शब्दों में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से 'इ' होती है। तदनुसार प्रथम रूप में तो 'ऋ' की 'इ' और द्वितीय वैकल्पिक रूप में 'ऋ' का 'अ' होता है। जैसे-मसृणम्=मसिणं और मसणं। मृगांङ्क-मिअङ्को और मयङ्को।। मृत्युः मिच्चू और मच्चू।। श्रृङ्गम्=सिंङ्ग और सङ्ग।। धृष्ट-धिट्टो और धट्ठो।। ___ मसृणम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रुप मसिणं और मसणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से'ई और १-१२६ से'ऋ का अ:३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपसंकलिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर म प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर क्रम से मसिणं और मसणं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
मृगांकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मिअङ्को और मयको होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-८४ से शेष 'आ' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मिअङ्को सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-८४ से शेष 'आ' का 'अ'; १-१८० से प्राप्त 'अका 'य' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयको रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मृत्युः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप मिच्चू और मच्चू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई'; २-१३ से 'त्य' के स्थान पर 'च्' का आदेश; २-८९ से आदेश प्राप्त 'च' का द्वित्व'च्च'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर मिच्चू रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; और शेष साधनिका प्रथम रूपवत् होकर मच्चू रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 105 श्रृंगं संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिङ्गं और सङ्गं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई; और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-२६० से 'श्' का 'स्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सिङ्गं और सङ्गरूप सिद्ध हो जाते हैं।
धृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप धिटो और धट्टा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३० से 'ऋ की विकल्प से 'ई'; और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से धिट्ठो और धट्टा सिद्ध हो जाते है।।१-१३०।।
उदृत्वादौ ।। १-१३१ ।। ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आदेत उद् भवति।। उऊ। परामुट्ठो। पुट्ठो। पउट्ठो। पुहई। पउत्ती। पाउसो पाउओ। भुई। पहुडि। पाहुडं। परहुओ। निहुआ निउ। विउ संवुआ वुत्तन्तो। निव्वुआ निव्वुई। वुन्दं। वुन्दावणो। वुड्डो। वुड्डी। उसहो। मुणालं। उज्जू। जामाउओ। माउओ। माउआ। भाउओ। पिउओ। पुहुवी।। ऋतु। परासृष्ट। स्पृष्ट। प्रवृष्ट। पृथिवी। प्रवृति। प्रावृष्। प्रावृत। भृति। प्रभृति। प्राभृत। परभृत। निभृत। निवृत। विवृत। संवृत। वृत्तान्त निर्वृत। निर्वृति। वृन्द। वृन्दावन। वृद्ध। वृद्धि। ऋषभ। मृणाल। ऋजु। जामातृक। मातृक। मातृका। भ्रातृका। पितृक। पृथ्वी। इत्यादि।। ___ अर्थः-ऋतु इत्यादि शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' का 'उ' होता है। जैसे-ऋतुः उऊ। परामृष्ट:=परामुट्ठो। स्पृष्ट:=पुट्ठो। प्रवृष्टः-पउट्ठो। पृथिवी-पुहई । प्रवृतिः पउती। प्रावृष्= (प्रावृट्)-पाउसो। प्रावृतः पाउओ। भृतिः-भुई। प्रभृति-पहुडि। प्राभृतम् पाहुडं। परभृतः परहुओ। निभृतम् निहुआ निवृतम् निउआ विवृतम् विउ संवृतम् संवुआ वृत्तान्तः वुत्तन्तो। निर्वृत्तम निव्वुनिर्वृतिः निव्वुई। वृन्दम् वुन्दं। वृन्दावनो वुन्दावणो। वृद्धः वुड्डो। वृद्धिः=वुड्डी। ऋषभः-उसहो। मृणालम्=मुणाल। ऋजुः=उज्जू। जामातृकः-जामाउओ। मातृक: माउओ। मातृका-माउआ। भ्रातृकः भाउओ। पितृकः पिउट्ठो। पृथ्वी-पुहुवी। इत्यादि इन ऋतु आदि शब्दों में आदि 'ऋ' का 'उ' होता है; ऐसा जानना।
ऋतुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-१७७ से त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर उऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
परामृष्ट: संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप परामुटो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से'ऋ का 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परामुट्ठो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
स्पृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पुटो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से आदि 'स्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रवृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पउट्ठो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से '' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है।
पुहई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
106 : प्राकृत व्याकरण
'-..
०२१म
प्रवृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पउत्ती होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई होकर पउत्ती रूप सिद्ध हो जाता है।
पाउसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१९ में की गई है।
प्रावृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पाउओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'व्' और 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
भृतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भुई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर भुई रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रभृति संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप पहुडि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ्' का 'ह'; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; और १-२०६ से 'त्' का 'ड्' होकर पहुडि रूप सिद्ध हो जाता है।
प्राभृतं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पाहुडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १
' का': और १-२०६ से 'त'का 'ड':३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय क स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पाहुडं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पर भृतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप परहुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ्' का 'ह'; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परहुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
निभृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निहुअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निहुअंरूप सिद्ध हो जाता है।
निवृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निउअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व्' और 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निउअंरूप सिद्ध हो जाता है।
विवृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप विउअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' और 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विउअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ संवृतं संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप संवुअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति;
और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संवुअंरूप सिद्ध हो जाता है। __वृत्तांतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वृत्तन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; १-८४ से 'आ' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वृत्तन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्वृतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निव्वुअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ का 'उ'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'व्' का द्वित्व'व्व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 107 में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से निव्वअं रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्वृतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निव्वुई होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'व्' का द्वित्व 'व्व' ; १ - १७७ से 'त्' का लोप; और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर निव्वुई रूप सिद्ध हो जाता है।
वृन्दं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वुन्दं होता है । इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वुन्दं रूप सिद्ध हो जाता है।
वृन्दावनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वृन्दावणा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; १- १२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वृन्दावणो रूप सिद्ध हो जाता है।
वृद्धः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वुड्ढो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ'; २-४० से 'द्ध' का 'ढ'; २-८९ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'ढ्ढ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द्' का 'ड्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वुड्ढो रूप सिद्ध हो जाता है।
वृद्धिः का प्राकृत रूप वुड्ढी होता है। इसमें सूत्र- संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ'; २- ४० से संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' का 'ढ'; २-८९ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'ढ्ढ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द्' का 'ड्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर वुड्ढी रूप सिद्ध हो जाता है।
ऋषभः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उसहा होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; १ - २६० से 'ष' का 'स'; १ - १८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उसहो रूप सिद्ध हो जाता है।
मृणालं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणालं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुणालं रूप सिद्ध हो जाता है।
ऋजुः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप उज्जू होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; २-९८ से 'ज्' का द्वित्व 'ज्ज'; और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर उज्जू रूप सिद्ध हो जाता है।
मातृकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जामाउओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ' ; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामाउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
मातृकः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप माउओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' और 'क्' का लोप १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
मातृका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउआ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'तू' और 'क्' का लोप; और १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' होकर माउआ रूप सिद्ध हो जाता है।
भ्रातृकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भाउओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १७७ से
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
108 : प्राकृत व्याकरण
'त्' और 'क्' का लोप; १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भाउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ' ; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिउओ रूप सिद्ध हो जाता है।
पृथ्वी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुहुवी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३१ से 'ऋ' का 'उ' ; २-११३ से अन्त्य व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में 'उ' की प्राप्ति; १ - १९८७ से 'थ्' का 'ह' होकर पुहुवी रूप सिद्ध हो जाता है ।।१ - १३१ ।। निवृत्त - वृन्दारके वा ।। १-१३२।।
अनयोर्ऋत उद् वा भवति ।। निवुत्तं निअतं । वुन्दारया वन्दारया ।।
अर्थः- निवृत्त और वृन्दारक इन दानों शब्दों में रही हुई 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे निवृत्तम् = निवुत्तं अथवा निअत्तं । वृन्दारकाः = वुन्दारया अथवा वन्दारया ।।
निवृत्तम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप निवुत्तं और निअत्तं होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र- संख्या १-१३२ 'ऋ' का विकल्प से 'उ'; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निवुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'व्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर निअत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
वृन्दारकाः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप वुन्दारया और वन्दारया होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-१३२ 'ऋ' का विकल्प से 'उ'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' का 'य'; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और प्राप्त प्रत्यय का लोप ; तथा ३ - १२ से अन्त्य स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर वुन्दारया रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर वन्दारया रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-१३२ ॥
वृषभे वा वा ।। १-१३३।। वृषभे ऋतो वेन सह उद् वा भवति ।। उसहो वसहो ।।
अर्थः- वृषभ शब्द में रहीं हुई 'ऋ' का विकल्प से 'व्' के साथ 'उ' होता है। अर्थात् 'व्' व्यञ्जन सहित 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे - वृषभ:-उसहो और वसहो। इस प्रकार विकल्प पक्ष होने से प्रथम रूप में 'वृ' का 'उ' हुआ है और द्वितीय रूप में केवल 'ऋ' का 'अ' हुआ है। उसहो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १३१ में की गई है। वसा रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- १२६ में की गई है । । १ - १३३ ।।
गौणान्त्यस्य ।।१-१३४॥
गौण शब्दस्य योन्त्य ऋत् तस्य उद् भवति ।। माउ - मण्डलं । माउ - हरं । पिउ - हरं । माउ- सिआ । पिउ - सिआ । पिउ - वणं । पिउ - वई ॥
अर्थः-दो अथवा अधिक शब्दों से निर्मित संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए शब्द के अन्त में यदि 'ऋ' हो तो उस 'ऋ' का 'उ' होता है। जैसे - मातृ - मण्डलम् - माउ - मण्डलं । मातृ - गृहम् = माउ - हरम् । पितृ-गृहम्-पिउ-हरं । मातृ-ष्वसा=माउ-सिआ। पितृष्वसा पिउ- सिआ । पितृ-वनम् पिउ वणं । पितृ-पतिः = पिउ-वई ।।
मातृ-मण्डलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउ-मण्डलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्'
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 109
प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउ-मण्डलं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मातृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउ-हरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से त् का लोप; १-१३४ से आदि 'ऋ'का 'उ'; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' का आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर माऊहर रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-हरं होता है। इसकी साधनिका ऊपर वर्णित 'मातृ-गृहम् माउ-हर रूप के समान ही जानना।
मातृ-ष्वसा संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप माउ-सिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ';२-१४२ से 'ष्वसा' शब्द के स्थान पर 'सिआ' का आदेश लेकर 'माउसिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृ-ष्वसा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-सिआ होता है। इनकी साधानिका उपर वर्णित मातृ ष्वसा=माउ-सिआ के समान ही जानना।
पितृ-वनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-वण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिउ-वणं रूप सिद्ध हो जाता है।
पितृ-पतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउ-वइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से दोनों 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का 'उ'; १-२३१ से 'प' का 'व'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पिउवई रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१३४।।
मातुरिद्वा ॥१-१३५।। मातृ शब्दस्य गौणस्य ऋत इद् वा भवति।। माइ-हरं। माउ-हरं। कचिदगौणस्यापि। माईण।।
अर्थः-किसी संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे मातृ-गृहम् माइ-हरं अथवा माउ-हरं।। कहीं कहीं पर गौण नहीं होने की स्थिति में भी 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की 'इ' हो जाती है। जैसे मातृणाम् माइण।।
मातृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप माइ-हरं और माउ-हरं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त् का लोप; १-१३५ से आदि 'ऋ' की विकल्प से 'इ'; और शेष 'हर की साधनिका सूत्र-संख्या १-१३४ में वर्णित 'हर' रूप के अनुसार जानना। द्वितीय रूप 'माउ-हरं' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३४ में की गई है। ___ मातृणाम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माइणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३५ से आदि 'ऋ' की 'इ'; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में स्त्रीलिंग में आम्' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से 'आम्' प्रत्यय अर्थात् 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होने के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' और १-२७ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय पर विकल्प से अनुस्वार की प्राप्ति होकर माईणं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१३५।।
उदूदोन्मृषि ॥१-१३६।। मृषा शब्दे ऋत उत् ऊत् औञ्च भवति।। मुसा।। मूसा मोसा। मुसा-वाओ। मूसा-वाओ। मोसा-वाओ।
अर्थः-मूषा शब्द में रही हुई 'ऋ' का 'उ' अथवा 'ऊ' अथवा 'ओ' होता है। जैसे-मृषा-मुसा अथवा मूसा अथवा मोसा। मृषा-वाद: मुसा-वाओ अथवा मूसा-वाओ अथवा मोसा-वाओ।।
मापुर
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
110 प्राकृत व्याकरण
मृषा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप क्रम से मुसा, मूसा और मोसा होता है। इनमें सूत्र - संख्या १ - १३६ से 'ऋ' का क्रम से 'उ' 'ऊ' और 'ओ' और १ - २६० से 'ष्' का 'स्' होकर क्रम से मुसा, मूसा और मोसा रूप सिद्ध हो जाता है।
मृषावादः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप मुसावाओ; मूसावाओ; और मोसा-वाओ होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १-१३६ से 'ऋ' के क्रम से और विकल्प 'उ'; 'ऊ' और 'ओ' १ - २६० से 'ष्' का 'स्'; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से और विकल्प से मुसावाओ, मूसावाओ और मोसा-वाओ रुप सिद्ध हो जाते हैं ॥१- १३६ ।। इदुतौवृष्ट- वृष्टि - पृथङ् मृदंग - नप्तृके
।। १ - १३७ ।।
एषु ऋत इकारोकारौ भवतः । विट्ठो वुट्टो । विट्ठी वुट्टी | पिहं पुहं मिहंगो मुइंगो । नत्तिओ नत्तुओ ।। अर्थः-वृष्ट, वृष्टिः पृथक; मृदंग और नप्तृक में रही हुई 'ऋ' की 'इ' और 'उ' क्रम से होते हैं। जैसे:- वृष्टः - विट्टो और वुट्टो | वृष्टिः- विट्ठी और वुट्टी | पृथक् = पिहं और पुहं । मृदंड्गः = मिइंगो और मुइंगो । नप्तृकः - नत्तिओ और नत्तुओ ||
वृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रुप विट्टो और वुट्टो होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १- १३७ से 'ऋ' की विकल्प से अथवा क्रम से 'इ' और 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विट्ठो और वुट्ठो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
वृष्टिः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रुप विट्ठी और वुट्टी होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १३७ से 'ऋ' की विकल्प से अथवा क्रम से 'इ' और 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २-९० प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्' और प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर विट्ठी और वुट्ठी रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पिहं अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २४ में की गई है।
पृथक् संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप पुह होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१३७ से 'ऋ' का 'उ'; १-१८७ से 'थ' का'ह'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'क्' का लोप और १-२४ से आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर पुहं रूप सिद्ध होता है।
मुङ्गा रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-४६ में की गई है।
मृदंग: संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रुप मिइङ्गो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३७ से 'ऋ' की 'इ'; १ - १७७ से 'द्' का लोप; १ - ४६ से शेष 'अ' की 'इ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मिइंगो' रूप सिद्ध हो जाता है।
नप्तृकः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रुप नत्तिओ और नत्तुओ होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'प्' का लोप; १-१३७ से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; २-८९ से 'त्' का द्वित्व 'त्त'; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से नत्तिओ एवं नत्तुओ रूप सिद्ध हो जाते हैं । ।१ - १३७ ।।
वा बृहस्पतौ ।। १-१३८ ।। बृहस्पति शब्दे ऋत इदुतौ वा भवतः । बिहप्फई बुहप्फई। पक्षे बहप्फई |
अर्थ:- बृहस्पति शब्द में रही हुई 'ऋ'' 'विकल्प से एवं क्रम से 'इ' और 'उ' होते हैं। जैसे- बृहस्पतिः - बिहप्फई और बुहप्फई। पक्ष में बहप्फई भी होता है।
बृहस्पतिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बिहप्फई, बुहप्फई और बहप्फई होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १३८
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 111
से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; तथा पक्ष में १-१२३ से 'ऋ' का 'अ'; २-५३ से 'स्प' का 'फ' २-८९ से प्राप्त 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पुर्व 'फ्का 'प्'; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर क्रम से बिहप्फई; बुहप्फई और पक्ष में वैकल्पिक रूप से बहप्फई रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१३८।।
इदेदोद्वन्ते ॥ १-१३९ ॥ वृन्त शब्दे ऋत इत् एत् ओच्च भवन्ति। विष्टं वेण्टं वोण्टं।। __ अर्थः-वृन्त शब्द में रही हुई 'ऋ' की 'इ'; 'ए'; और 'ओ' क्रम से एवं विकल्प से होते हैं। जैसे वृन्तम्-विण्टं, वेण्टं अथवा वोण्टं।
वृन्तम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप विण्ट, वेण्टं और वोण्टं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१३९ से 'ऋ' की क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'इ' 'ए' और 'ओ'; २-३१ से संयुक्त 'न्त' का ‘ण्ट'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से विण्टं, वेण्टं और वोण्ट रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१३९।।
रिः केवलस्य ॥ १-१४०।। केवलस्य व्यञ्जने नासंपृक्तस्य ऋतो रिरादेशो भवति॥ रिद्धी। रिच्छो।।
अर्थः-किसी भी शब्द में यदि 'ऋ' किसी अन्य व्यञ्जन के साथ जुडी हुई नहीं हो, अर्थात् स्वतंत्र रूप से रही हुई हो तो उस 'ऋ' के स्थान पर 'रि' का आदेश होता है। जैसे-ऋद्धिः-रिद्धी। ऋक्षः रिच्छो।।
रिद्धी शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८ में की गई है।
ऋक्षः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रिच्छो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४० से 'ऋ' की 'रि'; २-१९ से 'क्ष' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च' और २-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिच्छो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४०।।
ऋणर्वृषभत्वृषौ वा ।। १-१४१ ।। ऋण ऋजु ऋषभऋतु ऋषिषु ऋतो रिर्वा भवति।। रिणं अण। रिज्जू उज्जू रिसहो उसहो। रिऊ उऊ। रिसी इसी।
अर्थः-ऋण; ऋजु, ऋषभ; ऋतु और ऋषि शब्दों में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से 'रि' होती है। जैसे-ऋणम्-रिणं अथवा अणं। ऋजुः-रिज्जू अथवा अज्जू। ऋषभः-रिसहो अथवा उसहो। ऋतुः-रिऊ अथवा उऊ। ऋषिः-रिसी अथवा इसी।।
ऋणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रिणं अथवा अणं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रिणं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप अणं में सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ' और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् जानना।
ऋजुः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप रिज्जू अथवा उज्जू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; २-८९ से 'ज्' का द्वित्व 'ज्ज्' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर रिज्जू रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; शेष साधनिका प्रथम रूपवत् जानना।
ऋषभः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रिसहो अथवा उसहो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-४१ से 'ऋ' की
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
112 : प्राकृत व्याकरण
विकल्प से 'रि'; १-२६० से 'ष' का 'स'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिसहो रूप सिद्ध हो जाता है।
उसहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३१ में की गई है।
ऋतुः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप रिऊ और उऊ होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; १-७७ से 'त्' का लोप; और ३-१८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में अथवा स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर रिऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
उऊ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३१ में की गई है।
ऋषिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रिसी और इसी होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; १-६० से 'ष' का 'स्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' रिसी रूप सिद्ध हो जाता है। इसी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८ में की गई है।।१-१४१।।
दृशः क्विप्-टक-सकः ॥ १-१४२ ।। क्किप् टव् सक् इत्येतदन्तस्य दृशे र्धातो ऋतो रिरादेशो भवति॥ सदृक् सरिवण्णो। सरि-रूवो। सरि-बन्दीण।। सदृशः। सरिसो। सदृक्षः। सरिच्छो॥ एवम् एआरिसो। भवारिसो। जारिसो। तारिसो। केरिसो। एरिसो। अन्नारिसो। अम्हारिसो। तुम्हारिसो।। टक्सक्साह-चर्यात् त्यदाद्यन्यादि {हे ०५-१} सूत्र-विहितः क्किबिह गृह्यते।।
अर्थः-यदि दृश् धातु में 'क्विप्', 'टक्', और 'सक्' कृदन्त प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय लगा हुआ हो तो 'द्दश्' धातु में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'रि' का आदेश होता है। जैसे-सदृक्-सरि।। सदृश्-वर्ण:-सरि-वण्णो। सदृश्-रूपः सरि-रूवो। सदृश्-बन्दीनाम्-सरि-वन्दीण।। सदृशः सरिसो।। सदृक्षः सरिच्छो।। इसी प्रकार से अन्य उदाहरण यों है:-एतादृशः=एआरिसो। भवादृशः भवारिसो। यादृशः जारिसो। तादृशः तारिसो। कीदृशः केरिसो। इदृशः=एरिसो। अन्यादृशः अन्नारिसो। अस्मादृशः अम्हारिसो। युष्मादृशः-तुम्हारिसो।। इस सूत्र में 'टक्' और 'सक्' प्रत्ययों के साथ 'क्विप्' प्रत्यय का उल्लेख किया गया है; इस पर से यह समझा जाना चाहिये कि इस सत्र को 'त्यदाद्यन्यादि' (हे ५-१-१५२) सूत्र के साथ मिलाकर पढना चाहिये। जिसका तात्पर्य यह है कि 'तत्' आदि सर्वनामों के रूपों के साथ में यदि दृश् धातु रही हुई हो और उस स्थिति में 'दृश्' धातु में क्विप् प्रत्यय लगा हुआ हो तो 'दृश्' धातु की 'ऋ' के स्थान पर 'रि' का आदेश होता है। ऐसा तात्पर्य समझना।
सदृक् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सरि होता है। इसमे सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि' और १-११ से 'क्' का लोप होकर सरि रूप सिद्ध हो जाता है।
वर्णः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वण्णो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वण्णो रूप सिद्ध हो जाता है।
सद्दक् रुप संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप सरिरुवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' और 'क्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिरुवो रुप सिद्ध हो जाता हैं।
सदृक्-बन्दीनाम् संस्कृत रुप हैं। इसका प्राकृत रुप सरि बन्दीणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' और 'क्' का लोप; १-४२ से 'ऋ' की 'रि'; बन्दीनाम् का मूल शब्द 'बन्दिन्' (चारण-गायक) (न कि बन्दी याने कैदी) होने से सूत्र-संख्या १-११ से 'न्' का लोप; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'आम्' के स्थान् पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त 'ण' के पूर्व हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; और १-२७ से प्राप्त 'ण' पर आगम रुप अनुस्वार की प्राप्ति होकर सरि-बन्दीणं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 113
सदृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप सरिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिसो रुप सिद्ध हो जाता है।
सरिच्छो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है।
एतादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप एआरिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' और 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एआरिसो रुप सिद्ध हो जाता हैं। ___ भवादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप भवारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भवारिसो रुप सिद्ध हो जाता है।
यादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप जारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज्'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जारिसो रुप सिद्ध हो जाता हैं।
तादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप तारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तारिसो रुप सिद्ध हो जाता है।
केरिसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०५ में की गई है। एरिसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०५ में की गई है।
अन्यादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप अन्नारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से 'न्' का द्वित्व 'न्'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्नारिसो रुप सिद्ध हो जाता है।
अस्मादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप अम्हारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७४ से 'स्म्' के स्थान पर 'म्ह का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अम्हारिसो रुप सिद्ध हो जाता है।
युष्मादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप तुम्हारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४६ से 'य' के स्थान पर 'त्' का आदेश; २-७४ से 'ष्म्' के स्थान पर 'म्ह' का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुम्हारिसो रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१४२।।
आदृते ढिः ।। १-१४३।। आदृत शब्दे ऋतो ढिरादेशो भवति ।। आढिओ।। अर्थः-आदृत शब्द में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'ढि' आदेश होता है। जैसे-आदृतः का आढिओ।।
आदृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप आढिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४३ से 'ऋ' की 'ढि'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आढिआ रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१४३
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
114 : प्राकृत व्याकरण
अरिर्दृप्ते ।। १-१४४ ।।
दृप्त शब्दे ऋतो रिरादेशो भवति ।। दरिओ । दरिअ - सीहेण ।। अर्थः- दृप्त शब्द में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'अरि' आदेश होता है।
दृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप दरिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४४ से 'ऋ' के स्थान पर 'अरि' का आदेश; २-७७ से 'प्' का लोप; १ - १७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दरिओ रुप सिद्ध हो जाता हैं।
दृप्त-सिंहेन संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप दरिअ - सीहेण होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४४ से 'ऋ' के स्थान पर ‘अरि' का आदेश; २- ७७ से 'प्' का लोप; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - ९२ से ह्रस्व 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२९ से अनुस्वार का लोप; ३ - ६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति; और ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'ह' के 'अ' को 'ए' होकर 'दरिअ - सीहेण' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४४।
लृत इलि: क्लृप्त केलृन्ने ।। १-१४५ ।।
अनयार्तृत इलिरादेशो भवति ।। किलिन्न- कुसुमोवयारेसु।। धारा किलिन्न-वतं।।
अर्थः- क्लृप्त और क्लृन्न इन दोनों शब्दों में रही हुई 'लू' के स्थान पर 'इलि' का आदेश होता है। जैसे- क्लृप्त-कुसुमोपचारेषु-किलित-कुसुमोवयारेसु ।। धारा-क्लृन्न-पात्रम्-धारा-किलिन्न-वर्त्त ।।
क्लृप्त - कुसुमोपचारेषु संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किलित्त - कुसुमोवयारेसु होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४५ से 'लू' के स्थान पर 'इलि' का आदेश; २- ७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से 'त्' का द्वित्व 'त्त'; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से' च्' का लोप; १ - १८० से शेष 'आ' का 'या' ; १ - २६० से ' ष्' का 'स्' और ३- १५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त 'सु' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'र' के 'अ' का 'ए' होकर किलित्त - कुसुमोवयारेसु रूप सिद्ध हो जाता है।
धारा-क्लृन्न-पात्रम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धारा- किलिन्न-वत्तं होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१४५ से 'लृ' के स्थान पर 'इलि' का आदेश; १ - २३१ से 'प' का 'व'; १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ शेष ‘त्' का द्वित्व ‘त्त'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर धारा- किलिन्न-वत्तं रूप सिद्ध हो जाता है । । १ - १४५ ।। एतइद्वा वेदना-चपेटा - देवर - केसरे ।। १-१४६ ।।
वेदनादिषु एतइत्त्वं वा भवति ।। विअणा वेअणा । चविडा । विअडचवेडा विणोआ । दिअरो देवरो ।। मह महिअ दसण - किसरं । केसरं । । महिला महेला इति तु महिला महेलाभ्यां शब्दाभ्यां सिद्धम् ॥
अर्थः- वेदना, चपेटा, देवर, और केसर; इन शब्दों में रही हुई 'ए' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे- वेदना-विअणा और वेअणा || चपेटा = चविडा । । विकट - चपेटा - विनोदा- विअड-चवेडा विणोआ ।। देवरः = दिअरो और देवरो ।। मह महित - दशन केसरम् = मह महिअ - दसण - किसरं ।। अथवा केसरं । । महिला और महेला इन दोनों शब्दों की सिद्धि क्रम से महिला और महेला शब्दों से ही जानना । इसका तात्पर्य यह है कि 'महेला' शब्द में रही हुई 'ए' की 'इ' नहीं होती है। दोनों ही शब्दों की सत्ता पारस्परिक रूप से स्वतंत्र ही है।
वेदना संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप विअणा और वेअणा होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १- २२८ से 'न' का 'ण' होकर क्रम से विअणा और वेअणा रूप सिद्ध हो जाते हैं। चपेटा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चविडा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४६ से 'ए' का विकल्प से 'इ'; १-२३१ से ‘प्' का 'व्'; और १ - १९५ से 'ट्' का 'ड्' होकर चविडा रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 115
विकट-चपेटा विनोदा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विअड-चवेडा-विणोआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१९५ से 'ट्' का 'ड्'; १-२३१ से 'प्' का 'व्'; १-१९५ से 'ड' का 'द्'; १-२२८ से 'न' का 'ण' और १-१७७ से 'द्' का लोप होकर विअड-चवेडा-विणोआ रूप सिद्ध हो जाता है।
देवरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप दिअरो और देवरो होते है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; १-१७७ से 'व' का विकल्प से लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दिअरो और देवरो रुप सिद्ध हो जाते हैं।
मह महित संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप मह महिअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप होकर मह महिअ रूप सिद्ध हो जाता है। __ दशन संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दसण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; और १-२८ से 'न' का 'ण' होकर दसण रूप सिद्ध हो जाता है। ___ केसरम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप किसरं और केसरं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-१४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर क्रम से किसरं और केसरं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
महिला संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत रूप महिला ही होता है। इसी प्रकार से महेला भी संस्कृत शब्द है और इसका प्राकृत रूप भी महेला होता है। अतएव इन शब्दों में 'ए' का 'इ' होना आवश्यक नहीं है।।१-१४६।।
ऊः स्तेने वा ।। १-१४७ ।। स्तेने एत ऊद् वा भवति।। थूणो थेणो। अर्थः- स्तेन' शब्द में रहे हुए 'ए' का विकल्प से 'ऊ' होता है। जैसे-स्तेनः-थूणो और थेणो।।
स्तेनः संस्कृत पुल्लिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप थूणो और थेणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-४५ से 'स्त' का 'थ'; १-१४७ से 'ए' का विकल्प से 'ऊ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से थूणो और थेणो रुप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१४७।।
ऐत एत् ।। १-१४८ ।। ऐकारस्यादौ वर्तमानस्य एत्त्वं भवति।। सेला। तेलोक्को एरावणो। केलासो। वेज्जो। केढवो। वेहव्व।।
अथः-यदि संस्कृत शब्द में आदि में 'ऐ' हो तो प्राकृत रूपान्तर में उस 'ऐ' का 'ए' हो जाता है। जैसे-शैलाः सेला। त्रैलोक्यम्=तेलोक्क। ऐरावणः एरावणो। कैलासः केलासो। वैद्यः वेज्जो। कैटभः केढवो। वैधव्यम् वेहव्व।। इत्यादि।।
शैलाः का प्राकृत रूप सेला होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; ३-४ प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप, और ३-१२ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' का 'आ' होकर सेला रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रैलोक्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तेलोक्क होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'क' का द्वित्व 'क'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर तेलोक्कं रूप सिद्ध हो जाता है।
ऐरावणः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एरावणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एरावणो रुप सिद्ध हो जाता है।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
116 : प्राकृत व्याकरण
कैलासः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप केलासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केलासो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैद्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; २-२४ से 'द्य' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेज्जो रुप सिद्ध हो जाता है। __कैटभः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप केढवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; १-१९६ से 'ट' का 'ढ'; १-४० से 'भ' का 'व'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केढवो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैधव्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेहव्वं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; १-८७ से 'ध' का 'ह'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'व' का द्वित्व 'व्व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वेहव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४८।।
इत्सैन्धव-शनैश्चरे ।। १-१४९ ।। एतयोरैत इत्वं भवति।। सिन्धवं। सणिच्छरो।।
अर्थः-सैन्धव और शनैश्चर इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' की 'इ' होती है। जैसे-सैन्धवम् सिन्धवं और शनैश्चरः सणिच्छरो।।
सैन्धवम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिन्धवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४९ से 'ऐ' का 'इ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सिन्धवं रूप सिद्ध हो जाता है।
शनैश्चरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप सणिच्छरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१४९ से 'ऐ' का 'इ'; २-२१ से 'श्च' का 'छ'; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सणिच्छरो रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१४९।।
सैन्ये वा ॥ १-१५०॥ सैन्य शब्दे ऐत इद् वा भवति।। सिन्नं सेन्न।। अर्थः-सैन्य शब्द में रही हुई 'ऐ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे-सैन्यम्-सिन्न।।
सैन्यम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिन्नं और सेन्नं होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-१५० से 'ऐ' की विकल्प से 'इ' और १-१४८ से 'ए' की 'ए'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सिन्नं और सेनं रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-१५०।।
अइदैत्यादौ च ॥ १-१५१ ।। सैन्य शब्दे दैत्य इत्येवमादिषु च ऐतो अइ इत्यादेशो भवति। एत्वापवादः।। सइन्न। दइचचो। दइन्न। अइसरिओ भइरवो। वइजवणो। दइव वइआली वइएसो वइएहो। वइदब्मो। वइस्साणरो। कइअवं। वइसाहो। वइसालो।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 117
सइरं। चइत।। दैत्या दैन्य। ऐश्वर्य। भैरव। वैजवन। दैवत। वैतालीय। वैदेश। वैदेह। वैदर्भ। वैश्वानर। केतवा वैशाख। वैशाल। स्वैर। चैत्य। इत्यादि। विश्लेषे न भवति। चैत्यम्। चेइ।। आर्षे। चैत्य वन्दनम्। ची-वन्दण। ___ अर्थः-सैन्य शब्द में और दैत्य, दैन्य, ऐश्वर्य, भैरव, वैजवन, दैवत, वैतालीय, वैदेह, वैदर्भ, वैश्वानर, कैतव, वैशाख, वैशाल, स्वैर, चैत्य इत्यादि शब्दों में रहे हुए 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' ऐसा आदेश होता है। यह सूत्र-संख्या १-१४८ का अपवाद है। जैसे-सैन्यम्-सइन्न। दैत्यः-दइच्चो। दैन्यम्=दइन्न। ऐश्वर्यम् अइसरि। भैरवः=भइरवो। वैजवनः वइजवणो। दैवतम्=दइवा वैतालीयम्=वइआली। वैदेशः वइएसो। वैदेहः-वइएहो। वैदर्भः वइदब्भो। वैश्वानरः-वइस्साणरो। कैतवम् कइअवं। वैशाखः-वइसाहो। वैशालः वइसालो। स्वैरम् सइरं। चैत्यम्-चइत्तं। इत्यादि।। जिस शब्द में संधि-विच्छेद करके शब्द को स्वरसंयुक्त कर दिया जाय; तो उस शब्द में रहे हुए 'ऐ' की 'अइ' नहीं होती है। जैसे-चैत्यम् चेइ यहां पर 'चैत्यम्' शब्द में संधि विच्छेद करके 'चेतियम्' बना दिया गया है; इसलिये 'चैत्यम्' में रहे हुए 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' आदेश नहीं करके सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' ही किया गया है। आर्ष-प्राकृत म'चत्य-वन्दनम् का 'ची-वन्दणं' भी होता है।।
सैन्यम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सन्नं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ के स्थान पर 'अइ का आदेश; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सइन्न रूप सिद्ध हो जाता है।
दैत्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दइच्चो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; २-१३ से 'त्य' का 'च'; २-८९ से प्राप्त 'च' का द्वित्व'च्च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दइच्चो रुप सिद्ध हो जाता है।
दैन्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दइन्नं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१५१ से 'ऐ के स्थान पर 'अई' का आदेश; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर दइन्नं रूप सिद्ध हो जाता है।
ऐश्वर्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अइसरिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; २-७९ से 'व्' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; २-१०७ से 'र' में 'इ' का आगम; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर अइसरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
भैरवः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भइरवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भइरवो रुप सिद्ध हो जाता हैं।
वैजवनः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वइजवणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइजवणो रुप सिद्ध हो जाता हैं।
दैवतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दइवअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर दइवरूप सिद्ध हो जाता है।
वैतालीयम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वइआलीअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अई का आदेश; १-१७७ से 'त्' और 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वइआलीअंरूप सिद्ध हो जाता है।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
118 : प्राकृत व्याकरण __ वैदेशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वइएसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइएसो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैदेहः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वइएहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइएहो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैदर्भः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप वइदब्भो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ का आदेश; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से प्राप्त 'भ' का द्वित्व 'भ्भ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'भ्' का 'ब'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइदब्भो रुप सिद्ध हो जाता है।
वैश्वानरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप वइस्साणरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अड' का आदेश: २-७९ से'व' का लोप: १-२६० से 'श'का 'स':२-८९ से प्राप्त 'सका द्वित्व'स्स': १-२२८ से'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइस्साणरो रुप सिद्ध हो जाता है।
कैतवम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कइअवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर कइअवं रूप सिद्ध हो जाता है। __वैशाखः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप वइसाहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐं के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइसाहो रुप सिद्ध हो जाता है। - वैशालः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप वइसालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; १-२६० से प्राप्त पूर्व 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइसालो रुप सिद्ध हो जाता है।
स्वैरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सइरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व' का लोप; १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सइरं रूप सिद्ध हो जाता है।
चैत्यम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चइत्तं और चेइअं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् प्रत्यय का अनुस्वार होकर चइत्तं प्रथम रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (चेइ) में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ए'; २-१०७ से 'य' के पूर्व में 'इ' का आगम; १-१७७ से 'त्' और 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर चेइअं रूप सिद्ध हो जाता है।
चैत्य वन्दनम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में ची-वन्दणं रूप भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५१ की वृत्ति से आर्ष-दृष्टि से 'चैत्य' के स्थान पर 'ची' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर ची-वन्दणं आर्ष-रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१५१।।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैरादौ वा ।। १-१५२ ।।
वैरादिषु ऐतः अइरादेशो वा भवति । वरं वेरं । कइलासो केलासो । कइरवं केरवं । वइसवणो वेसवणो । वइसम्पायणो वेसम्पायणो । वइआलिओ वेआलिओ । वइसिअं वेसिअं । चइत्तो चेत्तो ॥ वैर । कैलास । कैरव। वैश्रवण । वैशम्पायन । वैतालिक। वैशिक । चैत्र । इत्यादि । ।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 119
अर्थः- वैर, कैलास, कैरव, वैश्रवण, वैशम्पायन, वैतालिक, वैशिक और चैत्र इत्यादि शब्दों में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर विकल्प से 'अइ' आदेश भी होता है। आदेश के अभाव में शब्द के द्वितीय रूप में 'ऐ' के स्थान पर 'ए' भी होता है। जैसे - वैरम् - वइरं और वेरं । कैलासः = कइलासो और केलासो। कैरवम्= कइरवं और केरवं । वैश्रवणः- वइसवणो और वेसवणो । वैशम्पायनः = वइसम्पायणो और वेसम्पायणो । वैतालिक:- वइआलिओ और वेआलिओ | वैशिकम् = वइसिअं और वेसिअं । चैत्रः = चइतो और चेतो ।। इत्यादि ।।
वरं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६ में की गई है।
वैरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' का 'ए'; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वैरं रूप सिद्ध हो जाता है।
कैलासः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कइलासो और केलासो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कइलासो रुप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप केलास की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१४८ में की गई है।
कैरवम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कइरवं और केरवं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप 'अइ' का आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कइरवं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप केरवं में सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप केरवं सिद्ध हो जाता है।
वैश्रवणः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप वइसवणा और वेसवणा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ' का आदेश; २-७९ से 'र्' का लोप; १ - २६० से शेष 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइसवणो रुप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप वेसवणा में सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और शेष सिद्धि उपरोक्त वइसवणो के अनुसार होकर वसवणा रूप सिद्ध हो जाता है।
वैशम्पायनः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप वइसम्पायणो और वेसम्पायणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ' का आदेश; १ - २६० से 'श' का 'स'; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वइसम्पायणा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप वेसम्पायणा में सूत्र - संख्या १ - १४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; होकर वेसम्पायणो रूप सिद्ध हुआ। शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
120 : प्राकृत व्याकरण
वैतालिकः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप वइआलिओ और वेइआलिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अइ का आदेश; १-१७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वइआलिओ रुप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप वेआलिओ में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों वेआलिओ रूप सिद्ध हुआ। __ वैशिकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप वइसिअं और वेसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अइ' का आदेश; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप वइसि सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप (वेसिअं) में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों वेसिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
चैत्रः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चइत्तो और चेत्तो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अइ' की प्राप्ति; २-७९ से' का लोप; २-८९ से'त' का द्वित्व 'त'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चइत्ता सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (चेत्तो) में सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों चेत्तो रूप सिद्ध हुआ।।१-१५२।।
एच्च दैवे ।। १-१५३।। देव शब्दे ऐत एत् अइश्र्चादेशो भवति।। देव्वं दइव्वं दइव।।
अर्थः-'दैव' शब्द में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'ए' और 'अइ' का आदेश हुआ करता है। जैसे-देवम् देव्वं और दइव्वं। इसी प्रकार से दैवम् दइव।।
देवम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप देव्वं; दइव्वं और दइवं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-९९ से 'व' को विकल्प रूप से द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम देव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप दइव्वं में सूत्र-संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों दइव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप दइवं में सूत्र-संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर दइवं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१५३।।
उच्चैर्नीचस्यैअः ।। १-१५४ ॥ अनयोरेतः अअ इत्यादेशो भवति। उच्च नीची उच्चनीचाभ्याम् के सिद्धम्। उच्चैर्नीचैसोस्तु रूपान्तर निवृत्त्यर्थ वचनम्।
अर्थः-उच्चैः और नीचैः इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'अअ' का आदेश होता है। जैसे-उच्चैः-उच्चअं
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 121 और नीचैः=नीचअं।। उच्चैः और नीचैः शब्दों की सिद्धि कैसे होती है इस प्रश्न के दृष्टिकोण से ही यह बतलाना है कि इन दोनों शब्दों के अन्य रूप नहीं होते है; क्योंकि ये अव्यय है अतः अन्य विभक्तियों में इनके रूप नहीं बनते हैं।
उच्चैस संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप उच्च होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५४ से 'ऐ' के स्थान पर 'अअ' का आदेश १-२४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उच्च रूप सिद्ध हो जाता है।
नीचैम् संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप निचअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५४ से 'ऐं' के स्थान पर 'अअ' का आदेश १- २४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नीचअं रूप सिद्ध हो जाता है । । १ - १५४ ॥
ईद्धैर्ये ।। १-१५५ ।।
धैर्य शब्दे ऐत ईद् भवति ।। धीरं हरइ विसाओ ।।
अर्थः- धैर्य शब्द में रही हुई 'ऐ' की 'ई' होती है। जैसे- धैर्यं हरति विषादः = धीरं हरइ विसाओ ।।
:
धैर्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धीरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५५ से 'ऐ' की 'ई'; २-६४ से 'र्य' का विकल्प से 'र'; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'अम्' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर धीरं रूप सिद्ध हो जाता है।
हरति संस्कृत सकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप हरइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - १३९ से वर्तमान-काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हरइ रूप सिद्ध हो जाता है।
विषादः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप विसाओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'ष्' का 'स्'; १-१७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विसाओ रुप सिद्ध हो जाता है । । १ - १५५ ।। ओतोद्वान्योन्य-प्रकोष्ठाताद्य-शिरोवेदना-मनोहर - सरोरूहेक्तोश्च वः ।।१-१५६ ।।
एषु ओतोत्त्वं वा भवति तत्संनियोगे च यथा संभवं ककार तकारयोर्वादेशः ।। अन्नन्नं अन्नुन्नं । पवट्टो पउट्टो | आवज्जं आउज्जं । सिर विअणा सिरो-विअणा । मणहरं मणोहरं । सररूहं सरोरुहं ॥
अर्थः-अन्योन्य, प्रकोष्ठ, आतोय, शिरोवेदना, मनोहर और सरोरूह में रहे हुए 'ओ' का विकल्प से 'अ' हुआ करता है; और 'अ' होने की दशा में यदि प्राप्त हुए उस 'अ' के साथ 'क्' वर्ण अथवा 'त्' वर्ण जुडा हुआ हो तो उस 'क्' अथवा उस ' त् के स्थान पर 'व्' वर्ण का आदेश हो जाया करता है जैसे- अन्योन्यम् - अन्नन्नं अथवा अन्नन्नं। प्रकोष्टः=पवो और पउट्ठो। आतोद्यं - आवज्जं और आउज्जं । शिरोवेदना - सिर- विअणा और सिरो-विअणा । मनोहरम् मणहरं और मणोहरं । सरोरूहम्-सर-रूहं और सरोरुहं ।।
अन्योन्यम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप अन्नन्नं और अन्नुन्नं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २-७८ से दोनों 'य्' का लोप; २-८९ से शेष दोनों 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; १ - १५६ से 'ओ' का विकल्प से 'अ'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप अन्नन्नं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (अन्नुन्न) में सूत्र - संख्या १ - १५६ के अभाव में वैकल्पिक पक्ष होने से १-८४ से 'ओ' के स्थान पर 'अ' नहीं होकर 'ओ' को 'उ' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । यों अन्नुन्नं रूप सिद्ध हो जाता है। प्रकोष्ठः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पवट्टो और पउट्ठो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २- ७९ से
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
122 : प्राकृत व्याकरण
'र' का लोप; १-१५६ से 'ओ' का 'अ'; १-१५६ से ही 'क्' को 'व' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'' को 'ट्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पवट्ठो रुप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (पउटो) में सूत्र-संख्या १-१५६ के अभाव में वैकल्पिक-पक्ष होने से १-८४ से 'ओ' को 'उ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों पउट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है।
आतोद्यम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप आवज्जं और आउज्जं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५६ से 'ओ' को 'अ' की प्राप्ति और इसी सूत्र से 'त्' के स्थान पर 'व' का आदेश; २-२४ से 'द्य' को 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप आवज रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (आउज्ज) में सूत्र-संख्या १–१५६ के अभाव में वैकल्पिक-पक्ष होने से १-८४ से 'ओ' को 'उ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों आउज्जं सिद्ध हुआ।
शिरोवेदना संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिरविअणा और सिरोविअणा होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ से वैकल्पिक रूप से 'ओ' को 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१४६ से 'ए' को 'इ'; की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; संस्कृत-विधान से स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इस 'सि' में स्थित 'इ' की इत् संज्ञा और सूत्र-संख्या १-११ से शेष 'स्' का लोप होकर सिरविअणा और सिरोविअणा दोनों ही रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
मनोहरम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मणहरं और मणोहरं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ वैकल्पिक रूप से 'ओ' का 'अ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप मणहरं और मणोहरं सिद्ध हो जाते हैं।
सरोरूहम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सररूहं और सरोरुहं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ से वैकल्पिक रूप से 'ओ' का 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप प्रथम सररूहं और सरोरुह सिद्ध हो जाते हैं।।१५६॥
ऊत्सोच्छ्वासे ।। १-१५७ ।। सोच्छ्वास शब्दे ओत ऊद् भवति।। सोच्छ्वासः । सूसासो। अथ:-सोच्छ्वास शब्द में रहे हुए 'ओ' को 'ऊ' की प्राप्ति होती है। जैसे-सोच्छ्वासः सूसासो।।
सोच्छ्वासः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सूसासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५७ से 'ओ' को 'ऊ' की प्राप्ति; 'च्छवा' शब्दांश का निर्माण संस्कृत-व्याकरण की संधि के नियमों के अनुसार 'श्वा' शब्दांश से हुआ है; अतः २-'७९ से 'व्' का लोप; १-६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सूसासा रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१५७।।
गव्यउ-आअः ॥ १-१५८ ।। गो शब्दे ओतः अउ आअ इत्यादेशौ भवतः।। गउओ। गउआ। गाओ।। हरस्स एसा गाई।। • अर्थः-गो शब्द में रहे हुए 'ओ' के स्थान पर क्रम से 'अउ' और 'आअ का आदेश हुआ करता है। जैसे-गवयः गउओ
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 123 और गउआ तथा गाओ।। हरस्य एषा गौ:- हरस्स एसा गाई ।। गउओ और गउआ इन दोनों शब्द रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १-५४ में की गई है।
गौः संस्कृत रूप (गो+सि) है। इसका प्राकृत रूप गाओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५८ से 'ओ' के स्थान पर 'आअ' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गाओ रुप सिद्ध हो जाता है।
हरस्य संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हरस्स होता है। इसमें 'हर' मूल रूप के साथ सूत्र - संख्या ३- १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन का पुल्लिंग का 'स्स' प्रत्यय संयोजित होकर हरस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
'एसा' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-३३ में की गई है।
गाः संस्कृत रूप (गो+सि) है। इसका प्राकृत रूप गाई होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५८ से के स्थान पर 'आअ' आदेश की प्राप्ति; और ३-३१ से पुल्लिंग शब्द को स्त्रीलिंग में रूपान्तर करने पर 'अन्तिम-अ' के स्थान पर 'ई' की प्राप्ति; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्-संज्ञा; और १ - ११ से शेष 'स्' का लोप; होकर गाई रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-१५८ ।।
औत ओत् ।। १-१५९ ।।
औकारस्यादेरोद् भवति।। कौमुदी कोमुई । यौवनम् जोव्वणं ।। कौस्तुभः कोत्थुहो । कौशाम्बी कोसम्बी ॥ क्रौञ्चः कोञ्चो ।। कौशिकः कोसिओ ।।
अर्थः-यदि किसी संस्कृत शब्द के आदि में 'औ' रहा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में उस 'औ' का 'ओ' हो जाता है। जैसे-कौमदी=कोमुई।। यौवनम् = जोव्वणं । कौस्तुभः-कोत्थुहो।। कौशाम्बी-कोसम्बी। क्रौञ्चः कोञ्चो।। कौशिकः=कोसिओ।। इत्यादि।।
कौमुदी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोमुई होता है । इसमें सूत्र - संख्या १ - १५९ से 'औ' के स्थान पर 'ओ'; और १-१७७ से 'द्' का लोप होकर कोमुइ रूप सिद्ध हो जाता है।
यौवनं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जोव्वणं होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१५९ 'औ' के स्थान पर 'ओ'; १-२४५ से ‘य' का ‘ज'; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व'; १-२८ से 'न' का 'ण'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर जोव्वणं रूप सिद्ध हो जाता है।
कौस्तुभः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोत्थुहा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५९ से 'औ' के स्थान पर 'ओ'; २-४५ से 'स्त' का 'थ'; २-८९ से प्राप्त 'थ' का द्वित्व ' थ्थ'; २-९० से प्राप्त पूर्व ' थ्' का 'त्'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर
ओ रुप सिद्ध जाता है।
शाम्बी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोसम्बी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५९ से 'औ' के स्थान पर 'ओ' ; १ - २६० से 'श' का 'स'; और १-८४ से 'आ' का 'अ' होकर कोसम्बी रूप सिद्ध हो जाता है।
क्रोञ्चः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोचो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५९ से 'औ' के स्थान पर 'ओ'; २-७९ से 'र्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कोचो रुप सिद्ध हो जाता है।
कौशिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोसिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १५९ से 'औ' के स्थान पर 'ओ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कोसिओ रुप सिद्ध हो जाता है ।।१ - १५९।।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
124 प्राकृत व्याकरण
उत्सौन्दर्यादौ ।। १-१६०।।
सौन्दर्यादिषु शब्देषु औत उद् भवति ।। सुन्देरं सुन्दरिअं । मुञ्जायणो । सुण्डो । सुद्धोअणी । दुवारिओ । सुगन्धतणं । पुलोमी। सुवण्णिओ ।। सौन्दर्य । मौञ्जायन । शौण्ड । शौद्धोदनि । दौवारिक । सौगन्ध्य । पौलोमी । सौवर्णिक ।।
अर्थः-सौन्दर्य; मौञ्जायन; शौण्ड; शौद्धोदनि; दौवारिक; सौगन्ध्य; पौलोमी; और सौवर्णिक इत्यादि शब्दों में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'उ' होता है। जैसे- सौन्दर्यम् - सुन्दरं और सुन्दरिअ; मौञ्जायन:-मूञ्जायणो; शौण्डः =सुण्डो; शौद्धोदनिः=सुद्धोअणी; दौवारिक:- दुवारिओ; सौगन्ध्यम्-सुगन्धतणं; पौलोमी=पुलोमी; और सौवर्णिकः - सुवण्णिओ ।। इत्यादि।।
सुन्देरं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-५७ में की गई है।
सौन्दर्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुन्दरिअं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१०७ से 'र्य' के पूर्व में 'इ' का आगम; २- ७८ से 'य्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सुन्दरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
मौञ्जायनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुञ्जायणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुञ्जायणो रुप सिद्ध हो जाता है।
शौण्डः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुण्डो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; १ - १६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुण्डो रुप सिद्ध हो जाता है।
शौद्धोदनिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुद्धोअणी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; १-१६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर सुद्धोअणी रुप सिद्ध हो जाता है।
दौवारिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दुवारिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुवारिओ रुप सिद्ध हो जाता है।
सौगन्ध्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुगन्धतणं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २ - १५४ से संस्कृत 'त्व' प्रत्यय वाचक 'य' के स्थान पर 'तण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सुगन्धतणं रूप सिद्ध हो जाता है।
पौलोमी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुलोमी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति होकर पुलोमी रुप सिद्ध हो जाता है।
सौवर्णिकः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सुवण्णिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुवण्णिओ रुप सिद्ध हो जाता है ।।१ - १६० ॥
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 125
कौक्षेयके वा ॥ १-१६१ ।। कौक्षेयक शब्दे औत उद् वा भवति।। कुच्छेअयं। कोच्छेअयं।। अर्थः-कौक्षेयक शब्द में रहे हुए औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे-कौक्षेयकम् कुच्छेअयं और कोच्छेअयं।। __ कौक्षेयकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कुच्छेअयं और कोच्छेअयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६१ से वैकल्पिक रूप से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; १-१७७ से 'य्' और 'क्' का लोप; १-१८० से शेष अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कुच्छेअयं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कोच्छेअयं) में सूत्र-संख्या १-१५९ से औ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यों कोच्छअयं रूप सिद्ध हुआ।।१-१६१ ।।
अउः पौरादो च ।। १-१६२ ।। कौक्षेयके पौरादिषु च औत अउरादेशो भवति।। कउच्छेअयं।। पौरः। पउरो। पउर-जणो।। कौरवः। कउरवो।। कौशलम्। कउसलं। पौरूषम्। पउरिसं। सौवम्। सउहं।। गौडः। गउडो।। मौलिः। मउली। मौनम्। मउण।। सौराः। सउरा।। कौलाः। कउला। ___ अर्थः-कौक्षेयक; पौर-जन; कौरव; कौशल; पौरूष; सौध; गौड और कौल इत्यादि शब्दों में रहे हुए औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश होता है। जैसे-कौक्षेयकम् कउच्छेअयं; पौर:=पउरो; पौर-जनः पउर-जणो; कौरवः कउरवो; कौशलम् कउसलं; पौरूषम्=पउरिसं; सौधम् सउहं; गौडः=गउडो; मौलि:=मउली; मौनम् मउणं; सौराः सउरा और कौलाः कउला इत्यादि।।
कौक्षेयकम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउच्छेअयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और शेष-सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६१ में लिखित नियमानुसार जानना। यों कउच्छेअयं रूप सिद्ध होता है।
पौरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पउरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउरो रुप सिद्ध हो जाता है।
पार-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पउर-जणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउर-जणो रुप सिद्ध हो जाता है।
कौरवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउरवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कउरवो रुप सिद्ध हो जाता है। __ कौशलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउसलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर कउसलं रूप सिद्ध हो जाता है।
पउरिसं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१११ में की गई है।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
126 : प्राकृत व्याकरण
सौधम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सउहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश; १-१८७ से 'ध' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर सउहं रूप सिद्ध हो जाता है। __गौडः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गउडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गउडो रुप सिद्ध हो जाता है।
मौलिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मउली होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर मउली रुप सिद्ध हो जाता है।
मौनम्: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मउणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर मउणं रूप सिद्ध हो जाता है।
सौराः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सउरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अउ' की आदेश प्राप्ति; ३-४० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप १२ से प्राप्त
और लुप्त जस् प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर सउरा रूप सिद्ध हो जाता है। __कौलाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउला होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६२ से औ' के स्थान पर 'अउ' की आदेश प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप; ३-१२ से प्राप्त और लुप्त जस् प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ का दीर्घ स्वर 'आ' होकर कउला रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१६२।।
आच्च गौरवे ।। १-१६३।। गौरव शब्दे औत आत्वम् अउश्च भवति।। गारवं गउरवं।।
अर्थः-गौरव शब्द में रहे हुए औ' के स्थान पर क्रम से 'आ' अथवा 'अउ' की प्राप्ति होती है। जैसे-गौरवम् गारवं और गउरव।।
गौरवम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप गारवं और गउरवं होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६३ से क्रमिक पक्ष होने से
से'औ के स्थान पर 'आ' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' प्रत्यय का अनस्वार होकर गारवं रूप सिद्ध हो जाता है।।
द्वितीय रूप (गउरवं) में सूत्र-संख्या १-१६३ से ही क्रमिक पक्ष होने से औ' के स्थान पर 'अउ' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। इस प्रकार द्वितीय रूप गउरवं भी सिद्ध हो जाता है।।१-१६३।।
नाव्यावः ॥१-१६४ ।। नौ शब्दे औत आवादेशो भवति।। नावा ।। अर्थः-नौ शब्द में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'आव' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-नौ-नावा।।
नौ संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नावा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६४ से 'औ' के स्थान पर 'आव' आदेश की प्राप्ति; १-१५ स्त्रीलिंग रूप-रचना में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्त्य व्यञ्जन 'स्' का लोप; होकर नावा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१६४।।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 127
एत त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वर व्यञ्जनेन।। १-१६५ ॥ त्रयोदश इत्येवंप्रकारेषु संख्या शब्देषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरेण व्यञ्जनेन सहः एद् भवति।। तेरह। तेवीसा। तेतीसा।। ___अर्थः-त्रयोदश इत्यादि इस प्रकार के संख्या वाचक शब्दों में आदि में रहे हुए 'स्वर' का परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ 'ए' हो जाता है। जैसे-त्रयोदश-तेरह; त्रयोविंशतिः-तेवीसा और त्रयस्त्रिंशत् तेतीसा। इत्यादि।।
त्रयोदश संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेरह होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; १-२१९ से 'द' के स्थान पर 'र' का आदेश; और १-२६२ से 'श' के स्थान पर 'ह' का आदेश होकर तेरह रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रयोविशति संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेवीसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित '' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; १-२८ से अनुस्वार का लोप; १-९२ से हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और इसी सूत्र से 'ति' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'अ' का 'आ'; और ३-४ से प्राप्त् 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेवीसा रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रयस्त्रिंशत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तेत्तीसा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'य' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; २-७७ से 'स्' का लोप; १-२८ से अनुस्वार का लोप; २-७९ से द्वितीय 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-९२ से हस्व 'इ' को दीर्घ 'ई'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'अ' का 'आ'; और ३-४ से प्राप्त् ‘जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेत्तीसा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१६५।।
स्थविर-विचकिलायस्कारे ।। १-१६६।। एषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् भवति।। थेरो वेइल्लं। मुद्ध-विअइल्ल-पसूण पुजा इत्यपि दृश्यते। एक्कारो॥
अर्थः-स्थविर, विचकिल और अयस्कार इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर को पर-वर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ 'ए' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे-स्थविरः-थेरो; विचकिलम् = वेइल्लं; अयस्कारः= एक्कारो।। मुग्ध-विचकिल-प्रसून-पुजाः मुद्ध-विअइल्ल-पसूण-पुञ्जा इत्यादि उदाहरणों में इस सूत्र का अपवाद भी अर्थात् आदि स्वर को परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ 'ए' की प्राप्ति' का अभाव भी देखा जाता है।
स्थविरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप थेरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-१६६ से 'थवि' का 'थे'; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के साथ 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थेरो रूप सिद्ध हो जाता है।
विचकिलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेइल्लं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६६ से 'विच' का 'वे'; १-१७७ से 'क्' का लोप; २-९८ से 'ल' का द्वित्व 'लल्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर वेइल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। __मुग्ध संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मुद्ध होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से 'ध' का द्वित्व ध्ध'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' का 'द्' होकर मुद्ध रूप सिद्ध हो जाता है।
विचकिल संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विअइल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च्' और 'क्' का लोप; और २-९८ से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर विअइल्ल रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
128 : प्राकृत व्याकरण
प्रसून संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पसूण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर पसूण रूप सिद्ध हो जाता है।
पुञ्जाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुजा होता हैं। इसमें सूत्र-संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और इसका लोप तथा ३-१२ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं इसके लोप होने से पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' का 'आ' होकर पुञ्जा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अयस्कारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एक्कारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६६ से 'अय' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एक्कारो रूप सिद्ध हो जाता है। ।।१-१६६।।
वा कदले ॥१-१६७ ॥ कदल शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वर-व्यञ्जनेन सह एद् वा भवति।। केलं कयल। केली कयली।।
अर्थ:-कदल शब्द में रहे हुए आदि स्वर 'अ' को परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे-कदलम् केलं और कयल।। कदली केली और कयली।।
कदलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केलं और कयलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६७ से 'कद्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप केलं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कयल) में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। इस प्रकार कयलं रूप भी सिद्ध हो जाता है। ___ कदली संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केली और कयली होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६७ से 'कद' के स्थान पर 'के की प्राप्ति: संस्कत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; और प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत् संज्ञा; तथा १-११ से शेष 'स्' का लोप होकर प्रथम रूप केली सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कयली) में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-८० से शेष 'अ' का 'य' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना।। इस प्रकार कयली रूप भी सिद्ध हो जाता है। ।।१-१६७||
वेतः कर्णिकारे ।। १-१६८ ।। कर्णिकारे इतः सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् वा भवति।। कण्णेरो कण्णिआरो।।
अर्थः-कर्णिकार शब्द में रही हुई 'इ' के स्थान पर पर-वर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे-कर्णिकारः कण्णेरो और कण्णिआरो।। ___कर्णिकारः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कण्णेरा और कण्णिआरो होते हैं। इनमें से प्रथम में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; १-१६८ से वैकल्पिक रूप से 'इ' सहित 'का' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति: और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम कण्णेरो रूप सिद्ध हो जाता है। ___द्वितीय रूप (कण्णिआरो) में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'पण'; १–१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कण्णिआरो रूप भी सिद्ध हो जाता है।।१-६८॥
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 129
अयौ वैत् ।। १-१६९ ॥ अयि शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् वा भवति ।। ए बीहेमि। अइ उम्मत्तिए। वचनादैकारस्यापि प्राकृते प्रयोगः।।
अर्थः-'अयि' अव्यय संस्कृत शब्द में आदि स्वर 'अ' और परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन 'यि' के स्थान पर अर्थात् संपूर्ण 'अयि' अव्ययात्मक शब्द के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऐ' की प्राप्ति होती है। जैसे-अयि! बिभेमि-ऐ बीहेमी।। अयि! उन्मत्तिके-अइ उम्मत्तिए।। इस सूत्र में 'अयि' अव्यव के स्थान पर 'ऐ' का आदेश किया गया है। यद्यपि प्राकृत भाषा में 'ऐ' स्वर नहीं होता है; फिर भी इस अव्यव में सम्बोधन रूप वाक्य प्रयोग की स्थति होने से प्राकृत भाषा में 'ऐ' स्वर का प्रयोग किया गया है।
अयि संस्कृत अव्यव है। इसके प्राकृत रूप ए और अयि होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१६९ से 'अयि' के स्थान पर 'ऐ' का आदेश; हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य्' का लोप होने से 'अइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
बिभेमि संस्कृत क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप बीहेमि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-५३ से भी' संस्कृत धातु के स्थान पर 'बीह' आदेश की प्राप्ति; ४-२३९ से व्यञ्जनान्त धातु में पुरुष-बोधक प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व में 'अ' की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' का आदेश; और ३-१४१ से वर्तमानकाल में तृतीय पुरुष के अथवा उत्तम पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बीहेमि रूप सिद्ध हो जाता है।
उन्मत्तिके संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उन्मत्तिए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'उत्-मत्तिके' संस्कृत मूल रूप होने से 'त्' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म्म'; १–१७७ से 'क्' का लोप होकर उन्मत्तिए रूप सिद्ध हो जाता है। ॥१-१६९।।
ओत्पूतर-बदर-नवमालिका-नवफलिका-पूगफले।। १-१७०।। पूतरादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ओद् भवति ।। पोरो। बोरं। बोरी। नोमालिआ। नोहलिया। पोप्फल। पोप्फली।।
अर्थः-पूतर; बदर; नवमालिका; नवफलिका और पूगफल इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर के साथ परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:-पूतर:=पोरो; बदरम्=बोरं; बदरी-बोरी; नवमालिका नोमालियाः; नवफलिका नोहलिआ; पूगफलम्=पोप्फलं और पूगफली-पोप्फली।।
पूतरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति अर्थात् 'पूत' के स्थान पर 'पो' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पोरो रूप सिद्ध हो जाता है।
बदरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बोरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'द' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; अर्थात् 'बद' के स्थान पर 'बो' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर बोरं रूप सिद्ध हो जाता है।
बदरी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बोरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'द' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; अर्थात् 'बद' के स्थान पर 'बो' की प्राप्ति; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर बोरी रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
130: प्राकृत व्याकरण
नवमालिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोमालिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति); १-१७७ से 'क्' का लोप; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोमालिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
नवफलिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोहलिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति); १-२३६ से 'फ' का 'ह'; १-१७७ से 'क्' का लोप; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोहलिआ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पूगफलम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोप्फलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'ग' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राप्ति); २-८९ से 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर पोप्फल रूप सिद्ध हो जाता है। - पूगफली संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोप्फली होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'ग' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति;(अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राप्ति); २-८९ से 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; संस्कृत विधान के अनुस्वार स्त्रीलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इसमें 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा; और १-११ से 'स्' का लोप होकर पोप्फली रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१७०।। न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार-सुकुमार
कुतूहलोदूखलोलूखले ।। १-१७१ ।। मयूखादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ओद् वा भवति।। मोहो मऊहो। लोणं। इअ लवणुग्गमा। चोग्गुणो। चउग्गुणो। चोत्थो चउत्थो। चोत्थी चउत्थी।। चोद्दह। चउद्दह।। चोदसी चउद्दसी। चोव्वारो चउव्वारो। सोमालो सुकुमालो। कोहलं कोउहल्लं। तह मन्ने कोहलिए। ओहलो उऊहलो। ओक्खलं। उलूहल।। मोरो मऊरो इति तु मोर-मयूर शब्दाभ्यां सिद्धम्॥
अर्थः-मयूख; लवण; लवणोद्गमा, चतुर्गुण, चतुर्थ, चतुर्थी, चतुर्दश, चतुर्दशी, चतुर्वार, सुकुमार, कुतूहल, कुतूहलिका और उदूखल, इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर का परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के साथ विकल्प से 'ओ' होता है। जैसे-मयूखः मोहो और मऊहो। लवणम् लोणं और लवणं। चतुर्गुणः चोग्गुणो और चउग्गुणो। चतुर्थः-चोत्थो और चउत्थो। चतुर्थी-चोत्थी और चउत्थी। चतुर्दशः चोधहो और चउधहो। चतुर्दशी-चोधसी और चउधसी। चतुर्वारः चोव्वारो और चउव्वारो। सुकुमार:=सोमालो और सुकुमालो। कुतूहलम् कोहलं और कोउहल्लं। कुतूहलिके-कोहलिए और कुऊहलिए। उदूखलः ओहलो और उऊहलो। उलूखलम्=ओक्खलं और उलूहलं। इत्यादि।। प्राकृत शब्द मोरो
और मऊरो संस्कृत शब्द मोरः और मयूरः इन अलग अलग शब्दों से रूपान्तरित हुए है; अतः इन शब्दों में सूत्र-संख्या १-१७१ का विधान नहीं होता है। __ मयूखः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप मोहो और मऊहो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'य' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात 'अय' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मोहो सिद्ध हो जाता है।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 131 द्वितीय रूप मऊहो में वैकल्पिक-विधान होने से सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप मऊहो भी सिद्ध हो जाता है।
लवणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लोणं और लवणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७१ से
स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप लोणं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप लवणं में वैकल्पिक-विधान होने से सूत्र-संख्या १-१७१ की प्राप्ति का अभाव; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप लवणं भी सिद्ध हो जाता है।
इति संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप इअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-९१ से 'ति' में स्थित 'इ' का 'अ'; और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर इअ रूप सिद्ध हो जाता है।
लवणाग्गमाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लवणुग्गमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'ओ' का 'उ'; २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; ३-२७ से स्त्रीलिंग में प्रथमा-विभक्ति और द्वितीया-विभक्ति में 'जस्' और 'शस्' प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक-पक्ष में प्राप्त प्रत्ययों का लोप होकर लवणुग्गमा रूप सिद्ध हो जाता है। __ चतुर्गुणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोग्गुणो और चउग्गुणो होते है। इनमें से प्रथम रूप चोग्गुणो में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोग्गुणो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप चउग्गुणो में वैकल्पिक-स्थिति होने से सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप चउग्गुणो भी सिद्ध हो जाता है।
चतुर्थः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोत्थो और चउत्थो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' का 'त्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुलिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर चोत्थो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप चउत्थो में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर चउत्थो रूप भी सिद्ध हो जाता है। __चतुर्थी संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोत्थी और चउत्थी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर
वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' का 'त्' और ३-३१ से संस्कृत मूल शब्द 'चतुर्थ' के प्राकृत रूप चोत्थ में स्त्रीलिंगवाचक स्थिति में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोत्थी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप चउत्थी में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर चउत्थी रूप भी सिद्ध हो जाता है।
चतुर्दशः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोद्दहो और चउद्दहो होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'द' को द्वित्व द्द' की प्राप्ति; १-२६२ से 'श' को
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
132 प्राकृत व्याकरण
'ह' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चोहो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'चउद्दहो' में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'तू' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप चउद्दहो भी सिद्ध हो जाता है।
चतुर्दशी संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोद्दसी और चउद्दसी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श्' का 'स्' और ३ - ४१ से संस्कृत के मूल शब्द चतुर्दश के प्राकृत रूप चौदस में स्त्रीलिंगवाचक स्थिति में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चोद्दसी सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप ‘चउद्दसी' में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप चउद्दसी भी सिद्ध हो जाता है।
चतुर्वारः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चोव्वारो और चउव्वारा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप चोव्वारो में सूत्र - संख्या १- १७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् ' अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २ - ८९ से 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोव्वारो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'चउव्वारो' में सूत्र- संख्या १- १७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप चउव्वारो भी सिद्ध हो जाता है।
सुकुमारः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप सोमालो और सुकुमालो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सोमालो में सूत्र - संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'कु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उकु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १ - २५४ से 'र्' को 'ल' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सोमालो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'सुकुमालो' में सूत्र- संख्या १ - २५४ से 'र्' को 'ल' की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप सुकुमालो भी सिद्ध हो जाता है।
कुतूहलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कोहलं और कोउहल्लं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोहलं में सूत्र- संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तू' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उतू' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कोहलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कोउहल्लं की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७७ में की गई है।
तह अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है।
मन्ये संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप मन्ने होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से शेष 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति होकर मन्ने रूप सिद्ध हो जाता है।
कुतूहलिके संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप कोहलिए और कुऊहलिए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोहलि में सूत्र - संख्या १ - १७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तू' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उतू' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क्' का लोप; और ३-४१ से मूल संस्कृत शब्द कुतूहलिका के प्राकृत रूपान्तर कुऊहलिया में स्थित अन्तिम 'आ' का संबोधन के एकवचन में 'ए' होकर प्रथम रूप कोहलिए सिद्ध हो जाता है।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 133 द्वितीय रूप कुऊहलिए में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप कुऊहलिए भी सिद्ध हो जाता है। ___ उदूखलः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ओहलो और उऊहलो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओहलो में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'दू' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उदू शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओहलो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप उऊहलो में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उऊहलो भी सिद्ध हो जाता है।
उलूखलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ओक्खलं और उलूहल होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओक्खलं में सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'लू' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उलू' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; २-८९ से 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ओक्खलं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप उलूहलं में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उलूहलं भी सिद्ध हो जाता है। __ मोरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मोरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
मयूरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मऊरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मऊरो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१७१।।
अवापोते ॥ १-१७२ ।। अवापयोरूपसर्गयोरूत इति विकल्पार्थ-निपाते च आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ओद् वा भवति। अव। ओअरइ। अवयरइ। ओआसो अवयासो।। अप। ओसरइ अवसरइ। ओसारिअं अवसारि। उत। ओ वणं। ओ घणो। उअ वणं। उअ घणो॥ क्वचिन्न भवति। अवगय। अवसद्दो। उअ रवी।। __ अर्थ:-'अव' और 'अप' उपसर्गो के तथा विकल्प-अर्थ सूचक 'उत' अव्यय के आदि स्वर सहित परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव', 'अप' और 'उत' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति होती है। जैसे-'अव' के उदाहरण इस प्रकार है :-अवतरति-ओअरइ और अवयरइ। अवकाशः ओआसो और अवयासो। 'अप' उपसर्ग के उदाहरण इस प्रकार है :-अपसरति ओसरइ और अवसरइ। अपसारितम् ओसारिअं और अवसारिआ। उत अव्यय के उदाहरण इस प्रकार है :-उतवनम्=ओ वणं। और उअ वणं। उतघनः=ओ घणो और उअ घणो।। किन्हीं किन्हीं शब्दों में 'अव' तथा 'अप' उपसर्गो के और 'उत' अव्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति नहीं हुआ करती है। जैसे अवगतम्=अवगयं। अपशब्दः अवसद्दो। उत रविः-उअ रवी।।
अवतरति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप ओअरइ और अवयरइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओअरइ में सूत्र-संख्या १-१७२ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत-प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओअरइ सिद्ध हो जाता है।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
134 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप अवयरइ में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप अवयरइ भी सिद्ध हो जाता है।
अवकाशः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ओआसो और अवयासो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओआसो में सूत्र-संख्या १-१७२ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव' उपसर्ग के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओआसो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप अवयासो की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। अपसरति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप ओसरइ और अवसरइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओसरइ में सूत्र-संख्या १-१७२ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अप' उपसर्ग के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत-प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओसरइ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप अवसरइ में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप अवसरइ भी सिद्ध हो जाता है। ___ अपसारितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप ओसारिअं और अवसारिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप
ओसारिअं में सूत्र-संख्या १-१७२ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अप' उपसर्ग के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ओसारिअं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप अवसारिअं में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप अवसारिअं भी सिद्ध हो जाता है। __ उतवनम् संस्कृत वाक्यांश है। इसके प्राकृत रूप ओवणं और उअवणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओवणं में सूत्र-संख्या १-१७२ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उत' अव्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; द्वितीय शब्द वणं में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण' और १-२३ से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ओवणं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप उअवणं में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उअवणं भी सिद्ध हो जाता है।
उतघनः संस्कृत वाक्यांश है। इसके प्राकृत रूप ओघणो और उअघणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओघणो में सूत्र-संख्या १-१७२ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' व्यञ्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; द्वितीय शब्द 'घणो में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओघणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप उअघणा में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उअघणा भी सिद्ध हो जाता है।
अवगतम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अवगयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १–१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; और १-२३ से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर अवगयं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अप शब्दः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अवसद्दो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२६० से 'श' का 'स'; २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अवसद्दा रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 135
उतरविः संस्कृत वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप उअरवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप होकर उअ अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है। रवी में सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्राकृत वाक्यांश उअरवी सिद्ध हो जाता है।।१-१७२।।
ऊच्चोपे ।। १-१७३ ॥ उपशब्दे अदिः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ऊत् ओच्चादेशौ वा भवतः।। ऊंहसि ओहसिअं उवहसि ऊज्झाओ ओज्झाओ उवज्झाओ। ऊआसो ओआसो उववासो।।
अर्थः-'उप' शब्द में आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् संपूर्ण 'उप' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'ऊ' और 'ओ' आदेश हुआ करते हैं। तदनुसार 'उप' के प्रथम रूप में 'ऊ'; द्वितीय रूप में 'ओ' और तृतीय रूप में 'उव' क्रम से, वैकल्पिक रूप से और आदेश रूप से हुआ करते हैं। जैसे-उपहसितम् ऊहसिअं, ओहसिअं और उवहसि। उपाध्यायः ऊज्झाओ, ओज्झाओ और उवज्झाओ। उपवासः ऊआसो, ओआसो और उववासो।।
उपहसितम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ऊहसिअं, ओहसिहं और उवहसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ऊहसिअं में सूत्र-संख्या १-१७३ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात 'उप' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऊ' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ऊहसिअं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप ओहसिअं में सूत्र-संख्या १-१७३ से वैकल्पिक रूप से 'उप' शब्दाशं के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओहसिअं भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप उवहसि में वैकल्पिक विधान की संगति होने से सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'र' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप उवहसिअं भी सिद्ध हो जाता है।
उपाध्यायः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप उज्झाओ, ओज्झाओ और उवज्झाओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप उज्झाओ में सूत्र-संख्या १-१७३ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उप' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऊ' आदेश की प्राप्ति; १-८४ 'पा' में स्थित 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से 'ध्य्' के स्थान पर 'झ' का आदेश; २-८९ से प्राप्त 'झ्' को द्वित्व झ्झ की प्राप्ति, २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' का 'ज्'; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ऊज्झाओ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप ओज्झाओ में सूत्र-संख्या १-१७३ से वैकल्पिक रूप से 'उप' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओज्झाओ सिद्ध हो जाता है। ___ तृतीय रूप उवज्झाओ में वैकल्पिक-विधान संगति होने से सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान होकर तृतीय रूप उवज्झाओ भी सिद्ध हो जाता है। __उपवासः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ऊआसो, ओवआसो और उववासो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ऊआसो में सूत्र-संख्या १-१७३ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऊ' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ 'व्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ऊआसो सिद्ध हो जाता है। __द्वितीय रूप ओआसो में सूत्र-संख्या १-१७३ से वैकल्पिक रूप से 'उप' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओआसो भी सिद्ध हो जाता है।
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
136 : प्राकृत व्याकरण
तृतीय रूप उववासो में वैकल्पिक - विधान संगति होने से सूत्र - संख्या १ - २३१ से 'प' का 'व्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप उववासो भी सिद्ध हो जाता है । ।। १-१७३ ।।
उमो निषण्णे ।। १-१७४ ।।
निषण्ण शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह उम आदेशो भवति ।। णुमण्णो णिसण्णो ।।
अर्थः- 'निषण्ण' शब्द में स्थित आदि स्वर 'इ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'ष' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'इष' शब्दाशं के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उम' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे- निषण्णः - णुमण्णो और णिमण्णो ।।
निषण्णः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप णुमण्णो और णिसण्णो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप णुमण्णो में सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १ - १७४ से आदि स्वर 'इ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'ष' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'इष' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उम' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप णुमण्णो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप णिसण्णो में सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न्' का 'ण्'; १ - २६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप णिसण्णा भी सिद्ध हो जाता है। ।। १ - १७४ ।।
प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ।। १-१७५ ।।
प्रावरण शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह अड्गु आउ इत्येतावादेशी वा भवतः । पङ्गु रणं पाउरणं पावरणं ।।
अर्थः-'प्रावरणम्' शब्द में स्थित आदि स्वर 'आ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'आव' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'अङ्गु' और 'आउ' आदेशों की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे - प्रावरणम् = पङ्गुरणं, पाउरणं और पावरणं ।।
प्रावरणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पङ्गुरणं, पाउरणं और पावरणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप पङ्गुरणं में सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १७५ से आदि स्वर 'आ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'आव' शब्दारां के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अड्गु' आदेश की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप पङ्गुरणं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप पाउरण में सूत्र - संख्या २- ७९ से वैकल्पिक रूप से 'र्' का लोप; १ - १७५ से 'आव' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आउ' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप पाउरण भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप पावरणं में सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप पावरणं भी सिद्ध हो जाता है। ।। १-१७५ ।।
स्वरादसंयुक्तस्यानादेः ।। १ - १७६ ।।
अधिकारोयम्। यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्भवतीति वेदितव्यम्।।
अर्थः-यह सूत्र अधिकार-वाचक सूत्र है । अर्थात् इस सूत्र की सीमा और परिधि आगे आने वाले अनेक सूत्रों से संबंधित है। तदनुसार आगे आने वाले सूत्रों में लोप और आदेश आदि प्रक्रियाओं का जो विधान किया जाने वाला है;
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 137 उनके संबंध में यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि लोप और आदेश आदि प्रक्रियाओं से संबंध रखने वाले वे वर्ण किसी भी स्वर के पश्चात्वर्ती हो; असंयुक्त हो अर्थात् हलन्त न होकर स्वरान्त हों और आदि में भी स्थित न हों। स्वर से परवर्ती; असंयुक्त हो अर्थात् हलन्त न होकर स्वरान्त हों और आदि में भी स्थित न हों। स्वर से परवर्ती; असंयुक्त और अनादि ऐसे वर्णो के संबंध में ही आगे के सूत्रों द्वारा लोप और आदेश आदि प्रक्रियाओं की दृष्टि से विधान किया जाने वाला है। यही सूचना, संकेत और विधान इस सूत्र में किया गया है। अतः वृत्ति में इसको 'अधिकार-वाचक' सूत्र की संज्ञा प्रदान की गई है जो कि ध्यान में रक्खी जानी चाहिये।।१-१७६।।
क-ग-च-ज-त-द-प-य-वा प्रायो लुक्॥१-१७७॥ स्वरात्पषामनादिभूतानामसंयुक्तानां क ग च ज त द प य वा नां प्रायो लुग भवति।। क। तित्थयरो। लोओ। सयद।। ग। नओ। नयरं मयको।। च। सई। कय-ग्गहो। जा रययं। पयावई। गओ। त। विआणं। रसा-यला जई। दो गया। मयणो।। पारिऊ। सुउरिसो।। या दयालू। नयण। विओओ।। वा लायण्णां विउहो। वलयाणलो।। प्रायो ग्रहणात् क्वचिन्न भवति। सुकुसुमं। पयाग जलं। सुगओ। अगरू। सचावं। विजणं। सुतारं। विदुरो। सपावं। समवाओ। देवो। दाणवो। स्वरादित्येव। संकरो। संगमो। नक्कंचरो। धणंजओ। विसंतवो। पुरंदरो। संवुडो। संवरो॥ असंयुक्तस्येत्येव। अक्को। वग्गो। अच्चो। ज्जा धुत्तो। उद्दामो। विप्पो। कज्जी सव्व।। क्वचित् संयुक्तस्यापि। नक्तंचरः नक्कंचरो।। अनादेरित्येव। कालो। गन्धो। चोरो। जारो। तरू। दवो। पावं। वण्णो॥ यकारस्य तु जत्वम् आदौ बक्ष्यते। समासे-तु वाक्यविभक्त्यपेक्षया भिन्न पदत्वमपि विवक्ष्यते। तेन तत्र यथादर्शनसुभयमपि भवति। सुहकरो सुहयरो आगमिओ आयमिओ। जलचरो जलयरो। बहुतरो बहुअरो। सुहदो। सुहओ। इत्यादि।। क्वचिदादेरपि। स पुनः स उण। स च-सो || चिह्न-इन्छ।। क्वचिच्चस्य जः। पिशाची। पिसाजी।। एकत्वम् एगत्त।। एकः= एगो।। अमुकः= अमुगो।। असुकः असुगो।। श्रावकः सावगो।। आगारः आकारो।। तीर्थंकरः-तित्थगरो।। आकर्षः= आगरिसो।। लोगस्सुज्जोअगरा इत्यादिषु तु व्यत्ययश्च (४-४४७) इत्येव कस्य गत्वम्।। आर्षे अन्यदपि द्दश्यते। आकुञ्चनं-आउण्टणं।। अन्न चस्य टत्वम्॥ __ अर्थः-यदि किसी भी शब्द में स्वर के पश्चात् क; ग; च; त; द; प; य और व अनादि रूप से-(याने आदि में नहीं)
और असंयुक्त रूप से (याने हलन्त रूप से नहीं) रहे हुए हों तो उनका प्रायः अर्थात् बहुत करके लोप हो जाता है। जैसे-'क' के उदाहरणः-तीर्थंकरः-तित्थयरो। लोकः लोओ। शकटम् सयढं। 'ग' के उदाहरणः=नगः नओ। नगरम्=नयरं। मृगांक:-मयको।। 'च' के उदाहरणः-शची-सई। कचग्रहःकयग्गहो। 'ज' के उदाहरणः-रजतम्=रययं। प्रजापतिः पयावई गजः-गओ। 'त' के उदाहरणः-विताणं-विआणं। रसातलम् रसायल। यतिः जई।। 'द' के उदाहरण:-गदा-गया। मदनः मयणो। 'प' के उदाहरणः-रिपुः रिऊ। सुपुरुषः सुउरिसो।। 'य' के उदाहरणः-दयालुः दयालू। नयनम् नयणं। वियोगः-विओओ।। 'व' के उदाहरण:-लावण्यम्-लायण्णं। विबुधः विउहो वडवानलः-वलयाणलो।। ___ 'सूत्र में प्रायः' अव्यय का ग्रहण किया गया है। जिसका तात्पर्य यह है कि बहुत करके लोप होता है; तदनुसार किन्हीं किन्हीं शब्दों में क, ग, ज, त, प, य और व का लोप नहीं भी होता है। जैसे-'क' का उदाहरणः-सुकुसुमं सुकुसुमं 'ग' के उदाहरण प्रयाग जलम् पयाग जलं। सुगतः-सुगओ। अगुरु:-अगुरु। 'च' का उदाहरणः-सचापम्स चावं। 'ज' का उदाहरण:-व्यजनम् विजणं। 'त'का उदाहरणः-सुतारम् सुतारं। 'द' का उदाहरणः-विदुरः विदुरो। 'प' का उदाहरण:-सपापम् सपावं। 'व' के उदाहरणः-समवायः समवाओ। देवः-देवो। और दानवः दाणवो।। इत्यादि।।
प्रश्न-'स्वर के परवर्ती हों-ऐसा क्यों कहा गया ?
उत्तरः-यदि 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व, स्वर के परवर्ती अर्थात् स्वर के बाद में रहे हुए नहीं हो तो उनका लोप नहीं होता है। जैसे-'क' का उदाहरणः-शंकरः-संकरो। 'ग' का उदाहरण:-संगमः-संगमो। 'च' का उदाहरण:-नक्तंचरः नक्कंचरो। 'ज' का उदाहरण:-धनंजयः धणंजओ। 'त' का उदाहरणः-द्विषतपः विसंतवो। 'द' का उदाहरणः-पुरंदरः पुरंदरो। 'व' के उदाहरण:- संवृतः संवुडो और संवरः-संवरो।।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
138 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्नः-'असंयुक्त' याने पूर्ण - ( हलन्त नहीं ) - ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः यदि ‘क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' हलन्त हैं; याने स्वरान्त रूप से नहीं हैं और अन्य वर्ण में संयुक्त रूप से स्थित हैं; तो इनका लोप नहीं होता है। जैसे- 'क' का उदाहरणः- अर्क:-अक्को । 'ग्' का उदाहरणः-वर्गः=वग्गो। ‘च्' का उदाहरणः-अर्च:- अच्चो । 'ज्' का उदाहरण:- वज्रम् वज्जं । 'त्' का उदाहरण: - धूर्तः धुत्तो। 'द्' का उदाहरणः=उद्दामः-उद्दामो । 'प्' का उदाहरणः - विप्रः- विप्पो । य् का उदहारणः-कार्यम्=कज्जं । और 'व्' का उदाहरणः--सर्वम्=सव्वं इत्यादि । । किन्हीं किन्हीं शब्दों में सयुक्त रूप से रहे हुए 'क्' 'ग्' आदि का लोप भी देखा जाता है। जैसे-नक्तं चरः=नक्कं चरो। यहां पर संयुक्त 'त्' का लोप हो गया है।
प्रश्न :- ‘अनादि रूप से रहे हों' अर्थात् शब्द के आदि में नहीं रहे हुए हों; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर :- यदि ‘क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' वर्ण किसी भी शब्द के आदि भाग में रहे हुए हों तो इनका लोप नहीं होता है । जैसे- 'क' का उदाहरण :- कालः कालः = कालो। 'ग' का उदाहरण :- गन्धः - गन्धो । 'च' का उदाहरणःचोरः = चोरो । 'ज' का उदाहरण: - जार:- जारो । 'त' का उदाहरणः तरुः = तरू । 'द' का उदाहरण:- दवः- दवो । 'प' का उदाहरण:- पापम्=पावम् । 'व' का उदाहरण:- वर्ण:- वण्णो ।। इत्यादि । ।
शब्द में आदि रूप से स्थित 'य' का उदाहरण इस कारण से नहीं दिया गया है कि शब्द के आदि में स्थित 'य' का 'ज' हुआ करता है। इसका उल्लेख आगे सूत्र संख्या १ - २४५ में किया जाएगा; समासगत शब्दों में वाक्य और विभक्ति अपेक्षा से पदों की गणना अर्थात् शब्दों की मान्यता पृथक् पृथक भी मानी जा सकती है; और इसी बात का समर्थन आगे भी किया जायगा; तदनुसार न समास गत शब्दों में स्थित 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' का लोप होता है और नहीं भी होता है। दोनों प्रकार की स्थिति देखी जाती है। जैसे- 'क' का उदाहरणः - सुखकर :- सुहकरो अथवा सुहयरो । 'ग' का उदाहरणः- आगमिकः= अगामिओ अथवा आयमिओ । 'च' का उदाहरण, जलचर:- जलचरो अथवा जलयरो 'त' का उदाहरणः- बहुतरः=बहुतरो अथवा बहुअरो । 'द' का उदाहरण:- सुखदः = पुहदो अथवा सुहओ।। इत्यादि।।
किन्हीं-किन्हीं शब्दों में यदि 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' आदि में स्थित हों तो भी उनका लोप होता हुआ देखा जाता है। जैसे- 'प' का उदाहरणः स पुनः स उण ।। 'च' का उदाहराणः- स च = सो अ|| चिह्नम् = इन्धं ।। इत्यादि।।
किसी-किसी शब्द में ‘च' का 'ज' होता हुआ भी पाया जाता है। जैसे- पिशाची = पिसाजी । । किन्हीं - किन्हीं शब्दों में 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे- एकत्वम् - एगत्तं । । एकः = एगो ।। अमुकः = अमुगो ।। असुक:- असुगो ।। श्रावकः-सावगो।। आकारः- आगारो। तीर्थंकर; - तित्थगरो ।। आकर्षः आगरिसो।। लोकस्य उद्योतकराः = लोगस्स उज्जो अगरा ।। इत्यादि शब्दों में 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। इसे व्यत्यय भी कहा जाता है । व्यत्यय का तात्पर्य है-वर्गों का परस्पर में एक के स्थान पर दूसरे की प्राप्ति हो जाना; जैसे- 'क' के स्थान पर 'ग' का होना और 'ग' के स्थान पर 'क' का हो जाना। इसका विशेष वर्णन सूत्र संख्या ४-४४७ में किया गया है। आर्ष प्राकृत में वर्णों का अव्यवस्थित परिवर्तन अथवा अव्यवस्थित वर्ण आदेश भी देखा जाता है। जैसे आकुञ्चनम् = आउण्टणं । इस उदाहरण में 'च' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति हुई है । यों अन्य आर्ष-रूपों में समझ लेना चाहिये।
तीर्थंकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्थयरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; २-७९ से 'थ' का द्वित्व ' थ्थ; २- ९० से प्राप्त पूर्व 'थ्'' का 'त्'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तित्थयरो रूप सिद्ध हो जाता है।
लोकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोओ रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 139 शकटम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सयढं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १६० से 'श' का 'स'; १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ - १९६ से 'ट' को 'ढ' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंगलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सयढं रूप सिद्ध हो जाता है।
नगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नआ रूप सिद्ध हो जाता है।
नगरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नयरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'ग' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नयरं रूप सिद्ध हो जाता है।
मङ्को रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-३० में की गई है।
शची संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सई होता है। इसमे सूत्र - संख्या १- ६० से 'श' का स; १ - १७७ से 'च्' का लोप; और संस्कृत-विधान के अनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारांत स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इसमें अन्त्य 'इ' की इत्संज्ञा और १ - ११ से शेष 'स्' का लोप होकर सई रूप सिद्ध हो जाता है।
कचग्रहः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कयग्गहो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च' का लोप; १ - १८० से 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २ - ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयग्गहो रूप सिद्ध हो जाता है।
रजतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रययं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'ज्' और 'त्' का लोप; १-१८० से शेष दोनों 'अ' 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग मे 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रययं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रजापतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पयावइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १७७ से 'ज्' और 'त्' का लोप; १ - १८० से लुप्त 'ज्' के अवशिष्ट 'आ' को 'या' की प्राप्ति; १ - २३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व ईकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पयावई रूप सिद्ध हो जाता है।
गजः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ज्' का लोप; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गओ रूप सिद्ध हो जाता है।
वितानम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विआणं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - २२८ से 'न' का 'ण' ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विआणं रूप सिद्ध हो जाता है।
रसातलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रसायलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रसायलं रूप सिद्ध हो जाता है।
यतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जई होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २४५ से 'य' का 'ज'; १ - १७७ से 'त्' का लोप; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारन्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर जई रूप सिद्ध हो जाता है।
गदाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गया होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १- १८० से शेष
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
140 : प्राकृत व्याकरण
'आ' को 'या' की प्राप्ति; संस्कृत विधान के अनुस्वार प्रथमा विभक्ति के एकवचन आकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्त्य 'स'का लोप होकर गया रूप सिद्ध होज __ मदनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मयणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयणो रूप सिद्ध हो जाता है।
रिपुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रिऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन उकारान्त पुल्लिंग में। सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर रिऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
सुउरिसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है।
दयालु; संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दयालू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; १-१८० से रोष 'आ' को 'या' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को 'ऊ' की प्राप्ति होकर दयालु रूप सिद्ध हो जाता है।
नयनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नयणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनस्वार होकर नयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
वियोगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विओओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' और 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विओआ रूप सिद्ध हो जाता है। __लावण्यम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लायण्णं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' और 'य' का लोप; १-१८० से लुप्त 'व्' के अवशिष्ट 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-८९ से 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर लायण्णं रूप सिद्ध हो जाता है।
विबुधः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विउहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३७ से 'ब' को 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'व्' का लोप; १-१८७ से 'ध्' को 'ह' की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विउहो रूप सिद्ध हो जाता है। __ वडवानलः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वलयाणलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०२ से 'ड' को 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व्' का लोप; १-१८० से लुप्त द्वितीय 'व्' में से अवशिष्ट 'अ' को 'य् की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वलयाणला रूप सिद्ध हो जाता है।
रूप है। इसका प्राकत रूप सकसम होता है। इसमें सत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म्'का अनुस्वार होकर सुकुसुमं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रयाग जलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पयागजलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर पयागजलं रूप सिद्ध हो जाता है।
सुगतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुगओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और
सुकुसुम
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 141 ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुगआ रूप सिद्ध हो जाता है।
अगुरुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अगुरु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति होकर अगुरु रूप सिद्ध हो जाता है।
सचापम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सचावं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सचाव रूप सिद्ध हो जाता है। ___ व्यजनम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विजणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-४६ से शेष 'व' में स्थित 'अ' को 'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विजणं रूप सिद्ध हो जाता है। .. सुतारम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुतारं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विजणं रूप सिद्ध हो जाता है।
विदुरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विदुरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विदुरो रूप सिद्ध हो जाता है।
सपापम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सपावं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सपावं रूप सिद्ध हो जाता है।
समवायः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप समवाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समवाओ रूप सिद्ध हो जाता है।
देवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप देवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देवो रूप सिद्ध हो जाता है।
दानवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दाणवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाणवो रूप सिद्ध हो जाता है।
शंकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संकरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-२५ से 'ङ' का अनुस्वार; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संकरो रूप सिद्ध हो जाता है।
संगमः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संगमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संगमो रूप सिद्ध हो जाता है।
नक्तंचरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नक्कंचरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'त्' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नक्कंचरो रूप सिद्ध हो जाता है।
धनञ्जयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धणंजओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' को 'ण' की
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
142 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति; १ - २५ से 'ञ्' को अनुस्वार की प्राप्ति; १ - १७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणंजओ रूप सिद्ध हो जाता है।
द्विषंतपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विसंतवो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप ; १ - २६० से 'ष' को 'स' की प्राप्ति; १ - २३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विसंतओ रूप सिद्ध हो जाता है।
पुरंदरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुरंदरों होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुरंदरो रूप सिद्ध हो जाता है।
संवृतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संवुडो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१३१ 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; १ - २०६ से 'त' को 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संवुडो रूप सिद्ध हो जाता है।
संवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संवरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संवरो रूप सिद्ध हो जाता है।
अर्कः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अक्को होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अक्को' रूप सिद्ध हो जाता है।
वर्ग: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वग्गो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २ - ८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अच्चो' रूप सिद्ध हो जाता है।
अर्चः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अच्चो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७८ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अच्चो' रूप सिद्ध हो जाता है।
वज्रमः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वज्जं होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वज्जं रूप सिद्ध हो जाता है।
धूर्तः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धुत्तो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ऊ' का हस्व 'उ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धुत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
उद्दामः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप उद्दामो होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उद्दामो रूप सिद्ध हो जाता है।
विप्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विप्पो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विप्पो रूप सिद्ध हो जाता है।
कार्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कज्जं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'आ' को हस्व 'अ' की प्राप्ति; २-२४ से 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसिकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कज्जं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 143 सवम संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'व'को दित्व'व्व' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसिक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनस्वार होकर सव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।
नक्कंचरो रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
कालः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कालो रूप सिद्ध हो जाता है।
गन्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गन्धो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गन्धा रूप सिद्ध हो जाता है। ___चोरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोरो रूप सिद्ध हो जाता है। __जारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जारी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जारो रूप सिद्ध हो जाता है।
तरू: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है।
दवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दवो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पापम्: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पावं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पावं रूप सिद्ध हो जाता है।
वण्णो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४२ में की गई है।
सुखकरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप सुहकरो और सुहयरा होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' का 'ह' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सुहकरो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सुहयरा में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से रूप प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सुहयरो भी सिद्ध हो जाता है।
आगमिकः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप आगमिओ और आयमिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप आगमिओ में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप आगमिओ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप आयमिओ में सूत्र-संख्या १-१७७ की वृत्ति से वैकल्पिक-विधान के अनुस्वार 'ग्' का लोप; १-१८० से शेष' को 'य' की प्राप्ति १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप आगमिओ भी सिद्ध हो जाता है।
जलचरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जलचरो और जलयरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप जलचरो में सूत्र-संख्या ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जलचरा सिद्ध हो जाता है।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
144 प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप जलयरो में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च' का लोप; १ - १८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जलयरो भी सिद्ध हो जाता है।
बहुतरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप बहुतरो और बहुअरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप बहुतरो में सूत्र-संख्या ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहुतरो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप बहुअरो में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'तू' का लोप; और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप बहुअरा भी सिद्ध हो जाता है।
सुखदः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सुहदा और सुहओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सुहदो में सूत्र - संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सुहदो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सुहओ में सूत्र - संख्या १- १८७ 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सुहओ भी सिद्ध हो जाता है।
'स' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप सो और स होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-३ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'सो' और 'स' रूप सिद्ध होते हैं। उण अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ६५ में की गई है।
सा सर्वनाम की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ९७ में की गई है।
च संस्कृत संबंध वाचक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अ' होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप होकर 'अ' रूप सिद्ध हो जाता है।
चिह्न संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप इन्धं होता है। इनमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; २-५० से 'ह्न' के स्थान पर ‘न्ध' की प्राप्ति; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर इन्धं रूप सिद्ध हो जाता है।
पिशाची संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिसाजी होता है। इनमें सूत्र- संख्या १-२६० से ‘श्' का ‘स्’; १-१७७ की वृत्ति से 'च' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होकर पिसाजी रूप सिद्ध हो जाता है।
एकत्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एकत्तं होता है। इनमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर एगत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
एकः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एगो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १- १७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एगो रूप सिद्ध हो जाता है।
अमुकः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अमुगो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से ‘क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुगो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 145 असुकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप असुगो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से और ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर असुगो रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रावकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सावगो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; १ - २६० से शेष ‘श्' का ‘स् ं; १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सावगो रूप सिद्ध हो जाता है।
आकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आगारो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगारो रूप सिद्ध हो जाता है।
तीर्थकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्थगरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति, २ - ७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'थ' को द्वित्व ' थ्थ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व' थ्' को ' त् की प्राप्ति; १ - २९ से अनुस्वार का लोप; १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ि के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तित्थगरो रूप सिद्ध हो जाता है।
आकर्षः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आगरिसा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति २- १०५ से 'र्ष' के पूर्व में 'इ' का आगम होकर 'र्' को 'रि' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगरिसो रूप सिद्ध हो जाता है।
लोकस्य संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोगस्स होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से और ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३- १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोगस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
उद्योतकराः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उज्जो अगरा होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- २४ से 'घ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' का द्वित्व 'ज्ज्' ; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप एवं ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व 'अ' का दीर्घ 'आ' होकर उज्जो अगरा रूप सिद्ध हो जाता है।
आकुञ्चनम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष- प्राकृत रूप आउण्टणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप; १-१७७ से की वृत्ति से 'च' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; १-३० से 'ञ्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आउण्टणं रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१७७।।
यमुना - चामुण्डा - कामुकातिमुक्तके मोनुनासिकश्च ।। १ - १७८ ।।
एषु मस्य लुग् भवति, लुकि च सति मस्य स्थाने अनुनासिको भवति ।। जउँणा । चाउँण्डा । काउँओ । अणिउँतय ।। क्वचिन्न भवति । अइमुंतयं । अइमुत्तयं ॥
अर्थ::-यमुना, चामुण्डा, कामुक और अतिमुक्तक शब्दों में स्थित 'म्' का लोप होता है और लुप्त हुए 'म्' के स्थान पर 'अनुनासिक' रूप की प्राप्ति होती है। जैसे-यमुना-जउँणा | चामुण्डा-चाउँण्डा। कामुकः-काउँओ। अतिमुक्तकम्=अणिउँतयं ।। कभी कभी 'म्' का लोप नहीं भी होता है और तदनुसार अनुनासिक की भी प्राप्ति नहीं होती है । जैसे-अतिमुक्तकम् अइमुंतयं और अइमुत्तयं।। इस उदाहरण में अनुनासिक के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति हुई है।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
146 : प्राकृत व्याकरण
जउँणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४ में की गई है।
चामुण्डा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चाउँण्डा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७८ से 'म्' का लोप और इसी सूत्र से अनुनासिक की प्राप्ति होकर चाउँण्डा रूप सिद्ध हो जाता है।
कामुकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप काउँओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७८ से 'म्' का लोप और इसी सूत्र से शेष 'उ' पर अनुनासिक की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काउँओ रूप सिद्ध हो जाता है। अणिउँतय, अइमुतय और अइमुत्तयं रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है।। १-१७८।।
नावर्णात् पः।। १-१७९।। अवर्णात् परस्यानादेः पस्य लुग् न भवति।। सवहो। सावो।। अनादेरित्येव परउट्ठो।।
अर्थः यदि किसी शब्द में 'प' आदि रूप से स्थित नहीं हो तथा ऐसा वह 'प' यदि 'अ' स्वर के पश्चात् स्थित हो तो उस 'प' व्यबजन का लोप नहीं होता है। जैसे शपथः सवहो। शापः सावो।
प्रश्न-'अनादि रूप से स्थित हो' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर-क्योंकि आदि रूप से स्थित 'प्' का लोप होता हुआ भी देखा जाता है। जैसे :- पर-पुष्ट:=परउट्टो।।।
शपथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सवहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श्' का 'स्' १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१८७ से 'थ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सवहो रूप सिद्ध हो जाता है।
शापः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सावो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श्' का 'स्' १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सावो रूप सिद्ध हो जाता है।
पर-पुष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पर-उ8ो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; २-३४ से ष्ट का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर-उट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१७९।।
अवर्णो य श्रुतिः।। १-१८०।। क ग च जेत्यादिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात् परो लघु प्रयत्नतर यकार श्रुतिर्भवति।। तित्थयरो। सयढं। नयंर। मयङको। कयग्गहो। कायमणी। रययं। पयावई रसायलं। पायलं। मयणो। गया। नयण। दयाल। लायण्ण।। अवर्ण इति किम्। स उणो। पउणो। पउ। राईवं। निहओ। निनओ। वाऊ। कई। अवर्णादित्येव। लोअस्स। देअरो॥ क्वचिद् भवति। पियइ।
अर्थः-क, ग, च, ज इत्यादि व्यञ्जन वर्णो के लोप होने पर शेष 'अ' वर्ण के पूर्व में 'अ अथवा आ रहा हुआ हो तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार हुआ करता है; जैसे-तीर्थकरः-तित्थयरो। शकटम् सयढं। नगरम् नयरं। मृगाङक: मयङको। कच-ग्रहः कयग्गहो। काचमणिः कायमणी। रजतम्=रययं। प्रजापतिः पयावई। रसातलम्-रसायल। पातालम्=पायालं। मदनः मयणो। गदा-गया। नयनम् नयणी दयालुः=दयालू। लावण्यम् लायण्ण।।
प्रश्नः-लुप्त व्यञ्जन-वों में से शेष 'अ' वर्ण का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः-क्योंकि यदि लुप्त व्यञ्जन वर्णो में 'अ' स्वर के अतिरिक्तं कोई भी दूसरा स्वर हो; तो उन शेष किसी भी
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 147 स्वर के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार नहीं हुआ करता है । जैसे:- शकुनः- सउणो । प्रगुणः-पउणो। प्रचुरं =पउरं । राजीवम्=राईवं। निहतः=निहओ। निनदः=निनओ। वायुः=वाऊ। कतिः=कई।।
निहतः और निनदः में नियमानुसार लुप्त होने वाले 'त्' और 'द्' व्यञ्जन वर्णो के पश्चात् शेष 'अः' रहता है। न कि 'अ' । तदनुसार इन शब्दों में शेष 'अः' के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं हुई है।
प्रश्न- शेष रहने वाले 'अ' वर्ण के पूर्व में 'अ' अथवा आ' हो तो उस शेष 'अ' के स्थान पर 'य' कार होता है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-क्योंकि यदि शेष रहे हुए 'अ' वर्ण के पूर्व में ' अ अथवा आ' स्वर नहीं होगा तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे- लोकस्य लोअस्स । देवरः- देअरो। किन्तु किसी किसी शब्द में लुप्त होने वाले व्यञ्जन वर्णों में से शेष 'अ' वर्ण के पूर्व में यदि 'अ अथवा आ' नहीं होकर कोई अन्य स्वर भी रहा हुआ उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर 'य' कार भी होता हुआ देखा जाता है। जैसे- पिवति पियइ।। इत्यादि।।
तित्थयरो सयढं और नयरं की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है।
मङको रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १३० में की गई है।
कहो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १९७७ में की गई है।
काच-मणिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप काय- मणी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर काय - मणी रूप सिद्ध हो जाता है।
रययं पयावई, रसायलं और मयणो रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७७ में की गई है।
पातालम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पायालं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'तू' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पायालं रूप सिद्ध हो जाता है।
‘गया'; 'नयणं'; 'दयालू'; और लायण्णं रूपों की भी सिद्धि सूत्र - संख्या १-१७७ में की गई है।
शकुनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सउणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से क् का लोप; १-२२८ से ‘न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पडणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-१७७ से ग् का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रचुरम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पउरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १७७ से 'च्' का लोप; ३- २५ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पउरं रूप सिद्ध हो जाता है।
राजीवम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप राइवं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर राईवं रूप सिद्ध हो जाता है।
निहतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निहओ होता है। इसमें सूत्र- संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निहओ रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
148 : प्राकृत व्याकरण
वायुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वाऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर को दीर्ध 'ऊ' की प्राप्ति होकर वाऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
कई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–१२८ में की गई है।
लोकस्य संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोअस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-१० से पृष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोअस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
देवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप देअरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देअरो रूप सिद्ध हो जाता है।
पिवति संस्कृत सकर्मक क्रिया रूप है। इसका प्राकृत रूप पियइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में पुल्लिंग में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पियइ रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१८०।।
कब्ज-कर्पर कीले कः खोऽपष्पे।। १-१८१॥ एषु कस्य खो भवति पुष्पं चेत् कुब्जाभिधेयं न भवति।। खुज्जो। खप्परं। खीलओ।। अपुष्प इति किम्। बंधेउं कुज्जय-पसूण। आर्षेऽन्यात्रापि। कासितं। खासिओ कसितं। खसि।।
अर्थः-कुब्ज; कर्पर; और कीलक शब्दों में रहे हुए 'क' वर्ण का 'ख' हो जाता है। किन्तु यह ध्यान में रहे कि कुब्ज शब्द का अर्थ 'पुष्प' नहीं हो तभी 'कुब्ज' में स्थित 'क' का 'ख' होता है; अन्यथा नहीं। जैसे-कुब्जः खुज्जो। कर्परम् खप्परं। कीलक:=खीलओ।।
प्रश्न:-'कुब्ज' का अर्थ फूल-'पुष्प' नहीं हो; तभी कुब्ज में स्थित 'क' का 'ख' होता है ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः-क्योंकि यदि कुब्ज का अर्थ पुष्प होता हो तो कुब्ज में स्थित 'क' का 'क' ही रहता है। जैसे:-बंधितुम् कुब्जक-प्रसूनम= बंधेउं कुज्जय-पसूण।। आर्ष-प्राकृत में उपरोक्त शब्दों के अतिरिक्त अन्य शब्दों में भी 'क' के स्थान पर 'ख' का आदेश होता है। जैसे:-कासितम्-खासि कसितम खसिअं इत्यादि।। ___ कुब्जः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप खुज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ से 'क्' को 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खज्जो रूप सिद्ध हो जाता है।
कर्परम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खप्परं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ से 'क' को 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खप्परं रूप सिद्ध हो जाता है। __ कीलकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खिलिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ से प्रथम 'क' को 'ख' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खिलिओ रूप सिद्ध हो जाता है।
बंधितुम् संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बंधेउं होता है। इसमें संस्कृत मूल धातु 'बंध' है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त 'ध्' में 'अ' की प्राप्ति; संस्कृत (हेमचन्द्र) व्याकरण के ५-१-१३ सूत्र से हेत्वर्थ कृदन्त में 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं सूत्र संख्या ३-१५७ से 'ध' में प्राप्त 'अ' को 'ए' की प्राप्ति; १-१७७ से 'तुम्' प्रत्यय में स्थित 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर बंधेउं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 149 कुब्जक संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कुज्जय होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय ' का लोप और १-१८० से शेष 'अ'को 'य' की प्राप्ति होकर कुज्जय रूप सिद्ध हो जाता है।
कासितम् संस्कृत रूप है। आर्ष-प्राकृत में इसका रूप खासिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ की वृत्ति से 'क्' के स्थान पर 'ख' का आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खासिअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ कसितम् संस्कृत रूप है। आर्ष-प्राकृत में इसका रूप खसिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ की वृत्ति से 'क्' के स्थान पर 'ख' का आदेश और शेष सिद्धि उपरोक्त खासिअं रूप के समान ही जानना।। १-१८१।।
मरकत-मदकले गः कंदुके त्वादेः।। १-१८२।। अनयोः कस्य गो भवति, कन्दुकेत्वाद्यस्य कस्य।। मरगयं। मयगलो। गेन्दु।। अर्थः-मरकत और मदकल शब्दों में रहे हुए "क" का तथा कन्दुक शब्द में रहे हुए आदि 'क' का "ग" होता है। जैसेः=मरकतम् मरगय; मदकलः मयगलो और कन्दुकम्=गेन्दुआ। __ मरकतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मरगयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८२ से "क" के स्थान पर "ग" की प्राप्ति; १-१७७ से त् का लोप १-१८० से शेष 'अ' को य की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में "सि"प्रत्यय के स्थ
क स्थान पर"म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त "म्" का अनुस्वार होकर मरगयं रूप सिद्ध हो जाता है। मदकलः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मयगलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १–१८२ से 'क' के स्थान पर 'ग' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयगलो रूप सिद्ध हो जाता है। गेन्दुअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५७ में की गई है।।। १-१८२।।
किराते चः।। १-१८३।। किराते कस्य चो भवति।। चिलाओ।। पलिन्द एवायं विधिः। कामरूपिणि तु नेष्यते। नमिमो हर-किराय।।
अर्थः-'किरात' शब्द में स्थित 'क' का 'च' होता है। जैसे:-किरातः चिलाओ।। किन्तु इसमें यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि जब 'किरात' शब्द का अर्थ 'पलिन्द' याने भील जाति वाचक हो; तभी किरात में स्थित 'क' का 'च' होगा, अन्यथा नहीं। द्वितीय बात यह है कि जिसने स्वेच्छा पूर्वक 'भील' रूप धारण किया हो और उस समय में उसके लिये यदि 'किरात' शब्द का प्रयोग किया जाय तो प्राकृत भाषा के रूपान्तर में उस 'किरात' में स्थित 'क' का 'च' नहीं होगा। जैसे-नमामः हर किरातम्-नमिमो हर-किराय।।
किरातः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चिलाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८३ से 'क' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिलाओ रूप सिद्ध हो जाता है।
नमामः संस्कृत सकर्मक क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप नमिमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त 'नम्' धातु में अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त 'अ विकरण प्रत्यय के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष ( उत्तम पुरुष ) के बहुवचन में 'मो प्रत्यय की प्राप्ति होकर नमिमो रूप सिद्ध हो जाता है।
हर-किरातम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हर-किरायं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप१-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'अम्' प्रत्यय मे स्थित 'अ'का लोप और १-२३ से शेष 'म्' का अनुस्वार होकर अर किरायं रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१८३।।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
150 : प्राकृत व्याकरण
शीकरे भ-हो वा।। १-१८४।। शीकरे कस्य महो वा भवतः।। सीभरो सीहरो। पक्षे सीअरो।
अर्थः-शीकर शब्द में स्थित 'क' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'भ' अथवा 'ह' की प्राप्ति होती है। जैस-शीकरः=सीभरो अथवा सीहरो।। पक्षान्तर में सीअरो भी होता है।
शीकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सीभरो, सीहरो और सीअरो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्'; १-१८४ से प्रथम रूप और द्वितीय रूप में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'क' के स्थान पर 'भ' अथवा 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से तृतीय रूप में पक्षान्तर के कारण से 'क्' का लोप और ३-२ से सभी रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से सीभरो, सीहरो और सीअरो रूप सिद्ध हो जाते हैं।। १-१८४॥
चंद्रिकायां मः॥ १-१८५॥ चंद्रिका शब्दे कस्य भो भवति।। चंदिमा।। अर्थः- चन्द्रिका शब्द में स्थित 'क्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति होती है। जैसे:-चंद्रिका=चन्दिमा।।
चन्द्रिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चन्दिमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप और १-१८५ . से 'क्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति होकर चन्दिमा रूप सिद्ध हो जाता है। १-१८५||
निकष-स्फटिक-चिकुरेहः।। १-१८६।। एषु कस्य हो भवति।। निहसो। फलिहो। चिहुरो। चिहुर शब्दः संस्कृतेपि इति दुर्गः।।
अर्थः-निकष, स्फटिक और चिकुर शब्दों में स्थित 'क' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे:-निकषः-निहसो। स्फटिकः-फलिहो। चिकुरः-चिहुरो।। चिहुर शब्द संस्कृत भाषा में भी होता है; ऐसा दुर्गकोष में लिखा हुआ है।
निकषः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निहसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'क' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निहसो रूप सिद्ध हो जाता है।
स्फटिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप फलिहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७७ से 'स' का लोप; १-१९७ से 'ट् के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१८६ से 'क' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फलिहो रूप सिद्ध हो जाता है।
चिकुरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चिहुरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८६ से 'क' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिहुरो रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१८६।।
ख-घ-थ-ध-भाम्।। १-१८७।। स्वरात् परेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां ख घ थ ध भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति।। ख। साहा। मुहं। मेहला। लिहइ।। घ। मेहो। जहण। माहो। लाहइ। था नाहो। आवसहो। मिहुणं। कहइ।। धा साहू। वाहो। बहिरो। बाहइ। इन्द-हणू। भ। सहा। सहावो। नह। थणहरो। सोहइ।। स्वरादित्येव। संखो। संघो। कंथा। बंधो। खंभो। असंयुक्तस्येत्येव। अक्खइ। अग्घइ। कत्थई। सिद्धओ। बन्धइ। लब्भइ।। अनादेरित्येव। गज्जन्ते खे मेहा। गच्छइ घणो। प्राय इत्येव। सरिसव-खलो। पलय-घणो। अथिरो। जिण घम्मो। पणट्ठ भओ। नभ।।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 151
,'थ' का, 'ध' का,
अर्थः-'ख' का, 'घ' का, और 'भ' का प्रायः 'ह' उस समय होता है; जबकि ये वर्ण किसी भी शब्द में स्वर से पीछे रहे हुए हों; असंयुक्त याने हलन्त न हों तथा उस शब्द में आदि अक्षर रूप से नहीं रहे हुए हो || जैसे- 'ख' के उदाहरण:- शाखा - साहा; मुखम् - महं; मेखला - मेहला और लिखति लिहइ ।। 'घ' के उदाहरण: - मेघः = मेहो; जघनम्=जहणं; माघः=माहो और श्लाघते - लाह || 'थ' के उदाहरण:- नाथ:-नाहो, आवसथः = आवसहो, मिथुणं - मिहुणं, कथयति=कहइ।। 'ध' के उदाहरण :- साधुः - साहू; व्याधः = वाहो; बधिरः = बहिरो; बाधते - बाहइ और इन्द्र-धनुः-इन्द-हणू।। 'भ' के उदाहरण: - सभा - सहा; स्वभाव:- सहावो; नभम्-नहं; स्तन - भर: - थणहरो और शोभते सोहइ ।।
प्रश्नः -'ख' 'घ' आदि ये वर्ण स्वर के पश्चात् रहे हुए हों 'ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- क्योंकि यदि ये वर्ण स्वर के पश्चात् नहीं रहते हुए किसी हलन्त व्यञ्जन के पश्चात् रहे हुए हों तो उस अवस्था में इन वर्णों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- 'ख' का उदाहरण शंखः संखो। 'घं' का उदाहरण - संघः = संघो । 'थ' का उदाहरण - कन्था = कंथा । 'ध' का उदाहरण बन्धः = बन्धो और 'भ' का उदाहरण-खम्भः=खंभो ।। इन शब्दों में 'ख' 'घ' आदि वर्ण हलन्त व्यञ्जनो के पश्चात् रहे हुए हैं; अतः इन शब्दों में 'ख' 'घ' आदि वर्णो के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं हुई है।
प्रश्नः -' असंयुक्त याने हलन्त रूप से नहीं रहे हुए हो; तभी इन वर्णो के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है' ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- क्योंकि यदि ये 'ख' 'घ' आदि वर्ण हलन्त रूप से अवस्थित हों तो इनके स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- 'ख' का उदाहरण-आख्याति = अक्खाइ । 'घ्' का उदाहरण- अर्घ्यते= अग्घइ । 'थ्' का उदाहरण :- कथ्यते = कत्थइ । 'ध्' का उदाहरण- सिध्यक:- सिद्धओ । बद्धयते = बन्धइ और 'भ' का उदाहरण - लभ्यते = लब्भइ ।।
प्रश्नः -'शब्द में आदि अक्षर रूप ये 'ख' 'घ' आदि वर्ण नहीं रहे हुए हो तो इन वर्णो के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- क्योंकि यदि ये 'ख' 'घ' आदि वर्ण किसी भी शब्द में आदि अक्षर रूप से रहे हुए हों तो इनके स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- 'ख' का उदाहरण-गर्जन्ति खे मेघाः- गज्जन्ते खे मेहा ।। 'घ' का उदाहरण- गच्छति घनः गच्छइ घणो ।। इत्यादि इत्यादि ।
प्रश्नः - ' प्रायः इन वर्णो के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है' ऐसा 'प्रायः अव्यय का उल्लेख क्यों किया गया है ?
|
उत्तरः- क्योंकि अनेक शब्दों में 'स्वर से परे; असंयुक्त और अनादि' होते हुए भी इन वर्णो के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती हुई नहीं देखी जाती है। जैसे:- 'ख' का उदाहरण-सर्षप खलः सरिसवखलो। 'घ' का उदाहरण-प्रलय-घनः- पलय - घणो ॥ 'थ' का उदहारण- अस्थिरः = अथिरो ।। 'ध' का उदाहरण - जिन - धर्मः - जिण - धम्मो || तथा 'भ' का उदहारण-प्रणष्ट-भयः = पणट्ट - भओ और नभम् = नभं । । इन उदाहरणों में 'ख' 'घ' आदि वर्णो के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं हुई है ||
शाखा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप साहा होता है। इसमें सूत्र- संख्या १ - २६० से 'श्' का 'स्'; और १- १८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर साहा रूप सिद्ध हो जाता है।
मुखम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नुपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुहं रूप सिद्ध हो जाता है।
मेखला संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मेहला होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर मेहला रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
152 : प्राकृत व्याकरण
___ लिखति संस्कृत क्रिया-पद रूप है। इसका प्राकृत रूप लिहइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लिहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
मघः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मेहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मेहो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ जघनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जहणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नुपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर जहणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___माघः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माहो रूप सिद्ध हो जाता है। __ लाघते संस्कृत सकर्मक क्रिया-पद रूप है। इसका प्राकृत रूप लाहइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'श्' का लोप; १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल से प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लाहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
नाथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नाहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नाहो रूप सिद्ध हो जाता है।
आवसथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आवसहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आवसहो रूप सिद्ध हो जाता है।
मिथुनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मिहुणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नुपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मिहुणं रूप सिद्ध हो जाता है। __कथयति संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप कहइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से 'कथ्' धातु के हलन्त 'थ' में विकरण प्रत्यय 'अकी प्राप्ति: संस्कत-भाषा में गण-विभाग होने से प्राप्त विकरण प्रत्य प्राकृत-भाषा में गण-विभाग का अभाव होने से लोप; १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ३-१३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
साधुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप साहू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्तः पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर साह रूप सिद्ध हो जाता है। ___ व्याधः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वाहो होता है ? इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाहा रूप सिद्ध हो जाता है।
बीधरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप बहिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 153 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बहिरो रूप सिद्ध हो जाता है।
बाधते संस्कृत सकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप बाहर होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ४- २४९ से 'धू' हलन्त व्यञजन के स्थानापन्न व्यञ्जन 'ह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बाहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
इन्द्र धनुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप इन्दहणू होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर इन्दहणु रूप सिद्ध हो जाता है।
सभा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सहा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और संस्कृत-व्याकरण के विधानानुसार आकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्द में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' स्वर की इत्संज्ञा तथा १ - ११ से शेष 'स' का लोप होने से प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप से सहा रूप सिद्ध हो जाता है।
स्वभावः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सहावो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'व्' का लोप; १ - १८७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहावा रूप सिद्ध हो जाता है।
नहं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ३२ में की गई है।
स्तन भरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थणहरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-२२८ से ‘न' का 'ण'; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थणहरो रूप सिद्ध हो जाता है।
शोभते संस्कृत अकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप सोहइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- २३९ से 'शोभू' धातु में स्थित हलन्त 'भ्' में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' का 'स'; १- १८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सोहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
संखो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ३० में की गई है।
सङ्घः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संघो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- २५ से 'ङ्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संघो रूप सिद्ध हो जाता है।
कन्था संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कंथा होता है। इसमें सूत्र- संख्या १ - २५ से 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा तथा १ - ११ से शेष अन्त्य 'स्' का लोप होकर कंथा रूप सिद्ध हो जाता है।
बन्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बंधो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२५ से 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बंधो रूप सिद्ध हो जाता है।
स्तम्भः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खंभो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-८ से 'स्त' के स्थान 'ख' की प्राप्ति
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
154 : प्राकृत व्याकरण
१-२३ की वृत्ति से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खंभो रूप सिद्ध हो जाता है। ___आख्याति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप अक्खइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से आदि 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्श 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ४-२३८ से 'खा' में स्थित 'आ' को 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अक्खइ रूप सिद्ध हो जाता है।
अर्ध्यते संस्कृत कर्म भाव-वाच्य क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्घइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'घ' को द्वित्व 'घ्घ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'घ' को 'ग्' की प्राप्ति; ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्घइ रूप सिद्ध हो जाता है।
कथ्यते संस्कृत कर्म भाव-वाच्य क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप कत्थइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'थ' को द्वित्व'थ्थ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' को 'त् की प्राप्ति; ३-१७७ से कर्म भाव-वाच्य प्रदर्शक संस्कृत प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य ज्ज़ अथवा 'ज्जा' प्रत्यय का लोप और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'त्' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कत्थइ रूप सिद्ध हो जाता है।
सिघ्रकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिद्ध होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' को 'द्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिद्धओ रूप सिद्ध हो जाता है।
बन्ध्यते संस्कृत कर्म भाव-वाच्य क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप बन्धइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१७७ से कर्म भाव-वाच्य प्रदर्शक संस्कृत प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य 'ज्ज' अथवा 'ज्जा' प्रत्यय का लोप; ४-२३९ से शेष हलन्त 'ध' में अकी प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बन्धइ रूप सिद्ध हो जाता है।
लभ्यते संस्कृत कर्म भाव-वाच्य क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप लब्भइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२४९ से कर्म भाव-वाच्य 'य' प्रत्यय का लोप होकर शेष 'भ' को द्वित्व 'भ्भ' प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'भ' को 'ब' की प्राप्ति; ४-२३९ से हलन्त 'भ' में 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लब्भइ रूप सिद्ध हो जाता है।
गर्जन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप गज्जन्ते होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप: २-८९ से 'ज' को द्वित्व'जज' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के वचन में संस्कृत प्रत्यय 'न्ति' के स्थान पर 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गज्जन्ते रूप सिद्ध हो जाता है।
खे संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'ख' ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'ङि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खे' रूप सिद्ध हो जाता है।
मेघाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मेहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'घ' को 'ह' प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप तथा ३-१२ से प्राप्त होकर लुप्त हुए जस् प्रत्यय के कारण से अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होकर मेहा रूप सिद्ध हो जाता है।
गच्छति संस्कृत सकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप गच्छइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से गच्छ् धातु के हलन्त 'छ' में विकरण प्रत्यय 'अ'की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गच्छइ रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
घणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७२ में की गई है।
सर्षप खलः रूप विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सरिवस - खलो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- १०५ से 'र्ष' शब्दांश के पूर्व में अर्थात् रेफ रूप 'र्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' का 'स्' ; १ - २३१ से 'प' का 'व्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिसव-खलो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 155
प्रलय संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पलय होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप होकर पलय रूप सिद्ध हो जाता है।
घणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७२ में की गई है।
अस्थिरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अथिरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अथि रूप सिद्ध हो जाता है।
जिनधर्मः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जिण-धम्मो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७९ से 'र्' का लोप २-८९ से 'म्' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिण धम्मो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रणष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पणओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २- ३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से 'ठ' की द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० प्राप्त पूर्व ' ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणओ रूप सिद्ध हो जाता है।
भयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भओ रूप सिद्ध हो जाता है।
नभं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ३२ में की गई है ।। १ - १८७।। पृथकि धो वा । । १ - १८८।।
पृथक् शब्दे थस्य वा भवति ।। पिधं पुधं । पिहं पुहं ॥
अर्थः-पृथक् शब्द में रहे हुए 'थ' का विकल्प रूप से 'ध' भी होता है। अतः पृथक् शब्द के प्राकृत में वैकल्पिक पक्ष होने से चार रूप इस प्रकार होते हैं: - पृथक् = पिधं; पुधं; पिहं और पुहं ||
पृथक् संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप पिधं, पुधं पिहं और पुहं होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १ - १३७ से 'ऋ' के स्थान पर विकल्प रूप से और क्रम से 'इ' अथवा 'उ' की प्राप्ति; १ - १८८ से 'थ' के स्थान पर विकल्प रूप से प्रथम दो रूपों में ‘ध' की प्राप्ति; तथा १ - १८७ से तृतीय और चतुर्थ रूपों में विकल्प से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' का लोप; और १ - २४ की वृत्ति से अन्त्य स्वर 'अ' को अनुस्वार' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप पिंध, पुधं, पिह और पुहं सिद्ध हो जाते हैं ।। १- १८८ ।।
श्रृङ्खले खः कः ।। १ - १८९ ।।
श्रृङ्खले खस्य को भवति।। सङकलं ।।
अर्थः-शृङ्खल शब्द में स्थित 'ख' व्यञ्जन का 'क' होता है। जैसे- शृङखलम्ः = सङकलं ।।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
156 : प्राकृत व्याकरण
शृङ्खलम् संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप सङ्कलं अथवा संकलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' का 'स'; १-३० और १ - २५ से 'ङ्' व्यञ्जन का विकल्प से अनुस्वार अथवा यथा रूप की प्राप्ति; १ - १८९ से 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सङ्कलं अथवा संकलं रूप सिद्ध हो जाता ।। १-१८९।।
पुन्नाग - भागिन्योर्गो मः ।। १ - १९० ।।
अनयोर्गस्य मो भवति।। पुन्नामाइँ वसन्ते । भामिणी ॥
अर्थः-पुन्नाग और भागिनी शब्दों में स्थित 'ग' का 'म' होता है। जैस - पुन्नागानि = पुन्नामाइं । । भागिनी = भामिणी ।।
पुन्नागानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुन्नामाई होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १९० से 'ग' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३ - २६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'हूँ' प्रत्यय की प्राप्ति और अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' की दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति भी इसी सूत्र (३ - २६ ) से होकर पुन्नामाइँ रूप सिद्ध हो जाता है।
वसन्ते संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप वसन्ते होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ङि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसन्ते रूप सिद्ध हो जाता है।
भागिनी संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भामिणी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १९० से 'ग' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' का 'ण' और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा तथा १ - ११ से शेष अन्त्य 'स्' का लोप होकर भामिणी रूप सिद्ध हो जाता है ।। १ - १९० ।।
छागे लः ।। १- १९१।।
छागे गस्य लो भवति ।। छालो छाली ।।
अर्थः
:- छाग शब्द में स्थित 'ग' का 'ल' होता है। जैसे :- छाग:- छालो ।। छागी = छाली ॥
छागः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छाला होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १९१ से 'ग' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छालो रूप सिद्ध हो जाता है।
छागीः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छाली होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १९१ से 'ग' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति होकर छाली रूप सिद्ध हो जाता है ।। १ - १९१।।
ऊत्वे दुर्भग- सुभगे वः ।। १-१९२।।
अनयोरूत्वे गस्य वो भवति ।। दूहवो । सूहवो ॥ ऊत्व इति किम् । दुहओ ।। सुहओ ॥
अर्थः- दुर्भग और सुभग शब्दों में स्थित 'ग' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होती है। जैसे- दुर्भगः - दूहवो। सुभगः सूहवो || किन्तु इसमें शर्त यह है कि 'ग' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होने की हालत में 'दुर्भग' और 'सुभग' शब्दों में स्थित ह 'उ' को दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति भी होती है। यदि हस्व 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ' नहीं किया जायगा तो फिर 'ग' को 'व' की प्राप्ति नहीं होकर 'ग्' का लोप हो जायगा । इसीलिये सूत्र में और वृत्ति में 'ऊत्व' की शर्त का विधान किया गया है। अन्यथा 'ग्' का लोप होने पर 'दुर्भगः' का 'दुहओ' होता है और 'सुभगः' का 'सुहओ' होता है ।।
दूहवो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११५ में की गई है। सूहवो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११३ में की गई है।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुहओ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११५ में की गई है। सुहओ रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११३ में गई है । । । १ - १९२ ।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 157
खचित-पिषाचयोश्चः स ल्लौ वा ।। १-१९३।।
अनयोश्चस्य यथासंख्यं स ल्ल इत्यादेषो वा भवतः ॥ खसिओ खइओ । पिसल्लो पिसाओ ।
अर्थः खचित शब्द में स्थित 'च' का विकल्प से 'स' होता है। और पिशाच शब्द में स्थित 'च' का विकल्प से 'ल्ल' होता है। जैसे:- खचितः खसिओ अथवा खइओ और पिशाचः - पिसल्लो अथवा पिसाओ ।
खचितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत खसिओ और खइआ होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - १९३ से विकल्प रूप से 'च्' के स्थान पर 'स्' आदेश की प्राप्ति और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च' का लोप; दोनों ही रूपों में सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से खसिओ तथा खइआ रूपों की सिद्धि हो जाती है।
पिशाचः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पिसल्लो और पिसाओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र- संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श्' का 'स्' ; १ - १९३ से 'च्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ल्ल' आदेश की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पिसल्लो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पिसाओ में सूत्र - संख्या १ - २६० से 'शू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च्' का लोप और ३-२ से प्रथम रूप के समान ही 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप पिसाओ भी सिद्ध हो जाता है । । १ - १९३ ।।
जटिले जो झो वा ।। १-१९४।।
जटिले जस्य झो वा भवति ।। झडिलो जडिलो ॥
अर्थः-जटिल शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'झ' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- जटिल :- झडिलो अथवा जडिलो ।।
: संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप झडिलो और जडिलो होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १९४ से 'ज' के स्थान पर विकल्प रूप से 'झ' की प्राप्ति; १ - १९५ से 'टू' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जडिलो रूप सिद्ध हो जाते हैं । । १ - १९४ ।।
।। टो डः १ - १९५ ॥
स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेष्टस्य डो भवति ।। नडो । भडो । घडो । घडइ ।। स्वरादित्येव । घंटा ।। असंयुक्तस्येत्येव। खट्टा।। अनादेरित्येव । टक्को ।। क्वचिन्न भवति । अटति ।। अटइ।।
अर्थः-यदि किसी शब्द में 'ट' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ, असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त भी न हो तथा आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती है। जैसे:- नटः-नडो । भटः = भडो।। घटः=घडो।। घटति = घडइ ||
प्रश्नः - " स्वर से परे रहता हुआ हो" ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ट' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा; तो उस 'ट' का 'ड' नहीं होगा । जैसे घण्टा=घंटा ।।
प्रश्नः=संयुक्त अर्थात् हलन्त नहीं होना चाहिये; याने असंयुक्त अर्थात् स्वर से युक्त होना चाहिये। ऐसा क्यों कहा गया है ?
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
158 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ट' वर्ण संयुक्त होगा; तो उस 'ट' का 'ड' नहीं होगा। जैसे:-खट्वा खट्टा।। प्रश्न:-अनादि रूप से स्थित हो; याने शब्द के आदि स्थान पर स्थित नहीं हो; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ट' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'ट' का 'ड' नहीं होगा। जैसः-टक्कः टक्को।। किसी किसी शब्द में ऐसा भी देखा जाता है कि 'ट' वर्ण शब्द में अनादि और असंयुक्त है तथा स्वर से परे भी रहा हुआ है; फिर भी 'ट' का 'ड' नहीं होता है। जैसे:- अटति अटइ।
नटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत नडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नडो रूप सिद्ध हो जाता है।
भटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भडो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ घटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप घडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घडो रूप सिद्ध हो जाता है। _घटति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप घडइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९५ से 'ट' का 'ड' और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घडइ रूप सिद्ध हो जाता है। __ घण्टाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप घंटा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२५ से 'ण' का अनुस्वार होकर घंटा रूप सिद्ध हो जाता है।
खट्वाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत खट्टा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व' का लोप; २-७९ से 'ट्' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति; और संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' का इत्संज्ञानुसार लोप तथा १-११ से शेष 'स्' का लोप होकर खट्टा रूप सिद्ध हो जाता है।
टक्कः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत टक्को होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टक्को रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अटति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत अटइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अटइ रूप सिद्ध हो जाता है।। १-१९५।।
सटा-शकट-कैटभे ढः।। १-१९६।। एषु टस्य ढो भवति।। सढा। सयढो। केढवो।। अर्थः-सटा, शकट और कैटभ में स्थित 'ट' का 'ढ' होता है। जैसे:-सटा= सढा।। शकट:-सयढो।। कैटभः केढवो।।
सटा संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सढा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९६ से 'ट' का 'ढ'; संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' का इत्संज्ञानुसार लोप और १-११ से शेष 'स्' का लोप होकर सढा रूप सिद्ध हो जाता है। __ शकटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत सयढो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लुप्त हुए 'क्' में स्थित 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-१९६ से 'ट'; का 'ढ' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सयढो रूप सिद्ध हो जाता है।
केढवो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४८ में की गई है। १-१९६।।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 159
स्फटिके लः।। १-१९७।। स्फटिके टस्य लो भवति।। फलिहो।। अर्थः स्फटिक शब्द में स्थित 'ट' वर्ण का 'ल' होता है। जैसः-स्फटिकः-फलिहो।। फलिहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१८६ में की गई है।। १-१९७।।
चपेटा-पाटौ वा।। १-१९८॥ चपेटा शब्दे ण्यन्ते च पटि धातो टस्य लो वा भवति।। चविला चविडा। फालेइ फाडेह।
अर्थः-चपेटा शब्द में स्थित 'ट' का विकल्प से 'ल' होता है। तदनुसार एक रूप में तो 'ट' का 'ल' होगा और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट्' का 'ड' होगा। जैसे:-चपेटा-चविला अथवा चविडा।। इसी प्रकार से 'पटि' धातु में भी प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप होने की हालत में 'ट' का वैकल्पिक रूप से 'ल' होता है। तदनुसार एक रूप में तो 'ट' का 'ल' होगा और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट' का 'ड' होगा।। जैसे:-पाटयति फालेइ और फाडेइ।।
चपेटाः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चविला और चविडा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व';१-१४६ से 'ए' को 'इ' की प्राप्ति; १-१९८ से 'ट' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ल' का आदेश होकर चविला रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप चविडा की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४६ में की गई है।
पाटयति संस्कृत सकर्मक प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप फालेइ और फाडेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-१९८ से वैकल्पिक रूप से 'ट्' के स्थान पर 'ल' का आदेश; ३-१४९ से प्रेरणार्थक में संस्कृत प्रत्यय 'णि के स्थान पर अर्थात् 'णि' स्थानीय 'अय' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति से 'ल्+ए' ले; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप फालेइ भी सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप फाडेइ में सूत्र-संख्या १-१९५ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट्' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप फाडेइ भी सिद्ध हो जाता है।।। १-१९८।।
ठो ढः।। १-१९९।। स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेष्ठस्य ढो भवति।। मढो। सढो। कमढो। कुढारो। पढइ।। स्वरादित्येव। वेकुंठो।। असंयुक्तस्येत्येव। चिट्ठइ।। अनादेरित्येव। हिअए ठाई।।
अर्थः-यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ; असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त भी न हो तथा आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति होती है जैसे:-मठः मढो; शठः सढो; कमट: कमढो; कुठारः-कुढारो और पठति पढइ।।
प्रश्न:- ‘स्वर से परे रहता हुआ हो' ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'ठ' का 'ढ' नहीं होगा। जैसे: वैकुण्ठः वेकुंठो।।
प्रश्नः-'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; याने स्वर से युक्त होना चाहिये' ऐसा क्यों कह गया है?
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण संयुक्त होगा-हलन्त होगा-स्वर से रहित होगा तो उस 'ठ' का 'ढ' नहीं होगा। जैसे:-तिष्ठति-चिट्टइ।।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
160: प्राकृत व्याकरण
प्रश्नः-शब्द के आदि स्थान पर स्थित नहीं हो; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-क्योकि यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'ठ' का 'ढ' नहीं होगा। जैसे:-हृदये तिष्ठति-हिअए ठाइ।।
मठः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप मढा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मढा रूप सिद्ध हो जाता है।
शठः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सढो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सढो रूप सिद्ध हो जाता है।
कमठः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कमढो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कमढो रूप सिद्ध हो जाता है।
कुठारः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कुढारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुढारो रूप सिद्ध हो जाता है। __पठति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ' और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढइ रूप सिद्ध हो जाता है।
वैकुण्ठः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप वेकुंठो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-२५ से 'ण' के स्थान पर 'अनुस्वार' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेकुंठो रूप सिद्ध हो जाता है।
तिष्ठतिः संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है ! इसका प्राकृत रूप चिटुइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर 'चिट्ठ' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिट्ठइ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हृदय संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप हिअए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' और 'य' दोनों वर्णो का लोप; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग में 'ङि'='ई' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हिअए रूप सिद्ध हो जाता है।
तिष्ठति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है इसका प्राकृत रूप ठाइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर 'ठा' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ठाइ रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१९९।।
अङ्कोठे ल्लः ।। १-२००।। अङ्कोठे ठस्य द्विरुक्तो लो भवति।। अङ्कोल्ल तेल्लतुप्पं।।
अर्थः-संस्कृत शब्द अङ्कोठ में स्थित 'ठ' का प्राकृत रूपान्तर में द्वित्व 'ल्ल' होता है। जैसे अङ्कोठ तैल घृतम् अङ्कोल्ल-तेल्ल-तुप्प।। __ अंकोठ संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप अङ्कोल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०० से 'ठ' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर अकोल्ल रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 161 तैल संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तेल्ल होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१४५ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और २-९८ से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर 'तेल्ल' रूप सिद्ध हो जाता है।
घृतम् संस्कृत रूप है। इसका देश्य रूप तुप्पं होता है। इसमें सूत्र संख्या का अभाव है; क्योंकि घृतम् शब्द के स्थान पर तुप्पं रूप की प्राप्ति देश्य रूप से है; अतः तुप्पं शब्द रूप देशज है; न कि प्राकृत ।। तदनुसार तुप्प देश्य रूप में ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देश्य रूप तुप्पं सिद्ध हो जाता है ।।। १- २०० ॥
पिठरे हो वा रश्च डः ।। १-२०१।।
पिठरे ठस्य हो वा भवति तत् संनियोग च रस्य डो भवति ।। पिहडो पिढरो ।।
अर्थः-पिठर शब्द में स्थित 'ठ' का वैकल्पिक रूप से 'ह' होता है। अतः एक रूप में 'ठ' का 'ह' होगा और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से 'ठ' का 'ढ' होगा। जहां 'ठ' का 'ह' होगा; वहां पर एक विशेषता यह भी होगी कि पिठर शब्द में स्थित 'र' का 'ड' हो जायगा। जैसे:- पिठरः - पिहडो अथवा पिढरो । पिडरो।
पिठरः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पिहडो और पिढरो होते हैं। इसमें प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - २०१ से 'ठ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ह' की प्राप्ति और इसी सूत्रानुसार 'ह' की प्राप्ति होने से 'र' को 'ड' की प्राप्ति तथा से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पिहडो रूप सिद्ध हो जाता है।
३-२
द्वितीय रूप में सूत्र - संख्या १ - १९९ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति और ३-२ से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप पिढरो भी सिद्ध हो जाता है ।। १- २०१ ।।
डो लः ।। १- २०२॥
स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्डस्य प्रायो लो भवति ।। वडवामुखम्। वलयामुहं ।। गरूलो।। तलायं । कीलइ || स्वरादित्येव। मोंड। कोंडं । असंयुक्तस्येत्येव । खग्गो ।। अनादेरित्येव । रमइ डिम्भो || प्रायो ग्रहणात् क्वचिद् विकल्पः । वलिसं वडिस । दालिमं दाडिमं । गुलो गुडो । णाली गाड़ी । णलं गडं । आमेलो आवेडो ॥ क्वचिन्न भवत्येव । निबिडं । गउडो । पीडिअं । नीडं । उडू तडी ।।
अर्थः-यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त - (स्वर रहित) भी न हो तथा आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'ड' वर्ण का प्रायः 'ल' होता है। जैसे- वडवामुखम् = वलयामुहं । । गरूडः=गरूलो।। तडागम्-तलायं । क्रीडति कील ||
प्रश्नः - " स्वर से परे रहता हुआ हुआ हो" ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'ड' का 'ल' नहीं होगा । जैसे:-मुण्डम्-मोंडं और कुण्डम्=कोंडं इत्यादि।।
प्रश्नः - "संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; अर्थात् असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये" ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण संयुक्त होगा - हलन्त होगा - स्वर से रहित होगा; तो उस 'ड' वर्ण का 'ल' नहीं होगा। जैसे:-खड्गः खग्गो । ।
प्रश्नः - " अनादि रूप से स्थित हो; शब्द के आदि स्थान पर स्थित नहीं हो; शब्द में प्रारंभिक-अक्षर रूप से स्थित नहीं हो; ऐसा क्यों कहा गया है ?
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
162 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'ड' का 'ल' नहीं होगा। जैसे:-रमते डिम्भः रमइ डिम्भो।।
प्रश्न:-"प्रायः" अव्यय का ग्रहण क्यों किया गया है ?
उत्तर:-"प्रायः" अव्यय का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि किन्हीं किन्हीं शब्दों में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ; असंयुक्त और अनादि होता हो तो भी उस 'ड' वर्ण का 'ल' वैकल्पिक रूप से होता है। जैसे:-बडिशम् वलिसं अथवा वडिसं।। दाडिमम्=दालिमं अथवा दाडिम।। गुड:-गुलो अथवा गुडो।। नाड़ी=णाली अथवा णाडी।। नडम्=णलं अथवा णड।। आपीड: आमेलो अथवा आमेडी।। इत्यादि।।
किन्हीं-किन्हीं शब्दों में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ; असंयुक्त एवं अनादि रूप हो; तो भी उस 'ड' वर्ण का 'ल' नहीं होता है। जैसेः-निबिडम्-निबिड।। गौडः गउडो।। पीडितम्= पीडिआ। नीडम्=नीडं। उडुः उडू।। तडित्-तडी।। इत्यादि।। ___ वडवामुखम्ः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वलयामुहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०२ से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व्' का लोप; १-१८० से लुप्त 'व' में से शेष 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' को 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंक लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वलयामुहं रूप सिद्ध हो जाता है।
गरूडः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गरूलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०२ से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गरूलो रूप सिद्ध हो जाता है।
तडागम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तलायं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०२ से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-१८० से लुप्त 'ग्' में से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंक लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तलाय रूप सिद्ध हो जाता है। ___ क्रीडति संस्कृत अकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप कीलइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०२ से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कीलइ रूप सिद्ध हो जाता है।
मोंडं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११६ में की गई है।
कुण्डम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोंडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११६ से 'उ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति: १-२५ से'ण' के स्थान पर पर्व व्यञ्जन पर अनस्वार की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कोंडं रूप सिद्ध हो जाता है।
खग्गा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३४ में की गई है।
रमत संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप रमइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३९ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रमइ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ डिम्भः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप डिम्भो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डिम्भो रूप सिद्ध हो जाता है।
बडिशम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वलिसं और वडिसं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२३७ से 'ब' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-२०२ से वैकल्पिक विधान के अनुसार 'ड' के स्थान पर विकल्प रूप से 'ल' की प्राप्ति; १-२६०
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 163
से 'श' का 'स; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वलिस और वडिसं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दाडिमम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप दालिम और दाडिमं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२०२ से वैकल्पिक विधान के अनुसार विकल्प से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दालिम और दाडिमं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
गुडः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप गुलो और गुडो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२०२ से वैकल्पिक विधान के अनुसार विकल्प से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुडो और गुलो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
नाड़ी संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णाली और णाडी होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-२०२ से वैकल्पिक-विधान के अनुसार विकल्प से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति होकर णाली
और णाडी रूप सिद्ध हो जाते हैं। __नडम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णलं और णडं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण'
की प्राप्ति;; १-२०२ से वैकल्पिक-विधान के अनुसार विकल्प से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर णलं और णडं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
आमेलो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०५ में की गई है।
आपीडः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आमेडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३४ से वैकल्पिक रूप से 'प्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-१०५ से 'ई' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आमेडो रूप सिद्ध हो जाता है।
निबिडम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निबिडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर निबिडं रूप सिद्ध हो जाता है।
गउडो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६२ में की गई है।
पीडितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पीडिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पीडिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
नीडं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०६ में की गई है।
उडुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उडू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' की दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर उडू रूप सिद्ध हो जाता है।
तडिद् (अथवा तडित्) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तडी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से 'द्' अथवा 'त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर तडी रूप सिद्ध हो जाता है।।।१-२०२।।
वेणौ णो वा।। १-२०३।। वेणौ णस्य लो वा भवति॥ वेलू। वेणू।।
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
164 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः-वेणु शब्द में स्थित 'ण' का विकल्प से 'ल' होता है। जैसेः-वेणुः वेलू अथवा वेणू।।
वेणुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०३ से 'ण' के स्थान पर विकल्प से 'ल' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर वेलू और वेणू रूप सिद्ध हो जाते हैं।। १-२०३।।
तुच्छे तश्च-छौ वा।। १-२०४।। तुच्छ शब्दे तस्य च छ इत्यादेसौ वा भवतः।। चुच्छं। छुच्छं। तुच्छं।।
अर्थः-तुच्छ शब्द में स्थित 'त्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'च' अथवा 'छ' का आदेश होता है। जैसे:-तुच्छम्:-चुच्छं अथवा छुच्छं अथवा तुच्छं।।
तुच्छम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप चुच्छं; छुच्छं और तुच्छं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२०४ से 'त्' के स्थान पर क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'च' अथवा 'छ्' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से चुच्छं; छुच्छं और तुच्छं रूप सिद्ध हो जाते हैं।।। १-२०४।।
तगर-त्रसर-तुवरे टः।। १-२०५।। एषु तस्य टो भवति।। टगरो। टसरो। टूवरो।। अर्थ:-तगर, त्रसर और तूवर शब्दों में स्थित 'त' का 'ट' होता है। जैसे:-तगरः-टगरो; त्रसरः-टसरो और तूवरः-टूवरो।। तगरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टगरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०५ से 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टगरो रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रसरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टसरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२०५ से शेष 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टसरो रूप सिद्ध हो जाता है।
तूवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टूवरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०५ से 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टूवरा रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२०५।।
प्रत्यादौ डः।। १-२०६॥ प्रत्यादिषु तस्य डो भवति।। पडिवन्न। पडिहासो। पडिहारो। पाडिप्फद्धी। पडिसारो पडिनिअत्तं। पडिमा। पडिवया। पडंसुआ। पडिकरइ। पहुडि। पाहुडं। वावडो। पडाया। वहेडओ। हरडई। मडय।। आर्षे। दुष्कृतम्। दुक्कड।। सुकृतम्। सुकड।। आहतमा आहडं। अवहतम्। अवहडं। इत्यादि।। प्राय इत्येव। प्रति समयम्।। पइ समय।। प्रतीपम्। पईवं।। संप्रति। संपइ।। प्रतिष्ठानम्। पइट्ठाण।। प्रतिष्ठा। पइट्ठा।। प्रतिज्ञा। पइण्णा।। प्रति। प्रभृति। प्राभृत। व्यापृत। पताका। बिभीतक। हरीतकी। मृतक। इत्यादि।।
अर्थः-प्रति आदि उपसर्गो में स्थित 'त' का 'ड' होता है। जैसेः-प्रतिपन्नं पडिवन्न।। प्रतिभासः पडिहासो।। प्रतिहारः= पडिहारो; प्रतिस्पर्द्धिः पाडिप्फद्धी।। प्रतिसारः-पडिसारो।। प्रतिनिवृत्तम्=पडिनिअत्तं।। प्रतिमा-पडिमा।। प्रतिपदा=पडिवया।। प्रतिश्रुत्=पडंसुआ।। प्रतिकरोति-पडिकरइ।। इस प्रकार 'प्रति' के उदाहरण जानना। प्रभृति पहुडि।। प्राभृतम्=पाहुडं।। व्यापृत-वावडो।। पताका-पडाया।। विभीतकः बहेडओ।। हरीतकी-हरडई।। मृतकम् मडय।। इन उदाहरणों में भी 'त'
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 165 का 'ड' हुआ है।। आर्ष-प्राकृत में भी 'त' के स्थान पर 'ड' होता हुआ देखा जाता है। जैसे:-दुष्कृतम्-दुक्कड।। सुकृतम् सुकडं। आहृतम् आहडं।। अवहतम् अवहड।। इत्यादि।। अनेक शब्दों में ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृत रूपान्तर से प्राकृत रूपान्तर में 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती हुई नही देखी जाती है। इसी नियम को आचार्य हेमचन्द्र ने इसी सूत्र की वृत्ति में प्रायः शब्द का उल्लेख करके प्रदर्शित किया है। जैसे:-प्रतिसमयम्=पइसमय।। प्रतीपम्-पईवं।। संप्रति-संपइ।। प्रतिष्ठानम्=पइट्टाणं।। प्रतिष्ठा पइट्टा।। प्रतिज्ञा=पइण्णा।। इत्यादि।।
प्रतिपन्नमः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिवन्नं होता है। इसमें सत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप: १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पडिवन्नं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिभासः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिहासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान 'ड' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर पडिहासो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिहारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिहारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिहारो रूप सिद्ध हो जाता है।
पडिप्फद्धी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है।
प्रतिसारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिसारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यये की प्राप्ति होकर पडिसारो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिनिवृतम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिनिअत्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-१२६ से शेष 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पडिनिअत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप और १-२०६ से - 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होकर पडिमा रूप सिद्ध हो जाता है।
पडिवया रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है। पडंसुआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है।
प्रतिकरोति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिकरइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ४-२३४ से करो' क्रिया के मूल रूप 'कृ' धातु में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'अर्' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त 'अर्' में स्थित हलन्त 'र' में 'अ' रूप आगम की प्राप्ति;
और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिकरइ रूप सिद्ध हो जाता है।
पहुडि रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-१३२ में की गई है। पाहुडं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३१ में की गई है। व्यापृतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप वावडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप;
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
166 : प्राकृत व्याकरण
१-१२६ से 'ऋ' के स्थान 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वावडा रूप सिद्ध हो जाता है।
पताका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पडाया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १–१७७ से 'क' का लोप और १-१८० से लुप्त 'क्' में से शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' प्रत्यय होकर पडाया रूप सिद्ध हो जाता है।
बहेडओ रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है। हरडइ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९९ में की गई है।
मृतकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मडयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से'ऋ' के स्थान पर पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मडयं रूप सिद्ध हो जाता है।
दुष्कृतम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में दुक्कडं रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'ष्' का लोप; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' को 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुक्कडं रूप सिद्ध हो जाता है।
सुकृतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत सुक्कडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति: २-८९ से 'क' को द्वित्व'कक' की प्राप्ति: १-२०६ से'त' को 'ड' की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सुक्कडं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हाहृतं संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप आहडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' को 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आहडं रूप सिद्ध हो जाता है।
अवहृतं संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अवहडं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अवहडं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिसमयं संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पइसमयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पइसमयं रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतीपम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पईवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-२३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पईवं रूप सिद्ध हो जाता है।
संप्रति संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप संपइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; और १-१७७ से, 'त्' का लोप होकर संपइ रूप सिद्ध हो जाता है। __ प्रतिष्ठानम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पइट्टाणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्'
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 167
की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पइट्टाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
पइट्टा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३८ में की गई है।
प्रतिज्ञा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पइण्णा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति होकर पइण्णा रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२०६।।
इत्वे वेतसे।। १-२०७।। वेतसे तस्य डो भवति इत्वे सति।। वेडिसो।। इत्व इति किम्; वेअसो।। इः स्वप्नादौ (१-४६) इति इकारो न भवति इत्व इति व्यावृत्तिवलात्।।
अर्थः-वेतस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति उस अवस्था में होती है; जबकि 'त' में स्थित 'अ' स्वर सूत्र-संख्या १-४६ से 'इ' स्वर में परिणत हो जाता हो। जैसे:-वेतसः-वेडिसो।।
प्रश्नः-वेतस शब्द में स्थित 'त' में रहे हुए 'अ' को 'इ' में परिणत करने की अनिवार्यता का विधान क्यों किया है ?
उत्तर:-वेतस शब्द में स्थित 'त' का 'ड' उसी अवस्था में होगा; जबकि उस 'त' में स्थित 'अ' स्वर को 'इ' स्वर में परिणत कर दिया जाय; तदनुसार यदि 'त्' का 'ड' नहीं किया जाता है; तो उस अवस्था में 'त' में रहे हुए 'अ' स्वर को 'इ' स्वर में परिणत नहीं किया जायगा। जैसे:-वेतसः वेअसो।। इस प्रकार सूत्र-संख्या १-४६-(इः स्वप्नादौ)- के अनुसार 'अ' के स्थान पर प्राप्त होने वाली 'इ' का यहां पर निषेध कर दिया गया है। इस प्रकार का नियम 'व्याकरण की भाषा' में 'व्यावृत्तिवाचक' नियम कहलाता है। तदनुसार 'व्यावृत्ति के बल से' 'इत्व' की प्राप्ति नहीं होती है।
वेडिसोः-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४६ में की गई है।
वेतसः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेअसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर वेअसा रूप सिद्ध हो जाता है॥१-२०७||
गर्भितातिमुक्तके णः।। १-२०८।। अनयोस्तस्य णो भवति॥ गब्मिणो अणिउँतयं। कचिन्नभवत्यपि। अइमुत्तय। कथम् एरावणो। ऐरावण शब्दस्य। एरावओ इति तु ऐरावतस्य।। ___ अर्थः-गर्भित और अतिमुक्तक शब्दों में स्थित 'त' को 'ण' की प्राप्ति होती है। अर्थात् 'त' के स्थान पर 'ण' का आदेश होता है। जैसे:-गर्भितः-गब्भिणो।। अतिमुक्तकम अणिउँतय।। कभी-कभी 'अतिमक्तक' शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती हुई नहीं देखी जाती है। जैसे:-अतिमुक्तकम्-अइमुत्तय।।
प्रश्नः-क्या 'एरावणो' प्राकृत शब्द संस्कृत 'ऐरावत्' शब्द से रूपान्तरित हुआ है ? और क्या इस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हुई है ?
उत्तरः-प्राकृत 'एरावणो' शब्द संस्कृत 'ऐरावणः' शब्द से रूपान्तरित हुआ है; अतः इस शब्द में 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। प्राकृत शब्द 'एरावओ' का रूपान्तर 'ऐरावतः संस्कृत शब्द से हुआ है। इस प्रकार एरावणो और एरावओ प्राकृत शब्दों का रूपान्तर क्रम से ऐरावणः और ऐरावतः संस्कृत शब्दों से हुआ है। तदनुसार एरावणो में 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है।
गर्भितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप गम्भिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप;
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
168 : प्राकृत व्याकरण
२-८९ से 'भ' को द्वित्व ' भ्भ' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' भ्' को 'ब्' की प्राप्ति; १ - २०८ से 'त्' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गणो रूप सिद्धी हो जाता है।
अणित और अइमुत्तयं रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६ में की गई है।
रावणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१४८ में की गई है।
एरावतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एरावओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एरावओ रूप की सिद्धी हो जाती है ।। १- २०८ ।।
रूदिते दिनाण्णः ।। १-२०९।।
रूदिते दिना सह तस्य द्विरुक्तो णो भवति । । रुण्णं ।। अत्र केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनी मागधी - विषय एव द्दष्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि । ऋतुः । रिऊ उऊ ।। रजतम् । रययं । । एतद् । एअं ।। गतः । गओ ॥ आगतः। आगओ।। सांप्रतम् । संपयं । । यतः । जओ ।। ततः । तओ ।। कृतम । कयं ।। हतम् । हय ।। हताशः । हयासो।। श्रुतः । सुओ।। आकृतिः । आकिई ।। निर्वृतः । निव्वुओ।। तातः । ताओ।। कतरः । कयरों ।। द्वितीयः । दुइओ । इत्यादयः प्रयोगा भवन्ति । न पुनः उदूरयदं इत्यादि । । क्वचित् भावे पि व्यत्ययश्च (४ - ४४७) इत्येव सिद्धम् ।। दिही इत्येतदर्थं तु धृतेर्हिहि: ( २ - १३१ ) इति वक्ष्यामः ।।
अर्थः- 'रूदित' शब्द में रहे हुए 'दि' सहित 'त' के स्थान पर अर्थात् 'दित' शब्दांश के स्थान पर द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति होती है। याने 'दित' के स्थान पर 'ण्ण' आदेश होता है जैसे:-रूदितम्-रूण्णं ।। 'त' वर्ण से संबधित विधि-विधानों के वर्णन में कुछ एक प्राकृत-व्याकरणकार 'ऋत्वादिषु द' अर्थात् ऋतु आदि शब्दों में स्थित 'त' का 'द' होता है' ऐसा कहते है; यह कथन प्राकृत भाषा के लिये उपयुक्त नहीं है। क्योंकि 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति शौरसेनी और मागधी भाषाओं में ही होती हुई देखी जाती है। न कि प्राकृत भाषा में ।। अधिकृत-व्याकरण प्राकृत भाषा का है; अतः इसमें 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति नहीं होती है। उपरोक्त कथन के समर्थन में कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है:- ऋतुः = रिऊ अथवा 'उऊ'।। रजतम् - रययं । । एतद् = एअं । गतः - गओ ।। आगतः = आगओ ।। साप्रतम् = संपयं । । यतः -जओ ।। ततः तओ ।। कृतम्=कयं।। हतम्=हयं। । हताशः - हयासो । । श्रुतः-सुओ ।। आकृतिः- आकिई ।। निर्वृतः- निव्वुओ।। तातः=ताओ।। कतरः=कयरो।। और द्वितीय:- दुइओ ।। इत्यादि 'त' संबंधित प्रयोग प्राकृत भाषा में पाये जाते हैं ।। प्राकृत भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति नहीं होती है। केवल शौरसेनी और मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश होता है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं: - ऋतुः उदू अथवा रूदू ।। रजतम् = रयदं इत्यादि ।।
यदि किन्हीं - किन्ही शब्दों में प्राकृत भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती हुई पाई जाय तो उसको सूत्र - संख्या ४-४४७ से वर्ण-व्यत्यय अर्थात् अक्षरों का पारम्परिक रूप से अदला-बदली का स्वरूप समझा जाय; न कि 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश माना जाय ।। इस प्रकार से सिद्ध हो गया कि केवल शौरसेनी एवं मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती है; न कि प्राकृत भाषा में ।। 'दिही' ऐसा जो रूप पाया जाता है; वह धृति शब्द का आदेश रूप शब्द है; और ऐसा उल्लेख आगे सूत्र - संख्या २ - १३१ में किया जायगा । इस प्रकार उपरोक्त स्पष्टीकरण यह प्रमाणित करता है कि प्राकृत भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश नहीं हुआ करता है; तदुनुसार प्राकृत- प्रकाश नामक प्राकृत-व्याकरण में 'ऋत्वादिषु तोदः 'नामक जो सूत्र पाया जाता है। उस सूत्र के समान अर्थक सूत्र - रचने की इस प्राकृत-व्याकरण में आवश्यकता नहीं है। ऐसा आचार्य हेमचन्द्र का कथन है।
रूदितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप रूण्णं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २०९ से 'दित' शब्दांश के स्थान पर द्वित्व 'ण्ण' का आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रूण्णं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 169
रिऊ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४१ में की गई है। उऊ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१३१ में की गई है। रययं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है।
एतद संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से अन्त्य हलन्त व्यन्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर एअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ गतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप गओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गओ रूप सिद्ध हो जाता है।
आगतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप आगओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रतयय की प्राप्ति होकर आगओ रूप सिद्ध हो जाता है।
सांप्रतम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संपयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संपयं रूप सिद्ध हो जाता है।
यतः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप जओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' को 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-३७ से विसर्ग को 'ओ' की प्राप्ति होकर जओ रूप सिद्ध हो जाता है।
ततः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप तओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और १-३७ से विसर्ग को 'ओ' की प्राप्ति होकर तओ रूप सिद्ध हो जाता है।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
हतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप हयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से लुप्त 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हयं रूप सिद्ध हो जाता है।
हताशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप हयासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लुप्त 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर हयासो रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रुतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
आकृति संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आकिई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ'को १-१७७ से'त'का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ-स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर आकिइ रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्वृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निव्वुओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; २-८९ से 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निव्वुओ रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
170 : प्राकृत व्याकरण
तातः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ताओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ताओ रूप सिद्ध हो जाता है।
कतरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कयरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयरा रूप सिद्ध हो जाता है।
दुइओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९४ में की गई है।
ऋतुः संस्कृत रूप है। इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में उदू रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; ४-२६० से 'त्' को 'द्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर उदू रूप सिद्ध हो जाता है।
रजतम् संस्कृत रूप है। इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में रयदं रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए ‘ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ४–२६० से 'त्' को 'द्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रयदं रूप सिद्ध हो जाता है।
धृतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दिही होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१३१ से 'धृति' के स्थान पर 'दिहि' रूप का आदेश और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर दिही रूप सिद्ध हो जाता है।। १-२०९।।
सप्ततौ रः।। १-२१०॥ सप्ततौ तस्य रो भवति।। सत्तरी।। अर्थः-सप्तति शब्द में स्थित द्वितीय 'त्' के स्थान पर 'र' का आदेश होता है। जैसे:-सप्ततिः सत्तरी।।
सप्ततिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सत्तरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से प्रथम 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-२१० से द्वितीय 'त्' के स्थान पर 'र का आदेश और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर सत्तरी रूप सिद्ध हो जाता है।। १-२१०।।
अतसी-सातवाहने लः।। १-२११।। अनयोस्तस्य लो भवति। अलसी। सालाहणो। सालवाहणो। सालाहणी भासा।।
अर्थः-अतसी और सातवाहन शब्दों में रहे हुए 'त' वर्ण के स्थान पर 'ल' वर्ण की प्राप्ति होती है। जैसे:-अतसी-अलसी।। शातवाहनः-सालाहणो और सालवाहणो।। शातवाहनी भाषा-सालाहणी भासा।।।
अतसी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अलसी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२११ से 'त्' के स्थान पर 'ल' का आदेश होकर अलसी रूप सिद्ध हो जाता है।
सालाहणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है।
शातवाहनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सालवाहणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स; १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में • अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सालवाहणो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 171
शातवाहनीः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सालाहणी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स; १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' का आदेश; १-१७७ से 'व्' का लोप; १-५ से लोप हुए 'व्' में से शेष रहे हुए 'आ' की पूर्व वर्ण 'ल' के साथ संधि होकर 'ला' की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति होकर सालाहणी रूप सिद्ध हो जाता है।
भाषा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भासा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'ष' का 'स होकर भासा रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२११।।
पलिते वा।। २-२१२।। पलिते तस्य लो वा भवति।। पलिलं। पलि।। अर्थः-पलित शब्द में स्थित 'त' का विकल्प से 'ल' होता है। जैसे:-पलितम्-पलिलं अथवा पलि।
पलितम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पलिलं और पलिअं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१२ से प्रथम रूप में 'त' के स्थान पर विकल्प से 'ल' आदेश की प्राप्ति; और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पलिलं और पलिअं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-२१२।।
- पीते वो ले वा।। १-२१३।। पीते तस्य वो वा भवति स्वार्थलकारे परे।। पीवलं।। पीअलं।। ल इति किम्। पी।
अर्थः-'पीत' शब्द में यदि 'स्वार्थ-बोधक' अर्थात् 'वाला' अर्थ बतलाने वाला 'ल' प्रत्यय जुड़ा हुआ हो तो 'पीत' शब्द में रहे हुए 'त' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'व' वर्ण का आदेश हुआ करता है। जैसे:-पीतलम्=पीवलं अथवा पीअलं-पीले रंग वाला।।
प्रश्नः-मूल-सूत्र में 'ल' वर्ण का उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः-'ल' वर्ण संस्कृत-व्याकरण में 'स्वार्थ-बोधक अवस्था में शब्दों में जोड़ा जाता है। तदनुसार यदि 'पीत शब्द में स्वार्थ-बोधक 'ल' प्रत्यय जुड़ा हुआ हो; तभी 'पीत' में स्थित 'त' के स्थान पर 'व' का वैकल्पिक रूप से आदेश होता है; अन्यथा नहीं। इसी तात्पर्य को समझाने के लिये मूल-सूत्र में 'ल' वर्ण का उल्लेख किया गया है। स्वार्थ-बोधक 'ल' प्रत्यय के अभाव में पीत शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'व' वर्ण का आदेश नहीं होता है। जैसेः-पीतम्=पी।। __पीतलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पीवलं और पीअल होते हैं। इसमें से प्रथम सूत्र-संख्या १-२१३ से
वैकल्पिक रूप से 'त' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पीवलं और पीअलं रूप सिद्ध हो जाते है।
पीतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पीअं होता है। इसमें से सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्'का अनुस्वार होकर पीअरूप सिद्ध हो जाता है।
वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुलिंगे हः।। १-२१४॥ एषु तस्य हो भवति।। विहत्थी। वसही॥ बहुलाधिकारात् कचिन्न भवति। वसई। भरहो। काहलो। माहुलिङगं मातुलुङग शब्दस्य तु माउलुङगम्।।
अर्थः-वितस्ति शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर और वसति, भरत, कातर तथा मातुलिङग शब्दों में स्थित 'त' के
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
172 : प्राकृत व्याकरण स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे:-वितस्तिः विहत्थी; वसतिः-वसही; भरतः भरहो; कातरः काहलो; और मातुलिङगम्-माहुलिङग।। 'बहुलाधिकार' सूत्र के आधार से किसी किसी शब्द में 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-वसतिः वसई।। मातुलुङग शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होती है। अतः मातुलुङगम् रूप का प्राकृत रूप माउलुङगं होता है।
वितस्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विहत्थी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्'
को 'त्' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर विहत्थी रूप सिद्ध हो जाता है।
वसतिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वसही और वसई होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२ के अधिकार से तथा १-१७७ से 'त्' का लोप; तथा दोनों
१ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से वसही और वसई दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
भरतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भरहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भरहो रूप सिद्ध हो जाता है।
कातरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप काहलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काहलो रूप सिद्ध हो जाता है।
मातुलिंगम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माहुलिंगं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माहुलिंग रूप सिद्ध हो जाता है।
मातुलुङगम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउलुङगं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउलुङगम रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२१४।।
मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमे थस्य ढः।। १-२१५।। एषु थस्य ढो भवति। हापवादः।। मेढी। सिढिलो। सिढिलो। पढमो।।
अर्थः-सूत्र-संख्या १-१८७ में यह विधान किया गया है कि संस्कृत-शब्दों में स्थित 'थ' का प्राकृत रूपान्तर में 'ह' होता है। किन्तु यह सूत्र उक्त सूत्र का अपवाद रूप विधान है। तदनुसार मेथि; शिथिर; शिथिल और प्रथम शब्दों में स्थित 'थ' का 'ढ' होता है। जैसे:-मेथि:-मेढी; शिथिरः सिढिलो; शिथिल' सिढिलो और प्रथमः पढमो।। इस अपवाद रूप विधान के अनुसार उपरोक्त शब्दों में 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होकर 'ढ' की प्राप्ति हुई है। ___ मेथिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मेढी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२१५ से प्रथम 'थ' के स्थान पर 'ढ'
की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मेढि रूप सिद्ध हो जाता है।
शिथिरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सिढिलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से'थ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति: १-२५४ से 'र' का 'ल' ३
से 'र' का 'ल' ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिढिलो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 173
शिथिलः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सिढिलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिढिलो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रथमः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पढमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२१५ से 'थ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढमो रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२१५।।
निशीथ-पृथिव्यो ।। १-२१६।। अनयोस्थस्य ढो वा भवति।। निसीढो। निसीहो।। पुढवी।। पुहवी।।
अर्थः-निशीथ और पृथिवी शब्दों में स्थित 'थ' का विकल्प से 'ढ' होता है। तदनुसार प्रथम रूप में 'थ' का 'ढ' और द्वितीय रूप में 'थ' का 'ह' होता है। जैसे:-निशीथः निसीढो अथवा निसीहो और पृथिवी-पुढवी अथवा पुहवी।।
निशिथः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप निसीढो और निसीहो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१६ से प्रथम रूप में 'थ' के स्थान पर 'ढ' और १-१८७ से द्वितीय रूप में थ' का 'ह'; और ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से निसीढो और निसीहो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पुढवी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है।
पृथिवी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुहवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; और १-८८ से 'थि' में स्थित 'इ' को 'अ' की प्राप्ति होकर पुहवी रूप सिद्ध हो जाता है।। १-२१६।। दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्भ-दर्भ-कदन-दोहदे दो वा डः।।१-२१७।।
एषु दस्य डो वा भवति।। डसणं दसण।। डट्ठो हो।। डड्डो दलो। डोला दोला।। डण्डो दण्डो।। डरो दरो।। डाहो दाहो।। डम्भो दम्भो।। डब्भो दब्भो।। कडणं कयणं। डोहलो दोहलो॥ दर शब्दस्य च भयार्थवृत्ते रेव भवति। अन्यत्र दर-दलि।। ___ अर्थः-दशन, दष्ट, दग्ध, दोला, दण्ड, दर, दाह, दम्भ, दर्भ, कदन और दोहद शब्दों में स्थित 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' होता है। जैसेः-दशनम् डसणं अथवा दसण।। दष्ट: डट्ठो अथवा दड्डो।। दग्धः डड्डो अथवा दड्ढो।। दोला-डोला अथवा दोला।। दण्डः= डण्डो अथवा दण्डो।। दरः डरो अथवा दरो।। दाहः=डाहो अथवा दाहो।। दम्भः डम्भो अथवा दम्भो।। दर्भः= डब्भो अथवा दब्भो।। कदनम्=कडणं अथवा कयण।। दोहदः डोहलो अथवा दोहलो।। 'दर' शब्द में स्थित 'द्' का वैकल्पिक रूप से प्राप्त होने वाला 'ड' उसी अवस्था में होता है; जबकि दर 'शब्द' का अर्थ 'डर' अर्थात् भय-वाचक हो; अन्यथा 'दर' के 'द' का 'ड' नहीं होता है। जैसे:-दर दलितम्-दर-दलि। तदनुसार 'दर' शब्द का अर्थ भय' नहीं होकर 'थोड़ा सा' अथवा 'सूक्ष्म अर्थ होने पर 'दर' शब्द में स्थित 'द्' का प्राकृत रूप में 'द' ही रहा है। न कि 'द' का 'ड' हुआ है। ऐसी विशेषता 'दर' शब्द के सम्बन्ध में जानना।
दशनम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डसणं और दसणं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से डसणं और दसणं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप डट्ठो और 8ो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' का 'ट्';
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
174 : प्राकृत व्याकरण
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डट्ठो और दट्ठो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ दग्धः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप डड्डा और दड्डो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड': २-४० से 'ग्ध' का 'ढ': २-८९ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व'ढ'का द्वित्व'ढढ': २-९० से प्राप्त पर्व'ढ' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डड्डा और दड्डा दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दोला संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डोला और दोला होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' होकर क्रम से डोला और दोला दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दंडः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डण्डो और दण्डो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; १-३० से अनुस्वार का आगे 'ड' होने से हलन्त 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डण्डो और दण्डो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ दरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डरो और दरो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' और और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डरो और दरो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दाहः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डाहो और दाहो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ'! प्राप्ति होकर क्रम से डाहो और दाहो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दम्भः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डम्भो और दम्भो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डम्भो और दम्भो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दर्भः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डब्भो और दब्भो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से भ' का द्वित्व 'भ्भ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'भ्' का 'ब्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डब्भो और दब्भा दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ कदनम्: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कडणं और कयणं होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप तथा १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से दोनों रूपों में 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कडणं और कयणं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दोहदः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डोहलो और दोहला होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; १-२२१ से द्वितीय 'द' का 'ल': और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डोहलो और दोहलो दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। __ दर-दलितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दर-दलिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दर-दलिअंरूप सिद्ध हो जाता है।।१-२१७।।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
दंश - दहोः ।। १ - २१८ ।।
जाता है। जैसे:- दशति-डसइ।। दहति-डहइ।।
अनयोर्धात्वोर्दस्य डो भवति ।। डसइ । डहइ।। अर्थः- दंश और दह धातुओ में स्थित 'द' का प्राकृत रूपान्तर में 'ड' दशति संस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप डसइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२१८ से 'द' का 'ड'; १-२६० से 'श' का 'स' और ३ - १३९ से वर्तमानकाल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डसइ रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 175
दहति संस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप डहइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२१८ से 'द' का 'ड' और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डहइ रूप सिद्ध हो जाता है ।।। १-२१८ ।।
संख्या - गद्गदे रः ।। १-२१९।।
संख्यावाचिनि गद्गद् शब्दे च दस्य रो भवति । । एआरह । बारह ।। तेरह । गग्गरं । अनादिरित्येव । ते दस ।। असंयुक्तस्येत्येव । चउद्दह ।।
अर्थः-संख्यावाचक शब्दों में और गद्गद् शब्द में रहे हुए 'द' का 'र' होता है। जैसे:- एकादश-एआरह।। द्वादश-बारह।। त्रयोदश= तेरह।। गद्गदम् = गग्गरं । ।
'सूत्र - संख्या १ - १७६ का विधान क्षेत्र यह सूत्र भी है; तदनुसार संख्या - वाचक शब्दों में स्थित 'द' यदि अनादि रूप से ही हो; अर्थात् संख्या - वाचक शब्दों में आदि रूप से स्थित नहीं हो; तभी उस 'द' का 'र' होता है।
जैसे:
यदि संख्या - वाचक शब्दों में 'द' आदि अक्षर रूप से स्थित है; तो उस 'द' का 'र' नहीं होता है। ऐसा बतलाने के लिये ही इस सूत्र की वृत्ति में 'अनादेः रूप शब्द का उल्लेख करना पड़ा है। :- तव दश-ते दस || सूत्र - संख्या १ - १७६ के विधान अन्तर्गत होने से यह विशेषता और है कि संख्या - वाचक शब्दों में स्थित 'द' का 'र' उसी अवस्था में होता है जबकि 'द' असंयुक्त हो; हलन्त नहीं हो; स्वर सहित हो; इसीलिये सूत्र की वृत्ति में ' असंयुक्त' ऐसा विधान किया गया है। ‘सयुंक्त' होने की दशा में 'द' का 'र' नहीं होगा । जैसे:- चतुर्दश-चउद्दह।। इत्यादि।।
एकादश संख्या वाचक संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप एआरह होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप; १ - २१९ से 'द' का 'र'; और १ - २६२ से 'श' का 'ह' होकर एआरह रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वादश संख्या वाचक संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप बारह होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप; २-१७४ से वर्ण-व्यत्यय के सिद्धान्तानुसार 'व' के स्थान पर 'ब' का आदेश; १ - २१९ से द्वितीय 'द्' का 'र' और १ - २६२ से 'श' का 'ह' होकर बारह रूप सिद्ध हो जाता है।
तेरह रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १६५ में की गई है।
गद्गदम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गग्गंर होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से द्वितीय 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; १ - २१९ से द्वितीय 'द' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गग्गरं रूप सिद्ध हो जाता है।
तव दश संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ते दस होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - ९९ से संस्कृत सर्वनाम 'युष्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'तव' रूप के स्थान पर 'ते' रूप का आदेश; और १ - २६० से 'श' का 'स' होकर ते दस रूप सिद्ध हो जाता है।
उद्दह रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७१ में की गई है । । १ - २१९ ।।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
176 : प्राकृत व्याकरण
कदल्यामुद्रमे।। १-२२०।। कदली शब्दे अद्रुम-वाचिनि दस्य रो भवति।। करली।। अद्रुम इति किम्। कयली केली॥
अर्थः-संस्कृत शब्द कदली का अर्थ वृक्ष-वाचक केला नहीं होकर मृग-हरिण 'वाचक अर्थ हो तो उस दशा में कदली शब्द में रहे हुए 'द' का 'र' होता है। जैसे:-कदली-करली अर्थात् मृग विशेष।।
प्रश्नः सूत्र में 'अद्रुम' याने वृक्ष अर्थ नहीं ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-यदि 'कदली' का अर्थ पशु-विशेष वाचक नहीं होकर केला-वृक्ष-विशेष वाचक हो तो उस दशा में कदली में रहे हुए 'द' का 'र' नहीं होता है; ऐसा बतलाने के लिये ही सूत्र में 'अद्रुम' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसः-कदली कयली अथवा केली अर्थात् केला-वृक्ष विशेष।। ___ कदली संस्कृत रूप है। इसकी प्राकृत रूप करली होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२० से 'द' का 'र' होकर करली रूप सिद्ध हो जाता है। कयली और केला रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६७ में की गई है।। १-२२०।।
प्रदीपि-दोहदे लः।। १-२२१।। प्रपूर्व दीप्यतौ धातौ दोहद-शब्दे च दस्य लो भवति॥ पलीवेइ। पलित्त। दोहलो॥
अर्थः-'प्र' उपसर्ग सहित दीप धातु में और दोहद शब्द में स्थित 'द' का 'ल' होता है जैसे:-प्रदीपयति=पलीवेइ।। प्रदीप्तम्=पलित्तं।। दोहदः-दोहलो।।
प्रदीपयति संस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप पलीवेइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से '' का लोप; १-२२१ से 'द' का 'ल'; १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-१४९ से प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णि' के स्थानीय प्रत्यय 'अय' के स्थान पर 'ए' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलीवेइ रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रदीप्तम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पलित्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२२१ से 'द' का 'ल'; १-८४ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्ति 'म्' का अनुस्वार होकर पलित्तं रूप सिद्ध हो जाता है। दोहलो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१७ में की गई है।। १-२२१।।
कदम्बे वा।।१-२२२॥ कदम्ब शब्दे दस्य लो वा भवति।। कलम्बो। कयम्बो।। अर्थ:-कदम्ब शब्द में स्थित 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ल' होता है। जैसे:-कदम्बः कलम्बो अथवा कयम्बो।।
कदम्बः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कलम्बो अथवा कयम्बो होते हैं। प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२२२ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कलम्बो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कयम्बो की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है।। १-२२२।।
दीपो धो वा।। १-२२३।। दीप्यतो दस्य धो वा भवति।। धिप्पइ। दिप्पइ।।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 177 अर्थ- दीप धातु में स्थित 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ध' होता है। जैसे- दीप्यते धिप्पइ अथवा दिप्प || दीप्य संस्कृत अकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप धिप्पइ और दिप्पर होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १ - २२३ से 'द्' का वैकल्पिक रूप से 'धू'; २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से 'प' का द्वित्व ‘प्प'; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर दोनों रूप धिप्प और दिप्पइ क्रम से रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-२२३ ।।
कदर्थिते वः ।। १-२२४।।
कदर्थिते दस्य वो भवति ।। कवट्टिओ ।।
अर्थः कदर्थित शब्द में रहे हुए 'द' का 'व' होता है। जैसे-कदर्थितः=कवट्टिओ।।
कदाथतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप कवट्टिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२४ से 'द्' का 'व'; २-२९ से संयुक्त 'थ' का 'ट'; २-८९ से प्राप्त 'ट' का द्वित्व 'ट्ट'; १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कवट्टिओ रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२२४ ।। ककुदे हः ।। १-२२५।।
ककुदे दस्य हो भवति ।। कउहं ।।
अर्थः- ककुद् शब्द में स्थित 'द' का 'ह' होता है। जैसे - ककुद - कउहं । ।
ककुद् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कउहं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से द्वितीय 'क' का लोप; १ - २२५ से 'द्' का 'ह'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कउहं रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-२२५ ।।
निषधे धो ढः ।। १-२२६।।
निषधे धस्य ढो भवति ॥ निसढो ॥
अर्थः-निषध शब्द में स्थित 'ध' का 'ढ' होता है। जैसे:- निषध:-निसढो ।।
निषध संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निसढो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'ष' का 'स'; १-२२६ से 'ध' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निसढो रूप सिद्ध हो जाता है ।।। १-२२६।।
वौषधे।। १-२२७।
औषधे धस्य वा भवति ।। ओसढं। ओसहं । ।
अर्थः-औषध शब्द में स्थित 'ध' का वैकल्पिक रूप से 'ढ' होता है। जैसे:- औषधम् - ओसढं अथवा ओसहं।।
औषधम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप ओसढं और ओसहं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १५९ से 'औ' का 'ओ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; १ - २२७ से प्रथम रूप में वैकल्पिक रूप से 'ध' का 'ढ' तथा द्वितीय रूप में १ - १८७ से 'ध' का 'ह'; ' ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप ओसढं और ओसहं सिद्ध हो जाते हैं । ।। १-२२७ ।।
नो णः ।। १ - २२८ ॥
स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्नस्य णो भवति ।। कणयं । मयणो । वयणं । नयणं । माणइ | | आर्षे ।। आरनालं । अनिलो । अनलो। इत्याद्यपि ।।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
178 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः-यदि किसी शब्द में 'न' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् वह 'न' वर्ण हलन्त भी न हो याने स्वर रहित भी न हो; तथा आदि में भी स्थित न हो; शब्द में आदि अक्षर रूप से भी स्थित न हो; तो उस 'न' वर्ण का 'ण' हो जाता है। जैसे:- कनकम्-कणयं । मदनः मयणो ।। वचनम् =वयणं; नयनम् =नयणं ।। मानयति-माणइ ।। आर्ष-प्राकृत में अनेक शब्द ऐसे भी पाये जाते हैं; जिनमें कि 'न' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप होत है; फिर भी उस 'न' वर्ण का 'ण' नहीं होता है। जैसे:-आरनालम्-आरनालं ।। अनिलः-अनिलो।। अनलः=अनलो।। इत्यादि।
कनकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कणयं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से 'न' 'ण'; १-१७७ से द्वितीय ‘क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कणयं रूप सिद्ध हो जाता है।
मयणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७७ में की गई है।
वचनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वयणं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए'च्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' का 'ण'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ari रूप सिद्ध हो जाता है।
नयणं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७७ में की गई है।
मानयति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप माणइ होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; ४-२३९ से संस्कृत धातुओं में प्राप्त होने वाले विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत धातु 'माण्' में स्थित हलन्त ‘ण्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३- १३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माणइ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
आरनालम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आर्ष- प्राकृत में आरनाल ही होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आरनालं रूप सिद्ध हो जाता है।
अनिलः और अनलः संस्कृत रूप है। आर्ष प्राकृत में इनके रूप क्रम से अनिलो और अनिलो होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से अनिलो और अनलो रूप सिद्ध हो जाते हैं । ।। १ - २२८ ।।
वादौ।। १-२२९।।
असंयुक्तस्यादौ वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति । णरो नरो। नई नई । णेइ नेइ । असंयुक्तस्यत्येव । न्यायः । नाओ।।
अर्थः-किन्हीं किन्हीं शब्दों में ऐसा भी होता है कि यदि 'न' वर्ण आदि में स्थित हो और वह असंयुक्त हो; याने हलन्त न होकर स्वरान्त हो; तो उस 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' हो जाया करता है। जैसे:- नरः = णरो अथवा नरो । नदी=णई अथवा नई।। नेति-णेइ अथवा नेइ ||
प्रश्नः - ' शब्द के आदि में स्थित 'न' असंयुक्त होना चाहिये' ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-यदि शब्द के आदि में स्थित होता हुआ भी 'न' वर्ण हलन्त हुआ; संयुक्त हुआ तो उस 'न' वर्ण का 'ण' नहीं होता है ऐसा बतलाने के लिये 'असंयुक्त' विशेषण का प्रयोग किया गया है। जैसेः- न्यायः-नाओ।।
नरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णरो और नरो होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - २२९ से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से णरो और नरो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 179 नदी संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णई और नई होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२९ से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर गइ और नेइ दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
नेति संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप णेइ और नेइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२९ से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर णइ और नेइ दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
न्यायः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नाओ होता है। इनमें सूत्र-संख्या २-७८ से प्रथम 'य' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'य' का भी लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नओ रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-२२९।।
निम्ब-नापिते-ल-णहं वा।। १-२३०॥ अनयोर्नस्य ल ण्हं इत्येतौ वा भवतः। लिम्बो निम्बो। पहाविओ नाविओ।।
अर्थः-'निम्ब' शब्द में स्थित 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ल' होता है। तथा 'नापित' शब्द में स्थित 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ह' होता है। जैसे:-निम्बः लिम्बो अथवा निम्बो।। नापितः=ण्हाविओ अथवा नाविओ।।
निम्बः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लिम्बो और निम्बो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३० से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लिम्बो और निम्बो दोनों रूपों की क्रम से सिद्धि हो जाती है।
नापतः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पहाविओ और नाविओ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३० से 'न' का वैकल्पिक रूप से ‘ण्ह'; १-२३० से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पहाविओ और नाविओ दोनों रूपों की क्रम से सिद्धि हो जाती है।।। १-२३०।।
पो वः।। १-२३१॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेः पस्य प्रायो वो भवति।। सबहो। सावो। उवसग्गो। पईवो। कासवो। पावं। उवमा। कविला कुणवं। कलावो। कवालं महि-वालो। गो-वई। तवह। स्वरादित्येवा कम्पइ।। असंयुक्तस्येत्येव। अप्पमत्तो।। अनादेरित्येव। सुहेण पढइ।। प्राय इत्येव। कई। रिऊ।। एतेन पकारस्य प्राप्तयो र्लोप वकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुति सुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः।। __ अर्थः-यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त (स्वर-रहित) भी हो एवं आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'प' वर्ण का प्रायः 'व' होता है। जैसेः-शपथः=सवहो।। श्रापः सावो।। उपसर्गः=उवसग्गो।। प्रदीपः पईवो।। काश्यपः= कासवो। पापम्=पावं।। उपमा-उवमा।। कपिलम् कविलं।। कुणपम्=कुणवं। कलापः =कलावो।। कपालम् कवाल।। महि-पालः महिवालो।। गोपायति गोवइ।। तपति-तवइ।।
प्रश्न:-'स्वर से परे रहता हुआ हो' ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'प' का 'व' नहीं होगा। जैसे:-कम्पते-कम्पइ।। इस उदहारण में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं है; हिन्तु हन्लत व्यञ्जन के परे रहा हुआ है; अतः यहां पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है; यों अन्य उदाहरणों में भी जान लेना।।
प्रश्न:-'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये किन्तु असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण संयुक्त होगा स्वर रहित होगा-हलन्त होगा; तो उस 'प' वर्ग का 'व' नहीं होगा; जैसे-अप्रमत्तः अप्पमत्तो।। इस उदाहरण में 'प' वर्ण 'र' वर्ग में जुड़ा हुआ होकर संयुक्त है-स्वर रहित है-हलन्त है अत:यहां पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है, यही बात अन्य उदाहरणों में भी जान लेना।।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
180: प्राकृत व्याकरण
प्रश्न:-'अनादि रूप से स्थित हो; शब्द में प्रथम अक्षर रूप से स्थित नहीं हो; अर्थात् शब्द में आदि-स्थान पर स्थित नहीं हो;" ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'प' वर्ण का 'व' वर्ण नहीं होगा। जैसे:-सुखेन पठति-स
इस उदाहरण में 'प' वर्ण 'पठति क्रियापद में आदि अक्षर रूप से स्थित है: अतः यहां पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है। इसी प्रकार से अन्य उदाहरणों में जान
प्रश्न:-'प्रायः' अव्यय का ग्रहण क्यों किया गया है ?
उत्तर:-'प्रायः अव्यय का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि किन्ही शब्दों में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप होता हो; तो भी उस 'प' वर्ण का 'व' वर्ण नहीं होता है। जैसे:-कपिः कई और रिपुः रिऊ।। इन उदहारणों में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त भी है और अनादि रूप भी है; फिर भी इन शब्दों में 'प' वर्ण का 'व' वर्ण नहीं हुआ है। यों अन्य शब्दों में भी समझ लेना चाहिये।
अनेक शब्दों में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प' का लोप होता है और अनेक शब्दों में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' होता है। इस प्रकार 'प' वर्ण की लोप-स्थिति एवं वकार-स्थिति' दोनों अवस्थाएं है; इन दानों अवस्थाओं में से जिस अवस्था-विशेष से सुनने में आनंद आता हो; श्रुति-सुख उत्पन्न हो; उसी अवस्था का प्रयोग करना चाहिये; ऐसा सूत्र की वृत्ति में ग्रंथकार का आदेश है। जो कि ध्यान रखने के योग्य है।।
सवहो और सावो रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७९ में की गई है।
उपसर्गः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप उवसग्गो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; २-७९ से 'र'का लोप: २
प: २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'गग' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उवसग्गो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रदीपः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप पईवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२३१ से द्वितीय 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पईवो रूप सिद्ध हो जाता है।
कासवो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४३ में की गई है। पावं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–१७७ में की गई है।
उपमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'प' का 'व' होकर उवमा रूप सिद्ध हो जाता है।
कपिलम संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कविलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कविलं रूप सिद्ध हो जाता है।
कुणपम् संस्कृत विशेषण रूप है इसका प्राकृत रूप कुणवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुणवं रूप सिद्ध हो जाता है।
कलापः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कलावो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कलावो रूप सिद्ध हो जाता है।
महीपालः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप महिवालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-४ से 'ही' में स्थित दीर्घ 'ई'
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 181 की हस्व 'इ'; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महिवालो रूप सिद्ध हो जाता है।
गोपायति संस्कत सकर्मक क्रियापद का रूप है इसका प्राकत रूप गोवइ होता है। इसमें सत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व':४-२३९ से संस्कत व्यञ्जनान्त धात 'गोप में प्राप्त संस्कत धात्विक विकरण प्रत्यय 'आय के स्थान पर प्राकत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गोवइ रूप सिद्ध हो जाता हैं।
तपति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप तवइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तवइ रूप सिद्ध हो जाता है। कम्पइ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है।
अप्रमत्तोः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पमत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७९ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पमत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
सुखेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है इसका प्राकृत रूप सुहेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' का 'ह'; ३-६ से अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होकर सुहेण रूप सिद्ध हो जाता है।
पढइ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१९९ में की गई है।
कपिः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर कई रूप सिद्ध हो जाता है। रिऊ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है।।१-२३१।।
पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः।। १-२३२॥ ण्यन्ते पटि धातो परूषादिषु च पस्य फो भवति।। फालेइ फाडेइ फरूसो फलिहो। फलिहा। फणसो। फालिहद्दो।
अर्थः-प्रेरणार्थक क्रिया बोधक प्रत्यय सहित पटि धातु में स्थित 'प' का और पुरुष, परिघ, परिखा, पनस एवं पारिभद्र शब्दों में स्थित 'प' का 'फ' होता है। जैसे:-पाटयति-फालेइ अथवा फाडेइ।। परूषः-फरूसो। परिघः फलिहो।। परिखा-फलिहा।। पनसः-फणसो। पारिभद्रः फालिहद्दो।।
फालेइ और फाडेइ रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११८ में की गई है।
परूषः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत फरूसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-१६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फरूसो रूप सिद्ध हो जाता है।
परिघः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत फलिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२५४ से 'र' का 'ल'; १-१८७ से 'घ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फलिहो रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
182 : प्राकृत व्याकरण
परिखा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत फलिहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२५४ से 'र' का 'ल'; और १-१८७ से 'ख' का 'ह' होकर फलिहा रूप सिद्ध हो जाता है।
पनसः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत फणसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फणसो रूप सिद्ध हो जाता है।
पारिभद्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप फालिहद्दो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२५४ से 'र' का 'ल'१-१८७ से 'भ'का 'ह' १-७९ से द्वितीय 'र' का लोप: २-८९ से 'द' का द्वित्व 'दृ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पालिहद्दो रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२३२।।
प्रभूते वः।। १-२३३।। प्रभूते पस्य वा भवति।। वहुत्तं अर्थः-प्रभूत विशेषण में स्थित 'प' का 'व' होता है। जैसे:-प्रभूतम् वहुत्त।।
प्रभूतम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत वहुत्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३३ से 'प' का 'व'; २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ' का 'ह' १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' का ह्रस्व स्वर 'उ'; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; से ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वहुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२३३।।
नीपापीडे मो वा।। १-२३४।। अनयोः पस्य मो वा भवति।। नीमो नीवो। आमेलो आवेडो।।
अर्थः-नीप और आपीड शब्दों में स्थित 'प' का विकल्प से 'म' होता है। तदनुसार एक रूप में तो 'प' का 'म' होता है और द्वितीय रूप में 'प' का 'व' होता है। जैसे:-नीपः नीमो अथवा नीवो और आपीड: आमेलो और आवेडो।।
नीपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत नीमो और नीवो होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२३४ से 'प' का विकल्प से 'म' और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' तथा दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से नीमो और नीवो रूप सिद्ध हो जाते है।
अमिलो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०५ में की गई है। आवेडा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०२ में की गई है।।। १-२३४।।
पापर्धी रः॥ १-२३५।। पापद्धवपदादो पकारस्य रो भवति।। पारद्धी।।
अर्थः-पापर्द्धि शब्द में रहे हुए द्वितीय 'प' का 'र' होता है जैसे:-पापर्द्धि: पारद्धी।। इसमें विशेष शर्त यह कि 'पापर्द्धि' शब्द वाक्य के प्रारम्भं में नहीं होना चाहिये; तभी द्वितीय 'प' का 'र' है यह बात वृत्ति में 'अपदादौ' से बतलाई है।
पापर्द्धिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत पारद्धो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३५ से द्वितीय 'प' का 'र'; २-७९ से रेफ रूप 'र' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पारद्धी रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 183
फो भ-हौ।। १-२३६।। स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेः फस्य भहौ भवतः।। क्वचिद् भः। रेफः। रेभो।। शिफा। सिभा। क्वचित्तु हः। मुत्ताहल।। क्वचिदुभावपि। सभलं सहलं। सेभालिआ सेहालिआ। सभरी सहरी। गुभइ गुहइ।। स्वरादित्येव। गुंफइ।। असंयुक्तस्येत्येव। पुप्फ। अनादेरित्येव। चिट्ठई फणी।। प्राय इत्येव। कसण-फणी।।
अर्थः-यदि किसी शब्द में 'फ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् वह 'फ' वर्ण हलन्त याने स्वर-रहित भी न हो; एवं आदि में भी स्थित न तो; हो उस 'फ' वर्ण का 'भ' और 'ह' होता है। किसी किसी शब्द में भी होता है। जैसे:-रेफ: रेभो। शिफा-सिभा।। किसी किसी शब्द में 'ह' होता है। जैसे:-मुक्ताफलम् मुत्ताहल।। किसी किसी शब्द में 'फ' का 'भ' और 'ह' दोनों होते हैं। जैसे:=सफलम्-सभलं अथवा सहल। शेफालिका-सेभालिआ अथवा सेहा-लिआ।। शफरी-सभरी अथवा सहरी।। गुफति-गुभइ अथवा गुहइ।।
प्रश्न :- 'स्वर से परे रहता हुआ हो' ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर :- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'फ' वर्ण स्वर में परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'फ' वर्ण का 'भी' अथवा 'ह' नहीं होगा। जैसे:- गुम्फति =गुंफइ। इस उदाहरण में 'फ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं है; किन्तु हलन्त व्यंज्जन 'म्' के परे रहा हुआ है; अतः यहां पर 'फ' का 'भ' अथवा 'ह' नहीं हुआ है। ऐसा ही अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना।।
प्रश्न :- 'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; किन्तु असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये' ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर :- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'फ' वर्ण संयुक्त होगा -स्वर रहित होगा-हलन्त होगा; तो उस 'फ' वर्ण का 'भ' अथवा 'ह' नहीं होगा; जैसे:- पुष्पम्-पुप्फ।। (ग्रन्थकार का यह दृष्टान्त यहां पर उपयुक्त नहीं है; क्योंकि अधिकृत विषय हलन्त 'फ' का है; न कि किसी अन्य वर्ण का; अतः हलन्त 'फ' का उदाहरण अन्यत्र देख लेना चाहिये)।
प्रश्न :- अनादि रूप से स्थित हो; शब्द में प्रथम अक्षर रूप से स्थित नहीं हो; अर्थात् शब्द में आदि स्थान पर स्थित नहीं हो; ऐसा क्यो कहा गया है? __ उत्तर :- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'फ' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'फ' वर्ण का 'भ' अथवा 'ह' नहीं होगा। जैसे:- तिष्ठति फणी-चिटुइ फणी; इस उदाहरण में 'फ' वर्ण 'फ' वर्ण 'फणी' पद में आदि अक्षर रूप से स्थित है; अतः यहां पर 'फ' का 'भ' अथव 'ह' नहीं हुआ है। इसी प्रकार से अन्य उदाहरणों में भी जान लेना चाहिए।
प्रश्नः- वृत्ति में 'प्रायः' अव्यय का ग्रहण क्यों किया गया है?
उत्तर :- 'प्रायः अव्यय का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि किन्हीं-किन्हीं शब्दों में 'फ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप होता हुआ हो तो भी उस 'फ' वर्ण का 'भ' अथवा 'ह' नहीं होता है। जैसे :कृष्ण-फणी कसण-फणी।। इस उदाहरण में 'फ' वर्ण स्वर से परे होता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप है; फिर भी 'फ' वर्ण का न तो 'भ' ही हुआ है और न 'ह' ही। ऐसा ही अन्य शब्दों के संबंध में भी जान लेना चाहिए।।
रेफः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रेभो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३६ से 'फ' का 'भ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेभो रूप सिद्ध हो जाता है।
शिफा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिभा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स' और १-२३६ से 'फ' को 'भ' होकर सिभा रूप सिद्ध हो जाता है।
मुक्ताफलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुत्ताहलं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'क्' का लोप ;
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
184 : प्राकृत व्याकरण
२-८९ से 'त' का द्विव्व 'त्त' ; १-२३६ से 'फ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुत्ताहलं रूप सिद्ध हो जाता है।
सफलम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप सभलं और सहलं होते हैं इनमें सूत्र-संख्या १-२३६ से क्रम से प्रथम रूप में 'फ' का 'भ' और द्वितीय रूप में 'फ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सभल और सहलं दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं।।
शेफालिका संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सेभालिया और सेहालिया होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२३६ से 'फ' का क्रम से प्रथम रूप में 'भ' और द्वितीय रूप में 'फ' का 'ह; और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर क्रम से सेभालिया और सेहालिया दोनों ही रूप हो जाते हैं।।
शफरी संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सभरी और सहरी होते हैं; इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स' १-२३६ से क्रम से 'फ' का 'भ'प्रथम रूप में और 'फ' का 'ह' द्वितीय रूप में होकर सभरी और सहरी दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।।
गुफति संस्कृत सकर्मक किया पद का यप है। इसके प्राकृत रूप गुभई और गुहइ होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-२३६ से क्रम से 'फ' का 'भ' प्रथम रूप में और 'फ' का 'ह' द्वितीय रूप में और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से गुभइ और गुहइ दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।।
गुम्फति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है; इसका प्राकृत रूप गुंफइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३ से 'म्' का अनुस्वार और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुंफइ रूप सिद्ध हो जाता है।
पुष्पम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुष्पं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-५३ से 'प्प' का 'फ'; २-७९ से प्राप्त 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'फ्' का 'प्'; ३-२५ से प्रथम विभक्ति के एकवचन से अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पुप्फ रूप सिद्ध हो जाता है। चिट्ठई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१९९ में की गई है।
कृष्ण संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप कसण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-११० से हलन्त 'ए' में 'अ' की प्राप्ति; और १-२६० से प्राप्त ष का 'स' होकर कसण रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२३६ ।।
व :।। १-२३७॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्बस्य वे भवति।। अलाबू। अलावू। अलाऊ। शबलः। सबलो।।
अर्थ :- यदि किसी शब्द में 'ब' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात यह 'ब' वर्ण हलन्त याने स्वर रहित भी न हो एवं आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'ब' वर्ण का 'व' हो जाता है। जैसे :- अलाबू अथवा अलावू अथवा अलाऊो शबलः-सबलो।।
. अलाबू संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अलाबू और अलावू और अलाऊ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप अलाबू में सूत्र-संख्या ३-१८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ऊकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ' एवं विसर्ग का दीर्घ स्वर 'ऊ ही रह कर अलाब सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२३७ से 'ब' का 'व' और ३-१९ से प्रथम रूप के समान ही प्रथमा विभक्ति का रूप सिद्ध होकर अलावू रूप भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप अलाऊ की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६६ में की गई है।
शबलः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सबलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स', १-२३७ से 'ब' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सबलो रूप सिद्ध हो जाता है।।।१-२३७।।
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 185
बिसिन्यां भः।।१-२३८।। बिसिन्यां बस्य भो भवति।। भिसिणी स्त्रीलिंगनिर्देशादिह न भवति। बिसतन्तु-पेलवाणं।।
अर्थ :- बिसिनी शब्द में रहे हुए 'ब' वर्ण का 'भ' होता है। जैसे:- विसिनी भिसिणी।। बिसिनी शब्द जहां स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होगा, वहीं पर बिसिनी में स्थित 'ब' का 'भ' होगा। किन्तु जहां पर 'बिस' रूप निर्धारित होकर नपुंसकलिंग में प्रयुक्त होगा; वहां पर 'बिस' में स्थित 'ब' का 'भ' नहीं हुआ है। यों लिंग-भेद से वर्ण भेद जान लेना।
बिसिनी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भिसिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३८ से 'ब' का 'भ' और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर भिसिणी रूप सिद्ध हो जाता है।
बिस-तन्तु पेलवानाम् संस्कृत षष्ठयन्त वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूपान्तर बिस-तन्तु पेलवाणं होता है। इसमें केवल विभक्ति प्रत्यय का ही अन्तर है। तदनसार सत्र-संख्या ३-६ से संस्कत षष्ठी बहवचन के प्रत्यय 'आम' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'व' में रहे हुए 'अ' को 'आ' की प्राप्ति; और १-२७ से 'ण' प्रत्यय पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर बिस-तन्तु पेलवाणं रूप की सिद्धि हो जाती है।। १-२३८।।
कबन्धे म-यौ।। १-२३९।। कबन्धे वस्य मयो भवतः।। कमन्धो।। कयन्धो।।
अर्थ : कबन्ध शब्द में स्थित 'ब' का कभी 'म' होता है और कभी 'य' होता है। तदनुसार कबन्ध के दो रूप होते हैं। जो इस प्रकार हैं:- कमन्धो और कयन्धो।।
कबन्धः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कमन्धो और कयन्धो होते हैं; इनमें सूत्र-संख्या १-२३९ से प्रथम रूप में 'ब' का 'म' और द्वितीय रूप में इसी सूत्रानुसार 'ब' का 'य' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से कमन्धो और कयन्धो रूपों की सिद्धि हो जाती है।।।१-२३९।।
कैटभे भो वः ॥ १-२४० ।। कैटभे भस्य वो भवति ।। केढवो ।। अर्थ :- 'कैटभ' शब्द में स्थित 'भ' का 'व' होता है। जैसे :- कैटभः केढवो।। 'केढवो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४८ में की गई है। ।। १-२४० ।।
विषमे मो ढो वा ।। १-२४१ ।। विषमे मस्य ढो वा भवति ।। विसढो । विसमो ॥
अर्थ :- विषम शब्द में स्थित 'म' का वैकल्पिक रूप से 'ढ' होता है। जैसे :- विषमः-विसढो अथवा विसमा।। ___ 'विषमः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'विसढो' और 'विसमो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' का 'स'; १-२४१ से 'म' का वैकल्पिक रूप से 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'विसढो' और 'विसमो' रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। १-२४१ ।।
मन्मथे वः ॥ १-२४२ ।। मन्मथे मस्य वो भवति ।। वम्महो ।। अर्थ :- मन्मथ शब्द में स्थित आदि 'म' का 'व' होता है। जैसे:- मन्मथः-वम्महो।। 'मन्मथः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वम्महो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४२ से आदि ‘म' का 'व';
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
186 : प्राकृत व्याकरण
२-६१ से 'न्म' का 'म'; २-८९ से प्राप्त 'म' का द्वित्व 'म्म'; १-१८७ से'थ का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वम्महो' रूप सिद्ध हो जाता है।। १-२४२।।
वाभिमन्यौ ।। १-२४३ ।। अभिमन्यु शब्दे मो वो वा भवति ।। अहिवन्नू अहिमन्नू ।। अर्थ :- अभिमन्यु शब्द में स्थित 'म' का वैकल्पिक रूप से 'व' होता है। अभिमन्युः अहिवन्नू अथवा अहिमन्नू।
'अभिमन्युः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अहिवन्नू' और 'अहिमन्नू' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह' ; १-२४३ से 'म' का विकल्प से 'व'; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'न्' का द्वित्व 'न्न' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर क्रम से 'अहिवन्न' और 'अहिमन्नू' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।। १-२४३ ।।
भ्रमरे सो वा ।। १-२४४ ।। भ्रमरे मस्य सो वा भवति ॥ भसलो भमरो ।। अर्थ :- भ्रमर शब्द में स्थित 'म' का विकल्प से 'स' होता है। जैसे :- भ्रमरः भसला अथवा भमरो।।
'भ्रमरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भसलो' और 'भमरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२४४ से विकल्प से 'म' का 'स'; १-२५४ से द्वितीय 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भसला' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भमरो' भी सिद्ध हो जाता है।। १-२४४।।
आदेयों जः ।। १-२४५ ॥ पदादेर्यस्य जो भवति ।। जसो । जमो । जाइ ।। आदेरिति किम् । अवयवो ॥ विणओ ।। बहुलाधिकारात् सोपसर्गस्यानादेरपि । संजमो संजोगो । अवजसो ॥ क्वचिन्न भवति। पओओ ।। आर्षे लोपोपि । यथाख्यातम् । अहक्खाय।। यथाजातम् । अहाजायं ।। __ अर्थ :-यदि किसी पद अथवा शब्द के आदि में 'य' रहा हुआ हो; तो उस 'य' का प्राकृत रूपान्तर में 'ज' हो जाता है। जैसे:- यशः जसो।। यमः-जमा।। याति जाइ।।
प्रश्नः- 'य' वर्ण पद के आदि में रहा हुआ हो; तभी 'य' का 'ज' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- यदि 'य' वर्ण पद के आदि में नहीं होकर पद के मध्य में अथवा अन्त में रहा हुआ हो; अर्थात् 'य' वर्ण पद में अनादि रूप से स्थित हो तो उस 'य' का 'ज' नहीं होता है। जैसे:- अवयवः अवयवा ।। विनयः-विणआ ।। इन उदाहरणों में 'य' अनादि रूप है; अतः इनमें 'य' का 'ज' नहीं हुआ है। यों अन्य पदों के सम्बन्ध में भी जान लेना।। ___ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से यदि कोई पद उपसर्ग सहित है; तो उस उपसर्ग सहित पद में अनादि रूप से रहे हुए 'य' का भी 'ज' हो जाया करता है। जैसे:- संयमः-संजमो ।। संयोगः-संजोगो।। अपयशः अवजसो।। इन उदाहरणों में
अनादि रूप से स्थित 'य' का भी 'ज' हो गया है। कभी-कभी ऐसा पद भी पाया जाता है जो कि उपसर्ग सहित है और जिसमें 'य' वर्ण अनादि रूप से स्थित है; फिर भी उस 'य' का 'ज' नहीं होता है। जैसेः-प्रयोगः-पओओ ।। आर्ष-प्राकृत पदों में आदि में स्थित 'य' वर्ण का लोप होता हुआ भी पाया जाता है। जैसे:- यथाख्यातम् अहक्खायं ।। यथाजातम् अहाजाय।। इत्यादि।।
जसो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 187 'यमः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'याति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन के प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जाइरूप सिद्ध हो जाता है।
'अवयवः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवयवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अवयवो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विनयः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विणओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विणआ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'संयमः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संजमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संजमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'संयोग' : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संजोगो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संजोगो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अपयशस्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवजसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-११ से अन्त्य हलन्त 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अवजसो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'प्रयोगः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पओओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' और 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पओओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
"यथाख्यातम संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप 'अहक्खायं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से- (वृत्ति से)- 'य' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-८४ से प्राप्त 'हा' में स्थित 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ख' को 'क्' की प्राप्ति; १-१७७ से'' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अहक्खाय' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'यथाजातम' संस्कृत विशेषण है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'अहाजायं' रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ की वृत्ति से 'य' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-८७ से 'थ' का 'ह'; १–१७७ 'त' का लोप; १-१८० लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अहाजायं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १-२४६ ।।
__ युष्मद्यर्थपरे तः ।। १-२४६ ।। युष्मच्छब्देर्थपरे यस्य तो भवति ।। तुम्हारिसो । तुम्हकेरो ।। अर्थ पर इति किम्। जुम्ह-दम्ह-पयरण।।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
188 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- जब ‘युष्मद्' शब्द का पूर्ण रूप से 'तू-तुम' अर्थ व्यक्त होता हो; तभी 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' हो जाता है। जैसे:- युष्माद्दश: - तुम्हारिसो ॥ युष्मदीयः = तुम्हकेरो ||
प्रश्नः- ‘अर्थ परः' अर्थात् पूर्ण रूप से 'तू-तुम' अर्थ व्यक्त होता हो; तभी 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि तू-तुम अर्थ 'युष्मद्' शब्द का नहीं होता हो, एवं कोई अन्य अर्थ ' युष्मद्' शब्द का प्रकट होता हो तो उस ‘'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' का 'त' नहीं होकर 'य' का 'ज' सूत्र संख्या १ - २४५ के अनुसार होता है। जैसे:युष्मदस्मत्प्रकरणम्- (अमुक-तमुक से संबंधित = अनिश्चित व्यक्ति से संबंधित =) जुम्ह अम्ह-पयरणं । इस उदाहरण में स्थित 'युष्मद्' सर्वनाम 'तू-तुम' अर्थ को प्रकट नहीं करता है; अतः इसमें स्थित 'य' वर्ण का 'त' नहीं होकर 'ज' हुआ है।
'तुम्हारिसा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४२ में की गई है।
'युष्मदीयः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुम्हकेरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४६ से 'य्' का 'त्'; २-७४ से 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; १ - ११ से 'युष्मद्' शब्द में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'त' का लोप; २-१४७ से ‘सम्बन्ध वाला' अर्थद्योतक संस्कृत प्रत्यय 'ईय' के स्थान पर प्राकृत में 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तुम्हकेरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'युष्मद्- अस्मद्' संस्कृत सर्वनाम मूल रूप है। इसका (अमुक-तमुक अर्थ में) प्राकृत रूप 'जुम्ह - दम्ह' होता है। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य्' का 'ज्'; २-७४ से 'ष्म' और 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; १-५ से 'युष्मद्' में स्थित 'द्' की परवर्ती 'अ' के साथ संधि; और १ - ११ से 'अस्मद्' में स्थित अन्त्य 'द्' का लोप होकर 'जुम्ह - दम्ह' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'प्रकरणम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पयरणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से प्रथम 'र्' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप १ - १८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पयरणं रूप सिद्ध हो जाता है। ।।१ - २४६ ।।
यष्ट्यां लः ।। १-२४७ ।।
यष्टयां यस्य लो भवति ॥ लट्ठी । वेणु-लट्ठी । उच्छु-लट्ठी । महु-लट्ठी ॥
अर्थ :'यष्टि' शब्द में स्थित 'य' का 'ल' होता है। जैसे:- यष्टिः - लट्ठी | वेणु - यष्टि: - वेणु - लट्ठी ।। इक्षु-यष्टिः-उच्छ-लट्ठी ॥ मधु - यष्टिः - महु - लट्ठी ॥
'यष्टिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४७ से 'य' का 'ल'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ' ; २- ९० से प्राप्त पूर्व 'व्' का 'ट्'; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' एवं विसर्ग को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'लट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वेणु-यष्टिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेणु-लट्ठी' होता है। इस रूप की सिद्धि ऊपर सिद्ध किये हुए 'लट्ठी' रूप के समान ही जानना ।।
'इक्षु-यष्टि':- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उच्छु- लट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ९५ से 'इ' को 'उ' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' को 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' ; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति और शेष सिद्धि उपरोक्त लट्टी के समान ही लेकर 'उच्छु- लट्ठी' रूप की सिद्धि हो जाती है।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 189
'मधु-यष्टिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महु-लट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' का 'ह' और शेष सिद्धि उपरोक्त लट्टी के समान ही होकर 'महु-लट्ठी' रूप की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२४७।।
वोत्तरीयानीय-तीय कृद्ये ज्जः ॥१-२४८।। उत्तरीय शब्दे अनीयतीय कृद्य प्रत्ययेषु च यस्य द्विरुक्तो जो वा भवति ।। उत्तरिज्जं उत्तरीअं ।। अनीय ।। करणिज्ज-करणीअं ।। विम्हयणिज्जं विम्हयणीअं॥ जवणिज्ज । जवणीअं । तीय । बिइज्जो बीओ ।। कृद्य । पेज्जा पेआ ।
अर्थः- "उत्तरीय' शब्द में और जिन शब्दों में अनीय', अथवा 'तीय' अथवा कृदन्त वाचक 'य' प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय रहा हुआ हो तो इनमें रहे हुए 'य' वर्ण का द्वित्व 'ज्ज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-उत्तरीयम-उत्तरिज्जं अथवा उत्तरी। 'अनीय' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण इस प्रकार हैं:- करणीयम् करणिज्ज अथवा करणीअं॥ विस्मयनीयम्-विम्हयणिज्जं अथवा विम्हयणीअं । यापनीयम् जवणिज्जं अथवा जवणीअं ।। 'तीय' प्रत्यय का उदाहरणः- द्वितीय-बिइज्जो अथवा बीओ।। कृदन्त वाचक 'य' प्रत्यय का उदाहरण:- पेया-पेज्जा अथवा पेआ।। उपरोक्त सभी उदाहरणों में 'य' वर्ण को द्वित्व 'ज्ज' की विकल्प से प्राप्ति हुई है।
'उत्तरीयम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उत्तरिज्ज' अथवा 'उत्तरीअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से विकल्प से 'य' को द्वित्व'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'उत्तरिज्ज' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-१७७ से 'य्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'उत्तरीअं रूप जानना। ___ 'करणीयम्' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप करणिज्जं अथवा करणीअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से विकल्प से 'य' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'करणिज्ज' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'करणी' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होती है।। ___ 'विस्मयनीयम' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विम्हयणिज्ज अथवा' 'विम्हयणीअ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७४ से 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से द्वितीय 'य' को विकल्प से द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का
अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'विम्हयणिज्ज' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य' का विकल्प से लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'विम्हयणीअं जानना।
'यापनीयम' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जवणिज्ज' अथवा' 'जवणीअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२४५ से आदि 'य' को 'ज' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व, 'इ' की प्राप्ति; १-२४८ से वैकल्पिक रूप से द्वितीय 'य' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'जवणिज्ज' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य' का विकल्प से लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान होकर 'जवणीअं रूप सिद्ध हो जाता है।
"द्वितीयः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'बिइज्जा' और 'बीआ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
190 : प्राकृत व्याकरण
२-७७ से 'द्' का लोप; ४-४४७ से 'व' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १ - २४८ से 'य' के स्थान पर द्वित्व 'ज्ज' की विकल्प से प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बिइज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'द्वितीय' रूप 'बीओ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-५ में की गई है।
'पेया' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पेज्जा' और 'पेआ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २४८ से 'य' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति होकर पेज्जा रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'य्' का लोप होकर 'पेआ' रूप सिद्ध हो जाता है। १ - २४८ ।
छायायां हो कान्तौ वा ।।१-२४९।।
अकान्तौ वर्तमाने छाया शब्दे यस्य हो वा भवति ।। वच्छस्स छाही । वच्छस्स छाया ।। आतपाभावः । सच्छाहं सच्छायं । अकान्ताविति किम् ॥ मुह-च्छाया । कान्ति रित्यर्थः ।।
अर्थः- 'छाया' शब्द का अर्थ कांति नहीं होकर परछाई हो तो 'छाया' शब्द में रहे हुए 'य' वर्ण का विकल्प से 'ह' होता है। जैसे :- वृक्षस्य छाया=वच्छस्स छोही अथवा वच्छस्स छाया ।। यहाँ पर छाया शब्द का तात्पर्य 'आतप अर्थात् तूप का अभाव' है। इसीलिये छाया में रहे हुए 'य' वर्ण का विकल्प से 'ह' हुआ है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:सच्छायम् = (छाया सहित ) = सच्छाहं अथवा सच्छायं ।।
प्रश्न- 'छाया' शब्द का अर्थ कांति नहीं होने पर 'छाया' में स्थित 'य' वर्ण का विकल्प से 'ह' होता है' ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- यदि 'छाया' शब्द का अर्थ परछाई नहीं होकर कांति वाचक होगा तो उस दशा में छाया में रहे हुए 'य' वर्ण को विकल्प से होने वाले 'ह' की प्राप्ति नहीं होगी; किन्तु उसका 'य' वर्ण ही रहेगा। जैसे:- मुख - छाया = (मुख की कांति)='मुह--च्छाया'।। यहाँ पर छाया शब्द का तात्पर्य कान्ति है। अतः छाया शब्द में स्थित 'य' वर्ण 'ह' में परिवर्तित नहीं होकर ज्यों का त्यों ही यथा रूप में ही स्थित रहा है।
'वृक्षस्य' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' का 'अ'; २ - १७ से 'क्ष' का 'छ' ; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति; और ३-१० से संस्कृत में षष्ठी विभक्ति-बोधक 'स्य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वच्छस्स' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छाया' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छाही' और 'छाया' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २४९ से 'य' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति और ३ - ३४ से 'या' में अर्थात् आदेश रूप से प्राप्त 'हा' में स्थित 'आ' को स्त्रीलिंग-स्थिति में विकल्प से 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'छाही' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'छाया' संस्कृत के समान ही होने से सिद्धवत् ही है।
'सच्छायम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'सच्छाह' और 'सच्छाय' होता है। प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २४९ से 'य' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सच्छाह' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'सच्छायं रूप' सिद्ध हो जाता है।
'मुख - छाया' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुह - च्छाया' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'ख' का 'ह'; २-८९ से 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति होकर 'मुहच्छाया' रूप - सिद्ध हो जाता है। ।।१-२४९।।
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 191
डाह-वौ कतिपये ।। १-२५० ।। कतिपये यस्य डाह व इत्येतो पर्यायेण भवतः ।। कइवाह। कइअवं।।
अर्थः- 'कतिपय' शब्द में स्थित 'य' वर्ण को क्रम से एवं पर्याय रूप से 'आह' की और 'ब' की प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार है:- 'कइवाह' और 'कइअवं ।। ___ 'कतिपयम्' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत में कइवाहं और कइअवं दो रूप होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२५० से 'य' को 'आह' की प्राप्ति; १-५ से 'व' में स्थित 'अ' के साथ प्राप्त 'आह' में स्थित 'आ' की संधि होकर 'वाह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'कइवाह' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'कइअवं' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' और 'प' का लोप; १-२५० से 'य' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'कइअवं रूप की सिद्धि हो जाती है ।। १-२५०।।
किरि-भेरे रो डः ॥१-२५१॥ अनयो रस्य डो भवति ।। किडी। भेडो।। अर्थः- 'किरि' और 'भेर' शब्द में रहे हुए 'र' का 'ड' होता है। जैसे:- किरि: किडी भेरः भेडो॥
"किरिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किडी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५१ से 'र' का 'ड' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'किडी' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'भेरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'भेडो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५१ से 'र' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भेडा' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२५१।। .
पर्याणे डा वा ॥१-२५२।। पर्याणे रस्य डा इत्यादेशो वा भवति ।। पडायाणं । पल्लाणं ॥
अर्थः- 'पर्याण' शब्द में रहे हुए 'र' के स्थान पर विकल्प से 'डा' का आदेश होता है। जैसे:- पर्याणम्=पडायाण अथवा पल्लाण।।
'पर्याणम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पडायाणं' और 'पल्लाणं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२५२ से 'र' के स्थान पर 'डा' का विकल्प से आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पडायाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-६८ से 'य' के स्थान पर 'ल्ल' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'पल्लाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-२५२।।
करवीरे णः ।।१-२५३।। करवीरे प्रथमस्य रस्य णो भवति ।। कणवीरो।। अर्थः- करवीर शब्द में स्थित प्रथम 'र' का 'ण' होता है। जैसे:- करवीरः कणवीरो।। 'करवीरः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'कणवीरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५३ से प्रथम 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कणवीरो' रूप की सिद्धि हो जाती है ।।१-२५३।।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
192 : प्राकृत व्याकरण
हरिद्रादौ लः ।। १-२५४ ।।
I
-
I
हरिद्रादिषु शब्देषु असंयुक्तस्य रस्य लो भवति ।। हलिद्दी दलिद्दाइ । दलिद्दो दालिद्दं । हलिद्दो । जहुट्ठलो । सिढिलो । मुहलो । चलणो । वलुणो । कलुणो । इंगालो । सक्कालो । सोमालो । चिलाओ । फलिहा । फलिहो । फालिहद्दो । काहलो । लुक्को। अवद्दालं । भसलो । जढलं । बढलो । निट्टुलो बहुलाधिकाराच्चरण शब्दस्य पादार्थवृत्तेरेव। अन्यत्र चरण- करणं ।। भ्रमरे स संनियोगे एव । अन्यत्र भमरो । तथा । जढरं । बढरो । निट्टु रो इत्याद्यपि ।। हरिद्रा दरिद्राति । दरिद्र । हारिद्र । युधिष्ठिर । शिथिर । मुखर । चरण । वरूण । करूण | अंगार । सत्कार । सुकुमार । किरात । परिखा । परिघ । पाणिभद्र । कातर । रुग्ण । अपद्वार । भ्रमर । जरठ । बठर । निष्ठुर । इत्यादि ।। आर्षे दुवालसंगे इत्याद्यपि ।
अर्थ :- इसी सूत्र में नीचे लिखे हुए हरिद्रा, दरिद्राति इत्यादि शब्दों में रहे हुए असंयुक्त अर्थात् स्वरान्त 'र' वर्ण का 'ल' होता है। जैसे: हरिद्रा-हलिद्दी ; दरिद्राति = दलिद्दाइ; दरिद्रः- दलिद्दो; दारिद्रयम्-दालिद्दं; हारिद्रः -हलिद्दो:; युधिष्ठिरः=जहुट्ठिलो; शिथिरः=सिढिलो, मुखरः=मुहलो; चरणः = चलणो; वरूण:-वलुणो; करूण:-कलुणो; अंगार : - इंगालो; सत्कार :- सक्कालो; सुकुमारः=सोमालो; किरातः-चिलाओ; परिखा-फलिहा; परिघः=फलिहो; पारिभद्रः=फालिहद्दो; कातरः=काहलो; रुग्णः-लुक्को; अपद्वारम्=अवद्दालं; भ्रमरः - भसलो; जठरम्-जढलं; बठरः = बढलो; और निष्ठुरः = निट्टु लो ।। इत्यादि । इन उपरोक्त सभी शब्दों में रहे हुए असंयुक्त 'र' वर्ण का 'ल' हुआ है। इसी प्रकार से अन्य शब्दों में भी 'र' का 'ल' होता है; ऐसा जान लेना || 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से 'चरण' शब्द में रहे हुए असंयुक्त 'र' का 'ल' उसी समय में होता है; जबकि 'चरण' शब्द का अर्थ 'पैर' हो; यदि 'चरण' शब्द का अर्थ चारित्र वाचक हो तो उस समय में 'र' का 'ल' नहीं होगा। जैसे:चरण-करणम् = 'चरण करणं' अर्थात् चारित्र तथा गुण-संयम । इसी प्रकार से 'भ्रमर' शब्द में रहे हुए 'र' का 'ल' उसी समय में होता है जबकि इसमें स्थित 'म' का 'स' होता हो; यदि इस 'म' का 'स' नहीं होता है तो 'र' का भी 'ल' नहीं होगा। जैसेः- भ्रमरः = 'भमरो' इसी प्रकार से बहुलं सूत्र के अधिकार से कुछ एक शब्दों में 'र' का 'ल' विकल्प से होता है; तदनुसार उन शब्दों के उदाहरण इस प्रकार है:- 'जठरम्' =जढरं जढलं; बठरः = बढरो बढलो; और निष्ठुरः- निट् ठुरा निठुलो इत्यादि ।। आर्ष-प्राकृत में 'द' का भी 'ल' होता हुआ देखा जाता है। जैसे :- द्वादशांगे - दुवालसंग ।। इत्यादि।।
रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८८ में की गई है।
'दरिद्राति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दलिद्दाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से प्रथम एवं असंयुक्त 'र' का 'ल'; २- ७९ से अथवा २-८० से द्वितीय 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' में से शेष रहे हुए 'द्' का द्वित्व 'द्द' और ३-१९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दलिद्दाइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दरिद्रः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दलिद्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल'; २–७९ से अथवा २ -८० से द्वितीय 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' में से शेष रहे हुए 'द्' का द्वित्व 'द्द' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दलिद्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दारिद्र्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दालिद्द' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से ' असंयुक्त' 'र' का 'ल'; २-७९ से अथवा २-८० से द्वित्व '' का लोप; २- ७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' तथा 'य्' में से शेष रहे हुए ‘द्' का द्वित्व ‘द्द'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त हुए 'म्' का अनुस्वार होकर 'दालिद्द' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हारिद्रः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हलिद्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से आदि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १ - २५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल'; २ - ७९ से अथवा २-८० से द्वितीय संयुक्त 'र्'
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 193 का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' में से शेष रहे हुए 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हलिद्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जहुट्ठिला' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ९६ में की गई है।
'सिढिलो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २१५ में की गई है।
'मुखरः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मुहलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'ख' का 'ह'; १-२५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुहलो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चरण:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चलणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'चलणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वरुणः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वलुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वलुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'करुणः '' 'संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'कलुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ में 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कलुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इंगालो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ४७ में की है।
'सत्कार:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्कालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'त्' का लोप २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति, १ - २५४ से 'र' का 'ल'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सक्काला' रूप की सिद्धि हो जाती है।
सोमाला रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७१ में की गई है। चिलाओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १- १८३ में की गई है। फलिहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १३२ में की गई है। फलहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २३२ में की गई है। फालिहद्दो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २३२ में की गई है। काहलो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २१४ में की गई है।
रुग्णः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लुक्को' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल'; २-२ से संयुक्त 'ग्ण' के स्थान पर द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लुक्को' रूप की सिद्धि हो जाती है।
अपद्वारम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवद्दाल' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २३१ में 'प' का 'व'; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व्' में से शेष हुए 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति; १ - २५४ से 'र' का 'ल'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अवद्दाल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भसलो' - रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २४४ में की गई है।
जठरम्-संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जढलं' और 'जढर' होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १९९ से 'ठ' का
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
194 : प्राकृत व्याकरण 'ढ'; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' और द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोनों रूप 'जढलं' तथा 'जढरं क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
बठरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बढला' और 'बढरो' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ' का 'ढ'; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' तथा द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'बढलो' और 'बढरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
निष्ठुरः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'निठुलो' और 'निठुरो' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से 'ठ्' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति, २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्तिः १-२५४ से 'र' का 'ल' तथा द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'निठुलो' एवं 'निठुरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
चरण-करणम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चरण-करणं' ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'चरण-करणं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'भमरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४४ में की गई है।
द्वादशाङ्ग संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'दुवालसङ्गे' रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७९ से 'द्वा' को पृथक्-पृथक् करके हलन्त 'द्' में 'उ' की प्राप्ति; १-२५४ की वृत्ति से द्वितीय 'द्' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १-८४ से प्राप्त 'सा' में स्थित दीर्घस्वर 'आ' को 'अ' की प्राप्ति, और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आर्ष-प्राकृत में 'दुवालसंगे' रूप की सिद्धि हो जाती है। यदि 'द्वादशाङ्ग ऐसा प्रथमान्त संस्कृत रूप बनाया जाए तो सूत्र संख्या ४-२८७ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आर्ष-प्राकृत में प्रथमान्त रूप 'दुवालसंगे' सिद्ध हो जाता है। ।।१-२५४।।
स्थूले लो रः ।। १-२५५।। स्थूले लस्य रो भवति।। थोरं।। कथं थूलभद्दो।। स्थूरस्य हरिद्रादि लत्वे भविष्यति।। अर्थः- 'स्थूल' शब्द में रहे हुए 'ल' का 'र' होता है। जैसे :- स्थूलम् थोर।। प्रश्न : 'थूल भद्दो' रूप की सिद्धि कैसे होती है?
उत्तर : 'थूल थद्दो' में रहे हुए थूल' की प्राप्ति 'स्थूर' से हुई है; न कि 'स्थूल' से; तदनुसार सूत्र संख्या १-२५४ से 'स्थूर' में रहे हुए 'र' को 'ल' की प्राप्ति होगी; और इस प्रकार 'स्थूर' से 'थूल' की प्राप्ति हो जाने पर 'स्थूलम् थोर' के समान 'स्थूर' में रहे हुए 'ऊ' को 'ओ' की प्राप्ति की आवश्यकता नहीं है।
थोरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२४ में की गई है।
स्थूल भद्र : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थूल भद्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-२५४ से प्रथम 'र' का 'ल'; २-८० से द्वितीय 'र' का लोप; २-८९ से 'द्' को द्वित्व '६' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'थूल भद्दो' रूप की सिद्धि हो जाती है।।१-२५५।।
लाहल-लांगल-लांगुले वादे णः ।।१-२५६॥ • एषु आदेर्लस्य णो वा भवति ।। णाहणो लाहलो॥णङ्गलं लङ्गल।। णफूल। ललं।।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 195 अर्थः- लाहल, लांगल और लांगूल शब्दों में रहे हुए आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण' होता है। जैसे:लाहलः-णाहलो अथवा लाहलो।। लांगलम्=णंगलं अथवा लंगलं ।। लांगलम्=णंगलं अथवा लंगूल।।
'लाहलः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णाहलो' और 'लाहलो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५६ से आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'णाहलो' और 'लाहलो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'लांगलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णंगलं' और 'लंगलं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५६ से आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'णङ्गलं' और 'लङ्गलं दोनो रूपों की सिद्धि हो जाती है। __ 'लांङ्गलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'णलं' और 'लङ्गलं' 'होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५६ से आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'गंगूल' और 'लंगूलं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२५६।।
ललाटे च ।। १-२५७॥ ललाटे च आदे र्लस्य णो भवति ॥ चकार आदेरनुवृच्यर्थः ॥ णिडालं । णडालं।।
अर्थः- 'ललाट' शब्द में आदि में रहे हुए 'ल' का 'ण' होता है। मूल-सूत्र में 'च' अक्षर लिखने का तात्पर्य यह है कि सूत्र संख्या १-२५६ में आदि' शब्द का उल्लेख है; उस 'आदि' शब्द को यहाँ पर भी समझ लेना, तदनुसार ललाट' शब्द में जो दो 'लकार ' है; उनमें से प्रथम 'ल' का ही 'ण' होता है; न कि द्वितीय 'लकार' का; इस प्रकार 'तात्पर्य-विशेष' को समझाने के लिये ही 'च' अक्षर को मूल सूत्र में स्थान प्रदान किया है। उदाहरण इस प्रकार है:- "ललाटम् =णिडालं और णडाला। "णिडालं' और 'णडाल' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-४७ में की गई है।।१-२५७।।
शबरे बो मः ।।१-२५८।। शबरे बस्य मो भवति ।। समरो।। अर्थः 'शबर' शब्द में रहे हुए 'ब' का 'म' होता है। जैसे-शबर:=समरा।। 'शबरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'समरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२५८ से 'ब' का 'म' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समरो' रूप की सिद्धि हो जाती है।।१-२५८।।
स्वप्न-नीव्यो र्वा ॥१-२५९।। अनयोर्वस्य मो वा भवति । सिमिणो सिविणो ।। नीमी नीबी ।।
अर्थः- स्वप्न और नीवी शब्दों में रहे हुए 'व' का विकल्प से 'म' होता है। जैसे:- स्वप्न-सिमिणो अथवा सिविणो।। नीवी-नीमी अथवा नीवी।।
'सिमिणा' और 'सिविणो' रूपो की सिद्धि सूत्र संख्या १-४६ में की गई है।
'नीवी' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नीमी' और 'नीवी' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५९ से 'व' का विकल्प से 'म' होकर क्रम से 'नीमी' और 'नीवी' दोनों रूपो की सिद्धि हो जाती है।।१-२५९।।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
196 : प्राकृत व्याकरण
श - षोः सः ।।१ - २६०।।
शकार षकारयोः सो भवति । रा । सद्दो । कुसो । निसंसो । वंसो । सामा । सुद्धं । दस । सोहइ । विसइ ॥ ष।। सण्डो । निहसो । कसाओ । घोसइ ।। उभयोरपि । सेसो । विसेसो ॥
I
=
अर्थः- संस्कृत शब्दों में रहे हुए 'शकार' का और 'षकार' का प्राकृत रूपान्तर में 'सकार' हो जाता है। 'श' से संबंधित कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- शब्द:- सद्दो । कुशः = कुसो ।। नृशंसः - निसंसो ॥ वंश= वंसो।। श्यामा=सामा।। शुद्धम्-सुद्धं ।। दश= दस ।। शोभते = सोहइ । । विशति - विसइ । । इत्यादि । । 'ष' से संबंधित कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:-षण्डः-सण्डो।। निकष:-निहसा।। कषायः-कसाआ।। घोषयति=घोसइ।। इत्यादि । यदि एक ही शब्द में आगे पीछे अथवा साथ में 'शकार' एवं ' षकार' आ जाय; तो भी उन 'शकार' और 'षकार' के स्थान पर 'सकार' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे :- शेषः - सेसो और निशेषः- विसेसा । । इत्यादि । ।
'शब्दः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सद्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स', २-७९ से 'ब्' का लोप, २-८९ से 'द' का द्वित्व 'द्द' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सद्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुश: ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कुसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निसंसो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२८ में की गई है।
'वंश:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वंसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वंसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्यामा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सामा' होता है । इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स', और २- ७८ से 'य' का लोप होकर 'सामा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शुद्धम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुद्ध होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स', ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुद्ध' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दस' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २१९ में की गई है।
'सोहइ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १८७ में की गई है।
'विशति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विस' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स' और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विसइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'षण्डः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सण्डो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय प्राप्ति होकर 'सण्डो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निहसो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १८६ में की गई है।
'कषायः' संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप 'कसाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' का 'स'; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कसाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 197 'घोषयति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घोसइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' का 'स'; ४-२३९ से संस्कृत धात्विक गण-बोधक विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घोसइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'शेषः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सेसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से दोनों 'शकार', 'षकार' के स्थान पर 'स' और 'स' की प्राप्ति तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सेसो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'विशेषः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विसेसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से दोनों 'शकार', 'षकार' के स्थान पर 'स' और 'स' की प्राप्ति तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विसेसो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।।१-२६०।।
स्नुषायां ण्हो न वा ॥१-२६१।। स्नुषा शब्दे षस्य ण्हः णकाराक्रान्तो हो वा भवति ।। सुण्हा । सुसा ॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्नुषा' में स्थित 'ष' वर्ण के स्थान पर हलन्त 'ण' सहित 'ह' अर्थात् 'ह' की विकल्प से प्राप्ति होती है। जैसेः- स्नुषा-सुण्हा अथवा सुसा।। _ 'स्नुषा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सुण्हा' और 'सुसा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; १-२६१ से प्रथम रूप में 'ष' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में १-२६० से 'ष' का 'स' होकर क्रम से 'सुण्हा' और 'सुसा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२६१।
दश-पाषाणे हः ॥ १-२६२।। दशन् शब्दे पाषाण शब्दे च शषोर्यथादर्शनं हो वा भवति।। दह-मुहो दस मुहो।। दह-बलो दस बलो। दह-रहो दस रहो। दह दस। एआरह। बारह। तेरह। पाहाणो पासाणो।। ___ अर्थः- 'दशम्' शब्द में और पाषाण शब्द में रहे हुए 'श' अथवा 'ष' के स्थान पर विकल्प से 'ह' होता है। ये शब्द 'दशम्' और 'पाषाण' चाहे समास रूप से रहे हुए हों अथवा स्वतंत्र रहे हुए हों; तो भी इनमें स्थित 'श' का अथवा 'ष' का विकल्प से 'ह' हो जाता है। ऐसा तात्पर्य वृत्ति में उल्लिखित 'यथादर्शन' शब्द से जानना।। जैसेः- दश-मुखः-दह-मुहो अथवा दस मुहो।। दश-बलः दह बलो अथवा दस बलो।। दशरथः=दहरहो अथवा दसरहो।। दश-दह अथवा दस।। एकादश-एआरह।। द्वादश बारह।।तेरह-तेरह।। पाषाणः पाहाणो पासाणो।।
'दश-मुखः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दह-मुहो' और 'दसमुहा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६२ से विकल्प से 'श' का 'ह' और द्वितीय रूप में १-२६० से 'श' का 'स'; १-१८७ से दोनों रूपों में 'ख' का 'ह' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की दोनों रूपो में प्राप्ति होकर क्रम से 'दह-मुहा' और 'दस-मुहो' रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'दश-बलः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दह-बला' और 'दस-बलो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६२ से प्रथम रूप में विकल्प से 'श' का 'ह' और द्वितीय रूप में १-२६० से 'श' का 'स' तथा ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त ल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'दह-बलो' एवं 'दस-बलो' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
"दशरथः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दहरहो' और 'दसरहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६२ से विकल्प से 'श' का 'ह' और द्वितीय रूप में १-२६० से 'श' का 'स'; १-१८७ से दोनों रूपों में थ' का 'ह'
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
198 : प्राकृत व्याकरण तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूपों में क्रम से 'दहरहो' और 'दसरहो' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'एआरह' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१९ में की गई है। 'बारह' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१९ में की गई है। 'तेरह' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६५ में की गई है।
'पाषाणः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पाहाणो' और 'पासाणो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६२ से विकल्प से 'श' का 'ह' और द्वितीय रूप में १-२६० से 'श' का 'स' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से 'पाहाणो' एवं 'पासाणो' रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२६२।।
दिवसे सः ।।१-२६३।। दिवसे सस्य हो वा भवति ।। दिवहो । दिवसो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'दिवस' में रहे हुए 'स' वर्ण के स्थान पर विकल्प से 'ह' होता है। जैसे:- दिवसः दिवहो अथवा दिवसो।।
"दिवसः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दिवहो' और 'दिवसो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६३ से 'स' का विकल्प से 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से 'दिवहो' और 'दिवसो' रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२६३।।
हो घोनुस्वारात् ॥१-२६४॥ अनुस्वारात् परस्य हस्य घो वा भवति ।। सिंघो । सीहो ।। संघारो । संहारो । क्वचिद-ननुस्वारादपि । दाहः । दाघो।।
अर्थः- यदि किसी शब्द में अनुस्वार के पश्चात् 'ह' रहा हुआ हो तो उस 'ह' का विकल्प से 'घ' होता है। जैसे:सिंह: सिंघा अथवा सीहा।। संहा:-संघारा अथवा संहारा।। इत्यादि।। किसी किसी शब्द में ऐसा भी देखा जाता है कि 'ह' वर्ण के पूर्व में अनुस्वार नहीं है; तो भी उस 'ह' वर्ण का 'घ' हो जाता है। जैसे:- दाहः-दाघो।। इत्यादि।। सिंघो
और सीहा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। __ 'संहारः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'संघारा' और 'संहारा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६४ से विकल्प से 'ह' का 'घ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से 'संघारा' और 'संहारो' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'दाहः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दाघो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६४ की वृत्ति से 'ह' का 'घ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दाघो' रूप की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२६०।।
षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपर्णेष्वादेश्छः ॥१-२६५।। एषु आदेर्वर्णस्य छो भवति ।। छट्ठो । छट्ठी । छप्पओ । छम्मुहो । छमी । छावो। छुहा । छत्तिवण्णो॥ __ अर्थः- षट्, शमी, शाव, सुधा और सप्तवर्ण आदि शब्दों में रहे हुए आदि अक्षर का अर्थात् सर्वप्रथम अक्षर का 'छ' होता है। जैसे:- षष्ठः छट्ठो। षष्ठी-छट्ठी।। षट्पदः छप्पआ। षण्मुखः छम्मुहा। शमी-छमी। शावः छावो। सुधा-छुहा और सप्तपर्णः छत्तिवण्णा इत्यादि।।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 199
'षष्ठः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छटा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष' का 'छ'; २-७७ से द्वितीय 'ए' का लोप; २-८९ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'षष्ठी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष' का 'छ'; २-७७ से द्वितीय 'ष' का लोप; २-८९ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति होकर 'छट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'षट्पदः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छप्पओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष'
का 'छ'; २-७७ से 'ट्' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छप्पओ' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'षण्मुखः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छम्मुहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्वप्रथम वर्ण 'ष' का 'छ'; १-२५ से 'ण' को पूर्व व्यञ्जन पर अनुस्वार की प्राप्ति एवं १-३० से प्राप्त अनुस्वार को परवर्ती 'म' के कारण से 'म्' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छम्मुहो' रूप की सिद्धि हो जाती है। __ 'समी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छमी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'श' का 'छ' होकर 'छमी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शावः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छावो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'श' का 'छ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छावो' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'छुहा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई है। 'छत्तिवण्णो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४९ में की गई। ।।१-२६५।।
शिरायां वा ॥१-२६६॥ शिरा शब्दे आदेश्छो वा भवति ।। छिरा सिरा।।
अर्थः- संस्कृत शब्द शिरा में रहे हुए आदि अक्षर 'श' का विकल्प से 'छ' होता है। जैसेः-शिराः छिरा अथवा सिरा।।
"शिरा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छिरा' और 'सिरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६६ से 'श' का विकल्प से 'छ' और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' होकर क्रम से 'छिरा' और 'सिरा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।।१-२६६।।
लुग भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य न वा ।। १-२६७।। एषु सस्वरजकारस्य लुग् वा भवति ।। भाणं भायणं ।। दणु-वहो । दणुअ-वहो। रा-उलं राय-उलं ।।
अर्थः- 'भाजन, दनुज और राजकुल' में रहे हुए 'स्वर सहित जकार का विकल्प से लोप होता है। जैसे:- भाजनम् भाणं अथवा भायणं।। दनुज-वधः दणु-वहो अथवा दणुअ-वहो और राजकुलम्-रा-उलं अथवा राय-उलं।। इन उदाहरणों के रूपों में से प्रथम रूप में स्वर सहित 'ज' व्यञ्जन का लोप हो गया है।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
200 : प्राकृत व्याकरण
__ 'भाजनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भाणं और 'भायणं होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६७ से 'ज' का विकल्प से लोप; १-२२८ से 'न् का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय का 'म्' और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'भाणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'भायण' भी सिद्ध हो जाता है। __ 'दनुज-वधः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दणु-वहा' और 'दणुअ-वहा' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-२६७ से विकल्प से 'ऊ' का लोप; १-१८७ से 'ध' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दणु-वहो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-१७७ से 'ज्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'दणुअ-वहो' भी सिद्ध हो जाता है।
'राजकुलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'रा-उलं' और 'राय-उलं होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६७ से विकल्प से 'ज' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'रा-उलं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'राय-उलं' भी सिद्ध हो जाता है। ।।१-२६७।।
व्याकरण-प्राकारागते कगोः ॥१-२६८।। एषु को गश्च सस्वरस्य लुग् वा भवति।। वारणं वायरणं। पारो पायारो ।। आओ आगओ ॥
अर्थः- 'व्याकरण और 'प्रकार' में रहे हुए स्वर रहित 'क' का अर्थात् सम्पूर्ण 'क' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है। जैसे :- व्याकरणम्-वारणं अथवा वायरणं और प्राकारः-पारो अथवा पायारा।। इसी प्रकार से 'आगत' में रहे हुए स्वर सहित 'ग' का अर्थात् सम्पूर्ण 'ग' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है। जैसे:- आगतः आओ अथवा आगओ।। __ 'व्याकरणम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वारणं' और 'वायरणं' होता है। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-२६८ से स्वर सहित 'क' का अर्थात् संपूर्ण 'क' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'वारण सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'वायरणं' भी सिद्ध हो जाता है।
'प्राकारः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकत रूप 'पारो' और 'पायारो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२६८ से स्वर सहित 'का' का अर्थात् संपूर्ण 'का' का विकल्प से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पारा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'आ' को 'या की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'पायारो' भी सिद्ध हो जाता है।
'आगतः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'आओ' और 'आगओ' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या १-२६८ से 'ग' का विकल्प से लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त
पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'आओ' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप - 'आगआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है।। १-२६८।।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 201
किसलय-कालायस-हृदये यः ।।१-२६९।। एषु सस्वरयकारस्य लुग् वा भवति । किसलं किसलयं ।। कालासं कालायसं ।। महण्णव-समासहिआ। जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति ।। निसमणुप्पिअ हिअस्स हिअयं ।।
अर्थः- 'किसलय'; 'कालायस'; और 'हृदय' में स्थिर स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है जैसे:- किसलयम्-किसलं अथवा किसलय।। कालायसम्=कालासं अथवा कालायसं और हृदयम् हिअं अथवा हिअयं ।। इत्यादि।। ग्रंथकार ने वृत्ति में हृदय रूप को समझाने के लिये काव्यात्मक उदाहरण दिया है। जो कि संस्कृत रूपान्तर के साथ इस प्रकार है :
(१) महार्णवसमाः सहृदयाः महण्णव-समासहिआ।। (२) यदा ते सहृदयैः गृहन्ते-जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति।। (३) निशमनार्पित हृदयस्य हृदयम्-निसमणुप्पिअ-हिअस्स हिअयं।।
"किसलयम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'किसलं' और 'किसलय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६९ में स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'किसलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६९ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के समान ही शेष साधनिका से द्वितीय रूप 'किसलयं भी सिद्ध हो जाता है। ___'कालायसम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कालासं' और 'कालायस' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६९ में स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार हाकर प्रथम रूप 'कालासं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६९ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के समान ही शेष साधनिका से द्वितीय रूप 'कालायसं भी सिद्ध हो जाता है।
'महार्णव-समाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महण्णव-समा' होता है। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त होकर लुप्त हुए 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'महण्णव-समा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सहृदयाः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'सहिआ होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' का 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२६९ से स्वर सहित 'य' का विकल्प से लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस् प्रत्यय का लोप और ३-२ से प्राप्त होकर लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ', को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सहिआ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'यदा' संस्कृत अव्यव है। इसका प्राकृत रूप 'जाला' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; ३-६५ से कालवाचक संस्कृत प्रत्यय 'दा' के स्थान पर 'आला' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जाला रूप सिद्ध हो जाता है।
'ते' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'ते' ही होता है। यह रूप मूल सर्वनाम 'तद्' से बनता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' आदेश की प्राप्ति होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सहदयैः' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सहिअएहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१७७ से ही 'य' का भी लोप; ३-१५ से लुप्त हुए 'य' में शेष बचे हुए 'अ' को (अपने आगे तृतीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय होने से) 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से संस्कृत भाषा के तृतीया विभक्ति
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
202 : प्राकृत व्याकरण
के बहुवचन के प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'ऐस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सहिअएहिं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गृह्यन्ते' कर्मणि वाच्य क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घेप्पन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४ - २५६ से 'ग्रह' धातु के स्थान पर 'घेप्प' का आदेश; और इसी सूत्र की वृत्ति से संस्कृत भाषा में कर्मणि वाच्यार्थ बोधक 'य' प्रत्यय का लोप; ४-२३९ से 'घेप्प' धातु में स्थित हलन्त द्वितीय 'प्' को 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घेप्पन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निशमनार्पित-हृदयस्य' संस्कृत समासात्मक षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निसमणुप्पिअहिअस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-६३ से 'ना' वर्ण में संधि के कारण से स्थ अर्पित के आदि स्वर 'अ' को 'ओ' की प्राप्ति एवं १-८४ प्राप्त इस 'ओ' स्वर को अपने हस्व स्वरूप 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त' का लोप; १ - १२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से ‘द्' का लोप; १ - २६९ से स्वर सहित संपूर्ण 'य' का लोप और ३- १० से संस्कृत में षष्ठी विभक्ति बोधक 'स्य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निसमणुप्पिअ-हिअस्स' रूप की सिद्धि हो जाती है। 'हिअयं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। । १ - २६९ ।।
दुर्गादेव्युदुम्बर- पादपतन - पाद पीठन्तर्दः ।। १ - २७० ।।
एषु सस्वरस्य दकारस्य अन्तर्मध्ये वर्तमानस्य लुग् वा भवति ।। दुग्गा-वी । दुग्गा एवी उम्बरो उउम्बरो ।। पा-वडणं पाय-वडणं । पा- वीढं पाय - वीढं । अन्तरिति किम् । दुर्गा देव्यामादौ मा भूत् ।
अर्थः- दुर्गा देवी, उदुम्बर, पाद पतन और पाद पीठ के अन्तर्मध्य भाग में रहे हुए स्वर सहित 'द' का अर्थात् पूर्ण व्यञ्जन 'द' का विकल्प से लोप होता है। 'अन्तर्मध्य-भाग' का तात्पर्य यह है कि विकल्प से लोप होने वाला 'द' व्यञ्जन न तो आदि स्थान पर होना चाहिये और न अन्त स्थान पर ही; किन्तु शब्द के आन्तरिक भाग में अथवा मध्य भाग में होना चाहिये। जैसे :- दुर्गा देवी - दुग्गा-वी अथवा दुग्गा - एवी ।। उदुम्बरः- उम्बरा अथवा उउम्बरा ।। पाद-पदनम्-पा वडण अथवा पाय वडणं और पाद् - पीठम् - पा- वीढं अथवा पाय वीढ ।।
प्रश्नः- ‘अन्तर-मध्य-भाग' में ही होना चाहिये तभी स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप होता है। ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः- क्योंकि यदि ‘द' वर्ण शब्द के आदि में अथवा अन्त में स्थित होगा तो उस 'द' का लोप नहीं होगा । इसीलिये ‘अन्तर्मध्य' भाग का उल्लेख किया गया है। जैसे :- दुर्गा देवी में आदि में 'द' वर्तमान है; इसलिये इस आदि स्थान पर स्थित 'द्' का लोप नहीं होता है। जैसे:- दुर्गा देवी = दुग्गा - वी ।। इत्यादि ।।
'दुर्गा देवी' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुग्गा-वी' और 'दुग्गा - एवी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से ‘र्′ का लोप; २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; और १ - २७० से अन्तर्मध्यवर्ती स्वर सहित 'दे' का अर्थात् सम्पूर्ण 'दे' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर प्रथम रूप 'दुग्गा - वी' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप होकर एवं शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'दुग्गा - एवी' भी सिद्ध हो जाता है।
'उदुम्बरः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उम्बरो' अथवा 'उउम्बरा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२७० से अन्तर्मध्य-वर्ती स्वर सहित 'दु' का अर्थात् संपूर्ण 'दु' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप; तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'उम्बरो' और 'उउम्बरो' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'पाद-पतनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पा-वडणं' और 'पाय -वडणं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २७० से अन्तर्मध्यवर्त्ती स्वर सहित ' 'का अर्थात् संपूर्ण 'द' व्यञ्जन का विकल्प से लोप और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'द' का लोप एवं १ - १८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ - २३१
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 203
से दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'व'; ४-२१९ से दोनों रूपों में स्थित 'त' का 'ड'; १-२२८ से दोनों रूपों में 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पा-वडणं' और 'पाय-वडणं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'पाद-पीठम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पा-वीढं' और 'पाय-वीढं होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२७० से अन्तर्मध्यवर्ती स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप; द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२३१ से दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'व'; १-१९९ से दोनों रूपों में 'ठ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की दोनों रूपों में प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पा-वीढं और 'पाय-वीढं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।।१-२७०।।
यावत्तावज्जीविता वर्तमानावट-प्रावरक-देव कुलैव मेवे वः।। १-२७१।।
यावदादिषु सस्वर वकारस्यान्तर्वर्तमानस्य लुग् वा भवति।। जा जाव । ता ताव । जीअंजीविअं। अत्तमाणो आवत्तमाणो। अडो अवडो । पारओ पावारओ । दे-उलं देव उलं एमेव एवमेव । अन्तरित्येव । एवमेवेन्त्यस्य न भवति ॥ __ अर्थ:- यावत्, तावत्, जीवित, आवर्तमान, अवट, प्रावरक, देवकुल और एवमेव शब्दों के मध्य भाग में (अन्तर भाग में) स्थित 'स्वर सहित-व' का अर्थात् संपूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है। जैसे:- यावत-जा अथवा जाव।। तावत्= ता अथवा ताव।। जीवितम्=जीअं अथवा जीवि। आवर्तमानः अत्तमाणो अथवा आवत्तमाणो।। अवट: अडो अथवा अवडो।। प्रावारक:=पारओ अथवा पावारओ।। देवकुलम् = दे-उलं अथवा देव उलं और एवमेव-एमेव अथवा एवमेव।।
प्रश्न-'अन्तर्-मध्य-भागी' 'व' का ही लोप होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि 'अन्तर्-मध्य-भागी' नहीं होकर अन्त्य स्थान पर स्थित होगा तो उस 'व' का लोप नहीं होगा। जैसे:एवमेव में दो वकार' हैं; तो इनमें से मध्यवर्ती 'वकार' का ही विकल्प से लोप होगा; न कि अन्त्य 'वकार' का। ऐसा ही अन्य शब्दों के सम्बन्ध में जान लेना।।
'यावत्' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत में 'जा' और 'जाव' रूप होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-२७१ से अन्तर्वर्ती 'व' का विकल्प से लोप; और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर क्रम से 'जा' और 'जाव' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
"तावत्' संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत में 'ता' और 'ताव' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वी 'व' का विकल्प से लोप और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर क्रम से 'ता' और 'ताव' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'जीवितम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जी' और 'जीविअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती स्वर सहित 'वि' का अर्थात् संपूर्ण 'वि' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; और १-१७७ से दोनों रूपों में 'त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'जी' और 'जीविअं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ आवर्तमानः संस्कृत वर्तमान कृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अत्तमाणो' और 'आवत्तमाणो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से आदि दीर्घ स्वर 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का विकल्प से लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अत्तमाणो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र संख्या १-२७१ का अभाव जानना और शेष साध निका प्रथम रूप के समान होकर द्वितीय रूप 'आवत्तमाणा' भी सिद्ध हो जाता है।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
204 : प्राकृत व्याकरण
'अवट: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अडा' और 'अवडो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का अर्थात् संपूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; १-१९५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के
में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'अडा' और 'अवडो' दोनों की सिद्धि हो जाती है।
'प्रावारकः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'पारओ' और 'पावारओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'वा' का विकल्प से लोप; १-१७७ से दोनों रूपों में 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'पारओ' और 'पावारओ' रूपों की सिद्धि हो जाती है। _ 'देव-कुलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दे-उल' और 'देव-उलं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का अर्थात् सम्पूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप; १-१७७ से 'क' का दोनों रूपों में लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'दे-उल' और 'देव-उलं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
"एवमेव' संस्कृत अव्यव है। इसके प्राकृत रूप 'एमेव' और 'एवमेव' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वर्ती (प्रथम) सस्वर 'व' का अर्थात् सम्पूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर क्रम से 'एमेव' और 'एवमेव' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।। १-२७१।।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र-विरचितायां सिद्ध हेम-चन्द्राभिधान
स्वोपज्ञ शब्दानुशासन वृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः।। इस प्रकार आचार्य श्री हेमचन्द्र महाराज द्वारा रचित 'सिद्ध हेमचन्द्र नाम वाली और स्व-कृत टीका वाली शब्दानुशासन रूप व्याकरण के आठवें अध्याय रूप प्राकृत-व्याकरण का प्रथम पाद (प्रथम चरण) पूर्ण हुआ।।
पादान्त मंगलाचरण यद्दोर्मण्डल कुण्डली कृत धनुर्दण्डेन सिद्धाधिप! क्रीतं वैरिकुलात् त्वया किल दलत् कुन्दावदातं यशः।। भ्रान्त्वा त्रीणि जगन्ति खेद-विवशं तन्मालवीनां व्यधा
दापाण्डो स्तनमण्डले च धवले गण्डस्थले च स्थितिम्।। अर्थः- हे सिद्धराज! आपने अपने दोनों भुज-दण्डों द्वारा गोलाकार बनाये हुए धनुष की सहायता से खिले हुए मोगरे के फूल के समान सुन्दर एवं निर्मल यश को शत्रुओं से (उनको हरा कर) खरीदा है-(एकत्र किया है) उस यश ने तीनों जगत में परिभ्रमण करके अन्त में थकावट के कारण से विवश होता हआ मालव देश के राजाओं की पत्नियों के अंग राग नहीं लगाने के कारण से) फीके पड़े हुए स्तन-मण्डल पर एवं सफेद पड़े हुए गालों पर विश्रांति ग्रहण की है। आचार्य हेमचन्द्र ने मंगलाचरण के साथ महान् प्रतापी सिद्धराज की विजय-स्तुति भी श्रृंगार-युक्त-ढंग से प्रस्तुत कर दी है। यह मंगलाचरण प्रशस्ति-रूप है; इसमें यह ऐतिहासिक तत्त्व बतला दिया है कि सिद्धराज ने मालवे पर चढ़ाई की थी; वहां के नरेशों को बुरी तरह से पराजित किया था; एवं इस कारण से राज-रानियों ने श्रृंगार करना और अंग राग लगाना छोड़ दिया था; जिससे उनका शरीर एवं उनके अंगोपांग फीके फीके प्रतीत होते थे तथा राज्य भ्रष्ट हो जाने के कारण से दुःखी होने से उनके मुख-मण्डल भी सफेद पड़ गये थे; यह फीकापन और सफेदी महाराज सिद्धराज के उस यश की मानों प्रति छाया ही थी; जो कि विश्व के तीनों लोक में फैल गया था। काव्य में लालित्य और वक्रोक्ति एवं उक्ति-वैचित्र्य-अलंकार का कितना सुन्दर सामंजस्य है? ___ 'मूल सूत्र और वृत्ति' पर लिखित प्रथम पाद संबंधी 'प्रियोदय चन्द्रिका' नामक हिन्दी व्याख्या एवं शब्द-साधनिका भी समाप्त।।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय- पाद
संयुक्तस्य ।। २-१ ॥
अधिकारोऽयं ज्यायामीत् (२ - ११५) इति यावत् । यदित ऊर्ध्वम् अनुक्रमिष्यामस्तत् संयुक्तस्येति वेदितव्यम्।। अर्थः- इस पाद में संयुक्त वर्णों के विकार, लोप, आगम और आदेश संबंधी नियमों का वर्णन किया जायेगा; अतः ग्रंथकार ने ‘संयुक्तस्य' अर्थात् 'संयुक्त वर्ण का' ऐसा सूत्र निर्माण किया है । वृत्ति में कहा गया है कि यह सूत्र अधिकार वाचक है; अर्थात् इसके पश्चात् बनाये जाने वाले सभी सूत्रों से इसका संबंध समझा जायेगा; तद्नुसार इसका अधिकार क्षेत्र सूत्र संख्या २- ११५ अर्थात् 'ज्यायामीत्' सूत्र संख्या २ - ११५ तक जो भी वर्णन - उल्लेख होगा; वह सब 'संयुक्त वर्ण' के संबंध में ही है, चाहे इन सूत्रों में 'संयुक्त' ऐसा उल्लेख हो अथवा न भी हो; तो भी 'संयुक्त' का उल्लेख समझा जाय एवं
माना जाय ॥२- १॥
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 205
शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण - मृदुत्वे को वा ।।
२-२।।
एषु संयुक्तस्य को वा भवति । सक्को सत्तो । मुक्को मुत्तो । डक्को दट्ठो | लुक्को लुग्गो । माउक्कं माउत्तणं ।। अर्थः- शक्त, मुक्त, दष्ट, रुग्ण और मृदुत्व शब्दों में रहे हुए संपूर्ण संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर विकल्प से 'क' होता है। जैसे:- शक्त=सक्को अथवा सत्तो; मुक्तः = मुक्को अथवा मुत्तो; दष्टः- डक्का अथवा दट्ठो; रुग्णः - लुक्को अथवा लुग्गो; और मृदुत्वम् = माउक्कं अथवा माउत्तणं ।
'शक्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'सक्को' और 'सत्तो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२ से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'क' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'क्क' ; द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २- ७७ से 'क्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'सक्कों' और 'सत्तो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'मुक्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'मुक्को' और 'मुत्तो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२ से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'क' ; २-८९ से प्राप्त 'क्' का द्वित्व 'क्क' ; द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ ‘क्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'मुक्का' और 'मुत्तो' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'दष्टः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'डक्को' और 'दट्ठो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १- २१५ से 'द' का 'ड'; २-२ से 'ष्ट' के स्थान पर विकल्प से 'क' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'क्क' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'डक्को' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'दट्ठा' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २१७ में की गई है।
'रुग्णः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्रारूप रूप 'लुक्को' और 'लुग्गो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'लुक्को' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २५४ में की गई है। द्वितीय रूप 'लुग्गो' में सूत्र संख्या १ - २५४ से 'र' का 'ल'; ४-२५८ से 'ण' प्रत्यय की विकल्प से प्राप्ति; तदनुसार यहाँ पर 'ण' का अभाव, २-८९ से शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लुग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'माउक्क' और 'माउत्तणं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२७ में की गई है ।। २-२ ।।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
206 : प्राकृत व्याकरण
क्षः खः क्वचितु छ-झौ ।। २-३ ।। क्षस्य खो भवति। खओ । लक्खणं ।। क्वचितु छझावपि खीणं । छीणं । झीणं। झिज्जइ ।।
अर्थः-'क्ष' वर्ण का 'ख' होता है। जैसे:-क्षयः-खओ।। लक्षणम् लक्खणं।। किसी किसी शब्द में 'क्ष' का 'छ' अथवा 'झ' भी हो जाता है। जैसेः- क्षीणम् खीणं अथवा छीणं अथवा झीणं।। क्षीयते झिज्जइ।। ___ 'क्षयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'ख'; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खओ' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'लक्षणम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लक्खण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व 'ख्ख; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'लक्खणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षीणम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'खीणं', 'छीणं' और 'झीण' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-३ से'क्ष' के स्थान पर विकल्प से 'ख' की अथवा 'छ' की अथवा 'झ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'खीणं', 'छीण' और 'झीणं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'क्षीयते' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप झिज्जइ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'झ'; ३-१६० से संस्कृत भाव कर्मणि प्रयोग में प्राप्त 'ईय' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'झिज्जइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।।२-३।।
क-स्कयो म्नि ।। २-४ ।। अनयोर्नाम्नि संज्ञायां खो भवति ।। ष्क । पोक्खरं । पोखरिणी । निक्खं ।। स्क। खन्धो । खन्धावारो । अवक्खन्दो । नाम्नीति किम् । दुक्करं । निक्कम्पं । निक्कओ। नमोक्कारो । सक्कयं । सक्कारो । तक्करो ।।
अर्थः- यदि किसी नामवाचक अर्थात् संज्ञा वाचक संस्कृत शब्दों में 'ष्क' अथवा 'स्क' रहा हुआ हो तो उस 'क' अथवा 'स्क' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'ख' होता है। जैसे 'क' के उदाहरण इस प्रकार है :- पुष्कर-पोक्खरं; पुष्करिणी-पोक्खरिणी; निष्कम् निक्खं इत्यादि।। 'स्क' संबंधी उदाहरण इस प्रकार है:- स्कन्ध खन्धो; स्कन्धावारः खन्धावारो।। अवस्कन्दः अवक्खन्दो।। इत्यादि।।
प्रश्नः- नामवाचक अथवा संज्ञा वाचक हो, तभी उसमें स्थित 'ष्क' अथवा 'स्क' का 'ख' होता है ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- यदि 'ष्क' अथवा 'स्क' वाला शब्द नामवाचक एवं संज्ञा वाचक नहीं होकर विशेषण आदि रूप वाला होगा तो उस शब्द में स्थित 'क' के अथवा 'स्क' के स्थान पर 'क' होता है। अर्थात् 'ख' नहीं होगा। जैसे दुष्करम्-दुक्कर; निष्कम्पम् निक्कम्प; निष्क्रयः-निक्कओ; नमस्कारः नमोक्कारो; संस्कृतम्=सक्कय; सत्कारः-सक्कारो और तस्करः तक्करा।।
पोक्खरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११६ में की गई है। 'पुष्करिणी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पोक्खरिणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से 'उ' को 'ओ'
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 207 की प्राप्ति; २-४ से 'ष्क' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति, और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्' होकर 'पोक्खरिणी' रूप सिद्ध हो जाता है। __ "निष्कम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निक्खं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४ से 'ष्क' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निक्खं रूप सिद्ध हो जाता है।
स्कन्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खन्धो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४ से 'स्क' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खन्धो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्कन्धावारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खन्धावारो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४ से 'स्क' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खन्धावारो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'अवस्कन्दः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवक्खन्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-४ से 'स्क' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अवक्खन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है। __दष्करम' संस्कत विशेषण रूप है। इसका प्राकत रूप 'दुक्कर होता है। इसमें सत्र संख्या २-७७ से 'ष' का लोप: २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'कक' की प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'दुक्कर' रूप सिद्ध हो जाता है।
"निष्कम्पम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निक्कम्प' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निक्कम्प' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'निष्क्रयः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निक्कआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-७९ से शेष 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निक्कआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'नमोक्कारो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६२ में की गई है। 'सक्कयं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२८ में की गई है। सक्कारो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२८ में की गई है। 'तस्करः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तक्करो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तक्करों रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-४ ।।
शुष्क-स्कन्दे वा ।। २-५ ।। अनयोः ष्क स्क-योः खो वा भवति।। सुक्खं सुक्कं । खन्दो कन्दो।। __ अर्थः- 'शुष्क' और 'स्कन्द' में रहे हुए 'क' के स्थान पर एवं स्क' के स्थान पर विकल्प से 'ख' होता है। जैसे:शुष्कम् सुक्खं अथवा सुक्कं और स्कन्दः खन्दो अथवा कन्दो।।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
208 : प्राकृत व्याकरण
'शुष्कम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'सुक्खं' और 'सुक्क होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-५ से 'क' के स्थान पर विकल्प से 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व 'ख्ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क्'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सुक्खं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-७७ से'' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सुक्क' भी सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्कन्दः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'खन्दो' और 'कन्दो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५ से 'स्क' के स्थान पर विकल्प से 'ख' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'खन्दा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'कन्दो' में सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'कन्दो' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-५।।
क्ष्वेटकादौ ।। २-६ ।। क्ष्वेटकादिषु संयुक्तस्य खो भवति ।। खेडओ ॥ श्वेटक-शब्दो विष-पर्यायः । क्ष्वोटकः। खोडओ ।। स्फोटकः। खोडओ । स्फेटकः । खेडओ ॥ स्फेटिकः । खेडिओ ।।
अर्थः- विष-अर्थ वाचक श्वेटक शब्द में एवं क्ष्वोटक, स्फोटक, स्फेटक और स्फेटिक शब्दों में आदि स्थान पर रहे हुए संयुक्त अक्षरों का अर्थात् 'क्ष्व'; तथा 'स्फ' का 'ख' होता है। जैसे:- श्वेटकः-खेडओ; क्ष्वोटकः-खोडओ; स्फोटकः खोडओ; स्फेटकः खेडओ और स्फटिकः खेडिओ।।
'क्ष्वेटकः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'खेडओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६ से 'क्ष्व' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति: १-१९५ से 'ट' का 'ड':१-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खेडओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्ष्वोटकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खोडओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६ से 'क्ष्व् के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; १-१९५ से 'ट' का 'ड'; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खोडओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्फोटकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खोडओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६ से 'स्फ्' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; १-१९५ से 'ट' का 'ड'; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खोडआ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'स्फेटकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खेडओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६ से 'स्फ्' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति: १-१९५ से 'ट' का 'ड':१-१७७ से'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खेडआ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ "स्फेटिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खेडिओ' होता है। इसमें 'स्फेटकः' के समान ही साधनिका-सूत्रों की प्राप्ति होकर 'खेडिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-६ ॥
स्थाणावहरे ।। २-७ ।। स्थाणो संयुक्तस्य खो भवति हरश्चेद् वाच्यो न भवति ।। खाणू ।। अहर इति किम्। थाणुओ रेहा ॥
अर्थः- स्थाणु शब्द के अनेक अर्थ होते हैं:- ठूठ, वृक्ष,, खम्भा, पर्वत और महादेव आदि जिस समय में स्थाणु शब्द का तात्पर्य 'महादेव' नहीं होकर अन्य अर्थ वाचक हो; तो उस समय में प्राकृत रूपान्तर में आदि संयुक्त अक्षर 'स्थ्' का 'ख' होता है।
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 209
प्रश्नः- 'महादेव-अर्थ वाचक 'स्थाणु शब्द हो तो उस समय में स्थाणु' शब्द में स्थित संयुक्त 'स्थ' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ? अर्थात् मूल-सूत्र में अहर याने महादेव-वाचक नहीं हो तो;-ऐसा क्यों उल्लेख किया गया है ?
उत्तर:- यदि 'स्थाणु' शब्द का अर्थ महादेव होगा; तो उस समय में स्थाणु' का प्राकृत रूपान्तर 'थाणु' ही होगा; न कि 'खाणु'। ऐसा परम्परा-सिद्ध रूप निश्चित है; इस बात को बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में अहर' याने 'महादेव-अर्थ में नहीं ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसेः- स्थाणुः= (ठूठा वृक्ष) खाणू।। स्थाणोः रेखा-(महादेवजी का चिन्ह) थाणुणो रेहा।। इस प्रकार 'खाणु' में और 'थाणु' में जो अन्तर है; वह ध्यान में रक्खा जाना चाहिये।।
'स्थाणुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खाणू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से संयुक्त व्यञ्जन ‘स्थ' का 'ख' और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'खाणू रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्थाणोः' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थाणुणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; ३-२३ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'थाणुणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रेखा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रेहा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर 'रेहा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७ ।।
स्तम्भे स्तो वा ।। २-८ ॥ स्तम्भ शब्दे स्तस्य खो वा भवति ।। खम्भो । थम्भो । काष्ठादिमयः ।। __ अर्थः- 'स्तम्भ' शब्द में स्थित 'स्त' का विकल्प से 'ख' होता है। जैसे:- स्तम्भः खम्भो अथवा थम्भो।। स्तम्भ अर्थात् लकड़ी आदि का निर्मित पदार्थ विशेष।७।। __ 'स्तम्भः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'खम्भा' और 'थम्भा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८ से 'स्त' का विकल्प से 'ख' और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-९ से 'स्त' का 'थ' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'खम्भो' और 'थम्भा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।।२-८।।
थ-ठाव स्पन्दे ॥ २-९ ॥ स्पन्दाभाववृत्तौ स्तम्भे स्तस्य थठौ भवतः ।। थम्भो । ठम्भो ।। स्तम्भ्यते । थम्भिज्जइ ठम्भिज्जइ।।
अर्थः- 'स्पन्दाभाव' अर्थात् हलन-चलन क्रिया से रहित-जड़ी भूत अवस्था की स्थिति में स्तम्भ' शब्द प्रयुक्त हुआ हो तो उस समय 'स्तम्भ' शब्द में स्थित 'स्त' का 'थ' भी होता है और 'ठ' भी होता है; यों स्तम्भ के प्राकृत रूपान्तर में दो रूप होते हैं। जैसे:- स्तम्भः थम्भो अथवा ठम्भो।। स्तम्भ्यते (उससे स्तम्भ के समान स्थिर हुआ जाता है)-थम्भिज्जइ अथवा ठम्भिज्जइ।।
थम्भा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८ में की गई है। 'स्तम्भः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ठम्भो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९ से विकल्प से 'स्त' का 'ठ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ठम्भो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्तम्भयते' संस्कृत कर्मणि क्रियापद रूप है। इसके प्राकृत रूप 'थम्भिज्जइ' और 'ठम्भिज्जइ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-९ से 'स्त' का विकल्प से 'थ'; ३-१६० से संस्कृत कर्मणिप्रयोग में प्राप्त 'य' प्रत्यय के स्थान
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
210 : प्राकृत व्याकरण पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'थम्भिज्जइ' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में उसी सूत्र संख्या २-९ से 'स्त' का विकल्प से 'ठ' और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'ठम्भिज्जइ' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-९।।
रक्ते गो वा ।। २-१० ।। रक्त शब्दे संयुक्तस्य गो वा भवति ।। रग्गो रत्तो ।। अर्थः- रक्त शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'ग' होता है। जैसे:- रक्तः रग्गो अथवा रत्तो।।
रक्तः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'रग्गो' और 'रत्ता' होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१० से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'ग' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'रग्गो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'क्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'रत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०।।
शुल्के ङ्गो वा ।। २-११ ।। शुल्क शब्दे संयुक्तस्य ङ्गो वा भवति ।। सुङ्गं सुक्कं ।।
अर्थः- 'शुल्क' शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ल्क' के स्थान पर विकल्प से 'ङ्ग' की प्राप्ति होती है और इससे शुल्क के प्राकृत-रूपान्तर में दो रूप होते हैं जो कि इस प्रकार है:- शुल्कम्-सुंगं और सुक्क।।
"शुल्कम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सुंग' और 'सुक्क' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-११ से 'ल्क' के स्थान पर विकल्प से 'ङ्ग' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सुगं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'सुक्क' में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सुक्क भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-११ ॥
कृति-चत्वरे चः ।। २-१२ ।। अनयोः संयुक्तस्य चो भवति ।। किच्ची । चच्चरं ।।
अर्थः- 'कृत्ति' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और 'चत्वर' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर भी 'च' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कृत्तिः किच्ची और चत्वरम्-चच्चरं।। __ 'कृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'किच्ची' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१२ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च'; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'किच्ची' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'चत्वरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चच्चर होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१२ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'चच्चर' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२।।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 211
त्योऽचैत्ये ।। २-१३ ।। चैत्यवर्जिते त्यस्य चो भवति ॥ सच्चं । पच्चओ ।। अचैत्य इति किम् । चइत्त।।
अर्थः- चैत्य शब्द को छोड़कर यदि अन्य किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' रहा हुआ हो तो उस संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' के स्थान पर 'च' होता है। जैसे:- सत्यम् सच्चं। प्रत्ययः पच्चओ इत्यादि।।
प्रश्न:- 'चैत्य में स्थित 'त्य' के स्थान पर 'च' का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तरः- क्योंकि 'चैत्य' शब्द का प्राकृत रूपान्तर चइत्तं उपलब्ध है- परम्परा से प्रसिद्ध है; अतः चैत्य में स्थित 'त्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- चैत्यम्=चइत्त।
'सत्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सच्चं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्य के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व ‘च्च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सच्चं रूप सिद्ध हो जाता है।
"प्रत्यय' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'पच्चओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-१३ से 'त्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व'च्च' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पच्चओ' रूप सिद्ध हो जाता है। चइत्तं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५१ में की गई है। ।। २-१३ ।।
प्रत्यूषे षश्च हो वा ।। २-१४ ।। प्रत्यूषे त्यस्य चो भवति, तत्संनियोगे च षस्य हो वा भवति ।। पच्चूहो । पच्चूसो॥
अर्थः- 'प्रत्यूष' शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' का 'च' होता है। इस प्रकार 'च' की प्राप्ति होने पर अन्तिम 'ष' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसेः- प्रत्यूषः पच्चूहो अथवा पच्चूसो।।
'प्रत्यूषः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पच्चूहो' और 'पच्चूसो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-१४ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व ‘च्च' की प्राप्ति; २-१४ से 'ष' का प्रथम रूप में विकल्प से 'ह' और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से १-२६० से 'ष' का 'स' एवं ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'पच्चूहा' और 'पच्चूसो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। २-१४ ।।
त्व-थ्व-द्व-ध्वां-च-छ-ज-झाः क्वचित् ।। २-१५ ।। एषां यथासंख्यमेते क्वचित् भवन्ति ।। भुक्त्वा ।। भोच्चा ।। ज्ञात्वा । णच्चा ।। श्रुत्वा ।। सोच्चा ।। पृथ्वी।। पिच्छी।। विद्वान् । विज्जो ।। बुद्ध्वा । बुज्झा ॥
भोच्चा सयलं पिच्छि विज्जं बुज्झा अणण्णय-ग्गामि।
चईऊण तवं काउं सन्ती पत्तो सिवं परमं ।। अर्थः- यदि किसी शब्द में 'त्व' रहा हुआ हो तो कभी-कभी इस संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' होता है, 'थ्व' के स्थान पर 'छ' होता है; 'द्व' के स्थान पर 'ज' होता है और 'ध्व' के स्थान पर 'झ' होता है। मूल सूत्र में 'क्वचित्' . लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य यही होता है कि 'त्व' 'थ्व' 'द्व' और 'ध्व' के स्थान पर क्रम से च, छ, ज और झ की
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
212 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति कभी-कभी हो जाती है। जैसे:- 'त्व' के उदाहरण :- भुक्त्वा भोच्चा।। ज्ञात्वा=णच्चा। श्रुत्वा-सोच्चा।। 'थ्व' का उदाहरणः पृथ्वी-पिच्छी।। 'द्व' का उदाहरणः विद्वान् विज्जो।। 'ध्व' का उदाहरणः- बुद्ध्वा बुज्झा। इत्यादि।। गाथा का हिन्दी अर्थ इस प्रकार है:- दूसरों को नहीं प्राप्त हुई है-ऐसी-(ऋद्धिवाले) हे शांतिनाथ! (आपने) सम्पूर्ण पृथ्वी का (राज्य) भोग करके; (सम्यक्) ज्ञान प्राप्त करके (एवं) तपस्या करने के लिये (राज्य को) छोड़ करके अंत में परम कल्याण रूप (मोक्ष-स्थान) को प्राप्त किया है। (अर्थात् आप सिद्ध स्थान को पधार गये हैं)।।
__ 'भुक्त्वा ' कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भोच्चा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से 'उ' के स्थान पर 'ओ की प्राप्ति; २-७७ से प्राप्त 'क्' का लोप; २-१५ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'च' को दित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर 'भोच्चा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ज्ञात्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णच्चा' होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-८४ से आदि 'आ' को हृस्व 'अ' की प्राप्ति; २-४२ से प्राप्त 'ज्ञ'को 'ण' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर 'णच्चा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रुत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोच्चा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; १-११६ से 'उ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर 'सोच्चा' रूप सिद्ध हो जाता है।
पिच्छी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है।
"विद्वान्' संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विज्जो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' को ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-१५ से 'द्व' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति, २-८९ प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुद्धवा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बुज्झा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द' का लोप; २-१५ से 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को 'झ्झ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' का 'ज्' होकर 'बुज्झा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भोच्चा' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
'सकलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सयलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सयलं रूप सिद्ध हो जाता है।
'पृथ्वीम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिच्छि' होता है। पिच्छि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। विशेष इस रूप में सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्'
का अनुस्वार होकर 'पिच्छिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'विद्याम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-३६ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२४ से 'ध' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत के समान ही 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विज्ज रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुज्झा' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'अनन्यक-गामि' संस्कृत तद्धित संबोधन रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अणण्णय-ग्गामि' होता है। इसमें सूत्र संख्या
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 213 १-२२८ से दोनों 'न' के स्थान पर दो 'ण' की क्रम से प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से द्वितीय 'ण' को द्वित्व ‘ण्ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-९७ से 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त में हस्व इकारान्त की प्राप्ति होकर 'अणण्ण'-ग्गामि रूप सिद्ध हो जाता है।
'त्यक्त्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चइउण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-८६ से 'त्यक् संस्कृत धातु के स्थान पर 'चय्' आदेश की प्राप्ति; ४-२३९ से धात्विक विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ३–१५७ से लोप हुए 'य' में से शेष बचे हुए धात्विक विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर 'त्ण' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-१७७ से 'त्' का लोप होकर 'चइउण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तपः' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तव होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तवं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कर्तुम् संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'काउं' होता है। मूल संस्कृत धातु 'कृ' है। इसमें सूत्र संख्या १–१२६ से 'ऋ' का 'अ'; ४-२१४ से प्राप्त 'अ' को 'आ' की प्राप्ति १-१७७ से संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त में प्राप्त 'तुम' प्रत्यय के 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर काउं रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा ४-२१४ से 'अ' को 'आ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर 'काउं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शान्तिः' संस्कृत प्रथमान्त रूप है इसका प्राकृत रूप 'सन्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'सन्ती' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'प्राप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप;
पर'अ'की प्राप्तिः २-७७ से द्वितीय 'प' का लोप: २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शिवम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिवं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सिवं रूप सिद्ध हो जाता है।
"परमम् संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'परम' होता है इसमें सूत्र संख्या १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर 'परमं रूप सिद्ध हो जाता है। ।।२-१५।।
वृश्चिके श्चेञ्चुर्वा ।। २-१६।। वृश्चिके श्वेः सस्वरस्य स्थाने ञ्चुरादेशो वा भवति। छापवादः ।। विञ्चुओ विंचुओ। पक्षे। विञ्छिओ॥
अर्थः- वृश्चिक शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन सहित और उसमें स्वर रहे हुए के साथ 'श्चि' के स्थान पर अर्थात् संपर्ण"श्चि' के स्थान पर विकल्प से 'ञ्च'का आदेश होता है। सत्र संख्या २-२१ में ऐसा विधान है कि श्व' के स्थान पर 'छ' होता है। जबकि इसमें 'श्चि' के स्थान पर 'ञ्चु' का आदेश बतलाया गया है; अतः इस सूत्र को सूत्र संख्या २-२१ का अपवाद समझना चाहिये।। उदाहरण इस प्रकार है:
वृश्चिकः='विंञ्चुओ' या 'विंचुओ'। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विञ्छिओ' भी होता है।। 'वृश्चिकः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विञ्चुओ', 'विंचुओ और विच्छिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप "विञ्चुओ की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
214 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१६ से 'श्चि' के स्थान पर 'ञ्चु' का आदेश; १-२५ से आदेश रूप से प्राप्त 'ञ्चु' में स्थित हलन्त ''का अनुस्वारः १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विंचुआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप 'विञ्छिओ' में सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-२६ से आदेश रूप से प्राप्त 'छ' के पूर्व में अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से आगम रूप से प्राप्त अनुस्वार को परवर्ती छ' होने के कारण से छ वर्ग के पंचमाक्षर रूप हलन्त 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विञ्छिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
छोऽक्ष्यादौ ॥ २-१७ ॥ अक्ष्यादिषु संयुक्तस्य छो भवति। खस्यापवादः ॥ अच्छिं । उच्छू । लच्छी । कच्छो। छीअं। छीरं । सरिच्छो । वच्छो । मच्छिआ । छेत्तं । छुहा । दच्छो । कुच्छी । वच्छं। छुण्णो । कच्छा । छारो । कुच्छेअयं । छुरो । उच्छा । छयं । सारिच्छं ।। अक्षि । इक्षु । लक्ष्मी । कक्ष । क्षुत । क्षीर । सदृक्ष । वृक्ष । मक्षिका । क्षेत्र । क्षुघ् । दक्षा कुक्षि । वक्षस् । क्षुण्ण । कक्षा । क्षार । कौक्षेयक । क्षुर । उक्षन् । क्षत । सादृक्ष्य।। क्वचित् स्थगित शब्दे पि । छइअं ।। आर्षे । इक्खू । खीरं । सारिक्खमित्साद्यपि दृश्यते॥ ___ अर्थः- इस सूत्र में उल्लिखित अक्षि आदि शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' का 'छ' होता है। सूत्र संख्या २-३ में कहा गया है कि 'क्ष' का 'ख' होता है। किन्तु इस सूत्र में कहा जा रहा है कि संयुक्त 'क्ष' का 'छ' होता है। अतः इस सूत्र को सूत्र संख्या २-३ का अपवाद माना जाय। 'क्ष' के स्थान पर प्राप्त 'छ' सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार हैं:अक्षिम् अच्छिं। इक्षुः उच्छू। लक्ष्मी: लच्छी। कक्षः कच्छो। क्षुतम् छी क्षीरम्-छीरं। सदृशः-सरिच्छो। वृक्षः=वच्छो। मक्षिका मच्छिआ। क्षेत्रम्-छेत्तं। क्षुधा-छुहा। दशः=दच्छो। कुक्षिः कुच्छी। वक्षस् वच्छं। क्षुण्णः-छुण्णो। कक्षा-कच्छा। क्षारः-छारो। कौक्षेयकम्:-कुच्छेअयं। क्षुरः-छुरो। उक्षा उच्छा। क्षतम्-छयं। सादृश्यम्-सारिच्छं।। कभी-कभी 'स्थगित' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। जैसेः= स्थगितम्-छइ। आर्ष प्राकृत में इक्षुः का इक्खु भी पाया जाता है। क्षीरम् का खीरं भी देखा जाता है और सादृक्ष्यम् का सारिक्खम् रूप भी आर्ष प्राकृत में होता है। इस प्रकार के रूपान्तर स्वरूप वाले अन्य शब्द भी आर्ष-प्राकृत में देखे जाते हैं।
अच्छिं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है। उच्छू रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९५ में की गई है।
'लक्ष्मीः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लच्छी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति; और १-११ से अन्त्य विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप होकर 'लच्छी' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कच्छो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
छीअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११२ में की गई है।
'क्षीरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छीर' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छीर रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 215
सरिच्छो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। 'वृक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वच्छो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मक्षिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मच्छिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-८९ प्राप्त; 'छ्' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'मच्छिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षेत्रम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छेत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-७९ से प्राप्त 'त्र' में 'स्थित' 'र' का लोप; २-८९ से 'शेष' 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छेत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
छुहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई है।
'दक्षः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दच्छो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
कुच्छी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।
'वक्षः' वक्षस् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त, पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १–११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वच्छं रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षुण्णः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छुण्णो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छुण्णो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कक्षाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कच्छा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ्' को द्वित्व'छ्छ्' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति होकर 'कच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'क्षारः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'छारो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छारा'रूप सिद्ध हो जाता है।
कुच्छेअयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६१ में की गई है। 'क्षुरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'छुरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छु' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छुरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
216 : प्राकृत व्याकरण
'उक्षाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'उच्छा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ्' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति होकर 'उच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षतम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'छयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सादृक्ष्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सारिच्छं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'द्द' के स्थान पर 'रि' आदेश; २-१७ से'क्ष के स्थान पर 'छ' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छछ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व'छ' को 'च्' की प्राप्ति; २-७८ से 'य्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सारिच्छ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्थगितम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छइअं भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ के स्थान पर 'छ' का आदेश; १-१७७ से 'ग्' का और 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर 'छइअरूप सिद्ध हो जाता है। __ 'इक्षुः' संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'इक्खू रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'इक्खू' रूप सिद्ध हो जाता है। __ क्षीरम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप 'खीरं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'खीरं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सादृक्ष्यम्' संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'सारिक्खं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'द' के स्थान पर 'रि' आदेश की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सारिक्खं' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७।।
क्षमायां को ।। २-१८ ॥ को पृथिव्यां वर्तमाने क्षमा शब्दे संयुक्तस्य छो भवति ।। छमा पृथिवी । लाक्षणिकस्यापि क्ष्मादेशस्य भवति। क्ष्मा । छमा ।। कविति किम् । खमा क्षान्तिः ।। ___ अर्थः- यदि 'क्षमा' शब्द का अर्थ पृथिवी हो तो 'क्षमा' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। मूल-सूत्र में जो 'कौ लिखा हुआ है; उसका अर्थ 'पृथिवी' होता है। उदाहरण इस प्रकार है:- क्षमा-छमा अर्थात् पृथिवी।। पृथिवी में सहनशीलता का गुण होता है। इसी सहनशीलता वाचक गुण को संस्कृत-भाषा में 'क्ष्मा' भी कहते हैं; तदनुसार जैसा गुण जिसमें होता है: उस गण के अनुसार ही उसकी संज्ञा संस्थापित करना 'लाक्षणिक-तात्पर्य कहलाता है। अतः पृथिवी में सहनशीलता का गुण होने से पृथिवी की एक संज्ञा को 'क्ष्मा' भी कहते हैं। जो कि लाक्षणिक आदेश रूप है। इस लाक्षणिक-आदेश रूप शब्द 'क्ष्मा' में रहे हुए हलन्त संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष् के स्थान पर 'छ' होता है। जैसे:-क्ष्मा-छमा।।
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 217
प्रश्नः- मूल-सूत्रकार ने सूत्र में कौ' ऐसा क्यों लिखा है ?
उत्तरः- चूकि 'क्षमा' शब्द के संस्कृत भाषा में दो अर्थ होते हैं; एक तो पृथिवी अर्थ होता है और दूसरा शान्ति अर्थात् सहनशीलता। अतः जिस समय में 'क्षमा' शब्द का अर्थ 'पृथिवी' होता है; तो उस समय में प्राकृत-रूपान्तर में 'क्षमा में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होगी; और जब 'क्षमा' शब्द का अर्थ सहनशीलता याने क्षान्ति होता है; तो उस समय में 'क्षमा' शब्द में रहे हुए 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होगी। इस तात्पर्य-विशेष को बतलाने के लिए ही सूत्रकार ने मूल-सूत्र में 'कौ' शब्द को जोड़ा है-अथवा लिखा है। जैसे:- क्षमा=(क्षान्तिः)-खमा अर्थात् सहनशीलता।।
'क्षमा' (पृथिवी) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छमा' होता है इसमें सूत्र संख्या २-१८ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होकर 'छमा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'क्ष्मा' (पृथिवी) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छमा' होता है इसमें सूत्र संख्या २-१८ से हलन्त और संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-१०१ से प्राप्त हलन्त 'छ्' में 'अ स्वर की प्राप्ति होकर 'छमा रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'क्षमा'-(क्षान्ति) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खमा' होता है इसमें सूत्र संख्या २-३ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होकर 'खमा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८।।
ऋक्षे वा ॥ २-१९।। ऋक्ष शब्दे संयुक्तस्य छो वा भवति ।। रिच्छं । रिक्खं । रिच्छो । रिक्खो । कथं छूढं क्षिप्तं । वृक्ष-क्षिप्तयो रूक्ख-छूढी (२-१२७) इति भविष्यति।। __अर्थः- ऋक्ष शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' का विकल्प से 'छ' होता है। जैसे:- ऋक्षम्=रिच्छं अथवा रिक्ख।। ऋक्षः-रिच्छो अथवा रिक्खो।।
प्रश्न:- 'क्षिप्तम्' विशेषण में रहे हुए स्वर सहित संयुक्त व्यञ्जन 'क्षि' के स्थान पर 'छू' कैसे हो जाता है ? एवं 'क्षिप्तम्' का 'ढ' कैसे बन जाता है ?
उत्तर:- सूत्र संख्या २-१२७ में कहा गया है कि 'वृक्ष के स्थान पर 'रूख' आदेश होता है और 'क्षिप्त' के स्थान पर 'छूढ' आदेश होता है। ऐसा उक्त सूत्र में आगे कहा जायेगा।।
'ऋक्षम् -संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'रिच्छ' और 'रिक्ख' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१४० से 'ऋ' की 'रि' प्रथम रूप में २-१९ से 'क्ष' के स्थान पर विकल्प से 'छ': २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छछ' की प्राप्ति: २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'रिच्छे सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'रिक्खं सिद्ध हो जाता है।
रिच्छो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४० में की गई है।
'ऋक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रिक्खो ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४० से 'ऋ' की 'रि'; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रिक्खो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"क्षिप्तम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छूट होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से संपूर्ण 'क्षिप्त' के स्थान पर 'छूढ' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छूढं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
218 : प्राकृत व्याकरण
'वृक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रुक्खो ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से 'वृक्ष' के स्थान पर 'रूक्ख' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रुक्खो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छूढो रूप की सिद्धि इसी सूत्र से ऊपर कर दी गई है। अन्तर इतना सा है कि ऊपर नपुंसकात्मक विशेषण है और यहाँ पर पुल्लिंगात्मक विशेषण है। अतः सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छूढो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९।।
क्षण उत्सवे ।। २-२० ।। क्षण शब्दे उत्सवाभिधायिनि संयुक्तस्य छो भवति ।। छणो ।। उत्सव इतिकिम् । खणो।
अर्थः- क्षण शब्द का अर्थ जब 'उत्सव' हो तो उस समय में क्षण में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' का 'छ' होता है। जैसे:- क्षणः=(उत्सव)-छणो॥ प्रश्नः- मूल-सूत्र में 'उत्सव' ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- क्षण शब्द के संस्कृत में दो अर्थ होते हैं। उत्सव और काल-वाचक सूक्ष्म समय विशेष। अतः जब 'क्षण' शब्द का अर्थ उत्सव हो तो उस समय में 'क्ष' का 'छ' होता है एवं जब 'क्षण' शब्द का अर्थ सूक्ष्म काल वाचक समय विशेष हो तो उस समय 'क्षण' में रहे हुए 'क्ष' का 'ख' होता है। जैसे:- 'क्षणः (समय विशेष)-खणो।। इस प्रकार की विशेषता बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'उत्सव' शब्द जोड़ा गया है। ___ 'क्षणः' (उत्सव) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२० से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
क्षणः (काल वाचक) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खणो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२० ।।
हस्वात् थ्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले ।। २-२१ ।। हस्वात् परेषां थ्य श्च त्स प्सां छो भवति निश्चले तु न भवति ।। थ्य । पच्छं। पच्छा । मिच्छा ।। श्च । पच्छिम। अच्छेरं । पच्छा ।। त्स । उच्छाहो । मच्छलो । मच्छरो । संवच्छलो । संवच्छरो । चिइच्छइ ।। प्स । लिच्छइ । जुगुच्छइ । अच्छरा। हस्वादिति किम् । ऊसारिओ । अनिश्चल इति किम् । निश्चलो ।। आर्षे तथ्ये चो पि। तच्च।।
अर्थः- यदि किसी शब्द में हस्व स्वर के बाद में 'थ्य'; 'श्च'; 'त्स'; अथवा प्स में से कोई एक आ जाय; तो इनके स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। किन्तु यह नियम 'निश्चल' शब्द में रहे हुए 'श्च' के लिये नहीं है। यह ध्यान में रहे ।। 'थ्य' के उदाहरण इस प्रकार है:- पथ्यम्=पच्छं ।। पथ्या पच्छा।। मिथ्या मिच्छा इत्यादि।। 'श्च' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- पश्चिमम्=पच्छिमं। आश्चर्यम्-अच्छेरं। पश्चात्-पच्छा।। 'त्स' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- उत्साहो-उच्छाहो। मत्सरः मच्छलो अथवा मच्छरो। संवत्सरः संवच्छलो अथवा संवच्छरो।। चिकित्सति-चिइच्छइ।। 'प्स' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- लिप्सत्ते-लिच्छइ।। जुगुप्सति-जुगुच्छइ।। अप्सरा-अच्छरा।। इत्यादि।।
प्रश्नः- 'हस्व स्वर' के पश्चात् ही रहे हुए हों तो 'थ्य', 'श्च' 'त्स' और 'प्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- यदि 'थ्य, श्च, त्स और प्स' दीर्घ स्वर के पश्चात् रहे हुए हों तो इनके स्थान पर 'छ' की प्राप्ति नहीं होती है। अतः 'हृस्व स्वर' का उल्लेख करना पड़ा। जैसे:- उत्सारित-ऊसारिओ। इस उदाहरण में प्राकृत रूप में 'ऊ' दीर्घ स्वर है; अतः इसके परवर्ती 'त्स' का 'छ' नहीं हुआ है। यदि प्राकृत रूप में हस्व होता तो 'त्स' का 'छ' हो जाता।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 219
प्रश्नः- 'निश्चल' शब्द में हस्व स्वर 'इ' के पश्चात् ही 'श्च' रहा हुआ है; तो फिर 'श्च' के स्थान पर प्राप्तव्य ‘छ' का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तरः- परम्परागत प्राकृत साहित्य में निश्चलः' संस्कृत शब्द का प्राकृत रूप 'निश्चलो' ही उपलब्ध है; अतः परम्परागत रूप के प्रतिकूल अन्य रूप कैसे लिखा जाय ? इसीलिये 'निश्चलः' का 'निच्छलो' नहीं होकर 'निश्चलो' ही होता है। तद्नुसार मूल-सूत्र में 'निश्चल' शब्द को पृथक् कर दिया गया है। अर्थात् यह नियम 'निश्चल' में लागू नहीं होता है। अतएव संस्कृत रूप 'निश्चलः' का प्राकृत रूप निश्चलो होता है।
आर्ष-प्राकृत में संस्कृत शब्द 'तथ्य' में रहे हुए 'थ्य' के स्थान पर 'च' होता है। जैसे:- तथ्यम्=तच्च।। "पथ्यम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'थ्य' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पच्छ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पथ्या' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'थ्य' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति होकर पच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मिथ्या संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मिच्छा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'थ्य' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व ' ' को 'च' की प्राप्ति होकर 'मिच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पश्चिमम' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छिम' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छको 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पच्छिम रूप सिद्ध हो जाता है।
अच्छेरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५८ में की गई है।
'पश्चात् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पच्छा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'पच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
उच्छाहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है।
'मत्सरः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मच्छला' और 'मच्छरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-२१ से 'त्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२ से प्रथम रूप की अपेक्षा से 'र' का 'र' ही; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'मच्छलो' एवं 'मच्छरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। __ 'संवत्सरः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'संवच्छला' और 'संवच्छरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-२१ से 'त्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२ से प्रथम रूप की अपेक्षा से 'र' का 'र' ही और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप 'संवच्छलो' और 'संवच्छरो' क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
220 : प्राकृत व्याकरण ___"चिकित्सति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चिइच्छइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; २-२१ से 'त्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'चिइच्छइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
"लिप्सते' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लिच्छई' होता है। इनमें सूत्र संख्या २-२१ से 'प्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लिच्छइ' रूप सिद्ध हो जाता है।। ___ 'जुगुप्सति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जुगुच्छई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ से 'प्स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३–१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जुगुच्छइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अच्छरा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२० में की गई है।
'उत्सारितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ऊसारिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११४ से हस्व'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' का प्राप्ति; २-७७ से प्रथम 'त्' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊसारिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
"निश्चलः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निश्चला' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'श्' का लोप; २-८९ से 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निच्चलो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तथ्यम्' संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'तच्च रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१ की वृत्ति से 'थ्य के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तच्चं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२१ ।।
सामर्थ्योत्सकोत्सवे वा ॥ २-२२।। एषु संयुक्तस्य छो वा भवति।। सामच्छं सामत्थं। उच्छुओ ऊसुओ। उच्छवो ऊसवो।
अर्थः- सामर्थ्य उत्सुक और उत्सव शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर विकल्प से 'छ' होता है। जैसे:सामर्थ्यम्=सामच्छं अथवा सामत्थ।। उत्सुकः-उच्छुओ अथवा ऊसुओ।। उत्सवः-उच्छवो अथवा ऊसवो।। _ 'सामर्थ्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सामच्छ' और 'सामत्थं रूप होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-२२ से संयुक्त व्यञ्जन 'थ्य' के स्थान पर विकल्प से 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व'छ्छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' का 'च'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सामच्छ' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'सामत्थं' में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सामत्थं भी सिद्ध हो जाता है।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 221
'उत्सुकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उच्छुओ' और 'ऊसुओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२२ से वैकल्पिक रूप से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स्' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उच्छुओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'ऊसुओ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है।
'उत्सवः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उच्छवा' और 'ऊसवो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२२ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' ' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'उच्छवा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ऊसवो की सिद्धि सूत्र संख्या १-८४ में की गई है। ।। २-२२।।
स्पृहायाम् ।। २-२३ ॥ स्पृहा शब्दे संयुक्तस्य छो भवति । फस्यापवादः ।। छिहा ।। बहुलाधिकारात् क्वचिदन्यदपि। निप्पिहो।।
अर्थः- स्पृहा शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। आगे सूत्र संख्या २-५३ में यह बतलाया जायेगा कि सर्व-सामान्य रूप से 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है। किन्तु इस सूत्र संख्या २-२३ से यह कहा जाता है कि स्पृहा में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'छ' होता है; अतः इस नियम को उस नियम का अपवाद माना जाय। उदाहरण इस प्रकार है:- स्पृहा छिहा।। सूत्र संख्या २-५३ के अनुसार 'स्पृहा' का प्राकृत रूप 'फिहा' होना चाहिये था; किन्तु इस नियम के अनुसार 'छिहा' हुआ है। अतः सूत्र संख्या २-२३ सूत्र संख्या २-५३ का अपवाद रूप सूत्र है। यह ध्यान में रहे। सूत्र संख्या १-२ के अनुसार बहुलाधिकार से कहीं-कहीं पर 'स्पृहा' का दूसरा रूप भी पाया है। जैसे:- निस्पृहः-निप्पिहा।। सूत्र संख्या २-२२ के अनुसार 'निस्पृहः' का प्राकृत रूप 'निछिहो' नहीं हुआ है। अतः यह रूप-भिन्नता बहुलाधिकार से जानना।।
छिहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है।
"निस्पृहः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्पिहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति, १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निप्पिहा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२३ ।।
द्य-य्य-यों जः ।। २-२४ ।। एषां संयुक्तानां जो भवति ॥ छ । मज्जं । अवज्जं । वेज्जो । जुई । जोओ । य्य । जज्जो सेज्जा ॥र्य । भज्जा। चौर्य-समत्वात् भारिआ । कज्ज । वज्जं पज्जाओ। पज्जत्तं मज्जाया ॥
अर्थः- यदि किसी शब्द में 'द्य' अथवा 'य्य' अथवा 'य' रहा हुआ हो तो इन संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होती है। 'घ' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- मद्यम्-मज्जा अवद्यम्-अवज्जो वेद्यः-वेज्जो, द्युतिः जुई। और द्योतः जोओ।। 'य्य' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- जय्यः जज्जो। शय्या सेज्जा। 'य' के उदाहरणः- भार्या-भज्जा। सूत्र संख्या २-१८७ से भार्या का भारिआ रूप भी होता है। कार्यम्=कज्जी वर्यम् वज्जी पर्यायः पज्जाओ। पर्याप्तम्-पज्जत्तं और मर्यादा मज्जाया।। इत्यादि।
'मद्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज' ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
222 : प्राकृत व्याकरण
'अवद्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'द्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अवज्ज रूप सिद्ध हो जाता है।
वेज्जो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४८ में की गई है। 'द्युतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जुई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'छ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'जुई रूप सिद्ध हो जाता है।
'द्योतः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'छु' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' को प्रत्यय प्राप्ति होकर 'जोओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'जय्यः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जज्जो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व ‘ज्ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
सेज्जा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५७ में की गई है।
'भाया संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'भा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ'को 'अकी प्राप्ति: २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'ज' 'ज्ज' की प्राप्ति होकर 'भज्जा' रूप सिद्ध हो जाता है।।
'भार्या' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत में वैकल्पिक रूप 'भारिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के 'र' में 'इ' की प्राप्तिः और १-१७७ से 'य'का लोप होकर 'भारिआरूप सिद्ध
कज्जं और वज्जं दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'पर्यायः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पज्जाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पज्जाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पर्याप्तम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पज्जत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७७ से द्वितीय हलन्त 'प्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पज्जत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मर्यादा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मज्जाया' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द' का लोप; और १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति होकर 'मज्जाया' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २- २४ ।।
अभिमन्यो ज-जौ वा ।। २-२५।। अभिमन्यो संयुक्तस्य जो जश्च वा भवति ।। अहिमज्जू । अहिमञ्जू । पक्षे अहि मन्नू । अभिग्रहणादिह न भवति । मन्नू ॥
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 223
अर्थः- 'अभिमन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्य के स्थान पर विकल्प से 'ज' और 'ज' की प्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अभिमन्यु संस्कृत शब्द के प्राकृत रूप तीन हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- अभिमन्युः अहिमज्जू अथवा अहिमञ्जू अथवा अहिमन्नू।। मूल-सूत्र में 'अभिमन्यु' लिखा हुआ है; अतः जिस समय में केवल 'मन्यु शब्द होगा; अर्थात् 'अभि' उपसर्ग नहीं होगा; तब 'मन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर सूत्र संख्या २-२५ के अनुसार क्रम से 'ज' अथवा 'ज' की प्राप्ति नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि 'मन्यु' शब्द के साथ में अभि' उपसर्ग होने पर ही संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर 'ज' अथवा 'ञ' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं। जैसे:- मन्युः मन्न। __ 'अभिमन्युः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत में तीन रूप होते हैं:- 'अहिमज्ज', 'अहिमञ्जू' और 'अहिमन्न ।। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अहिमज्ज' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रथम रूप के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अहिमञ्जू' भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप अहिमन्नू की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४३ में की गई है।
'मन्युः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मन्नू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से रहे हए 'न' को द्वित्व'न' की प्राप्तिः और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'मन्नू रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२५।।
साध्वस-ध्य-या-झः ।। २-२६ ॥ साध्वसे संयुक्तस्य घ्य-ह्ययोश्च झो भवति ।। सज्झसं ॥ ध्य । वज्झए । झाणं। उवज्झाओ। सज्झाओ सज्झं विञ्झो। ह्य । सज्झो मज्झं ।। गुज्झं । णज्झइ।। __ अर्थः- 'साध्वस' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- साध्वसम्=सज्झस।। इसी प्रकार जिन शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' अथवा 'ह्य होता है; तो इन संयुक्त व्यंजन 'ध्य' और 'ह्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'व्य' के उदाहरण इस प्रकार हैं:- वध्यते वज्झए। ध्यानम्-झाणं। उपाध्यायः उवज्झाओ। स्वाध्यायः-सज्झाओ। साध्यम्-सज्झं और विंध्यः विझो।। 'ह्य' के उदाहरण इस प्रकार है:- सह्यः सज्झो। मां-मझा गुह्यम्=गुज्झं और नह्यति=णज्झइ इत्यादि।। _ 'साध्वसम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सज्झस होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; १-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' को ज् की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सज्झसं रूप सिद्ध हो जाता है।
'वध्यते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वन्झए' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' को 'ज्' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वज्झए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ध्यानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'झाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
224 : प्राकृत व्याकरण
स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'झाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
उवज्झाओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७३ में की गई है।
"स्वाध्यायः' संस्कृत रूप है! इसका प्राकृत रूप 'सज्झाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १–१७७ से अथवा २-७९ से 'व' का लोप; १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सज्झाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'साध्यम' संस्कृत विशेषण स्प है। इसका प्राकृत रूप 'सज्झं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त ‘झ्' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ‘झ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सज्झं रूप सिद्ध हो जाता है।
'विंध्यः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विझो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; १-३० से अनुस्वार को 'झ' वर्ण आगे होने से 'ज्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विझो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सह्यः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सज्झो' होता है; इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सज्झो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मह्यम्' संस्कृत सर्वनाम अस्मद् का चतुर्थ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप मज्झं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्य के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मज्झं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गुह्यम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गुज्झं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ्' को द्वित्व 'झ्झ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गुज्झं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'नह्यति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप ‘णज्झइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन ‘ह्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णज्झइ' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-२६।।
ध्वजे वा ॥ २-२७।। ध्वज शब्दे संयुक्तस्य झो वा भवति ।। झओ धओ ॥
अर्थः- 'ध्वज' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से 'झ' होता है। जैसे:- ध्वजः-झओ अथवा धओ।।
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 225
'ध्वजः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'झओ' और 'धओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२७ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से 'झ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'ज्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ि के एकवचन में में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'झओ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'धओ' में २-७९ से 'ब्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'धओ' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-२७।।
इन्धौ झा ।। २-२८॥
इन्धौ धातौ संयुक्तस्य झा इत्यादेशो भवति ॥ समिज्झाइ । विज्झाइ ।।
अर्थः- 'इन्ध' धातु में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्ध' के स्थान पर 'झा' का आदेश होता है । जैसे:- समिन्धते - समिज्झाइ।। विन्धते=विज्झाइ।।
'समिन्धते' अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'समिज्झाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२८ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्ध' के स्थान पर 'झा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'झ' को 'ज्' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समिज्झाइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विन्धते' अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विज्झाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२८ से संयुक्त व्यञ्जन ‘न्ध' के स्थान पर 'झा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'झ्' को 'ज्' की प्राप्ति और ३ - १३९ के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विज्झाइ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-२८।।
वृत्त - प्रवृत्त - मृत्तिका - पत्तन - कदर्थिते टः ।। २-२९ ।।
एषु संयुक्तस्य टो भवति ।। वट्टो पयट्टो । मट्टिआ । पट्टणं । कवट्टिओ ॥
अर्थः- वृत्त, प्रवृत्त, मृत्तिका, पत्तन और कदर्थित शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' और 'र्थ' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृत्तः = वट्टो । प्रवृत्तः पयट्टो । मृत्तिका मट्टिआ। पत्तनम्-पट्टणं और कदर्थितः=कवट्टिओ।।
'वृत्तः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रवृत्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पयट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'व्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'व्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति २ - २९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पयट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मृत्तिका' संस्कृत रूप है। इस का प्राकृत रूप 'मट्टिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - २९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट' की प्राप्ति; और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'मट्टिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
226 : प्राकृत व्याकरण
"पत्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पट्टणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२९ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व'ट्ट' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पट्टणं' रूप सिद्ध हो जाता है। कवट्टिओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२२४ में की गई है। ।। २-२९।।
तस्याधृर्तादौ ।। २-३० ।। तस्य टो भवति धूर्तादीन् वर्जयित्वा ।। केवट्टो। वट्टी । जट्टो । पयट्टइ।। वटुलं। राय वट्टय। नट्टई। संवट्टिा अधूर्तादाविति किम्। धुत्तो। कित्ती। वत्ता। आवत्तणं। निवत्तणं। पवत्तणं। संवत्तणं। आवत्तओ। निवत्तओ। निव्वत्तओ। पवत्तओ। संवत्तओ। वत्तिआ। वत्तिओ। कत्तिओ। उक्कत्तिओ। कत्तरी। मुत्ती। मुत्तो। मुहुत्तो।। बहुलाधिकाराद् वट्टा। धूर्त । कीर्ति । वार्ता । आवर्तन। निवर्तन। प्रवर्तन। संवर्तन। आवर्तक। निवर्तक। निर्वर्तक। प्रवर्तक। संवर्तक। वर्तिका। वार्तिक। कार्तिक। उत्कर्तित। कर्तरि। मूर्ति। मूर्त। मुहूर्त इत्यादि।। __ अर्थः- धूर्त आदि कुछ एक शब्दों को छोड़कर यदि अन्य किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'त रहा हुआ हो तो इस संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कैवर्तः केवट्टो। वर्तिः-वट्टी। जतः जट्टो। प्रवर्त्तते-पयट्टइ। वर्तुलम् वटुलं। राज-वर्तकम् राय-वट्टय। नर्तकी-नट्टई। संवर्तित्तम्-संवट्टिी
प्रश्नः- 'धूर्त' आदि शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'त' की उपस्थिति होते हुए भी इस संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर प्राप्त होने योग्य 'ट' का निषेध क्यों किया गया ? अर्थात् 'धूर्त' आदि शब्दों में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तरः- क्योंकि धूर्त आदि अनेक शब्दों में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'र्त' के स्थान पर परम्परा से अन्य विकार-आदेश-आगम-लोप आदि की उपलब्धि पाई जाती है; अतः ऐसे शब्दों की स्थिति इस सूत्र संख्या २-३० से पृथक् ही रक्खी गई है। जैसे:- धूर्तः धुतो। कीर्ति-कित्ती। वार्ता-वत्ता। आवर्तनम् आवत्तणं। निवर्तनम् निवत्तणं। प्रवर्तनम्=पवत्तणं। संवर्तनम् संवत्तणं। आवर्तकः-आवत्तओ। निवर्तकः निवत्तओ। निर्वर्तकः-निव्वत्तओ। प्रवर्तकः पवत्तओ। संवर्तकः-संवत्तओ। वर्तिका-वत्तिआ। वार्तिकः-वत्तिओ। कार्तिकः कत्तिओ। उत्कर्तितः उक्कत्तिओ। कर्तरिः कत्तरी (अथवा कर्तरी:-कत्तरी)। मूर्तिः=मुत्ती। मूर्तः=मुत्तो। और मुहूर्तः=मुहत्तो।। इत्यादि अनेक शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'त' के होने पर भी उनमें सूत्र संख्या २-३० से विधान के अनुसार 'ट' की प्राप्ति नहीं होती है। 'बहुलाधिकार से किसी किसी शब्द में दोनों विधियाँ पाई जाती हैं। जैसे वार्ता का 'वट्टा' और 'वत्ता' दोनों रूप उपलब्ध हैं। यों अन्य शब्दों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये।। _ 'कैवर्तः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'केवट्रो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए'
: २-३० से संयक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'केवट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वट्टी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्र की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हृस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'वट्टी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जर्तः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 227
'प्रवर्तते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पयट्टइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-१७७ से व्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'व' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पयट्टइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'वर्तुलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वटुलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वटुलं' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'राज-वार्तिकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रायवट्टय' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट्' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-८८ से 'ति' के स्थान पर पूर्वानुसार प्राप्त 'ट्टि' में स्थित 'इ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'राय-वट्टयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'नर्तकी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नट्टइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'नट्टई रूप सिद्ध हो जाता है।
'संवर्तितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संवट्टि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संवट्टि रूप सिद्ध हो जाता है।
धुत्तो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'कीति' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कित्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'की' में स्थित दीर्घस्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से '' का लोप २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घस्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'कित्ती' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वार्ता' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वत्ता' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'वा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप २-८९ से लोप हुए 'र' में से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर 'वत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आवर्तनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आवत्तणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आवत्तणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निवर्तनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निवत्तणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
228 : प्राकृत व्याकरण
से'त' को द्वित्व'त्त की प्राप्ति; १-२२८ से'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निवत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'प्रवर्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पवत्तणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'प' में स्थित 'र' का
और 'त' में स्थित 'र' का-दोनों का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पवत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'संवर्तनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संवत्तण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व'त्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'संवत्तण रूप सिद्ध हो जाता है।
'आवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आवत्तओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आवत्तआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निवत्तओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निवत्तओ रूप सिद्ध हो जाता है।
'निर्वर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निव्वत्तओं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' पर स्थित 'र' का तथा 'त' पर स्थित 'र' दोनों का-लोप; २-८९ से 'व' का द्वित्व 'व्व' तथा 'त' का भी द्वित्व 'त्त';-दोनों को द्वित्व की प्राप्ति; १-७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निव्वत्तआ' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'प्रवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पवत्तओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'प' में स्थित 'र' का और 'त' पर स्थित 'र' का-दोनों 'र' का-लोप; २-८९ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; १-१७७ से 'क्'का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पवत्तओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'संवर्तकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संवत्तओ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से ''का-लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संवत्तओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वर्तिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वत्तिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'वत्तिा ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वार्तिकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वत्तिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वत्तिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'कार्तिकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कत्तिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से '' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कत्तिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 229 'उत्कर्तितः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उक्कत्तिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से प्रथम हलन्त ‘त्' का लोप; २-८९ से 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; २ - ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' में से शेष बचे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १ - १७७ से अंतिम 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उक्कत्तिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कर्तरी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कत्तरी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र' का लोप और २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर 'कत्तरी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मूर्ति' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुत्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'मुत्ती' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मूर्त:' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मुत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मुहूर्त:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुहुत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ८४ से 'हू' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ सें प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुहुत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वार्त्ता' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पट्टा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ३० से संयुक्त व्यञ्जन 'र्त' के स्थान पर 'ट' का आदेश और २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति होकर 'वट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-३०।।
वृन्ते ण्टः ।। २-३१।
वृन्ते संयुक्तस्य ण्टो भवति || वेष्टं । ताल वेष्टं ॥
अर्थः- वृन्त शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'न्त' के स्थान पर 'ण्ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृन्तम् = वेष्टं और ताल - वृन्तम्-ताल- वेष्टं । ।
'वेण्ट' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३९ में की गई है।
'ताल-वेण्ट' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। ।। २-३१।।
ठो स्थि-विसंस्थुले ।। २-३२।।
अनयोः संयुक्तस्य ठो भवति ।। अट्ठी । विसंठुलं ॥
अर्थः- अस्थि और विसंस्थुल शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है। जैसे:अस्थि:=अट्ठी और विसंस्थुलम् =विसंठुलं ।।
'अस्थिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३२ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्रप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'अट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विसंस्थलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विसंठुलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३२ से संयुक्त
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
230: प्राकृत व्याकरण
व्यञ्जन 'स्थ्' के स्थान पर '' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विसंतुलं रूप सिद्ध हो जाता है।।२-३२।।
स्त्यान-चतुर्थार्थ वा ॥ २-३३ ।। एषु संयुक्तस्य ठो वा भवति।। ठीणं थीणं । चउट्ठो । अट्ठो प्रयोजनम्। अत्थो धनम्।।
अर्थः- 'स्त्यान' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त्य' के स्थान पर विकल्प से 'ठ' की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'चतुर्थ' एवं 'अर्थ' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन ' के स्थान पर भी विकल्प से 'ठ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- स्त्यानं-ठीणं अथवा थीण।। चतुर्थः-चउट्ठो अथवा चउत्थो।।
अर्थः- अट्ठो अथवा अत्थो।। संस्कृत शब्द 'अर्थ' के दो अर्थ होते हैं। पहला अर्थ प्रयोजन होता है और दूसरा अर्थ 'धन' होता है। तदनुसार 'प्रयोजन' अर्थ में प्रयुक्त संस्कृत रूप 'अर्थ' का प्राकृत रूप 'अट्ठो' होता है और 'धन' अर्थ में प्रयुक्त संस्कृत रूप 'अर्थ' का प्राकृत रूप 'अत्थो' होता है। यह ध्यान में रखना चाहिये।
ठीणं और थीणं दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७४ में की गई है। चउट्ठो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में की गई है।
'अर्थ'- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (प्रयोजन अर्थ में) 'अट्ठो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३३ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्थ' के स्थान पर विकल्प से 'ट्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अट्ठो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अर्थ'- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (धन अर्थ में) 'अत्था' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अत्थो' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-३३॥
ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्टे ।। २-३४ ।। उष्ट्रादिवर्जिते ष्टस्य ठो भवति ।। लट्ठी । मुट्ठी । दिट्ठी । सिट्ठी । पुट्ठो । कट्ठ। सुरट्ठा। इ8ो । अणिठें। अनुष्ट्रेष्टासंदष्ट इति किम् । उट्टो । इट्टा चुण्णं व्व। संदट्टो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द उष्ट्र, इष्टा और संदष्ट के अतिरिक्त यदि किसी अन्य संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' रहा हुआ हो तो उस संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- लष्टि; लट्ठी। मुष्टिः-मुट्ठी। दृष्टिः-दिट्टी। सृष्टिः सिट्ठी। पृष्टः-पुट्ठो। कष्टम् कटुं| सुराष्ट्राः=सुरट्ठा। इष्टः इट्ठो और अनिष्टम् अणिठें।।
प्रश्न:- 'उष्ट्र, इष्टा और संदष्ट' में संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' होने पर भी सूत्र संख्या २-३४ के अनुसार 'ष्ट' के स्थान पर प्राप्तव्य 'ठ' का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तर:- क्योंकि 'उष्ट्र', 'इष्टा' और 'संदष्ट' के प्राकृत रूप प्राकृत साहित्य में अन्य स्वरूप वाले पाये जाते हैं; एवं उनके इन स्वरूपों की सिद्धि अन्य सूत्रों से होती है; अतः सूत्र संख्या २-३४ से प्राप्तव्य 'ठ' की प्राप्ति का इन रूपों के लिये निषेध किया गया है। जैसे:-उष्ट्र: उट्टो। इष्टा-चूर्णम् इव इट्टाचुण्णं व्व।। और संदष्ट: संदट्टो।।
लट्ठा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४७ में की गई है। 'मुष्ठिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुट्ठी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'मुट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिट्ठी और सिट्टा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२८ में की गई है।
'पृष्ट: ' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'पुट्ठो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्टं' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पुट्ठो' रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 231
'कष्टम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कट्ठ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कट्ठ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सुराष्ट्राः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'सुरट्ठा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ट्' को 'ट्' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३- १२ से प्राप्त होकर लुप्त हुए 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घस्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सुरट्ठा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इष्टः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'इट्ठो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'इट्ठो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अनिष्टम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'अणिट्ठ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; २- ३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर ' 'की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अणिट्ठ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उष्ट्रः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'ष्' का लोप; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उट्टो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इष्टा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इट्टा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'ष्' का लोप और २-८९ से 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति होकर 'इट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चूर्णम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चुण्णं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घस्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर ‘उ' की प्राप्ति; २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'चुण्णं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्व' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'संदष्ट: ' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'संदट्टो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'ष् ' का लोप; २-८९ से 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संदट्टों' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-३४॥
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
232 : प्राकृत व्याकरण
गर्ते डः ।। २-३५ ॥ गर्त शब्दे संयुक्तस्य डो भवति । टापवादः ।। गड्डो। गड्डा।।
अर्थः- 'गर्त शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-३० में विधान किया 'गया है कि 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है; किन्तु इस सूत्र में 'गर्त' शब्द के संबंध में यह विशेष नियम निर्धारित किया गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति नहीं होकर 'ड' की प्राप्ति होती है; अतः इस नियम को सूत्र संख्या २-३० के विधान के लिये अपवाद रूप नियम समझा जाये। उदाहरण इस प्रकार है:-गर्तः गड्डा।। गर्ताः गड्डा।। गड्डो और गड्डा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।। २-३५।। संमर्द-वितर्दि-विच्छे च्छर्दि-कपर्द-मर्दिते र्दस्य ॥२-३६।।
एषु र्दस्य डत्वं भवति।। संमड्डो । विअड्डी । विच्छड्डो ।
छड्डइ। छड्डी । कवड्डो । मड्डिओ संमड्डिओ। अर्थः-'संमर्द', 'वितर्दि, विच्र्छ, च्छर्दि, कपर्द और मर्दित शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती है। जैसे:-संमर्दः संमड्डो। वितर्दि: विअड्डी। विच्र्छः विच्छड्डो। च्छर्दिः छड्डी। कपर्दः कवड्डो। मर्दितः मड्डिओ और संमर्दितः-संमड्डिओ।।
'संमर्दः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संमड्डा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'संमड्डा' रूप सिद्ध हो ___वितर्दिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विअड्डी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; २-३६
से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान हस्व स्वर 'इ' को दीर्घस्वर 'ई' की प्राप्ति होकर "विअड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विच्र्छः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विच्छड्डो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विच्छड्डो रूप सिद्ध हो जाता है।
'मुञ्चति'-(छते ?) संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छड्डई होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-९१ से 'मुञ्च्' धातु के स्थान पर 'छड्ड' का आदेश; (अथवा र्छ में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर २-३६ से 'ड्' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'ड्' को 'द्वित्व' 'ड्ड' की प्राप्ति); ४-२३९ से प्राप्त एवं हलन्त 'ड्ड' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' (अथवा 'ते') के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छड्डइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छर्दिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छड्डी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त के स्थान पर दीर्घ होकर 'छड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कपर्दः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कवड्डो'; होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कवड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 233 'मर्दितः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'मड्डिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मडिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'संमर्दितः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'संमड्डिओ' होता है। इसकी सिद्धि उपरोक्त रूप 'मर्दितः मड्डिओ' के समान ही जानना।। २-३६।।
गर्दभे वा ।। २-३७॥ गर्दभे र्दस्य डो वा भवति । गड्डहो। गद्दहो।।
अर्थः-संस्कृत शब्द 'गर्दभ' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर विकल्प से 'ड' की प्राप्ति होती है। गर्दभः गड्डहा और गद्दहा।। _ 'गर्दभः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गड्डहो' और 'गद्दहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-३७ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर विकल्प से 'ड' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व'ड्ड' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गड्डहो' सिद्ध हो जाता है। ____ द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व '६' की प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'गद्दहो' भी सिद्ध हो जाता है। । २-३७।
कन्दरिका-भिन्दिपाले ण्डः ।। २-३८ ।। अनयोः संयुक्तस्य ण्डो भवति।। कण्डलिआ। भिण्डिवालो।
अर्थः- 'कन्दरिका' और 'भिन्दिपाल' शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर 'ण्ड' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कन्दरिका कण्डलिआ और भिन्दिपालः भिण्डिवालो।।
'कन्दरिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कण्डलिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३८ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर 'ण्ड' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' का 'ल' और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'कण्डलिआ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'भिन्दिपाल' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिण्डिवालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३८ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर 'ण्ड' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिण्डिवालो' रूप सिद्ध हो जाता है।
स्तब्धे ठ-ढौ ।। २-३९।। स्तब्धे संयुक्तयो यथाक्रमं ठढौ भवतः ।। ठड्डो
अर्थ:- 'स्तब्ध' शब्द में दो संयुक्त व्यञ्जन है, एक ‘स्त' है और दूसरा ‘ब्ध' है' इनमें से प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है और दूसरे संयुक्त व्यञ्जन 'ब्ध के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; होती है जैसे:-स्तब्धः-ठड्डो।।
'स्तब्धः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'ठड्डो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३९ से प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-३९ से द्वितीय संयुक्त व्यञ्जन 'ब्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ढ्ढ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'इ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ठड्डो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-३९।।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
234 : प्राकृत व्याकरण
दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्धे ढः ।। २-४०।। एषु संयक्तस्य ढो भवति ।। दड्डो । विअड्डो। वुड्डी। वुड्डो । क्वचिन्न भवति। विद्धकइ-निरूवि।।
अर्थः- संस्कृत शब्द दग्ध और विदग्ध में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ग्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से संस्कृत-शब्द वृद्धि और वृद्ध में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर भी 'ढ' की प्राप्ति होती है। जैसे:दग्धः दड्डा। विदग्धः विअड्डो। वृद्धिः वुड्डी। वृद्धः वुड्डो।। कभी-कभी संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- वृद्ध-कवि-निरूपितम् विद्ध-कइ निरूविध यहां पर 'वृद्ध' शब्द का 'वुडू' नहीं होकर 'विद्ध' हुआ है। यों अन्य शब्दों के संबंध में भी जान लेना चाहिये।
दडो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१७ में की गई है।
"विदग्धः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'विअड्डो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; २-४० से संयुक्त व्यञ्जन 'ग्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ढ्ढ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ढ' को 'इ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विअड्डो' रूप सिद्ध हो जाता है।
वुड्डी और वुड्डा रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। विद्ध रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है।
'कवि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोप होकर 'कइ' रूप सिद्ध हो जाता है। यहाँ पर 'कइ' रूप समास-गत होने से विभक्ति प्रत्यय का लोप हो गया है।
'निरूपितम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'निरूविअ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निरूविरूप सिद्ध हो जाता है।। २-४०।।
श्रद्धर्द्धि-मूर्धान्त वा ।। २-४१॥ एषु अन्ते वर्तमानस्य संयुक्तस्य ढो वा भवति ।। सड्ढा । सद्धा । इड्डी रिद्धी। मुण्ढा। मुद्धा । अर्द्ध अद्धं ॥
अर्थः- संस्कृत शब्द श्रद्धा, ऋद्धि, मूर्धा और अर्ध में अन्त में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर अथवा 'ई' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति होती है। तदनुसार संस्कृत रूपान्तर से प्राप्त प्राकृत रूपान्तर में इनके दो दो रूप हो जाते हैं। जो कि इस प्रकार हैं:- श्रद्धा-सड्डा अथवा सद्धा।। ऋद्धिः इड्डी अथवा रिद्धि।। मूर्धा-मुण्ढा अथवा मुद्धा और अर्धम् अडूं अथवा अद्ध।
'श्रद्धा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सड्ढा' और 'सद्धा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ड्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सडा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सद्धा की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२ में की गई है।
'ऋद्धिः ' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इड्ढी' और 'रिद्धी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ड्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम 'इड्डी' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'रिद्धी' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 235 'मूधा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुण्ढा' और 'मुद्धा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १-२६ से प्रथम स्वर 'उ' के पश्चात् आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर विकल्प से 'ढ' की प्राप्ति और १-३० से आगम रूप से प्राप्त अनुस्वार के आगे 'ढ' होने से 'ट' वर्ग के पंचमाक्षर रूप 'ण' की प्राप्ति होकर 'मुण्ढा' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप मूद्धा में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द्' की प्राप्ति होकर 'मुद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अर्धम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'अ ' और 'अद्ध होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'ढ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ड्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'अड्डू सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप अद्ध में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द्' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'अद्ध' भी सिद्ध हो जाता है।। २-४१।।
म्नज्ञो र्णः ।। २-४२ ॥ अनयो ो भवति ।। म्न । निण्णं ।। ज्ञ पज्जुण्णो। णाणं । सण्णा । पण्णा। विण्णाण।।
अर्थ:- जिन शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' अथवा 'ज्ञ' होता है; उन संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' के स्थान पर अथवा 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'म्न' के उदाहरणः- निम्नम् निण्णं। प्रद्युम्नः पज्जुण्णा। 'ज्ञ' के उदाहरण इस प्रकार है:- ज्ञानम्=णाणं। संज्ञा-सण्णा। प्रज्ञा-पण्णा और विज्ञानम् विण्णाण।।
"निम्नम' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निण्ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति , २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'पण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'निण्णं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रद्युम्नः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पज्जुण्णा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'द्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति , २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पज्जुण्णो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ज्ञानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, १-२२८ से प्राप्त 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'णाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'संज्ञा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सण्णा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-३० से अनुस्वार के आगे 'ण' का सद्भाव होने से 'ट' वर्ग के पंचमाक्षर रूप हलन्त 'ण' की प्राप्ति होकर 'सण्णा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रज्ञा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णा ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-४२ से संयुक्त-व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति होकर 'पण्णा' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
236 : प्राकृत व्याकरण
___ 'विज्ञानम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विण्णाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विण्णाण' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-४२।।
पञ्चाशत्-पञ्चदश-दत्ते ।। २-४३।। एषु संयुक्तस्य णो भवति ॥ पण्णासा । पण्णरह । दिण्णं ॥
अथः- पञ्चाशत्, पंचदश और दत्त शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ञ्च' के स्थान पर अथवा 'त्त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती है। जैसे:- पंचाशत्-पण्णासा।। पंचदश-पण्णरह और दत्तम् दिण्ण।।
"पंचाशत् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णासा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ञ्च' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१५ से प्राप्त 'स' में 'आ' स्वर की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'पण्णासा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पंचदश' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णरह' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ञ्च' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; १-२१९ से 'द' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और १-२१९ से 'श' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर 'पण्णरह' रूप सिद्ध हो जाता है। दिण्णं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४६ में की गई है।। २-४३।।
मन्यौ न्तो वा ॥ २-४४॥ मन्यु शब्दे संयुक्तस्य न्तो वा भवति ।। मन्तू मन्नू।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'मन्यु' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'न्त्' की प्राप्ति होती है। जैसे:- मन्युः=मन्त अथवा मन्नू।। ___ 'मन्युः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मन्तू' और 'मन्नू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४४ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'न्त्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व स्वर उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मन्तू' सिद्ध हो जाता है। मन्नू की सिद्धि सूत्र संख्या २-२५ में की गई है ।। २-४४।।
स्त्स्य थो समस्त-स्तम्बे ।। २-४५ ।। समस्त-स्तम्ब-वर्जिते स्तस्य थो भवति। हत्थो। थुई । थोत्तं । थोअं। पत्थरो पसत्थो। अत्थिा सत्थि ।। असमस्त स्तम्ब इति किम्। समत्तो। तम्बो।
अर्थः- समस्त और स्तम्ब शब्दों के अतिरिक्त अन्य संस्कृत शब्दों में यदि 'स्त' संयुक्त व्यञ्जन रहा हुआ है; तो इस संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति होती है। जैसे:-हस्तः-हत्थो।। स्तुतिः-थुई।। स्तोत्रम्-थोत्त। स्तोकम्-थो। प्रस्तरः-पत्थरो।। प्रशस्तः-पसत्थो। अस्ति-अत्थि।। स्वस्ति-सत्थि।।।
प्रश्नः- यदि अन्य शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति हो जाती है; तो फिर 'समस्त' और 'स्तम्ब' शब्दों में रहे हुए संयुकत व्यजन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ? ___ उत्तरः- क्योंकि समस्त' और 'स्तम्ब' शब्दों का रूप प्राकृत रूप में समत्तो' और 'तम्बो' उपलब्ध है अतः ऐसी स्थिति में स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? उदाहरण इस प्रकार है:- समाप्तः समत्तो और स्तम्बः तम्बो।
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 237
'हस्तः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हत्थो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति २-८९से प्राप्त थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हत्थो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्तुतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थुई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'थुइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्तोत्रम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थोत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्तिः और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'थोत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। __'स्तोकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थोअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-१७७ से क् का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'थो रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'प्रस्तरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पत्थरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पत्थरो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'प्रशस्तः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'पसत्थो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पसत्थो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अस्ति' संस्कृत क्रिया-पद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व'थ्थ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति होकर 'अत्थि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्वस्तिः ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सत्थि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' का लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त्' के स्थान पर 'थ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ्' को द्वित्व'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' को 'त्' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर 'सत्थि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'समाप्तः' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'समत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'स्तम्बः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तम्बो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तम्बो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-४५।।
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
238 : प्राकृत व्याकरण
स्तवे वा ।। २-४६।। स्तव शब्दे स्तस्य थो वा भवति ।। थवो तवो ।
अर्थः- 'स्तव' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- स्तवः=थवो अथवा तवो।। ___ 'स्तवः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'थवो' और 'तवो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'थवो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर 'तवो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-४६।।
पर्यस्ते थ-टौ ।। २-४७।। पर्यस्ते स्तस्य पर्यायेण थटौ भवतः ।। पल्लत्थो पल्लट्टो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'पर्यस्त' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर कभी 'थ' होता है और कभी 'ट' होता है। यों पर्यस्त के प्राकृत रूपान्तर दो प्रकार के होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- पर्यस्तः=पल्लत्थो और पल्लट्टो।। __'पर्यस्तः' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'पल्लत्थो' और 'पल्लट्रो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर पर्याय रूप से 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर, प्रथम रूप 'पल्लत्थो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'पल्लट्टो' में सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर पर्याय रूप से 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'पल्लट्टो' भी सिद्ध हो जाता है। ।।२-४७।।
वोत्साहे थो हश्च रः ।। २-४८।। उत्साह शब्दे संयुक्तस्य थो वा भवति तत्सनियोगे च हस्य रः।। उत्थारो उच्छाहो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'उत्साह' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति होती है। एवं 'थ' की प्राप्ति होने पर ही अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर भी 'र' की प्राप्ति हो जाती है। पक्षान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति नहीं होने की दशा में अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर भी 'र' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसेः उत्साहः उत्थारो और पक्षान्तर में उच्छाहो। यों रूप-भिन्नता का स्वरूप समझ लेना चाहिये।। __ "उत्साहः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उत्थारो' और 'उच्छाहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति; २-४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्स' के स्थान पर प्राप्त थ' का संनियोग होने से अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'उत्थारो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'उच्छाहो' की सिद्धि सूत्र संख्या १-११४ में की गई है। ।। २-४८।।
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 239
आश्लिष्टे ल-धौ ।। २-४९।। आश्लिष्टे संयुक्तस्योर्यथासंख्यं ल ध इत्येतो भवतः ।। आलिद्धो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'आश्लिष्ट' में रहे हुए प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'श्ल' के स्थान पर 'ल' होता है और द्वितीय संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ध' होता है। यों दोनों संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर यथा-क्रम से 'ल' की और 'ध' की प्राप्ति होती है। जैसे:- आश्लिष्ट: आलिद्धो।। 'आश्लिष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलिद्धो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४९ से संयुक्त
पर 'ल' की प्राप्ति: २-४९ से ही द्वितीय संयक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ध' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'ध' को द्वित्व 'ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आलिद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है।। २-४९॥
चिन्हे न्धो वा ।। २-५०॥ चिन्हे संयुक्तस्य न्धो वा भवति ।। ण्हापवादः ।। पक्षे सो पि ।। चिन्धं इन्धं चिण्ह।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'चिन्ह' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर विकल्प से 'न्ध' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-७५ में यह बतलाया गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। तद्नुसार सूत्र संख्या २-७५ की तुलना में सूत्र संख्या २-५० को अपवाद रूप सूत्र माना जाय; ऐसा वृत्ति में उल्लेख किया गया है। वैकल्पिक पक्ष होने से तथा अपवाद रूप स्थिति की उपस्थिति होने से 'चिन्ह' के प्राकृत रूप तीन प्रकार के हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार है-चिह्नम्= चिन्धं अथवा इन्धं चिण्ह।। ___ "चिह्नम्। संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप चिन्धं, इन्धं और चिण्हं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५० से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर विकल्प से 'न्ध की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'चिन्छ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप इन्धं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
तृतीय रूप 'चिण्ह' में सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप 'चिण्ह' भी सिद्ध हो जाता है। ॥ २-५०।।
भस्मात्मनोः पो वा ।। २-५१।। अनयोः संयुक्तस्य पो वा भवति॥ भप्पो भस्सो। अप्पा अप्पाणो। पक्षे अत्ता।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'भस्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे:(भस्मन् के प्रथमान्त रूप) भस्मा भप्पो अथवा भस्सो।। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द 'आत्मा' में स्थित संयुक्त व्यंजन 'त्म' के स्थान पर भी विकल्प से 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे-(आत्मन् के प्रथमान्त रूप) आत्मा-अप्पा अथवा अप्पाणा।
वैकल्पिक पक्ष होने से रूपान्तर में 'अत्ता' भी होता है। ___ 'भस्मन् संस्कृत मूल रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भप्पो' और 'भस्सो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-३२ से 'भस्म' शब्द को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति होने से ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भप्पो' सिद्ध हो जाता है।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
240 प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २- ७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'भस्सो' भी सिद्ध हो जाता है।
'आत्मन्' संस्कृत मूल शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'अप्पा', 'अप्पाणो' और 'अत्ता' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र 'संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व 'अ' की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'नू' का लोप और ३-४९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में अन्त्य 'न' का लोप हो जाने पर एवं प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर शेष अन्तिम व्यञ्जन 'प' में वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अप्पा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'अप्पाणो' में 'अप्प' पर्यन्त तो प्रथम रूप के समान ही सूत्र - साधनिका की प्राप्ति; और शेष 'आणो' में सूत्र संख्या २-५६ से वैकल्पिक रूप से 'आण' आदेश की प्राप्ति एवं ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अप्पाणो' भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप 'अत्ता' में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; और ३- ४९ से (अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में स्थित अन्त्य 'न्' का लोप होकर) प्रथमा विभक्ति में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'अत्ता' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २- ५१ ।।
डुम - क्मोः ।। २-५२ ॥
:
मक्मोः पो भवति ।। कुड्मलम् । कुम्पलं । रूक्मिणी । रूप्पिणी । क्वचित् च्मोपि ।। रूच्मी रूप्पी ।।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'ड्म' अथवा ' क्म' रहा हुआ होता है; तो ऐसे शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में इन संयुक्त व्यञ्जन 'ड्म' अथवा 'क्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'ड्म' का उदाहरण-कुड्मलम्=कुम्पलं ।। ' क्म' का उदाहरण-रूक्मिणी-रूप्पिणी इत्यादि । । कभी-कभी 'क्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति भी हो जाती है। जैसे:- रूक्मी रूमी अथवा रूप्पी |
'कुड्मलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुम्पलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ड्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; १ - २६ से प्रथम आदि स्वर 'उ' पर अनुस्वार रूप आगम की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के आगे 'प' वर्ण की स्थिति होने से पवर्ग के पंचमाक्षर रूप हलन्त 'म्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'कुम्पल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रुक्मिणी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रुप्पिणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; और २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति होकर 'रूप्पिणी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रुक्मी' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'रुच्मी' और 'रुप्पी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५२ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'क्म' के स्थान पर 'च्म' की प्राप्ति होकर प्रथम रुप 'रूच्मी' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में 'रुप्पी' सूत्र संख्या २-५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति होकर 'रुप्पी' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-५२।।
ष्प- स्पयोः फः ।। २-५३।।
ष्प-स्पयोः फो भवति ।। पुष्पम् । पुष्कं ॥ शष्पम् । सप्फं । निष्पेषः। निप्फेसो।। निष्पावः । निप्फावो।। स्पन्दनम्। फन्दणं।। प्रतिस्पर्धिन् । पाडिप्फद्धी ।। बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । बुहप्फई बुहप्पई ।। क्वचिन्न भवति ।। निप्पहो। णिप्पुंसणं । परोप्परम् ॥
I
अर्थः-जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'प्प' अथवा 'स्प' होता है; तो प्राकृत रूपान्तर में इन संयुक्त व्यञ्जनों
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 241 के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है। जैसे-पुष्पम्=पुप्फ।। शष्पम् सप्फ।। निष्पेषः निप्फेसो।। निष्पावः निप्फावो।। स्पन्दनम् फन्दणं और प्रतिस्पर्धिन्=पाडिप्फद्धी।। 'बहुलं' सूत्र के अधिकार से किसी किसी शब्द में 'ष्प' अथवा 'स्प' के होने पर भी इन संयक्त व्यञ्जनों के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे-बहस्पतिः बहप्फई अथवा बहुप्पई।। किसी किसी शब्द में तो संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' और 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे-निष्प्रभः निप्पहो।। निष्पुंसनम्-णिप्पुंसण।। परस्परम् परोप्परं।। इत्यादि।।
पुप्फ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३६ में की गई है।
'शष्पम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सप्फ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनस्वार होकर 'सप्फ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'निष्पेषः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्फेसो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निप्फेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"निष्पावः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्फावो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'फ' को 'प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निप्फावो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'स्पन्दनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फन्दणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'फन्दणं रूप सिद्ध हो जाता है।
पाडिप्फद्धी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बुहप्फई' और 'बुहप्पई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'बुहप्फई सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप बुहप्पई में सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'बुहप्पई भी सिद्ध हो जाता है। ___ 'निष्प्रभः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्पहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से'' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निप्पहो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'निष्पुंसनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिप्पुंसणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-२२८ से दोनों 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर "णिप्पुंसणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'परोप्परं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६२ में की गई है। ।। २-५३।।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
242 : प्राकृत व्याकरण
भीष्मे ष्मः ।। २-५४ ।। भीष्मे ष्मस्य फो भवति ।। भिप्फो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'भीष्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है। जैसे:भीष्मः-भिप्फो।। ___ 'भीष्मः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिप्फो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-५४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिप्फो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-५४।।
श्लेष्मणि वा ।। २-५५॥ श्लेष्म शब्दे ष्मस्य फो वा भवति ॥ सेफो सिलिम्हो।।
अर्थ:- संस्कृत शब्द 'श्लेष्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर विकल्प से 'फ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- श्लेष्मा सेफो अथवा सिलिम्हो।।
'श्लेष्मा' संस्कृत (श्लेष्मन्) का प्रथमान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सेफो' और 'सिलिम्हो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; १-२६० से शेष 'श' को 'स्' की प्राप्ति; २-५५ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर विकल्प से 'फ' की प्राप्ति; १-११ से मूल शब्द में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-३२ से मूल शब्द 'अकारान्त' होने से मूल शब्द को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और तदनुसार ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सेफा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-८४ से 'श्ले' में स्थित दीर्घ स्वर 'ए' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होने से 'श्लि' हुआ; २-१०६ से हलन्त व्यञ्जन 'श' में 'इ' आगम रूप स्वर की प्राप्ति होने से 'शिलि' रूप हुआ; १-२६० से 'श' का 'स' होने से 'सिलि' की प्राप्ति; २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; और शेष साध निका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सिलिम्हो' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-५५।।
ताम्राभेम्बः ॥२-५६।। अनयोः संयुक्तस्य मयुक्तो बो भवति।। तम्बं। अम्बं।। अम्बिर तम्बिर इति देश्यो।।
अर्थ:- संस्कृत शब्द 'ताम्र और 'आम्र में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'म्र के स्थान पर 'म्ब' की प्राप्ति होती है। जैसे ताम्रम्=तम्बं और आम्रम् अम्ब।। देशज बोली में अथवा ग्रामीण बोली में ताम्र का तम्बिर और आम्र का अम्बिर भी होता है। ___ 'तम्बं' और 'अम्बं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-८४ में की गई है। अम्बिर और तम्बिर रूप देशज है; तदनुसार देशज शब्दों की साधनिका प्राकृत भाषा के नियमों के अनुसार नहीं की जा सकती है।।।२-५६।।
ह्रो भो वा ॥ २-५७।। ह्वस्य भो वा भवति।। जिब्मा जीहा।।
अर्थः- यदि किसी संस्कृत शब्द में 'ह्व' हो तो इस संयुक्त व्यञ्जन 'ह्व' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- जिह्वा-जिब्भा अथवा जीहा।।
"जिह्वा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जिब्मा' और 'जीहा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५७ . से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्व' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व 'भ्भ' की प्राप्ति और
२-९० से प्राप्त पूर्व 'भ' को 'ब्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'जिब्भा' सिद्ध हो जाता है।
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 243 द्वितीय रूप सूत्र संख्या १-९२ से ह्रस्वः स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और २ - ७९ से 'व्' का लोप होकर 'जीहा' रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-५७।।
वा विह्वले वौ वरच ।। २-५८।।
विह्वले ह्रस्व भो वा भवति । तत्संनियोगे च विशब्दे वस्य वा भो भवति ।। भिब्भलो विब्भलो विहलो ॥ अर्थः- संस्कृत विह्वल शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' स्थान पर 'भ' की प्राप्ति विकल्प से होती है। इसी प्रकार से जिस रूप में 'ह्व' स्थान पर 'भ' की प्राप्ति होगी; तब आदि वर्ण 'वि' में स्थित 'व्' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति होती है। जैसे-विह्वलः - भिब्भलो अथवा विब्भलो और बिहलो ।
'विह्वल : संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप भिब्भला; ' 'विब्भला' और 'विहलो' होते हैं। इनमें से
प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५८ से संयुक्त 'ह्र' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व
4
'भूभ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त, पूर्व ' भ्' को 'ब्' की प्राप्ति; २ - ५८ की वृत्ति से आदि में स्थित 'वि' के 'व' को आगे 'भ' की उपस्थिति होने के कारण से विकल्प से 'भ्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भिब्भला' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में २-५८ की वृत्ति से वैकल्पिक पक्ष होने के कारण आदि वर्ण 'वि' को 'भि' की प्राप्ति नहीं होकर 'वि' ही कायम रहकर और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'विब्भलो' भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप में सूत्र संख्या २- ७९ से द्वितीय 'व्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'विहलो' रूप भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-५८ ।।
वोर्ध्वे ।। २-५९।
ऊर्ध्व शब्दे संयुक्तस्य भो भवति ।। उब्भं उद्धं ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'ऊर्ध्व' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति होती है। जैसे-ऊ र्वम् = उब्भं अथवा उद्ध ।।
'ऊर्ध्वम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उब्भं' और 'उद्ध' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से आदि में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २ - ५९ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व ' भ्भ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' भ्' को 'ब' की प्राप्ति; २- ७९ से रेफ रूप 'र्' का लोप; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'उब्भ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के दोनों का लोप ; २-८९ से शेष 'घ' को द्वित्व ' ध्ध' की साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'उद्ध' भी सिद्ध हो जाता है।।२-५९।।
कश्मीरे म्भो वा ।। २-६० ।।
स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र्' और 'व' प्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'धू' को 'द्' की प्राप्ति और शेष
कश्मीर शब्दे संयुक्तस्य म्भो वा भवति ।। कम्भारा कम्हारा ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'कश्मीर' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'रम' के स्थान पर विकल्प से 'म्भ' की प्राप्ति होती है। जैसे - कश्मीरा = कम्भारा अथवा कम्हारा ।।
'कश्मीरा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कम्भारा' और 'कम्हारा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - ६० से संयुक्त व्यञ्जन 'रम' के स्थान पर विकल्प से 'म्भ' की प्राप्ति; १ - १०० से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर 'आ' की
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
244 : प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्तिम हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'कम्भारा' सिद्ध हो जाता है। कम्हारा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०० में की गई है। ।।२-६०।।
न्मो मः ।। २-६१॥ न्मस्य मो भवति ।। अधोलोपापवादः ।। जम्मो । वम्महो । मम्मणं ।।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'न्म' होता है; तो ऐसे संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में उस संयुक्त व्यञ्जन 'न्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-७८ में बतलाया गया है कि अधो रूप में स्थित अर्थात् वर्ण में परवर्ती रूप से संलग्न हलन्त 'न्' का लोप होता है। जैसे-लग्नः लग्गो। इस उदाहरण में 'ग' वर्ण में परवर्ती रूप से संलग्न हलन्त 'न्' का लोप हुआ है। जबकि इस सूत्र संख्या २-६१ में बतलाते हैं कि यदि हलन्त 'न्' परवर्ती नहीं होकर पूर्ववर्ती होता हुआ 'म' के साथ में संलग्न हो; तो ऐसे पूर्ववर्ती हलन्त 'न्' का भी (केवल 'म' वर्ण के साथ में होने पर ही) लोप हो जाया करता है। तदनुसार इस सूत्र संख्या २-६१ को आगे आने वाले सूत्र संख्या २-७८ का अपवाद रूप सूत्र माना जाये। जैसा कि ग्रंथकार 'अधोलोपापवादः' शब्द द्वारा कहते हैं। उदाहरण इस प्रकार हैं:- जन्मन्=जम्मो।। मन्मथः=वम्महो और मन्मनम् मम्मण।। इत्यादि।।
'जम्मो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। 'वम्महो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४२ में की गई है।
'मन्मनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मम्मणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६१ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'म' को द्वित्व ‘म्म' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'मम्मणं' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-६१।।
ग्मो वा ।। २-६२॥ ग्मस्य मो वा भवति ।। युग्मम् । जुम्म जुग्गं । तिग्मम् । तिम्मं तिग्ग।
अर्थः- संस्कृत शब्द में यदि 'ग्म' रहा हुआ हो तो उसके प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ग्म' के स्थान पर विकल्प से 'म' की प्राप्ति होती है। जैसे-युग्गम्=जुम्मं अथवा जुग्गं और तिग्मम् तिम्मं अथवा तिग्ग।। इत्यादि।।
'युग्मम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जुम्म' और 'जुग्ग' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; २-६२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ग्म' के स्थान पर विकल्प से 'म' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'जुम्मं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-२४५ से 'य' का 'ज'; २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'जुग्गं भी सिद्ध हो जाता है।
"तिग्मम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तिम्म' और 'तिग्ग' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-६२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ग्म' के स्थान पर विकल्प से 'म' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप तिम्मं सिद्ध हो जाता है।
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 245 द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'तिग्गं' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-६२।।
ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये यो रः ॥२-६३।। एषुर्यस्य रो भवति। जापवादः।। बम्हचे।। चौर्य समत्वाद् बम्हचरिओ तुरं। सुन्देरं। सोंडीर।।
अर्थः- संस्कृत शब्द ब्रह्मचर्य, तूर्य, सौन्दर्य और शौण्डीर्य में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-२४ में कहा गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होती है; जबकि इस सूत्र संख्या २-६३ में विधान किया गया है कि ब्रह्मचर्य आदि इन चार शब्दों में स्थित 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है; जैसे- ब्रह्मचर्यम् ब्रह्मचेरं। तूर्यम्-तूरं। सौन्दर्यम् सुन्देरं और शौण्डीयम्=सोण्डीरं।। सूत्र संख्या २-१०७ के विधान से अर्थात् 'चौर्य-सम' आदि के उल्लेख से ब्रह्मचर्यम्' का वैकल्पिक रूप से 'बम्हचरिअं भी एक प्राकृत रूपान्तर होता है।
बम्हचेरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५९ में की गई है।
'ब्रम्हचर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बम्हचरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से आदि अथवा प्रथम 'र' का लोप; २-७४ से 'ह्म के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; २-१०७ से 'र्य' में स्थित 'र' में 'इ' रूप आगम की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'बम्हचरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'तूर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तूर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६३ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तूरं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सुन्दरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५७ में की गई है।
'शौण्डीर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोण्डीर' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१५९ से दीर्घ स्वर औ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ओ' की प्राप्ति; २-६३ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सोण्डीरं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-६३।।
धैर्य वा ॥२-६४॥ धैर्ये र्यस्य रो वा भवति ।। धीरं धिज्जं ।। सूरो सुज्जो इति तु सूर-सूर्य-प्रकृति-भेदात्।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'धैर्य' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर विकल्प से 'र' की प्राप्ति होती है। जैसेर्यम् धीरं अथवा धिज्ज।। संस्कृत शब्द 'सूर्य के प्राकृत रूपान्तर 'सूरो' और 'सुज्जो' यों दोनों रूप नहीं माने जाय, किन्तु एक ही रूप 'सुज्जो' ही माना जाय। क्योंकि प्राकृत रूपान्तर 'सरो' का संस्कृत रूप 'सूर' होता है और 'सूर्यः' का 'सुज्जो ।। यों शब्द-भेद से अथवा प्रकृति-भेद से 'सूरो' और 'सुज्जो' रूप होते हैं; यह ध्यान में रखना चाहिये।।
"धैर्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर 'धीरं' और 'धिज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'धीर की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५५ में की गई है।
द्वितीय रूप 'धिज्ज में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर (अर्थात् 'ऐ' का पूर्व रूप-अ+इ)='इ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'धिज्ज' भी सिद्ध हो जाता है।
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
246 : प्राकृत व्याकरण
'सूरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'सूरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सूरा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सूर्यः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'सुज्जो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त; 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'सुज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।।। २-६४।।।
एतः पर्यन्ते ।। २-६५॥ पर्यन्ते एकारात् परस्य र्यस्य रो भवति ।। पेरन्तो ॥ एत इति किम्। पज्जन्तो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द पर्यन्त में सूत्र संख्या १-५८ से 'प' वर्ण में 'ए' की प्राप्ति होने पर संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है। जैसे:-पर्यन्तः पेरन्तो।।
प्रश्नः- पर्यन्त शब्द में स्थित 'प' वर्ण में 'ऐ' की प्राप्ति होने पर ही संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है-ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि पर्यन्त शब्द में स्थित 'प' वर्ण में 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है तो संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति नहीं होकर 'ज्ज' की प्राप्ति होती है। अतः संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति तभी होती है; जबकि प्रथम वर्ण 'प' में 'ए' की प्राप्ति हो; अन्यथा नहीं। ऐसा स्वरूप विशेष समझाने के लिये ही 'एतः' का विधान करना पड़ा है। पक्षान्तर का उदाहरण इस प्रकार है:- पर्यन्तः पज्जन्तोः।। 'पेरन्तो' और 'पज्जन्तो' दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५८ में की गई है।। २-६५।।
आश्च र्य ।। २-६६ ॥ आश्चर्ये ऐतः परस्य यस्य रो भवति।। अच्छेरं।। एत इत्येव । अच्छरिआ।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'आश्चर्य' में स्थित 'श्च' व्यञ्जन में रहे हुए 'अ' स्वर को 'ए' की प्राप्ति होने पर संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है। जैसे:-आश्चर्यम्=अच्छेरं।।
प्रश्नः- 'श्च' व्यञ्जन में स्थित 'अ' स्वर को 'ए' की प्राप्ति होने पर ही 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- यदि 'श्च' के 'अ' को 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है तो 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति नहीं होकर 'रिअंकी प्राप्ति होती है। जैसे:- आश्चर्यम्=अच्छरि।। 'अच्छेरं' और 'अच्छरि दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। ॥ २-६६।।
अतो रिआर-रिज्ज-रीअं ।। २-६७।। आश्चर्ये अकारात् परस्य यस्य रिअ अर रिज्ज रीअ इत्येते आदेशा भवन्ति।। अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरिज्जं अच्छरी। अत इति किम्। अच्छेरं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'आश्चर्य में स्थित 'श्च' के स्थान पर प्राप्त होने वाले ‘च्छ' में रहे हुए 'अ' को यथा-स्थिति प्राप्त होने पर अर्थात् 'अ' स्वर का 'अ' स्वर ही रहने पर संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर क्रम से चार आदेशों की प्राप्ति होती है। वे क्रमिक आदेश इस प्रकार हैं:- 'रिअं; 'अर' 'रिज्ज; और री।। इनके क्रमिक उदाहरण इस प्रकार हैं:- आश्चर्यम्=अच्छरिअं अथवा अच्छअरं अथवा अच्छरिज्जं और अच्छरी।
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 247
प्रश्न-'श्च' के स्थान पर प्राप्त होने वाले 'च्छ' में स्थित 'अ' स्वर को यथा-स्थिति प्राप्त होने पर अर्थात् 'अ' का 'अ' ही रहने पर 'य' के स्थान पर इन उपरोक्त चार आदेशों की प्राप्ति होती है ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि उपरोक्त ‘च्छ' में स्थित 'अ' को 'ए' की प्राप्ति हो जाती है; तो संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर ऊपर वर्णित एवं क्रम से प्राप्त होने वाले चार आदेशों की प्राप्ति नहीं होगी। यों प्रमाणित होता है कि चार आदेशों की क्रमिक प्राप्ति 'अ' की यथास्थिति बनी रहने पर ही होती है; अन्यथा नहीं। पक्षान्तर में वर्णित ‘च्छ' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति हो जाती है; तो संस्कृत शब्द आश्चर्यम् का एक अन्य ही प्राकृत रूपान्तर-हो जाता है। जो कि इस प्रकार है:- आश्चर्यम्-अच्छेरं।।
अच्छरिअंरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। अच्छअरं, अच्छरिज्जं, अच्छरीअं, और अच्छेरं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५८ में की गई है ।। २-६७।।
पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये ल्लः ।। २-६८।। एषुर्यस्य ल्लो भवति। पर्यस्तं पल्लटं पल्लत्थं। पल्लाणं । सोअमल्लं ।। पल्लको इति च पल्यंक शब्दस्य यलोपे द्वित्वे च।। पलिअंको इत्यपि । चौर्य-समत्वात्।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'पर्यस्त' 'पर्याण' और 'सौकुमार्य' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है। जैसे:- पर्यस्तम्=पल्लट् अथवा पल्लत्थं।। पर्याणम्=पल्लाणं।। सौकुमार्यम्=सोअमल्ल।। संस्कृत शब्द पल्यंक का प्राकृत रूप पल्लंको होता है। इसमें संयुक्त व्यञ्जन 'ल्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं हुई है। किन्तु सूत्र संख्या २-७८ के अनुसार 'य' का लोप और २-८९ के अनुसार शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर पल्लंको रूप बनता है। सूत्रान्तर की साधनिका से पल्लङ्कः का द्वितीय रूप पलिअंको भी होता है। 'चौर्य समत्वात् से सूत्र संख्या २-१०७ का तात्पर्य है। जिसके विधान के अनुसार संस्कृत रूप ‘पल्यंक' के प्राकृत रूपान्तर में हलन्त ल्' व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' स्वर की प्राप्ति होती है। इस प्रकार द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति के प्रति सूत्र संख्या का ध्यान रखना चाहिये। ऐसा ग्रंथकार का आदेश है।
'पर्यस्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर 'पल्लर्ट' और 'पल्लत्थं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'पल्लट्ट' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'पल्लत्थं की सिद्धि सूत्र संख्या २-४७ में की गई है। अन्तर इतना सा है कि वहां पर 'पल्लत्थो' रूप पुल्लिंग में दिया गया है एवं यहां पर 'पल्लत्थं रूप नपुंसकलिंग में दिया गया है। इसका कारण यह है कि यह शब्द विशेषण है; और विशेषण-वाचक शब्द तीनों लिंगो में प्रयुक्त हुआ करते हैं।
'पल्लाणं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५२ में की गई है। 'सोअमल्लं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०७ में की गई है। __ 'पल्यंकः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पल्लंको' और 'पलिअंको' भी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पल्लंको' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (पल्यंक:)-पलिअंका में सूत्र संख्या २-१०७ से हलन्त व्यञ्जन 'ल' में 'य' वर्ण आगे रहने से आगम रूप 'इ' स्वर की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'पलिअंका' भी सिद्ध हो जाता है। ॥२-६८।।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
248 : प्राकृत व्याकरण
बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा ।। २-६९।।
अनयोः संयुक्तस्य सो वा भवति ।। बहस्सई बहप्फई || भयस्सई || भयप्फई । वणस्सई वणप्फई ||
अर्थः- संस्कृत शब्द 'बृहस्पति' और 'वनस्पति' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर विकल्प से 'स' की प्राप्ति हुआ करती है। ‘विकल्प' से कहने का तात्पर्य यह है कि सूत्र संख्या २-५३ में ऐसा विधान कर दिया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है । किन्तु यहां पर पुनः उसी संयुक्त व्यंजन 'स्प' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति का उल्लेख करते हैं, अतः 'वदतो वचन - व्याघात' के दोष से सुरक्षित रहने के लिये मूल - सूत्र में विकल्प अर्थ वाचक 'वा' शब्द का कथन करना पड़ा है। यह ध्यान में रखना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार हैं: - बृहस्पतिः - बहस्सइ अथवा बहप्फई और भयस्सई अथवा भयप्फइ | | वनस्पतिः- वणस्सई अथवा वणप्फई ||
'बृहस्पति' : संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बहस्सई' और 'बहप्फइ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २ - ६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'बहस्सई' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप बहफ की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १३८ में की गई है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भयस्सई' और 'भयप्फई' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १३७ से प्राप्त 'बह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति; २ - ६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की विकल्प से प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भयस्सई' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (बृहस्पतिः=) भयप्फई में सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १३७ से प्राप्त 'बह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २ - ९० प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भयप्फइ' भी सिद्ध हो जाता है।
'वनस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वणस्सई' और 'वणप्फई' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से ‘न' का ‘ण'; २-६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर विकल्प से 'स' की प्राप्ति; २ - ८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'तू' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'वणस्सइ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (वनस्पतिः=) वणप्फई में सूत्र संख्या - १ - २२८ से 'न' का 'ण'; २ - ५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'वणप्फई' सिद्ध हो जाता है ।। २-६९ ।।
बाष्पे हो श्रुणि ।। २-७०।।
बाष्प शब्दे संयुक्तस्य हो भवति अश्रुण्यमिधेये । बाहो नेत्र जलम् ।। अश्रुणीति किम् ।। बप्फो ऊष्मा ।। अर्थः- यदि संस्कृत शब्द 'बाष्प' का अर्थ आंसूवाचक हो तो ऐसी स्थिति में 'बाष्प' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे:- बाष्प:- बाहो अर्थात् आंखो का पानी आंसू ।।
प्रश्न:- अश्रुवाचक स्थिति में ही 'बाष्प' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं; ऐसा क्यों कहा गया है ?
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 249 उत्तरः- संस्कृत शब्द 'बाष्प' के दो अर्थ होते हैं; प्रथम तो आंसू और द्वितीय भाप । तद्नुसार अर्थ-भिन्नता से रूप-भिन्नता भी हो जाती है। अतएव 'बाष्प' शब्द के आंसू अर्थ में प्राकृत रूप बाहा होता है और भाप अर्थ में प्राकृत रूप बप्फो होता है। यों रूप-भिन्नता समझाने के लिये ही संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' होता है ऐसा स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा है। यों तात्पर्य-विशेष को समझ लेना चाहिये। बाष्प: (आँसू) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बाहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७० से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बाहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वाष्पः' (भाप) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बप्फो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को प्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बप्फो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७० ।।
कार्षापणे ।। २- ७१॥
कार्षापणे संयुक्तस्य हो भवति ।। काहावणो ।। कथं कहावणो । ह्रस्वः संयोगे (१ - ८४ ) इति पूर्वमेव हस्वत्वे पश्चादादेशे । कर्षापण शब्दस्य वा भविष्यति ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'कार्षापण' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है । जैसे:- कार्षापण:- काहावणो ।।
प्रश्न:- प्राकृत रूप 'कहावणो' की प्राप्ति किस शब्द से होती है ?
उत्तरः- संस्कृत शब्द ‘कार्षापण' में सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होने से 'कहावणो' रूप बन जाता है। इसी प्रकार से 'कहावणो' रूप माना जाय तो प्राप्त हस्व स्वर 'आ' के स्थान पर पुनः 'आ' स्वर रूप आदेश की प्राप्ति हो जायेगी और काहावणो रूप सिद्ध हो जायेगा ।। अथवा मूल शब्द 'कर्षापण' माना जाय तो इसका प्राकृत रूपान्तर 'कहावणो' हो जायगा; यों 'कार्षापण ' 'काहावणो' और कर्षापण: से
'कहावणी' रूपों की स्वयमेव सिद्धि हो जायेगी।
'कार्षापण:' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत 'काहावणो' और 'कहावणो' होते हैं; इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७१ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'काहावणो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (कर्षापणः) 'कहावणा' में सूत्र संख्या १ - ८४ से 'का' में दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'कहावणो' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-७१।।
दुःख - दक्षिण- तीर्थे वा ।।
२-७२।।
एषु संयुक्तस्य हो वा भवति ।। दुहं दुक्खं । पर- दुक्खे दुक्ख विरला । दाहिणो दक्खिणो। तूहं तित्थं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'दुःख'; 'दक्षिण' और 'तीर्थ' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ख'; 'क्ष' और 'र्थ' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- दुःखम् दुहं अथवा दुक्खं ।। पर- दुःखे दुःखिताः विरलाः-पर- दुक्खे दुक्खि विरला ।। इस उदाहरण में संयुक्त व्यञ्जन 'खः' के स्थान पर वैकल्पिक स्थिति की दृष्टि से 'ह' रूप आदेश को प्राप्ति नहीं करके जिव्हा - मूलीय चिन्ह का लोप सूत्र संख्या २- ७७ से कर दिया है। शेष उदाहरण इस प्रकार है:- दक्षिण:-दाहिणा अथवा दक्खिणा || तीर्थम् - तूहं अथवा तित्थं । ।
'दुःखम् ' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुहं' और 'दुक्ख' होते हैं; इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २- ७२
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
250 : प्राकृत व्याकरण से संयुक्त व्यञ्जन (जिव्हा मूलीय चिन्ह सहित) ':ख' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति
न में अकारान्त नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'दुहं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (दुःखम् ) दुक्खं में सूत्र संख्या २-७७ से जिव्हा मूलीय चिन्ह ' :क्' का लोप; २-८९ से 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'दुक्खं भी सिद्ध हो जाता है।
'पर-दुःखे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पर-दुक्खे' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से जिव्हा मूलीय चिन्ह 'क' का लोप; २-८९ से 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति और ३-११ से मूल रूप 'दुक्ख' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पर-दुक्ख' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'दुःखिताः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुक्खिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से जिव्हा मूलीय चिन्ह ':क्' का लोप; २-८९ से 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से लुप्त 'त्' में से शेष रहे हुए (मूल रूप अकरांत होने से) हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'दुक्खिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ "विरलाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विरला' होता है। यह मूल शब्द 'विरल' होने से अकारांत है। इसमें सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग अकारान्त में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'विरला' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दाहिणो' और 'दक्खिणो' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १- ४५ में की गई है। 'तूह' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०४ में की गई है। "तित्थं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८४ में की गई है। ।। २-७२।।
कूष्माण्ड्यां ष्मो लस्तु ण्डो वा ॥ २-७३॥ कूष्माण्डयां ष्मा इत्येतस्य हो भवति। ण्ड इत्यस्य तु वा लो भवति ।। कोहली कोहण्डी।।
अर्थः- संस्कृत शब्द कूष्माण्डी में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ष्मा' के स्थान पर 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति होती है तथा द्वितीय संयुक्त व्यञ्जन ‘ण्ड' के स्थान पर विकल्प से 'ल' की प्राप्ति होती है। जैसे:-कूष्माण्डी-कोहली अथवा कोहण्डी।। वैकल्पिक पक्ष होने से प्रथम रूप में 'ण्ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति हुई है और द्वितीय रूप में 'ण्ड' का ‘ण्ड' ही रहा हुआ है। यों स्वरूप भेद जान लेना चाहिये।। कोहली और कोहण्डी रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२४ में की गई है। ।। २-७३।।
पक्ष्म-श्म-ष्म-स्म-हमां म्हः ।। २-७४।। पक्ष्म शब्द संबन्धिनः संयुक्तस्य श्मष्मस्मयां च मकाराक्रान्तो हकार आदेशो भवति।। पक्ष्मन्। पम्हाइं। पम्हल-लोअणा।। श्म। कुश्मानः। कुम्हाणो।। कश्मीराः। कम्हारा।। ष्म। ग्रीष्मःगिम्हो। ऊष्मा। उम्हा। स्म। अस्मादृशः। अम्हारिसो।। विस्मयः। विम्हओ।। ह्म ब्रह्मा-बम्हा।। सुझाः। सुम्हा।। वम्हणो। बह्मचे।। क्वचित् म्भोपि दृश्यते। बम्भणो। बम्भचेरं। सिम्भो। क्वचिन्न भवति। रश्मिः। रस्सी। स्मरः। सरो॥ - अर्थ:- संस्कृत शब्द 'पक्ष्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्म' के स्थान पर हलन्त 'म्' सहित 'ह' का अर्थात् 'म्ह' का
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 251
आदेश होता है। जैसे:-पक्ष्माणि पम्हाइं।। इसी प्रकार से यदि किसी संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' 'म'; 'स्म' अथवा 'म' रहा हुआ हो तो ऐसे संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में हलन्त व्यञ्जन 'म्' सहित 'ह' का अथात् 'म्ह' का आदेश हुआ करता है। 'क्ष्म' का उदाहरण:- पक्ष्मल-लोचना पम्हल-लोअणा।। 'श्म। उदाहरण:-कुश्मानः कुम्हाणो।। कश्मीराः कम्हारा।।'ष्म' के उदाहरणः ग्रीष्म गिम्हो।। ऊष्मा उम्हा।। 'स्म' के उदाहरणःअस्मादृशः अम्हारिसो।। विस्मयः विम्हओ।। 'झ' के उदाहरणः- ब्रह्मा: बम्हा।। सुह्मः समाः। ब्रह्मणः बम्हणो।। ब्रह्मचर्यम्-बम्हचे।। इत्यादि।। किसी किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन ‘ह्म' अथवा 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति नहीं होकर 'म्भ' की प्राप्ति होती हुई भी देखी जाती है। जैसे:-ब्राह्मण; बम्भणो।। ब्रह्मचर्यम्=बम्भचेरं।। श्लेष्मा-सिम्भो।। किसी किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' अथवा 'स्म' के स्थान पर न तो 'म्ह' की प्राप्ति होती है और न 'म्भ' की प्राप्ति ही होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- रश्मिः -रस्सी और स्मरः-सरो।। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।।
'पक्ष्माणिः' संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पम्हाइं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'णि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पम्हाइं" रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पक्ष्मल-लोचना' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पम्हल-लोअणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर 'पम्हल-लोअणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुश्मानः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुम्हाणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' के स्थान पर 'म्ह' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कुम्हाणो रूप सिद्ध हो जाता है।
'कम्हारा रूप' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०० में की गई है।
'ग्रीष्मः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिम्हो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त-पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गिम्हो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ऊष्मा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उम्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; और २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति होकर 'उम्हा' रूप सिद्ध हो जाता है।
अम्हारिसो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है।
"विस्मयः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विम्हओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'य्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर 'विम्हओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'ब्रह्मा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बम्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप और २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति होकर 'बम्हा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सुझाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुम्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन ‘ह्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सुम्हा' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
252 : प्राकृत व्याकरण 'बम्हणो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। ब्रह्मचेरं रूप की सिद्धि-सूत्र संख्या १-५९ में की गई है।
'ब्राह्मणः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (बम्हणो के अतिरिक्त) 'बम्भणो' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्म' के स्थान पर 'म्भ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बम्भणो' रूप की सिद्धि हो जाती है। ___ 'ब्रह्मचर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (बम्हचेरं के अतिरिक्त) 'बम्भचेर' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्म' के स्थान पर 'म्भ' आदेश की प्राप्ति; १-५९ से 'च' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'बम्भचेरं रूप की सिद्ध हो जाता है। __ श्लेष्मा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिम्भो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-८४ से दीर्घ स्वर (अ+इ)= ए के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्भ' आदेश की प्राप्ति; १-११ से संस्कृत मूल शब्द 'श्लेष्मन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में (प्राप्त रूप सिम्भ में)-'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिम्भो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रस्सी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।
'स्मरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'म्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७४॥
सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-ह्न हण-क्ष्णां ग्रहः ।। २–७५॥ सूक्ष्म शब्द संबन्धिनः संयुक्तस्य श्न-ष्ण-स्न-ह्र-ण-क्षणां च णकाराक्रान्तो हकार आदेशो भवति।। सूक्ष्म। सण्ह। श्न। पण्हो। सिण्हो।। ष्णा विण्हू। जिण्हू। कण्हो। उण्हीसं।। स्न। जोण्हा। ण्हाओ। पण्हुओ।। ह्न। वण्ही। जण्हू।। ह्ण। पुव्वण्हो। अवरोहो।। क्ष्ण। सुण्ह। तिण्ह।। विप्रकर्षे तु कृष्ण कृत्स्न शब्दयोः कसणो। कसिणो।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'सूक्ष्म' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्म' के स्थान पर 'ण' सहित 'ह' का अर्थात् ‘ण्ह' का
आदेश होता है। जैसे:- सूक्ष्मम्=सण्ह।। इसी प्रकार से जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'श्न', 'ष्ण'स्न'; 'ह्न'; 'ण', अथवा 'क्ष्ण' रहे हुए होते हैं; तो ऐसे संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर 'ण' सहित 'ह' का अर्थात् 'ह' का आदेश होता है। जैसे-'श्न' के उदाहरणः-प्रश्नः-पण्हो। शिश्नः सिण्हो।। 'ष्ण' के उदाहरणः- विष्णुः-विण्हू। जिष्णुः जिण्हू। कृष्णः कण्हो। उष्णीषम्:-उण्हीस।। स्न' के उदाहरणः- ज्योत्स्ना-जोण्हा। स्नातः=ण्हाओ। प्रस्तुतः-पण्हुओ। 'ह्न' के उदाहरण:- वह्नि==वण्ही जहनुः=जण्हू।। ण' के उदाहरणः-पूर्वाह्णः पुव्वण्हो। अपराह्णः अवरहो।। 'क्ष्ण' के उदाहरण-श्लक्ष्णम्-सण्ह। तीक्ष्णम्-तिण्ह।। ___ संस्कृत भाषा में कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जिनमें संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' अथवा 'स्न' रहा हुआ हो; तो भी प्राकृत रूपान्तर में ऐसे संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' अथवा 'स्न' के स्थान पर इस सूत्र संख्या २-७५ से प्राप्तव्य ‘ण्ह' आदेश की प्राप्ति नहीं होती है। इसका कारण प्राकृत रूप का उच्चारण करते समय 'विप्रकर्ष स्थिति है। व्याकरण में 'विप्रकर्ष' स्थिति उसे कहते हैं; जबकि शब्दों का उच्चारण करते समय अक्षरों के मध्य में 'अ' अथवा 'इ' अथवा 'उ' स्वरों में से किसी एक स्वर का 'आगम' हो जाता हो; एवं ऐसे आगम रूप स्वर की प्राप्ति हो जाने से बोला जाने वाला वह शब्द अपेक्षाकृत कुछ
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 253
अधिक लम्बा हो जाता है; इससे उस शब्द रूप के निर्माण में ही कई एक विशेषताएं प्राप्त हो जाती है; तदनुसार उसकी साधनिका में भी अधिकृत-सूत्रों के स्थान पर अन्य ही सूत्र कार्य करने लग जाते हैं। 'विप्रकर्ष' पारिभाषिक शब्द के एकार्थक शब्द 'स्वरभक्ति' अथवा 'विश्लेष' भी हैं। इस प्रकार उच्चारण की दीर्घता से खिंचाव से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है इसीलिये संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' अथवा 'स्न' के स्थान पर कभी-कभी 'ह' की प्राप्ति नहीं होती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- कृष्णः कसणो और कृत्स्नः कसिणो।। ऐसी स्थिति के उदाहरण अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।।
सण्ह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११८ में की गई है। पण्हो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।
"शिश्न :' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिण्हो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से प्रथम 'श' का 'स'; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'थ्रन' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिण्हा' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विण्हू' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८५ में की गई है।
"जिष्णुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जिण्हू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति दददके एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'जिण्हू रूप सिद्ध हो जाता है।
'कृष्णः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कण्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जत 'ष्ण' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कण्हो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उष्णीषम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उण्हीसं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' के स्थान पर 'ह' का आदेश; १-२६० से 'ष' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उण्हीसं रूप सिद्ध हो जाता है। __'ज्योत्स्ना' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जोण्हा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; २-७७ से 'त्' का लोप; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्न' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति होकर 'जोण्हा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्नातः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्न' के स्थान पर 'व्ह' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से त् का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रस्तुतः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पण्हुओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से'' का लोप; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्न' के स्थान पर पह' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पण्हुओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वह्निः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वण्ही' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'वण्ही' रूप सिद्ध हो जाता है। __'जहनुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जण्हू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'हन' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर 'जण्हू रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुव्वण्हो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
254 : प्राकृत व्याकरण
__ 'अपराणः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अवरण्हो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर ‘ण्ह' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अवरण्हो' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'श्लक्ष्णम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सह' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्ण' के स्थान पर 'ण्ह' आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सण्ह रूप सिद्ध हो जाता है।
'तीक्ष्णम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप "तिण्ह होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्ण' के स्थान पर 'ण्ह' आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तिण्ह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कृष्णः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कसणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-११० से हलन्त 'ए' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कसणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कृत्स्नः ' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'कसिणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २–७७ से 'त्' का लोप; २-१०४ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कसिणो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७५।।
हलो ल्हः ॥२-७६॥ लः स्थाने लकाराक्रान्तो हकारो भवति।। कल्हारं। पल्हाओ।।
अर्थः- जिस संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'ल' रहा हुआ होता है; तो प्राकृत रूपान्तर में उस सयुंक्त व्यञ्जन 'ल' के स्थान पर हलन्त 'ल' सहित 'ह' अर्थात् 'ल्ह' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसेः- कलारम्=कल्हारं और प्रह्लादः पल्हाओ।। _ 'कहलारम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कल्हार' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ल' के स्थान पर 'ल्ह' आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कल्हार' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रहलादः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पल्हाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से'' का लोप; २-७६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ल' के स्थान पर 'ल्ह' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पल्हाओ रूप सिद्ध हो जाता है।।२-७६।।
क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स--क-पामूर्ध्वं लुक् ।। २-७७।। एषां संयुक्त वर्ण संबन्धिनामूर्ध्व स्थितानां लुग् भवति।। क्। भुत्त। सित्थं।। ग्। दुद्ध। मुद्ध।। ट। षट्पदः। छप्पओ।। कट्फलम्। कप्फलं।। ड्। खड्गः। खग्गो।। षड्जः। सज्जो। त। उप्पल। उप्पओ।। द्। मद्गुः। मग्गू।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 255 मोग्गरो ।। प्। सुत्तो । गुत्तो ।। रा । लण्हं । णिच्चलो । चुअइ ।। ष् । गोट्टी । छट्टो । निठुरो ।। स् । खलिओ । नेहो ॥ क्। दुखम्। दुक्खं। प्। अंत-पातः । अंतप्पाओ।।
अर्थः- किसी संस्कृत शब्द में यदि हलन्त रूप से 'क्, ग्, ट्, ड्, त्, द्, प्, श्, ष् स्, जिव्हामूलीयक, और उप मानी' में से कोई भी वर्ण अन्य किसी वर्ण के साथ में पहले रहा हुआ हो तो ऐसे पूर्वस्थ और हलन्त वर्ण का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। जैसे:- 'क्' के लोप के उदाहरण- भुक्तम् = भुत्तं और सिक्थम् = सित्थं । । ' ग्' के लोप के उदाहरण:-दुग्धम्=दुद्धं और मुग्धम् = मुद्धं । 'ट्' के लोप के उदाहरण: - षट्पदः - छप्पओ और कट्फलम् -कप्फलं।। ‘ड्' के लोप के उदाहरण:- खड्ग :- खग्गो और षड्जः = सज्जो । 'त्' के लोप के उदाहरण:- उत्पलम् - उप्पलं और उत्पातः-उप्पाओ।। 'द्' के लोप के उदाहरणः- मद्गुः- मग्गू और मुद्गरः = मोग्गरो ।। 'प' के लोप के उदाहरण:- सुप्तः = सुत्तो और गुप्तः - गुत्तो ।। 'श' के लोप के उदाहरण :- श्लक्ष्णम्-लण्हं; निश्चलः - णिच्चलो और रचुतते- चुअइ || 'ष्' के लोप के उदाहरण:गोष्ठी-गोट्टी; षष्ठः-छट्टो और निष्ठुरः न्टिठुरो ।। 'स्' के लोप के उदाहरण:- स्खलितः - खलिओ और स्नेह : - नेहो ।। " ४ क्" के लोप का उदाहरण :- दुखम् - दुक्खं और '४ प्' के लोप का उदाहरण:- अंत पातः = अंतप्पाओ।। इत्यादि अन्य उदाहरणों में भी उपरोक्त हलन्त एवं पूर्व स्ववर्णों के लोप होने के स्वरूप को समझ लेना चाहिये ।।
'भुक्तम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भुत्त' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'क्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'भुत्त' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सिक्थम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सित्थं होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'क्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष 'थ' को द्वित्व ' थ्थ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' थ्' को 'त्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सित्थं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुग्धम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुद्ध' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'ग्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व ' ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व' ध्' को 'द्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दुद्ध' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मुग्धम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुद्ध' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'ग्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व ' ध्ध' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' ध्' को 'द्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मुद्ध' रूप सिद्ध हो जाता है।
छप्पओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६५ में की गई है।
'कट्फलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कप्फलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'ट्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'पू' की प्राप्ति; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कप्फलं रूप सिद्ध 'खग्गो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ३४ में की गई है।
जाता है।
'षड्जः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सज्जा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'ष' का 'स'; २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'इ' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सज्जा' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
256 : प्राकृत व्याकरण
'उत्पलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उप्पलं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'त्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उप्पल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उत्पातः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उप्पाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'त् वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उप्पाआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मद्गुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मग्गू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'द्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'ग' वर्ण को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'मग्गू रूप सिद्ध हो जाता है।
'मोग्गरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १–११६ में की गई है।
'सुप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'प' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' वर्ण को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सुत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गुप्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गुत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'प्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' वर्ण को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गुत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्लक्ष्णम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लण्ह' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'श' का लोप; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्ण' के स्थान पर 'ण्ह' आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'लण्हं रूप सिद्ध हो जाता है।
"निश्चलः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिच्चलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'श् वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'च' वर्ण को द्वित्व'च्च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णिच्चलो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'श्चुतते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चुअइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'श' वर्ण का लोप; १-१७७ से प्रथम 'त्' का लोप और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'चुअई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गोष्ठी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गोट्ठी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'ष्' वर्ण का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'ठ' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति होकर 'गोट्ठी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छट्टो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६४ में की गई है। 'निठुरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५४ में की गई है। 'स्खलितः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खलिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 257 हलन्त 'स्' वर्ण का लोप; १-१७७ से 'त्त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खलिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्नेहः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नेहो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'स्' वर्ण का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नेहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुक्खं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७२ में की गई है।
'अंत-पातः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अंतप्पाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त उपध्मानीय वर्ण चिह्न का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'प' वर्ण को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अंतप्पाओ' रूप की सिद्धि हो जाती है।।२-७७।।
अधो मनयाम् ॥२-७८॥ मनयां संयुक्तस्याधो वर्तमानानां लुग् भवति।। म। जुग्गं। रस्सी। सरो। सेरं।। न। नग्गो।। लग्गो। या सामा। कुड्। वाहो ।
अर्थः- यदि किसी संस्कृत शब्द में 'म','न' अथवा 'य' हलन्त व्यञ्जन वर्ण के आगे संयुक्त रूप से रहे हुए हों तो इनका लोप हो जाता है। जैसे-'म' वर्ण के लोप के उदाहरण:-युग्मम्-जुग्ग।। रश्मिः -रस्सी।। स्मरः-सरो और स्मेरम् से।। 'न' वर्ण के लोप के उदाहरणः- नग्नः नग्गो और लग्नः लग्गो।। 'य' वर्ण के लोप के उदाहरणः- श्यामा सामा। कुड्यम्=कुड्डः और व्याधः-वाहो।।
"जुग्गं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-६२ में की गई है। 'रस्सी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है। 'सरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७४ में की गई है।
'स्मेरम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सेरं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'म्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग. में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सरं रूप सिद्ध हो जाता है।
'नग्नः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नग्गो' होता है। इसमें सत्र संख्या २-७८ से द्वितीय 'न' का लोप: २-८९ से शेष रहे हए 'ग' को द्वित्व 'गग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'लग्नः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लग्गा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सामा' रूप की सिद्धि सत्र संख्या १-२६० में की गई है।
'कुड्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुड्ड' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'ड' को द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कुड्ड' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'व्याधः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वाहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वाहो' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-७८||
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
258 : प्राकृत व्याकरण
सर्वत्र ल-ब-रामवन्द्रे ।। २-७९।। वन्द्र शब्दादन्यत्र लबरां सर्वत्र संयुक्तस्योर्ध्वमधश्च स्थितानां लुग् भवति।। ऊर्ध्व। ल। उल्का। उक्का।। वल्कलम्। वक्कलं।। ब। शब्दः। सद्दो। अब्दः। अद्दो।। लुब्धकः। लोद्धओ।। । अर्कः। अक्को। वर्गः। वग्गो। अधः। श्लक्षणम्। सण्ह। विक्लवः। विक्कवो।। पक्कम्। पक्कं पिक्क।। ध्वस्त। धत्थो।। चक्रम्। चक्क। ग्रहः। गहो।। रात्रिः। रत्ती।। अत्र द्व इत्यादि संयुक्तानामुभयप्राप्तो यथा दर्शनं लोपः।। क्वचिदूर्ध्वम्। उद्विग्नः। उव्विग्गो।। द्विगुणः। वि-उणो। द्वितीयः। बीओ। कल्मषम्। कम्मसं। सर्वम्। सव्वं। शुल्बम्। सुव्बं। क्वचित्त्वधः। काव्यम्। कव्वं। कुल्या। कुल्ला।। माल्यम्। मल्लं।। द्विपः। दिओ।। द्विजातिः। दुआई। क्वचित्पर्यायेण। द्वारम्। बारं। दारं।। उद्विग्नः। उव्विग्गो। उव्विण्णो।। अवन्द्र इति किम्। वन्द्र। संस्कृतसमोयं प्राकृत शब्दः। अत्रोत्तरेण विकल्पोपि न भवति निषेध सामर्थ्यात्।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'वन्द्र को छोड़कर के अन्य किसी संस्कृत शब्द में 'ल' 'ब'-(अथवा व्) और 'र' संयुक्त रूप-से हलन्त रूप से-अन्यवर्ण के पूर्व में अथवा पश्चात् अथवा ऊपर, कहीं पर भी रहे हुए हों तो इन का लोप हो जाया करता है। वर्ण के पूर्व में स्थित हलन्त 'ल' 'ब' और 'र' के लोप होने के उदाहरण इस प्रकार हैं:- सर्वप्रथम 'ल' के उदाहरणः- उल्का-उक्का और वल्कलम् वक्कलं।। 'ब' के लोप के उदाहरणः- शब्द: सद्दो और लुब्धकः-लोद्धओ।। 'र' के लोप के उदाहरण अर्कः अक्को और वर्गः-वग्गो।। वर्ण के पश्चात् स्थित संयुक्त एवं हलन्त 'ल्' 'ब' और 'र' के लोप होने के उदाहरण इस प्रकार हैं:- सर्वप्रथम 'ल' के उदाहरणः श्लक्ष्णम्=सण्हं; विक्लवः विक्कवो।।'' के लोप के उदाहरणः पक्वम्-पक्कं अथवा पिक्क। ध्वस्तः धत्थो।। ' के लोप के उदाहरणः चक्रम्-चक्क; ग्रहः=गहो और रात्रिः-रत्ती।। __ जिन संस्कृत शब्दों में ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता हो कि उनमें रहे हुए दो हलन्त व्यञ्जनों के लोप होने का एक साथ ही संयोग पैदा हो जाता हो तो ऐसी स्थिति में 'उदाहरण में जिसका लोप होना बतलाया गया हो-दिखलाया गया हो-उस हलन्त व्यञ्जन का लोप किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में कभी-कभी व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए संयुक्त हलन्त व्यञ्जन का लोप हो जाता है। कभी-कभी व्यञ्जन के पश्चात् रहे हुए संयुक्त हलन्त व्यञ्जन का लोप होता है। कभी-कभी उन लोप होने वाले दोनों व्यञ्जनों का लोप क्रम से एवं पर्याय से भी होता है; यों पर्याय से-क्रम से-लोप होने के कारण से उन संस्कृत शब्दों के प्राकृत में दो-दो रूप हो जाया करते हैं। उपरोक्त विवेचन के उदाहरण इस प्रकार हैं:- लोप होने वाले दो व्यञ्जनों में से पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द्' के लोप के उदाहरण:-उद्विग्नः उव्विग्गो, द्विगुणः-वि-उणो।। द्वितीयः=बीओ। लोप होने वाले दो व्यञ्जनों में
ओ। लोप होने वाले दो व्यञ्जनों में से पर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ल' के लोप का उदाहरण:कल्मषम्-कम्मसं।। इसी प्रकार से 'र' के लोप का उदाहरणः- सर्वम् सव्वं।। पुनः 'ल' का उदाहरणः-शुल्बम् सुब्ब।। लोप होने वाले दो व्यञ्जनों में से पश्चात स्थित हलन्त व्यञ्जन के लोप होने के उदाहरण इस प्रकार हैं; 'य' के लोप होने के उदाहरणः-काव्यम्=कव्वं।। कुल्या कुल्ला और माल्यम्=मल्ल।। 'व' के लोप होने के उदाहरण:- द्विपः-दिओ और द्विजातिः दुआई।। लोप होने वाले दो व्यञ्जनों में से दोनों व्यञ्जनों का जिन शब्दों में पर्याय से लोप होता है; ऐसे उदाहरण इस प्रकार हैं:-द्वारम्बारं अथवा दारं। इस उदाहरण में लोप होने योग्य 'द' और 'व' दोनों व्यञ्जनों को पर्याय से-क्रम से दोनों प्राकृत रूपों में लुप्त होते हुए दिखलाये गये हैं, इसी प्रकार से एक उदाहरण और दिया जाता है:-उद्विग्नः उव्विग्गो और उविण्णो। इस उदाहरण में लोप होने योग्य 'ग्' और 'न्' दोनों व्यञ्जनों को पर्याय से-क्रम से-दोनों प्राकृत रूपों में लुप्त होते हुए दिखलाये गये हैं। यों अन्य उदाहरणों में भी लोप होने योग्य दोनों व्यञ्जनों की लोप-स्थिति समझ लेना चाहिये।
प्रश्नः- 'वन्द्र' में स्थित संयुक्त और हलन्त 'द्' एवं 'र' के लोप होने का निषेध क्यों किया गया है?
उत्तरः- संस्कृत शब्द 'वन्द्र' जैसा है; वैसा ही रूप प्राकृत में भी होता है; किसी भी प्रकार का वर्ण-विकार, लोप, आगम, आदेश अथवा द्वित्व आदि कुछ भी परिवर्तन प्राकृत-रूप में जब नहीं होता है; तो ऐसी स्थिति में 'जैसा-संस्कृत में वैसा प्राकृत में होने से उसमें स्थित 'द्' अथवा 'र' के लोप का निषेध किया गया है और वृत्ति में यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि-यह प्राकृत शब्द 'वन्द्र' संस्कृत शब्द 'वन्द्रम्' के समान ही होता है।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 259
'वन्द्रम्' शब्द के सम्बन्ध में यदि अन्य प्रश्न भी किया जाय तो भी, उत्तर वही दिया जाय; ऐसा दूसरा कोई रूप पाया नहीं जाता हैं; क्योंकि मूल-सूत्र में ही निषेध कर दिया गया है कि 'वन्द्रम' में स्थित हलन्त एवं संयुक्त 'द्' तथा 'र्' का लोप नहीं होता है इस प्रकार निषेध - आज्ञा की प्रवृत्ति कर देने से - (निषेध सामर्थ्य के उपस्थित होने से ) किसी भी प्रकार का कोई भी वर्णविकार संबंधी नियम 'वन्द्रम' के संबंध में लागू नहीं पड़ता है।
‘उल्काः— संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उक्का' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'ल' का लोप और २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति होकर 'उक्का' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वल्कलम्' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'वक्कल होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से प्रथम 'लू' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वक्कल' रूप सिद्ध हो जाता है।
' सद्दों' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६० में की गई है।
'अब्द:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अद्दा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अद्दों' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लोद्धओं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११६ में की गई है। 'अक्को' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है। 'वग्गो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है।
'सह' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २- ७५ में की गई है।
'विक्लवः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विक्कवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'लू' का लोप; २-८९ से शेष ‘क्' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विक्कवो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पक्क' और 'पिक्क' दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १- ४७ में की गई है।
'ध्वस्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धत्थो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'व' का लोप; २- ४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ्' को द्वित्व 'थ् थ' की प्राप्ति ; २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' थ्' को 'त्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धत्थों' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चक्रम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चक्क' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'चक्क' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ग्रहः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रात्रि:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रत्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ७९ 'त्र' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'तू' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'रत्ती' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
260 : प्राकृत व्याकरण ___ 'उद्विग्नः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उव्विग्गों होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व 'व्व की प्राप्ति; २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उव्विग्गो रूप सिद्ध हो जाता है।
"द्विगुणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वि-उणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; १-१७७ से 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
'बीओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५ में की गई है।
'कल्मषम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कम्मर्स होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'म' को द्वित्व 'मम' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' को 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कम्मस' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सव्वं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'शुल्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुवं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स्'; २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुव्वं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'काव्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कव्वं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व'व्व की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।
"कुल्या संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुल्ला' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप और २-८९ से शेष 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर कुल्ला' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'माल्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मल्ल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मल्ल रूप सिद्ध हो जाता है।
"दिओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९४ में की गई है। 'दुआई रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९४ में की गई है। 'बार और 'दार दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७९ में की गई है।
'उद्विग्नः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उव्विग्गो' और 'उव्विण्णो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप उव्विग्गा की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से शेष 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति; १-२२८ से दोनों 'न' के स्थान पर 'पण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उव्विण्णो रूप सिद्ध हो जाता है।
'वन्द्र रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५३ में की गई है। ।। २-७९।।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 261
द्रे रो न वा ।। २-८०॥ द्रशब्दे रेफस्य वा लुग् भवति।। चन्दो चन्द्रो। रुद्दो रुद्रो। भदं भद्र। समुद्दो समुद्रो।। हृदशब्दस्य स्थितिपरिवृत्ती द्रह इति रूपम्। तत्र द्रहो दहो। केचिद् रलोपं नेच्छन्ति। द्रह शब्दमपि कश्चित् संस्कृत मन्यते।। वोद्रहायस्तु तरूणपुरुषादिवाचका नित्यं रेफसंयुक्ता देश्या एव। सिक्खन्तु वोद्रहीओ। वोद्रह-द्रहम्मि पडिआ।। __अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'द्र' होता है; उनके प्राकृत-रूपान्तर में 'द्र' में स्थित रेफ रूप 'र' का विकल्प से लोप होता है। जैसे:-चन्द्रः-चन्दो अथवा चन्द्रो।। रूद्रः रूद्दो अथवा रूद्रो।। भद्रम् भदं अथवा भद्र।। समुद्रः समुद्दो अथवा समुद्रो।। संस्कृत शब्द 'हृद' के स्थान पर वर्णो का परस्पर में व्यत्यय अर्थात् अदला बदली होकर प्राकृत रूप 'द्रह' बन जाता है। इस वर्ण-व्यत्यय से उत्पन्न होने वाली अवस्था की स्थिति-परिवृत्ति' भी कहते हैं। इसलिये संस्कृत रूप 'हृदः' के प्राकृत रूप द्रहो अथवा दहो दोनों होते हैं। कोई-कोई प्राकृत व्याकरण के आचार्य 'द्रह' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप होना नहीं मानते हैं; उनके मतानुसार संस्कृत रूप 'हृदः' का प्राकृत रूप केवल 'द्रहो' ही होगा; द्वितीय रूप 'दहो' नहीं बनेगा। कोई कोई आचार्य 'द्रह' शब्द को प्राकृत नहीं मानते हुए संस्कृत शब्द के रूप में ही स्वीकार करते हैं। इनके मत से 'द्रहो' और 'दहो' दोनों रूप प्राकृत में होंगे। 'वोद्रह' शब्द देशज-भाषा का है और यह 'तरूण-पुरुष' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसमें स्थित रेफ 'रूप' 'र' का कभी भी लोप नहीं होता है। 'वोद्रह' पुल्लिंग है और 'वोद्रही स्त्रीलिंग बन जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- शिक्षन्ताम् तरूणयः सिक्खन्तु-वोद्रहीओ अर्थात् नवयुवती स्त्रियां शिक्षाग्रहण करें। तरूण-हदे पतिता-वोद्रह द्रहम्मि पडिआ अर्थात् वह (नवयुवती) तरूण पुरुष रूपी तालाब में गिर पड़ी। (तरूण पुरुष के प्रेम में आसक्त हो गई)। यहाँ पर 'वोद्रह' शब्द का उल्लेख इसलिये करना पड़ा कि यह देशज है; न संस्कृत भाषा का है और न प्राकृत भाषा का है तथा इसमें स्थित रेफ रूप 'र' का लोप भी कभी नहीं होता है। अतः सूत्र संख्या २-८० के सम्बन्ध से अथवा विधान से यह शब्द मुक्त है; इसी तात्पर्य को समझाने के लिये इस शब्द की चर्चा सूत्र की वृत्ति में की गई है; जो कि ध्यान में रखने योग्य है।।
चन्दो और चन्द्रो दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-३० में की गई है। 'रुद्र: संस्कत रूप है। इसके प्राकत रूप'रूहो और 'रूद्रों होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र सं
संख्या २-८० से रेफ रूप द्वितीय'र'का विकल्प से लोपः २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'रूद्दो रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (रूद्रः) 'रूद्रों में सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'रूद्रो' भी सिद्ध हो जाता है। ___ 'भद्रम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भई और 'भद्र होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८० से रेफ रूप'र' का लोप; २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व '६' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'भई सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (भ ) 'भद्र की साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र संख्या ३-२५ और १-२३ के विधानानुसार जान लेना चाहिये।
'समुद्रः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'समुद्दों' और 'समुद्रो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८० से रेफ रूप 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'द्' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समुद्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (समुद्रः=) 'समुद्रो' की साधनिका सूत्र संख्या ३-२ के विधानानुसार जान लेना चाहिये। 'द्रहः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'द्रहों और 'दहा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-८० से रेफ रूप 'र' का
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
262 : प्राकृत व्याकरण
विकल्प से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'द्रहों' और 'दहो' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'शिक्षन्ताम् संस्कृत विधिलिंगात्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिक्खन्तु होता है। इसमें से सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख् को क्' की प्राप्ति; ३-१७६ से संस्कृत विधि लिंगात्मक प्रत्यय 'न्ताम्' के स्थान पर प्रथम पुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'न्तु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिक्खन्त रूप सिद्ध हो जाता है।
'तरूण्यः संस्कृत रूप है। इसके स्थान पर देशज-भाषा में परम्परा से रूढ़ शब्द 'वोद्रहीओ' प्रयुक्त होता आया है। इसका पुल्लिंग रूप 'वोद्रह' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-३१ से पुल्लिंग से स्त्रीलिंग रूप बनाने में प्राप्त 'ई' प्रत्यय से 'वोद्रही रूप की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वोद्रहीओं रूप सिद्ध हो जाता है।
'तरुण संस्कृत शब्द है। इसका देशज भाषा में रूढ़ रूप 'वोद्रह होता है। यहां पर समासात्मक वाक्य में आया हुआ है, अतः इसमें स्थित विभक्ति-प्रत्यय का लोप हो गया है। __ 'हदे ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'द्रहम्मि' होता है। इसमें से सूत्र संख्या २-१२० से 'ह' और 'द' का परस्पर में व्यत्यय; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संयुक्त प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'द्रहम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
'पतिता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पडिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१९ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; और १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप होकर 'पडिआ रूप सिद्ध हो जाता है।। २-८०।।
धात्र्याम् ।। २-८१॥ धात्री शब्दे रस्य लुग् वा भवति।। धत्ती। हस्वात् प्रागेव रलोपे धाई। पक्षे। धारी॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'धात्री' में रहे हुए 'र' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप होता है। धात्री धत्ती अथवा धारी।। आदि दीर्घ स्वर 'आ' के हस्व नहीं होने की हालत में और साथ में 'र' का लोप होने पर संस्कृत रूप 'धात्री' का प्राकृत में तीसरा रूप धाई भी होता है। यों संस्कृत रूप धात्री के प्राकृत में तीन रूप हो जाते हैं, जो कि इस प्रकार है:धत्ती, धाई और धारी।। _ 'धात्री संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'धत्ती', 'धाई और 'धारी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-८१ से 'र' का (वैकल्पिक रूप से) लोप; और २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'धत्ती' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (धात्री-) 'धाई में सूत्र संख्या २-८१ से (वैकल्पिक रूप से) 'र' का लोप और २-७७ से 'त्' का लोप होकर द्वितीय रूप 'धाई भी सिद्ध हो जाता है। ___ तृतीय रूप (धात्री=) 'धारी में सूत्र संख्या २-७७ से 'त्' का लोप होकर तृतीय रूप 'धारी' भी सिद्ध हो जाता है।। २-८१।।
तीक्ष्णे णः ।। २-८२॥ तीक्ष्ण शब्दे णस्य लुग् वा भवति।। तिक्खं। तिण्हं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द तीक्ष्ण में रहे हुए 'ण' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप हुआ करता है। जैसे:- तीक्ष्णम्-तिक्खं अथवा तिण्ह।।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 263
'तीक्ष्णम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तिक्खं और 'तिण्ह होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-८२ से 'ण' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'तिक्खं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप तिण्हं की सिद्धि सूत्र संख्या २-७५ में की गई है। । २-८२।।
ज्ञोबः ।। २-८३॥ ज्ञः संबन्धिनो बस्य लुग् वा भवति।। जाणं णाण। सव्वज्जो सव्वण्णू। अप्पज्जो अप्पण्णू। दइवज्जो दइवण्णू। इंगिअज्जो। इंगिअण्णू। मणोज्जी मणोण्ण। अहिज्जो अहिण्णू। पज्जा पण्णा। अज्जा आणा। संजा सण्णा।। क्वचिन्न भवति विण्णाणं॥ ____ अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' होता है; तब प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित 'ब' व्यञ्जन का विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे:-ज्ञानम्-जाणं अथवा णाणं। सर्वज्ञः सव्वज्जो अथवा सव्वण्णू।। आत्मज्ञः अप्पज्जो अथवा अप्पण्णू।। दैवज्ञः दइवज्जो अथवा दइवण्णू। इंगितज्ञ-इंगिअज्जो अथवा इंगिअण्णू।। मनोज्ञम्=मणोज्ज अथवा मणोण्णं। अभिज्ञः अहिज्जो अथवा अहिण्णू। प्रज्ञा-पज्जा अथवा पण्णा। आज्ञा अज्जा अथवा आणा।। संज्ञा-संजा अथवा सण्णा।। किसी किसी शब्द में स्थित 'ज्ञ' व्यञ्जन में सम्मिलित 'ब' व्यञ्जन का लोप नहीं होता है। जैसे:-विज्ञान-विण्णाणं। इस उदाहरण में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' की परिणति के अन्य नियमानुसार 'ण' में हो गई है। किन्तु सूत्र संख्या २-८२ के अनुसार लोप अवस्था नहीं प्राप्त हुई है।। ___ 'ज्ञानम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत-रूप 'जाण और 'णार्ण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित 'अ' व्यञ्जन का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'जाण' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'णाणं' की सिद्धि सूत्र संख्या २-४२ में की गई है। 'सव्वज्जो' और 'सव्वण्णू दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५६ में की है।
'आत्मज्ञः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अप्पज्जा' और 'अप्पण्णू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब्' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अप्पज्जा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (आत्मज्ञः=) अप्पण्णू में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; १-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अप्पण्णू भी सिद्ध हो जाता है।
'देवज्ञः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दइवज्जा' और 'दइवण्णू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
264 : प्राकृत व्याकरण
१-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' आदेश की प्राप्ति; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'अ' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दइवज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप (देवज्ञः=) 'दइवण्णू' में सूत्र संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' आदेश की प्राप्ति; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व ‘ण्ण' की प्राप्ति; १-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दइवण्णू' सिद्ध हो जाता है।
'इंगितज्ञः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इंगिअज्जो' और 'इंगिअण्णू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व ‘ज्ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'इंगिअज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (इंगितज्ञः-) 'इंगिअण्णू में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति १-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'इंगिअण्णू' सिद्ध हो जाता है।
"मनोज्ञम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मणोज और 'मणोण्ण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन '' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'मणोज सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (मनोज्ञम्= ) 'मणोण्ण में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'मणोण्ण भी सिद्ध हो जाता है।
अहिज्जो और अहिण्णू रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५६ में की गई है। 'प्रज्ञा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पज्जा' और 'पण्णा ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन '' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पज्जा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पण्णा की सिद्धि सूत्र संख्या २-४२ में की गई है।
आज्ञा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अज्जा' और 'आणा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त् व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित '' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व ‘ज्ज' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अज्जा सिद्ध हो जाता है। .
द्वितीय रूप (आज्ञा-) आणा में सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'आणा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'संज्ञा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'संजा' और 'सण्णा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' का लोप होकर प्रथम रूप 'संजा' सिद्ध हो जाता है।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय रूप सण्णा की सिद्धि सूत्र संख्या २- ४२ में की गई है। विण्णाणं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २- ४२ में की गई है। । २-८३।।
मध्याह्ने हः ।। २-८४॥
मध्याह्ने हस्य लुग् वा भवति ।। मज्झन्नो मज्झण्हो ||
अर्थः- संस्कृत शब्द 'मध्याह्न' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से 'ह' का लोप होकर 'न' शेष रहता है। जैसे:- मध्याह्नः = मज्झन्नो अथवा मज्झण्हो।। वैकल्पिक पक्ष होने से प्रथम रूप में 'न' के स्थान पर 'न' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में 'न' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति हुई है।
'मध्याह्न': संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मज्झन्नो' और 'मज्झण्हों' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'झू' को 'ज्' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-८४ से संयुक्त व्यञ्जन 'हन' में से 'ह' का विकल्प से लोप; २-८९ से शेष 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गज्झन्नों' सिद्ध हो जाता है।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 265
द्वितीय रूप (मध्यान्ह्नः=) 'मज्झहा' में 'मज्झ' तक की साधनिका प्रथम रूप के समान ही; तथा आगे सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मज्झण्हा' भी सिद्ध हो जाता है । । २-८४ ।।
दशा ।। २-८५ ।। पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम्। दशार्हे हस्य लुग् भवति ।। दसारो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द ‘दशाह' में स्थित 'दश' और 'अर्ह' शब्दों का पृथक्-पृथक् अर्थ नहीं करते हुए तथा इसको एक ही अर्थ-वाचक शब्द मानते हुए इसका 'बहुब्रीहि समास' में विशेष अर्थ स्वीकार किया जाय तो 'दशाह' में स्थित 'ह' व्यञ्जन का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता हैं। जैसे:- दशार्हः-दसारो अर्थात् यादव - विशेष ।
'दशाह:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'दसारों' होता है। इसमें से सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; २-८५ से 'ह' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दसारो' रूप सिद्ध हो जाता है । । २-८५ ।।
आदेः
: श्मश्रु - श्मशाने ।। २-८६।।
अनयोरादेर्लुग् भवति।। मासू मंसू मस्सू । मसाणं ।। आर्षे श्मशान - शब्दस्य सीआणं सुसामित्यपि भवति।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'श्मश्रु' और 'श्मशान' में आदि 'श्' व्यञ्जन का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है। जैसे:श्मश्रुः-मासू अथवा मंसू अथवा मस्सू ।। श्मशानम् - मसाणं | | आर्ष- प्राकृत में ' श्मशान' शब्द के दो अन्य रूप और भी पाये जाते हैं; जो कि इस प्रकार है:- श्मशानम्-सीआणं और सुसा ।।
'श्मश्रुः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मासू', 'मंसू' और 'मस्सू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८६ से आदि में स्थित ‘श्' व्यञ्जन का लोप; १-४३ से 'म' में स्थित हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; २-७९ से ‘र्' का लोप; १-२६० से 'र्' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'श्' को 'स' की प्राप्ति और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मासू' सिद्ध हो जाता है।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
266 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप 'मंसू' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६ में की गई है।
तृतीय रूप-(श्मश्रुः= ) 'मस्सू' में सूत्र संख्या २-८६ से आदि में स्थित 'श् व्यञ्जन का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'र' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'श्' को 'स्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व ‘स्स्' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'मस्सू भी सिद्ध हो जाता है।
'श्मशानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मसाण होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-८६ से आदि में स्थित 'श्' व्यञ्जन का लोपः १-२६० से 'द्वितीय 'श' का 'स': १-२२८ से 'न' का 'ण': ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
आकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मसाण रूप सिद्ध हो जाता है।
आर्ष-प्राकृत में 'श्मशानम्' के 'सीआणं' और 'सुसाणं' दोनों रूप होते हैं; इनकी साधनिका प्राकृत-नियमों के अनुसार नहीं होती है इसीलिये ये आर्ष-रूप कहलाते हैं। २-८६।।
श्चो हरिश्चन्द्रे ॥ २-८७॥ हरिश्चन्द्रशब्दे श्च इत्यस्य लुग् भवति।। हरिअन्दो।।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'हरिश्चन्द्र' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'श्च' का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। जैसे:हरिश्चन्द्रः हरिअन्दो।।
'हरिश्चन्द्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हरिअन्दा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-८७ से संयुक्त व्यञ्जन 'श्च' का लोप; २-८० से 'द्र' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हरिअन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
रात्रौ वा ।। २-८८॥ रात्रिशब्दे संयुक्तस्य लुग् वा भवति।। राई रत्ती।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'रात्रि' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन '' का विकल्प से प्राकृत रूपान्तर में लोप होता है। जैसे:रात्रि: राई अथवा रत्ती।।
'रात्रि: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'राई' और 'रत्ती होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्र' का विकल्प से लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'राई सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(रात्रि:= ) 'रत्ती' की सिद्धि सूत्र संख्या २-७९ में की गई है।।२-८८।।
अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् ।। २-८९॥ पदस्यानादौ वर्तमानस्य शेषस्यादेशस्य च द्वित्वं भवति।। शेष। कप्पतरू। भुत्त। दुद्ध। नग्गो। उक्का। अक्को। मुक्खो। आदेश। डक्को। जक्खो। रग्गो। किच्ची। रुप्पी।। क्वचिन्न भवति। कसिणो। अनाद विति किम्। खलिओ थेरो। खम्भो। द्वयोस्तु। द्वित्व-मस्त्येवेऽऽति न भवति। विञ्चुओ। भिण्डिवालो।।
अर्थः- यदि किसी संस्कृत शब्द का कोई वर्ण नियमानुसार प्राकृत-रूपान्तर में लुप्त होता है; तदनुसार उस लुप्त होने वाले वर्ण के पश्चात जो वर्ण शेष रहता है: अथवा लप्त होने वाले उस वर्ण के स्थान पर नियमानसार जो कोई दसरा वर्ण आदेश रूप से प्राप्त होता है एवं यह शेष वर्ण अथवा आदेश रूप से प्राप्त वर्ण यदि उस शब्द के आदि- (प्रारंभ) में स्थित न हो तो उस शेष वर्ण का अथवा आदेश रूप से प्राप्त वर्ण का द्वित्व वर्ण हो जाता है। लुप्त होने के पश्चात्
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 267 शेष-अनादि-वर्ण के द्वित्व होने के उदाहरण इस प्रकार है:- कल्पतरू: कप्पतरू। भुक्तम्-भुत्तं। दुग्धम् दुद्धी नग्नः नग्गो। उल्का-उक्का। अर्कः अक्को। मूर्खः=मुक्खो।। आदेश रूप से प्राप्त होने वाले वर्ण के द्वित्व होने के उदाहरण इस प्रकार है:- दष्टः-डक्को। यक्षः जक्खो। रक्तः रग्गो। कृतिः किच्ची। रुक्मी-रुप्पी।। कभी-कभी लोप होने के पश्चात् शेष रहने वाले वर्ण का द्वित्व होना नहीं पाया जाता है। जैसे:-कृत्स्नः कसिणो यहां पर 'त्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'स्' को द्वित्व स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्यत्र भी जानना।
प्रश्नः- अनादि में स्थित हो तभी उस शेष वर्ण का अथवा आदेश-प्राप्त वर्ण का द्वित्व होता है ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर- क्योंकि यदि वह शेष वर्ण अथवा आदेश प्राप्त वर्ण शब्द के प्रारंभ में ही स्थित होगा तो उसका द्वित्व नहीं होगा; इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं:- स्खलितम्-खलिओ स्थविरः-थेरो। स्तम्भः खम्भो।। इन उदाहरणों में शेष वर्ण अथवा आदेश-प्राप्त वर्ण शब्दों के प्रारंभ में ही रहे हुए हैं; अतः इनमें द्वित्व की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना चाहिये। जिन शब्दों में शेष वर्ण अथवा आदेश प्राप्त वर्ण पहले से ही दो वर्ण रूप से स्थित हैं; उनमें पुनः द्वित्व की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण इस प्रकार है:- वृश्चिकः-विञ्चुओ और भिन्दिपालः भिण्डिवालो।। इत्यादि।। इन उदाहरणों में क्रम से 'श्चि' के स्थान पर दो वर्ण रूप 'ञ्चु की प्राप्ति हुई है और 'न्द' के स्थान पर दो वर्ण रूप ‘ण्ड' की प्राप्ति हुई है; अतः अब इनमें और द्वित्व वर्ण करने की आवश्यकता नहीं है। यों अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना चाहिये। ___ 'कल्पतरुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कप्पतरू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'कप्पतरू रूप सिद्ध हो जाता है।
भुत्तं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७७ में की गई है। दुद्धं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७७ में की गई है। नग्गो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७८ में की गई है। उक्का रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७९ में की गई है। अक्को रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'मूर्खः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुक्खों होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुक्खो रूप सिद्ध हो जाता है।
'डक्को ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-२ में की गई है।
'यक्षः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जक्खो ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जक्खो रूप सिद्ध हो जाता है।
'रग्गो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१० में की गई है। 'किच्ची' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१२ में की गई है। 'रुप्पी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५२ में की गई है। 'कसिणो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २–७५ में की गई है। 'स्खलितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खलिों होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
268 : प्राकृत व्याकरण
'स्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'खलिअ रूप सिद्ध हो जाता है।
थेरो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६६ में की गई है। खम्भा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८ में की गई है। विञ्चुआ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। भिण्डिवालो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-३८ में की गई है।।२-८९।।
द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः ॥ २-९०।। द्वितीयतुर्ययोर्द्वित्व प्रसंगे उपरि पूर्वो भवतः।। द्वितीयस्योपरि प्रथमश्चतुर्थस्योपरि तृतीयः इत्यर्थः।। शेष। वक्खाणं। वग्यो। मुच्छा। निज्झरो। कटुं। तित्थं। निद्धणो। गुप्फं। निब्भरो। आदेश। जक्खो। घस्यनास्ति।। अच्छी। मज्झं। पट्ठी। वुड्डो। हत्थो। आलिद्धो। पुप्फ। भिब्भलो।। तैलादौ (२-९८) द्वित्वे ओक्खलं।। सेवादो (२-९९) नक्खा नहा।। समासे। कइ-द्धओ कइ-धओ।। द्वित्व इत्येव। खाओ।।
अर्थः- किसी भी वर्ग के दूसरे अक्षर को अथवा चतुर्थ अक्षर को द्वित्व होने का प्रसंग प्राप्त हो तो उनके पूर्व में द्वित्व प्राप्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर हो जायगा और द्वित्व प्राप्त चतुर्थ अक्षर के स्थान पर तृतीय अक्षर हो जायगा। विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि किसी संस्कृत शब्द के प्राकृत में रूपान्तर करने पर नियमानुसार लोप होने वाले वर्ण के पश्चात् शेष रहे हुए वर्ण को अथवा आदेश रूप से प्राप्त होने वाले वर्ण को द्वित्व होने का प्रसंग प्राप्त हो तो द्वित्व होने के पश्चात् प्राप्त द्वित्व वर्गों में यदि वर्ग का द्वितीय अक्षर है; तो द्वित्व प्राप्त वर्ण के पूर्व में स्थित हलन्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर उसी वर्ग के प्रथम अक्षर की प्राप्ति होगी और यदि द्वित्व प्राप्त वर्ण वर्ग का चतुर्थ अक्षर है तो उस द्वित्व प्राप्त चतुर्थ अक्षर में से पूर्व में स्थित चतुर्थ अक्षर के स्थान पर उसी वर्ग के तृतीय अक्षर की प्राप्ति होगी। शेष' से संबधित उदाहरण इस प्रकार है:- व्याख्यानम् वक्खाणं। व्याघ्रः वग्घो। मूच्र्छा=मुच्छा। निर्झरः-निज्झरो। कष्टम् कटुं। तीर्थम् तित्थं।
-निद्धणो। गुल्फम्-गुप्फ। निर्भरः-निब्भरो।। इसी प्रकार से 'आदेश' से सम्बंधित उदाहरण इस प्रकार है:यक्षः जक्खो।। दीर्घ 'घ' का उदाहरण नहीं होता है। अक्षिः अच्छी। मध्यं मझो स्पृष्टिः पट्टी।। वृद्धः वुड्डो। हस्तः हत्थो। आश्लिष्ट: आलिद्धो। पुष्पम्=पुप्फ और विह्वलः भिब्भलो।।
सूत्र संख्या २-९८ से तैल आदि शब्दों में भी द्वित्व वर्ण की प्राप्ति होती है; उनमें भी इसी सूत्र-विधानानुसार प्राप्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर की प्राप्ति होती है और प्राप्त चतुर्थ अक्षर के स्थान पर तृतीय अक्षर की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- उदूखलम् ओक्खल।। इसी प्रकार सूत्र संख्या २-९९ से सेवा आदि शब्दों में भी द्वित्व वर्ण की प्राप्ति होती है; उन शब्दों में भी यही नियम लागू होता है कि प्राप्त द्वित्व वर्ण के स्थान पर प्रथम वर्ण की प्राप्ति होती है प्राप्त द्वित्व चतुर्थ वर्ण के स्थान पर तृतीय वर्ण की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- नखाः नक्खा अथवा नहा।। समास-गत शब्द में भी द्वितीय के स्थान पर प्रथम की प्राप्ति और चतुर्थ के स्थान पर तृतीय की प्राप्ति इसी नियम के अनुसार जानना। उदाहरण इस प्रकार है:- कपि ध्वजः-कइ-द्धओ अथवा कइधओ।। उपरोक्त नियम का विधान नियमानुसार द्वित्व रूप से प्राप्त होने वाले वर्षों के संबंध में ही जानना; जिन शब्दों में लोप स्थिति की अथवा आदेश-स्थिति की उपलब्धि (तो) हो; परन्तु यदि ऐसा होने पर भी 'द्विर्भाव की स्थिति नहीं हो तो इस नियम का विधान ऐसे शब्दों के संबंध में लागू नहीं होगा। जैसे:-ख्यातः-खाओ।। इस उदाहरण में लोप-स्थिति है, परन्तु द्विर्भाव स्थिति नहीं है; अतः सूत्र संख्या २-९० का विधान इसमें लागू नहीं होता है।।
'व्याख्यानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वक्खाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से दोनों 'य' कारों का लोप; १-८४ से शेष 'वा' में स्थिति दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-८९ से 'ख' वर्ण को द्वित्व 'ख् ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 269
के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वक्खाण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'व्याघ्रः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वग्घो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; १-८४ से शेष 'वा' में स्थिति दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप २-८९ से 'घ' को द्वित्व 'घ्घ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'घ्' को 'ग्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वग्यो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'मूच्छा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुच्छा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; और १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर 'मुच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निज्झरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९८ में की गई है। कटुं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-३४ में की गई है। तित्थं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८४ में की गई है।
'निर्धनः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निद्धणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व 'ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' को 'द्' की प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर '
निधणा' रूप सिद्ध हो जाता है। __'गुल्फम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गुप्फ' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गुप्फ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'निर्भरः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निब्भरा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'भ' को द्वित्व'भूभ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व' को 'ब' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निब्भरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
जक्खो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८९ में की गई है। अच्छी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३३ में की गई है। मझं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-२६ में की गई है। पट्ठी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२९ में की गई है। कुड्डो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। हत्था रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-४५ में की गई है। आलिद्धा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-४९ में की गई है। पुष्पं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३६ में की गई है। भिब्मला रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५८ में की गई है।
ओक्खलं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में की गई है। 'नखः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नक्खा ' और 'नहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-९९ से 'ख' को द्वित्व 'ख् ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
270 : प्राकृत व्याकरण में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से 'ख' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'नक्खा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(नखाः=) नहा में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति आर शेष साधनिका (प्रथमा बहुवचन के रूप में) प्रथम रूप के समान ही होकर 'नहा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कपि-ध्वजः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कइद्धओ' और 'कई-धओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या; १-१८७ से 'प्' का लोप; २-७९ से 'व्का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' को 'द्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'कइ-द्धओ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(कपि-ध्वज ) कइ-धओ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; १-१७७ से ज् का लोप; और ३-२ से प्रथम रूप के समान ही 'ओ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'कइ-धओ' भी सिद्ध हो जाता है।
'ख्यातः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खाआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खाओ' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-९०।।
दीर्घ वा ।। २-९१॥ दीर्घ शब्दे शेषस्य घस्य उपरि पूर्वो वा भवति ।। दिग्घो दीहो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'दीर्घ' के प्राकृत-रूपान्तर में नियमानुसार रेफ रूप 'र' का लोप होने के पश्चात् शेष व्यञ्जन 'घ' के पूर्व में ('घ' के) पूर्व व्यञ्जन 'र' की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती हैं जैसे-दीर्घः दिग्घो अथवा दीहो।। ___ 'दीर्घः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दिग्घो' और 'दीहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-९१ से 'घ' के पूर्व में 'ग्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दिग्घो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दीर्घः= ) दीहो में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथम रूप के समान ही 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दीहो' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-९१।।
न दीर्घानुस्वारात् ।। २-९२॥ दीर्घानुस्वाराभ्यां लाक्षणिकाभ्यामलाक्षणिकाभ्यां च परयोः शेषादेशयोर्द्वित्वं न भवति।। छूढो। नीसासो। फासो॥ अलाक्षणिक। पार्श्वम्। पास।। शीर्षम्। सीस।। ईश्वरः। ईसरो। द्वेष्यः। वेसो।। लास्यम्। लास।। आस्यम्। आसं।। प्रेष्यः। पेसो।। अवमाल्यम्। ओमाल।। आज्ञा। आणा। आज्ञप्तिः। आणत्ती।। आज्ञपनं। आणवणं।। अनुस्वारात्। व्यस्त्रम्। तसं अलाक्षणिक। संझा। विंझो। कंसालो।
अर्थः-यदि किसी संस्कृत-शब्द के प्राकृत-रूपान्तर में किसी वर्ण में दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार रहा हुआ हो और उस दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार की प्राप्ति चाहे व्याकरण के नियमों से हुई हो अथवा चाहे उस शब्द में ही प्रकृति रूप से ही रही हुई हो और ऐसी स्थिति में यदि इस दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार के आगे नियमानुसार लोप हुए वर्ण के पश्चात् शेष रह जाने वाला वर्ण आया हुआ हो अथवा आदेश रूप से प्राप्त होने वाला वर्ण आया हुआ हो तो उस शेष वर्ण को अथवा आदेश-प्राप्त वर्ण को द्वित्व-भाव की प्राप्ति नहीं होगी। अर्थात् ऐसे वर्णो का द्वित्व नहीं होगा। दीर्घ स्वर संबंधी उदाहरण इस प्रकार है:- क्षिप्तः छूढो। निःश्वास नीसासो और स्पर्शः फासो।। इन उदाहरणों में स्वर में दीर्घता व्याकरण के नियमों से हुई है; इसलिये ये उदाहरण लाक्षणिक कोटि के हैं। अब ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं; जो कि अपने प्राकृतिक रूप से
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 271
ही दीर्घ स्वर वाले हैं; ये उदाहरण अलाक्षणिक कोटि के समझे जाँय । पार्श्वम् = पासं । । शीर्षम् = सीसं । । ईश्वरः = ईसरो ।। द्वेष्यः-वेसो।। लास्यम्-लासं । आस्यम्-आसं । प्रेष्य:- पेसो ।। अवमाल्यम् = ओमालं ।। आज्ञा आणा ।। आज्ञप्तिः- आणत्ती।। आज्ञपनं आणवणं ।। इन उदाहरणों में दीर्घ स्वर के आगे वर्ण-विशेष की लोप स्थिति से शेष वर्ण की स्थिति अथवा आदेश प्राप्त वर्ण की स्थिति होने पर भी उनमें द्विर्भाव की स्थिति नहीं है ।
अनुस्वार संबंधी उदाहरण निम्नोक्त हैं। प्रथम ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं; जिनमें अनुस्वार की प्राप्ति व्याकरण के नियम - विशेष से हुई है; ऐसे उदाहरण लाक्षणिक कोटि के जानना । त्र्यस्त्रम्-तंसं । इस उदाहरण में लोप स्थिति है; शेषवर्ण 'स्' की उपस्थिति अनुस्वार के पश्चात् रही हुई है; अतः इस शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है । यों अन्य लाक्षणिक उदाहरण भी समझ लेना । अब ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं; जिनमें अनुस्वार की स्थिति प्रकृति रूप से ही उपलब्ध हैं; ऐसे उदाहरण अलाक्षणिक कोटि के गिने जाते हैं। संध्या - संझा | विंध्य :- विंझो और कांस्यालः- कंसालो ।। प्रथम दो उदाहरणों में अलाक्षणिक रूप से स्थित अनुस्वार के आगे आदेश रूप से प्राप्त वर्ण 'झ' की उपस्थिति विद्यमान है; परन्तु इस 'झ' वर्ण को पूर्व में अनुस्वार के कारण से द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति नहीं हुई है। तृतीय उदाहरण में 'य्' का लोप होकर अनुस्वार के आगे शेष वर्ण के रूप में 'स' की उपस्थिति मौजूद है; परन्तु पूर्व में अनुस्वार होने के कारण से इस शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है । यों अन्यत्र भी जान लेना। इन्हें अलाक्षणिक कोटि के उदाहरण जानना; क्योंकि इनमें अनुस्वार की प्राप्ति व्याकरणगत नियमों से नहीं हुई है; परन्तु प्रकृति से ही स्थित है ||
'क्षिप्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छूढो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १२७ से संपूर्ण 'क्षिप्त' शब्द के स्थान पर ही 'छूढ' रूप आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छूढो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नीसासो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ९३ में की गई है।
'स्पर्श' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- १८२ से स्पर्श शब्द के स्थान पर ही 'फास' रूप आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'फासो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पार्श्वम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पास' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से रेफ रूप 'र्' का और 'व्' लोप; १ - २६० से 'श' का 'स'; २-८९ से शेष 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति होनी चाहिये थी; परन्तु २- ९२ से इस 'द्विर्भाव-स्थिति का निषेध; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पास' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शीर्षम् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सीसं होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से दोनों 'श' 'ष' का 'स' 'स'; २- ७९ से 'र्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सीसं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इसरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ८४ में की गई है।
'द्वेष्यः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'द्' का लोप; २- ७८ से 'य्' का लोप; १ - २६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लास्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लास' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'लास' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आस्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आस' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३ - २५ से
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
272 : प्राकृत व्याकरण
प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आसं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'प्रेष्यः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से "य" का लोप; १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
ओमालं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३८ में की गई है। आणा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८३ में की गई है।
'आज्ञप्तिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आणत्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'आणत्ती' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आज्ञपनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आणवणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आणवणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
तंसं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६ में की गई है। संझा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। विंझा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५ में की गई है।
'कांस्यालः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कंसालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कंसालो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-९२।।
र-होः ।। २-९३॥ रेफहकारयोर्द्वित्वं न भवति।। रेफः शेषो नास्ति।। आदेश। सुन्देरं। बम्हचे। पेरन्त।। शेषस्य हस्य। विहलो।। आदेशस्य। कहावणो।।
अर्थः- किसी संस्कृत शब्द के प्राकृत रूपान्तर में यदि शेष रूप से अथवा आदेश रूप से 'र' वर्ण की अथवा 'ह' वर्ण की प्राप्ति हो; तो ऐसे 'र' वर्ण को एवं 'ह' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति नहीं होती है। रेफ रूप 'र' वर्ण कभी भी शेष रूप से उपलब्ध नहीं होता है; अतः शेष रूप से संबंधित 'र' वर्ण के उदाहरण नहीं पाये जाते हैं। आदेश रूप से 'र' वर्ण की प्राप्ति होती है; इसलिये इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं:- सौन्दर्यम्-सुन्देरं।। ब्रह्मचर्यम्=बम्हचेरं और पर्यन्तम्-पेरन्त।। इन उदाहरणों में संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'र' वर्ण के आदेश रूप से प्राप्ति हुई है। इसकारण से 'र' वर्ण को सूत्र संख्या २-८९ से द्विर्भाव की स्थिति होनी चाहिये थी; किन्तु सूत्र संख्या २-९३ से निषेध कर देने से द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। शेष रूप से प्राप्त 'ह' का उदाहरण:-विह्वलः विहलो।। इसमें द्वितीय 'व्' का लोप होकर शेष 'ह' की प्राप्ति हुई है; किन्तु इसमें भी २-९३ से द्विर्भाव की स्थिति नहीं हो सकती है। आदेश रूप से प्राप्त ह' का उदाहरणःकार्षापणः कहावणो।। इस उदाहरण से संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष' के स्थान पर सूत्र संख्या १-७१ से 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति हुई है; तदनुसार सूत्र संख्या २-८९ से 'ह' वर्ण को द्विर्भाव की स्थिति प्राप्त होनी चाहिये थी; परन्तु सूत्र संख्या २-९३ से निषेध कर देने से द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यों अन्य उदाहरणों में भी शेष रूप से अथवा आदेश से प्राप्त होने
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाले रेफ रूप 'र' और 'ह' के द्विर्भाव नहीं होने की स्थिति को समझ लेना चाहिये ।।
सुन्दरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ५७ में की गई है।
बम्हचे रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५९ में की गई है।
'पर्यन्तम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेरन्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - ५८ से 'प' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-६५ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' रूप ओदश की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पेरन्तं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विह्वल : ' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विहलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ द्वितीय 'व्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विहला' रूप सिद्ध हो जाता है।
कहावणो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २- ७१ में की गई है । ।। २-९३ ।।
धृष्टद्युम्ने णः ।। २- ९४॥
धृष्टद्युम्न शब्दे आदेशस्य णस्य द्वित्वं न भवति ॥ धट्टज्जुणो ॥
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 273
अर्थः- संस्कृत शब्द धृष्टद्युम्नः के प्राकृत रूपान्तर धट्ठज्जुणो में संयुक्त व्यञ्जन 'स्न' के स्थान पर 'ण' आदेश की प्राप्ति होने पर इस आदेश प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- धृष्टद्युम्नः - धट्टज्जुणो ।।
'धृष्टद्युम्नः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धट्टज्जुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति २ - ९० से प्राप्त पूर्व ' ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'घ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; २- ४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धट्ठज्जुणो' रूप की सिद्धि हो जाती है । ।। २-९४ ।।
कर्णिकारे वा ।। २-९५।।
कर्णिकार शब्दे शेषस्य णस्य द्वित्वं वा न भवति ।। कणिआरो कण्णिआरो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द कर्णिकार के प्राकृत रूपान्तर में प्रथम रेफ रूप 'र्' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति विकल्प से होती है। कभी हो जाती है और कभी नहीं होती है। जैसे:- कर्णिकारः = कणिआरो अथवा कण्णिआरो।।
'कर्णिकारः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कणिआरो' और 'कण्णिआरो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २ - १७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'कणिआरो' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'कण्णिआरो' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १६८ में की गई है। ।। २-९५।।
दृप्ते ।। २-९६।।
दृप्त शब्दे शेषस्य द्वित्वं न भवति ।। दरिअ - सीहेण ॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'दृप्त' के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार 'प्' और 'त्' व्यञ्जन का लोप हो जाने के पश्चात्
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
274 : प्राकृत व्याकरण
शेष वर्ण को द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं होती है। जैसेः-दृप्त-सिंहेन-दरिअ-सीहेण।। दरिअ-सीहेण रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४४ में की गई है। ।। २-९६।।
समासे वा ॥ २-९७॥ शेषादेशयोः समासे द्वित्वं वा भवति।। नइ-ग्गामो, नइ-गामो। कुसुमप्पयरो कुसुम-पयरो। देव-त्थुई देव-थुई। हर-क्खन्दा हर-खन्दा। आणाल-क्खम्भो आणाल-खम्भो।। बहुलाधिकारादशेषादेशयोरपि। स-प्पिवासो स-पिवासो। बद्धप्फलो बद्ध-फलो। मलय-सिहर-क्खण्डं मलय-सिहर-खण्डं। पम्मुक्कं पमुक्क। अइंसणं अदंसणं। पडिकूलं पडिक्कूलं। तेल्लोकं तेलोक्कं इत्यादि।।
अर्थः-संस्कृत समासगत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार वर्गों के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए अथवा आदेश रूप से प्राप्त हुए वर्णों को द्विर्भाव की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। अर्थात् समासगत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से रहे हुए वर्णो का द्वित्व विकल्प से हुआ करता है। उदाहरण इस प्रकार है:- नदी-ग्रामः नइ-ग्गामो अथवा नइ-गामो।। कुसुम-प्रकरः कुसुम-प्पयरो अथवा कुसुम-पयरो।। देवः-स्तुतिः-देव-त्थुई अथवा देव-थुई।। हर-स्कंदौ-हर-क्खन्दा अथवा हर-खन्दा।। आलान-स्तम्भः-आणाल-क्खम्भो अथवा आणाल-खम्भो।। "बहुलम्" सूत्र के अधिकार से समासगत प्राकृत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से नहीं प्राप्त हुए वर्णों को भी अर्थात् शब्द में प्रकृति रूप से रहे हुए वर्णो को भी विकल्प से द्वित्व स्थिति प्राप्त हुआ करती है। तात्पर्य यह है कि समासगत-शब्दों में शेष रूप स्थिति से रहित अथवा आदेश रूप स्थिति से रहित वर्णों को भी द्विर्भाव की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:- स पिपासः सप्पिवासो अथवा स-पिवासो।। बद्ध-फलः बद्धप्फलो अथवा बद्ध-फलो।। मलय-शिखर-खण्डम्=मलय-सिहर-क्खण्डं अथवा मलय-सिहर-खण्ड।। प्रमुक्तम्=पम्मुक्कं अथवा पमुक्क।। अदर्शनम् असणं अथवा अदसणं।। प्रतिकूलम्=पडिकूलं अथवा पडिक्कूलं और त्रैलोक्यम्-तेल्लोकं अथवा तेलोक्कं इत्यादि।। इन उदाहरणों में द्वि-र्भाव स्थिति विकल्प से पाई जाती है; यों अन्य उदाहरणों में भी जान लेना चाहिये।।
'नदी-ग्रामः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नइ-ग्गामो' और 'नइ-गामा' होते हैं। इनमें से सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-९७ से 'ग' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'नइ-ग्गामो' और 'नइ-गामा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'कुसुम-प्रकरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कुसुमप्पयरो' और 'कुसुम-पयरो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-६९ से शेष 'प' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'कसम-प्पयरो' और 'कसम-पयरा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'देव-स्तुतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'देव-त्थुई' और 'देव-थुइ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति: २-९७ से प्राप्त 'थ' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व'थुथ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से 'देवत्थुई और 'देव-थुई' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'हर-स्कंदौ' द्विवचनान्त संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हरक्खन्दा' और 'हर-खन्दा' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-४ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्क' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-९७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ३-१३० से संस्कृत शब्दांत द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति होने से सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 275 और ३-१२ से पूर्व में प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' के कारण से अन्त्य व्यञ्जन 'द' में स्थित हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से 'हर-क्खन्दा' और 'हर-खन्दा' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'आलान-स्तम्भः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'आणाल-खम्भो' और 'आणाल-खम्भो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-११७ से 'ल' और 'न' का परस्पर में व्यत्यय अर्थात् उलट-पुलट रूप से पारस्परिक स्थान परिवर्तन; १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ख' का आदेश; २-९७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'आणाल-क्खम्भा' और 'आणाल-खम्भो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। __ 'स-पिपासः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सप्पिवासो' और सपिवासो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-९७ से प्रथम 'प' वर्ण को विकल्प से द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय 'प' वर्ण के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'सप्पिवासा और 'सपिवासो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'बद्ध-फलः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बद्ध-प्फलो' और 'बद्ध-फलो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-९७ से 'फ' वर्ण को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'बद्ध-प्फलो' और 'बद्ध-फलो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। _'मलय-शिखर-खण्डम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मलय सिहर-क्खण्ड' और 'मलय-सिहर-खण्ड' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१८७ से प्रथम 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-९७ से द्वितीय 'ख' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व "ख" की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त द्वित्व 'ख्ख' में से पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय
की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनस्वार होकर क्रम से 'मलय सिहर-क्खण्डं और 'मलय-सिहर-खण्डं' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ 'प्रमुक्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पम्मुक्क' और 'पमुक्क' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९७ से 'म्' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; २-२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्त' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'पम्मुक्कं और पमुक्क' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'अदर्शनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अइंसणं' और 'अदंसणं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-९७ से 'द' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'द' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त द्वित्व 'द' अथवा 'द' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'अइंसणं' और 'अदंसणं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'प्रतिकूलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पडिक्कूल' और 'पडिकूलं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-९७ से 'क' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पडिक्कूलं' और 'पडिकूलं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
276 : प्राकृत व्याकरण
'त्रैलोक्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तेल्लोक' और 'तेलोक्कं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति; २-९७ से 'ल' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'तेल्लोक सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'तेलोक्क' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४८ में की गई है। ।। २-९७||
तैलादो ॥ २-९८।। तैलादिषु अनादौ यथादर्शन्त्यस्यानन्त्यस्य च व्यञ्जनस्य द्वित्वं भवति॥ तेल्लं। मण्डक्को। वेइल्लं। उज्जू। विड्डा। वहुत्तं।। अनन्त्यस्य। सोत्तं। पेम्म। जुव्वण।। आर्ष। पडिसोओ। विस्सोअसिआ।। तैल। मण्डूक। विचकिल। ऋजु। व्रीडा। प्रभूत। स्त्रोतस्। प्रेमन्। यौवन। इत्यादि।।
अर्थः- संस्कत भाषा में तैल आदि अनेक शब्द ऐसे हैं जिनके प्राकत रूपान्तर में कभी-कभी तो अन्त्य व्यञ्जनका द्वित्व हो जाता है और कभी-कभी अनन्त्य अर्थात मध्यस्थ व्यञ्जनों में से किसी एक व्यञ्जन का द्वित्व हो जाता है। अन्त्य और अनन्त्य के संबंध में कोई निश्चत नियम नहीं है। अतः जिस व्यञ्जन का द्वित्व देखो: उसका विधान इस सत्र के अनुसार होता है; ऐसा जान लेना चाहिये। इसमें यह एक निश्चित विधान है कि आदि व्यञ्जन का द्वित्व कभी भी नहीं होता है। इसीलिये वृत्ति में 'अनादौ पद दिया गया है। द्विर्भाव-स्थिति केवल अन्त्य व्यञ्जन की अथवा अनन्त्य याने मध्यस्थ व्यञ्जन की ही होती है। इसके लिये वृत्ति में "यथा-दर्शनम्" "अन्त्यस्य" और "अनन्त्यस्य' पद दिये गये हैं; यह ध्यान में रहना चाहिये। जिन शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व होता है; उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:तैलम्-तेल्ल।। मण्डूकः मण्डुक्को।। विचकिलम् वेइल्लं।। ऋजुः=उज्जू।। व्रीडा विड्डा।। प्रभूतम् वहुत्त।। जिन शब्दों के अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व होता है; उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:-स्त्रोतम्-सोत्तं।। प्रेमन्=पेम्म और यौवनम्-जुव्वणं।। इत्यादि।। आर्ष-प्राकृत में "प्रतिस्त्रोतः" का "पडिसोओ" होता है; और "विस्त्रोतसिका" का "विस्सोअसिआ" रूप होता है। इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि इनमें अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व नहीं हुआ है; जैसा कि ऊपर के कुछ उदाहरणों में द्वित्व हुआ है। अतः यह अन्तर ध्यान में रहे।
'त्रैलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तेल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति; २-९८ से 'ल' व्यञ्जन के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तेल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'मण्डूकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मण्डुक्को' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९८ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मण्डुक्का' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वेइल्लं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६६ में की गई है। 'उज्जू' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है।
'व्रीडा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विड्डा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और २-९८ से अन्त्य व्यञ्जन 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति होकर 'विड्डा' रूप सिद्ध हो जाता है।
वहुत्तं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३३ में की गई है।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 277 'स्त्रोतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९८ से अनन्त्य व्यञ्जन 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-११ से विसर्ग रूप अन्त्य व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सोत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रेमन्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेम्म होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-९८ से अनन्त्य व्यञ्जन 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पेम्म रूप सिद्ध हो जाता है।
'जुव्वणं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५९ में की गई है।
'प्रतिस्त्रोतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पडिसोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से दोनों 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पडिसोओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'विस्त्रोतसिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विस्सोअसिआ' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष प्रथम 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त् और 'क्' का लोप होकर 'विस्सोअसिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।।।२-९८॥
सेवादी वा ॥ २-९९।। सेवादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च द्वित्वं वा भवति।। सेव्वा सेवा।। नेड्डूं नीड। नक्खा नहा। निहित्तो निहिओ। वाहित्तो वाहिओ। माउक्कं माउआ एक्को एओ। कोउहल्लं कोउहलंवाउल्लो वाउलो। थुल्लो थोरो। हुत्तं हूदइव्वं दइव। तुण्हिक्को तुण्हिओ। मुक्को मूओ। खण्णू खाणू। थिण्णं थीण।। अनन्त्यस्य। अम्हक्केरं अम्हकेरं। तं च्चेअ तं चे। सो च्चिअ सो चि॥ सेवा। नीड। नख। निहित। व्याहृत। मृदुक। एक। कुतूहल। व्याकुल। स्थूल। हूत। देव। तूष्णीक। मूक। स्थाणु। स्त्यान। अस्मदीय चे। चि। इत्यादि।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में सेवा आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके प्राकृत रूपान्तर में कभी-कभी तो अन्त्य व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व हो जाता है और कभी-कभी अनन्त्य अर्थात् मध्यस्थ व्यञ्जनों में से किसी एक व्यञ्जन का द्वित्व हो जाता है। अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन के वैकल्पिक रूप से द्वित्व होने में कोई निश्चित नियम नहीं है अतः जिस व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व देखो; उसका विधान इस सूत्र के अनुसार होता है; ऐसा जान लेना चाहिये। इसमें यह एक निश्चित विधान है कि आदि व्यञ्जन का द्वित्व कभी भी नहीं होता है। इसीलिये वृत्ति में "अनादौ" पद दिया गया है। वैकल्पिक रूप से द्विर्भाव-स्थिति केवल अन्त्य व्यञ्जन की अथवा अनन्त्य याने मध्यस्थ व्यञ्जन की ही होती है। इसके लिये वृत्ति में "यथा-दर्शनम् ","अन्त्यस्य" और "अनन्त्यस्य' के साथ साथ "वा" पद भी संयोजित कर दिया गया है। ऐसी यह विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये जिन शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का वेकल्पिक रूप से द्वित्व होता है; उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-सेवा-सेव्वा अथवा सेवा।। नीडम्=नेड्डे अथवा नीड।। नखाः नक्खा अथवा नहा।। निहितः निहित्तो अथवा निहिओ।। व्याहृतः वाहित्तो अथवा वाहिओ।। म्दुकम्=माउक्कं अथवा माउ। एकःएक्को अथवा एओ।। कुतूहलम्=कोउहल्लं अथवा कोउहल।। व्याकुलः-वाउल्लो अथवा वाउलो।। स्थूलः थुल्लो अथवा थोरो। हूतम्-हुत्तं अथवा हूआं देवं-दइव्वं अथवा दइव।। तूष्णीकः-तुण्हिक्को अथवा तुण्हिओ।। मूकः-मुक्को अथवा मूओ।। स्थाणुः खण्णू अथवा खाणू और स्त्यानम् थिण्णं अथवा थीण।। इत्यादि।। जिन शब्दों के अनन्त्य व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व होता है; उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- अस्मदीयम्-अम्हक्केरं अथवा अम्हके।। तत् एव-तं च्चेअ अथवा तं चे।। स एव-सो च्चिअ अथवा सो चि। इत्यादि।। सूत्र संख्या २-९८ और २-९९ में इतना अन्तर है कि पूर्व सूत्र में
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
278 : प्राकृत व्याकरण
शब्दों के अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व नित्य होता है; जबकि उत्तर सूत्र में शब्दों के अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व वैकल्पिक रूप से ही होता है। इसीलिये 'तैलादो' सूत्र से 'सेवादौ वा' सूत्र में 'वा' अव्यय अधिक जोड़ा गया है। इस प्रकार यह अन्तर और ऐसी विशेषता दोनों ही ध्यान में रहना चाहिये ।
'सेवा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सेव्वा' और 'सेवा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- ९९ से अन्त्य व्यञ्जन ' व' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व की प्राप्ति होकर क्रम से 'सेव्वा' और 'सेवा' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'नीडम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नेड्ड' और 'नीड' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - १०६ से 'ई' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-९९ से 'ड' व्यञ्जन को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'नेड' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'नीड' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०६ में की गई है।
'नक्खा' और 'नहा' दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या २ - ९० में की गई है।
'निहितः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'निहित्तो' और 'निहिओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर द्वित्व 'त' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'निहित्तो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(निहितः=) निहिआ में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'त्त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'निहिओ' भी सिद्ध हो जाता है।
'व्याहृतः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप वाहित्तो और वाहिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; १ - १२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २ - ९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'वाहित्तो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(व्याहृतः=) वाहिओ की साधनिका में प्रथम रूप के समान ही सूत्रों का व्यवहार होता है । अन्तर इतना सा है कि सूत्र संख्या २-९९ के स्थान पर सूत्र संख्या १ - १७७ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' का लोप हो जाता है। शेष क्रिया प्रथम रूपवत् ही जानना ।
'मृदुकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'माउक्क' और 'माउअं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'माउक्क' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२७ में की गई है।
द्वितीय रूप- (मृदुकम्=) 'माउअं' में सूत्र संख्या १ - १२७ से 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति १ - १७७ से 'द्' और 'क्' दोनों व्यञ्जनों का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'माउअं' भी सिद्ध हो जाता है।
'एकः ' संस्कृत संख्या वाचक विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एक्को' और 'एओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - ९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'एक्को' और 'एओ' दोनों रूप की सिद्धि हो जाती है।
'कुतूहलम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कोउहल्लं' और 'कोउहलं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'कोउहल्ल की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११७ में की गई है।
द्वितीय रूप- (कुतूहलम्=) 'कोउहलं' में सूत्र संख्या १- ११७ से प्रथम हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति;
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 279
१-१७७ से 'त्' का लोप; १-११७ से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'कोउहलं' भी सिद्ध हो जाता है। ___ 'व्याकुलः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वाउल्लो' और 'वाउला' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'वाउल्लो' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२१ में की गई है।
द्वितीय रूप-(व्याकुल:-) 'वाउलो' में सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'वाउलो' भी सिद्ध हो जाता है।
'स्थूलः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'थुल्लो' और 'थोरो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'ल' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'थुल्लो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(स्थूलः=) थोरो में सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-१२४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-२५५ से 'ल' के स्थान पर 'र' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'थोरो' भी सिद्ध हो जाता है।
'हूतम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हुत्तं' और 'हूअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'हुत्तं' और 'हूअं दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं।
दइव्वं और दइवं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५३ में की गई है।
'तृष्णीकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तुण्हिक्का' और 'तुण्हिओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' के स्थान पर 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'तुण्हिक्को' और 'तुण्हिओ' दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'मूकः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुक्को ' और 'मूओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम स 'मुक्को'
और 'मूओ' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'स्थाणुः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'खण्णू' और 'खाणू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७ से संयुक्त व्यञ्जन “स्थ' के स्थान पर 'ख' रूप आदेश की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ "आ" के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'ण' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'पण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'खण्णू' सिद्ध हो जाता है।
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
280 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप 'खाणू' की सिद्धि सूत्र संख्या २७ में की गई है।
'थिण्णं' और 'थीण' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७४ में की गई है।
'अस्मदीयम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अम्हक्केर' और 'अम्हकेरं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' रूप आदेश की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; २ - १४७ से संस्कृत ‘इदमर्थक' प्रत्यय ‘इय' के स्थान पर प्राकृत में 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति २ - ९९ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'अम्हक्केर' और 'अम्हकेरं' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
तं च्चेअ और तं चेअ रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
सो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ९७ में की गई है।
चिअ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
एव संस्कृत अव्यय है। इसके स्थान पर प्राकृत में चिअ होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८४ से 'एव' के स्थान पर आदेश रूप से चित्र की प्राप्ति होकर चिअ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-९९।।
शार्ङ्ग ङातपूर्वोत् ।। २ - १००।।
शार्ङ्गत पूर्वी अकारो भवति ।। सारंगं ॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'शार्ङ्ग' के प्राकृत रूपान्तर में 'ड्' वर्ण के पूर्व में (अर्थात् हलन्त 'र्' व्यञ्जन में) 'अ' रूप आगम की प्राप्ति होती है। जैसे:- शार्ङ्गम् सारङ्ग।।
'शार्ङ्गम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सारङ्ग' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स' ; २ - १०० से हलन्त व्यञ्जन 'र्' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सारङ्ग' रूप सिद्ध हो जाता
है । । २ - १०० ॥
क्ष्मा-श्लाघा-रत्नेन्त्यव्यञ्जनात् ।। २-१०१।।
एषु संयुक्तस्य यदन्त्यव्यञ्जनं तस्मात् पूर्वोद् भवति।। छमा । सलाहा। रयणं ।। आर्षे सूक्ष्मेऽपि। सुमं ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'क्ष्मा, श्लाघा और रत्न' के प्राकृत रूपान्तर में इन शब्दों में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- क्ष्मा-छमा; श्लाघा - सलाहा और रत्नम् = रयणं ।। आर्ष-प्राकृत में 'सूक्ष्म' शब्द के रूप में भी संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष्म' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्ष' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- सूक्ष्मम् - सुहमं ।
छम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २ -१८ में की गई है।
'श्लाघा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सलाहा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १०१ से हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १ - २६० से प्राप्त 'श' का 'स'; और १ - १८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति होकर 'सलाहा' रूप सिद्ध हो जाता है।
4
'रत्नम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रयणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १०१ से हलन्त 'त्' आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से शेष रहे हुए एवं आगम रूप से प्राप्त हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १ -२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'रयणं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'सूक्ष्मम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'सुहमं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 281 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २ - १०१ की वृत्ति से हलन्त व्यञ्जन 'क्ष' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति और -रूप होने से (सूत्राभावात्) प्राप्त 'क्ष' के स्थान पर 'ह' रूप आदेश की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आर्ष-प्राकृत रूप 'सुहमं' सिद्ध हो जाता है। ।। २ - १०१ ।।
स्नेहाग्न्योर्वा ।। २-१०२।।
अनयोः संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्वोकारो वा भवति ।। सणेहो । नेहो । अगणी । अग्गी ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्नेह' और 'अग्नि' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य ( में स्थित ) व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन में प्राकृत रूपान्तर में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। जैसे:-स्नेह :-सणेहो अथवा नेहो और अग्निः अगणी अथवा अग्गी ||
'स्नेहः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सणेहो' और 'नेहो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या - २ - १०२ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सणेहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'नेहो' की सिद्धि सूत्र संख्या २- ७७ में की गई है।
'अग्निः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अगणी' और 'अग्गी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या२ - १०२ से हलन्त व्यञ्जन 'ग्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अगणी' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (अग्निः = ) 'अग्गी' में सूत्र - संख्या २- ७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अग्गी' भी सिद्ध हो जाता है ।। २- १०२ ।।
प्लक्षे लात् ।। २-१०३।।
प्लक्ष शब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनाल्लात् पूर्वोद् भवति ।। पलक्खो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'प्लक्ष' में सभी व्यञ्जन संयुक्त स्थिति वाले हैं। अतः यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'प्ल' में स्थित 'ल' व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति प्राकृत - रूपान्तर में होती है। जैसे- प्लक्ष :- पलक्खो ।।
'प्लक्ष:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पलक्खो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १०३ से हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ‘ख्' को 'क्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पलक्खो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०३ ।।
ई - श्री - ही - कृत्स्न-क्रिया - दिष्टयास्वित् ॥ २-१०४।।
एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व इकारो भवति ।। है ।। अरिहइ । अरिहा । गरिहा । बरिहो।। श्री । सिरी ।। ही। हिरी।। ह्रीतः। हिरीओ।। अहीकः ।। अहिरीओ।। कृत्स्नः । कसिणो ॥ । क्रिया । किरिआ ।। आर्षे तु । हयं नाणं किया - हीणं ।। दिष्टया ।। दिट्टिआ ।।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'ह' रहा हुआ है; ऐसे शब्दों में तथा 'श्री, ही, कृत्स्न, क्रिया और दिष्टया 'शब्दों में रहे
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
282 : प्राकृत व्याकरण हुए संयुक्त व्यञ्जनों के अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। जैसे-'ह" से संबंधित शब्दों के उदाहरणः- अर्हति-अरिहइ।। अर्हाः अरिहा।। गर्दा गरिहा। बर्हः बरिहो।। इत्यादि।। श्री-सिरी।। ही-हीरी।। हीतः हिरीओ।। अहीकः अहिरीओ।। कृत्स्नः कसिणो।। क्रिया किरिआ।। आर्ष-प्राकृत में क्रिया का रूप किया' भी देखा जाता है। जैसे:- हतम् ज्ञानम् क्रिया-हीनम् हयं नाणं किया-हीण।। दिष्टया दिद्विआ।। इत्यादि।। ___ 'अर्हति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अरिहइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप'इ' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अरिहइ' रूप सिद्ध हो जाता है। __'अर्हाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अरिहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारांत पुल्लिंग में प्राप्त 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त और लुप्त 'जस' प्रत्यय के पूर्व में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर 'अरिहा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गो' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गरिहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'हो' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होकर 'गरिहा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'बर्हः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बरिहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बरिहो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्री' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिरी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन श्री में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और १-२६० से प्राप्त शि' में स्थित 'श्' का 'स्' होकर 'सिरी' रूप सिद्ध हो जाता है। __ हीः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ही' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'ह' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और ३-२८ से दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; तदनुसार वैकल्पिक पक्ष होकर प्राप्त 'आ' प्रत्यय का अभाव होकर 'हिरी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हीतः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिरीओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ही' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'ह' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हिरीओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहीकः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अहिरीओ' होता है। इसकी साधनिका में 'हिरीओ उपरोक्त रूप में प्रयुक्त सूत्र ही लगकर 'अहिरीओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कसिणो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७५ में की गई है।
'क्रिया' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किरिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्रि' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और १-१७७ से 'य' का लोप होकर 'किरिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हयं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है।
'ज्ञानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नाणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की "प्राप्ति; प्राकृत व्याकरण में व्यत्यय का नियम साधारणतः है; अतः तदनुसार प्राप्त 'ण' का और शेष 'न' का परस्पर में
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 283 व्यत्यय; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'नाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
क्रियाहीनम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'किया-हीणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'किया-हीणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'दिष्टया' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'दिट्रिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट्' की प्राप्ति; २-१०४ से प्राप्त '8' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और १-१७७ से 'य' का लोप होकर 'दिट्ठिआ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०४।।
र्श-र्ष-तप्त-वज्रे वा ।। २-१०५।। शर्षयोस्तप्तवज्रयोश्च संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात पूर्व इकारो वा भवति।। र्श। आयरिसो आयसो। सुदरिसणो सुदंसणो। दरिसणं दंसणं।। र्ष। वरिसं वास। वरिसा वासा। वरिस-सयं वास-सय।। व्यवस्थित-विभाषया क्वचिनित्यम्। परामरिसो। हरिसो। अमरिसो।। तप्त। तविओ तत्तो।। वज्रम्वरं वज्ज।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'र्श' और 'र्ष' हो; ऐसे शब्दों में इन 'र्श' और 'र्ष' संयुक्त व्यञ्जनों में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'इ'की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तप्त' और 'वज्र' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'प्' अथवा 'ज्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। 'र्श के उदाहरणः जैसे:- आदर्श: आयरिसो अथवा आयंसो।। सदर्शनः सदरिसणो अथवा सदसणो।। दर्शनम् दरिसणं अथवा दंसणं।। 'र्ष' के उदाहरण; जैसे:- वर्षम् वरिसं अथवा वासं।। वर्षा वरिसा अथवा वासा।। वर्ष-शतम् वरिस-सयं अथवा वास-सयं।। इत्यादि।। व्यवस्थित-विभाषा से अर्थात् नियमानुसार किसी किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन '' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति नित्य रूप से भी होती है। जैसे:-परामर्षः परामरिसो।। हषः हरिसो और अमर्षः अमरिसो।। सूत्रस्थ शेष उदाहरण इस प्रकार है:-तप्तः-तविओ अथवा तत्तो।। वज्रम्=वइरं अथवा वज्ज।। ___ 'आदर्शः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'आयरिसो' और 'आयसो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-१०५ से हलन्त 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'आयरिसो' सिद्ध हो जाता है। __द्वितीय रूप- (आदर्शः=) 'आयसो' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में शेष रहे हुए 'अ'को 'य' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'य' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'आयसो' भी सिद्ध हो जाता है।
'सुदर्शनः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सुदरिसणो' और 'सुदंसणो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सुदरिसणा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(सुदर्शनः=) सुदंसणो में सूत्र संख्या १-२६ से 'द' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से ' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-२२८ से'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
284 प्राकृत व्याकरण
में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'सुंदसणो' सिद्ध हो जाता है।
' दर्शनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दरिसणं' और 'दंसणं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - १०५ से हलन्त व्यञ्जन' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'दरिसणं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दर्शनम्= ) 'दंसणं' में सूत्र संख्या १ - २६ से 'द' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'र्' का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति ३ - २५ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'दंसणं' की भी सिद्धि हो जाती है।
'वर्षम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वरिसं' और 'वास' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - १०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'वरिसं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(वर्षम्= ) 'वास' में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - ४३ से 'व' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'वास' भी सिद्ध हो जाता है।
'वर्षा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वरिसा' और 'वासा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - १०५ से हलन्त व्यञ्जन ‘र्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति होकर 'वरिसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वासा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ४३ में की गई है।
'वर्ष-शतम्'=संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वरिस - सयं' और 'वास सयं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-२६० से द्वितीय 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'वरिस सयं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- ( वर्ष - शतम् = ) 'वास सयं' में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-४३ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'तू' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'वास सयं' भी सिद्ध हो जाता है।
'परामर्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'परामरिसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १०५ से द्वितीय हलन्त 'र्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'परामरिसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हर्ष:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हरिसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र्' आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हरिसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 285
'अमर्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अमरिसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अमरिसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तप्तः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तविओ' और 'तत्ता' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२३१ से प्राप्त 'पि' में स्थित 'प्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'तविओ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तप्तः=) तत्तो में सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'प्' का लोप; २-८९ से शेष द्वितीय 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'तत्तो' भी सिद्ध हो जाता है।
'वज्रम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वरं' और 'वज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'ज्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'जि' में स्थित 'ज्' व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'वइरं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप वज्जं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। ।। २-१०५।।
लात् ।। २-१०६॥ संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनाल्लात्पूर्व इद् भवति।। किलिन्न। किलिटुं। सिलिटुं। पिलुटुं पिलोसो। सिलिम्हो। सिलेसो। सुक्किलं। सुइला सिलोओ। किलेसो। अम्बिल। गिलाइ। गिलाणं। मिलाइ। मिलाणं। किलम्मइ। किलन्त।। क्वचिन्न भवति।। कमो। पवो। विप्पवो। सुक्क-पक्खो।। उत्प्लावयति। उप्पावे।।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में ऐसा संयुक्त व्यञ्जन रहा हुआ हो; जिसमें 'ल' वर्ण अवश्य हो तो ऐसे उस 'ल' वर्ण सहित संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति प्राकृत रूपान्तर में होती है। कुछ उदाहरण इस प्रकार है:- क्लिन्नम् किलिन्न।। क्लिष्टम्=किलिटुं। रिलष्टम्=सिलिटुं। प्लुष्टम्=पिलुटुं। प्लोषः पिलोसो। श्लेष्मा सिलिम्हो।। श्लेषः सिलेसो। शुक्लम्-सुक्किलं।। शुक्लम्=सुइल।। श्लोकः सिलिओ। क्लेशः-किलेसो।। आम्लम्=अम्बिल।। ग्लायति-गिलाइ।। ग्लानम्-गिलाण।। म्लायति-मिलाइ।। म्लानम्-मिलाणं।। क्लाम्यतिकिलम्मइ।। क्लान्तम-किलन्त।। किसी-किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन वाले 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:- क्लमः कमो। प्लवः पवो।। विप्लवः विप्पवो।। शुक्ल पक्षः-सुक्क-पक्खो।। और उत्प्लावयति-उप्पावेइ।।इत्यादि।। इन उदाहरणों में ल'का लोप हो गया है; परन्तु 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों सर्व-स्थिति का ध्यान रखना चाहिये।।।
'क्लिन्नम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलिन्न' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'किलिन्नं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'क्लिष्टम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलिटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से ल' के पूर्व
न्त व्यञ्जन 'क' में आगम रूप'इ' की प्राप्ति: २-३४ से संयक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति: २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
286 : प्राकृत व्याकरण
विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'किलिट्ठ रूप सिद्ध हो जाता है।
"श्लिष्टम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिलिटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श् में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'किलिटुं' के समान ही प्राप्त होकर 'सिलिटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्लुष्टम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिलुटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'किलिट्र के समान ही प्राप्त होकर 'पिलुटुं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्लोषः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिलोसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पिलोसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सिलिम्हो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५५ में की गई है।
'श्लेषः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिलेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'शि' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-२६० से द्वितीय 'ष' के स्थान पर भी 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिलेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शुक्लम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सुक्किलं' और 'सुइल' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-९९ से प्राप्त 'कि' में स्थित 'क्' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सुक्किलं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(शुक्लम्= ) 'सुइल' में सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर स्' की प्राप्ति; २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'कि' में स्थित 'क्' का लोप और शेष साध निका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सुइल' भी सिद्ध हो जाता है।
'श्लोकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिलोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त शि' में स्थित 'श् के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिलोओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'क्लेशः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलेसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'किलेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आम्लम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्बिल' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-५६ (?) हलन्त 'म्' में हलन्त 'ब्' रूप आगम की प्राप्ति; २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित एवं आगम रूप से प्राप्त 'ब' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 287
में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अम्बिलं रूप सिद्ध हो जाता है।
'ग्लायति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिलाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ग्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य्' का लोप; १-१० से लोप हुए 'य्' में शेष रहे हुए स्वर 'अ' का लोप; ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गिलाइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ग्लानम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गिलाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ग्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गिलाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'म्लायति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मिलाइ' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'म्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; १-१० से लोप हुए 'य्' में शेष रहे हुए स्वर 'अ' का लोप; ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मिलाइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'म्लानम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मिलाणं' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'म्' में आगम रूप'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मिलाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्लाम्यति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलम्मइ' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-८४ से 'ला' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'किलम्मइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'क्लान्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'किलन्तं' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-८४ से 'ला' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'किलन्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्लमः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कमो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्लवः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पवो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'विप्लवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विप्पवो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विप्पवो' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
288 : प्राकृत व्याकरण
"शुक्ल-पक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुक्ख-पक्खो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सुक्क-पक्खो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'उत्पलावयति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उप्पावेई' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'त्' का लोप; २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणार्थक क्रियापद के रूप में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'वय' के स्थान पर 'वे' का सद्भाव; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उप्पावेइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०६।।
स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात् ।। २-१०७।। । स्यादादिषु चौर्य-शब्देन समेषु च संयुक्तस्यात् पूर्व इद् भवति।। सिआ। सिआवाओ। भविओ। चेइ। चौर्यसम। चोरिआ थेरि भारिआ। गम्भीरिओ गहीरि आयरिओ। सुन्दरि सोरिआ वीरिआ वरिआ सूरिओ। धीरि। बम्हचरि॥ ___ अर्थः- स्यात्, भव्य एवं चैत्य शब्दों में और चौर्य के सामान्य अन्य शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति प्राकृत रूपान्तर में होती है। जैसे:-स्यात्-सिआ।। स्याद्वादः सिआ-वाओ।। भव्यः भविओ। चैत्यम् चेइ।। 'चौर्य' शब्द के सामान स्थिति वाले शब्दों के कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-चौर्यम्-चोरि। स्थैर्यम् =थेरिअं। भार्या भारिआ। गाम्भीर्यम्=गम्भीरि। गाम्भीर्यम्=गहीरि। आचार्य:-आयरिओ। सौन्दर्यम्=सुन्दरिआ शौर्यम्=सोरिआ वीर्यम्-वीरि वर्यम्-वरिआ सूर्य-सूरिओ। धैर्यम्=धीरिअं और ब्रह्मचर्यम्=बम्हचरि। _ 'स्यात्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'सिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'स्याद्वादः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिआ-वाओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-७७ से प्रथम हलन्त 'द्' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिआ-वाओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'भव्यः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भविओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन व्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भविओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
चेइअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५१ में की गई है। चोरिअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।
"स्थैर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'थेरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त 'स्' का लोप; १-१४८ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त - व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 289
नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'थेरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
भारिआ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-२४ में की गई है। 'गाम्भीर्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गम्भीरिअं' और 'गहीरिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अकी प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'गम्भीरिअं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(गाम्भीर्यम्=) 'गहीरिअं में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से हलन्त व्यञ्जन 'म' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप: ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'गहीरिअं' भी सिद्ध हो जाता है।
'आयरिओ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७३ में की गई है। 'सुन्दरिअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६० में की गई है।
'शौर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१५९ से 'ओ' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सोरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'वीर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वीरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वीरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'वर्यम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सूर्यः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सूरिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सूरिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __'धैर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धीरिअं होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१५५ से 'ऐ' के स्थान 'ई' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'धीरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'बम्हचरिअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-६२ में की गई है। ।। २-१०७।।
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
290 : प्राकृत व्याकरण
स्वप्ने नात् ।। २-१०८।। स्वप्नशब्दे नकारात् पूर्व इद् भवति।। सिविणो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्वप्न' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- स्वप्नः सिविणो।।२-१०८।।
स्निग्धे वादितौ ॥ २-१०९॥ स्निग्धे संयुक्तस्य नात् पूर्वी अदितौ वा भवतः।। सणिद्धं सिणिद्ध। पक्षे निद्ध।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्निग्ध' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से कभी आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है अथवा कभी आगम रूप 'इ' की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे:- स्निग्धम् सणिद्धं अथवा सिणिद्धं; अथवा पक्षान्तर में निद्ध रूप भी होता है।
"स्निग्धम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सणिद्ध, 'सिणिद्ध' और 'निद्ध' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०९ से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-२२८ से'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सणिद्धं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(स्निग्धम्= ) 'सिणिद्ध' में सूत्र संख्या २-१०९ से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सिणिद्ध' भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप-(स्निग्धम्= ) 'निद्ध' में सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त 'स्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप 'निद्ध' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०९।।
कृष्णे वर्णे वा ।। २-११०॥ कृष्णे वर्णे वाचिनि संयुक्तास्यान्त्यव्यञ्जनात्-पूर्वी अदितौ वा भवतः।। कसणो कसिणो कण्हो।। वर्ण इति किम्॥ विष्णो कण्हो॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'कृष्ण' का अर्थ जब 'काला' वर्ण वाचक हो तो उस अवस्था में इसके प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ण' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ष' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है अथवा कभी वैकल्पिक रूप से आगम रूप'ई' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कृष्णः = (काला वर्णीय)-कसणो अथवा कसिणो।। कभी-कभी कण्हो भी होता है।
प्रश्नः- मूल सूत्र में वर्ण'-(रंग वाचक)-ऐसा शब्द क्यों दिया गया है ?
उत्तरः- संस्कृत साहित्य में 'कृष्ण' शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक तो 'काला-रंग'-वाचक अर्थ होता है और दूसरा भगवान् कृष्ण-वासुदेव वाचक अर्थ होता है। इसलिये संस्कृत मूल शब्द 'कृष्ण' में 'ण' व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ष' में आगम रूप 'अ की अथवा 'इ' की प्राप्ति केवल वर्ण वाचक-स्थिति में ही होती है; द्वितीय अर्थ-वाचक स्थिति में नहीं। ऐसा विशेष अर्थ बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'वर्ण' शब्द जोड़ा गया है। उदाहरण इस प्रकार है:कृष्णः- (विष्णु-वाचक) कण्हो होता है। कसणो भी नहीं होता है और कसिणा भी नहीं होता है। यह अन्तर ध्यान में रखने योग्य है।
कसणो, कसिणो और कण्हो; इन तीनों की सिद्धि सूत्र संख्या २-७५ में की गई है।। २-११०।।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
उच्चार्हति ।। २-१११।।
अर्हत्-शब्दे संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्वी उत् अदितौ च भवतः ।। अरुहो अरहो अरिहो । अरूहन्तो अरहन्तो अरिहन्तो ।।
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 291
अर्थः- संस्कृत शब्द 'अर्हत्' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ह' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र्' में कभी आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है; कभी आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है; तो कभी आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अर्हत्' के प्राकृत में तीन रूप हो जाते हैं। उदाहरण इस प्रकार हैं:- अर्हन्- अरूहो, अरहो और अरिहो।। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- अर्हन्तः - अरूहन्तो, अरहन्तो और अरिहन्तो ।।
=
'अर्हन्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अरूहो,' 'अरहो' और 'अरिहो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- १११ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में क्रम से पक्षान्तर रूप से आगम रूप 'उ'; 'अ' और 'इ' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'अरूहो;' 'अरहो' और 'अरिहा' ये तीनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अर्हन्तः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अरूहन्ता,' 'अरहन्तो' और 'अरिहन्ता' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २ - १११ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' के पूर्व 'में' स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में क्रम से पक्षान्तर रूप से आगम रूप 'उ'; 'अ' और 'इ' की प्राप्ति; और १ - ३७ से अन्त्य विसर्ग के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर क्रम से 'अरूहन्ता,' 'अरहन्तो' और 'अरिहन्ता; ' ये तीनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । ।। २- १११ ।।
पद्म - छद्म- मूर्ख -द्वारे वा ।। २-११२ ।।
एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व उद् वा भवति ।। पउमं पोम्मं ।। छउमं छम्मं ।। मुरुक्खो मुक्खो । दुवारं । पक्षे । वारं । दे। दारं ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द पद्म, छद्म, मूर्ख और द्वार में प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'द्म' के पूर्व में स्थि हलन्त व्यञ्जन 'द्' में, संयुक्त 'ख' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र्' में और संयुक्त 'द्वा' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- · पद्मम्=पउमं अथवा पोम्मं।। छ्दमम्=छउमं अथवा छम्मं । । मूर्ख :- मुरुक्खो अथवा मुक्खो ।। द्वारम् - दुवारं और पक्षान्तर में द्वारम् के वारं, देरं और दारं रूप भी होते हैं।
पउमं और पोम्मं दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १- ६१ में की गई है।
'छद्मम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छउमं' और 'छम्मं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-११२ से संयुक्त व्यञ्जन 'द्म' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'द्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'दु' में से 'द्' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'छउमं' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (छद्मम्=) 'छम्मं' में सूत्र संख्या २- ७७ हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; २-८९ से शेष 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'छम्मं' भी सिद्ध हो जाता है।
'मूर्खः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुरुक्खो' और मुक्खो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २- ११२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ख' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र्' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; २-८९ से शेष 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २- ९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मुरूक्खो' सिद्ध हो जाता है।
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
292 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप 'मुक्खो ' की सिद्धि सूत्र संख्या २-८९ में की गई है। दुवारं, बारं, देर और दारं इन चारों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७९ में की गई है।। २-११२।।
तन्वीतुल्येषु ॥२-११३।। उकारान्ता ङीप्रत्ययान्तास्तन्वी तुल्याः। तेषु संयुक्तस्यान्त्य-व्यञ्जनात् पूर्व उकारो भवति।। तणुवी। लहुवी। गरूवी। बहुवी। पुहुवी। मउवी।। क्वचिदन्यत्रापि। सुघ्नम्। सुरुग्घं।। आर्षे। सूक्ष्मम्। सुहुम।।
अर्थः- उकारान्त और 'डी' अर्थात् 'ई' प्रत्ययान्त तन्वी (तनु+ई-तन्वी) इत्यादि ऐसे शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:___ तन्वी=(तनु-ई-) तणुवी। लघ्वी= (लघु+ई=) लहुवी। गुर्वी= (गुरू+ई-) गरुवी। बह्वी=(बहु-ई=) बहुवी। पृथ्वी-(पृथु-ई-) पुहुवी। मृद्वी= (मृदु+ई-) मउवी।। इत्यादि। कुछ संस्कृत शब्द ऐसे भी हैं; जिनमें 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होने पर भी उनके प्राकृत रूपान्तर में उनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- सुन्धम् सुरुग्घ।। ऐसे उदाहरण 'तन्वी' आदि शब्दों से भिन्न-स्थिति वाले हैं। क्योंकि इनमें 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होने पर भी आगम रूप 'उ' की प्राप्ति संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में होती देखी जाती है। आर्ष-प्राकृत-रूपों में भी संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे-सूक्ष्मम् (आर्ष-रूप) सुहुम।।
'तन्वी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तणुवी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'न' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति और १-२२८ से प्राप्त 'नु' में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'तणुवी रूप सिद्ध हो जाता है।
'लघ्वी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लहुवी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'घ' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति और १-१८७ से प्राप्त 'घु' में स्थित 'घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर 'लहुवी रूप सिद्ध हो जाता है।
'गुर्वी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गरुवी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; और १-१०७ से प्राप्त 'गु' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'गरूवी रूप सिद्ध हो जाता है। __'बहवी' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बहुवी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ह' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होकर 'बहुवी रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुहुवी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है।
'मृद्वी' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मउवी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; और १-१७७ से प्राप्त 'दु' में से 'द्' व्यञ्जन का लोप होकर 'मउवी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्रुघ्नम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुरुग्घं होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-११३ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन "स्त्रु" में स्थित हलन्त पूर्व व्यञ्जन 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'घ' को द्वित्व 'घ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'घ' के स्थान पर 'ग्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुरूग्घं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सुहुमं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११८ में की गई है।। २-११३।।
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 293
॥ एक स्वरे श्वः-स्वे ।। २-११४।। एक स्वरे पदे-यो श्वस् श्व इत्येतो तयोरन्त्य व्यञ्जनात् पूर्व उद् भवति।। श्वःकृतम्। सुवे कयं।। स्वे जनाः।। सुवे जणा।। एक स्वर इति किम्। स्व-जनः। स-यणो।।
अर्थः- जब 'श्वस्' और 'स्व' शब्द एक स्वर वाले ही हों; अर्थात् इन दोनों में से कोई भी समास रूप में अथवा अन्य किसी रूप में स्थित न हों; और इनकी स्थिति एक स्वर वाली ही हो तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' अथवा 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:-श्वः कृतम्-सुवेकयं।। स्वेजनाः-सुवे जणा।।
प्रश्नः- 'एक स्वर वाला' ही हो; तभी उनमें आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि श्वः और स्व शब्द में समास आदि में रहने के कारण से एक से अधिक स्वरों की उपस्थिति होगी तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'श्' अथवा 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-स्व-जनः-स-यणो।। इस उदाहरण में 'स्व' शब्द 'जन' के साथ संयुक्त होकर एक पद रूप बन गया है; और इससे इसमें तीन स्वरों की प्राप्ति जैसी स्थिति बन गई है; अतः 'स्व' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्में आगम रू भी अभाव हो गया है। यों अन्यत्र भी जान लेना एवं एक स्वर से प्राप्त होने वाली स्थिति का भी ध्यान रख लेना चाहिये।
"श्वः' (श्वस्') संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुवे' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११४ से संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'शु में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-५७ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप होकर 'सुवे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कयं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १–१२६ में की गई है।
'स्व' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुवे' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११४ से संयुक्त व्यञ्जन 'वे' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होकर 'सुवे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जनाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त
और लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'जणा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्व-जनः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'स-यणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' का लोप; १-१७७ से 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हए 'ज' में से शेष रहे हए 'अ'को 'य' की प्राप्ति: १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'स-यणो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-११४।।
ज्यायामीत् ।। २-११५।। ज्याशब्दे अन्त्य-व्यञ्जनात् पूर्व ईद् भवति।। जीआ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'ज्या' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' में आगम रूप 'ई' की प्राप्ति होती है। जैसे:-ज्या जीआ।।
'ज्या' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जीआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११५ से संयुक्त व्यञ्जन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' में आगम रूप 'ई' की प्राप्ति और २-७८ से 'य' का लोप होकर 'जीआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-११५।।
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
294 : प्राकृत व्याकरण
करेणु-वाराणस्योर-जो-र्व्यत्ययः ।। २-११६।। अनयो रेफणकारयोर्व्यत्ययः स्थितिपरिवृत्तिर्भवति।। कणेरू। वाणारसी। स्त्रीलिंग निर्देशात् पुसि न भवति। एसो करेणु॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'करेणु' और 'वाराणसी में स्थित 'र' वर्ण और 'ण' का प्राकृत-रूपान्तर में परस्पर में व्यत्यय अर्थात् अदला-बदली हो जाती है। 'ण' के स्थान पर 'र' और 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार की वर्णो सम्बन्धी परस्पर में होने वाली अदला-बदली को संस्कृत भाषा में व्यत्यय कहते हैं। ऐसे व्यत्यय का दसर स्थित 'परिवृत्ति' भी है। उदाहरण इस प्रकार है-करेणुः कणेरू।। वाराणसी-वाणारसी। इन दोनों उदाहरणों में 'ण' और 'र' का परस्पर में व्यत्यय हुआ है। करेणु संस्कृत शब्द के हाथी अथवा हथिनी' यों दोनों लिंग वाचक अर्थ होता है;
सार'र' और 'ण' वणों का परस्पर में व्यत्यय केवल स्त्रीलिंग वाचक अर्थ में ही होता है। पुल्लिग-वाचक अर्थ ग्रहण करने पर इस
इन 'ण' और 'र' वर्णो का परस्पर में व्यत्यय नहीं होगा। जैसे:- एषः करेणुः एसो करेणू यह हाथी।। करेणुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप (स्त्रीलिंग में) 'कणेरू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११६ से 'र' वर्ण का और 'ण' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'कणेरू' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'वाराणसी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'वाणारसी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११६ से 'र' वर्ण का और 'ण' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय होकर 'वाणारसी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'एषः' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'एसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८५ से मूल संस्कृत एतद् सर्वनाम के स्थान पर एस रूप की आदेश प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि'
'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एसो' रूप सिद्ध हो जाता है। एष: एसो की साधनिका निम्न प्रकार से भी हो सकती है। सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और १-३७ से 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर 'एसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
करेणुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप (पुल्लिंग में)-'करेणू' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-१९ से 'प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'करेणू रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-११६।।
आलाने लनोः ।। २-११७॥ आलान शब्दे लनोर्व्यत्ययो भवति।। आणालो। आणाल-क्खम्भो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द आलान के प्राकृत रूपान्तर में 'ल' वर्ण का और 'न' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे:-आलानः=आणालो।। आलान-स्तम्भः आणाल-क्खम्भो।। ___ 'आलानः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप आणालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११७ से 'ल' वर्ण का और 'न' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आणालो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'आणाल'-खम्भो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९७ में की गई है।। २-११७।।
अचलपुरे च-लोः ।। २-११८।। अचलपुर शब्दे चकार लकारयो र्व्यत्ययो भवति।। अलचपुरं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द अचलपुर के प्राकृत-रूपान्तर में 'च' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे:- अचलपुरम् अलचपुरं।।
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 295
'अचलपुरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'अलचपुरं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११८ से 'च' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में व्यत्ययः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अलचपुरं' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-११८||
महाराष्ट्र ह-रोः ॥ २-११९।। महाराष्ट्र शब्दे हरोर्व्यत्ययो भवति।। मरहटुं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द महाराष्ट्र के प्राकृत-रूपान्तर में 'ह' वर्ण का और 'र' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे:- महाराष्ट्रम्-मरहटुं।। मरहटुं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९९ में की गई है।। २-११९।।
हृदे ह-दोः ।। २-१२०॥ हद शब्दे हकार दकारयोर्व्यत्ययो भवति।। दहो।। आर्षे। हरए महपुण्डरिए।।
अर्थः- संस्कृत शब्द हृद के प्राकृत रूपान्तर में 'ह' वर्ण का और 'द्' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे-हदः-दहो।। आर्ष-प्राकृत में हृदः का रूप हरए भी होता है। जैसे-हद:महापुण्डरीकः हरए महपुण्डरिए।।
'दहो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८० में की गई है। 'हरए' आर्ष-प्राकृत रूप है। अतः साधनिका का अभाव है।
'महापुण्डरीकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महापुण्डरिए होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-१०१ से'ई' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; और ४-२८७ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १-१० से लोप हए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ' का आगे 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति हो जाने से लोप होकर 'महपुण्डरिए' रूप सिद्ध हो जाता है।। २-१२०।।
हरिताले र-लोर्न वा ।। २-१२१।। हरिताल शब्दे रकारलकारयो र्व्यत्ययो वा भवति। हलिआरो हरिआलो।।
अर्थ:- संस्कृत शब्द हरिताल के प्राकृत रूपान्तर में 'र' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय वैकल्पिक रूप से होता है। जैसे:- हरितालः हलिआरो अथवा हरिआलो।।
'हरितालः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत-रूप 'हलिआरो' और 'हरिआलो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२१ से 'र' और 'ल' का परस्पर में व्यत्यय; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हलिआरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(हरिताल:= ) 'हरिआलो' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'हलिआरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२१।।
लघुके ल-होः ।। २-१२२।। लघुक शब्दे घस्य हत्वे कृते लहोर्व्यत्ययो वा भवति।। हलुओ लहुआ। घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वात् हो न प्राप्नोतीति हकरणम्।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'लघुक' में स्थित 'घ' व्यञ्जन के स्थान पर सूत्र संख्या १--१८७ से 'ह' आदेश की प्राप्ति करने पर इस शब्द के प्राकृत रूपान्तर में प्राप्त 'ह' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:- लघुकम् हलुअं अथवा लहु।। सूत्र संख्या १-१८७ में ऐसा विधान है कि ख, घ, थ, ध और भ वर्ण शब्द के
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
296 : प्राकृत व्याकरण
आदि में स्थित न हों तो इन वर्गों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। तद्नुसार 'लघुक' में स्थित 'घ' के स्थान पर प्राप्त होने वाला 'ह' शब्द के आदि स्थान पर आ गया है; एवं इस विधान के अनुसार 'घ' के स्थान पर इस आदि 'ह' की प्राप्ति नहीं होनी चाहिये थी। परन्तु यहां 'ह' की प्राप्ति व्यत्यय नियम से हुई है; अतः सूत्र संख्या १-१८७ से आबधित होता हुआ और इस अधिकृत विधान से व्यत्यय की स्थिति को प्राप्त करता हुआ 'ह' आदि में स्थित रहे तो भी नियम विरूद्ध नहीं है। __ 'लघुकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हलुअं' और 'लहुअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति; २-१२२ से प्राप्त 'ह' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'हलुअंऔर 'लहु दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।।२-१२२।।
ललाटे ल-डोः ॥ २-१२३।। ललाट शब्दे लकार डकारयो र्व्यत्ययो भवति वा।। णडालं। णलाडं। ललाटे च {१-२५७} इति आदे र्लस्य णविधानादिह द्वितीयो लः स्थानी।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'ललाट' के प्राकृत रूपान्तर में सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' के स्थान पर प्राप्त 'ड' वर्ण का और द्वितीय 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:- ललाटम् ‘णडालं' अथवा णलाड।। मूल संस्कृत
लकार है इनमें से प्रथम 'ल' कार के स्थान पर सत्र संख्या १-२५७ से 'ण' की प्राप्ति हो जाती है। अतः सूत्र संख्या २-१२३ में जिन 'ल' वर्ण की और 'ड' वर्ण की परस्पर में व्यत्यय स्थिति बतलाई है; उनमें 'ल' कार द्वितीय के सम्बन्ध में विधान है-ऐसा समझना चाहिये।।
'ललाटम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णडालं' और 'णलाड' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप णडालं की सिद्धि सूत्र संख्या १-४७ में की गई है। द्वितीय रूप-(ललाटम्) णलाडं में सूत्र संख्या १-२५७ से प्रथम 'ल' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'णलाड' भी सिद्ध हो जाता है।।२-१२३।।
ह्ये ह्योः ।। २-१२४॥ ह्यशब्दे हकारयकारयोर्व्यत्ययो वा भवति।। गुह्यम्। गुह्यं गुज्झं।। सह्यः। सह्यो सज्झो।।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'ह्य' व्यञ्जन रहे हुए हों तो ऐसे संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में 'ह' वर्ण और 'य' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय हो जाता है। जैसे:- गुह्यम् गुह्यं अथवा गुज्झं और सह्यः सह्यो अथवा सज्झो।। इत्यादि अन्य शब्दों के संबंध में भी यही स्थिति जानना।।
'गुह्यम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गुह्य' और 'गुज्झं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-११४ से 'ह' वर्ण की और 'य' वर्ण की परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'गुह्यं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप गुज्झ की सिद्धि सूत्र संख्या २-२६ में की गई है।
'सह्यः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सह्ये' और 'सज्झो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२४ से 'ह' वर्ण की और 'य' वर्ण की परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सह्या' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'सज्झो' की सिद्धि सूत्र संख्या २-२६ में की गई है।।२-१२४।।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 297
स्तोकस्य थोक्क-थोव-थेवाः ।। २-१२५।। स्तोक शब्दस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति वा।। थोक्कं थोवं थेवं। पक्षे। थो।
अर्थः- संस्कृत शब्द स्तोक के प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से तीन आदेश इस प्रकारसे होते हैं। स्तोकम्-थोक्कं, थोवं और थेव।। वैकल्पिक-स्थिति होने से प्राकत-व्याकरण के सत्रों के विधानानसार स्तोकम क त रूप थोअं भी होता है।
'स्तोकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चार होते हैं। जो कि इस प्रकार हैं: थोक्कं, थोव, थेवं और थो इनमें से प्रथम तीन रूपों की प्राप्ति सूत्र संख्या २-१२५ के विधानानुसार आदेश रूप से होती है; आदेश-प्राप्त-रूप में साधनिका का अभाव होता है। ये तीनों रूप प्रथमान्त हैं; अतः इनमें सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ये प्रथम तीनों रूप थोक्कं, थोवं और थेवं सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्थ रूप थोअं की सिद्धि सूत्र संख्या २-४५ में की गई है।।२-१२५।।
दुहितृ-भगिन्योधूआ-बहिण्यौ ।। २-१२६।। अनयोरेतावादेशौ वा भवतः।। धूआ दुहिआ। बहिणी भइणी।।
अर्थः- संस्कृत शब्द दुहित-(प्रथमान्त रूप दुहिता) के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से 'धूआ की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द भगिनी के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश-रूप से 'बहिणी' की प्राप्ति होती है। जैसे:-दुहिता धूआ अथवा दुहिआ और भगिनी-बहिणी अथवा भइणी।। ___ 'दुहिता' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप धूआ और 'दुहिआ' होते हैं। प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२६ से संपूर्ण संस्कृत शब्द दुहिता के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'धूआ' रूप आदेश की प्राप्ति; अतः साधनिका का अभाव होकर प्रथम रूप 'धूआ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दुहिता-) दुहिआ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप होकर द्वितीय रूप दुहिआ की सिद्धि हो जाती है।
'भगिनी संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बहिणी' और 'भइणी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२६ से संपूर्ण संस्कृत शब्द भगिनी के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'बहिणी' रूप आदेश की प्राप्ति; अतः साधनिका का अभाव होकर प्रथम रूप 'बहिणी' सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप-(भगिनी=) 'भइणी' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भइणी' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२६ ।।
वृक्ष-क्षिप्तयो रुक्ख-छूढौ ।।२-१२७।। वृक्ष-क्षिप्तयोर्यथासंख्यं रुक्ख-छूढ इत्यादेशो वा भवतः। रुक्खो वच्छो। छूढं खित्तं। उच्छूढं। उक्खित्त।।
अर्थः- संस्कृत शब्द वृक्ष के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से 'रूक्ख' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षः रूक्खो अथवा वच्छो।। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द 'क्षिप्त' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश-रूप से 'छूढ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- क्षिप्तम्='छूढं अथवा खित्तं।।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- उत्क्षिप्तम् उच्छूढं अथवा उक्खित्त।।
'वृक्षः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'रुक्खो ' और 'वच्छो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२७ से 'वृक्ष के स्थान पर वैकल्पिक रूप 'रूक्ख' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'रूक्खो ' सिद्ध हो जाता है।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
298 : प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप 'वच्छो' की सिद्धि सूत्र संख्या २-१७ में की गई है।
'क्षिप्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छूढ़' और 'खित्त' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'छूढं की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९ में की गई है।
द्वितीय रूप-(क्षिप्तम्=) 'खित्तं' में सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप खित्तं भी सिद्ध हो जाता है।
'उत्क्षिप्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उच्छूढं' और 'उक्खित्तं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२७ से संस्कृत शब्दांश ‘क्षिप्त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से आदेश रूप से 'छूढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छूढ़' में स्थित 'छ' वर्ण को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'उच्छूट सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(उत्क्षिप्तम्=) 'उक्खित्तं' में सूत्र संख्या २-७७ से प्रथम हलन्त् 'त्' और हलन्त 'प्' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति; पुनः २-८९ से लोप हुए 'प्' में से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान होकर द्वितीय रूप 'उक्खित्तं' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२७।।
वनिताया विलया ।। २-१२८॥ वनिता शब्दस्य विलया इत्यादेशो वा भवति।। विलया वणिआ।। विलयेति संस्कृते पीति केचित्।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'वनिता' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'विलया' ऐसा आदेश होता है। जैसे:- वनिता- (वैकल्पिक-आदेश)-विलया और (व्याकरण-सम्मत)-वणिआ।। कोई कोई वैयाकरण-आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि संस्कृत भाषा में वनिता' अर्थवाचक 'विलया' शब्द उपलब्ध है और उसी 'विलया' शब्द का ही प्राकृत-रूपान्तर विलया होता है। ऐसी मान्यता किन्हीं किन्हीं आचार्य की जानना।। ___ 'वनिता' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विलया' और 'वणिआ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या २-१२८ से आदेश रूप से 'विलया' होता है।
द्वितीय रूप-(वनिता=) 'वणिआ' में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर वणिआ रूप सिद्ध हो जाता है। 'विलया' संस्कृत रूप (किसी २ आचार्य के मत से-) है; इसका प्राकृत रूप भी ‘विलया' ही होता है।।२-१२८।।
गौणस्येषतकरः ।। २-१२९॥ ईषच्छब्दस्य गौणस्य कूर इत्यादेशो वा भवति ॥ चिंचव्व कूर-पिक्का। पक्षे ईसि।।
अर्थः- वाक्यांश में गौण रूप से रहे हुए संस्कृत अव्यय रूप 'ईषत्' शब्द के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'कूर' आदेश की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे-चिंचा इव ईषत्-पक्वा-चिंचव्व कूर-पिक्का अर्थात् चिंचा-(वस्तु-विशेष) के समान थोड़ी सी पकी हुई।। इस उदाहरण में 'ईषत्' के स्थान पर 'कूर' आदेश की प्राप्ति हुई है। पक्षान्तर में 'ईषत्' का प्राकृत-रूप 'ईसि होता है। 'ईषत्-पक्वा में दो शब्द है प्रथम शब्द गौण रूप से घिरा हुआ है और दूसरा शब्द मुख्य रूप से स्थित है। इस सूत्र में यह उल्लेख कर दिया गया है कि 'कूर' रूप आदेश की प्राप्ति 'ईषत्' शब्द के गोण रहने
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 299
की स्थिति में होने पर ही होती है। यदि 'ईषत्' शब्द गौण नहीं होकर मुख्य रूप से स्थित होगा तो इसका रूपान्तर 'ईसि' होगा; न कि 'कूर' आदेश; यह पारस्परिक-विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये।
'चिंचा' देशज भाषा का शब्द है। इसका प्राकृत-रूपान्तर 'चिंच' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर चिंच रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्व' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'ईषत्-पक्वा' संस्कृत वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'कूर-पिक्का' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१२९ से 'ईषत्' अव्यय के स्थान पर गौण रूप से रहने के कारण से 'कर' रूप आदेश की प्राप्ति; १-४७ से 'प' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति: २-७९ से 'व' का लोप और २-८९ से शेष द्वितीय 'क' को द्वित्व'क्क' की प्राप्ति होकर 'कर-पिक्का ' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-१२९||
स्त्रिया इत्थी ॥ २-१३०।। स्त्री शब्दस्य इत्थी इत्यादेशो वा भवति ।। इत्थी थी।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'स्त्री' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'इत्थी' रूप आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- स्त्री-इत्थी अथवा थी।
'स्त्री' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इत्थी' और 'थी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप की प्राप्ति सूत्र संख्या २-१३० से 'स्त्री' शब्द के स्थान पर आदेश रूप से होकर प्रथम रूप 'इत्थी' सिद्ध हो जाता है। __ द्वितीय रूप-(स्त्री-) थी' में सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त्' के स्थान पर 'थ्' की प्राप्ति; और २-७९ से '' में स्थित '' का लोप होकर द्वितीय रूप 'थी' भी सिद्ध हो जाता है।। २-१३०।।
धृतेर्दिहिः ॥ २-१३१।। धृति शब्दस्य दिहिरित्यादेशो वा भवति।। दिही धिई।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'धृति' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'दिहि' रूप आदेश होता है। जैसे:-धृतिः-दिही अथवा धिई।।
दिही रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है। धिई रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १–१२८ में की गई है।। २-१३१।।
मार्जारस्य मञ्जर-वजरौ ।। २-१३२।। मार्जार शब्दस्य मञ्जर वञ्जर इत्यादेशौ वा भवतः।। मञ्जरो वञ्जरो। पक्षे मञ्जारो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'मार्जार' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से दो आदेश 'मञ्जरो और वञ्जरो' होते हैं। जैसे-मार्जारः मञ्जरो अथवा वञ्जरो।। पक्षान्तर में व्याकरण सूत्र सम्मत तीसरा रूप 'मज्जारो' होता है।
'मार्जारः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मञ्जरो', 'वञ्जरो' और 'मज्जारो' होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूप सूत्र संख्या २-१३२ से आदेश रूप से और होते हैं। तृतीय रूप-'मञ्जारो की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६ में की गई है।। २-१३२।।
वैर्यस्य वेरुलिअं ।। २-१३३।। वैडूर्य शब्दस्य वेरुलिअ इत्यादेशो वा भवति।। वेरुलिवेडुज्ज।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'वैडूर्य' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'वेरूलिय' आदेश होता है। जैसे:-वैडूर्यम्= (आदेश रूप) वेरुलिअं और पक्षान्तर में- (व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप)- वेडुज्ज।।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
300 : प्राकृत व्याकरण
'वैडूर्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वेरुलिअं' और 'वेडुज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या-२-३३ से आदेश प्राप्त रूप है।
द्वितीय रूप-(वैडूर्यम्=) 'वेडुज्ज' में सूत्र संख्या- १-१४८ से दीर्घ 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति तथा १-८४ से दीर्घ 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' रूप आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'वेडुज्ज' सिद्ध हो जाता है।। २-१३३।।
एण्हिं एत्ताहे इदानीमः ।। २-१३४।। अस्य एतावादेशो वा भवतः।। एण्हि एत्ताहे। इआणि।।
अर्थः- संस्कृत अव्यय 'इदानीम्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'एण्हि' और 'एत्ताहे' ऐसे दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- इदानीम् = (आदेश-प्राप्त रूप)-एण्हिं और एत्ताहे तथा पक्षान्तर में-(व्याकरण-सूत्र-रूप) इआणि।।
एण्हिं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। "इदानीम्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका आदेश प्राप्त रूप 'एत्ताहे' सूत्र संख्या २-१३४ से होता है। 'इआणिं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है।। २-१३४।।
पूर्वस्य पुरिमः ।। २-१३५।। पूर्वस्य स्थाने पुरिम इत्यादेशो वा भवति।। पुरिमं पुव्वं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'पूर्व' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'पुरिम' ऐसे रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-पूर्वम् (आदेश प्राप्त रूप)-पुरिमं और पक्षान्तर में-(व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप)-पुव्व।।
'पूर्वम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पुरिम' और 'पुव्वं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'पुरिमं सूत्र संख्या २-१३५ से आदेश प्राप्त रूप है।
द्वितीय-रूप-(पूर्वम्)= 'पुव्वं' में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'र' के लोप होने के बाद 'शेष 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'पुव्वं' सिद्ध हो जाता है।। २-१३५।।
त्रस्तस्य हित्थ-तटौ।। २-१३६।। त्रस्त शब्दस्य हित्थत? इत्यादेशौ वा भवतः ।। हित्थं। तटुं तत्थं।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'त्रस्त' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'हित्थ' और 'त?' ऐसे दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- त्रस्तम् (आदेश-प्राप्त रूप)-हित्थं और तटुं तथा पक्षान्तर में-(व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप)-तत्थं।।
'त्रस्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत-रूप 'हित्थं', 'तटुं' और 'तत्थं होते हैं। इनमें प्रथम दो रूप 'हित्थं और 'तटुं' सूत्र संख्या २-१३६ से आदेश-प्राप्त रूप है। - तृतीय-रूप-(त्रस्तम्)- 'तत्थं' में सूत्र संख्या २-७९ से 'त्र' में रहे हुए 'र' का लोप; २-४५ से स्त' के स्थान पर 'थ'
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 301
की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तृतीय रूप 'तत्थं' भी सिद्ध हो जाता है।। २-१३६।।
बृहस्पतो बहोभयः ।। २-१३७॥ बृहस्पति शब्दे बह इत्यस्यावयवस्य भय इत्यादेशो वा भवति।। भयस्सई भयप्फई।। पक्षे। बहस्सई। बहप्फई बहप्पई।। वा बृहस्पती (१-१३८) इति इकारे उकारे च बिहस्सई। बिहप्फई। बिहप्पई। बुहस्सई। बुहप्फई। बुहप्पई।
अर्थः- संस्कत शब्द 'बहस्पति' में स्थित 'बह' शब्दावयव के स्थान पर प्राकत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'भय' ऐसे आदेश-रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:- बृहस्पतिः भयस्सई, भयप्फई और भयप्पई।। पक्षान्तर में ये तीन रूप होते हैं:- बहस्सई बहप्फई और बहप्पई।। सत्र संख्या १-१३८ से 'बहस्पति' शब्द में रहे हए 'ऋ' स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से कभी 'इ' स्वर की प्राप्ति होती है; तो कभी 'उ' स्वर की प्राप्ति होती है; तदनुसार बृहस्पति शब्द के छह प्राकृत रूप और हो जाते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार है:- बिहस्सई, बिहप्फई, बिहप्पई, बुहस्सई, बुहप्फई और बुहप्पई।।
भयस्सई और भयप्फई रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या २-६९ में की गई है। ये दोनों रूप बारह रूपों में से क्रमशः प्रथम और द्वितीय रूप हैं।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका - (बारह रूपों में से तीसरा) प्राकृत-रूप 'भयप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१३७ से प्राप्त 'बह' शब्दावयव के स्थान पर आदेश रूप से 'भय' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'भयप्पई रूप सिद्ध हो जाता है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप -(बारह रूपों में से छठा) 'बहप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका 'भयप्पई के समान ही होकर 'बहप्पई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ बहस्सई और 'बहप्फई रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या २-६९ में की गई है। ये दोनों रूप बारह रूपों में से क्रमशः चौथा और पाँचवा रूप है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(बारह रूपों में से सातवाँ) 'बिहस्सई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति; २-६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'स' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'भयप्पई रूप के समान होकर बिहस्सई रूप सिद्ध हो जाता है।
'बिहप्फई' आठवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(बारह रूपों में से नववाँ) 'बिहप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'भयप्पई रूप के समान होकर 'बिहप्पई' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(बारह रूपों में से दसवाँ)-'बुहस्सई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त बिहस्सई रूप के समान ही होकर 'बुहस्सइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बुहप्फई' ग्यारहवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई है। 'बुहप्पई बारहवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५३ में की गई है।। २-१३७।।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
302 : प्राकृत व्याकरण
मलिनोभय-शुक्ति-छुप्तारब्ध-पदातेर्मइलावह-सिप्पि
छिक्काढत्त-पाइक्कं।।२-१३८।। मलिनादीनां यथासंख्यं मइलादय आदेशा वा भवन्ति।। मलिनम्। मइल मलिणं।। उभयं। अवह। उवहमित्यपि केचित्। अवहोआसं। उभयबल।। आर्षे। उभयोकाल।। शुक्तिः। सिप्पी सुत्ती।। छुप्तः। छिक्को छुत्तो।। आरब्धः। आढत्तो आरद्धो।। पदातिः। पाइक्को-पयाई।।
अर्थः- संस्कृत शब्द "मलिन, उभय, शुक्ति, छुप्त, आरब्ध और पदाति" के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से क्रम से इस प्रकार आदेश रूप होते हैं; मइल, अवह, सिप्पि, छिक्क, आढत्त और पाइक्क।। आदेश प्राप्त रूप
और व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप क्रम से इस प्रकार है:- मलिनम मइलं अथवा मलिणं।। उभयं-अवहं अथवा उभयं।। कोई-कोई वैयाकरणाचार्य 'उभयं' का प्राकृत रूप 'उवह भी मानते हैं। जैसे-उभयावकाशम् अवहोआसं पक्षान्तर में 'उभय' का उदाहरण 'उभयबल' भी होता है। आर्ष-प्राकृत में भी 'उभय' का उदाहरण 'उभयोकालं जानना। शुक्ति-सिप्पी अथवा सुत्ती।। छुप्तः छिक्को अथवा छुत्तो।। आरब्धः आढत्तो अथवा आरद्धो।। और पदाति:=पाइक्को अथवा पयाई। ___ मलिनम्:- संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मइल और मलिणं होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१३८ से 'मलिन' के स्थान पर 'मइल' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मइल रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(मलिनम् ) मलिणं में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप 'मइल' के समान ही होकर द्वितीय रूप मलिणं भी सिद्ध हो जाता है।
उभयम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप उभयं, अवहं और उवहं होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप उभयं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(उभयम्=) अवहं में सूत्र संख्या २-१३८ से 'उभय' के स्थान पर 'अवह' का आदेश और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर द्वितीय रूप अवह भी सिद्ध हो जाता है।
ततीय रूप-(अभयम) उवहं में सत्र संख्या २-१३८ की वत्ति से'उभय' के स्थान पर 'उवह रूप की आदेश-प्राप्ति: और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप उवह भी सिद्ध हो जाता है; उभयावकाशं संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप अवहोआसं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१३८ से 'अभय' के स्थान पर 'अवह रूप की आदेश प्राप्ति; १-१७२ से 'अव उपसर्ग के स्थान पर 'ओ' स्वर की प्राप्ति; १-१० से आदेश प्राप्त रूप 'अवह' में स्थित 'ह' के 'अ' को आगे 'ओ' स्वर की प्राप्ति होने से लोप; १-५ से हलन्त शेष 'ह' में पाश्र्वश्थ 'ओ' की संधि; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अवहोआसं रूप सिद्ध हो जाता है।
उभय-बलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उभयबलं होता है; इसमें सूत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उभय बलं' रूप सिद्ध हो जाता है।
उभय कालम् संस्कृत रूप है; इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'उभयोकालं होता है; इसमें सूत्र-संख्या २-१३८ की वृत्ति से उभय-काल के स्थान पर 'उभयो काल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उभयो कालं' रूप . सिद्ध हो जाता है।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 303 शुक्तिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सिप्पी' और 'सुत्ती' होते हैं; इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१३८ से शुक्ति के स्थान पर 'सिप्पि' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सिप्पी' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(शुक्तिः ) सुत्ती में सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-७७ से 'क्ति' में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'क' का लोप; २-८९ से शेष रहे हए 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'सुत्ती' सिद्ध हो जाता है।
छुप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छिको' और 'छुत्तो' होते हैं; इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१३८ से 'छुप्त' के स्थान पर 'छिक्क' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'छिक्को' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(छुप्त=) छुत्तो में सूत्र-संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'प्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'छुत्तो' सिद्ध हो जाता है।
'आरब्धः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'आढत्तो' और 'आरद्धो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१३८ से 'आरब्ध' के स्थान पर आढत्त' रूप की आदेश-प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'आढत्तो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(आरब्धः=) 'आरद्धो' में सूत्र संख्या २-७९ से हलन्त व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को द्वित्व 'ध्ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'आरद्धो' सिद्ध हो जाता है।
'पदातिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पाइक्का' और 'पयाई' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१३८ से 'पदाति' के स्थान पर 'पाइक्क' रूप की आदेश-प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पाइक्को' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(पदातिः=) 'पयाइ' में सूत्र संख्या १–१७७ से 'द्' और 'त्' दोनों व्यञ्जनों का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में से शेष रहे हुए 'आ' को 'या' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'पयाई' सिद्ध हो जाता है। ।। २-१३८।।
दंष्ट्राया दाढा ।।२-१३९।। पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम्। दंष्ट्रा शब्दस्य दाढा इत्यादेशो भवति।। दाढा। अयं संस्कृते पि।।
अर्थः- उपरोक्त सूत्रों में आदेश-प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है; किन्तु इस सूत्र से प्रारम्भ करके आगे के सूत्रों में वैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्ति का अभाव है; अर्थात् इन आगे के सूत्रों में आदेश प्राप्ति निश्चित रूप से है; अतः उपरोक्त सूत्रों से इन सूत्रों की पारस्परिक-विशेषता को अपर नाम ऐसे 'पृथक् योग' को ध्यान में रखते हुए 'वा' स्थिति की-वैकल्पिक स्थिति की-निवृत्ति जानना इसका अभाव जानना। संस्कृत शब्द 'दंष्ट्रा' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'दाढा' ऐसी आदेश-प्राप्ति होती है। संस्कृत साहित्य में 'दंष्ट्रा' के स्थान पर 'दाढा' शब्द का प्रयोग भी देखा जाता है।
'दंष्ट्रा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दाढा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३९ से 'दंष्ट्रा' के स्थान पर 'दाढा' आदेश होकर 'दाढा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१३९।।
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
304 : प्राकृत व्याकरण
बहिसो बाहिं-बाहिरौ ॥ २-१४०।। बहिः शब्दस्य बाहिं बाहिर इत्यादेशौ भवतः ।। बाहिं बाहिरं।।
अर्थः- संस्कृत अव्यय 'बहिस्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में बाहिं' और 'बाहिर' रूप आदेशों की प्राप्ति होती है। जैसे:- बहिस् बाहिं और बाहिरं।
'बहिस्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बाहिं' और 'बाहिर होते हैं। इन दोनों रूपों में सूत्र संख्या २-१४० से 'बहिस्' के स्थान पर 'बाहिं' और 'बाहिरं' आदेश होकर दोनों रूप 'बाहिं' और 'बाहिर' सिद्ध हो जाते हैं।। २-१४०॥
अधसो हेर्दै ॥ २-१४१।। अधस् शब्दस्य हेटुं इत्ययमादेशो भवति।। हेटुं।। अर्थः- संस्कृत अव्यय अधः' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'हे?' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-अधस्-जैहेटुं। 'अधस्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हेटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४१ से 'अधस्' के स्थान पर 'हेटुं' आदेश होकर 'हेटुं' रूप सिद्ध हो जाता है।। २-१४१।।
मातृ-पितुः स्वसुः सिआ-छौ ।। २-१४२।। मातृ-पितृभ्याम् परस्य स्वसृशब्दस्य सिआ छा इत्यादेशौ भवतः।। माउसिआ। माउ-च्छा। पिउ-सिआ। पिउ च्छा।।
अर्थः- संस्कत शब्द 'मात' अथवा 'पित' के पश्चात समास रूप से 'स्वस' शब्द जडा हआ हो तो ऐसे शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में 'स्वसृ' शब्द के स्थान पर 'सिआ' अथवा 'छा' इन दो आदेशों की प्राप्ति होती है। जैसे:मातृ-ष्वसा=माउ-सिआ अथवा माउ-च्छा।। पितृ-ष्वसा=पिउ-सिआ अथवा पिउ-च्छा।।
'मातृ-ष्वसा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'माउ-सिआ' और 'माउ-च्छा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'माउ-सिआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३४ में की गई है।
द्वितीय रूप (मातृ-ष्वसा=) माउ-च्छा में सूत्र संख्या १-१३४ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'तु' में से 'त्' व्यञ्जन का लोप; २-१४२ से 'ष्वसा' के स्थान पर 'छा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व'छ' के स्थान पर 'च' होकर द्वितीय रूप-'माउ-च्छा' भी सिद्ध हो जाता है। __ "पितृ-ष्वसा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पिउ-सिआ' और 'पिउ-च्छा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'पिउ-सिआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३४ में की गई है।
द्वितीय रूप (पितृ-ष्वसा=) 'पिउ-च्छा' में सूत्र संख्या १-१३४ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'तु में से 'त्' व्यञ्जन का लोप; २-१४२ से 'ष्वसा' के स्थान पर 'छा' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप-'पिउ-च्छा' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४२।।
तिर्यचस्तिरिच्छिः ।। २-१४३।। तिर्यच् शब्दस्य तिरिच्छिरित्यादेशो भवति।। तिरिच्छि पेच्छइ॥ आर्षे तिरिआ इत्यादेशो पि। तिरिआ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'तिर्यच' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'तिरिच्छि' ऐसा आदेश होता है। जैसे:- तिर्यक् प्रेक्षते-तिरिच्छि पेच्छइ। आर्ष प्राकृत में 'तिर्यक् के स्थान पर 'तिरिआ ऐसे आदेश की भी प्राप्ति होती है। जैसे:तिर्यक् तिरिआ।।
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 305
"तिर्यक् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तिरिच्छि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४३ से 'तिर्यक्' के स्थान पर 'तिरिच्छि' की आदेश-प्राप्ति होकर 'तिरिच्छि' रूप सिद्ध हो जाता है।
"प्रेक्षते' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेच्छइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पेच्छइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तिर्यक् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'तिरिआ होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१४३ से 'तिर्यक् के स्थान पर 'तिरिआ' आदेश की प्राप्ति होकर 'तिरिआ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४३।।
गृहस्य घरोपतौ ॥ २-१४४।। गृहशब्दस्य घर इत्यादेशो भवति पति शब्दश्चेत् परो न भवति।। घरो। घर-सामी। राय-हरं।। अपतावितिकिम्। गह-वई। __अर्थः- संस्कृत शब्द 'गृह' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'घर' ऐसा आदेश होता है। परन्तु इसमें यह शर्त रही हुई है कि 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द नहीं होना चाहिये। यदि 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द स्थित होगा तो 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश की प्राप्ति नहीं होगी। उदाहरण इस प्रकार है:- गृहः घरो।। गृह-स्वामी-घर-सामी।। राज-गृहम् राय-ह।।
प्रश्नः- 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द नहीं होना चाहिये; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि संस्कृत शब्द 'गृह' के आगे 'पति' शब्द स्थित होगा तो 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश की प्राप्ति नहीं होकर अन्य सूत्रों के आधार से 'गह' रूप की प्राप्ति होगी। जैसे:- गृह-पतिः=गह-वई।।
'गृहः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गृह-स्वामी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घर-सामी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश और २-७९ से व्' का लोप होकर 'घर-सामी' रूप सिद्ध हो जाता है!
'राज-गृहम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'राय-हर' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'राय-हरे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गृह-पतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गह-वई होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर 'गह-वइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४४।।
शीलाद्यर्थस्येरः ॥ २-१४५।। शीलधर्मसाध्वर्थे विहितस्य प्रत्ययस्य इर इत्यादेशो भवति। हसन-शीलः हसिरो। रोविरो। लज्जिरो। जम्पिरो। वेविरो। भमिरो ऊससिरो।। केचित् तृन एव इरमाहुस्तेषां नमिरगमिरादयो न सिध्यन्ति। तृनोत्ररादिना बाधितत्वात्।।
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
306 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'शील' अथवा 'धर्म' अथवा 'साधु' वाचक प्रत्यय रहा हुआ हो तो इन प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'इर' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- हसनशीलः अर्थात् 'हसितृ' के संस्कृत रूप 'हसिता' का प्राकृत रूप 'हसिरो' होता है। रोदितृ-रोदिता-रोविरो। लज्जितृ-लज्जिता लज्जिरो। जल्पितृ जल्पिता जपिरो। वेपितृ-वेपिता-वेविरो। भमितृ भ्रमिता भमिरो। उच्छ् वसितृ-उच्छ् वसिता ऊस सिरो।। कोई-कोई व्याकरणाचार्य ऐसा मानते हैं कि 'शाल', 'धर्म' और साधु वाचक वृत्ति को बतलाने वाले प्रत्ययों के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है; किन्तु केवल तृन्' प्रत्यय के स्थान पर ही 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उनके सिद्धान्त से 'नमिर' 'गमिर' आदि रूपों की सिद्धि नहीं हो सकेगी। क्योंकि यहाँ पर 'तृन्' प्रत्यय का अभाव है; फिर भी 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति हो गई है। इस प्रकार यहाँ पर 'बाधा-स्थिति उत्पन्न हो गई है। अतः 'शील' 'धर्म' और 'साधु' वाचक प्रत्ययों के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति प्राकृत-रूपान्तर में उसी प्रकार से होती है; जिस प्रकार से कि-'तृन' प्रत्यय के स्थान पर 'इर' प्रत्यय आता है।
'हसिता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हसिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हसिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'रोदिता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रोविरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२२६ से 'द्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रोविरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लज्जिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'लज्जिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लज्जिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'जल्पिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'जम्पिरो' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; २-७९ से 'ल' का लोप; १-२६ से 'ज' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से आगम रूप से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर आगे 'प' वर्ण होने से पंचमान्त वर्ण 'म्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जम्पिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'वेपिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'वेविरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वेविरो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'भ्रमिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'भमिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भमिरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उच्छ्वसिता' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'ऊससिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४ से 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; मूल संस्कृत शब्द उत्+श्वासका उच्छवास होता है तदनुसार मूल शब्द में स्थित 'तृ' का सूत्र संख्या २-७७ से लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; १-८४ से लोप हुए 'व' में से शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 307
प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊससिरा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गमन शीलः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'गमिरो' होता है। मूल संस्कृत धातु 'गम्' है; इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शील' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गामिरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'नमनशीलः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नमिरो' होता है। मूल संस्कृत धातु 'नम्' है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शील' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्तिः और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नमिरा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४६।।
क्त्वस्तुमत्तूण-तुआणाः।। २-१४६।। क्त्वा प्रत्ययस्य तुम् अत् तूण तुआण इत्येते आदेशा भवन्ति।। तुम्। दटुं। मोत्तुं।। अत्। भमि। रमि।। तूणा घेत्तूण। काऊण।। तुआण। भेत्तुआण। सोउआण।। वन्दित्तु इत्यनुस्वार लोपात्।। वन्दित्ता इति सिद्ध-संस्कृतस्यैव वलोपेन।। कटु इति तु आर्षे।।
अर्थः- अव्ययी रूप भूत कृदन्त के अर्थ में संस्कृत भाषा में धातुओं में क्त्वा' प्रत्यय का योग होता है; इसी अर्थ में अर्थात् भूत कृदन्त के तात्पर्य में प्राकृत भाषा में क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्, अत्, तूण, और तुआण' ये चार आदेश होते हैं। इनमें से कोई सा भी एक प्रत्यय प्राकृत-धातु में संयोजित करने पर भूत कृदन्त का रूप बन जाता है। जैसे-'तुम्' प्रत्यय के उदाहरणः-द्दष्ट्वा दटुं-देख करके। मुक्त्वा मोत्तुं छोड़कर के। 'अत्' प्रत्यय के उदाहरणः- भ्रमित्वा=भमि। रमित्वा=रमि।। 'तूण' प्रत्यय के उदाहरण:- गृहोत्वा-घेत्तूण। कृत्वा-काऊण।। 'तुआण' प्रत्यय के उदाहरण:भित्त्वा=भेत्तुआण। श्रुत्वा सोउआण।। __प्राकृत रूप, 'वन्दित्तु भूत कृदन्त अर्थक ही है। इसमें अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' रूप अनुस्वार का लोप होकर संस्कृत रूप 'वन्दित्वा' का ही प्राकृत रूप वन्दित्तु बना है। अन्य प्राकृत रूप 'वन्दित्ता' भी सिद्ध हुए संस्कृत रूप के समान ही 'वन्दित्वा' रूप में से 'ब' व्यञ्जन का लोप करने से प्राप्त हुआ है। संस्कृत रूप ‘कृत्वा' का आर्ष-प्राकृत में 'कटुं' ऐसा रूप होता है। ___ 'दृष्टवा'-संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दटुं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ४-२१३ से 'ष्ट्र के स्थान पर 'ट्ठ' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'तुम्' प्रत्यय में स्थित 'त्' व्यञ्जन का लोप; १-१० से प्राप्त '8' में स्थित 'अ' स्वर के आगे 'तुम्' में से शेष 'उम्' का 'उ' स्वर होने से लोप; १-५ से 'टु' में 'उम्' की संधि होने से 'ठुम्' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर 'दट्टुं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'मुक्त्वा ' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मोत्तुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३७ से 'उ' स्वर को 'ओ' स्वर की गुण-प्राप्ति; २-७७ से 'क्' का लोप और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; और १-२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर 'मोत्तुं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भ्रमित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भमिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ३-१५७ से 'म' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'भमिअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रमित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रमिअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त 'रम्' धातु में 'म्' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त 'म' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति;
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
308 : प्राकृत व्याकरण
२-१४६ से संस्कृत कदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'रमिअरूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गृहीत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घेत्तूण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१० से 'गृह' धातु के स्थान पर 'घेत्' आदेश और २-१४६ से संस्कृत कदन्त 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण' की प्राप्ति होकर 'घेत्तूण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ कृत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'काऊण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१४ से 'कृ' धातु में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-१७७ से प्राप्त 'तूण' प्रत्यय में से 'त्' का लोप होकर 'काऊण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'भित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भेत्तुआण' होता है। मूल संस्कृत धातु 'भिद्' है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३७ से 'इ' के स्थान पर गुण रूप 'ए' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भेत्तुआण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रुत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोउआण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; ४-२३७ से 'सु' में रहे हुए 'उ' के स्थान पर गुण रूप 'ओ' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १-१७७ से प्राप्त 'तुआण' प्रत्यय में से 'त्' व्यञ्जन का लोप होकर 'सोउआण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वन्दित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वन्दित्तु' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४६ से संस्कृत कृदन्त प्रत्यय 'क्त्वा' के स्थान पर 'तुम्' आदेश; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप और २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर 'वन्दित्तु' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वन्दित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वन्दित्ता' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व्' का लोप और २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति होकर 'वन्दित्ता' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कृत्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'कटु' रूप होता है। आर्ष रूपों में साधनिका का प्रायः अभाव होता है। ।। २-१४६।।
इदमर्थस्य केरः ।। २-१४७।। इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केर इत्यादेशो भवति।। युष्मदीयः तुम्हकेरो।। अस्मदीयः। अम्हकेरो।। न च भवति। मईअ-पक्खे। पाणिणीआ।। ___ अर्थः- 'इससे सम्बन्धित' के अर्थ में अर्थात् 'इम अर्थ' के तद्वित प्रत्यय के रूप मे प्राकृत में 'कर' आदेश होता है। जैसे:- युष्मदीयः-तुम्हकरो और अस्मदीयः अम्हकरो।। किसी किसी स्थान पर 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-मदीय-पक्षे-मईअ-पक्खे और पाणिनीया पाणिणीआ ऐसे रूप भी होते हैं।
'तुम्हकेरो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४६ में की गई है। ।
'अस्मदीयः' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्हकेरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१०६ से 'अस्मत्' के स्थान पर 'अम्ह' आदेश; २-१४७ से 'इदम्'-अर्थ वाले संस्कृत प्रत्यय 'इय' के स्थान पर 'केर' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अम्हकेरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मदीय-पक्षे संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मईअ-पक्खे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' और 'य' दोनों का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति;
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 309
२-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मईअ-पक्ख' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पाणिनीयाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाणिणीआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १–१७७ से य का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के पूर्व में अन्त्य हस्व स्वर 'अ'को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'पाणिणीआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४७।।
पर-राजभ्यां क्क-डिक्को च ॥ २-१४८॥ __ पर राजन् इत्येताभ्यां परस्येदमर्थस्य प्रत्ययस्य यथासंख्यं संयुक्तो क्को-डित् इकश्चादेशौ भवतः। चकारात्-केरश्च।। परकीयम्। पारक्क। परक्क। पारके।। राजकीयम्। राइक्क। रायकरं।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'पर' और 'राजन्' के अन्त में 'इदमर्थ' प्रत्यय जुड़ा हुआ हो तो प्राकृत के 'इदमर्थ' प्रत्यय के स्थान पर 'पर' में 'क्क' आदेश और 'राजन्' में 'इक्क' आदेश होता है, तथा मूल सूत्र में 'च' लिखा हुआ है; अतः वैकल्पिक रूप से केर' प्रत्यय की भी प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- परकीयम्=पारक्कं; परक्कं अथवा पारकरें।। राजकीयम्-राइक्कं अथवा रायके।।
'पारक्क' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है।
'परकीयम्' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'परक्क' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४८ से 'कीय के स्थान पर 'क्क' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'परक्क' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पारकर' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है।
'राजकीयम' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'राइक्क' और 'रायकर होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से ज्' का लोप; २-१४८ से संस्कृत प्रत्यय ‘कीय' के स्थान पर 'इक्क' का आदेश; १-१० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' के आगे ‘इक्क' की 'इ' होने से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'राइक्कं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(राजकीयम्=) 'रायकेर' सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० के लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१४८ से संस्कृत प्रत्यय 'कीय' के स्थान पर 'केर' का आदेश; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'रायकेरें भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४८।।
युष्मदस्मदोब-एच्चयः ।। २-१४९।। आभ्यां परस्येदमर्थस्याब एच्चय इत्यादेशो भवति।। युष्माकमिदं यौष्माकम्। तुम्हेच्चयं एवम् अम्हेच्चयं।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम युष्मद् और अस्मद् में 'इदमर्थ' के वाचक प्रत्यय 'अब' के स्थान पर प्राकृत में 'एच्चय' का आदेश होता है। जैसे-'युष्माकम् इदम्=यौष्माकम् का प्राकृत रूप 'तुम्हेच्चयं होता है। इसी प्रकार से 'अस्मदीयम्' का अम्हेच्चयं होता है। __'यौष्माकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुम्हेच्चयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९१ से युष्मत् के स्थान पर 'तुम्ह' का आदेश; २-१४९ से 'इदमर्थ' वाचक-प्रत्यय 'अब' के स्थान पर 'एच्चय' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तुम्हेच्चयं रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
310 : प्राकृत व्याकरण ___ 'अस्मदीयम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अम्हेच्चयं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१०६ से 'अस्मद्' के स्थान पर 'अम्ह' आदेश; २-१४९ से संस्कृत 'इय' प्रत्यय के स्थान पर 'एच्चय' आदेश; १-१० से प्राप्त 'अम्ह' में स्थित 'ह' के 'अ' का आगे 'एच्चय' का 'ए' होने से लोप; १-५ से प्राप्त 'अम्ह' और 'एच्चय' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अम्हेच्चयं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१४९।।
वतेवः ॥२-१५० ।। वतेः प्रत्ययस्य द्विरक्तो वो भवति।। महुरव्व पाडलिउत्ते पासाया।
अर्थः- संस्कृत 'वत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में द्विरुक्त अर्थात् द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति होती है। जैसे:मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादाः महुरव्व पाडिलिउत्ते पासाया। ___ 'मथुरावत्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'महुरव्व होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और २-१५० से 'वत्' प्रत्यय के स्थान पर द्विरुक्त 'व्व' की प्राप्ति होकर 'महुरव्व' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पाटलिपुत्रे' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पाडलिउत्ते' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'प' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पाडलिउत्ते' रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रासादाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पासाया' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'पासाया' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५०।।
सर्वाङ्गादीनस्येकः ।। २-१५१।। _ 'सर्वाङ्गात्' सर्वादेः पथ्यङ्गं {हे. ७-१} इत्यादिना विहितस्येनस्य स्थाने इक इत्यादेशो भवति।। सर्वांगीणः सवङ्गिओ।।
अर्थः- 'सर्वादेः पथ्यंङ्ग' इस सूत्र से-(जो कि हेमचन्द्र संस्कृत व्याकरण के सातवें अभ्यास का सूत्र है) 'सर्वाङ्ग शब्द से प्राप्त होने वाले संस्कृत प्रत्यय 'ईन' के स्थान पर प्राकृत में 'इक' ऐसा आदेश होता है। जैसे:सर्वांगीणः सवङ्गिओ।। _ 'सर्वांगीणः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सवङ्गिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१५१ से संस्कृत प्रत्यय 'ईन' के स्थान पर प्राकृत मे 'इक'; आदेश; १-१७७ से आदेश प्राप्त 'इक' में स्थित 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सङ्गिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५१।।
पथो णस्येकट ।। २-१५२।। नित्यंणः पन्थश्च (हे. ६-४) इति यः पथो णो विहितस्य इकट् भवति।। पान्थः। पहिओ।।
अर्थः- हेमचन्द्र व्याकरण के अध्याय संख्या छह के सूत्र संख्या चार से संस्कृत शब्द 'पथ' में नित्य 'ण' की प्राप्ति होती है; उस प्राप्त 'ण' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'इक' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-पान्थः पहिओ।।
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 311 'पान्थः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पहिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १५२ से 'न' के स्थान पर 'इक' आदेश; १ - १८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - १७७ से आदेश प्राप्त 'इक' के 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पहिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २- १५२ ।।
ईयस्यात्मनो णयः ।। २- १५३।।
आत्मनः परस्य यस्य णय इत्यादेशो भवति ।। आत्मीयम् अप्पणयं ।
अर्थः- 'आत्मा' शब्द में यदि 'ईय' प्रत्यय रहा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में इस 'ईय' प्रत्यय के स्थान पर 'णय' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे- आत्मीयम् अप्पणयं । ।
'आत्मीयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पणय' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - ५१ से 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २-१५३ से संस्कृत प्रत्यय 'ईय' के स्थान पर 'णय' आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अप्पणयं रूप सिद्ध हो
जाता है। ।। २ - १५३ ।।
त्वस्य डिमा - त्तणौ वा ।। २- १५४।।
त्व प्रत्ययस्य डिमा त्तण इत्यादेशौ वा भवतः । पीणिमा । पुप्फिमा । पीणत्तणं । पुप्फत्तणं । पक्षे। पीणत्तं । पुप्फत्तं ।। इम्नः पृथ्वादिषु नियतत्वात् तदन्य प्रत्ययान्तेषु अस्य विधिः । । पीनता इत्यस्य प्राकृते पीणया इति भवति । पीणदा इति तु भाषान्तरे । ते नेह ततो दा न क्रियते ।।
अर्थः- संस्कृत में प्राप्त होने वाले 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'इमा' और 'त्तण' प्रत्यय का आदेश हुआ करता है। जैसे:- पीनत्वम् - पीणिमा अथवा पीणत्तणं और वैकल्पिक पक्ष में पीणत्तं भी होता है। पुष्पत्वम्=पुप्फिमा अथवा पुप्फत्तणं और वैकल्पिक पक्ष में पुप्फत्तं भी होता है। संस्कृत भाषा में पृथु आदि कुछ शब्द ऐसे हैं; जिनमें 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर इसी अर्थ को बतलाने वाले 'इमन्' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। उनका प्राकृत रूपान्तर अन्य सूत्रानुसार हुआ करता है। संस्कृत शब्द 'पीनता' का प्राकृत रूपान्तर 'पीणया' होता है। किसी अन्य भाषा में 'पीनता' का रूपान्तर 'पीणदा' भी होता है। तदनुसार 'ता' प्रत्यय के स्थान पर 'दा' आदेश नहीं किया जा सकता है। अतः पीणदा रूप को प्राकृत रूप नहीं समझा जाना चाहिये।
'पीनत्वम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पीणिमा, 'पीणत्तणं' और 'पीणत्तं' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १५४ से संस्कृत प्रत्यय ' त्वम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इमा' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पीणिमा' की सिद्धि हो जाती है।
द्वितीय रूप-(पीनत्वम्=) 'पीणत्तणं' में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १५४ से संस्कृत प्रत्यय 'त्व' के स्थान पर ' त्तण' आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर 'पीणत्तणं द्वितीय रूप भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप- (पीनत्वम्=) 'पीणत्तं' में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २- ७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और शेष साधनिका द्वितीय रूप के समान होकर तृतीय रूप 'पीणत्त' भी सिद्ध हो जाता है।
'पुष्पत्वम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पुप्फिमा, पुप्फत्तणं' और 'पुप्फत्त* होते हैं। इनमें से प्रथम रूप
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
312 : प्राकृत व्याकरण
में सूत्र संख्या २-५३ से 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' के स्थान पर 'प्' की प्राप्ति; २-१५४ से त्व' के स्थान पर 'इमा' आदेश १-१० से 'फ' में रहे हुए 'अ' का आगे 'इ' रहने से लोप; १-५ से 'फ्' के आगे रही हुई 'इ' के साथ संधि; और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप होकर प्रथम रूप 'पुप्फिमा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(पुष्पत्वम्=) 'पुप्फत्तणं' में 'पुप्फ' तक प्रथम रूप के समान ही साधनिका; २-१५४ से 'त्व' के स्थान पर 'त्तणं' आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप पुप्फत्तणं सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप- (पुष्पत्वम्-) 'पुप्फत्तं' में 'पुप्फ' तक प्रथम रूप के समान ही साधनिका; २-७९ से 'व' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; और शेष साधनिका द्वितीय रूप के समान ही होकर तृतीय रूप 'पुप्फत्तं' सिद्ध हो जाता है।
'पीनता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पीयणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और १-१८० से शेष 'आ' को 'या' की प्राप्ति होकर 'पीणया' रूप सिद्ध हो जाता है। पीणदा रूप देशज-भाषा का है; अतः इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है।। २-१५४।।
अनङ्कोठात्तैलस्य डेल्लः ।। २-१५५।। अकोठ वर्जिताच्छब्दात्परस्य तैल प्रत्ययस्य डेल्ल इत्यादेशो भवति।। सुरहि-जलेण कडु-एल्लं।। अनङ्कोठादिति किम्। अङ्कोल्ल तेल्लं। ____ अर्थः-'अङ्कोठ' शब्द को छोड़कर अन्य किसी संस्कृत शब्द में "तैल'' प्रत्यय लगा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में इस "तैल'' प्रत्यय के स्थान पर 'डेल्ल' अर्थात् 'एल्ल' आदेश हुआ करता है। जैसे:- सुरभि-जलेन कटु-तैलम् सुरहि-जलेण कडुएल्लं।
प्रश्नः- 'अङ्कोठ' शब्द के साथ में तैल' प्रत्यय रहने पर इस 'तैल' प्रत्यय के स्थान पर 'एल्ल' आदेश क्यों नहीं होता है?
उत्तरः- प्राकृत भाषा में परम्परागत रूप से 'अङ्कोठ' शब्द के साथ "तैल' प्रत्यय होने पर "तैल के स्थान पर 'एल्ल' आदेश का अभाव पाया जाता है; अतः इस रूप को सूत्र संख्या २-१५५ के विधान क्षेत्र से पृथक् ही रखा गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- अङ्कोठ तैलम्-अङ्कोल्ल तेल्लं।।
'सुरभि-जलेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुरहि-जलेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा'='आ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व स्थित 'ल' के 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होकर 'सुरहि-जलेण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कटुतैलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कडुएल्ल' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-१५५ से संस्कृत प्रत्यय 'तैल' के स्थान पर प्राकृत में 'एल्ल' आदेश ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कडुएल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अंकोठ तैलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अङ्कोल्ल-तेल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२०० से 'ठ' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति २-९८ से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 313 प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अंकोल्ल-तेल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५५।।
___ यत्तदेतदोतोरित्तिअ एतल्लुक् च ।। २-१५६॥ एभ्यः परस्य डावादेरतोः परिमाणर्थस्य इत्तिअ इत्यादेशो भवति।। एतदो लुक् च।। यावत्।। जित्ति। तावत्। तित्ति। एतावत्। इत्ति।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'यत्', तत्' और 'एतत्' में संलग्न परिमाण वाचक प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्तिअ' आदेश होता है। 'एतत्' से निर्मित 'एतावत्' के स्थान पर तो केवल 'इत्तिअ' रूप ही होता है अर्थात् ‘एतावत्' का लोप होकर केवल 'इत्तिअ' रूप ही आदेशवत् प्राप्त होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-यावत्-जित्तिअं; तावत्-तित्तिअं; और एतावत्-इत्तिा
'यावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जित्तिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-१५६ से 'आवत्' प्रत्यय के स्थान पर 'इत्तिअ' आदेश; १-५ से प्राप्त 'ज्' के साथ 'इ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'जित्तिअं रूप सिद्ध हो जाता है। __ तावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्तिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५६ से 'आवत्' प्रत्यय के स्थान पर 'इत्तिअ आदेश; १-५ से प्रथम 'त्' के साथ 'इ' की संधि; और शेष साधनिका उपरोक्त 'जित्तिअं रूप के समान ही होकर तित्तिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
एतावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इत्तिअं होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१५६ से 'एतावत्' का लोप और 'इत्तिअ आदेश की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'जित्तिों रूप के समान ही होकर 'इत्ति रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५६||
इदं किमश्च डेत्तिअ-डेत्तिल-डेदहाः ।। २-१५७।। इदं किं भ्यां यत्तदेतद्यश्च परस्यातो डवितोर्वा डित एत्तिअ एत्तिल एद्दह इत्यादेशा भवन्ति एतल्लुक च॥ इयत्। एत्ति। एत्तिलं। एद्दह।। कियत्। केत्ति केत्तिलं। केद्दहं।। यावत्। जेत्ति जेत्तिलं। जेद्दह।। तावत्। तेत्ति। तेत्तिलं। तेहह।। एतावत्। एत्ति। एत्तिलं। एद्दह।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्', 'किम्', यत्', 'तत्', और 'एतत्' में संलग्न परिमाण वाचक प्रत्यय 'अतु-अत्' अथवा 'डावतु (ड्' की इत्संज्ञा होकर शेष) आवतु आवत्' के स्थान पर प्राकृत में 'एत्तिअ' अथवा 'एत्तिल' अथवा 'एद्दह' आदेश होते हैं। एतत्' से निर्मित 'एतावत्' का लोप होकर इसके स्थान पर केवल 'एत्ति अथवा 'एत्तिलं' अथवा 'एद्दह रूपों की आदेश रूप से प्राप्ति होती है। उपरोक्त सर्वनामों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- इयत् एत्तिअं, एत्तिल्लं अथवा एद्दह। कियत-केत्तिअं, केत्तिलं और केद्दह। यावत्-जेत्तिअं, जेत्तिलं और जेद्दह। तावत्-तेत्तिअं, तेत्तिलं और तेद्दह। एतावत्-एत्तिअं, एत्तिलं और एद्दह।
'इयत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एत्तिअं', 'एत्तिलं' और 'एव्ह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१५७ की वृत्ति से 'इय्' का लोप; २-१५७ से शेष 'अत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'एत्तिअं, 'एत्तिलं' और 'एदह' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'क्रियत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'केत्ति, 'केत्तिलं' और 'केद्दह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
314 : प्राकृत व्याकरण २-१५७ की वृत्ति से 'इय्' का लोप; २-१५७ से शेष 'अत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिअ', 'एत्तिल' और 'एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; १-५ से शेष 'क्' के साथ प्राप्त प्रत्ययों की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्'का अनुस्वार होकर क्रम से 'केत्तिअं, 'केत्तिलं' और 'केद्दहं रूपों की सिद्धि हो जाती है। __'यावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जेत्ति, 'जेत्तिल' और 'जेद्दह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह प्रत्ययों की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'ज्' के साथ प्राप्त प्रत्ययों की संधि और शेष साधनिका उपरोक्त 'केत्तिअं- आदि रूपों के समान ही होकर क्रम से 'जेत्तिअं, 'जेत्तिलं' और 'जेद्दह' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'एतावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एत्ति, 'एत्तिल' और 'एव्ह होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१५७ से मूल रूप 'एतत्' का लोप; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'केत्तिअं- आदि रूपों के समान ही होकर क्रम स 'एत्तिअं, 'एत्तिलं' और 'एद्दह' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'तावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तेत्तिअं, 'तेत्तिलं' और 'तेद्दह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११ से मूल रूप 'तत्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त केत्तिअं आदि रूपों के समान ही होकर क्रम से 'तेत्तिअं, 'तेत्तिल' और 'तेद्दह' रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। २-१५७।।
कृत्वसो हुत्तं ।। २-१५८॥ __ वारे कृत्वस् (हे. ७-२) इति यः कृत्वस् विहितस्तस्य हुत्तमित्यादेशो भवति।। सयहुत्तं। सहस्सहुत्त।। कथं प्रियाभिमुखं पियहुत्तं। अभिमुखार्थेन हुत्त शब्देन भविष्यति।। ____ अर्थः- संस्कृत भाषा में वार' अर्थ में कृत्वः' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उसी कृत्वः' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'हुत्त आदेश की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- शतकृत्वः सयहुत्तं और सहस्त्रकृत्वः सहस्सहुत्तं इत्यादि।
प्रश्न:- संस्कृत रूप 'प्रियाभिमुख' का प्राकृत रूपान्तर 'पियहुत्त' होता है। इसमें प्रश्न यह है कि 'अभिमुख' के स्थान पर 'हुत्तं की प्राप्ति कैसे होती है ?
उत्तर:- यहां पर हुत्त' प्रत्यय की प्राप्ति कृत्वः' अर्थ में नहीं हुई है; किन्तु अभिमुख' अर्थ में ही 'हुत्त' शब्द आया हुआ है। इस प्रकार यहां पर यह विशेषता समझ लेनी चाहिये। __'शतकृत्वः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सयहुत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१५८ से 'वार-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय कृत्व' के स्थान पर प्राकृत में हुत्त आदेश; और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग अर्थात् 'स्' का लोप होकर 'सयहुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सहस्र-कृत्वः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सहस्सहुत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'स' को द्वित्व स्स' की प्राप्ति; शेष साधनिका उपरोक्त सय-हुत्तं के समान होकर 'सहस्सहुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रियाभिमुखम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पियहुत्तंहोता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१५८ की वृत्ति से 'अभिमुख' के स्थान पर 'हुत्त आदेश की
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 315
प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पियुहत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५८।।।
आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणामतोः ।। २-१५९।। आलु इत्यादयो नव आदेशा मतोः स्थाने यथाप्रयोगं भवन्ति।। आलु॥ नेहालू। दयालू। ईसालू। लज्जालुआ।। इल्ल। सोहिल्लो। छाइल्लो। जामइल्लो। उल्ल। विआरूल्लो। मंसुल्लो। दप्पुल्लो। आल। सद्दालो। जडालो। फडालो। रसालो। जोण्हालो॥ वन्त। घणवन्तो। भत्तिवन्तो।। मन्त। हणुमन्तो। सिरिमन्तो। पुण्णमन्तो।। इत्त कव्वइत्तो। माणइत्तो।। इर। गव्विरो। रेहिरो।। मण। धणमणो।। केचिन्मादेशमपीच्छन्ति। हणुमा।। मतोरिति किम्। धणी। अत्थिओ।। ___ अर्थ:- 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मत्' और 'वत्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'नव' आदेश होते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार है:- आल, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर और मण। आलु से सम्बन्धित उद प्रकार है:- स्नेहमान्नेहालू। दयावान् दयालू। ईर्ष्यावान्-ईसालू। लज्जावत्या लज्जालुआ।। इल्ल से सम्बंधित उदाहरणः शोभावान् सोहिल्लो। छायावान् छाइल्लो। यामवान् जामइल्लो। उल्ल से सम्बंधित उदाहरणः-विकारवान्-विआरूल्लो। श्मश्रुवान् मंसुल्लो। दर्पवान् दप्पुल्लो।। आल से संबंधित उदाहरणः- शब्दवान् सद्दालो। जटावान् जडालो। फटावान्-फडालो। रसवान्-रसालो। ज्योत्स्नावान् जोण्हालो। वन्त से संबंधित उदाहरण:- धनवान् धणवन्तो। भक्तिमान् भत्तिवन्तो। मन्त से संबंधित उदाहरणः हनुमान् हनुमन्तो। श्रीमान् सिरिमन्तो। पुण्यवान्=पुण्णमन्तो। इत्त से संबंधित उदाहरण:- काव्यवान् कव्वइत्तो। मानवान् माणइत्तो।। इर से संबंधित उदाहरण:-गर्ववान् गव्विरो। रेखावान् रेहिरो, मण से संबंधित उदाहरणः-धनवान् धणमणो इत्यादि।। कोई-कोई आचार्य 'मत्' और 'वत्' के स्थान पर 'मा' आदेश की प्राप्ति का भी उल्लेख करते हैं; जैसे:- हनुमान् हणुमा।। प्रश्नः- वाला-अर्थक' मत् और वत् का ही उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- संस्कृत में 'वाला' अर्थ में 'मत्' एवं 'वत्' के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों की भी प्राप्ति हुआ करती है। जैसे-धनवाला धनी और अर्थ वाला-अर्थिक; इसलिये आचार्य श्री का मन्तव्य यह है कि उपरोक्त प्राकृत भाषा में वाला' अर्थ को बतलाने वाले जो नव-आदेश कहे गये हैं: वे केवल संस्कत प्रत्यय 'मत' अथवा 'वत' के स्थान पर ही आदेश रूप से प्राप्त हुआ करते हैं; न कि अन्य वाला' अर्थक प्रत्ययों के स्थान पर आते हैं। इसलिये मुख्यतः 'मत्' और 'वत्' का उल्लेख किया गया है। प्राप्त 'वाला' अर्थक अन्य संस्कृत-प्रत्ययों का प्राकृत-विधान अन्य सूत्रानुसार होता है। जैसे:धनी-धणी और अर्थिकः-अत्थिओ इत्यादि। ___ 'स्नेहमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नेहालू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय मान्' के स्थान पर 'आलु' आदेश; १-५ से 'ह' में स्थित 'अ' के साथ 'आलु' प्रत्यय के 'आ' की संधि और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व स्वर उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर'उ' को दीर्घ स्वर'ऊ की प्राप्ति होकर 'नेहाल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दयालू' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'ईर्ष्यावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ईसालू होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१५९ से वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर 'आलु' आदेश और शेष साधनिका नेहालू' के समान ही होकर 'ईसालू' रूप सिद्ध हो जाता है।
लज्जावत्या संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लज्जालुआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१५९ से 'वाला-अर्थक संस्कृत स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'वती' के स्थान पर 'आलु' आदेश; १-५ से 'ज्जा' में स्थित 'आ' के साथ 'आलु' प्रत्यय के 'आ' की सधि और ३-२९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लज्जालुआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
316 : प्राकृत व्याकरण
शोभावान् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोहिल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श्' के स्थान पर ‘स्' की प्राप्ति; १ - १८७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश; १ - १० से प्राप्त 'हा' में स्थित 'आ' के आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ह' में आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सोहिल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छायावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छाइल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'य्' का लोप; २-१५९ से ‘वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश १- १० से लोप हुए 'य्' में शेष 'आ' का आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' की होने से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छाइल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'यामवान्' संस्कृत विशेषण रूप । इसका प्राकृत रूप 'जामइल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जामइल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विकारवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विआरूल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १७७ से 'क्' का लोप; २-१५९ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश; १ - १० से 'र्' में स्थित 'अ' का आगे स्थित 'उल्ल' का 'उ' की होने से लोप; १-५ सें र्' में 'उ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ि के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विआरूल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्मश्रुवान् ' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मंसुल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से हलन्त व्यञ्जन प्रथम 'शू' का लोप; १ - २६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २- ७९ से ' श्रु' में स्थित 'र्' का लोप; १-२६० से लोप, हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु' के 'श' को 'स्' की प्राप्ति; २- १५९ से वाला - अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश १-१० से 'सु' में स्थित 'उ' का आगे स्थित 'उल्ल' का 'उ' होने से लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मंसुल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दर्पवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दप्पुल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष बचे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २- १५९ से वाला - अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश १-१० से 'प' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन द्वितीय 'प्' में आगे रहे हुए 'उल्ल' प्रत्यय के 'उ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दप्पुल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शब्दवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सद्दालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २ - ७९ से हलन्त व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'द' को द्वित्व 'इ' की प्राप्ति; २ - १५९ से वाला-अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में ' आल' आदेश; १-५ से 'द्द' में स्थित 'अ' स्वर के साथ प्राप्त ‘आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सद्दालो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जटावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जडालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १९५ से 'ट' के
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 317 स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में ' आल' आदेश; १-५ से प्राप्त 'डा' में स्थित 'आ' स्वर के साथ प्राप्त 'आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जडालो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'फटावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फडालो' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त 'जडालो' रूप के समान ही होकर 'फडालो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रसवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रसालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'आल' आदेश; १-५ से 'स' में स्थित 'अ' स्वर के साथ आगे प्राप्त 'आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रसालो' रूप सिद्ध हो जाता है।
‘ज्योत्स्नावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जोण्हालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २- ७७ से 'तू' का लोप; २- ७५ से 'स्न्' के स्थान पर 'ह' आदेश; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'आल' आदेश; १-५ से 'ह' में स्थित 'आ' स्वर के साथ आगे आये हुए 'आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जोण्हालो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धनवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धणवन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २- १५९ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धणवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भक्तिमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भत्तिवन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'क्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ति' में स्थित 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भत्तिवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
' हणुमन्तो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२१ में की गई है।
'श्रीमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिरिमन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १०४ से 'श्री' में स्थित 'श्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ 'री' में स्थित 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति; २- १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में ' मन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिरिमन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
‘पुण्यवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुण्णमन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पुण्णमन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'काव्यवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कव्वइत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त'
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
318 : प्राकृत व्याकरण
आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कव्वइत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'मानवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माणइत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'माणइत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गर्ववान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गव्विरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'इर' आदेश; १-१० से प्राप्त 'व्व' में रहे हुए 'अ' का आगे प्राप्त 'इर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'व्व्' में आगे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गव्विरो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'रेखावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रेहिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इर' आदेश; १-१० से प्राप्त 'ह' में रहे हुए 'आ' का आगे प्राप्त 'इर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त् 'ह' में आगे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रेहिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'धनवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धणमणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मण' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धणमणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हनुमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हणुमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और २-१५९ की वृत्ति से संस्कृत 'वाला-अर्थक' प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मा' आदेश की प्राप्ति होकर 'हणुमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धनी संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' का 'ण' होकर 'धणी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'आर्थिक' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ्' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए 'प्रथम' 'थ' के स्थान पर 'त' की प्राप्तिः १-७७ से'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अत्थिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५९।।
त्तो दो तसो वा ।। २-१६०।। तसः प्रत्ययस्य स्थाने तो दो इत्यादेशौ वा भवतः।। सव्वत्तो सव्वदो। एकतो एकदो। अन्नत्तो अन्नदो। कत्तो कदो। जत्तो जदो। तत्तो तदो। इत्तो इदो।। पक्षे सव्वओ इत्यादि।
अर्थः- संस्कृत में-'अमुक से' अर्थ में प्राप्त होने वाले 'तः' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'तो' और 'दो' ऐसे ये दो आदेश वैकल्पिक रूप से प्राप्त हुआ करते हैं। जैसे:- सर्वतः-सव्वत्तो अथवा सव्वदो। वैकल्पिक पक्ष में 'सव्वओ' भी होता है। एकतः एकत्तो अथवा एकदो। अन्यतः अन्नत्तो अथवा अन्नदो। कुत्तः=कुत्तो अथवा कदो। यतः जत्तो अथवा जदो। ततः तत्तो अथवा तदो। इतः =इत्तो अथवा इदो। इत्यादि।
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 319
'सर्वतः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सव्वत्तो', 'सव्वदो' और 'सव्वओ' होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष बचे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और २-१६० संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'सव्वत्तो' और 'सव्वदो' यों प्रथम दो रूपों की सिद्धि हो जाती है।
तृतीय रूप 'सव्वआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-३७ में की गई है। 'एकतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एकत्तो' और 'एकदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'एकत्तो' और 'एकदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'अन्यतः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अन्नत्तो' और 'अनदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'अन्नत्तो' और 'अन्नदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'कुतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कत्तो' और 'कदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-७१ से 'कु' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; और २-१६० संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'कत्तो' और 'कदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'यतः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जत्तो' और 'जदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और २-१६० संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'जत्तो' और 'जदो यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'ततः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तत्तो' और 'तदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'तत्तो' और 'तदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। __'इतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इत्तो' और 'इदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'इत्तो' और 'इदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। २-१६०।।
त्रपो हि-ह-त्थाः ॥ २-१६१॥ त्रप प्रत्ययस्य एते भवन्ति।। यत्र। जहि। जह। जत्था तत्र। तहि। तह। तत्था कुत्र। कहि। कह। कत्थ। अन्यत्र। अन्नहि। अनह। अन्नत्थ॥
अर्थः- संस्कृत में स्थान वाचक 'त्र' के स्थान पर प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' यों तीन आदेश क्रम से होते हैं। उदाहरण इस प्रकार हैं:- यत्र-जहि अथवा जह अथवा जत्थ।। तत्र-तहि अथवा तह अथवा तत्थ।। कुत्र-कहि अथवा कह अथवा कत्थ और अन्यत्र-अनहि अथवा अन्नह अथवा अन्नत्थ।।
'यत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जहि', 'जह' और 'जत्थ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और २-१६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप जहि' 'जह' और 'जत्थ' सिद्ध हो जाते हैं।
'तत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तहि', 'तह' और 'तत्थ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप 'तहि', 'तह' और 'तत्थ' सिद्ध हो जाते हैं।
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
320 प्राकृत व्याकरण
'कुत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कहि', 'कह' और 'कत्थ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-७१ से 'कु' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और २ - १६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि' 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप 'कहि', 'कह' और 'कत्थ' सिद्ध हो जाते हैं।
4
'अन्यत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अन्नहि', 'अन्नह' और 'अन्नत्थ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और २ - १६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप 'अन्नहि, 'अन्नह' और 'अन्नत्थ' सिद्ध हो जाते हैं। ।। २- १६१ ।।
वैकाद्दः सि सिअं इआ ।। २-१६२ ।।
एक शब्दात् परस्य दा प्रत्ययस्य सि सिअं इआ इत्यादेशा वा भवन्ति ।। एकदा । एक्कसि । एक्कसिअं । एक्कइआ । पक्षे । एगया ||
अर्थः- संस्कृत शब्द 'एक' के पश्चात् रहे हुए 'दा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से ‘सि' अथवा सिअं अथवा 'इआ' आदेशों की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एकदा एक्कसि अथवा एक्कसिअं अथवा एक्कइआ । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में एगया भी होता है।
'एकदा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एकदा', 'एक्कसि', 'एक्कसिअं', 'एक्कइआ' और एगया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'एकदा ' संस्कृत रूपवत् होने से इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है। अन्य द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपों में सूत्र संख्या २- ९८ से 'क' के स्थान पर द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और २ - १६२ से संस्कृत प्रत्यय 'दा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'सि', “सिअं" और "इआ" आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'एक्कसि', 'एक्कसिअं और 'एक्कइआ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पंचम रूप- (एकदा =) 'एगया' में सूत्र संख्या १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और १ - १८० से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर 'एगया' रूप सिद्ध हो जाता है ।। २ - १६२ ।।
डिल्ल - डुल्लौ भवे
।। २ - १६३ ।। भवेर्थे नाम्नः परौ इल्ल उल्ल इत्येतो डिलो प्रत्ययौ भवतः । । अप्पुल्लं ।। आल्वालावपीच्छन्त्यन्ये ॥
अर्थः- भव-अर्थ में अर्थात् 'अमुक में विद्यमान' इस अर्थ में प्राकृत-संज्ञा - शब्द में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे :- ग्रामे भवा = ग्रामेयका - गामिल्लिआ; पुराभवं पुरिल्लं; अधो- भवं अधस्तनम् - हेट्ठिल्लं; उपरि-भवं=उपरितनम्=उवरिल्लं और आत्मनि - भवं आत्मीयम्=अप्पुल्लं ।। कोई कोई व्याकरणाचार्य 'अमुक' में विद्यमान अर्थ में 'आलु' और 'आल' प्रत्यय भी मानते हैं।
गामिल्लिआ । पुरिल्लं । हेट्ठिल्लं । उवरिल्लं ।
'ग्रामेयका' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गामिल्लिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; २-१६३ से संस्कृत 'तत्र भव' वाचक प्रत्यय 'इय' के स्थान पर प्राकृत मे 'इल्ल' की प्राप्ति; ३ - ३१ से प्राप्त पुल्लिंग रूप 'गामिल्ल' में स्त्रीलिंग 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १० से 'ल्ल' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने
लोप; १-८४ से प्राप्त दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और १ - १७७ से 'क्' का लोप होकर 'गामिल्लिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुराभवम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुरिल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १६३ से संस्कृत 'तत्र भव' वाचक प्रत्यय 'भव' के स्थान पर प्राकृत मे 'इल्ल' की प्राप्ति; १ - १० से 'रा' में स्थित 'आ' स्वर का आगे
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 321 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुरिल्लं रूप सिद्ध हो जाता है।
'अधस्तनम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हेट्ठिल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४१ से 'अधस्' के स्थान पर 'हे?' आदेश; २-१६३ से संस्कृत 'तत्र-भव' वाचक प्रत्यय 'तन' के स्थान पर 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से '8' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन '8' में 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हेट्ठिल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'उपरितनम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उवरिल्लं' होता है इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; २-१६३ से संस्कृत 'तत्र-भव' वाचक प्रत्यय 'तन' के स्थान पर 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से 'रि' में स्थित 'इ' स्वर का आगे 'इल्लं' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में 'इल्लं' के 'इ' की संधिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उवरिल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'आत्मीयम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पुल्ल' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५१ से 'त्म' के स्थान पर द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-१६३ से संस्कृत
चक प्रत्यय 'इय' के स्थान पर प्राकत में उल्ल' प्रत्यय की प्राप्तिः १-१० से प्राप्त 'प्प' में स्थित 'अ'स्वर 'उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोपः १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'प्प' में उल्ल' प्रत्यय के 'उ' की संधिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अप्पुल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१६३।।
स्वार्थ कश्च वा ॥ २-१६४॥ स्वार्थे कश्चकारादिल्लोल्लो डितो प्रत्ययो वा भवतः।। क। कुडकुम पिञ्जरय। चन्दओ। गयणयम्मि। धरणीहर-पक्खुब्भन्तयं। दुहिअए राम-हिअयए। इहयो आलेछु। आश्लेष्टुमित्यर्थः।। द्विरपि भवति। बहुअयं।। ककारोच्चारणे पैशाचिक-भाषार्थम्। यथा। वतनके वतनकं समप्पेत्तून।। इल्ल। निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण पुरिल्लो। पुरो पुरा वा।। उल्ल। मह पिउल्लओ। मुहुल्ल। हत्थुल्ला। पक्षे चन्दो। गयणं। इह। आलेठं बहु। बहुआ। मुहं। हत्था। कुत्सादि विशिष्टे तु संस्कृतवदेव कप् सिद्धः।। यावादिलक्षणः कः प्रतिनियत विषय एवेति वचनम्। ___ अर्थः- 'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है और कभी-कभी वैकल्पिक रूप से 'स्व-अर्थ' में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्ययों की भी प्राप्ति हुआ करती है। 'क' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:-कुङकुम पिंजरम्=कुङकुम पिञ्जरयं; चंद्रक:-चन्दओ; गगने गयणयम्मि; धरणी-धर-पक्षोद्भातम् धरणीहर-पक्खुब्भन्तयं; दुःखिते राम हृदये दुहिअए रामहिअयए; इह-इहयं; आश्लेष्टुम् आलेटुअं इत्यादि।। कभी-कभी 'स्व-अर्थ' में दो 'क' की भी प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे:बहुक-कम्=बहुअयं। यहाँ पर 'क' का उच्चारण पैशाचिक-भाषा की दृष्टि से है। जैसे:-वदने वदनं समर्पित्वा-वतन के वतनकं समप्पेत्तू इत्यादि। 'इल्ल' प्रत्यय से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार हैं:-निर्जिताशोक पल्लवेन-निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण; पुरो अथवा पुरा-पुरिल्लो; इत्यादि। 'उल्ल' प्रत्यय से संबंधित उदाहरण इस प्रकार हैं:- ममपितकः मह-पिउल्लओ: मख (क) म महल्लं: हस्ता: (हस्तकाः) हत्थल्ला इत्यादि। पक्षान्तर में चन्दो इह, आलेढुं, बहु, बहुअं, मुहं और हत्था रूपों की प्राप्ति भी होती है। कुत्स, अल्पज्ञान आदि अर्थ में प्राप्त होने वाला 'क' संस्कृत-व्याकरण के समान ही होता है। ऐसे विशेष अर्थ में 'क' की सिद्धि संस्कृत के समान ही जानना। 'यावादिलक्षण' रूप से प्राप्त होने वाला 'क' सूत्रानुसार ही प्राप्त होता है और उसका उद्देश्य भी उसी तात्पर्य को बतलाने वाला होता है।
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
322 प्राकृत व्याकरण
कुङकुम पिञ्जर (क) म् - संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कुङकुम पिञ्जरयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १६४ से 'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क' का लोप; १ - १८० लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुङकुम पिञ्जरयं रूप सिद्ध हो जाता है।
गगने (= गगनके ) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गयणयम्मि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से द्वितीय 'ग् का लोप; १ - १८० से लोप हुए द्वितीय 'ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १६४ से 'स्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ प्राप्त 'क्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गयणयम्मि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धरणी धर-पक्षोद्भातम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप ' धरणी हर- पक्खुब्भन्तयं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से द्वितीय 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ख्' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति १ -८४ से दीर्घ स्वर 'ओ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति एवं १-५ से हलन्त 'ख्' के साथ सम्मिलित होकर 'खु' की प्राप्ति; २ - ७७ से हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ' को द्वित्व ' भ्भ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'भू' के स्थान पर 'ब्' की प्राप्ति;१ - ८४ से ' भा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - २६ से 'भ' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १ - ३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर आगे 'त' वर्ण होने से 'त' वर्ग के पंचामक्षर रूप 'न' की प्राप्ति; २ - १६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'धरणी हरं - पक्खुब्भन्तयं * रूप सिद्ध हो जाता है।
'दुःखिते' (= दुःखितके) संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुहिअए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' आदेश; १ - १७७ से 'त्' का लोप २ - १६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क्' का लोप और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दुहिअए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रामहृदये' (-राम-हृदयके ) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'राम-हिअयए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'द्' का लोप; २ - १६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त 'क्' का लोप और ३- ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'राम- हिअय ' रूप सिद्ध हो जाता है।
इयं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २४ में की गई है।
'आलेट्टुअ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २४ में की गई है।
'बहुम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बहुअ' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २ - १६४ की वृत्ति से मूल रूप 'बहु' में दो 'ककारों' की प्राप्ति; १ - १७७ से प्राप्त दोनों 'क्' का हलन्त रूप से लोप; १ - १८० से लोप हुए द्वितीय 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'बहुअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वदने' संस्कृत रूप है। इसका पैशाचिक - भाषा में 'वतनके' रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- ३०७ से 'द' के
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
१-१७०
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 323 स्थान पर 'त' की प्राप्ति; २–१६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वतनके रूप सिद्ध हो जाता है।
वदनम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका पैशाचिक-भाषा में वतनकं रूप होता है। 'वतनक रूप तक की साधनिका उपरोक्त 'वतनके' के 'वतनक' समान ही जानना; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वतनकं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'समर्पित्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका पैशाचिक भाषा में 'समप्पेत्तून' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ए' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; ३-१५७ से मूल रूप में तूण' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'समप्प' धातु में स्थित अन्त्य 'अ विकरण प्रत्यय के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; (नोट:- सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'समप्प में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति हुई है); २-१४६ से कृदन्त वाचक संस्कृत प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर 'तूण' प्रत्यय की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'तूण' प्रत्यय में स्थित 'त्' के स्थान पर द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; और ४-३०६ से प्राकृत भाषा के शब्दों में स्थित 'ण' के स्थान पर पैशाचिक-भाषा में 'न' की प्राप्ति होकर 'समप्पेत्तून' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निर्जिताशोक-पल्लवेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति;
'त' और 'क' का लोपः १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' प्रत्यय की प्राप्ति: २-१६४ से 'स्व अर्थ में 'डिल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डिल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक 'ड्' होने से 'व' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप एवं १-५ से प्राप्त 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' की प्राप्त हलन्त 'व्' में संधि और ३-६ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'टा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'ल्ल' के 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पुरो' अथवा 'पुरा' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुरिल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१६४ से 'स्व-अर्थ में डिल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डिल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक 'इ' होने से 'रो' के 'ओ' की अथवा 'रा' के 'आ' की इत्-संज्ञा; १-५ से प्राप्त 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' की प्राप्त हलन्त 'र' में संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पुरिल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'ममपितृकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मह-पिउल्लओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११३ से संस्कृत रूप 'मम' के स्थान पर 'मह' आदेश; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-१६४ से संस्कृत 'स्व-अर्थ' द्योतक प्रत्यय 'क' के स्थान पर प्राकृत में 'डुल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डुल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक होने से 'तृ' में से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हए स्वर-ऋकी इत-संजाः १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मह-पिउल्लओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मुखम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मुहल्लं' और 'मुहं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' आदेश; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में 'डुल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डुल्ल' प्रत्यय में 'ड्' इत्-संज्ञक होने से प्राप्त ह' में स्थित 'अ' की इत्-संज्ञा; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ह्' में प्राप्त प्रत्यय 'उल्ल' के 'उ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'मुहल्लं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'मुहं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८७ में की गई है।
हस्तौ संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हत्थुल्ला' और 'हत्था' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'थ' के स्थान पर द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'डुल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डुल्ल' प्रत्यय में 'ड्'
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
324 : प्राकृत व्याकरण इत्-संज्ञक होने से प्राप्त 'त्थ' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा; १-५ से प्राप्त हलन्त 'त्थ' में प्राप्त प्रत्यय 'उल्ल' के 'उ' की संधि; ३-१३० से संस्कृत रूप में स्थित द्विवचन के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन की प्राप्ति; तदनुसार ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के कारण से 'ल्ल' में स्थित अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से 'स्थ' में स्थित 'अ' स्वर को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर क्रम से 'हत्थुल्ला' और 'हत्था' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।
चन्दो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३० में की गई है। 'गगनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गयणं' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'ग्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'गयणं रूप सिद्ध हो जाता है।
इह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है। 'आश्लेष्टुम्' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'आलेटुं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'श्' का लोप; २-३४ से 'ष्ट्' के स्थान पर 'ठ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व 'ट्ठ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ्' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आलेढुं रूप सिद्ध हो जाता है।
बहु (क) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बहु और 'बहुअं होते हैं। प्रथम रूप 'बहु' संस्कृत 'वत्' सिद्ध ही है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-१६४ से स्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'क्' प्रत्यय का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'बहुअं भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१६४।।
ल्लो नवैकाद्वा ॥ २-१६५॥ आभ्यां स्वार्थे संयुक्तो लो वा भवति।। नवल्लो। एकल्लो।। सेवादित्वात् कस्य द्वित्वे एकल्लो। पक्षे। नवो। एक्को। एओ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'नव' और 'एक' में स्व अर्थ में प्राकृत भाषा में वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:-नवः-नवल्लो अथवा नवो। एकः एकल्लो अथवा एओ। सूत्र संख्या २ -९९ के अनुसार एक शब्द सेवादि-वर्ग वाला होने से इसमें स्थित 'क्' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति हो जाती है; तदनुसार 'एकः' के प्राकृत रूप 'स्व-अर्थ' में 'एकल्लो ' और 'एक्को ' भी होते हैं।
'नवः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत-रूप (स्वार्थ बोधक प्रत्यय के साथ) 'नवल्लो' और 'नवो' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१६५ से स्व-अर्थ में वैकल्पिक रूप से संयुक्त अर्थात् द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'नवल्लो'
और 'नवो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'एकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत-रूप (स्वार्थ-बोधक प्रत्यय के साथ)-'एकल्लो', 'एक्कल्लो', 'एक्को'
और 'एओ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१६५ से 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से संयुक्त अर्थात् द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'एकल्लो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(एक:=) 'एक्कल्लो' में सूत्र संख्या २-८९ से 'क' के स्थान पर द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'एक्कल्लो सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप 'एक्को' और चतुर्थ रूप 'एओ की सिद्धि सूत्र संख्या २-९९ में की गई है। ।। २-१६५।।
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपरेः संव्याने ।। २-१६६।।
संव्यानेर्थे वर्तमानादुपरि शब्दात् स्वार्थे ल्लो भवति ।। अवरिल्लो ।। संव्यान इति किम् । अवरिं । । अर्थः- ‘ऊपर का कपड़ा' इस अर्थ में यदि 'उपरि' शब्द रहा हुआ हो तो 'स्व-अर्थ' में 'उपरि' शब्द के साथ 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- उपरितन:- अवरिल्लो |
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 325
प्रश्न:- 'संव्यान= ऊपर का कपड़ा' ऐसा होने पर ही उपरि-उवरि के साथ में 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है ऐसा प्रतिबंधात्मक उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- यदि 'उपरि' शब्द का अर्थ 'ऊपर का कपड़ा' नहीं होकर केवल 'ऊपर' सूचक अर्थ ही होगा तो ऐसी स्थिति में स्व-अर्थ बोधक 'ल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति प्राकृत साहित्य में नहीं देखी जाती है; इसलिये प्रतिबंधात्मक उल्लेख किया गया है । जैसे:- उपरि = अवरिं ।।
‘उपरितनः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत-रूप- (स्वार्थ- बोधक प्रत्यय के साथ) 'अवरिल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १ - १०७ में 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १६६ से संस्कृत स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय 'तन' के स्थान पर प्राकृत में 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ' अवरिल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है। अवरिं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६ में की गई है । । २ - १६६ ।।
भ्रुवो मया डमया ॥ २-१६७।। भ्रुशब्दात् स्वार्थे मया डमया इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः ।। भुमया। भमया ।।
अर्थः- 'थ्रु' शब्द के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में कभी 'मया' प्रत्यय आता है और कभी 'डमया (= अमया) - प्रत्यय आता है। 'मया' प्रत्यय के साथ में 'भ्रू' शब्द में स्थित अन्त्य 'उ' की इत्-संज्ञा नहीं होती है; किन्तु 'डमया' प्रत्यय में आदि में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है; अतः 'डमया' प्रत्यय की प्राप्ति के समय में ' भ्रू' शब्द में स्थित अन्त्य 'ऊ' की इत्संज्ञा हो जाती है । यह अन्तर ध्यान रक्खा जाना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- भ्रूः = भुमया अथवा भमया।।
भुमया रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२१ में की गई है।
'भ्रूः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (स्व-अर्थ- बोधक प्रत्यय के साथ) 'भमया' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से ‘र्' का लोप; २-१६७ से 'स्व-अर्थ' में प्राप्त प्रत्यय 'डमया' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त 'भू' में स्थित अन्त्य स्वर ‘ऊ' की इत्संज्ञा होकर 'अमया' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से हलन्त् 'म्' में 'डमया' प्रत्यय में से अवशिष्ट 'अमया' के 'अ' की संधि; और १ - ११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर 'भमया' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१६७।। शनै सो डिअम् ।। २-१६८।।
शनैस् शब्दात् स्वार्थे डिअम् भवति ।। सणिअमवगूढो ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'शनैः' के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में 'डिअम्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। 'डिअम्' प्रत्यय में आदि 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'शनैः' के 'ऐ' स्वर की इत्संज्ञा होकर 'इअम्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । जैसे:-शनैः अवगूढ़ =सणिअम् अवगूढो अथवा सणिअमवगूढो ।।
'शनैः' (=शनैस्) संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सणिअम्' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १६८ से 'स्व-अर्थ' में 'डिअम्' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डिअम्' प्रत्यय में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'ए' स्वर की इत्संज्ञा अर्थात् लोप; १ - ११ से अन्त्य व्यञ्जन विसर्ग रूप 'स्' का लोप; और १-५ से प्राप्त रूप 'सण्' में पूर्वोक्त इअम् की संधि होकर 'सणिअम्' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
326 : प्राकृत व्याकरण
'अवगूढः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'अवगूढो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अवगूढो रूप सिद्ध हो जाता है।। २-१६८।।
मनाको न वा डयं च ।। २-१६९।। मनाक् शब्दात् स्वार्थे डयम् डिअम् च प्रत्ययो वा भवति।। मणयं। मणिय। पक्षे। मणा।।
अर्थः- संस्कृत अव्यय रूप मनाक् शब्द के प्राकृत रूपान्तर में स्व-अर्थ में वैकल्पिक रूप से कभी 'डयम्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है, कभी 'डिअम्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है ओर कभी-कभी स्व-अर्थ में किसी भी प्रकार के प्रत्यय की प्राप्ति नहीं भी होती है जैसेः- मनाक्-मणयं अथवा मणियं और वैकल्पिक पक्ष में मणा जानना।
'मनाक्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत-रूप (स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय के साथ)-'मणयं', 'मणियं' और 'मणा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' का लोप; २-१६९ से वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'स्व-अर्थ' में 'डयम्' और 'डिअम्' प्रत्ययों की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्ययो में 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त रूप 'मणा' में से अन्त्य 'आ' का लोप, १-५ से शेष रूप 'मण' के साथ प्राप्त प्रत्यय रूप 'अयम्' और 'इअम्' की क्रमिक संधि, १-१८० से द्वितीय रूप 'मणिअम्' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'मणयं' और 'मणियं सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय रूप-(मनाक्=) मणा में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'क्' का लोप होकर 'मणा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१६९।।
मिश्राड्डालिअः ॥२-१७०॥ मिश्र शब्दात् स्वार्थे डालिअः प्रत्ययो वा भवति।। मीसालि पक्षे। मीसं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'मिश्र के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'डालिअ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। 'डालिअ प्रत्यय में आदि 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'मिश्र में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर तत्पश्चात 'आलिअ' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- मिश्रम्=मीसालिअं और वैकल्पिक पक्ष होने से मीसं रूप भी होता है। _ 'मिश्रम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मीसालि और 'मीसं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति, १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति, २-१७० से स्व-अर्थ में 'डालिअ-आलिअ' प्रत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय में 'ड' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'स' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा, १-५ से प्राप्त रूप 'मीस्' के हलन्त 'स्' के साथ प्राप्त प्रत्यय 'आलिअ के 'आ' की संधि, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'मीसालिअं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'मीसं' की सिद्धि सूत्र संख्या १-४३ में की गई है। ।। २-१७०॥
रो दीर्घात् ।। २-१७१॥
दीर्घ शब्दात् परः स्वार्थे रो वा भवति।। दीहरं। दीह।। अर्थः- संस्कृत विशेषणात्मक शब्द 'दीर्घ' के प्राकृत रूपान्तर में स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'र' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- दीर्घम्=दीहरं अथवा दीहं।।
'दीर्घ संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत -रूप-(स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय के साथ)-'दीहर' और 'दीह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-१७१ से स्व-अर्थ में वैकल्पिक
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 327
अर्थ में
रूप से 'र प्रत्यय की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'दीहर' और 'दीह सिद्ध हो जाते हैं। ।। २-१७१।।
त्वादेः सः ॥ २-१७२।। भावे त्व-तल् (हे .७-१) इत्यादिना विहितात्त्वादेः परः स्वार्थे स एव त्वादि र्वा भवति।। सृदुकत्वेन। मउअत्तयाइ।। आतिशायिका त्वातिशायिकः संस्कतवदेव सिद्धः। जेट्रयरो। कणिट्रयरो॥ __ अर्थः- आचार्य हेमचन्द्र कृत संस्कृत-व्याकरण में (हे. ७-१ सूत्र में) भ व-अर्थ में 'त्व' और 'तल्' प्रत्ययों की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है। प्राकृत-व्याकरण में भाव-अर्थ' में इन्हीं त्व' आदि प्रत्ययों की ही प्राप्ति वैकल्पिक रूप से तथा 'स्व-अर्थ-बोधकता' रूप से होती है। जैसे:- मदकत्वेन मउअत्तयाइ।। 'अतिशयता' सूचक प्रत्ययों से मिर्मित संस्कृत-शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में उन्हीं अतिशयता' सूचक प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; जो कि अतिशयता-सूचक'
में आये हैं। जैसे:-ज्येष्ठतर: जेट्रयरो। इस उदाहरण में संस्कृत-रूप में प्राप्त प्रत्यय 'तर' का ही प्राकृत रूपान्तर 'यर' हुआ है। यह 'तर' अथवा 'यर' प्रत्यय आतिशायिक स्थिति का सूचक है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:कनिष्ठतर कणि?यरो। इस उदाहरण में भी प्राप्त प्रत्यय 'तर' अथवा 'यर' तारतम्य रूप से विशष हीनता का सूचक होकर आतिशायिक-स्थिति का द्योतक है। यों अन्य उदाहरणों में भी संस्कृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले आतिशायिक स्थिति के द्योतक प्रत्ययों की स्थिति प्राकृत-रूपान्तर में बनी रहती है। ___ 'मृदुकत्वेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप (स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय के साथ) 'मउअत्तयाइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' और 'क्' का लोप; २-७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-३१ की वृति से स्त्रीलिंग-वाचक अर्थ में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१८० से प्राप्त स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मउअत्तयाइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ज्येष्ठतरः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जेट्टयरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ष' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ठ' के स्थान पर द्वित्व छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए पूर्व'' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् रोष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जेट्टयरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'कनिष्ठतरः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कणिट्रयरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष सम्पूर्ण साधनिका उपरोक्त 'जेट्टयरो' रूप के समान ही होकर 'कणिट्टयरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७२।।
विद्युत्पत्र-पीतान्धाल्लः ।। २-१७३।। ___ एभ्यः स्वार्थे लो वा भवति। विज्जुला। पत्तल। पीवलं। पीअलं। अन्धलो। पक्षे। विज्जू। पत्तं। पीओ अन्धो॥ कथं जमलं। यमलमिति संस्कृत-शब्दात् भविष्यति।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द विद्युत, पत्र, पीत और अन्ध के प्राकृत-रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:-विद्युत् विज्जुला अथवा विज्जू; पत्रम्=पत्तलं अथवा पत्तं; पीतम्=पीवलं, पीअलं अथवा पीअं और अन्धः अन्धलो अथवा अन्धो।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
328 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्नः- प्राकृत रूप जमलं की प्राप्ति कैसे होती है ?
उत्तर:- प्राकृत रूप 'जमलं' में स्थित 'ल' स्वार्थ-बोधक प्रत्यय नहीं है; किन्तु मूल संस्कृत रूप 'यमलम्' का ही यह प्राकृत रूपान्तर है, तदनुसार 'ल' मूल-स्थिति से रहा हुआ है; न कि प्रत्यय रूप से; यह ध्यान में रहे।
विद्युत् से निर्मित 'विज्जुला' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है और 'विजू रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५ में की गई है। __ 'पत्रम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पत्तलं' और 'पत्तं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त'को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; २-१७३ से 'स्व-अर्थ में वैकल्पिक रूप से 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप 'पत्तलं' और 'पत्तं सिद्ध हो जाते हैं। 'पीवलं' और 'पीअलं' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१३ में की गई है। तृतीय रूप 'पीअं की सिद्धि भी सूत्र संख्या १-२१३ में की गई है।
'अन्धः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अन्धलो' और 'अन्धो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१७३ से 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'अन्धलो' और 'अन्धो' सिद्ध हो जाते हैं।
'यमलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जमलं' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'जमलं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७३।।
गोणादयः ॥ २-१७४।। गोणादयः शब्दा अनुक्त-प्रकृति-प्रत्यय-लोपागम-वर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते।।
गौः। गोणो। गावी।। गावः। गावीओ।। बलीवर्दः।। बइल्लो।। आपः। आऊ।। पञ्च पञ्चाशत्। पञ्चावण्णा। पणपन्ना। त्रिपञ्चाशत् । तेवण्णा।। त्रिचत्वारिंशत्। तेआलीसा।। व्युत्सर्गः। विउसग्गो।। व्युत्सर्जनम्। वोसिरण।। बहिर्मैथुनं वा। बहिद्वा।। कार्यम्। णामुक्कसि।। क्वचित्। कत्थइ।। उद्वहति। मुव्वहइ।। अपस्मारः। वम्हलो।। उत्पलम्। कन्दुटुं धिधिक। छिछि। धिद्धि।। धिगस्तु। धिरत्थ।। प्रतिस्पर्धा। पडिसिद्धी। पाडिसिद्धी।। स्थासकः। चच्चिक।। निलयः। निहेलणं। मघवान्। मघोणो। साक्षी। सक्खिणो। जन्म। जम्मण।। महान्। महन्तो। भवान्। भवन्तो।। आशीः। आसीसा।। क्वचित् हस्य डभौ।। बृहत्तरम्। वड्डयरं।। हिमोरः। भिमोरो।। ल्लस्य ड्डः। क्षुल्लकः। खुड्डओ। घोषाणामग्रेतनो गायनः। घायणो।। वडः। वढो।। ककुदम्। ककुध।। अकाण्डम्। अत्थक्क।। लज्जावती। लज्जालुइणी।। कुतूहलम्। कुड्ड।। चूतः। मायन्दो। माकन्द शब्दः संस्कृते पीत्यन्ये।। विष्णुः। भट्टिओ।। श्मशानम्। करसी।। असुराः। अगया।। खेलम्। खेड्ड।। पौष्पं रजः। तिङ्गिच्छि।। दिनम्। अल्लं।। समर्थः। पक्कलो। पण्डकः। णेलच्छो।। कर्पासः। पलही। बली। उज्जल्लो।। ताम्बूलम्। झसुर।। पुंश्चली। छिछई।। शाखा। साहुली॥ इत्यादि।। वाधिकारात् पक्षे यथादर्शनं गउओ इत्याद्यपि भवति।। गोला गोआवरी इति तु गोदागोदावरीभ्यां सिद्धम॥ भाषा शब्दाश्च। आहित्य। लल्लक्क। विडिर। पंचडिआ। उप्पेहड। मडप्फर। पडिच्छिर। अट्ट-मट्ट। विहडप्फड। अज्जल्ल। हल्लप्फल्ल इत्यादयो महाराष्ट्र विदर्भादिदेशद्य सिद्धा लोकतोवगन्तव्याः।। क्रिया शब्दाश्च। अवयासइ। फुम्फुल्लइ उप्फालेइ। इत्यादयः। अतएव च कृष्ट-घृष्ट-वाक्य विद्वस् वाचस्पति विष्ठर अवस्-प्रचेतस्-प्रोक्त-प्रोतादीनाम् क्विवादि प्रत्ययान्तानां च अग्निचित्सोमत्सुग्लसुम्लेत्यादीनां पूर्वः कविभिरप्रयुक्तानां प्रतीतिवैषम्यपरः प्रयोगो न कर्तव्यः शब्दान्तरैरेव तु तदर्थोभिधेयः। यथा कृष्टः कुशलः।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 329
वाचस्पतिर्गुरू: विष्टरश्रवा हरिरित्यादि।। घृष्ट-शब्दस्य तु सोपसर्गस्य प्रयोग इष्यत एव। मन्दर-यड परिघटुं। तद्दिअस-निहट्ठाणङ्ग इत्यादि।। आर्षे तु यथादर्शनं सर्वमविरूद्धम्। यथा। घट्ठा। मट्ठा। विउसा। सुअ-लक्खणाणुसारेण। वक्कन्तरेसु अ पुणो इत्यादि।। __ अर्थः- इस सूत्र में कुछ एक ऐसे शब्दों का उल्लेख किया गया है; जिनमें प्राकृत-व्याकरण के अनुसार प्राप्त होने वाली प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम और वर्ण विकार आदि स्थितियों का आशय है और जो केवल संस्कृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले शब्दों के स्थान पर प्रायः प्रयुक्त किये जाते हैं। ऐसे शब्दों की स्थिति 'देशज-शब्द-समूह' के अन्तर्गत ही मानी जा सकती है। जैसे:- संस्कृत शब्द 'गौः' के स्थान पर गोणो अथवा गावी का प्रयोग होता है; ऐसे ही संस्कृत-शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले देशज शब्दों की सामान्य-सूची इस प्रकार है:- गाव:=गावीओ; बलीवर्दः=बइल्लो; आपः-आऊ; पञ्चपञ्चाशत् पञ्चावण्णा अथवा पणवन्ना; त्रिपञ्चाशत् तेवण्णा; त्रिचत्वारिंशत्=तेआलीसा; व्युत्सर्गः-विउसग्गो; व्युत्सर्जनम्=वोसिरणं; बहिः अथवा मैथुनम् बहिद्धा; कार्यम्=णामुक्कसिअं; क्वचित-कत्थइ; उद्धहति-मुव्वहइ; अपस्मारः वम्हलो; उत्पलम्-कन्दुटुं; धिधिक्-छिछि अथवा धिद्धि; धिगस्तु-धिरत्थु; प्रतिस्प f=पडिसिद्धी अथवा पाडिसिद्धी; स्थासकः चच्चिकं; निलयः निहेलणं; मघवान् मघोणो; साक्षी सक्खिणो; जन्म-जम्मणं; महान् महन्तो; भवान् भवन्तो; आशी: आसीसा। कुछ एक संस्कृत शब्दों में स्थित 'ह' के स्थान पर देशज-शब्दों में कभी 'ड्ड' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है और कभी 'भ' की प्राप्ति होती हुई पाई जाती है। जैसे:-बृहत्तरम्-वड्डयरं
और हिमोर:-भिमोरो। कभी-कभी संस्कृत शब्द में रहे हुए 'ल्ल' के स्थान पर 'ड्ड' का सद्भाव पाया जाता है; जैसे:-क्षुल्लकः-खुड्डओ। कभी-कभी संस्कृत शब्दों में स्थित 'घोष-अल्प आण' प्रयत्न वाले अक्षरों के स्थान पर देशज-शब्दों में 'घोष-महा-प्राण प्रयत्न वाले अक्षरों का अस्तित्व देखा जाता है; अर्थात् वर्गीय तृतीय अक्षर के स्थान पर चतुर्थ अक्षर का सद्भाव पाया जाता है। जैसे:- गायनः घायणो; वड:-वढो और ककुदम् ककुधं इत्यादि। अन्य देशज एवं रूढ़ शब्दों के कुछ एक उदाहरण इस प्रकार हैं:- अकाण्डम् अत्थक्क; लज्जावती-लज्जालुइणी; कुतूहलम्=कुड्ड; चूतः-मायन्दो; कोई कोई व्याकरणाचार्य देशज शब्द मायन्दो का संस्कृत रूपान्तर माकन्दः भी करते हैं। सर्वथा रूढ़ देशज शब्द इस प्रकार हैं:- विष्णुः=भट्टिओ; श्मशानम् करसी; असुराः अगया; खेलम्-खेड्ड; पौष्परजः तिगिच्छः दिनम्-अल्लं, समर्थः-पक्कलो; पण्डकः=णेलच्छो; कर्पास:=पलही; बली-उज्जलो; ताम्बूलम्-झसुरं; पुचली-छिछिई; शाखा साहुली इत्यादि। बहुलम् अर्थात् वैकल्पिक-पक्ष का उल्लेख होने से 'गौः' का 'गउओ' रूप भी होता है; यह स्थिति अन्य शब्द-रूपों के संबंध में भी जानना। संस्कृत शब्द 'गोला' से देशज शब्द 'गोला' बनता है और 'गोदावरी' से 'गोआवरी' बनता है। अनेक देशज शब्द ऐसे है जो कि महाराष्ट्र प्रान्त और विदर्भ प्रान्त में बोले जाते हैं; प्रांतीय भाषा जनित होने से इनके "संस्कृत-पर्याय-वाचक शब्द" नहीं होते हैं। कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है:- आहित्य, लल्लक्क, विड्डिर, पच्चडिअ, उप्पेहड, मडप्फर, पुड्डिच्छिर, अट्टमट्ट, विहडप्फड, अज्जल्ल, हल्लप्फल्ल इत्यादि; ऐसे शब्दों का अर्थ प्रान्तीय जनता के बोल-चाल के व्यवहार से जाना जा सकता है। कुछ प्रान्तीय रूढ क्रिया शब्दों के अर्थ भी प्रान्तीय जनता के बोलचाल के व्यवहार से ही जाना जा सकता है। इसी तरह से कृष्ट, धृष्ट, वाक्य विद्वस, वाचस्पति, विष्टर, श्रवस्, प्रचेतस्, प्रोषत और प्रोत इत्यादि शब्दों का; एवं क्विप प्रत्ययान्त शब्दों का जैसे कि-अग्निचित्, सोमसुत, सुग्ल और सुम्ल इत्यादि ऐसे शब्दों का तथा पूर्ववर्ती कवियों ने जिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया है उनका प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे अर्थ-क्लिष्टता तथा प्रतीति विषमता जैसे दोषों की उत्पत्ति होती है। अतएव सरल शब्दों द्वारा अभिधेय-अर्थ को प्रकट करना चाहिए। जैसे:- कृष्ट के स्थान पर 'कुशल'; वाचस्पति के स्थान पर 'गुरू' और विष्टर श्रवा के स्थान पर 'हरि' जैसे सरल शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिये। घष्ट शब्द के साथ यदि कोई उपसर्ग जडा हआ हो तो इसका प्रयोग कि वांछनीय ही है। जैसे:-मंदर-तट-परिघृष्टम् मन्दरयड- परिघटुं तद्दिवस-निघृष्टानंगा तद्दिअस-निहट्टाणंगा इत्यादि; इन उदाहरणों में 'घृष्ट-घट्ट अथवा हट्ट प्रयुक्त किया गया है, इसका कारण यह है कि 'घृष्ट' के साथ क्रम से 'परि' एवं 'नि' उपसर्ग जुड़ा हुआ है; किन्तु उपसर्ग रहित अवस्था में 'घृष्ट' का प्रयोग कम ही देखा जाता है। आर्ष-प्राकृत में घृष्ट का प्रयोग देखा जाता है। इसका कारण पूर्व-वर्ती परम्परा के प्रति आदर-भाव ही है। जो कि अविरूद्ध स्थिति वाला ही माना
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
330 : प्राकृत व्याकरण
जायेगा। जैसे:-घृष्टाः-घटा; मृष्टा मट्ठा विद्वांसः-विउसा; श्रुत-लक्षणानुसारेण-सुअ-लक्खणाणुसारेण और वाक्यान्तरेषु च पुनः=वक्कन्तरे सु अ पुणो इत्यादि आर्ष-प्रयोग में अप्रचलित प्रयोगों का प्रयुक्त किया जाना अविरूद्ध स्थिति वाला ही समझा जाना चाहिये। ___ 'गौः संस्कृत रूप है। इसके आर्ष-प्राकृत रूप 'गोणो' और 'गावी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१७४ से 'गौ' के स्थान पर 'गोण' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गोणो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(गौ:-) 'गावी' में सूत्र संख्या २-१७४ से 'गौ के स्थान पर 'गाव' रूप का निपात; ३-३२ से स्त्रीलिंग-अर्थ में प्राप्त निपात रूप 'गाव' में 'डी' (दीर्घस्वर 'ई') की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ' इत् संज्ञक होने से 'गाव' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त रूप 'गाव्' के अन्त्य हलन्त 'व' में प्राप्त प्रत्यय 'ई' की संधि और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर द्वितीय रूप 'गावी' सिद्ध हो जाता है।
'गावः' संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'गावीओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'गौ' के स्थान पर 'गाव' का निपात; ३-३२ से प्राप्त निपात रूप 'गाव' में स्त्रीलिंग अर्थ में 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त निपात रूप 'गाव' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप; १-५ से प्राप्त रूप 'गाव्' के अन्त्य हलन्त 'व्' में प्राप्त प्रत्यय 'ई' की संधि और ३-२७ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' अथवा 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गावीओ' रूप सिद्ध हो जाता
है।
_ 'बलीवर्दः संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'बइल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण रूप 'बलीवर्द' के स्थान पर 'बइल्ल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बइल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'आपः' संस्कृत नित्य बहुवचनान्त रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'आऊ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण रूप 'आप' के स्थान पर 'आउ' रूप का निपात; ३-२७ से स्त्रीलिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और वैकल्पिक पक्ष में ३-२७ से ही अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'आऊ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पञ्चपञ्चासत' संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसके देशज प्राकृत रूप पञ्चावण्णा और पणपन्ना होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण रूप 'पञ्चाशत्' के स्थान पर 'पञ्चावण्णा' रूपों का क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से निपात होकर दोनों रूप ‘पञ्चावण्णा' और 'पणपन्ना' सिद्ध हो जाते हैं।
"त्रिपञ्चाशत्' संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'तेवण्णा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप त्रिपञ्चाशत् के स्थान पर देशज प्राकृत में तेवण्णा रूप का निपात होकर 'तेवण्णा' रूप सिद्ध हो जाता है।
"त्रिचत्वारिंशत् संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'तेआलीसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप त्रिचत्वारिंशत् के स्थान पर देशज प्राकृत में 'तेआलीसा' रूप का निपात होकर 'तेआलीसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्युत्सर्गः' संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'विउसग्गो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६ से संधि निषेध होने से संस्कृत-सधि रूप 'व्यु' के स्थान पर असंधि रूप से 'विउ' की प्राप्ति; २-७७ से 'त्' का लोप; २-७९ से रेफ रूप 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग' के स्थान पर द्वित्व ‘ग्ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विउसग्गो' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 331 'व्युत्सर्जनम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वोसिरणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'व्युत्सर्जन' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'वोसिरन' रूप का निपात; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप 'वोसिरणं' सिद्ध हो जाता है। _ 'बहिर्मथुनम्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'बहिद्धा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'बहिर्मैथुन के स्थान पर देशज प्राकृत में 'बहिद्धा' रूप का निपात होकर 'बहिद्धा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कार्यम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'णामुक्कसि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'कार्य' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'णामुक्कसिअ रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप ‘णामुक्कसि सिद्ध हो जाता है।
'क्वचित्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'कत्थइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप क्वचित् के स्थान पर देशज प्राकृत में 'कत्थई' रूप का निपात होकर 'कत्थइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'उद्वहति' संस्कृत समर्कम क्रिया रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'मुव्वहइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से आदि वर्ण 'उ' में आगम रूप 'म्' का नियात; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत रूप 'मुव्वहइ' सिद्ध हो जाता है। __ 'अपस्मारः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वम्हलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'अपस्मार' के स्थान पर देशज प्राकृत में वम्हल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत रूप ‘वम्हलो' सिद्ध हो जाता है।
"उत्पलम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'कन्दुटुं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'उत्पल' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'कन्दुट्ट रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप 'कन्दुटुं सिद्ध हो जाता है। __ 'धिधिक् संस्कृत अव्यय रूप है। इसके देशज प्राकृत रूप 'छिछि' और 'धिद्धि होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत 'धिक् धिक् के स्थान पर प्राकृत में 'छिछि' और 'धिद्धि' का क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से निपात होकर दोनो रूप 'छिछि' और 'धिद्धि' सिद्ध हो जाते हैं।
"धिगस्तु' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'धिरत्थु होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ग' वर्ण के स्थान पर प्राकृत में 'र' वर्ण का निपात; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त्' के स्थान पर 'थ्' आदेश; २-८९ से आदेश प्राप्त 'थ्' का द्वित्व'थ्थ' और २-९० से प्राप्त पूर्व'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत 'धिरत्थु' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पडिसिद्धी' और 'पाडिसिद्धी' रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है।
'स्थासकम' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज अथवा आर्ष प्राकृत रूप 'चच्चिक' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'स्थासक' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'चच्चिक' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज रूप 'चच्चिक रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
332 : प्राकृत व्याकरण
___ 'निलयः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'निहेलणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'निलय' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'निहेलण' रूप का निपात; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत 'निहेलणं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'मघवान्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'मघोणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'मघवान्' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'मघोण रूप का निपात; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज प्राकृत 'मघोणो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'साक्षिणः' संस्कृत बहुवचनान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सक्खिणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति २-९० प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति और ३-२२ से (संस्कृत मूल शब्द साक्षिन् में स्थित अन्त्य हलन्त 'न्' में प्राप्त) प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में ‘णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सक्खिणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जन्म' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'जम्मणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६१ से 'न्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'म' के स्थान पर द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; २-१७४ से प्राप्त रूप 'जम्म' में अन्त्य स्थान पर 'ण' का आगम रूप निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर 'जम्मणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'महान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'महन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ की प्राप्ति; २-१७४ से प्राप्त रूप 'महन्' के अन्त में आगम रूप 'त' का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'महन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भवान्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'भवन्तो' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त महान् महन्तो रूप के समान ही होकर भवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आशीः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'आसीसा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६० से 'श' के स्थान पर 'स् की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप; २-१७४ से प्राप्त रूप 'आसी' के अन्त में आगम रूप 'स्' का निपात और २-३१ की वृत्ति से एवं हेम व्याकरण २-४ से स्त्रीलिंग अर्थ में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आसीसा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'बृहत्तरम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वड्डयर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति: १-२३७ से 'ब' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; २-१७४ से 'ह' के स्थान पर द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; २-७७ से प्रथम हलन्त 'त्' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वड्डयरं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'हिमोरः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'भिमोरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ह' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिमोरो रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षुल्लकः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खुड्डओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-१७४ से द्वित्व ल्ल' के स्थान पर द्वित्व 'ड्ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 333 प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खुड्डओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'गायनः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'घायणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ग' के स्थान पर 'घ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'घायणो रूप सिद्ध हो जाता है।
"वडः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'वढो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ड' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वढो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ककुदम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'ककुछ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'द' के स्थान पर 'ध' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'ककुध रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'अकाण्डम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'अत्थक्क होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'अकाण्ड' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'अत्थक्क' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अत्थक्क' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लज्जावती' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'लज्जालुइणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'वाली' अर्थक संस्कृत प्रत्यय ‘वती' के स्थान पर देशज प्राकृत में लुइणी प्रत्यय का निपात होकर 'लज्जालुइणी' रूप सिद्ध हो जाता है। __'कुतूहलम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'कुड्डू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'कुतूहल' के स्थान पर देशज प्राकृत में कुड्ड' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुड्ड' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'चूतः' संस्कृत रूप (आम्रवाचक) है इसका देशज प्राकृत रूप 'मायन्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण 'मायन्द' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मायन्दो'रूप सिद्ध हो जाता है। __'माकन्दः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'मायन्दो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मायन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"विष्णुः संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'भट्टिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'विष्ण' के स्थान पर देशज प्राकत में भट्रिअरूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भट्टिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। __ "श्मशानम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'करसी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'श्मशानम्' के स्थान पर देशज प्राकृत में करसी' रूप का निपात होकर करसी रूप सिद्ध हो जाता है।
'असुराः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'अगया' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'असुराः' के स्थान पर देशज प्राकृत में अगया' रूप का निपात होकर अगया रूप सिद्ध हो जाता है।
खेलम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'खेड्ड' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ल' वर्ण के स्थान
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
334 : प्राकृत व्याकरण
पर देशज प्राकृत में द्वित्व 'ड' का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'खेड्ड' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'पौष्पं-रजः' (पुष्प-रजः) संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप तिलिच्छि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'पौष्पं-रज' के स्थान पर देशज प्राकृत में तिङ्गिच्छि रूप का निपात होकर तिङ्गिच्छि रूप सिद्ध हो जाता है।
"दिनम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'अल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'दिन' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'अल्ल' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर 'अल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'समर्थः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'पक्कलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण पक्कल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पक्कलो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'पण्डकः संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'णेलच्छो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'पण्डक' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'णेलच्छ' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णेलच्छो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कांसः' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'पलही' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'कर्पास' के स्थान पर देशज प्राकृत में पलही' रूप का निपात और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर दीर्घ 'ई' को यथा रूप दीर्घ 'ई' की स्थिति प्राप्त होकर पलही' रूप सिद्ध हो जाता है।
- 'बली' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप उज्जल्लो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द 'बली' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'उज्जल्ल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उज्जल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'ताम्बूलम्' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'झसुरं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'ताम्बूल' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'झसुर' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'झसुरं रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुंश्चली' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'छिछई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'पुंश्चली' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'छिंछई' रूप का निपात और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ 'ई' की यथा रूप स्थिति की प्राप्ति होकर 'छिछई रूप सिद्ध हो जाता है।
'शाखा' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'साहुली' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'शाखा' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'साहुली' रूप का निपात और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ 'ई' की यथा रूप स्थिति की प्राप्ति होकर 'साहुली' रूप सिद्ध हो जाता है।
गउओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५४ में की गई है। 'गोला' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप भी 'गोला' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से प्रथमा विभक्ति
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 335
के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय प्रत्यय रूप विसर्ग का-हलन्त व्यञ्जन रूप होने से-लोप होकर 'गोला' सिद्ध होता है। ___ 'गोदावरी' संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप 'गोआवरी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ 'ई' की यथा रूप स्थिति की प्राप्ति होकर 'गोआवरी रूप सिद्ध हो जाता है।
आहित्य, लल्लक्क, विड्डिर, पचड्डिअ, उप्पेहड, मडप्फर, पड्डिच्छिर, अट्ट मट्ट, विहडफ्फड, और हल्लप्फल्ल इत्यादि शब्द सर्वथा प्रान्तीय होकर रूढ़ अर्थ वाले हैं; अतः इनके पर्यायवाची शब्दों का संस्कृत में अभाव है; किन्तु इनकी अर्थ-प्रधानता को लेकर एवं इनके लिये स्थानापन्न शब्दों का निर्माण करके काम चलाऊ साधनिका निम्न प्रकार से हैं :
विलितः, कुपितः अथवा आकुलः संस्कृत विशेषण रूप है। इनके स्थान पर प्रान्तीय भाषा में 'आहित्यो' रूप का निपात होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आहित्यो रूढ़-रूप सिद्ध हो जाता है।
भीष्मः अथवा भयंकरः संस्कृत विशेषण रूप है। इनका प्रान्तीय भाषा रूप लल्लक्को होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत रूप भीष्म अथवा भंयकर के स्थान पर रूढ़ रूप'लल्लक्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूढ़-रूप 'लल्लक्को' सिद्ध हो जाता है।
'आनकः' (वाद्य-विशेष) संस्कृत रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'विड्डिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत रूप 'आनक' के स्थान पर रूढ़ रूप 'विड्डिर' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूढ़-रूप 'विड्डिरो सिद्ध हो जाता है।
'क्षरितः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'पच्चडिओ' होता है। इसकी साधनिका भी उपरोक्त "विड्डिरो' के समान ही होकर 'पच्चड्डिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उद्भटः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'उप्पेहडो' होता है। इसकी साधनिका भी उपरोक्त 'विड्डिरो' के समान ही होकर 'उप्पेहडो' रूढ़ रूप सिद्ध हो जाता है।
'गर्वः' संस्कृत रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप ‘मडप्फरो' होता है। इसकी साधनिका भी उपरोक्त 'विड्डिरो' के समान ही होकर 'मडप्फरो' रूढ़ रूप सिद्ध हो जाता है।
'सद्दक संस्कृत रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'पड्डिच्छिर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत शब्द 'सद्दक के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में पड्डिच्छिर' रूढ़ रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रूढ़ रूप 'पड्डिच्छिर सिद्ध हो जाता है। __'आलवालम्' संस्कृत रूप है। इसकी प्रान्तीय भाषा रूप 'अट्टमट्ट' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त पड्डिच्छिरं के समान ही होकर रूढ़ रूप 'अट्टमट्ट सिद्ध हो जाता है। __'व्याकुलः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'विहडप्फडो' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त 'विडिरो' के समान ही होकर रूढ़ रूप 'विहडप्फडो' सिद्ध हो जाता है।
'हठः' संस्कृत रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'अज्जल्लं' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त पडिच्छिरं के समान होकर रूढ़ रूप 'अज्जल्लं' सिद्ध हो जाता है। ___ 'औत्सुक्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'हल्लप्फल्ल' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त 'पडिच्छिर' के समान ही होकर रूढ़ रूप 'हल्लप्फल्लं' सिद्ध हो जाता है।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
336 : प्राकृत व्याकरण
'श्लिष्यति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'अवयासइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १७४ से मूल संस्कृत रूप 'श्लिष्' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में रूढ़ रूप 'अवयास' का निपात; ४ - २३९ से प्राप्त रूप 'अवयास्' में संस्कृत गण वाचक 'य' विकरण प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ' वाचक रूप 'अवयासइ' सिद्ध हो जाता है।
'उत्पाटयति' अथवा कथयति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'फुम्फुल्लइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत रूप 'उत्पाट्' अथवा 'कथ्' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में रूढ रूप 'फुम्फुल्ल' का निपात; ४-२३९ से प्राप्त रूप 'फुम्फुल्ल' में संस्कृत गण वाचक 'अय' विकरण प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ' वाचक रूप 'फुम्फुल्लइ' सिद्ध हो जाता है।
'उत्पाटयति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप 'उप्फालेइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत रूप 'उत्पाट्' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में रूढ रूप 'उप्फाल्' का निपात; ४ - २३९ से प्राप्त रूप 'उप्फाल्' में संस्कृत गण वाचक 'अय' विकरण प्रत्यय के स्थान पर देशज प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३ - १५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ' वाचक रूप 'उप्फाले ' सिद्ध हो जाता है।
मन्दर-तट- परिघृष्टम् संस्कृत विशेषणात्मक वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'मन्दर - यड - परिघट्ट' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से ‘त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-१९५ से प्रथम 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर ‘ठ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से 'ठ' के स्थान पर 'टू' की प्राप्ति; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मन्दर - यड- परिघट्ट' रूप सिद्ध हो जाता है।
‘तद्दिवस-निघृष्टानंगः' संस्कृत विशेषणात्मक वाक्यांश है। इसका प्राकृत रूप 'तद्दिअस - निहट्ठाणंगो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - १८७ से प्राप्त 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-३४ से ' ष्ट्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; ३-८९ से 'ठ' को द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; १ - २२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - ३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे कवर्गीय 'ग' होने से पंचमाक्षर रूप 'ङ्' की प्राप्ति ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ' तद्दिअस निहट्टाणंगो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'घृष्टाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'घट्टा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ्' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ट्' के स्थान पर 'टू' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'घट्टा' रूप सिद्ध हो जाता है।
=
'मृष्टाः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मट्ठा' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त घृष्टा :- घट्टा रूप में प्रयुक्त सूत्रों से होकर 'मट्ठा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विद्वांसः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विउसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १७४ से विद्वान् अथवा 'विद्धस्'
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 337 के स्थान पर 'विउस' रूप का निपात; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'विउसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्रुत-लक्षणानुसारेण संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुअ-लक्खणाणुसारेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'थ्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त हुए 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति
और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय रूप 'ण' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'सुअ-लक्खणाणुसारेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'वाक्यान्तरेषु' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वक्कन्तरेसु होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति १-४ से प्राप्त 'क्का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से '' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति अथवा ३-१५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'सुप्-सु' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'वक्कन्तरेसु रूप सिद्ध हो जाता है।
'अ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'पुनः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो-ओ' की प्राप्ति; प्राप्त वर्ण 'डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'न' व्यञ्जन के अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा; एवं १-५ से प्राप्त हलन्त 'न्' में विसर्ग स्थानीय 'ओ' की संधि होकर 'पुणो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७४।।
अव्ययम् ।। २-१७५।। अधिकारोयम्। इतः परं ये वक्ष्यन्ते आ पाद समाप्ते स्तेऽव्ययसंज्ञा ज्ञातव्याः।।
अर्थः- यह सूत्र-अधिकार-वाचक है; प्रकारान्तर से यह सूत्र-विवेच्यमान विषय के लिये शीर्षक रूप भी कहा जा सकता है; क्योंकि यहां से नवीन विषय रूप से 'अव्यय-शब्दों का विवेचन प्रारम्भ किया जाकर इस द्वितीय पाद की समाप्ति तक प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध लगभग सभी अव्ययों का वर्णन किया जायगा। अतः पाद-समाप्ति-पर्यन्त जो शब्द कहे जायेंगे; उन्हें अव्यय-संज्ञा' वाला जानना चाहिए।।२-१७५।।
तं वाक्योपन्यासे ॥ २-१७६।। तमिति वाक्योपन्यासे प्रयोक्तव्यम्।। ततिअस-बन्दि-मोक्ख।।
अर्थः- 'त' शब्द अव्यय है और यह वाक्यांश के प्रारंभ में शोभारूप से-अलंकार रूप से प्रयुक्त होता है; ऐसी स्थिति में यह अव्यय किसी भी प्रकार का अर्थ सूचक नहीं होकर केवल अलंकारिक होता है। इसे केवल साहित्यिक परिपाटी ही समझना चाहिए। जैसे:- त्रिदश-बंदिमोक्षम्=तं तिअस-बंदि मोक्खं। इस उदाहरण में संस्कृत रूप में तं' वाचक शब्द रूप का अभाव है; किन्तु प्राकृत में 'त' की उपस्थिति है; यह उपस्थिति शोभा रूप ही है; अलंकारिक ही है; न कि किसी विशेष तात्पर्य को बतलाती है। यों अन्यत्र भी 'तं' की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये। 'तं' अव्यय है। इसकी साधनिका की आवश्यकता उपरोक्त कारण से नहीं है।
'त्रिदश-बन्दि-मोक्षम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तिअस-बन्दि मोक्खं होता है। इसमें सूत्र संख्या
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
338 : प्राकृत व्याकरण
२-७९ से 'त्र्' में स्थित 'र्' का लोप; १-१७७ से प्रथम 'द्' का लोप; १ - २६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' के स्थान पर द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति और ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तिअस - बंदिमोक्ख' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७६ ।। आम अभ्युपगमे ।। २-१७७।।
आमेत्यभ्युपगमे प्रयोगक्तव्यम् । आम बहला वणोली ।।
अर्थः- 'स्वीकार करने' अर्थ में अर्थात् 'हाँ' ऐसे स्वीकृति-सूचक अर्थ में प्राकृत साहित्य में 'आम' अव्यय का उच्चारण किया जाता है। जैसे:- आम बहला बनालिः- आम बहला वणोली। हाँ, (यह) सघन वन - पंक्ति है । 'आम' अव्यय रूप है। रूढ रूप वाला होने से एवं रूढ़ अर्थक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
'बहला' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बहला ही होता है। अतएव साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'वनालिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वणोली' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८३ से 'पंक्ति वाचक' अर्थ में रहे हुए 'आलि' शब्द के 'आ' को 'ओ' की प्राप्ति; १ - १० से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' का, आगे 'ओली' का 'ओ' होने से लोप; १-५ से हलन्त् 'ण्' के साथ 'ओली' के 'ओ' की संधि, और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'वणोली' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७७।।
वि वैपरीत्ये ।। २-१७८।।
णवीति वैपरीत्ये प्रयोक्तव्यम् ॥ णवि हा वणे ॥
अर्थः- प्राकृत शब्द 'णवि' अव्यय है और इसका प्रयोग 'विपरीतता' अर्थ को प्रकट करने में किया जाता है। जैसे:उण्हेह सीअला णवि कयलि वणे-उष्णा अत्र (तथापि ) - (णवि) - शीतला कदली- वने अर्थात् उष्णता की ऋतु होने पर भी (उल्टी) कदली वन में शीतलता है। इसी प्रकार से मूल उदाहरण का तात्पर्य इस प्रकार है:- णवि हा वगेणवि हा ! वने अर्थात् खेद है कि (जहाँ पहुँचना चाहिये था वहां नहीं पहुंच कर ) उल्टे वन में (पहुँच गया है) । यों 'विपरीतता' अर्थ में 'वि' का प्रयोग समझना चाहिये।
'णवि' प्राकृतः - साहित्य का (विपरीतता रूप) अर्थ वाचक अव्यय है। तदनुसार 'साधनिका' की आवश्यकता नहीं है। 'हा' प्राकृत - साहित्य का 'खेद' द्योतक अव्यय रूप है।
'वने' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में 'ड़े' प्रत्यय की प्राप्ति 'ड' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से प्राप्त 'ण' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा और १-५ से प्राप्त हलन्त् 'ण्' में प्राप्त 'ए' प्रत्यय की संधि होकर 'वणे' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २- १७८ ।।
पुणरुत्तं कृत करणे ।। २ - १७९ ।।
पुणरुत्त मिति कृत करणे प्रयोक्तव्यम् ।। अइ सुप्पर पंसुलि णीसहेहिं अंगेहिं पुणरुत्तं ।
अर्थः- ‘किये हुए को ही करना' अर्थात् बार बार अथवा बारंबार अर्थ में 'पुणरूत्तं' अव्यय का प्राकृत साहित्य में प्रयोग किया जाता है। जैसे:- अइ ! सुप्पइ पंसुलि णीसहेहिं अंगेहिं पुणरूत्तं- अयिपांशुले! (त्वम्) स्वपिति निःसहै: अंगे: वारंवारं अर्थात् हे कुल्टे! (तू) बार-बार सहन कर सके ऐसे अंगों से (ही) सोती है। यहाँ पर 'सोने शयन करने' की क्रिया बार बार
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 339 की जा रही है इस अर्थ को बतलाने के लिये 'पुणरूत्तं' अव्यय का प्रयोग किया गया है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-पेच्छ पुणरुत्तं- (एक वारं दृष्ट्वा भूयोऽपि) वारंवारं पश्य अर्थात् (एक बार देख कर पुनः) बार बार देखो। __'अयि' संस्कृत आमंत्रणार्थक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'अई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप होकर 'अइ' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'स्वपिति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुप्पई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६४ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'व्' का लोप; २-९८ से प् के स्थान पर द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; ४-२३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'अविकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सुप्पई रूप सिद्ध हो जाता है। __'पांशुले' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पंसुलि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'र' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-३२ से स्त्रीलिंग वाचक शब्दों में संस्कृत प्रत्यय 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'ला' वर्ण के स्थान पर 'ली' की प्राप्ति;
और ३-४२ से आमन्त्रण अर्थ में संबोधन में दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर 'पंसुलि' रूप सिद्ध हो जाता है।
निःसहै: निस्सहै संस्कृत तृतीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णीसहेहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१३ से विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप; १-९३ से विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप होने से प्राप्त 'णि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिः' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'णीसहेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अंगैः संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अंगेहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'क' वर्गीय 'ग' वर्ण होने से 'क' वर्गीय पंचमाक्षर रूप 'ङ' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीय विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हिं' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'अंगेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। 'पुणरूत्तं प्राकृत अव्यय रूप है। रूढ़-रूप होने से इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है। ॥२-१७९।।
हन्दि विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये ।। २-१८०।। हन्दि इति विषादादिषु प्रयोक्तव्यम्।
हन्दि चलणे णओ सो ण माणिओ हन्दि हुज्ज एत्ताहे। हन्दि न होही भणिरी सा सिज्जइ हन्दि तुह कज्जे।। हन्दि। सत्यमित्यर्थः।।
अर्थः- 'हन्दि' प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय है। जब 'विषाद' अर्थात् 'खेद' प्रकट करना हो; अथवा कोई कल्पना करनी हो; अथवा 'पश्चाताप व्यक्त करना हो; अथवा किसी प्रकार का निश्चय प्रकट करना हो; अथवा किसी प्रकार के "सत्य" की अभिव्यक्ति करनी हो तो "हन्दि" अव्यय का प्रयोग किया जाता है। प्रयुक्त "हन्दि" को देखकर प्रसंगानुसार उपरोक्त भावनाओं में से उपर्युक्त "भावना" सूचक अर्थ को समझ लेना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:
संस्कृतः- हन्दि-(विषाद-अर्थ)-चरणे नतः स न मानितः; हन्दि - (विकल्प-अर्थ)-भविष्यति इदीनाम्।
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
340 : प्राकृत व्याकरण
हन्दि - (पश्चात्ताप-अर्थ)- न भविष्यति भणन-शीला; सास्विद्यति हन्दि-(निश्चय अर्थ-सत्यार्थवा) तव कार्ये।। प्राकृतः- हन्दि चलणे णओ सो ण माणिओ; हन्दि हुज्ज एत्ताहे।। हन्दि न हो ही भणिरी; सा सिज्जइ हन्दि तुह कज्ज।।
हिन्दी अर्थः- खेद है कि उस (नायक) ने उस (नायिका) के पैरों में नमस्कार किया; वह झुक गया; तो भी उस (नायिका) ने उसका सम्मान नहीं किया अर्थात् वह (नायिका) नरम नहीं हुई। ज्यों की त्यों रूठी हुई ही रही। इस समय में अब क्या होगा? यह पश्चाताप की बात है कि वह (नायिका) बातचित भी नहीं करेगी एवं निश्चय ही तुम्हारे कार्य में वह नहीं पसीजेगी। 'हन्दि' अव्यय का अर्थ यह सत्य ही है' ऐसा भी होता है।
'हन्दि' प्राकृत साहित्य का रूढ अर्थक अव्यय है। अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'चरणे' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चलणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५४ से 'र' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर उसका लोप और १-५ से प्राप्त हलन्त व्यञ्जन 'ण' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'चलणे' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'नतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश प्राप्त; 'डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'णओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सो' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९७ में की गई है।
'न' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ण' आदेश की प्राप्ति होकर 'ण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मानितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माणिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश; एवं प्राप्त 'डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर 'माणिओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भविष्यति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हुज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६१ से भवि के स्थान पर हु' आदेश; और ३-१७७ से भविष्यत्-काल-वाचक प्रत्यय 'ष्यति' के स्थान पर प्राकृत में 'ज्ज' आदेश की प्राप्ति होकर 'हुज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
"एताहे' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१३४ में की गई है।
'न' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'न' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' का 'ण' वैकल्पिक रूप होने से 'णत्व' का अभाव होकर 'न' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भविष्यति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'होही' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से भू-भव के स्थान पर 'हो' आदेश; ३-१७२ से संस्कृत में प्राप्त होने वाले भविष्यत्-काल-वाचक विकरण प्रत्यय 'इष्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' आदेश; ३-१३९ से संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय का आदेश; और १-५ की वृत्ति से एक ही पद में रहे हुए 'हि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के साथ आगे प्राप्त प्रत्यय रूप 'इ' की संधि होने से दोनों के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'होही' रूप सिद्ध हो जाता है।
'भणनशीला' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणिरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शील-धर्म-साधु अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'नशील' के स्थान पर 'इर' आदेश; १-१० से 'ण' में स्थित 'अ' स्वर का आगे प्राप्त प्रत्यय 'इर'
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 341 की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ण्' में प्राप्त प्रत्यय 'इर' की 'इ' की संधि; ३ - २२ प्राप्त पुल्लिंग रूप को स्त्रीलिंग वाचक रूप बनाने के लिये 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'ङी' में 'ङ' इत्संज्ञक हाने से 'इर' के अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'इर्' में उपरोक्त स्त्रीलिंग वाचक दीर्घ स्वर 'ई' की संधि और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर दीर्घ ईकारान्त रूप ही यथावत् स्थिर रहकर 'भणिरी' रूप सिद्ध हो जाता है।
सा सर्वनाम की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ३३ में की गई है।
'स्विद्यति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिज्जइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'व्' का लोप; २-७८ से 'य्' का लोप; ४ - २२४ से 'द्' के स्थान पर द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; और ३- १३९ से वर्तमान काल एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिज्जइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
तु सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
'काय' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कज्जे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व 'अ' की प्राप्ति; २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड' इत्संज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'ज्ज' अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप और १-५ से प्राप्त हलन्त् 'ज्ज्' में आगे स्थित प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'कज्जे' रूप सिद्ध हो जाता है । ।। २- १८० ।।
हन्द च गृहाणार्थे ।। २-१८१।।
हन्द हन्दि च गृहणार्थे प्रयोक्तव्यम् ।। हन्द पलोएस इमं । हन्दि । गृहाणेत्यर्थः ।।
अर्थः-‘लेओ' इस अर्थ को व्यक्त करने के लिये प्राकृत-साहित्य में 'हन्द' और 'हन्दि' का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- हन्द (= गृहाण) प्रलोकय इदम् = हन्द ! पलोएस इमं अर्थात् लेओ-इसको देखो । हन्दि गृहाण अर्थात् लेओ । 'हन्द' प्राकृत रूढ़ अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
‘प्रलोकय' संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पलोएस' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से ‘र्' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३- १७३ से द्वितीय पुरुष के एकवचन में आज्ञार्थ में अथवा विध्यर्थ में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पलोएसु' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इदम्' संस्कृत द्वितीयान्त सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप 'इम' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७२ से इदम् के स्थान पर 'इम' आदेश; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'इम' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हन्दि' प्राकृत में रूढ़-अर्थक अव्यय होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है । ।। २ - १८१ ।। मिव पिव विव व्व व विअ इवार्थे वा ॥। २-१८२।।
एते इवार्थे अव्यय संज्ञकाः प्राकृते वा प्रयुज्यन्ते ।। कुमुअं मिव । चन्दणं पिव। हंसो विव । साअरो व्व । खीरोओ सस्स व निम्मोओ। कमलं विअ । पक्षे । नीलुप्पल - माला इव ।।
अर्थः- ‘के समान' अथवा ' की तरह' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'इव' अव्यय प्रयुक्त किया जाता है। प्राकृत भाषा में भी 'इव' अव्यय इसी अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है; किन्तु वैकल्पिक रूप से 'इव' अव्यय के स्थान पर प्राकृत में छः अव्यय और प्रयुक्त किये जाते है; जो कि इस प्रकार है:- १ मिव, २ पिव, ३ विव, ४ व्व, ५ व और ६ विअ । इन छहो में
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
342 : प्राकृत व्याकरण
किसी भी एक का प्रयोग करने पर प्राकृत-साहित्य में 'के समान' अथवा 'की तरह' का अर्थ अभिव्यक्त होता है। क्रम से उदाहरण इस प्रकार है:- कुमुदम् इव = कुमुअं मिव-चन्द्र से विकसित होने वाले कमल समान; चन्दनम् इव चन्दणं पिव-चन्दन के समान; हंसः इव-हंसो विव- हंस के समान; सागरः इव - साअरोव्व - सागर के समान; क्षीरोदः इव खीरोओ व = क्षीर समुद्र के समान; शेषस्य निर्मोक: इव-सेसस निम्मोओ व शेषनाग की कंचुली के समान; कमलम् इव= कमलं विअ = कमल के समान और पक्षान्तर में 'नीलोत्पल-माला इव-नीलुप्पल-माला इव अर्थात् नीलोत्पल-कमलों की माला के समान उदाहरण में संस्कृत के समान ही 'इव' अव्यय का प्रयोग उपलब्ध है।
'कुमुदम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुमुअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कुमुअ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इव' संस्कृत सदृशता वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मिव' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८२ से 'इव' के स्थान पर 'मिव' आदेश वैकल्पिक रूप से होकर 'मिव' रूप सिद्ध हो जाता है।
'चन्दनम् ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चन्दणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त कुमुअं के समान ही होकर 'चन्दणं" रूप सिद्ध हो जाता है।
स. इव='पिव' अव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मिव' अव्यय के समान ही होकर 'पिव' अव्यय सिद्ध हो जाता है। 'हंसः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हंसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हंसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
सः इव='विव' अव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मिव' अव्यय के समान ही होकर 'विव' अव्यय सिद्ध हो जाता है। 'सागरः ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'साअरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'ग्' का लोप ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'साअरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
सः इव='व्व' अव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मिव' अव्यय के समान ही होकर 'व्व' अव्यय सिद्ध हो जाता है।
‘क्षीरोदः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खीरोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खीरोओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शेषस्य' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सेसस्य' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से दोनों प्रकार के 'श्' और 'ष्' के स्थान पर क्रम से 'स्' की प्राप्ति; ३ - १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति होकर 'सेसस्य' रूप सिद्ध हो जाता है।
'इव:' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत एक रूप 'व' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८२ से 'इव' के स्थान पर 'व' का आदेश होकर 'व' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निर्मोक:' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निम्मोओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म्' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निम्मोओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कमलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कमल' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कमल' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 343 'इव' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विअ भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८२ से 'इव' के स्थान पर विअ आदेश होकर 'विअ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'नीलोत्पल माला' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नीलुप्पल-माला' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर रूप 'ओ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७७ से 'त्' का लोप और २-८९ से लोप हुए त् के पश्चात् शेष रहे हए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति होकर 'नीलप्पल-माला' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'इव' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इव' भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८२ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'इव' का 'इव' ही यथा रूप रहकर 'इव' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८२।।
__ जेण तेण लक्षणे ।। २-१८३।। जेण तेण इत्येतो लक्षणे प्रयोक्तव्यो।। भमर-रूअंजेण कमल-वणं। भमर रूअं तेण कमल-वणं।
अर्थः- किसी एक वस्तु को देखकर अथवा जानकर उससे संबंधित अन्य वस्तु की कल्पना करना अर्थात् 'ज्ञात' द्वारा 'ज्ञेय' की कल्पना करने के अर्थ में प्राकृत साहित्य में 'जेण' और 'तेण' अव्ययों का प्रयोग किया जाता है। जैसेः भ्रमर-रूतं
येन (लक्ष्यीकृत्य) कमल वनं और भ्रमर-रूतं तेन (लक्ष्यी कृत्य) कमल-वनम्; अर्थात् भ्रमरों का गुजारव (हे) तो (निश्चय ही यहां पर) कमल-वन (है)। _ 'भम्रर-रुतं' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भमर-रुअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'भमर-रु रूप सिद्ध हो जाता है। __'येन' (लक्ष्यीकृत्य इति अर्थे) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'जेण' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कमल वनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कमल-वणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कमल-वणं रूप सिद्ध हो जाता है।
"तेन' (लक्ष्यीकृत्य इति अर्थेसंस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'तेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८३।।
णइ चेअ चिअ च्च अवधारणे ॥ २-१८४॥ एतेऽवधारणे प्रयोक्तव्याः। गईए णइ। जं चेअ मउलणं लोअणाणं। अणुबद्धं तं चिअ कामिणीण।। सेवादित्वात् द्वित्वमपि।। ते च्चिअ धन्ना। ते च्चेअ सुपुरिसा। च्च।। स च्च य रूवेण। स च्च सीलेण।।
अर्थ:- जब निश्चयार्थ-(ऐसा ही है)-प्रकट करना होता है; तब प्राकृत साहित्य में णइ' 'चेअ' 'चिअ'च्च' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। उपरोक्त चार अव्ययों में से किसी भी एक अव्यय का प्रयोग करने से 'अवधारण-अर्थ' अर्थात् निश्चयात्मक अर्थ प्रकट होता है। इन अव्ययों में ऐसा ही है ऐसा अर्थ प्रति-फलित होता है। उदाहरण इस प्रकार है:गत्या एव-गईए णइ अर्थात् गति से हो; यत् एव मुकुलनं लोचन नाम्-जंचेअ मउलणं लोअणाणं अर्थात् आँखों की जो अर्घ-खिलावट ही; अनुबद्धं तत् एव कामिनीभ्यः=अणुवद्धं तं चिअ कामिणीणं अर्थात् स्त्रियों के लिये ही यह अनुबद्ध है इत्यादि। सूत्र संख्या २-९९ वाले 'सेवादित्वात्' सूत्र से 'चेअ' और 'चिअ' अव्ययों में स्थित 'च' को द्वित्व'च्च' की प्राप्ति भी हो जाया करती है। जैसे:-ते एव धन्याः ते च्चिअ धन्ना अर्थात् वे धन्य ही है; ते एव सुपुरुषाः ते च्चेअ सुपुरिसा अर्थात् वे सत्पुरुष ही है। 'च्च' निश्चय वाचक अव्यय के उदाहरण इस प्रकार है:- स एव च रूपेण स च्च य रूवेण अर्थात् रूप से ही वह (आदरणीय आदि है); और स एव शीलेन सच्चसीलेण अर्थात् शील (धर्म) से ही वह (पूज्य आदि) है; इत्यादि।
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
344 प्राकृत व्याकरण
'गत्या' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गईए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से (मूल रूप में स्थित-गति+आ) 'त्' का लोप और ३ - २९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३ - २९ से ही प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'गईए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एव' संस्कृत अवधारणार्थक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८४ से 'एव' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर 'इ' रूप सिद्ध हो जाता है।
सर्वनामरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ३४ में की गई है।
अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
'मुकुलनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मउलणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १०७ से प्रथम 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'क' का लोप; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'मउलणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लोचनानाम्' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लोअणाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; १ - २२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - ६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय 'नाम्' प्रत्यय स्थान पर ३ - १२ से प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; 'ण' के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; १ - २७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'लोअणाणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अनुबद्धम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अणुबद्ध' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अणुबद्ध' रूप सिद्ध हो जाता है।
तं सर्वनामरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
चिअ अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९९ में की गई है।
'कामिनीभ्यः' संस्कृत चतुर्थ्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कामिणीणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; ३ - १३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का विधान; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'कामिणीण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'ते' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ते' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से मूल रूप 'तत्' के द्वितीय 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'डे' आदेश; 'डे' से 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'त' में रहे हुए 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप; और १-५ से शेष हलन्त 'त्' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता है।
च्चिअ अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
'धन्याः ' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धन्ना' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'न' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'धन्ना' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 345
'ते' सर्वनाम रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'च्चेअ' प्रत्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
सुपुरुषाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुपुरिसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१११ से 'रू' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्रप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'स' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सुपुरिसा' रूप सिद्ध हो जाता है।
"एव' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप'च्च होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८४ से 'एव' के स्थान पर 'च्च' आदेश की प्राप्ति होकर 'च्च' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'सः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'स' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८६ से मूल सर्वनाम 'तत्' के स्थान पर 'सो' आदेश और २-३ से वैकल्पिक रूप से 'ओ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'स' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'च' संस्कृत संबंध-वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'य' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोप
और १-१८० से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति होकर 'य' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'रूपेण' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रूवेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में अथवा पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'व' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'रूवेण' रूप सिद्ध हो जाता है।
"स' और 'च्च' रूपों की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
'शीलेण' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सीलेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में अथवा पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'ल' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'सीलेण' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८४।।
बले निर्धारण-निश्चययोः ।। २-१८५।। बले इति निर्धारणे निश्चये च प्रयोक्तव्यम्।। निर्धारणे। बले पुरिसो धणंजओ खत्तिआण।। निश्चये। बले सीहो। सिंह एवायम्॥
अर्थः- दृढ़तापूर्वक कथन करने में और निश्चय-अर्थ बतलाने में प्राकृत साहित्य में 'बले' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-'बले' पुरुषः धनंजयः क्षत्रियाणां-बले पुरिसो धणं-जओ खत्तिआणं अर्थात् क्षत्रियों में वास्तविक पुरुष धनंजय ही है। सिंह एवायम्=बले सीहो अर्थात् यह सिंह ही है। कोई-कोई 'निर्धारण' शब्द का अर्थ ऐसा भी करते हैं कि 'समूह' में से एक भाग को पृथक् रूप से प्रदर्शित करना।
'बले' अव्यय रुढ़-अर्थक होने से रुढ़-रूपक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है। पुरिसा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४२ में की गई है। धणंजआ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'क्षत्रियाणाम्' (अथवा क्षत्रियेषु) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खत्तिआणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष बचे हुए 'त्' के स्थान पर द्वित्व'त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-१३४ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण'
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
346 : प्राकृत व्याकरण
प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'खत्तिआणं" रूप सिद्ध हो जाता है।
'बले' प्राकृत-साहित्य का रूढ़-अर्थक एवं रूढ-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। साहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। ।। २-१८५।।
किरेर हिर किलार्थे वा ।। २-१८६।। किर इर हिर इत्येते किलार्थे वा प्रयोक्तव्याः॥ कल्लं किर खर हिअओ। तस्स इर। पिअ-वयं सो हिर॥ पक्षे। एवं किल तेण सिविणए भणिआ॥
अर्थः- संस्कृत में प्रयुज्जमान सम्भावना वाचक अव्यय 'किल' के स्थान पर प्राकृत साहित्य में वैकल्पिक रूप से 'किर' 'इर' 'हिर' अव्ययों का प्रयोग किया जाता है। तदनुसार प्राकृत साहित्य में संस्कृतीय 'किल' अव्यय भी प्रयुक्त होता है और कभी-कभी 'किर, इर, और 'हिर' अव्ययों में से किसी भी एक का प्रयोग किल' के स्थान पर किया जाता है, उदाहरण इस प्रकार है:- कल्ये किल खर-हृदयः कल्लं किर खर हिअओ अर्थात् संभावना है कि प्रातःकाल में (वह) कठोर हृदय वाला था; तस्य किल-तस्य इर अर्थात् संभावना (है कि) उसका (है); प्रिय वयस्यः किल=पिअवयंसो हिर-संभावनाः (है कि वह) प्रिय मित्र (है)। पक्षान्तर रूप से 'किल' के स्थान पर 'किल' के प्रयोग का उदाहरण इस प्रकार है:- एवं किल तेन स्वप्न के भणिताः एवं किल तेण सिविणए भणिआ अर्थात् सम्भावना (है कि) इस प्रकार (की बातें) उस द्वारा स्वप्न-अवस्था में कही गई है। यों सम्भावना वाचक अव्यय के स्थान पर प्राकृत-साहित्य में चार शब्द प्रयुक्त होते हैं; जो कि इस प्रकार है :- १ किर, २ हर, ३ हिर और किल। __ 'कल्ये' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'किल' संस्कृत सम्भावना-अर्थक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'किर' होता है इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से 'किल' के स्थान पर 'किर' आदेश की प्राप्ति होकर 'किर'रूप सिद्ध हो जाता है।
'खर-हृदयः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खर-हिअओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द' और 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'खर-हिअओ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'तस्य' संस्कृत षष्ठयन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से मूल रूप 'तत्' के द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
"किल' संस्कृत संभावना-अर्थक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इर' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से 'किल' के स्थान पर 'इर' आदेश की प्राप्ति होकर 'इर' रूप सिद्ध हो जाता है।
"प्रिय-वयस्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिअ-वयंसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से प्रथम 'य' का लोप; १-२६ से द्वितीय 'य' में स्थित 'अ' स्वर पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति २-७८ से तृतीय 'य' व्यञ्जन का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पिअ-वयंसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"किल' संस्कृत संभावना-अर्थक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिर' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से "किल' के स्थान पर 'हिर' आदेश की प्राप्ति होकर 'हिर' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 347
"एवं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
"किल' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'किल ही होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८६ से किल ही यथावत् रहकर 'किल' रूप सिद्ध ही है।
'तेन' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से मूल रूप तत् के द्वितीय 'त्' का लोप; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णप्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'त' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'तेण' रूप सिद्ध हो जाता है।
"स्वप्नके संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिविणए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-७९ से प्राप्त रूप 'स्वि' में स्थित व्' का लोप; १-२३१ से 'प्' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति; २-१०८ से 'न' के पूर्व में 'इ' की प्राप्ति होकर हलन्त 'व' में से 'वि' का सद्भाव; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१६४ से 'स्वार्थ' रूप में संस्कृत 'क' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में भी 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'व
प्त 'क' में से हलन्त 'क्का लोप; और २-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङ्केि स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'डे' प्रत्यय के पूर्व में स्थित लुप्त 'क्' के शेषांश 'अ' की इत्संज्ञा के कारण 'अ' का लोप होकर 'सिविणए रूप सिद्ध हो जाता है।
'भणिताः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर दीर्घ 'आ' की प्राप्ति होकर 'भणिआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८६।।
णवर केवले ॥ २-१८७॥ केवलार्थे णवर इति प्रयोक्तव्यम्।। णवर पिआई चिअ णिव्वडन्ति।।
अर्थ:- संस्कृत अव्यय 'केवल' के स्थान पर प्राकृत में णवर' अथवा 'णवर अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे-केवलम् प्रियाणि एवं भवन्ति=णवर (णवर) पिआई चिअणिव्वडन्ति =अर्थात् केवल प्रिय (वस्तुएं) ही (सार्थक) होती है। ___ 'केवलम्' संस्कृत 'निर्णीत सपूर्ण रूप-एकार्थक' अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णवर' अथवा 'णवर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८७ से केवलम्' के स्थान पर 'णवर' अथवा 'णवरं आदेश की प्राप्ति होकर णवर अथवा णवरं रूप सिद्ध हो जाता है। __ "प्रियाणी' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पिआई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'आणि' के स्थान पर प्राकत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२६ से 'ही' प्राप्त प्रत्यय 'ईके पूर्व में स्थित लुप्त 'य' के शेषांश हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर 'पिआई"रूप सिद्ध हो जाता है। चिअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या र-९९ में की गई है।
'भवन्ति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिव्वडन्ति' (भी) होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६२ से 'भव्' धातु के स्थान पर 'णिव्वड्रू प का आदेश; ४-२३९ से हलन्त व्यञ्जन 'ड्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'णिव्वडन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-१८७॥
आनन्तर्ये णवरि ॥ २-१८८॥ आनन्तर्ये णवरीति प्रयोक्तव्यम्। णवरि असे रहु-वइणा।। केचित्तु केवलानन्तर्यार्थयोर्ण वर-णवरि इत्येकमेव सूत्रं कुर्वते तन्मते उभावप्युभयार्थो।।
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
348 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- संस्कृत साहित्य में जहां 'अनन्तरं अव्यय का प्रयोग होता है; वहां प्राकृत-साहित्य में इसी अर्थ में 'णवरि' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। इसके बाद ऐसे अर्थ में 'णवरि' अव्यय प्रयुक्त किया जाता है। जैसेः- अनन्तरम् च तस्य रघुपतिना=णवरि अ से रहु-वइणा अर्थात् 'और पश्चात् रघुपति से उसका' (हित संपादन किया गया)। कोई-कोई व्याकरणाचार्य संस्कृत अव्यय 'केवलम् और अनन्तरम्' के लिये प्राकृत में णवर और णवरि' दोनों का प्रयोग करना स्वीकार करते हैं। 'णवर' अर्थात् "केवलम् और अनन्तरम्'; इसी प्रकार से 'णवरि' अर्थात् 'केवलम् और अनन्तरम्' यों अर्थ किया करते हैं। इसी तात्पर्य को लेकर केवलानन्तर्यार्ययोर्णवरणवरि' ऐसा एक ही सूत्र बनाया करते हैं; तदनुसार उनके मत से दोनों प्राकृत अव्यय दोनों प्रकार के संस्कृत-अव्ययों के तात्पर्य को बतलाते हैं। अनन्तरम् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप णवरि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८८ से 'अनन्तरम्' के स्थान पर 'णवरि' आदेश की प्राप्ति होकर णवरि रूप सिद्ध हो जाता है।
'अ' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
"तस्य' संस्कृत षष्ठयंत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप से होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८१ से संस्कृत मूल शब्द 'तत्' के साथ संस्कृत की षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'ङस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्राकृत में 'तत्+ङ्स के स्थान पर 'से' का आदेश होकर 'से' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रघु-पतिना' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रहु-वइणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रहु-वइणा' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८८।।
अलाहि निवारणे ।। २-१८९।। अलाहीति निवारणे प्रयोक्तव्यम्।। अलाहि किं वाइएण लेहेण।।
अर्थः- 'मना करने अर्थ में अर्थात् 'निवारण अथवा निषेध करने अर्थ में प्राकृत में 'अलाहि अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- मा, किम् वाचितेन लेखेनः अलाहि; किं वाइएण लेहेण अर्थात् मत (पढ़ो),-पढ़े हुए लेख से क्या (होने वाला है)? 'अलाहि' प्राकृत साहित्य का अव्यय है; रूढ़-अर्थक और रूढ़-रूपक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
किं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
'वाचितेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वाइएण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च्' और 'त्' का लोप; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित एवं लुप्त हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'वाइएण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'लेखेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लेहेण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'ह' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'लेहेण रूप सिद्ध हो जाता है।। २-१८९॥
अण णाई नबर्थे ।। २-१९०॥ अण णाई इत्येतो नबोर्थ प्रयोक्तव्यौ।। अण चिन्तिअममुणन्ती। णाई करेमि रोसं।।
अर्थः- 'नहीं' अर्थ में प्राकृत-साहित्य में अण' और 'णाई अव्ययों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार 'अण' और 'णाई अव्यय निषेधार्थक है अथवा नास्तिक अर्थक हैं। जैसे:- अचिन्तितम् अजानन्ती अणचिन्तिअं अणुमन्ती अर्थात् नहीं सोची विचारी हुई (बात) को नहीं जानती हुई। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- न करोमि रोषम्=णाई करेमि रोसं।। इत्यादि।।
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 349 'अचिन्तितम्' संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अणचिन्तिों होता है। सूत्र संख्या २-१९० से 'नम्' अर्थकः संस्कृत स्वर 'अ के स्थान पर प्राकृत में 'अण' अव्यय की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अणचिन्तिरूप सिद्ध हो जाता है। __'अजानन्ती' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अमुणन्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से 'जान्' के स्थान पर 'मुण्' आदेश; ४-२३९ से हलन्त 'ण' में विकरण पत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१८१ से संस्कृत प्रत्यय 'शतृ' के स्थानीय 'न्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप 'अमणुन्त' को स्त्रीलिंग रूप में परिणतार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से 'न्त' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ'का लोप और १-५ से प्राप्त हलन्त 'न्त्' में उक्त 'ई' प्रत्यय की संधि होकर 'अमुणन्ती' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णाई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९० से 'न' के स्थान पर 'णाई आदेश की प्राप्ति होकर णाई रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'करोमि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'करेमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से मूल संस्कृत रूप 'कर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'मि' के स्थान पर प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'करेमि' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'रोषम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रोसं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'रोसं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९०।।
माई मार्थे ॥ २-१९१॥ माइं इति मार्थे प्रयोक्तव्यम्।। माइं काहीअ रोसं। माऽकार्षीद रोषम्।
अर्थः- 'मा' अर्थात् मत' याने नकारार्थ में वा निषध-अर्थ में प्राकृत भाषा में 'माई अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- माइं काहीअ रोसं-मा अकार्षीद् रोषम् अर्थात् उसने क्रोध नहीं किया। इत्यादि।
'मा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माइं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९१ से 'मा' के स्थान पर 'माइं आदेश की प्राप्ति होकर 'माइं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'अकार्षीत' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'काहीअ होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१४ से मूल-संस्कृत धातु रूप-कृ' अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति; और ३-१६२ से भूतकाल बोधक प्रत्यय 'हीअ' की प्राप्ति होकर 'काहीअ' रूप सिद्ध हो जाता है। रोसं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९० में की गई है।। २-१९१।।
हद्धी निर्वेदे ॥ २-१९२।। हद्धी इत्यव्ययमत एव निर्देशात् ही-धिक् शब्दादेशो वा निर्वेद प्रयोक्तव्यम्।। हद्धी हद्धी। हा धाह धाह।।
अर्थः- 'हद्धी' यह प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय ह । इसका प्रयोग 'निर्वेद' अर्थात् खिन्नता प्रकट करने में अथवा पश्चाताप पूर्ण खेद प्रकट करने में किया जाता है। संस्कृत अव्यय 'हा-धिक्' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से इसका व्यवहार किया जाता है। जैसे:- हा-धिक्! हा-धिक्!! हद्धी! हद्धी!! पक्षान्तर में हा धाह! हा घाह!! भी होता है। मानसिक खिन्नता को प्रकट करने के लिये इसका उच्चारण दो बार होता है।
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
350 : प्राकृत व्याकरण
हा! धिक् संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप 'हद्धो' अथवा 'हा धाह' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१९२ से 'हा! धिक्' के स्थान पर 'हद्धी' अथवा हा! धाह! की आदेश प्राप्ति होकर हद्धी और हा धाह रूपों की सिद्धि हो जाती है।। २-१९२॥
वेव्वे भय-वारण-विषादे ।। २-१९३।। भय वारण विषादेषु वेव्वे इति प्रयोक्तव्यम्।। वेव्वे त्ति भये वेव्वे त्ति वारणे जूरणे अ वेव्वे ति।। उल्ला विरीइ वि तुहं वेव्वे त्ति मयच्छि किं णे।। १।। किं उल्लावेन्तीए उअ जुरन्तीए किंतु भीआए। उव्वाडिरीए वेव्वे त्ति तीएँ भणिअंन विम्हरिमो।। २।।
अर्थः- 'वेव्वे' यह अव्यय प्राकृत-साहित्य का है। इसका प्रयोग करने पर प्रसंगानुसार तीन प्रकार की वृत्तियों में से किसी एक वृत्ति का ज्ञान होता है। तदनुसार 'वेव्वे' ऐसा कहने पर प्रसंगानुसार कभी 'भय' वृति का; कभी 'निवारण करने रूप' वृत्ति का अथवा कभी 'जूरना-खेद प्रकट करना-रूप' वृत्ति का भान होता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:मूलः- वेव्वे 'त्ति' भये वेव्वे त्ति वारणे जूरणे अ वेव्वे त्ति।।
उल्लाविरीइ वि तुहं वेव्वे त्ति मयच्छि कि णे। १।।
वेव्वे इति भये वेव्वे इति निवारणे (खेदे) विषादे च वेव्वे इति।। उल्लपनशीलया अपि तव वेव्वे इति मृगाक्षि! किम् ज्ञेयं।। १।।
अर्थः- हे हिरण के समान सुन्दर नेत्रों वाली सन्दरि! तुम्हारे द्वारा जो वेव्वे शब्द बोला गया है; यह (शब्द) क्या भय-अर्थ मे बोला गया है? अथवा 'निवारण अर्थ' में बोला गया है ? अथवा 'खिन्नता' अर्थ में बोला गया है ? तदनुसार 'वेव्वे' इसका क्या तात्पर्य समझना चाहिये ? अर्थात् क्या तुम भय-ग्रस्त हो ? अथवा क्या तुम किसी बात विशेष की मनाई कर रही हो? अथवा क्या तुम खिन्नता प्रकट कर रही हो? मैं तुम्हारे द्वारा उच्चारित 'वेव्वे' का क्या तात्पर्य समयूं ? दूसरा उदाहरा इस प्रकार है :मूल :- किं उल्लावेन्तीए उअ जूरन्तीएं किं तु भीआए।।
उव्वाडिरीएँ वेव्वेत्ति तीएँ भणिअंन विम्हरिमो।। २।। संस्कृत :- किं उल्लापयन्त्या उत खिद्यन्त्या किं पुनः भीतया।।
उद्वातशीलया वेव्वे इति तथा भणितं न विस्मरामः।। २।। अर्थः- उस (स्त्री) द्वारा (जो) वेव्वे ऐसा कहा गया है; तो क्या 'उल्लाप-विलाप' करती हुई द्वारा अथवा क्या खिन्नता प्रकट करती हुई द्वारा अथवा क्या भयभीत होती हुई द्वारा अथवा क्या वायु-विकार से उद्धिग्न होती हुई द्वारा ऐसा (वेव्वे) कहा गया है। यह) हमें स्मरण नहीं होता है। अर्थात् हमें यह याद में नहीं आ रहा है कि-वह स्त्री क्या भय-भीत अवस्था में थी अथवा क्या खिन्नता प्रकट कर रही थी अथवा क्या विलाप कर रही थी अथवा क्या वह वायु विकार से उद्धिग्न थी, कि जिससे वह 'वेव्वे' 'वेव्वे ऐसा बोल रही थी।
उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'वेव्वे' अव्यय का प्रयोग भय निवारण और खेद-अर्थ में होता है। वेव्वे प्राकृत-भाषा का अव्यय है। रूढ-अर्थक और रूढ रूपक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है। त्ति रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४२ में की गई है।
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 351 'खेदे' संस्कृत सप्तम्यंत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जूरणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१३२ से 'खिद्' के स्थान पर 'जूर' आदेश; ४-४४८ से संस्कृतवत् ‘क्रिया से संज्ञा-निर्माण अर्थ 'अन' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'र' के साथ प्राप्त प्रत्यय 'अन' के 'अ' की संधि; १-२२८ से प्राप्त प्रत्यय 'अन' के 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय का आदेश; 'D' में 'ङ' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'ण' के 'अ' की इत्संज्ञा होने से 'अ' का लोप और १-५ से हलन्त 'ण' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संधि होकर 'जूरणे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अ' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'उल्लपनशीलया' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप उल्लाविरीइ होता है। इसमें मूल रूप उल्लपनस्य-भावं इति उल्लापम् होता है। तदनुसार सूत्र संख्या १-११ से एवं समास-स्थिति होने से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का लोप; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति: २-१४५ से 'शील-अर्थक' इर प्रत्यय की प्राप्ति: १-१० से पर्वस्थ 'व' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'इर' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'व्' में आगे प्राप्त 'इर' के 'इ' की संधि; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से 'अ' का लोप; १-५ से हलन्त 'र' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'डी' =इ प्रत्यय की संधि; ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उल्लाविरीई रूप सिद्ध हो जाता है।
वि अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'तव' संस्कृत षष्ठ्यन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुहं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'युष्मत' सर्वमानीय षष्ठ्यंत एकवचन रूप 'तव' के स्थान पर 'तुहं आदेश की प्राप्ति होकर तहं रूप सिद्ध हो जाता है।
(हे) 'मृगाक्षि' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मयच्छि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; और ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर 'मयच्छि' रूप सिद्ध हो जाता है।
किं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
'ज्ञेयम्' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णेअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १–१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'णेअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'उल्लापयन्त्या' संस्कृत तृतीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उल्लावेन्तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३९ से संस्कृत 'उल्लाप' धातु को चुरादिगण वाली मानने से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में केवल 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१५८ से विकरण प्रत्यय के आगे वर्तमान कृदन्त का प्रत्यय 'न्त' होने से उक्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'उल्लाव्' के हलन्त 'व् में आगे प्राप्त विकरण प्रत्यय के स्थानीय रूप 'ए' की संधि; ३-१८१ से वर्तमान कृदन्त वाचक 'शतृ' प्रत्यय के स्थानीय प्रत्यय'न्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'ड्री' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'न्त' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त ‘न्त्' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'डी'=ई' प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
352 : प्राकृत व्याकरण विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उल्लावेन्तीए रूप सिद्ध हो जाता है।
उअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७२ में की गई है।
"खिद्यन्त्या' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जूरन्तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१३२ से संस्कृत धातु 'खिद्' के स्थान पर प्राकृत में 'जूर' आदेश; ४-२३९ से संस्कृत में 'खिद्' धातु में स्थित विकरण प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त रूप 'जूर' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; ३-१८१ से वर्तमान कृदन्त वाचक 'शतृ' प्रत्यय रूप 'न्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'न्त' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'न्त्' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'ङी' -ई प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जूरन्तीए' रूप सिद्ध हो जाता है।
तु संस्कृत निश्चय वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'तु' ही होता है। 'भीतया' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भीआए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-३१ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'आप-आ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के साथ आगे प्राप्त प्रत्यय रूप 'आ' रूप की प्राप्ति; और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भीआए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उद्वातशीलया' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप उव्वाडिरीए होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-१४५ से शील-अर्थक 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से पूर्वस्थ 'ड' में स्थित 'अ' स्वर का आगे ‘इर' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ड्' में आगे प्राप्त 'इर' के 'इ' की संधि ३-३२ से प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'र' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग अर्थक 'की-ई प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उव्वाडिरीए' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'तया' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' में स्थित अन्त्य हलन्त् 'त्' का लोप; ३-३३ से शेष 'त' में प्राप्त पुल्लिंग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'डी' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डी' में 'ङ्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'त' में स्थित 'अ' की इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'त्' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग अर्थक 'भी-ई' प्रत्यय की संधि और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तीए' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'भणितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'भणि रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'विस्मरामः' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विम्हरिमो' होता है। इसमें सूत्र संख्या
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 353
२-७४ से 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश; ४-२३९ से संस्कृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थानीय रूप के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; और ३-१५५ से प्राकृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ३-१४४ से वर्तमान काल के बहुवचन में तृतीय पुरुष में अर्थात् उत्तम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'मः' के स्थान पर प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विम्हरिमो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९३।।
वेव्व च आमन्त्रणे ॥ २-१९४॥ वेव्व वेव्वे च आमन्त्रणे प्रयोक्तव्ये।। वेव्व गोले। वेव्वे मुरन्दले वहसि पाणि।
अर्थः- आमन्त्रणे अर्थ में अथवा संबोधन-अर्थ में वेव्व और वेव्वे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- हे गोले वेव्व गोले हे सखि! हे मुरन्दले वहसि पानीयम् हे मुरन्दले! वहसि पाणिअं हे मुरन्दल! तू पीने योग्य वस्तु विशेष लिये जा रहा है।
वेव्व प्राकृत साहित्य का रूढ़ रूपक और रूढ-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्कता नहीं है।
गोले देशज शब्द रूप होने से संस्कृत रूप का अभाव है। इसमें सूत्र संख्या ३-४१ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर गोले रूप सिद्ध हो जाता है।
वेव्व प्राकृत साहित्य का रूढ रूपक और रूढ अर्थक संबोधनात्मक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। _ 'मुरन्दले' संबोधनात्मक व्यक्ति वाचक संज्ञा रूप है। इसमें सूत्र संख्या ३-४१ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'मुरन्दले' रूप सिद्ध हो जाता है।
"वहसि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप भी 'वहसि होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त रूप 'वह' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमानकाल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वहसि रूप सिद्ध हो जाता है। पाणिअंरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०१ में की गई है। ।। २-१९४।।
मामि हला हले सख्या वा ।। २-१९५॥ एते सख्या आमन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः।। मामि सरिसक्खराण वि।। पणवह माणस्य हला।। हले हयासस्स। पक्षे। सहि एरिसि च्चिअ गई।
अर्थः- 'सखि' को आमन्त्रण देने में अथवा संबोधित करने में 'मामि' अथवा 'हला' अथवा 'हले' अव्यवों में से किसी भी एक अव्यय का वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता है। अर्थात् जब अव्यय विशेष का प्रयोग करना हो तो उक्त तीनों में से किसी भी एक अव्यय का प्रयोग किया जा सकता है; अन्यथा बिना अव्यय के भी 'हे सखि-सहि!' ऐसा प्रयोग भी किया जा सकता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हे (सखि)! सद्दशाक्षराणाम् अपि मामि! सरिसक्खराणवि। प्रणमत मानाय हे (सखि)! =पणवह माणस्स हला। हे (सखि)! हताशस्य-हले हयासस्स।। पक्षान्तर में उदाहरण इस प्रकार है:- हे सखि! ईद्दशी एव गतिः= सहि! एरिसि च्चिअ गई।। इत्यादि।।
'मामि' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से रूढ-अर्थक और रूढ रूपक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
सदृशाक्षराणाम् संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'सरिसक्खराण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'ऋ' के स्थान पर 'रि' आदेश; २-७७ से 'ऋ' में स्थित् 'द्' का लोप; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'सा' में रहे हुए दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति;
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
354 : प्राकृत व्याकरण
२-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' आदेश; और ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'र' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर रूप 'आ' की प्राप्ति होकर 'सरिसक्खराण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'प्रणमत' संस्कृत आज्ञार्थक सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पणवह होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ४-२२६ से 'म' के स्थान पर 'व' आदेश और ३-१७६ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'त' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पणवह' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मानाय' संस्कृत चतुर्थ्यन्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माणस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः ३-१३१ से संस्कतीय चतर्थी के स्थान पर प्राकत में षष्ठी-विभक्ति की प्राप्ति: ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में (अथवा नपुंसकलिंग में)-संस्कृत 'ङस्' के स्थानीय रूप 'आय' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'माणस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
'हला' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से रूढ अर्थक और रूढ-रूपक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। __ 'हले' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से रूढ अर्थक और रूढ-रूपक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। . हताशस्य संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप हयासस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हयासस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
(हे) सखि! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप (हे) सहि! होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर (हे) सहि! रूप सिद्ध हो जाता है।
ईदृशी संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एरिसि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०५ से प्रथम 'ई' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; २-७७ से 'द्' का लोप १-१४२ से 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति और १-८४ से दीर्घ स्वर द्वितीय 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर एरिसि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'च्चिअ' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
'गतिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'गई रूप सिद्ध हो जाता है।
दे संमखीकरणे च ।। २-१९६॥ संमुखीकरणे सख्या-आमन्त्रणे च दे इति प्रयोक्तव्यम्।। दे पसिअ ताव सुन्दरि।। दे आ पसिअ निअत्तसु।।
अर्थः- 'सम्मुख करने के अर्थ में और 'सखी' को आमंत्रित करने के अर्थ में प्राकृत-भाषा में 'दे' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। 'मेरी ओर देखो' अथवा 'हे सखि!' इन तात्पर्य-पूर्ण शब्दों के अर्थ में दे' अव्यय का प्रयोग किया जाना
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 355 चाहिये। जैसे:- दे! प्रसीद तावत् (हे) सुन्दरि ! = दे पसिअ ताव (हे) सुन्दरि अर्थात् मेरी और देखो; अब हे सुन्दरि ! प्रसन्न हो जाओ। दे (= हे सखि !) आ प्रसीद निवर्त्तस्व= दे ! आ पसिअ निअत्तसु अर्थात् हे सखि ! अब प्रसन्न हो जाओ (और निवृत्त होओ।)
'दे' प्राकृत - साहित्य का संमुखीकरणार्थक अव्यय है; तदनुसार रूढ अर्थक और रूढ - रूपक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
पसिअ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १०१ में की गई है।
ताव अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ११ में की गई है।
(सुन्दरि ! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'सुन्दरि ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' को ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर (हे) सुंदरि ! रूप सिद्ध हो जाता है।
'आ' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'आ' ही होता है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
सि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०१ में की गई है।
'निवर्त्तस्व' संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निअत्तसु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'व' का लोप; २-७९ से 'र्' का लोप और ३- १७३ से संस्कृत आज्ञार्थक प्रत्यय 'स्व' के स्थान पर प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निअत्तसु' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९६।।
हुं दान-पृच्छा - निवारणे ।। २-१९७।।
हुं इति दानादिषु प्रयुज्यते । । दाने । हुँ गेण्ह अप्पणो च्चिअ ।। पृच्छायाम् । हुं साहसु सब्भावं । । निवारणे । हुं निल्लज्ज समोसर ||
अर्थः- 'वस्तु विशेष' को देने के समय में ध्यान आकर्षित करने के लिये अथवा सावधानी बरतने के लिये प्राकृत साहित्य में 'हुँ' अव्यय का प्रयोग किया जाता है; इसी प्रकार से किसी भी तरह की बात पूछने के समय में भी 'हुँ' अव्यय का प्रयोग किया जाता है एवं 'निषेध करने' के अर्थ में अथवा 'मनाई' करने के अर्थ में भी 'हुं' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- हुं गृहाण आत्मनः = हुं गेण्ह अप्पणो च्चिअ अर्थात् साहसु सब्भावं । 'निवारण' अर्थ में '' अव्यय के प्रयोग का उदाहरण यों है: - हुं निर्लज्ज ! समपसर - हुं निल्लज्ज ! समोसर अर्थात् हुं ! निर्लज्ज ! निकल जा ।
'हु' प्राकृत भाषा का अव्यय होने से रूढ रूपक एवं रूढ अर्थक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'गृहाण' संस्कृत आज्ञार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गेण्ह' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४ - २०९ से 'ग्रह' धातु के स्थान पर 'गेण्ह्' (रूप का) आदेश; ४- २३९ से हलन्त् 'ह्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३ - १७५ से आज्ञार्थक कार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य 'सु' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'गेण्ह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आत्मनः' संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' के स्थान पर द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; और ३-५० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अप्पणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
चिअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
'कथय' संस्कृत आज्ञार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'साहस' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२ से 'कथ्' धातु के स्थान पर प्राकृत में 'साह्' आदेश ४ - २३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ'
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
356 : प्राकृत व्याकरण
की प्राप्ति और ३-१७३ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की होकर 'साहस' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सद्भावम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सब्मावं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप 'हुए' 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ्' को द्वित्व 'भ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए पूर्व 'भ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सब्भावं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'निर्लज्ज'! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निल्लज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर (हे) निल्लज्ज रूप सिद्ध हो जाता है।
'समपसर' संस्कृत आज्ञार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'समोसर होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७२ से मध्यस्थ उपसर्ग 'अप' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; ४-२३९ से 'समोसर' में स्थित अन्त्य हलन्त 'र' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'समोसर' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-१९७।।
हु खु निश्चय-वितर्क-संभावन-विस्मये ।। २-१९८॥ हु खु इत्येतो निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यो। निश्चये। तं पि हु अच्छिन्नसिरी। तं खु सिरीएँ रहस्स।। वितर्कः ऊहः संशयो वा। ऊहे। न हु णवरं संगहिआ। एअंखु हसइ।। संशये। जलहरो खु धूमवडलो खु॥ संभावने। तरीउंण हु णवर इम। एअंखु हसइ। विस्मये। को खु एसो सहस्स-सिरो।। बहुलाधिकारादनुस्वारात् परो हुन प्रयोक्तव्यः॥ ___ अर्थः- 'हु' और 'खु' प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किये जाने वाले अव्यय हैं। इनका प्रयोग करने पर प्रसंगानुसार 'निश्चय' अर्थ; 'तर्कात्मक' अर्थ; 'संशयात्मक' अर्थ; 'संभावना' अर्थ और 'विस्मय-आश्चर्य' अर्थ प्रकट होता है। 'निश्चय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार हैं:- त्वमपि हु (=एवं) अछिन्न श्रीः=तं पि हु अछिन्नसिरी अर्थात् निश्चय ही तू परिपूर्ण शोभावाली है। त्वम् खु (-खलु) श्रियः रहस्यम्=तं खु सिरीएँ रहस्सं अर्थात् निश्चय ही तू संपत्ति का रहस्य (मूल कारण) है। वितर्क अर्थक, 'साध्य-साधन' से संबंधित 'कल्पना' अर्थक और 'संशय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार हैं:न हु केवलं संगृहीता=न हु णवरं संगाहिआ अर्थात् उस द्वारा केवल संग्रह किया हुआ है कि नही है? एतं खु हसति एअंखु हसइ अर्थात् क्या इस पुरुष के प्रति वह हंसती! कि नहीं हंसती है? संशय का उदाहरणः- जलधरः खु धूम पटलः खु-जलहरो खु धूम वडलो खु अर्थात् यह बादल है अथवा यह धुंए का पटल है? संभावना का उदाहरणः तरितुं न हु केवलम् इमाम्=तरीउंण हु णवर इमं अर्थात् इस (नदी) को केवल तैरना (-तैरते हुए पार उतर जाना) संभव नहीं है। एतं
खु हसति एअंखु हसइ अर्थात् (यह) इसके प्रति हंसती है, ऐसा संभव है। 'विस्मय' का उदाहरणः- कः खलु एषः सहस्र शिराः= को खु एसो सहस्स-सिरो अर्थात् आश्चर्य है कि हजार सिर वाला यह कौन है ? प्राकृत-साहित्य में 'बहुल' की अर्थात् एकाधिक रूपों की उपलब्धि है; अतः अनुस्वार के पश्चात् 'हु' का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये। ऐसे स्थल पर 'खु का प्रयोग होता है। ___ 'त्वम्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९० से 'युष्मद्' स्थानीय रूप 'त्वम्' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय का योग होने पर 'त' आदेश की प्राप्ति होकर 'त' रूप सिद्ध हो जाता है।
"पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है।
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 357 'हु' प्राकृत साहित्य का रूढ़-रूपक एवं रूढ-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। कोई-कोई 'खलु' के स्थान पर 'हु' आदेश की प्राप्ति मानते हैं।
'अछिन्नश्रीः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अछिन्नसिरी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१०४ से प्राप्त 'स्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' को यथास्थिति की प्राप्ति होकर एवं १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर 'अछिनसिरी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'खलु' संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'खु होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९८ से खलु' के स्थान पर 'खु' आदेश की प्राप्ति होकर 'खु' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ "श्रियः' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिरीए' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१०४ से प्राप्त स्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और ३-२९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप 'यः' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिरीए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। णवरं (=वैकल्पिक रूप-णवर) की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८७ में की गई है।
'संगृहीता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'संगहिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; और १-१०१ से 'ही' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर 'संगहिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एतम्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'एअं रूप सिद्ध हो जाता है।
हसति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१३९ से वर्तमानकाल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसइ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'जलधर' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जलहरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जलहरो' रूप सिद्ध हो जाता है। __'धूमपटलः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धूमवडलो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व', १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धूमवडलो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'तरितुम् संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तरीउ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से मूल धातु 'तर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' को 'इ' की प्राप्ति, १-४ से प्राप्त हस्व 'इ' के स्थान पर दीर्घ 'ई' की प्राप्ति, १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य हलन्त् 'म्' का अनुस्वार होकर 'तरीउ रूप सिद्ध हो जाता है।
'ण' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८० में की गई है। "णवर' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८७ में की गई है।
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
358 : प्राकृत व्याकरण
'इम' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८१ में की गई है। "एअं सर्वनाम की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
कः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'को' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से मूल रूप 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'को' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एसो' की सिद्धि सूत्र संख्या २-११६ में की गई है।
'सहस्रशिराः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सहस्ससिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सहस्स-सिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१९८।।
ऊ गरेक्षेप-विस्मय-सूचने ॥ २-१९९॥ ऊ इति गर्हादिषु प्रयोक्तव्यम्॥ गर्दा। ऊ णिल्लज्ज।। प्रक्रान्तस्य वाक्यस्य विपर्या साशंकाया विनिवर्तन लक्षण आक्षेपः।। ऊ किं मए भणिआ। विस्मये। ऊ कह मुणिआ अहयं सूचने। ऊ केण न विण्णाय।। ___ अर्थः- 'ऊ' प्राकृत साहित्य का अव्यय है; जो कि 'गर्हा' अर्थ में याने निन्दा अर्थ में; आक्षेप अर्थ में अथवा तिरस्कार अर्थ में; विस्मय याने आश्चर्य अर्थ में और सूचना याने विदित होने अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। गर्दा अथवा निंदा का' उदाहरण-अरे (धिक्) निर्लज्ज! =ऊ! णिल्लज्ज अर्थात अरे निर्लज्ज! तुझे धिक्कार है। 'आक्षेप' का यहां विशेष अर्थ किया गया है, जो कि इस प्रकार है:-वार्तालाप के समय में कहे गये वाक्य का कहीं विपरीत अर्थ नहीं समझ लिया जाय, तदनुसार उत्पन्न हो जाने वाली विपरीत आशंका को दूर करना ही 'आक्षेप' है। इस अर्थक आक्षेप का उदाहरण इस प्रकार है:-ऊ, किं मया भणितं ऊ किं मए भणिअं अर्थात् क्या मैंने तुमको कहा था ? (तात्पर्य यह है कि-'तुम्हारी धारणा ऐसी है कि मैंने तुम्हें कहा था', किन्तु तुम्हारी ऐसी धारणा ठीक नहीं है, मैंने तुमको ऐसा कब कहा था)।
"विस्मय-आश्चर्य' अर्थक उदाहरण इस प्रकार है:- ऊ, कथं (ज्ञाता)-मुनितां अहं-ऊ, कह मुणिआ अहयं अर्थात आश्चर्य है कि मैं किस प्रकार अथवा किस कारण से जान ली गई हूं, पहिचान ली गई हूँ। 'सूचना अथवा विदित होना' अर्थक दृष्टान्त इस प्रकार है:- ऊ, केन न विज्ञातम्-ऊ, केण न विण्णायं अर्थात अरे! किसने नहीं जाना है ? याने इस बात को तो सभी कोई जानता है। यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। इस प्रकार 'ऊ' अव्यय के प्रयोगार्थ को जानना चाहिए। 'ऊ' प्राकृत साहित्य का निन्दादि' रूढ अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है, अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
(हे) निर्लज्ज! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिल्लज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'र' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप (डो=) 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'णिल्लज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कि' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
'मया' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मए' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१०९ से संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद्' के साथ में तृतीया विभक्ति के प्रत्यय 'टा' का योग प्राप्त होने पर प्राप्त रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में 'मए' आदेश की प्राप्ति होकर 'मए' रूप सिद्ध हो जाता है।
'मणिों रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९३ में की गई है।
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
'कह' की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २९ में की गई।
ज्ञाता (= मुनिता) संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुणिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से 'ज्ञा' के स्थान पर ‘मुण्' आदेश, ४ - २३९ से हलन्त धातु 'मुण्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और १ - १७७ से 'त्' का लोप होकर 'मुणिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहम्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अहय' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - १०५ से संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद् प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के योग से प्राप्त रूप ' अहम्' के स्थान पर प्राकृत में ' अहयं' आदेश की प्राप्ति होकर 'अहयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'केन' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'केण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ मूल रूप 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'क' के अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'केण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'विज्ञातम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विण्णाय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - ८९ से प्राप्त ' ण्' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विष्णाय ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २ - १९९ ।।
थू इति कुत्सायां प्रयोक्तव्यम् ॥
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 359
थू कुत्सायाम् ।। २-२००।। थू निल्लज्जो सोओ ।।
अर्थः- 'कुत्सा' अर्थात् निन्दा अर्थ में घृणा अर्थ में 'थ्रु' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-थू (निन्दनीयः) निर्लज्जः लोक:-थू निल्लज्जो लोओ अर्थात् निर्लज्ज व्यक्ति निन्दा का पात्र है। (घृणा का पात्र है)
=
'थ्रु' प्राकृत भाषा का रूढ रूपक और रूढ अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'निर्लज्जः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निल्लज्जो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप, २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निल्लज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।
लोओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है। ।। २-२०० ।।
रे अरे संभाषण - रतिकलहे ।। २ - २०१ ॥
अनयोरर्थयोर्यथासंख्यमेतौ प्रयोक्तव्यौ ।। रे संभाषणे । रे हिअय मडह- सरिआ ।। अरे रति-कलहे । अरे म समं मा करेसु उवहासं । ।
अर्थः- प्राकृत साहित्य में 'रे' अव्यय 'संभाषण' अर्थ में 'उद्गार प्रकट करने' अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'अरे' अव्यय 'प्रीतिपूर्वक कलह' अर्थ में- ' रति क्रिया संबंधित कलह' अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे:- 'रे' का उदाहरण:- रे हृदय! मृतक-सरिता-रे हिअय ! महह्- सरिआ अर्थात् अरे हृदय ! अल्पजल वाली नदी - (वाक्य अपूर्ण है) । 'अरे' का उदाहरण इस प्रकार है:- अरे! मया समं मा कुरू उपहासं = अरे! मए समं मा करेसु उवहासं अर्थात् अरे ! तू मेरे साथ उपहास ( रति कलह ) मत कर।
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
360 : प्राकृत व्याकरण ___ 'रे' प्राकृत साहित्य का रूढ-अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है; अतः इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है। ___ 'हृदय' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिअय' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और ३-३७ से संबोधन के एकवचन में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'म्' प्रत्यय का अभाव होकर 'हिअय' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मृतक सरिता' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मडह-सरिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; ४-४४७ से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ह' की व्यत्यय रूप प्राप्ति; (क्योंकि 'अ और ह' का समान उच्चारण स्थान कंठ है); और १-१५ से (मूल रूप 'सरित्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप) 'त्' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर 'मडह-सरिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'अरे' प्राकृत साहित्य का रूढ-रूपक और रूढ-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। 'मए' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९९ में की गई है। 'समं संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'सम' ही है। अतः साधनिका की आवश्कता नहीं है। 'मा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'मा' ही है। अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'कुरु' संस्कृत आज्ञार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'करेसु होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से मूल 'धातु' 'कर' के हलन्त व्यञ्जन 'र' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और ३-१७३ से आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'करेसु' रूप सिद्ध हो जाता है।
'उपहासम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उवहास होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'उवहासं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०१।।
हरे क्षेपे च ॥ २-२०२॥ क्षेपे संभाषण रतिकलहयोश्च हरे इति प्रयोक्तव्यम्।। क्षेपे। हरे णिल्लज्ज॥ संभाषणे। हरे पुरिसा।। रति-कलहे। हरे बहु-वल्लह। ___ अर्थः- प्राकृत साहित्य में 'हरे' अव्यय 'तिरस्कार'-अर्थ में; संभाषण-अर्थ में अथवा 'उद्गार प्रकट करने' अर्थ में;
और 'प्रीतिपूर्वक-कलह' अर्थ में याने 'रति-क्रिया-संबंधित कलह' अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। 'तिरस्कार' अर्थक उदाहरण:- हरे निर्लज्ज! हरे णिल्लज्ज अर्थात् अरे! निर्लज्ज! (धिक्कार है)। 'संभाषण' अर्थक उदाहरणः- हरे पुरुषा:-हरे पुरिसा अर्थात् अरे ओ मनुष्यों! 'रति कलह' अर्थक उदाहरणः- हरे बहु वल्लभ!-हरे बहु-वल्लह अर्थात् अरे! अनेक से प्रेम करने वाला अथवा अनेक स्त्रियों के पति।
'हरे' प्राकृत-साहित्य का रूढ-अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'निर्लज्ज' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिल्लज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'णिल्लज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुरुषाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुरिसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१११ से 'उ' के स्थान 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-४ से संबोधन के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 361 'जस्' की प्राप्ति होकर प्राकृत में लोप; और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'स' के अन्त्य स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर संबोधन बहुवचन में 'पुरिसा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'बहु-वल्लभ' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बहु-वल्लह' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'बहु-वल्लह' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०२।।
ओ सूचना-पश्चात्तापे ।। २-२०३।। ओ इति सूचना पश्चात्तापयोः प्रयोक्तव्यम्॥ सूचनायाम्। ओ अविणय-तत्तिल्ले॥ पश्चात्तापे। ओ न मए छाया इत्ति आए।। विकल्पे तु उतादेशेनैवीकारेण सिद्धम्। ओ विरएमि नहयले।। ___ अर्थः- प्राकृत-साहित्य में 'ओ' अव्यय 'सूचना' अर्थ में और 'पश्चाताप' अर्थ में प्रयुक्त होता है। सूचना' विषयक उदाहरण इस प्रकार है:-ओ अविनय-तृप्तिपरे!=ओ अविणय-तत्तिल्ले अर्थात अरे! (मैं तुम्हें सूचित करता हूँ कि) (तू) अविनय-शील (है)। ‘पश्चाताप' विषयक उदाहरण- ओ! (खेद-अर्थे) न मया छाया एतावत्यां=ओ न मए छाया इतिआए अर्थात् अरे! इतना (समय) हो जाने पर (भी) (उसकी) छाया (तक) मुझे नहीं (दिखाई दी)। वैकल्पिक' अर्थ में जहाँ 'ओ' आता है; तो वह प्राप्त 'ओ' संस्कृत अव्यय विकल्पार्थक 'उत अव्यय' के स्थान पर आदेश रूप होता है; जैसा कि सूत्र संख्या १-१७२ में वर्णित है। उदाहरण इस प्रकार है:- उत विरचयामि नभस्तले-ओ विरएमि नहयले। इस उदाहरण में प्राप्त 'ओ' विकल्पार्थक है न कि 'सूचना एवं पश्चाताप' अर्थक; यों अन्यत्र भी तात्पर्य-भेद समझ लेना चाहिये।
'ओ' अव्यय-प्राकृत-साहित्य में रूढ रूपक और रूढ-अर्थक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
'अविनय-तृप्तिपरे' संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अविणय-तत्तिल्ले' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अकी प्राप्ति २-७७ से'' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'प्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; २-१५९ से 'मत्' अर्थक 'पर' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'इल्ल' के पूर्व में स्थित 'त्ति' के 'इ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'त्त्' में प्रत्यय 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-३१ से प्राप्त पुल्लिंग रूप 'तत्तिल्ल' में स्त्रीलिंग-रूप निर्माणार्थ 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-४१ से संबोधन के एकवचन में प्राप्त रूप 'तत्तिल्ला' के अन्त्य स्वर 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'अविणय-तत्तिल्ले' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'छाया' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४९ में की गई है। 'मए' की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९९ में की गई है। .
'एतावत्यां' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इतिआए' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१५६ से 'एतावत्' के स्थान पर 'एत्ति आदेश; ३-३१ से स्त्रीलिंग-अर्थ में 'इत्तिअ' के अन्त में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२९ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थानीय रूप 'या' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'इतिआए' रूप सिद्ध हो जाता है। 'उत' ='ओ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७२ में की गई है।
"विरचयामि' संस्कृत क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विरएमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; ४-२३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'अ विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१५८ से विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विरएमि रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
362 : प्राकृत व्याकरण
'नभस्तले' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नहयले' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-७७ से 'स्' का लोप; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'डि' के स्थान पर प्राकृत में 'डे=ए' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'नहयल' के अन्त्य स्वर 'अ' इत्संज्ञा होने से लोप; एवं १-५ से अन्त्य हलन्त रूप 'नहयल' में पूर्वोक्त 'ए' प्रत्यय की संधि होकर 'नहयले' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०३।। अव्वो सूचना - दुःख - संभाषणापराध - विस्मयानन्दारद - भय - खेद - विषाद पश्चात्तापे ।। २-२०४।।
-
अव्वो इति सूचनादिषु प्रयोक्तव्यम्।। सूचनायाम्। अव्वो दुक्करयारय ।। दुःखे । अव्वो दलन्ति हिययं।। संभाषणे। अव्वो किमिणं किमिणं ।। अपराध विस्मययोः ॥
अव्वो हरन्ति हिअयं तह वि न वेसा हवन्ति जुवईण ।
अव किं पि रहस्सं मुणन्ति धुत्ता जणब्भहिआ ।। १ ।। आनन्दादर भयेषु ।
अव्वो सुपहाय मिणं अव्वो अज्जम्ह सप्फलं जीअं । अव अअमितुमे नवरं जइ सा न जूरिहि ।। २॥ खेदे | अव्वो न जामि छेत्तं । । विषादे ।
अव्वो नासेन्ति दिहिं पुलयं वड्ढेन्ति देन्ति रणरणयं ।
हि तस्से अगुणा ते च्चिअ अव्वो कह णु एअं|| ३ || पश्चात्तापे ।
अव्वो तह तेण कया अहयं जह कस्स साहेमि ।।
अर्थः- प्राकृत साहित्य का 'अव्वो' अव्यय ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होता है। उक्त ग्यारह अर्थ क्रम से इस प्रकार हैं:(१) सूचना, (२) दुःख, (३) संभाषण, (४) अपराध, (५) विस्मय, (६) आनन्द, आदर, (८) भय, खेद (१०) विषाद और (११) पश्चाताप; तदनुसार प्रसंग को देखकर 'अव्वो' अव्यय का अर्थ किया जाना चाहिये। इनके उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं। सूचना-विषयक उदाहरण:- अव्वो दुष्कर-कारक-अव्वो दुक्कर यारय अर्थात् (मैं) सूचना ( करती हूं कि) (ये) अत्यन्त कठिनाई से किये जाने वाले हैं। दुःख-विषयक उदाहरण:- अव्वो दलति हृदय-अव्वो दलन्ति हिययं अर्थात् दुःख है कि वे हृदय को चीरते हैं- पीड़ा पहुंचाते हैं। संभाषण विषयक उदाहरणः-अव्वो किमिदं किमिदं अर्थात् अरे! यह क्या है ! यह क्या है ? अपराध और आश्चर्य विषयक उदाहरण:
संस्कृत:
प्राकृत:
अव्वो हरति हृदयं तथापि न द्वेष्याः भवति युक्तीनाम् ॥ अव्वो किमपि रहस्यं जानं ति धूर्ताः जनाभ्यधिकाः ॥ १ ॥ अव्वो हरन्ति हिअयं तहवि न वेसा हवन्ति जुवईण || अव्वो किं पि रहस्सं मुणन्ति धुत्ता जणब्भहिआ।। २॥
अर्थात् (कामी पुरुष) युवती स्त्रियों के हृदय को हरण कर लेते हैं; तो भी (ऐसा अपराध करने पर भी ) ( वे स्त्रियां) द्वेष भाव करने वाली - (हृदय को चुराने वाले चोरों के प्रति) (दुष्टता के भाव रखने वाली) नहीं होती है। इसमें 'अव्वो' का प्रयोग उपरोक्त रीति से अपराध-सूचक है। जन-साधारण से (बुद्धि की अधिकता रखने वाले ये (कामी) धूर्त पुरुष आश्चर्य है कि कुछ न कुछ रहस्य जानते हैं। 'रहस्य का जानना' आश्चर्य-सूचक है-विस्मयोत्पादक है, इसी को 'अव्वो' अव्यय से व्यक्त किया गया है।
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 363 आनन्द विषयक उदाहरणः- अव्वो सुप्रभातम् इदम् अव्वो सुपहायं इणं आनन्द की बात है कि (आज) यह सुप्रभात (हुआ)। आदर-विषयक उदाहरणः- अव्वो अद्य अस्माकम् सफलम् जीवितम् अव्वो अज्जम्ह सप्फलं जीअं= (आप द्वारा प्रदत्त इस) आदर से आज हमारा जीवन सफल हो गया है। __ भय-विषयक उदाहरण:-अव्वो अतीते त्वया केवलम् यदि सा न खेष्यति-अव्वो आइअम्मि तुमे नवरं जइ सा न जूरिहेइ-(मुझे) भय (है कि) यदि तुम चले जाओगे तो तुम्हारे चले जाने पर क्या वह खिन्नता अनुभव नहीं करेगी; अर्थात् अवश्य ही खित्रता अनुभव करेगी। यहां पर 'अव्वो' अव्यय भय सूचक है। __ खेद-विषयक उदाहरण:-अव्वो न यामि क्षेत्रम् अव्वो न जामि छेत्तं खेद है कि मैं खेत पर नहीं जाती हूँ। अर्थात् खेत पर जाने से मुझे केवल खिन्नता ही अनुभव होगी-रंज ही पैदा होगा। इस प्रकार यहां पर 'अव्वो' अव्यय का अर्थ खिन्नता अथवा रंज' ही है। विषाद-विषयक उदाहरण :संस्कृतः- अव्वो नाशयति धृतिम् पुलकं वर्धयन्ति छ्छंते रणरण कं॥
इदानीम् तस्य इति गुणा ते एव अव्वो कथम् नु एतत्।। प्राकृतः- अव्वो नासेन्ति दिहिं पुलयं वड्डेन्ति देन्ति रणरणय।।
एण्हिं तस्सेअ गुणा ते च्चिअ अव्वो कह णु ए। अर्थः- खेद है कि धैर्य का नाश करते हैं; रोमांचितता बढ़ाते हैं; काम-वासना के प्रति उत्सुकता प्रदान करते हैं; ये सब वृत्तियाँ इस समय में उसी धन-वैभव के ही दुर्गुण हैं अथवा अन्य किसी कारण से हैं? खेद है कि इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट रूप से विदित नहीं हो रहा है। इस प्रकार 'अव्वो' अव्यय यहाँ पर विषाद्-सूचक है।
पश्चाताप-विषयक उदाहरण इस प्रकार हःसंस्कृतः- अव्वो तथा तेन कृता अहम् यथा कस्मै कथयामि। प्राकृतः- अव्वो तह तेण कया अहयं जह कस्स साहेमि।
अर्थः- पश्चाताप की बात है कि जैसा उसने किया; वैसा मैं किससे कहूं? इस प्रकार यहां पर अव्वो अव्यय पश्चाताप सूचक है।
अव्वो-प्राकृत-साहित्य का रूढ-रूपक और रूढ अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। 'दुष्कर-कारक' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दुक्कर-यारय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ष' के पश्चात् शेष रहे हुए प्रथम 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति;१-१७७ से द्वितीय 'क' और तृतीय 'क्' का लोप; १-१८० से दोनों 'क्' वर्गों के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' और 'अ' के स्थान पर क्रमिक रूप से 'या' और 'य' की प्राप्ति होकर 'दुक्कर-यारय' रूप की सिद्धि हो जाती है।
'दलन्ति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दलन्ति' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'दल' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दलन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'हृदयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हिययं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हिययं रूप सिद्ध हो जाता है।
किम अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
364 : प्राकृत व्याकरण ___ 'इदम्' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'इदम्' के स्थान पर 'इणं आदेश की प्राप्ति होकर 'इणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हरन्ति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हरन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३९ से प्राकृत हलन्त धातु 'हर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हरन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
"हिययं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। 'तह' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। "विं' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'द्वेष्याः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेसा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'स' के साथ लुप्त 'य' में से शेष रहे हुए 'आ' की संधि और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप एवं ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'आ' को यथास्थिति 'आ' की ही प्राप्ति होकर 'वेसा' रूप सिद्ध हो जाता है। __'भवन्ति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हवन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-६० से संस्कृत धातु 'भ्' के स्थान पर प्राकृत में हव्' आदेश; ४-२३९ से प्राप्त एवं हलन्त धातु 'हव' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हवन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'युवतीनाम्' संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जुवईण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जुवईण रूप सिद्ध हो जाता है।
'कि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। 'पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है। 'रहस्सं की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९८ में की गई है।
'जानन्ति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुणन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृत धातु 'ज्ञा' के स्थानीय रूप 'जान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मुण' आदेश; ४-२३९ से प्राप्त एवं हलन्त धातु 'मुण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुणन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धूर्ताः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धुत्ता' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ; के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप
और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के पूर्व में स्थित 'त्त' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'धुत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जनाभ्यधिकाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जणब्महिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ' को द्वित्व 'भ्भ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'भ' के स्थान पर 'ब्' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 365 प्राप्त प्रत्यय 'जस्' के पूर्व में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'जणब्भहिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
‘सुप्रभातम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुपहाय' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; १-१८७ से' भ्' के स्थान पर 'ह्' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुपहाय* रूप सिद्ध हो जाता है।
'इण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
'अज्ज' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १ - ३३ में की गई है।
‘अस्माकम्' संस्कृत षष्ठयन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप (अ) म्ह होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११४ से संस्कृत 'अस्मद्' के षष्ठी बहुवचन में 'आम्' प्रत्यय का योग होने पर प्राप्त रूप 'अस्माकम्' के स्थान पर प्राकृत में 'अम्ह' आदेश की प्राप्ति और १ - १० से मूल गाथा में 'अज्जम्ह' इति रूप होने से 'अ' के पश्चात् 'अ' का सद्भाव होने से 'अम्ह' के आदि 'अ' का लोप होकर 'म्ह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सफलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सप्फलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९७ से 'फ' के स्थान पर द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' के स्थान पर 'प्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सप्फलं रूप सिद्ध हो जाता है।
रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २७१ में की गई है।
'अतीते' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अइअम्मि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से दोनों 'त्' वर्णो का लोप; १-१०१ से प्रथम 'त्' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; ३ - ११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थानीय रूप 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अइअम्मि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'त्वया' संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तुम' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ - ९४ से 'युष्मद्' संस्कृत सर्वनाम के तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय का योग होने पर प्राप्त रूप 'त्वया' के स्थान पर प्राकृत में 'तुमे' आदेश की प्राप्ति होकर 'तुमे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'केवलम्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नवर' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १८७ से 'केवलम्' के स्थान पर 'णवर' आदेश की प्राप्ति; १ - २२९ से 'ण' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'न' की प्राप्ति और १ - २३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'नवरं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जइ' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १- ४० में की गई है। 'सा' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३३ में की गई है। 'न' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'खेष्यति' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जूरिहिइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- १३२ से 'खिद्-खेद्' के स्थान पर प्राकृत में 'जूर' आदेश; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'जूर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१६६ से संस्कृत में भविष्यत् काल वाचक प्रत्यय 'ष्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' की प्राप्ति; ३ - १५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३- १३९ से प्रथम पुरुष के एकवचन में प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जूरिहिइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
366 : प्राकृत व्याकरण
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'यामि' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमानकाल के एकवचन में तृतीय पुरुष में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामि रूप सिद्ध हो जाता है।
क्षेत्रम् संस्कृत द्वितीयांत रूप है। इसका प्राकृत रूप'छेत्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप; हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छेत्तं' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'नाशयन्ति' संस्कृत प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नासेन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणार्थक में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'नासेन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धृतिम् संस्कृत द्वितीयांत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दिहिं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३१ से 'वृति' के स्थान पर 'दिहि' आदेश; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दिहि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुलकम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुलयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'पुलयं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'वर्धयन्ति' संस्कृत प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वड्डेन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४० से संयुक्त व्यञ्जन 'ध् के स्थान पर 'द' आदेश; २-८९ से प्राप्त 'द' को द्वित्व 'ढ्ढ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'द' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणार्थक 'मे' प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति
और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वड्डेन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है। __'ददंते' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'देन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त 'ए' के पूर्व में स्थित 'द' के 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'द्' में आगे रहे हुए 'ए' की संधि; और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। प्रेरणार्थक में देन्ति' की साधनिका इस प्रकार भी होती है:-संस्कृत मूल धातु 'दा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर १-८४ से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्रेरणा अर्थ में प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित 'द' के 'अ' का लोप; १-५ से हलन्त 'द्' में 'ए' की संधि और ३-१४२ से 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'देन्ति' प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाता है।
'रणरणकम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रणरणय होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'रणरणयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'एण्हि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है।
तस्य संस्कृत षष्ठयन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप तस्स होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' - के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'तस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 367 'इति' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इअ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और १-९१ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रही हुई द्वितीय 'इ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'इअ रूप सिद्ध हो जाता है।
'गुणा' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है।
'ते' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'ते' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्थ 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ' का लोप और १-५ से हलन्त 'त्' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' की सधि होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता
'च्चिअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है। 'कह' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
'नु' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप ‘णु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'णु' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एअं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है। 'तह' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। "तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८६ में की गई है।
'कृता' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कया' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति होकर 'कया रूप सिद्ध हो जाता है।।
'अहयं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९९ में की गई है। 'जह' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है।
'कस्मै' संस्कृत चतुर्थ्यन्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कस्स' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'क' रूप का सद्भाव; ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी-विभक्ति की प्राप्ति; तदनुसार ३-१० से षष्ठी-विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कस्स' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'कथयामि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'साहेमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२ से संस्कृत धातु 'कथ्' के स्थान पर 'साह्' आदेश; ४-२३९ से हलन्त धातु 'साह' में 'कथ्' धातु में प्रयुक्त विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'साहेमि' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०४।।
अइ संभावने ॥ २-२०५॥ संभावने अइ इति प्रयोक्तव्यम्॥ अइ।। दिअर किं न पेच्छसि।।
अर्थः- प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला 'अई' अव्यय 'संभावना' अर्थ को प्रकट करता है। संभावना है। इस अर्थ को 'अइ' अव्यय व्यक्त करता है। जैसे:-अइ, देवर! किम् न पश्यसि अइ; दिअर! किं न पेच्छसि अर्थात् (मुझे ऐसी) संभावना (प्रतीत हो रही) है (कि) हे देवर! क्या तुम नहीं देखते हो।
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
368 : प्राकृत व्याकरण
अइ प्राकृत-साहित्य का रूढ-अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्कता नहीं है।
देवर संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप दिअर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४६ से 'ए' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व' का लोप और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय ' (सि-) ओ' का अभाव होकर दिअर रूप सिद्ध हो जाता है।
"कि अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
'पश्यसि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पेच्छसि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८१ से संस्कृत मूल-धातु 'इश' के स्थानीय रूप ‘पश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' आदेश; ४-२३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१४० से वर्तमान काल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पेच्छसि रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०५।।
वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ।। २-२०६।। वणे इति निश्चयादौ संभावने च प्रयोक्तव्यम्। वणे देमि। निश्चयं दामि।। विकल्पे होइ वणे न होइ। भवति वा न भवति।। अनुकम्प्ये। दासो वणे न मुच्चइ। दासोऽनुकम्प्यो न त्यज्यते।। संभावने। नत्थि वणे जं न देइ विहि-परिणामो। संभाव्यते एतद् इत्यर्थः।। __ अर्थः-'वणे' प्राकृत-साहित्य का अव्यय है; जो कि निम्नोक्त चार प्रकार के अर्थो में प्रयुक्त हुआ करता है:- (१) निश्चय-अर्थ में; (२) विकल्प-अर्थ में; (३) अनुकंप्य-अर्थ में-(दया-प्रदर्शन-अर्थ में) और (४) संभावना-अर्थ में। क्रमिक उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) निश्चय-विषयक द्दष्टान्तः-निश्चयं ददामि-वणे देमि अर्थात् निश्चय ही में देता हूं। (२) विकल्प-अर्थक दृष्टांतः-भवति वा न भवति–होइ वणे न होइ अर्थात् (ऐसा) हो (भी) सकता है अथवा नहीं (भी) हो सकता है। (३) अनुकम्प्य अर्थात् 'दया-योग्य-स्थिति' प्रदर्शक द्दष्टान्तः-दासोऽनुकम्प्यो न त्यज्जते-दासो वणे न मुच्चइ अर्थात (कितनी) दयाजनक स्थिति है (कि बेचारा) दास (दासता से) मुक्त नहीं किया जा रहा है। संभावना-दर्शक द्दष्टान्तः-नास्ति वणे यन्न द्दाति विधि-परिणामः नत्थि वणे जंन देइ विहि-परिणामो अर्थात् ऐसी कोई वस्तु नही है; जिसको कि भाग्य-परिणाम प्रदान नहीं करता हो; तात्पर्य यह है कि विहि-परिणामो अर्थात् ऐसी कोई वस्तु नहीं है; जिसको कि भाग्य-परिणाम प्रदान नहीं करता हो; तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति का योग केवल भाग्य-परिणाम से ही संभव हो सकता है। सम्भावना यही है कि भाग्यानुसार ही फल-प्राप्ति हुआ करती है। यों 'वणे अव्यय का अर्थ प्रसंगानुसार-व्यक्त होता है।
'वणे' प्राकृत-साहित्य का रूढ-अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है; तदनुसार साधनिका की आवश्यकता नहीं है।
"ददामि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'देमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-१० से प्रथम 'द' में स्थित 'अ' के आगे 'ए' की प्राप्ति होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'द्' में आगे प्राप्त 'ए' की संधि और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'देमि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'होइ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है। 'न' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। 'दासः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दासो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 369 अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दासो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'त्यज्यते' (=मुच्यते) संस्कृत कर्मणि प्रधान क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुच्चइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२४९ से कर्मणि प्रयोग में अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति; और ४-२४९ से ही 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होने पर संस्कृत रूप में रहे हुए कर्मणि रूप वाचक प्रत्यय 'य' का लोप; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त 'च्च' में 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति हाकर 'मुच्चइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
नास्ति संस्कृत अव्यय-योगात्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप नत्थि होता है। इस (न + अस्ति) में सूत्र संख्या ३-१४८ से 'अस्ति' के स्थान पर 'अत्थि' आदेश; १-१० से 'न' के अन्त्य 'अ' के आगे 'अत्थि' का 'अ' होने से लोप और १-५ से हलन्त 'न्' में 'अत्थि' के 'अ' की संधि होकर 'नत्थि' रूप सिद्ध हो जाता है। - 'ज' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४ में की गई है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'ददाति' संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप देइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; १-१० से प्रथम 'द' में रहे हुए 'अ' के आगे 'ए' प्राप्त होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'द्' में आगे रहे हुए स्वर 'ए' की संधि और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देइ रूप सिद्ध हो जाता है।
"विधि-परिणामः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विहि-परिणामो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप विसर्ग के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विहि-परिणामो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०६।।
मणे विमर्श ॥ २-२०७॥ मणे इति विमर्श प्रयोक्तव्यम्। मणे सूरो। किं स्वित्सूर्यः।। अन्ये मन्ये इत्यर्थमपीच्छन्ति।।
अर्थः- 'मणे' प्राकृत साहित्य का अव्यय है जो कि 'तर्क युक्त प्रश्न पूछने' के अर्थ में अथवा 'तर्क-युक्त विचार करने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। 'विमर्श' शब्द का अर्थ 'तर्क-पूर्ण विचार होता है। जैसे:- किंस्वत् सूर्यः=मणो सूरो, अर्थात् क्या यह सूर्य है। तात्पर्य यह है कि-'क्या तुम सूर्य के गुण-दोषों का विचार कर रहे हो। सूर्य के संबंध में अनुसन्धान कर रहे हो। कोई कोई विद्वान 'मन्ये' अर्थात् 'मैं मानता हूं; मेरी धारणा है कि इस अर्थ में भी 'मणे' अव्यय का प्रयोग करते हैं। __'किं स्वित्' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका आदेश-प्राप्त प्राकृत रूप 'मणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२०७ से 'किस्वित्' के स्थान पर 'मणे' आदेश की प्राप्ति होकर 'मणे' रूप सिद्ध हो जाता है।
सूरो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-६४ में की गई है।
'मन्ये संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मणे' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप और १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'मणे' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०७॥
अम्मो आश्चर्य ।। २-२०८॥ अम्मो इत्याश्चर्ये प्रयोक्तव्यम्।। अम्मो कह पारिज्जइ।।
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
370 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- 'अम्मो' प्राकृत-साहित्य का आश्चर्य वाचक अव्यय है। जहाँ आश्चर्य व्यक्त करना हो; वहाँ अम्मो' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:- (आश्चर्यमेतत्-) अम्मो कथम् पार्यते-अम्मो कह पारिज्जइ अर्थात् आश्चर्य है कि यह कैसे पार उतारा जा सकता है ? तात्पर्य यह है कि इसका पार पा जाना अथवा पार उतर जाना निश्चय ही आश्चर्यजनक है।
'अम्मो' प्राकृत साहित्य का रूढ-रूपक और रूढ-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। 'कह' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
'पार्यते संस्कृत कर्मणि-प्रधान क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पारिज्जई' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१६० से मूल धातु 'पार्' में संस्कृत कर्मणि वाचक प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से 'पार्' धातु के हलन्त 'र' में 'इज्ज' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत-प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पारिज्जइ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२०८||
स्वयमोर्थे अप्पणो न वा ।। २-२०९।। - स्वयमित्यस्यार्थे अप्पणो वा प्रयोक्तव्यम्। विसयं विअसन्ति अप्पणो कमल-सरा। पक्षे। सयं चेअ मुणसि करणिज्जं॥
अर्थः- 'स्वयम्' इस प्रकार के अर्थ में वैकल्पिक रूप से प्राकृत में 'अप्पणो अव्यय का प्रयोग किया जाता है। 'स्वयम्=अपने आप ऐसा अर्थ जहां व्यक्त करना हो; वहाँ पर वैकल्पिक रूप से 'अप्पणो' अव्ययात्मक शब्द लिखा जाता है। जैसे:- विशदं विकसन्ति स्वयं कमल-सरासि-विसयं विअसन्ति अप्पणो कमल-सरा अर्थात कमल युक्त तालाब स्वयं (हो) उज्जवल रूप से विकासमान होते हैं। यहां पर 'अप्पणो' अव्यय 'स्वयं का द्योतक है वैकल्पिक पक्ष होने से जहां 'अप्पणो' अव्यय प्रयुक्त नहीं होगा; वहां पर 'स्वयं के स्थान पर प्राकृत में 'सयं रूप प्रयुक्त किया जायगा। जैसे:- स्वयं चेव जानासि करणीयं-सयं चेअ मुणसि करणिज्जं अर्थात् तुम खुद ही (स्वयमेव)-कर्त्तव्य को जानते हो। इस उदाहरण में 'स्वयं के स्थान पर 'अप्पणो' अव्यय प्रयुक्त नहीं किया जाकर 'सय रूप प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार वैकल्पिक-स्थिति समझ लेना चाहिये। ___ "विशदम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विसयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विसय रूप सिद्ध हो जाता है।
"विकसन्ति' संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विअसन्ति' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप; ४-२३९ से हलन्त धातु 'विअस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विअसन्ति' रूप सिद्ध हो जाता है।
'स्वयं संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२०९ से स्वयं के स्थान पर 'अप्पणो' आदेश की प्राप्ति होकर 'अप्पणो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'कमल-सरासि' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कमल-सरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३२ से मूल संस्कृत शब्द कमल-सरस्' को संस्कृतीय नपुंसकत्व से प्राकृत में पुल्लिगत्व की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन ‘स्' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस्' के पूर्वस्थ 'र' व्यञ्जन में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'कमल-सरा' रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 371 'स्वयम्' संस्कृत अव्ययात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व्' का लोप; और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सयं रूप सिद्ध हो जाता है। 'चेअ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८४ में की गई है।
'जानासि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुणसि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृतीय मूल धातु 'ज्ञा' के स्थानीय रूप 'जान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मुण' आदेश; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'मुण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमान काल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुणसि' रूप सिद्ध हो जाता है। 'करणिज्ज रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४८ में की गई है। ।। २-२०९।।
प्रत्येकमः पाडिक्कं पाडिएक्कं ।। २-२१०।। प्रत्येकमित्यस्यार्थे पाडिक्कं पाडिएक्कं इति च प्रयोक्तव्यं वा। पाडिक्क। पाडिएक्कं पक्षे। पत्ते।
अर्थः- संस्कृत 'प्रत्येकम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत में 'पाडिक्क' और 'पाडिएक्क' रूपों का प्रयोग किया जाता है। पक्षान्तर में पत्तेअं रूप का भी प्रयोग होता है। जैसे:- प्रत्येकम्=पडिक्कं अथवा पाडिएक्कं अथवा पत्ते।
'प्रत्येकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पाडिक्क' 'पाडिएक्क' और 'पत्ते होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या २-२१० से 'प्रत्येकम्' के स्थान पर 'पाडिक्क' और पाडिएक्क' रूपों की क्रमिक आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'पाडिक्कं' और 'पाडिएक्कं' सिद्ध हो जाता है। . तृतीय रूप (प्रत्येकम्=) पत्तेअं में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १–१७७ से 'क्' का लोप; और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर पत्तेअंरूप सिद्ध हो जाता है।। २-२१०।।
उअ पश्च ।। २-२११॥ उअ इति पश्चेत्यस्यार्थे प्रयोक्तव्यं वा। उअनिच्चल-निप्फंदा भिसिणी-पत्तमि रेहइ बलाआ। निम्मल-मरगय-भायण-परिट्ठिआ संङ्ख-सुत्ति व्व।। पक्षे पुलआदयः।।
अर्थः- 'देखो' इस मुहावरे के अर्थ में प्राकृत में 'उअ अव्यय का वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता है। जैसे:पश्य-उअ अर्थात् देखो। 'ध्यान आकर्षित करने के लिये' अथवा 'सावधानी बरतने के लिये 'अथवा' चेतावनी देने के लिये हिन्दी में 'देखो' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी तात्पर्य को प्राकृत में व्यक्त करने के लिये 'उअ अव्यय को प्रयुक्त करने की परिपाटी है। भाव-स्पष्ट करने के लिये नीचे एक गाथा उद्धृत की जा रही है:संस्कृतः- पश्च निश्चल-निष्पन्दा बिसिनि-पत्रे राजते बलाका।।
निर्मल-मरकत-भाजन प्रतिष्ठिता शंख-शुक्तिरिव॥१॥ प्राकृतः- उअ निच्चल-निप्फंदा भिसिणी-पत्तमि रेहइ बलाआ।
निम्मल-मरगय-भायण-परिट्ठिआ संङ्ख-सुत्तिव्व।।१।। अर्थः- 'देखो'-शान्त और अचंचल बगुली (तालाब का सफेद-वर्णीय मादा पक्षी विशेष) कमलिनी के पत्ते पर इस प्रकार सुशोभित हो रही है कि मानो निर्मल मरकत-मणियों से खचित बर्तन में शंख अथवा सीप प्रतिष्ठित कर दी गई हो अथवा रख दी गई हो। उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि 'बलाका-बगुली' की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये व्यक्ति
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
372 : प्राकृत व्याकरण
विशेष अपने साथी को कह रहा है कि 'देखो - (प्रा. उअ ) ' कितना सुन्दर दृश्य है' इस प्रकार 'उअ' अव्यय की उपयोगिता एवं प्रयोगशीलता जान लेना चाहिये । पक्षान्तर में 'उअ' अव्यय के स्थान पर प्राकृत में 'पुलअ' आदि प्रन्द्रह प्रकार के आदेश रूप भी प्रयुक्त किये जाते हैं; जो कि सूत्र संख्या ४ - १८१ में आगे कहे गये हैं। तदनुसार 'पुलअ' आदि रूपों का तात्पर्य भी 'अ' अव्यय के समान ही जानना चाहिये।
'पश्य' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उअ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १११ से पश्य' के स्थान पर प्राकृत में 'अ' आदेश की प्राप्ति होकर 'उअ' अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है।
'निश्चल-निष्पन्दा' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निच्चल - निप्फंदा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से प्रथम 'श्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'शू' के पश्चात शेष रहे हुए 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति ; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' के स्थान पर 'प्' की प्राप्ति; और १ - २५ से हलन्त 'न्' के स्थान पर पूर्वस्थ 'फ' वर्ण पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'निच्चल - निप्फंदा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बिसिनी–पत्रे' संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिसिणी- पंत्तमि' होता है। इस शब्द-समूह में से ‘भिसिणी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २३८ में की गई है; शेष 'पत्तमि' में सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' के स्थान पर द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३ - ११ सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'ङि' के स्थानीय रूप 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ की वृत्ति से हलन्त प्रत्ययस्थ 'म्' का अनुस्वार होकर 'भिसिणी - पंत्तमि' रूप सिद्ध हो जाता है।
'राजते' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रेहइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- १०० से संस्कृत धातु 'राज्' के स्थान पर प्राकृत में 'रेह' आदेश; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'रेह्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३- १३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रेहइ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'बलाका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बलाआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप विसर्ग- व्यञ्जन का लोप होकर 'बलाआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'निर्मल- - मरकत-भाजन - प्रतिष्ठित संस्कृत समासात्मक विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निम्मल-मरगय-भायण - परिट्टिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से रेफ रूप प्रथम 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए रेफ रूप 'र्' के पश्चात शेष रहे हुए (प्रथम) 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; ४-४४७ से और १ - १७७ की वृत्ति से 'क' के स्थान पर व्यत्यय रूप 'ग' की प्राप्ति; १ - १७७ से प्रथम 'त' का लोप; १ - १८० से लोप हुए (प्रथम) 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'ज्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ'
स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १ - २२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - ३८ से 'प्रति' के स्थान पर 'परि' आदेश; २-७७ से ‘ष्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ष्' के पश्चात शेष रहे हुए 'ट्' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' के स्थान पर 'टू' की प्राप्ति; और १ - १७७ से अन्त्य 'ता' में स्थित 'त्' का लोप होकर संपूर्ण समासात्मक रूप 'निम्मल - मरगय भायण परिद्विआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शंख-शुक्तिः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सङ्घ-सुत्ती होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से दोनों 'श' व्यञ्जनों के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १ - ३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'ख' व्यञ्जन होने से कवर्गीय पंचम- अक्षर की प्राप्ति; २-७७ से ‘क्ति' में स्थित हलन्त् 'क्' व्यञ्जन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर सङ्घ-सुत्ती रूप सिद्ध हो जाता है।
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 373
'व्व' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है।
'पश्य' संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप पुलअ भी होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८१ से संस्कृत मूल धातु 'दश' के स्थानीय रूप ‘पश्य' के स्थान पर 'पुलअ आदेश की प्राप्ति; और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय का लोप होकर पुलअ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२११।।
इहरा इतरथा ॥ २-२१२।। इहरा इति इतरथार्थे प्रयोक्तव्यं वा।। इहरा नीसामनेहि। पक्षे। इअरहा।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'इतरथा' के अर्थ में प्राकृत-साहित्य में वैकल्पिक रूप से 'इहरा' अव्यय का प्रयोग होता है। जैसे:- इतरथा निः सामान्यैः इहरा नीसामन्नेहिं अर्थात् अन्यथा असाधारणों द्वारा-(वाक्य अपूर्ण है)। वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ 'इहरा' रूप का प्रयोग नहीं होगा वहाँ पर 'इअरहा' प्रयुक्त होगा। इस प्रकार 'इतरथा' के स्थान पर 'इहरा' और 'इअरहा' में से कोई भी एक रूप प्रयुक्त किया जा सकता है।
'इतरथा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इहरा' और 'इअरहा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२१२ से 'इतरथा' के स्थान पर 'इहरा' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'इहरा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(इतरथा-) इअरहा में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इहरहा भी सिद्ध हो जाता है। ___'निः सामान्यैः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नीसामन्नेहिं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से विसर्ग रूप 'स्' का लोप; १-४३ से विसर्ग रूप 'स्' का लोप होने से 'नि' व्यञ्जन में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-८४ से 'मा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थानीय रूप 'एस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय 'हिं' के पूर्वस्थ 'न' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर निसामन्नेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२१२।।
एक्कसरिअं झगिति संप्रति ।। २-२१३।। एक्कसरिअंझगित्यर्थे संप्रत्यर्थे च प्रयोक्तव्यम्।। एक्कसरि झगिति सांप्रतं वा॥
अर्थः- 'शीघ्रता' अर्थ में और 'संप्रति आजकल' अर्थ में याने प्रसंगानुसार दोनों अर्थ में प्राकृत-साहित्य में केवल एक ही अव्यय 'एक्कसरिअं प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार 'एक्कसरिअं अव्यय का अर्थ 'शीघ्रता-तुरन्त' अथवा 'झटिति' ऐसा भी किया जाता है और 'आजकल-संप्रति ऐसा भी अर्थ होता है। तदनुसार विषय-प्रसंग देखकर दोनों अर्थों में से कोई भी एक अर्थ 'एक्कसरिअं अव्यय का किया जा सकता है। __ 'झटिति' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एक्कसरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१३ से 'झटिति' के स्थान पर प्राकृत में 'एक्कसरिअं रूप की आदेश-प्राप्ति होकर 'एक्कसरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'संप्रति' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'एक्कसरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१३ से 'संप्रति' के स्थान पर प्राकृत में 'एक्कसरिअं रूप की आदेश-प्राप्ति होकर 'एक्कसरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।।२-२१३।।
मोरउल्ला मुधा ।। २-२१४॥ मोरउल्ला इति मुधार्थे प्रयोक्तव्यम्।। मोरउल्ला। मुधेत्यर्थः।।
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
374 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- संस्कृत अव्यय 'मुधा व्यर्थ' अर्थ में प्राकृत भाषा में 'मोरउल्ला' अव्यय का प्रयोग होता है। जब 'व्यर्थ' ऐसा भाव प्रकट करना हो तो 'मोरउल्ला' ऐसा शब्द बोला जाता है। जैसे:- मुधा=मोरउल्ला अर्थात् व्यर्थ (है)।
'मुधा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मोरउल्ला' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१४ से 'मुधा' के स्थान पर प्राकृत में 'मोरउल्ला' आदेश की प्राप्ति होकर 'मोरउल्ला' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-२१४।।
दरार्धाल्पे ॥ २-२१५।। दर इत्यव्ययमर्धार्थे ईषदर्थे च प्रयोक्तव्यम्।। दर-विअसिआ अर्धेनेषता विकसितमित्यर्थः।।
अर्थः- 'अर्ध' =खंड रूप अथवा आधा समभाग' इस अर्थ में और 'ईषत् अल्प अर्थात् थोड़ा-सा' इस अर्थ में भी प्राकृत में 'दर' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार जहाँ 'दर' अव्यय हो; वहाँ पर विषय-प्रसंग को देखकर के दोनों अर्थों में से कोई सा भी एक उचित अर्थ प्रकट करना चाहिये। जैसे:-अधं विकसितम् अथवा ईषत् विकसितम्-दर-विअसिअं अर्थात् (अमुक पुष्प विशेष) आधा ही खिला है अथवा थोड़ा सा ही खिला है।
अर्ध-विकसितम् अथवा ईषत्-विकसितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दर विअसिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२१५ से 'अर्ध' अथवा 'ईषत्' के स्थान पर प्राकृत में 'दर' आदेश; १-१७७ से 'क्' और 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'दर-विअसि रूप सिद्ध हो जाता है।। २-२१५॥
किणो प्रश्ने । २-२१६।। किणो इति प्रश्ने प्रयोक्तव्यम्।। किणो धुवसि।।
अर्थः- 'क्या' क्यों अथवा किसलिये' इत्यादि प्रश्न वाचक अर्थ में प्राकृत-भाषा में 'किणो' अव्यय प्रयुक्त होता है। जहाँ किणो' अव्यय प्रयुक्त हो; वहाँ इसका अर्थ 'प्रश्नवाचक' जानना चाहिये। जैसे:-किम् धूनोषि-किणो धुवसि अर्थात् क्यों तू हिलाता है ?
"किणो' प्राकृत साहित्य का रूढ-अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय 'किणो' सिद्ध है। ___ 'धूनोषि' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धुवसि' होता है इसमें सूत्र संख्या ४-५९ से संस्कृत धातु 'धून' के स्थान पर प्राकृत में 'धुव्' आदेश; ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'धुव' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमान काल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धुवसि' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-२१६।।
इ-जे-राः पादपूरणे ।। २-२१७।। इजे र इत्येते पाद-पूरणे प्रयोक्तव्याः।। न उणा इ अच्छीइं। अणुकूलं वोत्तुं जे। गेण्हइ र कलम-गोवी॥ अहो। हहो। हेहो। हा। नाम। अहह। हीसि। अयि। अहाह। अरि रि हो इत्यादयस्तु संस्कृत समत्वेन सिद्धाः।। ___ अर्थः- 'छंद आदि रचनाओं में पाद-पूर्ति के लिये अथवा कथनोपकथन में एवं संवाद-वार्ता में किसी प्रयोजन के केवल परम्परागत शैली-विशेष के अनुसार 'इ, जे, र' वर्ण रूप अव्यय प्राकृत रचना में प्रयुक्त किये जाते हैं। इन एकाक्षरी रूप अव्ययों का कोई अर्थ नहीं होता है; केवल ध्वनि रूप से अथवा उच्चारण में सहायता रूप से ही इनका प्रयोग किया जाता है; तदनुसार ये अर्थ हीन होते हैं एवं तात्पर्य से रहित ही होते हैं। पाद-पूर्ति तक ही इनकी उपयोगिता जाननी चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- न पुनर् अक्षीणि न उणा इ अच्छीइं अर्थात् पुनः आँखे नहीं-(वाक्य अपूर्ण है)। इस उदाहरण में एकाक्षरी रूप 'इ' अव्यय अर्थ हीन होता हुआ भी केवल पाद-पूर्ति के लिये ही आया हुआ है। 'जे' का उदाहरणः-अनुकूलं
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 375
वक्तुं-अणुकूलं वोत्तुं जे अर्थात् अनुकूल बोलने के लिये। इस प्रकार यहाँ पर 'जे' अर्थहीन रूप से प्राप्त है। 'र' का उदाहरण:गृह्णाति कलम गोपी गेण्हइ र कलम-गोवी अर्थात् कलम-गोपी (धन्यादि की रक्षा करने वाली स्त्री विशेष) ग्रहण करती है। इस उदाहरण में 'र' भी अर्थ हीन होता हुआ पाद-पूर्ति के लिये ही प्राप्त है। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
प्राकृत-साहित्य में अन्य अव्यय भी देखे जाते हैं; जो कि संस्कृत के समान ही होते हैं; कुछ एक इस प्रकार हैं:- (१) अहो, (२) हहो, (३) हेहो, (४) हा, (५) नाम, (६) अहह, (७) ही-सि, (८) अयि, (९) अहाह, (१०) अरि, (११) रि और (१२) हो। ये अव्यय-वाचक शब्द संस्कृत के समान ही अर्थयुक्त होते हैं और इनकी अक्षरीय-रचना भी संस्कृत के समान ही होकर तद्-वत् सिद्ध होते हैं। अतएव इसके लिए अधिक वर्णन की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई हैं। 'उणे' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६५ में की गई है। 'इ' अव्यय पाद-पूर्ति अर्थक-मात्र होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 'अच्छीइं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३३ में की गई है।
'अनुकूलम्' संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अनुकूल' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अणुकूलं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'वक्तुम्' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वोत्तुं होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२११ से मूल संस्कृत धातु 'वच्' के स्थान पर कृदन्त रूप में 'वोत्' आदेश और ४-४४८ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में हेत्वर्थकृदन्त अर्थ में 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वोत्तुं रूप सिद्ध हो जाता है।
'जे' अव्यय पाद-पूर्ति अर्थक मात्र होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है। ___ 'गृह्णाति' संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गेण्हइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२०९ से मूल संस्कृत धातु 'ग्रह' के स्थान पर प्राकृत में 'गेण्ह' आदेश और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गेण्हई' रूप सिद्ध हो जाता है।
'र' अव्यय पाद-पूर्ति अर्थक मात्र होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
कलम-गोपी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कलम-गोवी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' को 'यथा-स्थिति' अर्थात् दीर्घता ही प्राप्त होकर कलम-गोवी रूप सिद्ध हो जाता है। __'वृत्ति' में वर्णित अन्य अव्ययों की साधनिका की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उक्त अव्यय संस्कृत अव्ययों के समान ही रचना अर्थ वाले होने से स्वयमेव सिद्ध रूप वाले ही हैं। ।। २-२१७।।
प्यादयः ॥ २-२१८॥ प्यादयो नियतार्थवृत्तयः प्राकृते प्रयोक्तव्याः।। पि वि अप्यर्थे।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले 'पि' और 'वि' इत्यादि अव्ययों का वही अर्थ होता है; जो कि संस्कृत भाषा में निश्चित है; अतः निश्चित अर्थ वाले होने से इन्हें 'वृत्ति' में 'नियत अर्थ-वृत्तिः' विशेषण से सुशोभित किया है। तदनुसार 'पि' अथवा 'वि' अव्यय का अर्थ संस्कृतीय 'अपि' अव्यय के समान ही जानना चाहिये।
"पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है। 'वि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। ।। २- २२८।।
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
376 : प्राकृत व्याकरण
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि विरचितायां सिद्ध हेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ
शब्दानुशासन वृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः।। अर्थ:- इस प्रकार आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित 'सिद्ध-हेमचन्द्र-शब्दानुशासन' नामक संस्कृत-प्राकृत-व्याकरण की स्वकीय 'प्रकाशिका' नामक संस्कृतीय टीकान्तर्गत आठवें अध्याय का अर्थात् प्राकृत व्याकरण का द्वितीय चरण समाप्त हुआ।।
___-: पादान्त मंगलाचरण :द्विषत्-पुर-क्षोद-विनोद-हेतो र्भवादवामस्य भवद्भुजस्य।।
अयं विशेषो भुवनैकवीर! परं न यत्-काममपाकरोति।। १।। अर्थः-हे विश्व में एक ही-अद्वितीय वीर सिद्धराज! शत्रुओं के नगरों को विनष्ट करने में ही आनन्द का हेतु बनने वाली ऐसी तुम्हारी दाहिनी भुजा में और भव अर्थात् भगवान् शिव-शंकर में (परस्पर में) इतना ही विशेष अन्तर है कि जहाँ भगवान् शिव-शंकर काम-(मदन-देवता) को दूर करता है; वहाँ तुम्हारी यह दाहिनी भुजा काम (शत्रुओं के नगरों को नित्य ही नष्ट करने की इच्छा विशेष) को दूर नहीं करती है। तुम्हारे में और शिव-शंकर में परस्पर में इसके अतिरिक्त सभी प्रकार से समानता ही है। इति शुभम्। इति अष्टम-अध्याय के द्वितीय पाद की 'प्रियोदयाख्या'
हिन्दी-व्याख्या समाप्त।।
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ठ - भाग अनुक्रमणिका
१. संकेत बोध
२. कोष- रूप- सूची ३. शुद्धि पत्र
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
378 प्राकृत व्याकरण
अ.
अक.
अप.
उप.
उभ.
कर्म.
क. वकृ.
कृ.
कृद.
क्रि.
क्रि.वि.
चू. पै.
त्रि.
.
न.
पुं.
पु.न.
पुं. स्त्री.
पै.
प्रयो.
ब.
भ.कृ.
भवि.
भू.का.
भू.कृ.
मा.
व. कृ.
वि.
शौ.
सर्व.
सं.कृ.
सक.
स्त्री.
स्त्री. न.
हे . कृ.
संकेत-बोध
अव्यय ।
अकर्मक धातु ।
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
=
अपभ्रंश भाषा ।
उपसर्ग |
सकर्मक तथा अकर्मक धातुः । अथवा दो लिंग वाला।
कर्मणि-वाच्य।
कर्मणि-वर्तमान-कृदन्त ।
कृत्य-प्रत्ययान्त।
कृदन्त । क्रियापद ।
क्रिया - विशेषण |
चूलिका पैशाची भाषा |
त्रिलिंग |
देश |
नपुंसकलिंग | पुल्लिंग |
पुल्लिंग तथा नपुंसकलिंग । पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग।
पैशाची भाषा ।
प्रेरणार्थक - णिजन्त ।
बहुवचन |
भविष्यत् कृदन्त।
भविष्यत् काल ।
भूतकाल ।
भूतकृदन्त
मागधी भाषा ।
वर्तमान- कृदन्त ।
विशेषण | शौरसेनी भाषा । सर्वनाम |
सम्बन्ध कृदन्त।
सकर्मक धातु ।
स्त्रीलिंग |
स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग । हेत्वर्थ-कृदन्त।
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राकृत-व्याकरण प्रथम-द्वितीय पाद कोष रूप-सूची
पद्धति-परिचयः- प्रथम शब्द प्राकृत भाषा का है; द्वितीय शब्द अक्षरात्मक लघु-संकेत प्राकृत शब्द की व्याकरणगत विशेषता का सूचक है; तृतीय शब्द कोष्ठान्तर्गत मूल प्राकृत शब्द के संस्कृत रूपान्तर का अवबोधक है और चतुर्थ शब्द स्थानीय हिन्दी-तात्पर्य बोधक है। इसी प्रकार प्रथम अंक प्राकृत व्याकरण का पादक्रम बोधक है और अन्य अंक इसी पाद सत्रों की क्रम संख्या को प्रदर्शित करते हैं। यों व्याकरण-गत शब्दों का यह शब्द-कोष ज्ञातव्य है।
अ अ (च)
अइ अ
अइअम्मि अइमुत्तयं
अइमुत्तयं
अइसरिअं अंसु अक्को
अज्जू
अक्खइ अक्खराण
अगणी
अगया अगरू अगरू
अच्छरिज्जं न (आश्चर्यम्) विस्मय, चमत्कार; १-५८,२-६७१ और; पुन; फिर; अवधारण, निश्चय इत्यादि; अच्छिन वि. (अच्छिन्न) नहीं तोड़ा हुआ; अन्तर रहित; १-१७७; २-१७४; १८८; १९३;।
२-१९८ (अति) अतिशय, अतिरेक, उत्कर्ष, महत्व, पूजा, अच्छी पु. स्त्री (अक्षि ) आंख; १-३३, ३५। प्रशंसा आदि अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है।
अच्छीइं (अक्षिणी) आंखों को १-३३; २-२१७ १-१६९,२-१७९, २०५;
अच्छेरं न. (आश्चर्यम्)विस्मय, चमत्कार, १-५८ २-२१, वि (अतीते) व्यतीत अर्थ में; २-२०४।
६६,६७। पु. (अतिमुक्तकम्) अयवन्ता कुमार को; १-२६, अजिअं पु. (अजितम्) द्वितीय तीर्थकर अजितनाथजी को; १७८,२०८।
१-२४। पुं. (अतिमुक्तकम्) अयवन्ता कुमार को; १-२६, अज्ज अ. (अद्य) आज; १-३३; २-२०४; १७८1
अज्ज पुं. (आर्य) श्रेष्ठ पुरूष, मुनि १-६। न (ऐश्वर्यम्) वैभव, संपत्ति, गौरव १-१५१ अज्जा स्त्री. (आज्ञा) आदेश, हुक्म; २-८३ न. (अश्रु) आसु, नेत्र-जल; १-२६॥
अज्जा स्त्री (आर्या) साध्वी; आर्या नामक छन्द; पूज्या; पुं. (अर्कः) सूर्य, आक का पेड, स्वर्ण-सोना:
१-७७) १-१७७; २-७९,८९।
स्त्री (श्वश्रूः) सासू १-७७। सक. (आख्याति) वह कहता है; १-१८७।
अंजली
पु. स्त्री. (अंजलिः) कर-संपुट; नमस्कार रूप (अक्षराणाम्) अक्षरों के, वर्णो के; २-९५ ।
विनय; १-३५। पुं. (अग्निः ) आग; २-१०२।
अजिअं अजिअं वि (अञ्जितम्) आंजा हुआ; १-३०॥ पुं. देशज = (असुराः) दैत्य, दानव; २-१७४ अटइ
सक (अटति) वह भ्रमण करता है; १-१९५/ पुंन (अगुरू:) सुगधित काष्ठ विशेष; १-१०७ अट्टमट्ट पु. (देशज) क्यारी; २-१७४। वि (अगुरू:) जो बड़ा नहीं ऐसा लघु, छोटा; अट्ठी स्त्री (अस्थि:) हड्डी ; २-३२॥ १-७७
अट्ठो पु. (अर्थः) वस्तु, पदार्थ, विषय, वाच्यार्थ, पुं. (अग्रतः) सामने, आगे; १-३७।
मतलब, प्रयोजन; २-३३। पुं (अग्नि) आग; १०२;
अडो
पुं. (अवटः) कूप के पास में पशुओं के पानी पीने अक (राचते) वह सुशोभित होता है, चमकता
के लिये जो गड्ढा आदि किया जाता है वह, है; १-१८७
१-२७१ पुं, (अङ्कोठः) वृक्ष विशेष; १-२००; २-१५५। ।
अड्ढे
वि (अर्धम्) आधा; २-४१। (अंगे) अंग पर; १-७ अंगाई (अंगानि) शरीर के अण न (ऋणम्) ऋण, कर्ज; १-१४१। अव्यवों ने (अथवा को); १-९३।
अण
अ (नबर्थे) 'नहीं' अर्थ में प्रयुक्त होता है; अंगेहिं (अंगैः) शरीर के अवयवों द्वारा; २-१७९।
२-१९० अंगणं न (अंगणम्) आंगन; १-३०।
अणङ्ग
पु. (अनंगः) काम; विषयाभिलाषा; कामदेव; पुं. (अंगारः) जलता हुआ कोयला; जैन साधुओं
२-१७४। के लिये भिक्षा का एक दोष; १-४७
अणण्णय वि (अनन्यक) अभिन्न, अपृथग्भूत; २-१५। न. (इंगुदम्) इंगुद वृक्ष का फल; १-८९।। अणिउँतयं पुं. (अतिमुक्तकम्) अयवन्ता कुमार को; १-२६, वि (अर्ध्यः) पूज्य, पूजनीय; १-१७७
१७८,२०८। न (आश्चर्यम्) विस्मय, चमत्कार; १-५८; २-६७। अणिटुं वि (अनिष्टम्) अप्रीतिकरः द्वेष्यः २-३४। स्त्री (अप्सराः) इन्द्र की एक पटरानी; देवी अणुकूलं . वि. (अनुकूलम्) अप्रतिकूल; अनुकूल; २-२१७ रूपवती स्त्री; १-२०।
अणुसारिणी स्त्री. वि(अनुसारिणी) अनुसरण करने वाली; स्त्री. (अप्सरा।) इन्द्र की एक पटरानी; देवी;
पीछे पीछे चलने वाली; १-६। १-२०२-२१॥
अणसारेण पु. (अनुसारेण) अनुसरण द्वारा; अनुवर्तन से;
प (अनसारेण अनमा ना . 21 न. (आश्चर्यम्) विस्मय, चमत्कार; १-५८,२-६७)
२-१७४।
अग्गओ अग्गी अग्घइ
अकोल्लो
अंगे
अङ्गणं अङ्गारो
अंगुअं अच्चो अच्छअरं अच्छरसा
अच्छरा
अच्छरिअं
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
380 : प्राकृत व्याकरण
अत्तमाणो
अत्ता
अत्थ अत्थक्कं
अत्थिओ अथिरो
अदंसण अइं अदंसणं अद्दो अद्ध अनलो अनिला अन्तग्गयं अन्तप्पाओ अन्तरप्पा अन्तरं
अन्तरेसु अन्तावेई
वक (आवर्तमानः) चक्राकार घूमता हुआ; अप्पणयं परिभ्रमण करता हुआ; १-२७१। पु (आत्मा) आत्मा, जीव, चेतन, निज, स्व; अप्पण्ण २-५१। नपु. (अर्थ) पदार्थ; तात्पर्य; धन; १-७; २-३३ ।। अप्पमत्तो देशज (अकाण्डम्) अकाण्ड, अकस्मात् असमय; २-१७४।
अप्पा वि (अर्थिकः) धनी, धनवान् २-१५९। वि (अस्थिरः) चंचल, चपल, अनित्य, विनश्वर; अप्पाणो १-१८७|
अप्पुल्लं न (अदर्शनम्) नहीं देखना; परोक्ष; २-९७। अमरिसो वि (आर्द्रम्) गीला; भीजा हुआ; १-८२ अमुगो न (अदर्शनम्) नहीं देखना; परोक्ष; २-९७) अमुणन्ती पु. (अब्दः) मेघ, वर्षा; वर्ष, संवत्सर; २-७९ ।
अम्बं वि (अर्धम्) आधा; २-४१।
अम्बिर पु. (अनलः) अग्नि; आग; १-२२८!
अम्बिलं पु. (अनिलः) वायु, पवन; १-२२८।
अम्मो वि (अन्तर्गतम्) अन्दर रहा हुआ; १-६०। पु. (अन्तःपातः) अन्तर्भाव, समावेश; २-७७। अम्ह पु. (अन्तरात्मा) अन्तरात्मा; १-१४। अंतरं न (अन्तरम्) मध्य, भीतर, भेद, विशेष अम्हकेरो फर्क; १-३०।
अम्हकरें (अन्तरेषु) भेदों में; २-१७४ ।
अम्हे स्त्री. (अन्तर्वेदिः) मध्य की वेदिका; अथवा पुं. अम्हारिसो में गंगा और जुमना के बीच का देश; (कुमारपाल अम्हेच्चयं काव्य); १-४।
अम्हेत्थ पु. वि (अन्तश्चारी) बीच में जाने वाला; १-६० ।। अयं अन्तेउरं न. (अन्तःपुरम्) राज-स्त्रियों का निवास अयि गृह १-६०
अप्पिअं न. (अन्तः पुरम्) राज-स्त्रियों का निवास गृह १-६०१ अ (अन्तर्) मध्य में; १-६०॥ अ (अन्तोपरि) आन्तरिक भाग के ऊपर; १-१४ वीसभं निवेसिआणं वि (अन्तर्विश्रम्भ-निवेसि तानाम्) जिनके हृदय में विश्वास है, ऐसे अरणं निवासियों का; १-६०।
अरहन्तो वि (अन्धः ) अन्धा ; २-१७३।
अरहो वि (अन्धः ) अन्धा ; २-१७३। अ. (अन्यतः) अन्य रूप से; २-१६०। अ. (अन्यत्र) अन्य स्थान पर; २-१६१। अरिहन्तो अ (अन्यतः) दूसरे से; दूसरी तर्फ; २-१६०। अरिहा वि (अन्योन्यम्) परस्पर में; आपस में १-१५६ ।। अ (अन्यत्र) दूसरे स्थान पर; २-१६१ ।
अरूणा अ. (अन्यत्र) दूसरे स्थान पर; २-१६१। अरूहन्तो वि (अन्यादृशः) दूसरे के जैसा; १-१४२। अरूहो वि (अन्योन्यम्) परस्पर में; आपस में; १-१५६ अरे वि (आत्मज्ञः) आत्म तत्त्व-को जानने वाला,
अरिहइ अपने आपको जानने वाला; २-८३।
अलचपुरं
वि. (आत्मीयम्) स्वकीय को; निजीय को, २-१५३। वि (आत्मज्ञः) आत्म तत्व को जानने वाला;
आत्म-ज्ञानी २-८३। वि (अप्रमत्तः) अप्रमादी; सावधान उपयोग वाला, १-२३१ अप्पणो अ. (स्वयम्) आप; खुद, निज २-१९७ २०९। पुं. (आत्मा) आत्मा, जीव; २-५१। वि (आत्मीयं) आत्मा में उत्पन्न; २-१६३ पुं. (अमर्षः) असहिष्णुता; २-१०५। सर्व (अमुकः) वह कोई अमुक-ढमुक; १-१७७ वकृ. (अजानन्ती) नहीं जानती हुई; २-१९० न. (आम्रम्) आम्र-फल; १-८४; २-५६। (देशज) न. (आम्र-फलम्) आम्रफल; २-५६। वि (आम्लम्) खट्टा; २-१०६। अ. (आश्चर्ये) आश्चर्य अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है; २-२०८। अम्ह (अस्माकम् ) हमारा; १-३३, २-४६, २-२०४; सर्व (अस्मदीयः) हमारा; २-१४७। सर्व (अस्मदीयम्) हमारा; २-९९७१ सर्व (वयम्) हम; १-४०; वि (अस्मादृशः) हमारे जैसा; १-१४२; २-७४ वि. (अस्मदीयम्) हमारा; २-१४९। सर्व अ. (वयमत्र) हम यहां पर; १-४० सर्व (अयम्) यह; ३-७३। अ (अयि) अरे! हे!; २-२१७/ वि (अर्पितम्) अर्पण किया हुआ; भेंट किया हुआ;१-६३। उप्पिअ वि (अर्पित) अर्पण किया हुआ; १-२६९ ओप्पेइ सक (अर्पयति) वह अर्पण करता है; १-६३। ओप्पिअंवि (अर्पितम्) अर्पण किया हुआ; १-६३। समप्पेतून कृ (समर्पित्वा) अपर्ण करके; २-१६४। न. (अरण्यम्) जंगल; १-६६। पु. (अर्हन्) जिनदेव; जैन-धर्म-उपदेशक; २-१११ पु. (अर्हन्) जिनदेव; जिनसे कुछ भी अज्ञेय नहीं है ऐसे देव; २-१११॥ पु. (अरि) दुश्मन, रिपुः २-११७) पु. (अर्हन्) जिनेन्द्र भगवान; २-१११। वि (अर्हा) योग्य; लायक; २-१०४। पु. (अर्हन्) जिनदेव; २-१११। वि. (अरूणः) लाल; रक्तवर्णीय; १-६। पु. (अर्हन्) जिनदेव; २-१११ । पु. (अर्हन्) जिनदेव २-१११ । अ (अरे) अरेः सम्बोधक अव्यय शब्द; २-२०१ सक (अर्हति) पूजा के योग्य होता है; २-१०४। न (अचलपुरम्) एक गांव का नाम; २-११८।
अन्तेआरी
अन्तेउरं
अन्तो अन्तोवरि अन्तो
अरि
अन्धलो अन्धो अन्नत्तो अनत्थ अन्नदो अन्नन्नं अन्नह अन्नहि अन्नारिसो अन्त्रुन्नं अप्पज्जो
अरिहो
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 381
अहं
अलसी अलाउं अलाऊ अलाबू अलाहि
अलिअं
अल्लं
अल्लं अवऊढो अवक्खन्दो
अवगूढो अवजसो अवज्जं अवडो अवद्दाल अवयवो
अवयास
अवयासो
अवरण्हो अवरि अवरि अवरिल्लो अवसद्दो अवहडं अवहं अवहोआसं
स्त्री (अतसी) तेल वाला तिलहन विशेष; १-२११ । न. (अलाबुम्) तुम्बीफल; १-६६। स्त्री. (अलाबू:) तुम्बी लता; १-६६। स्त्री. (अलाबूः) तुम्बी-लता १-२३७। अ (निवारण-अर्थ) 'निवारण-मनाई करने अर्थ में; २-१८९। अलीअन (अलीकम्) मृषावाद; झूठ; (वि.)। मिथ्या, खोटा; १-१०१।। वि (आर्द्रम्) गीला, भीजा हुआ; १-८२। न (दिनम्) (देशज) दिन, दिवस; २-१७४। वि (अवगूढः) ढंका हुआ; आलिगित; १-६। पुं. (अवस्कन्दः) शिविर, छावनि, सेना का पड़ाव, रिपु-सेना द्वारा नगर का घेरा जाना; २-४ वि (उपगूढः) आलिंगित; २-१६८। पुं. (अपयशः) अपकीर्ति; १-२४५। न (अवद्यम्) पाप; वि निन्दनीय; २-२४ । पु. (अवटः) कूप, कुंआ; १-२७१। न (अपद्वारम्) छोटी खिड़की; गुप्त द्वार; १-२५४। पु. (अवयवः) गात्र, अंश, विभाग, अनुमान प्रयोग का वाक्यांश; १-२४५। सक. (श्लिष्यति) वह आलिंगन करता है; २-१७४। पु. (अवकाशः) मौका, प्रसंग, स्थान, फुरसत, आलिंगन, १-६, १७२। पु. (अपरान्हः) दिन का अन्तिम प्रहर; २-७५ अ. (उपरि) ऊपर; २-१६६। अ (उपरि) ऊपर; १-२६, १०८। वि (उपरितनः) उत्तरीय वस्त्र, चद्दर; २-१६६ पु. (अपशब्दः) खराब वचन; १-१७२। वि (अपहतम्) छीना हुआ; १-२०६। सर्व (उभयम्) दोनों; युगल; २-१३८। अ (उभय बलं; आर्षे उभयो कालं) दोनों समय; २-१३८ अ (अपि) भी; १-४१॥ न (अविनय) अविनय; २-२०३। अ. (सूचनादि-अर्थ) “सूचना, दुःख, संभाषण, अपराध, विस्मय, आनन्द, आदर, भय, खेद, विषाद और पश्चाताप" अर्थ में; २-२०४। (अस्ति ) वह है; २-४५।। नत्थि (नास्ति) वह नहीं है; २-२०६। सिआ (स्यात्) होवे; २-१०७। सन्तो (सन्तः) अस्ति स्वरूप वाले; १-३७। वि (असहाय) सहायता रहित; १-७९। पुं. (असुकः) प्राण; (न.) चित्त, ताप; १-१७७। वि (असुरी) दैत्य-दानव-संबंधी; १-७९। पुं. (अशोक) अशोक वृक्षः २-१६४। नं. (आस्यम्) मुख, मुँह, १-८४।। न (यथाख्यातम्) निर्दोष चारित्र; परिपूर्ण संयमः
१-२४५।
सर्व (अहम्); में; १-४०; अहय
सर्व (अहं) मैं; २-१९९, २०४।। अहरूटुं पुंन (अधरोष्ठम्) नीचे का होठ; १-८४| अहवा अ. (अथवा) अथवा; १-६७; अहह अ. (अहह) आमन्त्रण, खेद, आश्चर्य, दुःख,
आधिक्य, प्रकर्ष आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है;
२-२१७/ अहाजायं वि. (यथाजातम्) नग्न, प्रावरण रहित; १-२४५। अहाह अ. (अहअह) आमन्त्रण, खेद आदि में प्रयुक्त
होता है; २-२१७। अहिआइ अक (अभियाति) सामने आता है; १-४४। अहिज्जो अहिण्णू पुं. (अभिज्ञः) अच्छी तरह से जानने
वाला; १-५६; २-८३। अहिमञ्जू अहिमंजू पु. (अभिमन्यु :) अर्जुन का पुत्र
अभिमन्युः २-२५। अहिरीओ वि. (अर्हीकः) निर्लज्ज, बेशरम; २-१०४। अहिवन्नू पु. (अभिमन्यु:) अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु;
१-२४३) अहो
अ (अहो) अरे; विस्मय, आश्चर्य, खद, शोक-आमन्त्रण, संबोधन, वितर्क, प्रशंसा, असूया, द्वेष आदि अर्थों में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय; १-७, २-२१७)
आ आइरिओ पु. (आचार्यः) गण का नायक; आचार्य १-७३। आउज्ज पु.न. (आतोद्यम्) वाद्य, बाजा; १-१५६। आउण्टणं न (आकुंचनम्) संकोच करना; १-१७७) आऊ स्त्री (दे) (आपः) पानी, जल; २-१७४। आओ वि (आगतः) आया हुआ; १-२६८| आकिइ स्त्री. (आकृतिः) स्वरूप, आकार;१-२०९। आगओ वि (आगतः) आया हुआ;१-२०९; २६८। आगमण्ण पु. वि (आगमज्ञः) शास्त्रो को जानने वाला;
१-५६। आगमिओ पु वि (आगमिकः) शास्त्र-संबंधी, शास्त्र
प्रतिपादित; शास्त्रोक्त वस्तु को ही मानने वाला;
१-१७७ आगरिसो पु. (अकर्षः) ग्रहण, उपादान; खींचाव; १-१७७। आगारो पु. (आकारः) अपवाद; इंगित; चेष्टा विशेष
आकृति; रूप; १-१७७। आढत्तो
वि (आरब्धः) शुरू किया हुआ; प्रारब्ध २-१३८ आढिओ वि (आदृतः) सत्कृतः सम्मानित; १-१४३। आणत्ती स्त्री. (आज्ञप्तिः) आज्ञा; हुक्म; २-९२। आणवणं न (आज्ञापन) आज्ञा, आदेश, फरमाइश; २-९२ आणा स्त्री. (आज्ञा) आज्ञा, हुक्म; २-८३,९२। आणालक्खम्भो पु. (आलानस्तम्भः) जहां हाथी बांधा जाता है
वह स्तम्भ; २९७, ११७/ आणालो.
पु. (आलानः) बंधन; हाथी बांधने की रज्जु; डोरी २-११७
अवि अविणय अव्वो
अस् अस्थि
असहेज्ज असुगो असुरी असोअ अस्सं अहक्खायं
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
382 : प्राकृत व्याकरण
आफंसो आम
आमेलो
आयसो
आयमिओ
आयरिओ
आयरिसो
आयासं आरण्ण आरनालं
आरम्भो
आलक्खिमो
आलिद्धो आली
त इत्तो
अ. (पाद पूरणे प्रयोगार्थम्) पाद-पूर्ति करने में प्रयुक्त होता है २-२१७/ अ (इति) ऐसा; १-४२, ९१ । वि. (इतर) अन्य; १-७। अ. (इतरथा) अन्यथा, नहीं तो, अन्य प्रकार से; २-२१२। अ. (इदानीम्) इस समय; १-२९। अ. (इदानीम्। इस समय; १-२९, २-१३४। सर्व (एक) एक; १-८४।। पु. (इक्षुः) ईख, ऊख; २-१७। पु. (अंगारः) जलता हुआ कोयला; जैन साधुओं की भिक्षा का एक दोष; १-४७; २५४! इंगिअण्णू वि (इंगितज्ञः) इशारे से समझने वाला; २-८३। न. (इंगुदम्) इंगुद वृक्ष का फल; १-८९। स्त्री. (इष्टा) ईट; २-३४।। वि (इष्ट) अभिलषित, प्रियः २-३४। स्त्री. (ऋद्धिः ) वैभव, ऐश्वर्य, संपत्ति; १-१२८ और २-४१। सर्व (इदम्) यह; २-२०४। वि (एतावत्); इतना; २-१५६। अ (इतः) इससे; इस कारण; इस तरफ; २-१६० स्त्री (स्त्री:) महिला; २-१३०। अ. (इतः) इससे; इस कारण; इस तरफ; २-१६० । सक (इन्धः)-(वि उपसर्ग सहित) विज्झाइ (विं यति) वह छेद करता है; २-२८1 (सम् उपसर्ग सहित)-समिज्झाइ (समिध्यति) वह चारों ओर से चमकता है; २-२८। पुन (इन्द्रधनुः) सूर्य की किरणों से मेघों पर पड़ने वाला सप्तरंगी दृश्य विशेष; १-१८७। न (चिह्नम्) निशानी; चिह्नः १-१७७; २-५० सर्व (इदम्) यह; २-१८१, १९८॥ सर्व स्त्री (इयम्) यह; १-४०। अ. (किल) संभावना, निश्चय, हेतु, पादपूर्णार्थ, संदेह आदि अर्थ में; २-१८६। अ. (इव) उपमा, साद्दश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा इन अर्थों में; २-१८२। पु. (ऋषिः) मुनि, साधु, ज्ञानी, महात्मा, भविष्यत्-दर्शी; १-१२८, १४१।। अ. (इह) यहां पर; इस जगह; १-९; २-१६४ अ. (इह) यहां पर, इस जगह; १-२४। अ. (इह) यहां पर; इस जगह; १-२४;२-१६४ अ (इतरथा) अन्यथा, नहीं तो; अन्य प्रकार से; २-११२।
इत्थी
पु. (आस्पर्शः) अल्प स्पर्श; १-४४। अ (अभ्युपगमार्थ) स्वीकार करने अर्थ में; हाँ; इ २-१७७। पु. (आपीडः) फूलों की माला; शिरो-भूषण; इअ १-१०५, २०२, २३४
इअर पु (आदर्शः) दर्पण, बैल आदि गले का भूषण इअरहा विशेष; २-१०५। वि पु (आगमिकः) शास्त्र संबंधी; शास्त्र इआणि प्रतिपादित; १-१७७।
इआणिं पु. (आचार्यः) गण का नायक, आचार्य, १-७३, इक्क २-१०७)
इक्खू पु. (आदर्शः) दर्पण; बैल आदि के गले का भूषण इंगालो विशेष; २-१०५ पु. न. (आकाशं) आकाश, अन्तराल; १-८४। इंगिअज्जो वि (आरण्य) जंगली; १-६६। न (आरनालम्) कांजी, साबूदाना; (देशज) इंगुअं कमल; १-२२८१ पु. (आरम्भः) प्रारम्भ; जीव-हिंसा; पाप-कर्म; इट्टो १-३०।
इड्ढी सक (आलक्षयामः) हम जानते हैं हम पहचानते
इणं वि पु (आश्लिष्ट:) आलिगित: २-४९, ९०। इत्तिअं स्त्री (सखी) सखी, वयस्या; (आली)=पंक्ति श्रेणी; १-८३। हे क (आश्लेष्टुम्) आलिंगन करने के लिये इदो १-२४,२-१६४। हे क (आश्लेष्टुम) आलिंगन करने के लिये: २-१६४ न (आलोचन) देखना; १-७। न (आतोद्यम्) बाजा; वाद्य १-१५६।
इंदहणू वि (आवर्तकः) चक्राकार भ्रमण करने वाला; २-३० न (आवर्तनम्) चक्राकार भ्रमणः २-३०। वक़ (आवर्तमानः) चक्राकार घूमता हुआ; १-२७१ । स्त्री (आवलिः ) पंक्ति , समूह; १-६। पु. (आवसथः) घर, आश्रय, स्थान, मठ; १-१८७। न (आवासकम्) आवश्यक, नित्यकर्त्तव्य; इव १-४३। पु. (आपीड़) फूलों की माला; शिरोभूषण; इसी १-२०२। न. (आस्यम्) मुख, मुंह; २-९२। पुं. (आसारः) वेग से पानी बरसना; १-७६ । इहं स्त्री. (आशी:) आशीर्वाद; २-१७४।
इहयं पु. (अश्वः ) घोड़ा; १-४३।।
इहरा वि (आहतम्) छीना हुआ; चोरी किया हुआ; १-२०६। स्त्री (अभिजातिः) कुलीनता, खानदानी; १-४४ ईसरो वि (? दे) चलित, गत, कुपित, व्याकुल, ईसाल २-१७४।
आलेठुअं
इध
आलेढुं
आलोअण आवज्ज आवत्तओ
इंधं
इम
आवत्तणं आवत्तमाणो आवलि आवसहो आवासयं
आवेडो
आसं
आसारो आसीसा
आसो
आहड
आहिआई आहित्थ
पु ईश्वरः) ईश्वर, परमात्मा; १-८४; २-९२ वि (ईर्ष्यालुः) द्वेषी; २-१५९।
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 383
ईसि
उअ
उअ उइंदा उउंबरो
उऊ
उऊहलो उक्कण्ठा,
उक्कत्तिओ उक्करो उक्का
उद्धं
उक्किट्रं उक्केरो उक्खयं उक्खलं उक्खाय उक्खित्तं
उग्गमा उग्गयं
अ. (ईषत्) अल्प; थोड़ा सा; १-४६; २-१२९ उणा
(उ) अ (उत) विकल्प, वितर्क, विमर्श, प्रश्न उणाइ समुच्चय आदि अर्थ मे; १-१७२; २-१९३, २११ सक (पश्य) देखो; २-२११॥
उण्हीसं पु. (उपेन्द्रः) इन्द्र का छोटा भाई; १-६। उत्तरिज्जं, पु. (उदुम्बरः) गुलर का पेड़; १-२७० ।
उत्तिमा त्रिलिंग, (ऋतुः) ऋतुः दो मास का काल विशेष; उत्थारो १-१३१, १४१, २०९। पु. (उदूखलः) उलुखल; गूगल; १-१७१। उदू उक्कंठा, स्त्री. (उत्कंठा) उत्कण्ठा, उत्सुकता; १-२५,३०।
उद्दामो वि (उत्कर्तितः) कटा हुआ; छिन; २-३०॥ पु. (उत्करः) राशि; ढेर; १-५८। स्त्री. (उल्का) से जो एक प्रकार का अंगार-सा उप्पलं गिरता है; २-७९, ८९।
उप्पाओ वि (उत्कृष्टम्) उत्कृष्ट, उत्तम; १-१२८। उप्पावेइ पुं.(उत्करः) राशि, समूह; १-५८। वि (उत्खातम्) उखाड़ा हुआ; १-६७। उप्पेहड न. (उदूखलम्) गूगल; २-९०।। वि (उत्खातम्) उखाड़ा हुआ; १-६७)
उप्फालइ वि. (उत्क्षिप्तम्) फेंका हुआ; ऊंचा उडाया हुआ; २-१२७।
उब्भंतयं वि. (उद्गता) निकली हुई, उत्पन्न हुई; १-१७१। वि (उद्गतम्) ऊंचा गया हुआ; उत्पन्न हुआ उभं १-१२।
उभयबलं वि (उच्चस्) ऊंचा; उत्तम; उत्कृष्ट; १-१५४।। उभयोकालं पु. (उत्सवः) उत्सव; २-२२।
उंबरो वि (उत्सन्नः) छिन्न-खण्डित; नष्ट; १-११४ उम्मत्तिए पुं. (उक्षा) बैल; सांड; २-१७।
उम्हा पुं. (उत्साहः) उत्साह, द्दढ उद्यम, सामर्थ्य; उरो १-११४; २-२१, ४८
उलूहलं पुं. (इक्षु.) ईख; गन्ना; १-२४७।
उल्लं पुं. (इक्षुः) ईख; गना; १-९५; २-१७)
उल्लविरीइ वि (उत्सुकः) उत्कण्ठित; २-२२। वि. (उत्क्षिप्तम्) फेंका हुआ; ऊंचा उड़ाया हुआ; उल्लावेतिए २-१२७।
उल्लिहणे वि (उज्ज्वल:) निर्मल, स्वच्छ, दीप्त, चमकीला; २-१७४।
उवज्झायो वि (देशज) पसीना वाला; मलिन; बलवान; २-१७४
उवणि वि (ऋजुः) सरल, निष्कपट, सीधा; १-१३१, १४१; २-९८।
अवणीओ वि (उद्योतकराः) प्रकाश करने वाले; १-१७७। पुं. (उष्ट्रः) ऊंट; २-३४।
उवमा पु.न. (उडुः) नक्षत्र, तारा; १-२०२।
उवमासु अ (पुनः) भेद, निश्चय, प्रस्ताव, द्वितीय वार, उवयारेसु पक्षान्तर आदि अर्थ में; १-६५; १७७॥
अ. (पुनः) भेद, निश्चय, प्रस्ताव, द्वितीयवार, १-६५;२-२१७/ अ. (पुनः) भेद, निश्चय, प्रस्ताव, द्वितीयवार, १--६५। पु.न (उष्णीषम्) पगड़ी, मुकुटः; २-७५ । उत्तरीअंन (उत्तरीयम्) चद्दर, दुपट्टा १-२४८ वि (उत्तमः) श्रेष्ठ; १-४६। पुं (उत्साहः) उत्साह; दृढ़ उद्यम; स्थिर प्रयत्न; २-४८१ स्त्री (ऋतुः) ऋतु; दो मास का काल विशेष; १-२०९। वि (उद्दामः) स्वच्छन्द; अव्यवस्थितः प्रचण्ड: प्रखर; १-१७७। न. (ऊर्ध्वम्) ऊपर, ऊंचा; २-५९। न (उत्पलम्) कमल; पद्म; २-७७। पु (उत्पातः) उत्पतन; ऊर्ध्व-गमन; २-७७। सक (उत्पलावयति) वह गोता खिलाता है; कूदाता है; २-१०६। (देशज) वि. (?) उद्भट, आडम्बर वाला; २-१७४। सक. (उत्पाटयति) वह उठाता है; उखेड़ता है; २-१७४। वि (उद्भ्रान्तकम्) भ्रान्ति पैदा करने वाला; भौंचक्का बनाने वाला; २-१६४। न (ऊर्ध्वम्) ऊपर; ऊंचा; २-५९। न (उभय बलम्) दोनों प्रकार का बल; २-१३८ । न(उभय कालम्) दोनों काल; २-१३८ । पु. (उदुम्बरः) गूलर का पेड़; १-२७०। स्त्री. (उन्मत्तिके) हे मदोन्मत्त! (स्त्री) १-१६९ स्त्री. (ऊष्मा) भाप; गरमी; २-७४। पुंन (उरः) वृक्षः स्थल; छाती; १-३२॥ न (उदूखलम्) उलुखल: गूगल; १-१७१। वि. (आद्रम) गीला; भीजा हुआ; १-८२॥ वि (उल्लपनशीलया) बकवादी स्त्री द्वारा; २-१९३। वि (उल्लापयन्त्या) बकवादी स्त्री द्वारा; २-१९३। वि (उल्लेखन) घर्षण किये हुए पर; १-७॥ सक (आद्रीकरोति) वह गीला करता है; १-८२। पु. (उपाध्यायः) उपाध्याय; पाठक; अध्यापक; १-१७३:२-२६| वि (उपनीतः) समीप में लाया हुआ; अर्पित; १-१०१। पु. वि (उपनीतः) समीप में लाया हुआ; अर्पित; १-१०१। स्त्री (उपमा) सादृश्यात्मक दृष्टान्त; १-२३१ स्त्री (उपमासु) उपमाओं में; १-७। पुं. (उपचारेषु) उपचारों में; सेवा-पूजाओं में; भक्ति में; १-१४५।
उच्चअं उच्छओ उच्छण्णा उच्छा उच्छाहो
उच्छु
उच्छुओ उच्छूढं
उज्जलो
उल्लेइ
उज्ज्वल्ल
उज्जू
उजोअगरा
उट्रो
उडू
उण
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
384 : प्राकृत व्याकरण
उवरि उवरिल्लं उववासो
उवसग्गो
उवहं उवहसि
स्त्री वि (एकायाः) एककी; (एकया) एक द्वारा; १-३६। वि (एकः) एक; २-९९, १६५। एक्काए सर्व वि (एकया) एक द्वारा; १-३६। अ. (एकदा) एक बार; कोई दफे; २-१६२। अ देशज (?) शीघ्रः आजकल; २-२१३। एक्कसिअ अ (एकदा) किसी एक समय में; २-१६२ पुं (अयस्कारः) लोहार; १-१६६। वि. (एकत्वम्) एकत्व; एकपना; १-१७७। अ (एकदा) एक समय में,कोई वख्त में; २-१६२। वि (एकः) एक; १-१७७। अ. (इदानीम्) इस समय में; १-७; २-१३४| अ. (इदानीम्) इस समय में; अधुना; २-१३४,
एगत्तं
उवहासं उव्वाडिरीए उव्विग्गो,
उव्वीढं
१८०
उसमें उसहो
ऊ,
ऊआसो
अ (उपरिम्) ऊपर; ऊर्ध्व; १-१०८।
एक्काए वि (उपरितनम्) ऊपर का; ऊर्ध्व-स्थित; २-१६३। पुं. (उपवासः) दिन रात का अनाहारक व्रत विशेष एक्को १-१७३।
एक्को पुं. (उपसर्गः) उपद्रव, बाधा; उपसर्ग-विशेष; एक्कइआ १-२३१।
एक्कसरिअं वि (उभयं) दोनों; २-१३८
एक्कसि, वि. (उपहसितम्) हंसी किया हुआ; हंसाया हुआ; १-१७३।
एक्कारो पुं. (उपहासम्) हंसी, ठट्ठा; २-२०१। स्त्री (उद्विग्नया) घबड़ाई हुई स्त्री द्वारा; २-१९३। एमया उव्विन्नो वि (उद्विग्नः) खिन्न; घबराया हुआ; एगो २-७९।
एपिंह उव्वूढं वि. (उद्वयूढम्) धारण किया हुआ; पहना एत्ताहे हुआ;१-१२०। पुं. (ऋषभम्) प्रथम जिनदेव को; १-२४। । एत्ति पु. (ऋषभः) प्रथम जिनदेव; (वृषभः) बैल; एत्तिअमत्तं सांड; १-१३१; १३३; १४१।
एत्तिलं
एत्थ अ, देशज (?) निन्दा, आक्षेप, विस्मय, सूचना एद्दहं आदि अर्थों में; २-१९९।
एमेव पु. (उपवासः) दिन रात का अनाहारक व्रत एरावओ विशेष; उपवास, १-१७३।
एरावणो पुं. (उपाध्याय) पाठक, अध्यापक; १-१७३।
एरिसी नं. (ऊरू-युगम्) दोनों जंघाएं;१-७)
एरिसो पुं. (उत्सवः) उत्सव; त्यौहार; १-८४, ११४ सक (उच्छ्रसति) वह ऊंचा सांस लेने वाला; एवं २-१४५।
एवमेव वि (उच्छूसति) वह ऊंचा सांस लेता है; (१-१४५) एस वि (उत्सारितः) दूर किया हुआ; २-२१। एसो पु. (उत्सारः) परित्याग; (आसारः) वेग वाली एसा वृष्टि ; १-७६। वि (उत्सिक्तः ) गर्वित, उद्धत; १-११४| वि (उच्छुकः) जहां से तोता उड़ गया हो वह; १-११४,२-२२॥ न देशज (?) (ताम्बूलम्) पान; २-१७४। ओ पुं (उस्रः) किरण; १-४३।
ओआसो पुंन (एतद्गुणाः) ये गुण; १-११।
ओक्खलं सर्व, (एतद्) यह; १-२०९; २-१९८, २०४। ओज्झरो वि (एकादश) ग्यारह; १-२१९, २६२ । वि (एतादृशः) ऐसा; इसके जैसा; १-१४२।। ओज्झाओ वि सर्व (एकः) एक;प्रथम; अकेला; २-९९ १६५। अ (एकताः) एक से; अकेले से; २-१६०। ओप्पिअं अ (एकदा) कोई एक समय में; एक बार में; ओमालं २-१६२। अ. (एकतः) एक से; अकेले से; २-१६०। ओमालयं वि (एकाकी) अकेला; २-१६५।
वि (इयत्; एतावत्) इतना, २-१५७। एत्तिअमेत्तं वि (इयन्मात्रम्) इतना ही; १-८१ वि (इयत्) इतना; २-५७। अ. (अत्र) यहाँ पर; १-४०, ५७;। वि. (इयत्) इतना; २-१७। अ (एवमेव) इसी तरह; इसी प्रकार; १-२७१ पु. (ऐरावतः) इन्द्र का हाथी; १-२०८। पुं. (ऐरावतः) इन्द्र का हाथी; १-१४८, २०८ वि (ईदृशी) इस तरह की; ऐसा-ऐसी; २-१९५ वि (ईदृशः) ऐसा, इस तरह का; १-१०५, १४२ अ (एव) ही; १-२९। अ. (एवम्) ऐसा ही; १-२९; २-१८६। अ (एवमेव) इसी तरह का ही; १-२७१। सर्व (एष) यह; १-३१, ३५। सर्व (एषः) यह; (पु.) २-११६, १९८५ सर्व (स्त्री) (एषा) यह; १-३३, ३५, १५८|
उज्झाओ ऊरूजुअं ऊसवो ऊससइ
एव
ऊससिरो ऊसारिओ ऊसारो
ऊसित्तो ऊसुओ
ऊसरं ऊसो
पुं. (अबवलम्) उलुखल से निकलने के
एअ गुणा
एअं
अ (अधि) संभावना, आमन्त्रण, सबोधन, प्रश्न आदि अर्थो में; १-१६९।
(ओ) (अव, अप, उत), नीचे, दूर अर्थो में; अथवा; आदि अर्थो में १-१७२, २-२०३। पुं. (अवकाशः) मौका; प्रसंग; १-१७२, १७३ न (उदूखलम्) उलुखल; गूगल; १-१७१। पु. (निर्झरः) झरना; पर्वत से निकलने वाला जल प्रवाह; १-९८। पं. (उपाध्यायः) पाठक; उपाध्याय; अध्यापक; १-१७३। वि. (अर्पितम) अर्पण किया हुआ; १-६३ न (अवमाल्यम्) निर्माल्य; देवोच्छिष्ट द्रव्य; १-३८;२-९२। न (अवमाल्यम्) निर्माल्य; देवोच्छिष्ट द्रव्य; १-३८
एआरह एआरिसो
एओ
एकत्तो
एकदा
एकदो एकल्लो
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 385
ओली ओल्लं ओसढं ओसहं ओसिअंतं
ओहलो
कई
कइअवं कइअवं कइद्धओ
कइधओ कइन्दाणं कइमो कइरव कइलासो कइवाहं
कई
कई कउच्छेअयं
कहइ
कउरवो
स्त्री. (आली) पक्ति; श्रेणी, १-८३।
कडणं न (कदनम्) मार डालना; हिंसा, मर्दन, पाप; वि (आर्द्रम्) गीला; भीजा हुआ; १-८२।
आकुलता; १-२१७ न. (ओषधम्) दवा; इलाज; भेषज; १-२२७। कडुएल्लं वि (कट तैलम्) तीखे स्वाद वाला, २-१५५। न (ओषधम्) दवा; भेषज; १-२२७।।
कणयं न (कनकम्) स्वर्ण; सोना; धतूरा; १-२२८। व कृद, (अवसीदंतम्) पीड़ा पाते हुए को; कणवीरो पुं. (करवीरः) वृक्ष-विशेष; कनेर; १-२५३। १-१०१।
कणिआरो पु. (कर्णिकारः) वृक्ष विशेष, कनेर का गाछ; पु. (उदूखलः) उदूखल; गुगल; १-१७१ /
गौशाला का एक भक्त; २-९५।
कणिटयरो वि (कनिष्ठ तरः) छोटे से छोटा; २-१७२। पु. (कवि) कविता करने वाला विद्वान पुरूष; कणेरू स्त्री (करेणुः) हस्तिनी, हथिनी; २-११६। कवि; २-४०
कण्टओ कंटओ पु. (कण्टकः) कांटा; १-३०। वि (कतिपयम्) कतिपय; कई एक; १-२५०।
कण्डं
कंडन (काण्डम्) विभाग; हिस्सा; १-३० न. (कैतवम्) कपट; दम्भ; १-१५१॥
कण्डलिआ स्त्री. (कन्दरिका) गुफा; कन्दरा; २-३८। पुं. (कपिध्वजः) वानर-द्वीप के एक राजा का नाम: कण्डुअइ सक (कण्डूयति) वह खुजलाता है; १-१२१॥ अर्जुन; २-९०।
कण्णिआरो पु. (कर्णिकारः) वृक्ष विशेष; गोशाला का एक पुं. कपिध्वजः) अर्जुन; २-९०।
भक्त; १-१६८,२-९५। पुं (कवीन्द्राणम्) कवीन्द्रों का; १-७।
कण्णेरो पु. (कर्णिकारः) वृक्ष-विशेष; गोशाला का एक वि (कतमः) बहुत में से कौनसा; १-४८।
भक्त; १-१६८ न. (केरवम्) कमल; कुमुद; १-१५२।
कण्हो
वि (कृष्ण:) काला; श्याम; नाम-विशेष; २-७५ : पु. (कैलासः) पर्वत विशेष का नाम; १-५२।
११० वि (कतिपयं) कतिपय; कई एक; १-२५०। कत्तरी स्त्री (कतरी) कतरनी; कैंची २-३०। पु. (कविः) कविता करने वाला विद्वान्। कत्तिआ पु. (कार्तिकः) कार्तिक महीना; कार्तिक सेठ पुं. (कपिः ) बन्दर; १-२३१॥
आदि; २-३०। न. (कौशेयकम्) पेट पर बंधी हुई तलवार; कत्थइ सक. (कथयति) वह कहता है; १-८७) १-१६२।
सक. (कथयति) वह कहता है; १-८७) पु. (कौरवः) कुरू-देश में उत्पन्न हुआ; राजा कत्थ अ. (कुत्र) कहां पर; २-१६१। कौरव; १-१६२।
कत्थइ अ. (क्वचित्) कहीं; किसी जगह; २-१७४। पुं. (कौरव) कुरू देश में उत्पन्न हुआ; १-८।। कन्था स्त्री (कन्था) पुराने वस्त्रों से बनी हुई गुदड़ी; पु. (कालाः) जाति विशेष के पुरूषः १-१६२।
१-१८७) न (कौशलम्) कुशलता; दक्षता; १-६२। कन्दुटुं न (देशज) (?) नील कमल; २-१७४। स्त्री (ककुभ्) दिशा; १-२१।।
कन्दो पुं. (स्कन्दः) कार्तिकेय; षडानन; २-५। न पु. (ककुदम्) बैल के कंधे का कुबड़; सफेद कप्पतरू पुं. (कल्पतरू:) कल्प-वृक्ष; २-८९। छत्र आदि; १-२२५।
कप्फलं न. (कट् फलम्) कायफलः २-७७) न (कास्यम्) कांसी-(धात् विशेष) का पात्र; कमढो पुं. (कमठः) तापस विशेष; १-१९९। १-२९,७०।
कमन्धो पु. (कबन्ध) रूंड; मस्तक हीन शरीर; १-२३१॥ पु. (कांस्यालः) वाद्य-विशेष; २-९२।
कमलं न. (कमलम्) कमल; पद्म; अरविन्द; २-१८२। पं (कास्यिकः) कसेरा; ठठेरा विशेष; १-७०।। कमला स्त्री. (कमला) लक्ष्मी; १-३३। न पुं. (ककुदम्) पर्वत का अग्र भाग चौटी; छत्र कमलाई न (कमलानि) नाना कमल; १-३३। विशेष; २-१७४।
कमलवणं न (कमल-वनम्) कमलों का वन: २-१८३। पुं. (कर्कोटः) सांप की एक जाति विशेष; १-२६॥ कमल-सरा पुन (कमलसरासि) कमलों के तालाब। स्त्री (कक्षा) विभाग, अंश, संशय-कोटि; कमो पु. (क्रमः) पाद; पांव; अनुक्रम; परिपाटी; प्रकोष्ठ: २-१७
मर्यादा; नियम; २-१०६। पं (कक्षः) कांख; जल-प्राय देश: इत्यादि: २-१७। कंपइ कम्पइ अक. (कम्पते) वह कांपता है; १-३०, न (कार्यम्) कार्य प्रयोजन १-१७७; २-२४॥
२-३१॥ न. (कार्ये) काम में, प्रयोजन में; २-१८०। कम्भीरा पुं (कश्मीराः) काश्मीर के लोक; २-६०। पं (कञ्चुकः) वृक्ष विशेष कपड़ा १-२५, ३०।। कम्मसं न (कल्मषम्) पाप; वि. (मलीन) २-७१। न (कञ्चुकम्:) कांचली; १-७॥
कम्हारा पुं (कश्मीराः) काश्मीर के लोक; १-१००,२-६०, कृ (कृत्वा ) करके; २-१४६।
७४। न. (काष्ठम्) काठ; लकड़ी; २-३४; ९०। कयं
कृद, वि (कृतम्) किया हुआ; १-१२६, २०९, २-११४।
कउल कउला कउसलं कउहा कउहं
कंसं
कंसालो कसिओ ककुधं
कंकोडो कच्छा
कच्छो कज्ज कज्जे कञ्चुओ कञ्चुअं
कटुं
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
386 : प्राकृत व्याकरण
कयग्गहो
कयणं
कयण्णू कयन्धो
कयम्बो
कयरो कयलं कयली
करेमि करेसु काहिइ काही किज्जइ करिअ काऊण काउआणं कया करणिज्जं
करणीअं पडिकरइ
पु. (कचग्रहः) केश-ग्रहण; बाल-ग्रहण; १-११७ ।। कवड्डो १८०।
कवालं नं (कदनम्) मार डालना; हिंसा; पाप; मर्दन; आकुलता; १-२१७।
कविलं पुं. वि (कृतज्ञः) उपकार को मानने वाला १-५६। पुं. (कबन्धः) रूंड; मस्तक हीन शरीर; धड़; कव्व-कव्वं १-२३९।
कवइत्तो पु. (कदम्बः) वृक्ष-विशेष; कदम का गांछ; कस १-२२२॥ वि (कतरः) दो में से कौन ? १-२०९। न (कदलम्) कदली-फल; केला; १-१६७।। कसण स्त्री. (कदली) केला का गाछ; १-१६७, २२०।।
कसाओ कर क्रिया (कृ) करना। सक (करोमि) मैं करता हूँ; १-२९; २--१९०। कसिण सक. (करोषि) तू करता है; २-२०१। सक (करिष्यति) वह करेगा; १-५।
कसिणो सक. (करिष्यति) वह करेगा; १-५/ सक. (क्रियते) किया जाता है; १-९७/
कह संबं (कृत्वा ) करके; १-२७।। संबं (कृत्वा) करके; १-२७, २-१४६।
कहं काउआण स. (कृत्वा) करके; १-२७।
कहमवि अ. (कदा) कब; किस समय में; २-२०४। कहावणो वि (करणीयम्) करनी चाहिये; करने योग्य कहि १-२४:२-२०९।
काउँओ वि (करणीयम्) करने योग्य; १-२४८॥ कामिणीण सक (प्रति करोति) वह प्रतिकूल करता है; कायमणी १-२०६।
कालओ कररूहो पु.न. (कररूहम्) नख; १-३४। कालायसं स्त्री (कदली) पताका; हरिण की एक जाति, हाथी का एक आभरण; १-२२०।।
कालो स्त्री. (देशज) (?) श्मशान; मसाण; २-१७४। कासइ पुं. (करीषः) जलाने के लिए सुखाया हुआ गोबर; कासओ कंडा;१-१०१। पं (करीषः) जलाने के लिए सुखाया हुआ गोबर; कासओ। कंडा; १-१०१।
कासा स्त्री. (करेणूः) हस्तिनी; हथिनी; २-११६ । काहलो पुं. (कालकः) कालकाचार्य; १-६७।
काहावणो स्त्री दे. (शालि गोपी) चाँवल की रक्षा करने काहीअ वाली २-२१७।
काहिइ पुं. (कदम्बः) वृक्ष-विशेष; कदम का गाछ; १-३०, किंसुअं २२२।
किआ पुं. (कलापः) समूह; जत्था; १-२३१॥
किई वि (करूणः) दीन, दया-जनक; करूणा का किच्चा पात्र १-२५४। न (कल्यम्) कल; गया हुआ अथवा आगामी किच्ची दिन; २-१८६। न (कल्हारम्) सफेद कमल; २-७६। किच्छं वि (कदर्थित) पीड़ित, हैरान किया हुआ; १-२२४; किज्जइ २-२९।
पुं (कपर्दः) बड़ी कौड़ी; वराटिका; २-३६ । न (कपालम्) खोपड़ी; घट-कर्पर; हड्डी का भिक्षा-पात्र; १-२३१॥ न वि (कपिलम्), पीला रंग जैसे वर्ण वाला: १-२३१॥ न (काव्यम्) कविता, कवित्व, काव्य; २-७९। पु. (काव्यवान्) काव्य वाला; २-१५९। विअसन्ति अक (विकसन्ति) खिलते हैं; २-२०९। विअसिवि (वकसितम्) खिला हुआ; १-९१, २-२५। कसणो पुं वि (कृष्ण:) काला; १-२३६; २-७५ ११०। वि (कषायः) कषैला स्वाद वाला; कषाय रंग वाला; खुशबुदार; १-२६०। वि (कृत्स्नः ) सकल, सब सम्पूर्ण, (कृष्ण:काला) २-७५, १०४। वि (कृष्णः अथवा कृत्स्नः) काला अथवा पूर्ण; २-८९,१०४,११० अ. (कथम्) कैसे? किस तरह ? १-२९, २-१६१ । १९९; २०४ २०८। अ (कथम्) कैसे ? किस तरह ? १-२९, ४१ । अ (कथमपि) किसी भी प्रकार; १-४१। पुं (कार्षापण:) सिक्का विशेष; २-७१, ९३। अ. (कुत्र) कहाँ पर? २-१६१॥ पुं. (कामुकः) महादेव; शिव; १-१७८ । स्त्री (कामिनीनाम्) सुन्दर स्त्रियों के; २-१८४। पुं. (काचमणिः) काँच-रत्न विशेष; १-१८०। पुं. (कालकः) कालकाचार्य; १-६७॥ कालासं न (कालायसम्) लोहे की एक जाति १-२६९। पुं. (कालः) समय; वख्त; १-१७७) अ (कस्यचित्) कोई; १-४३। पुं. (कर्षक) किसाल; १-४३। न (कास्यम्) धातु-विशेष; काँसी; वाद्य-विशेष। वि पु. (कश्यपः) दारू पीने वाला, १-४३। स्त्री, वि (कृशा) दुर्बल स्त्री; १-१२७। वि पु. (कातरः) कायर; डरपोक; १-२१४। पु. (कार्षापणः) सिक्का विशेष; २--७१। सक (कार्षीद्) करो; २-१९१। सक. (करिष्यति) वह करेगा; १-५। न (
किंशुकम्) ढाक; वृक्ष-विशेष; १-२९,८६। स्त्री. (क्रिया) चारित्र; २-१०४।। स्त्री (कृतिः) कृतिः क्रिया; विधान; १-१२८। स्त्री. (कृत्या) क्रिया, काम, कर्म; महामारी का रोग विशेष; १-१२८। स्त्री. (कृत्तिः) कृतिका नक्षत्र; मृग आदि का चमड़ा, भोज-पत्र २-१२,८९॥ न. (कृच्छ्रम्) दुःख, कष्ट; १-१२८। क्रिया (क्रियते) किया जाता है १-९७।
कररूह करली
करसी करिसा
कासं
करीसो
करेणू कलओ कलमगोवी
कलम्बो
कलावो
कलुणो
कल्लं
कल्हारम् कवट्टिओ
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 387
कुड्डं
किडी किणा किणो कित्ती किर
किरायं
कुमरो
किरिआ
कुमुअं
किल
किलन्तं किलम्मद
कुलं
किलिटुं
किलित्त किलिन्न किलिनं किलेसो
किवा किवाणं किविणा किवो
पुं. (किरिः) सूकर-सूअर; १-२५१। सर्व (केन) किस से? किसके द्वारा; ३-६९। कुढारो अ. (प्रश्न-वाचक अर्थ में) क्या; क्यों; २-२१६। कुणति स्त्री (कीर्तिः) यश-कीर्ति; २-३०।
कुणवं अ. (किल) संभावना, निश्चय, हेतु, संशय, कुदो पाद-पूर्ण आदि अर्थों में; १-८८, २-१८६। कुप्पासो न पुं.(किरातम्) अनार्य देश विशेष अथवा भील को; १-१८३। स्त्री (क्रिया) क्रिया, काम, व्यापार, चारित्र आदि; २-१०४। अ. (किल) संभावना, निश्चय, हेतु, संशय, पाद
कुम्पलं पूर्ति आदि अर्थो में २-१८६।।
कुम्भआरो वि (क्लान्तम्) खिन्न; श्रान्त; २-१०६।
कुम्भआरो अक (क्लाम्यति) वह क्लान्त होता है; वह खिन्न
कुम्हाणो होता है; २-१०६। वि (क्लेिष्टम्) क्लेश-जनक; कठिन, विषम; कुलो २-१०६।
कुल्ला वि (कलृप्त) कल्पित; रचित; १-१४५/
कुसुम वि (क्लिन्न) आर्द्र; गीला; १-१४५।
कुसुमपयरो वि (क्लिन्नम्। आर्द्र; गीला; २-१०५, १०६।। पु. (क्लेशः) खेद, थकावट, दु:ख, बाधा; कुसो २-१०६। स्त्री (कृपा) दया, मेहरबानी; १-१२८।। न. (कृपाणम्) खड्ग, तलवार; १-१२८| केढवो पुं. वि. (कृपणः) कृपण; कंजूस; १-४६, १२८। केत्तिअं पुं. (कृप.) कृपाचार्य, नाम विशेष; १-१२८ न. (केसरम्) पुष्प-रेणु; स्वर्ण; छंद-विशेष केरिसो १-१४६
केलं स्त्री (कसरा) खिचड़ी; १-१२८।।
केलासो किसलय न (किसलयम्) कोमल पत्ती, नूतन अंकुर; १-२६९।
केली स्त्री. (कृशा) दुर्बल स्त्री; १-१२७॥
केवट्टो पुं. (कृशानुः) आग; वृक्ष-विशेष तीन की संख्या; केसरं १-१२८। वि (कृषितः) खींचा हुआ; रेखा किया हुआ; जोता केसुअं हुआ; १-१२८। न (किंशुकम) ढाक; वृक्ष-विशेष; १-२९,८६।। वि (कृशः) पतला, दुर्बल; १-१२८। । अ क्रि (क्रीडति) वह खेलता है; १-२०२। न. (कुतुहलम्) कौतुक, परिहास; अपूर्व वस्तु केण देखने की लालसा; १-११७॥
केणावि न (कुंकम) सुगन्धी द्रव्य विशेष; २-१६४। कस्स स्त्री. (कुक्षिः ) कोख; १-३५, २-१७॥ न (कौक्षेयकम्) पेट पर बंधी तलवार; १-१६१; कत्तो २-१७ पुं. (कुब्जक) कूबड़ा, वामन; १-१८१॥
कोउहल्लं पु. (कजरः) हाथी; १-६६। न. (कुड्यम्) भित्ति; भीत; २-७८ ।
कोऊहल
देशज न (?) आश्चर्य,कौतुक, कुतूहल; २-१७४। पु. (कुठारः) कुल्हाडा; फरसा; १-१९९। सक. (कुर्वन्ति) वे करते हैं; १-८५ वि. (कुणपम्) दुर्गन्धी; मृत शरीर; मुर्दा; १-२३१ । अ. (शौर) (कुतः) कहां से? १-३७। कुप्पिसो पुं. (कूसः) कंचुक; कांचली, जनाना कुरती; १-७२। कुमारो पु. (कुमारः) प्रथम वय का बालक; अविवाहित; १-६७। न (कुमुदम्) चन्द्र-विकासी कमल; २-१८१ । पुं. न. (कुड्मलम) कलि, कलिकाः १-२६। २-५२। पुं. (कुम्भकारः) कुम्भकारः १-८) कुम्भारो पुं. (कुम्भकारः) कुम्भकार; १-८। पुं. (कुश्मानः) देश-विशेष; २-७४। न (कुलम्) कुल, वंश, जाति, परिवार; १-३३। पुं. (कुलम्) कुल, वंश जाति, परिवार, १-३३। स्त्री. (कुल्या) छोटी नदी; बनावटी नदी; २-७९ । न (कुसुम) पुष्प-फूल; १-९१, १४५। कुसुमप्पयरो पु. (कुसुम-प्रकरः) पुष्प-समूह २-९७/ पुं (कुशः) तृण-विशेष; राम के एक पुत्र का नाम; १-२६०। अ (ईषत्) थोड़ा सा; २-१२९।
(कैटभः) दैत्य-विशेष; १-१४८, १९६, २४०। केत्तिलं, केद्दहं वि (कियत्) कितना; २-१५७। न. (कैरवम्) कमलः कुमुद; १-१५२। वि (कीदृशः) कैसा, किस तरह का; १०५; १४२। न (कदलम्) कदली-फल; केला; १-१६७। पु. (कैलासः) मेरू-पर्वत, हिमालय की चोटी विशेष; १-१४८, १५२। स्त्री. (कदली) केले का गाछ; १-१६७, २२० । पुं (कैवत्:) धीवर; मच्छी मार; २-३०। न (केसरम्) पुष्प-रेणु; स्वर्ण; छन्द-विशेष; १-१४६) न. (किंशुकम्) ढाक; वृक्ष-विशेष; १-२९, ८६। सर्व (कृ:) कौन; २-१९७) सर्व (किम्) क्या; १-२९। सर्व (किम्) क्या; १-२९, ४१, ४२; २-८९, १९३, १६९, २१४, २०५। सर्व (केन) किसके द्वारा; २-१९१। सर्व पु. (केनापि) किसी के भी द्वारा १-४१ । सर्व (कस्य अथवा कस्मै) किसका अथवा किसके लिये; २-२०४। अ. (कुतः) कहां से; किस तरफ से; २-१६०। कदो अ कहां से; किस तरफ से; २-१६० । नं (कुतूहलम्) कौतुक; परिहास; १-११७, १७१; २-९९) न (कुतूहलम्) कौतुक; अपूर्व वस्तु देखने की
केरवं
किसर
किसरा किसलं
किसा
किसाणू
किसिआ
किंसुअं किसो कीलइ कुऊहलं
कि
कुंकम
कुच्छी कुच्छेअयं
कत्तो
कुज्जय कुंजरो कुड्ड
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
388 : प्राकृत व्याकरण
खर
कोच्छेअयं
कोंचो
कोट्रिम
कोण्ड कोण्ढा कोत्थुहो कोन्तो कोप्परं
कोमुई
कोसम्बी कोसिओ कोहण्डी
कोहलं कोहलिए
खुज्जो
कोहली
कौरवा क्खण्ड
लालसा; १-१२७। न (कोक्षयकम्) पेट पर बंधी हुई तलवार; खलिअ १-१६१।
खलिअं पु. (कोंचः) पक्षि-विशेष; इस नाम का अनार्य खल्लीडो देश; १-१५९। न (कुट्टिमम्) आंगण विशेष; झोपड़ा विशेष: रत्नों खसिअं की खान; १-११६।
खसिआ न (कुण्डम्) कुंडा; जलाशय-विशेष; १-२०२। वि. (कुण्ठः ) मंद; मूर्ख, १-११६ ।
खाओ पुं. (कौस्तुभः) मणि-विशेष; १-१५९।
खाइरं पुं. (कुन्तः) भाला; हथियार-विशेष; १-११६। खाणू न पुं. (कर्पूरम्) कोहनी, नदी का किनारा; तट; १-१२४|
खासिअं स्त्री. (कौमुदी) शरद् ऋतु की पूर्णिमा; चांदनी; खित्तं १-१५९।
खीण स्त्री (कौशाम्बी) नगरी विशेष; १-१५९। पुं. (कौशिकः) कौशिक नामक तापस; १-१५९। खीरं स्त्री (कूष्माण्डी) कोहले का गाछ; १-१२४; खीरीओ २-७३।
खीलओ न (कुतूहलम्) कौतुक, परिहास; १-१७१। खु स्त्री (हे कुतूहलिके!) हे कौतुक करने वाली स्त्री; १-१७१। स्त्री. (कूष्माण्डी) कोहले का गाछ; १-१२४, खुड्डिओ २-७३। पुं. (कौरवा); कुरू देश के रहने वाले; १-१।। खुड्डओ नं (खण्ड) खण्ड, टुकड़ा; २-१७॥
खेडओ वि (खर्चितः) व्याप्त; मण्डित; विभूषित; १-१९३। खेडओ वि (खादिरम्) खेर के वृक्ष से सम्बंधित; १-६७। खेडिओ पुं. (क्षयः) क्षय, प्रलय, विनाश; २-३। न. (खड्गः ) तलवार; १-३४। पुं. (खड्गः ) तलवार; १-३४, २०२; २-७७)
खोडओ स्त्री (खट्वा) खाट, पलंग, चारपाई १-१९५ । पुं. (क्षण:) काल का भाग विशेष; बहुत थोड़ा समय २-२०॥ नं (खण्डम्) टुकड़ा; भाग; २-९७।।
गईए वि. पु. (खण्डितः) टूटा हुआ, १-५३।
गउआ पुं. (स्थाणुः) ढूंठ; शिवजी का नाम; २-९९। पुं. (क्षत्रियाणाम्) क्षत्रियों का; २-१८५।
गउओ पुं. (स्कन्दः) कार्तिकेयः षडानन; २-५॥ पु. (स्कान्धावारः) छावनी; सेना का पड़ाव; गउडो शिविर; २-४। पुं. (स्कन्धः) पिण्ड; पुद्गलों का समूह; कन्धा; गउरव पेड़ का धड़; २-४।
गउरि पुं.न. (कर्परम्) खोपड़ी; घट का टुकड़ा; भिक्षा गओ पात्र; १-१८१। स्त्री (क्षमा) क्रोध का अभाव; क्षमा; २-१८। पु. (स्तम्भः) खम्भा; थम्भाः १-१८७,२-८,८९। गज्जन्ति
वि (खर) निष्ठुर; रूखा; कठोर; २-१८६ । वि (स्खलित) खिसका हुआ; २-७७। वि (स्खलितम्) खिसका हुआ; २-८९। पु वि (खल्लवाट:) जिसके सिर पर बाल न हों; गंजा; चंदला; १-७४। न (कसितम्) रोग-विशेष; खांसी; १-१८१॥ वि (खचितः) व्याप्त, जटित; मण्डित; विभूषित; १-१९३। वि (ख्यातः) प्रसिद्ध; (विख्यात्) २-९०। वि (खादिरम्) खेर के वृक्ष से संबंधित १-६७। पु. (स्थाणु) ढूंठ रूप वृक्ष; शिवजी का नाम: २-७.९९ न (कासितम्) खांसी रोग विशेष; १-१८१ । न. (क्षेत्रम्) खेत; उपजाऊ जमीन; २-१२७॥ वि (क्षीणम्) क्षय-प्राप्त; नष्ट, विच्छिन्न, दुर्बल कृश; २-३। न (क्षीरम्) दूध; पानी; २-१७। पुं. (क्षीरोद): समुद्र-विशेष क्षीर-सागर; २-१८२। पु. (कीलकः) खीला, खूट; खूटी; १-१८॥ अ. (खलु) निश्चय, वितर्क, संदेह, संभावना, आश्चर्य आदि अर्थो में; २-१९८। वि (कुब्जः) कूबड़ा, वामन; १-१८१। वि पु. (खण्डितः) त्रुटित, खडित, विच्छिन्न; १-५३। वि (क्षुल्लक:) लघु, छोटा, नीच, अधम, दुष्ट। न (खे) आकाश में; गगन में; १-१८७। पुं. (श्वेटक:) विष, जहर: २-६। वि (स्फेटिकः) नाराक, नाश-कर्ता; २-६। पुं वि (स्फेटिकः) नाशवाला; नश्वर; २-६) न (खें लम्) क्रीड़ा, खेल, तमाशा, मजाक; २-१७४। पु. (स्फोटकः) फोड़ा, फुन्सी; २-६। पु. (क्ष्वोटकः) नख से चर्म का निष्पीडन; २-६
(ग) स्त्री (गतिः) गति, गमन, चाल; २-१९५ । स्त्री (गत्याः ) गति से, गति का; २-१८४ । स्त्री. (गवया) मादा, रोझ; रोझड़ी; पशु-विशेष; १-५४, १५८। पु. (गवयः) रोझ; पशु-विशेष; १-५४, १५ ८; २-१७४। पु (गौड़) गौड़ देश का निवासी; बंगाल का पूर्वी भाग; १-१६२; २०२। न (गौरवम्) अभिमान, गौरव, प्रभाव; १-१६३। स्त्री (गौरि) स्त्री; शिवजी की पत्नी; १-१६३ । पुं. (गजः) हाथी; गज-सुकमाल मुनि; १-१७७ । वि (गद्गदम्) आनन्द अथवा दुःख से अव्यक्त कथन; १-२१९। अक (गर्जन्ति) वे गर्जना करते है:१-१८७।
खइओ खरं खओ खग्गं
खेड्डे
खग्गो
खट्टा
खणो
गई
खण्डं खण्डिओ खण्णू खत्तिआणं खन्दो खन्धावारो
खन्धो
खप्पर
गग्गरं
खमा
खम्भो
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 389
गड्डहो गड्डा
गिट्ठी
गण्ठी
गद्दहो गन्धउडिं गन्धो
गब्भिणो गम् गच्छइ गओ गयं अवगयं
गुंछं
आओ आगओ उग्गय गमिर
गुत्तो
गम्भीरिअं गय गयणं गयणे गयणम्मि गया
पु. (गर्दभः) गदहा; गधा; २-३७॥
गामिल्लिआ वि (ग्रामेयकाः) गांव के निवासी; २-१६३। स्त्री. (गर्ता) गड्ढा १-३५, २-३५।
गारवं (गौरवम्) अभिमान, गौरव, प्रभाव; १-१६३। पुं. (गर्तः) गड्ढा (गलगंड) रोग-विशेष; १--३५, गावी गावीओ स्त्री (गाव:) गाय; २-१७४। २-३५/
स्त्री (गृष्टिः) एक बार ब्याई हुई गाय आदि १-२६॥ स्त्री (ग्रन्थिः) गांठ; जोड़; बाँस आदि की गिरह; गिण्ठी स्त्री. (गृष्टिः) एक बार ब्याई हुई गाय आदि १.२६; पर्व; १-३५।
१२८1 पुं. (गर्दभः) गदहा; गधा; २-३७।
गिद्धी स्त्री. (गृद्धिः) आसक्ति, लम्पटता; १-१२८॥ स्त्री. (गन्ध पुटीम्) गन्ध की फैलावट; १-८।। गिम्हो पुं. (ग्रीष्मः) गरमी का समय; ग्रीष्म ऋतु; २-७४। पुं. (गन्धः) गन्ध, नाक से ग्रहण करने योग्यः गिरा
स्त्री (गौः) वाणी: १-१६। १-१७७
गिलाइ
अक (ग्लायति) वह म्लान होता है; वह जम्हाई वि (गर्भितः) गर्भ-युक्त: १-२०८।
लेता है; २-१०६। सक. (गच्छ) जाना; समझना: जानना। गिलाणं न वि (ग्लानम्) उदासीन, बीमार; थका हुआ: सक. (गच्छति) वह जाता है; १-१८७।
२-१०६। वि (गतः) गया हुआ; समझा हुआ; १-२०९।
वि (गुह्यम्) गोपनीय; छिपाने योग्य; २-२६; १२४ । वि (गतः) गया हुआ; समझा हुआ; १-९७।
न (गुच्छम्) गुच्छा; १-२६ । वि. (अपगतम्) सरका हुआ; हटा हुआ; बीता गुडा पु. (गुडः) गुड़, लाल शक्कर; १-२०२। हुआ; १-१७२।
गुणा पुं न (गुणाः) गुण, पर्याय, स्वभाव,धर्म; १-११, वि (आगतः) आया हुआ; १-२६८)
३४| वि (आगतः) आया हुआ १-२०९; २६८। गुणाई पुं नं (गुणाः) गुण, पर्याय, स्वभाव; १-३४ । वि (उद्गतम्) उन्नति को प्राप्त हुआ; १-१२। गुत्तो वि (गुप्तः) गुप्त; प्रच्छन्न; छिपा हुआ; २-७७) वि (गमनशील) जाने वाला; जाने के स्वभाव गुप्
अक. (गुप्तः) गुप्त; प्रकाशित होना चमकना। वाला; २-१४५।
गोवइ उभय (गोपयति) वह प्रकाशित होता है वह न (गाम्भीर्यम्) गम्भीरता; गम्भीरपना; २-१०७।
चमकता है; १-२३१॥ वि (गतः) गया हुआ; बीता हुआ; १-९७।
वि. (गुप्तः) गुप्त; प्रच्छन्न; छिपा हुआ; २-७७। न (गगनम्) गगनः आकाशः २-१६४।
न (गुल्फम्) पैर की गांठ; फीली; २-९०। न (गगने) आकाश में १-८॥
सक (गुफति) वह गूंथता है; वह गांठता है: न (गगन में) आकाश में; २-१६४।
१-२३६। स्त्री (गदा) लोहे का मुद्गर या लाठी; अस्त्र गुम्फइ सक. (गुम्फति) वह गूंथता है; वह गांठता है; विशेष; १-१७७,१८०।
१-२३६। पुं. (गरिमा) एक प्रकार की लब्धि विशेष; गुरूता; गुय्हं वि (गुह्यम्) गोपनीय; छिपाने योग्य; २-१२४ । गौरव; १-३५।
पुं. (गुरू:) गुरू; पूज्य; बड़ा; १-१०९। स्त्री. (गर्हा) निन्दा, घृणा; जुगुप्सा; २-१०४ । गुरूल्लावा पुं. (गुरूल्लापाः) गुरू की उक्तियाँ; १-८४॥ स्त्री (गुर्वी) बड़ी; ज्येष्ठा; महती; १-१०७। गुलो पु. (गुड़) गुड़; लाल शक्कर; १-२०२॥ वि (गरूक:) गुरूबड़ा; महानः १-१०९। गहइ सक (गोहति) वह छिपाता है। वह ढांकता है; पुं. (गरूड़ः) गरूड, पक्षी विशेष; १-२०२।
१-२३६। स्त्री (गुर्वी) बड़ी; ज्येष्ठा; महती; २-११३। । गुहा
स्त्री (गुहा) गुफा; कन्दरा; १-४२। स्त्री. (गडूची:) लता विशेष; गिलोय; १-१०७; गूढोअर न (गूढोदरम्) पेट के आन्तरिक भाग में रहा हुआ; १२४।
१-६। पु. (गृहपतिः) घर का स्वामी; ग्रहपति, चन्द्रमा; गेझं वि (गाह्यम्) ग्रहण करने योग्य; १-७८। २-१४४
सक (ग्रह्णाति) वह ग्रहण करता है; २-२१७। वि (गर्ववान्) अहंकारी; घमंडी; २-१५९।
गेन्दु
न. (कन्दुकम्) गेंद; १-५७, १८२। पुं. (ग्रहः) नक्षत्र-विशेष; २-७९।
गोआवरी स्त्री. (गोदावरी) एक नदी का नाम; २-१७४। वि. (गृहीतम्) ग्रहण किया हुआ; स्वीकृत; गोट्ठी स्त्री (गोष्ठी:) मण्डली; समान वय वालों की १-१०१।
सभा; २-७७। वि (गभीरम्) गहरा; गम्भीर; १-१०१। गोणो स्त्री (गौः) गाय; २-१७४। न. (गांभीर्यम्) गहराई; गम्भीरपना; २-१०७। गोरिहरं गोरीहरं न (गौरी-गृहम्) सुन्दर स्त्री का घर; स्त्री. (गोः) गाय; १-१५८।
पीअरं; १-४। पुं. स्त्री. (गौः) गाय; बैल; १-१५८।
गोला स्त्री. (गोदा) नाम विशेष; २-१९४।
गुप्फ
गुभइ
गरिमा
गरिहा
गरूओ गरूलो गरूवी गलोई
गहवइ
गेण्हइ
गव्विरो गहो गहिअं
गहिरं गहीरिअं गाई गाओ
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
390: प्राकृत व्याकरण
दगोले
ग्यामि
गेह
गेह
घेत्तूण गहिअं
गेज्झं
घट्ठा
घो
घडइ
घडो
घणो
घण्टा
घयं
घरो
घर - सामी
घायणो
घिणा
घुसिणं
घेत्तूणं
घोसइ
च
चइत्तं
चइता
चउ
चउग्गुणो
चउट्ठो
चउत्थो
उत्थी
चउदसी
चउद्दह चउव्वारो
चक्क चक्काओ
चक्खू
चक्खूई
चच्चरं
चच्चिक्कं
चडू चन्दओ
स्त्री. (हे गोदे!) नाम विशेष (देशज); २ - १९४ । वि. (गामि) जाने वाला; २- १५ ।
सक. (गृह्णाति) वह ग्रहण करता है; २- २१७ । सक. (गृहाण्) ग्रहण करो; लेओ; २- १९७ । स. कृ. (गृहित्वा ) ग्रहण करके; २- १४६ । वि. भू. कृ. (गृहीतम् ) ग्रहण किया हुआ; १-१०१ | वि. (ग्राह्यम्) ग्रहण करने के योग्य; १-७८॥ संगहिआ वि. (संगहीताः) संग्रह किये हुए; इकट्ठे किये हुए; २- १९८।
(घ)
वि. (घृष्टाः) घिसे हुए; २ - १७४ ।
वि. (घृष्टः) घिसा हुआ; १ - १२६ ।
सक. (घटति) वह करता है वह बनाता है चविडा
१-१९५।
पुं. (घट) घड़ा, कुम्भः कलश १ १९५॥
पुं (घनः) मेघ, बादल १ १७२, १८७१ स्त्री. (घण्टा ) घन्टा काँस्य निर्मित वाद्य विशेष
१-१९५८
न. (घृतम्) घी, घृत १ - १२६ ।
पु. (गृह) घर; मकान; २ - १४४ |
पुं. (गृह - स्वामी) घर का मालिक; २-१४४ । पुं. दे. (गायन) गायक, गवैया; २ - १७४ । स्त्री. (घृणा) घृणा, नफरत १-१२८। न. (घुसृणम्) कुंकुम; केशर; १ - १२८ । सं.कृ. (गृहीत्वा ) ग्रहण करके २-१४६ । सक. (घोषयति) वह घोषणा करता है; वह धोखता है; १ - २६०१
(च) अ. (च) और १२४ ॥
न. (चैत्यम्) चिता पर बना हुआ स्मारक; १-१५१;
२-१३।
पु. ( चैत्र:) चैत्र मास १ - १५२।
-
वि. (चतुर) चार; संख्या - विशेष; १ - १७१ ।
वि. (चतुर्गुणः) चार गुणा; १ - १७१ ।
वि. (चतुर्थः) चौथा २ - ३३ ।
वि (चतुर्थ) चौथा १-१७१, २-३३॥ वि. (चतुर्थी) चौथी १ - १७१ । वि. (चतुर्दशी) चौदश तिथि ; १ - १७१ । वि. ( चतुर्दश) चौदह ; १-१७१; २१९ । वि. (चतुर्वार:) चार बार १-१७१।
न. (चक्रम् ) गाड़ी का पहिया; २-७९ । पु. ( चक्रवाकः) चकवा; पक्षी - विशेष; १-८१ पुं. नं. (चक्षुः ) आँख १-२३।
पुं. न. ( चक्षूंषि) आंखे ; १ - ३३ ।
न. ( चत्वरम्) चौहटा; चौरास्ता, चौक; २- १२ देशज वि. मंडित १-७४ ।
पुं (चटुः) खुशामद, प्रिय वचन १६७।
पुं. (चन्द्रः ) चन्द्रमा; २ - १६४ ।
चन्दणं
चन्द्रिमा
चन्दो
चन्द्रो
चमरा
चम्मं
चरण
चलणो
चलणे
चविला
चेवड़ा
चाण्डा
चाउरन्तं
चाडू
चामरो
चिअ
चिइच्छइ
चिंच
चिन्ह
चिन्तिअं
चिन्ता
चिन्धं
चिलाओ
चिहुरो ची-वन्दणं
चुअइ
चुच्छं
चुण्णो
चेअ
चेइअं
चेत्तो
चोग्गुणो चोत्थो
न. (चन्दनम् ) चन्दन का पेड़, चन्दन की लकड़ी
२- १८२।
स्त्री. (चन्द्रिका) चन्द्र की प्रभा;
ज्योत्सना;
१-१८५।
चंदो पुं. (चन्द्रः) चन्द्रमा, चांद; १-३०, २-८०,
१६४ ।
पुं. (चन्द्र) चन्द्रमा, चांद; २-८० ।
पुं. (चामर: ) चंवर १-६०
न. (चर्म) चमड़ा १-३२।
न. (चरण) संयम, चारित्र, व्रत नियम १-२५४
पुं. (चरण) पांव, पेर १-२५४१
पुं. (चरणे) पैर में; २- १९० /
स्त्री (चपेटा) तमाचा, थप्पड़ १-१४६ १९८३ स्त्री (चपेटा) तमाचा, थप्पड़ १ - १९८६
स्त्री (चपेटा) तमाचा, थप्पड़, १ - १४६ /
स्त्री (चामुण्डा) चामुण्डा देवी; १ - १७८ । वि. न. ( चतुरन्तम्) चार सीमाओं वाला; १ - ४४| पुं. न. (चाटुः) खुशामद; प्रिय वाक्य: १-६७। पु. ( चामर: ) चंवर; १-६७ |
अ. (एव) ही निश्चय वाचक अव्यय २-९९: १८४, १८७१
सक (चिकित्सति) वह शंका करता है; २-२१॥ सक. (मण्डय्) विभूषित करना; अलंकृत करना;
२- १२९ ।
न. (चिह्नम् ) निशानी; लांछन चिन्ह; २-५०१ वि. (चिंतितम् ) जिसकी चिन्ता की गई हो वह
२-१९०१
स्त्री (चिन्ता) विचार, शोक, १-८५ ॥
न (चिह्नम् ) निशानी, लांछन, चिह्न २ ५०
पुं (किरात) भील; एक जंगली जाति ११८३
२५४।
पुं (चिकुरः) केश, बाल; १-९८६ ।
न. (चैत्य-वन्दनम् ) स्मारक विशेष की वन्दना;
१-१५१।
अक (रचोतते) वह झरता है, वह टपकता है;
२-७७।
वि. (तुच्छम् ) अल्प, थोड़ा, हल्का, हीन, हीन, जघन्य नगण्य; १ - २०४ ।
न. ( चूर्णम्) पीसा हुआ बारीक पदार्थ; चूर्ण;
२-३४।
पुं. न. (चूर्ण) पीसा हुआ बारीक पदार्थ; चूर्ण; १-८४।
अ. (एव) ही; १-७; २ - ९९, १८४, २०९ ।
न. (चैत्यम्) चिता पर बनाया हुआ स्मारक विशेष;
१-१५१२-१७७]
पुं. (चैत्र) चैत्र मास १ - १५२ ।
वि. (चतुर्गुणः) चार गुण वाला; १-१७१।
वि. (चतुर्थ) चौथा १-१७१ ।
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 391
चोत्थी चोद्दसी चोद्दह चोरिअं चोरिआ चोरो
चोव्वारो च्च च्चि च्चेअ
छइअं
छउमं
छट्ठी
छटो
छड्डइ
छणो छत्तवण्णो छत्तिवण्णो छद्दी
वि स्त्री (चतुर्थी) चौथी; तिथि-विशेष; १-१७१। छिछि दे. अ. (धिक्-धिक्) छी-छी; धिक्-धिक्; स्त्री (चतुर्दशी) चौदहवीं; तिथि-विशेष; १-१७१।
धिक्कार; २-१७४। वि (चतुर्दश) चौदह; संख्या-विशेष; १-१७१। छिछई दे स्त्री. (पुरचली) असती स्त्री कुलटा, छिनाल; न (चौर्यम्) चौर-कर्म; अपहरण; १-३५; २-१०७/
२-१७४। स्त्री (चौरिका) चोरी, अपहरण, १-३५/ छित्तं वि (क्षिप्तम्) फेंका हुआ; २-२०४। पुं. (चोरः) तस्कर; दूसरे का धन आदि चुराने अच्छिन वि. (अच्छिन) नहीं कटा हुआ; २-१९८। वाला चोर; १-१७७।
छिरा
स्त्री (शिरा) नस, नाड़ी, रग; १-२६६। पुं वि (चतुर्दारः) चार दरवाजा वाला; १-१७१। छिहा स्त्री (स्पृहा) स्पृहा, अभिलाषा; १-१२८; २-२३। अ. (एव) ही; २-८४।।
छी
न स्त्री. (क्षुतम्) छींक; १-११२; २-१७॥ अ. (एव) ही; १-८; २-९९; १८४, १९५, १९७) छीणं वि (क्षीणम्) क्षय-प्राप्त; कश, दुर्बल; २-३। अ. (एव) ही निश्चय वाचक अव्यय; २-९९, छीरं न. (क्षीरम्) दूध, जल; २-१७।। १८४।
छुच्छं
वि (तुच्छम्) अल्प, थोड़ा, हीन, जघन्य, नगण्य;
१-२०४। वि. (स्थगितम्) आवृत्त, आच्छादित, तिरोहित; छुण्णा वि (क्षुण्णः) चूर चूर किया हुआ; विनाशित; २-१७
अभ्यस्त; २-१७/ न (छद्म) छल, बहाना, कपट, शठता, माया; छुत्तो दे वि (छुप्तः) स्पृष्ट; छुआ हुआ; २-१३८। २-११२।
पुं. (क्षुरः) छुरा, नाई का उस्तरा, पशु का नख, स्त्री. (षष्ठी) छट्ठी; संबंध-सूचक विभक्ति;
बाण; २-१७। १-२६५/
छुहां स्त्री. (क्षुध्) भूख; (तुघा)-अमृत; १-१७, २६५; पुं. वि. (षष्ठः) छट्ठा; १-२६५; २-७७॥
२-१७ सक (मुंचति) वह छोड़ता है; वह वमन करता छूढो वि (क्षिप्त) क्षिप्त; फेंका हुआ; प्रेरित; २-९२, है; २-३६।
१२७) पु. (क्षण) उत्सव; २-२०।।
वि. (क्षिप्तम्) फेंका हुआ; प्रेरित; २-१९। पुं. (सप्तवर्णः) वृक्ष विशेष; १-४९।
पुं. (छेद) नाश; १-७। (सप्तवर्णः) १-४९; २६५।
छेत्तं न (क्षेत्रम्) आकाश, खेत, देश, आदि; २-१७ दे स्त्री (छर्दिः) शैय्या; बिछौना, २-३६। न. (छन्दस्) कविता; पद्य; १-३३।
अ (यदि) यदि, अगर; १-४०,२-२०४। पु. (छन्दस्) कविता; पद्य; १-३३।
जइमा अ सर्व (यदि इमा) जिस समय में यह; १-४०। पुं. (षटपदः) भ्रमर, भंवरा; १-२६५; २-७७ जइह अ सर्व (यदि अहम्) जिस समय में मैं; यदि स्त्री (क्षमा) क्षमा; पृथिवी; २-१८,१०१।
मैं; १-४० स्त्री (शमी) वृक्ष-विशेष; ऐसा वृक्ष जिसके जई पु. (यतिः) यति, साधु, जितेन्द्रिय, संयमी; आन्तरिक भाग में आग हो; १-२६५ ।
१-१७७। न. (छद्म) छल; बहाना, कपट; २-११२। जऊँणा स्त्री. (यमुना) नदी-विशेष यमुना; १-१७८। पुं. (षण्मुख) स्कन्द; कार्तिकेय; १-२५ । जऊँणायड जऊँणयई न (यमुना-तटम्) यमुना का किनारा; पुं. (षण्मुख) स्कन्द; १-२६५।
१-४| न (क्षतम्) व्रण, घाव, (वि.) पीड़ित, व्रणित; जओ अ. (यतः) क्योंकि, कारण कि; १-२०९। २-१७
जक्खा पुं. (यक्षाः) व्यन्तर देवों की एक जाति; २-८९, वि. (छायावान्) छाया वाला, कान्ति-युक्त;
९०) २-१५९।
जज्जो वि (जय्यः) जो जीता जा सके वह; जिस पर स्त्री. (छाया) छाया; कान्ति, प्रतिबिम्ब, परछाई;
विजय प्राप्त की जा सके; २-२४॥ १-२४९,२-२०३।
जट्टो पु. (जर्तः) देश-विदेश; उस देश का निवासी; पुं. (क्षार) खारा, सज्जीखार, गुड़; भस्म, मात्सर्य;
२-३०। २-१७/
जडालो वि (जटिलो-जटा युक्तः) जटा युक्त; लम्बे स्त्री. (छागी) बकरी; १-१९१।
लम्बे केशधारी; २-१५९। पुं. (छागः) बकरा; १-१९१।
जडिलो वि (जटिलः) जटावाला; जटाधारी; १-१९४। पुं. (शावः) बालक, शिशु; १-२६५।
जढरं जढलं न (जठरम्) पेट, उदर; १-२५४ । स्त्री. (छाया) कान्ति, प्रतिबिम्ब, परछाई; १-२४९।। जणा
पुं. (जनाः) अनेक मनुष्य; २-११४। दे. (छुप्तः) स्पृष्ट; छूआ हुआ; २-१३८। जणब्भहिआ वि (जनाभ्यघिकाः) मनुष्य से भी अधिक;
२-२०४।
जइ
छन्दो छप्पओ छमा छमी
छंमुहो
छम्मुहो
छयं
छाइल्ला
छाया
छारो
छाली
छालो
छावो छाही छिक्को
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
392 : प्राकृत व्याकरण
जण्हू
जलं
जुम्म
(जहनः) भरत-वंशीय एक राजा;२-७५ जिण्ह जत्तो अ. (यतः) क्योकि, कारण कि; जिससे, जहां से; २-१६०
जित्ति जत्थ अ (यत्र) जहां पर, जिसमें; २-१६१॥ जिब्भा जदो अ (यतः) क्योंकि, कारण कि, जिससे, जहां से; जीअं २-१६०।
जीआ सर्व (यत्) जो; १-२४, ४२; २-१८४; २०६। जम
(जमो) पुं. (यमः) यमराज; लोक-पाल, देव जीव -विशेष; १-२४५।
जिअइ जमलं
न. (यमलम्) जोड़ा; युगल; २-१७३। जम्पि-आवसाणे न (जल्पितावसाने) कह चुकने पर; कथन जीविअं समाप्ति पर; १-९१।
जीहा जम्पिरो वि. (जल्पन-शीलः) बोलने वाला, भाषक, जुई
वाचाल; २-१४५। जम्मणं न. (जन्म) जन्म, उत्पत्ति, उत्पात; २-१७४ । जुगुच्छइ जम्मो न (जन्म) जन्म १-११, ३२; २-६१। जर स्त्री (जरा) बुढ़ापा; १-१०३।
जुग्गं न (जल) पानी; १-२३।
जुण्ण जलेण न (जलेन) पानी से; २-१५५। जलचरो जलयरो पु. (जल-चरः) जल निवासी जन्तु; जुम्ह
१-१७७१ जलहरो
पुं (जल-धरः) मेघ, बादल; २-१९८। जुवइ-अणो जवणिज्ज जणीअं वि. (यापनीयम्) गमन करवाने योग्य, जूरिहिइ व्यवस्था करावाने योग्य; १-२४८।
जूरन्तीए जसा पुं. (यशस्) यश, कीर्ति १-११, ३२, २४५। जह
अ. (यथा) जैसे, १-६७; २-२०४।
अं. (यत्र) जहां पर, जिसमें २-१६१ । जहा
अ. (यथा) जैसे; १-६७। जहि
अ. (यत्र) जहां पर; २-१६१। जहिटिलो पु. (युधिष्ठिरः) पाण्डु राजा का ज्येष्ठ पुत्र; जेण
यधिष्ठिर; १-९६, १०७। जहुटिलो पुं. (युधिष्ठिरः) युधिष्ठिर; १-९६, १०७, २४५।। जेत्तिअं जा
अ. (यावत्) जब तक; १-२७१। जाइ क्रिया (याति) वह जाता है; १-२४५/ जाण न. (ज्ञान) ज्ञान; २-८३।।
जं जामइल्लो पुं (यामवान्) पहरेदार; सिपाही विशेष: २-१५९। जामाउओ पुं. (जामातृकः) जामाता; लड़की का पति १-१३१ । जारिसो
वि. (याद्दशः) जैसा, जिस तरह का; १-१४२।। जोओ जारो
पुं (जार) व्यभिचारी; उपपति; १-१७७। जोण्हा जाला अ. (यदा) जिस समय में; १-२६९।
जोण्हालो जाव
अ. (यावत्) जब तक; १-११, २७१ । निज्जअ वि (निर्जित) जीत लिया है; २-१६४।
जोव्वणं जिअइ जिअउ क्रिया (जीवति) वह जीवित रहे; १-१०१ जिअन्तस्स वि (जीवन्तस्य) जीवित होते हुए का ३-१८०।।
झओ जिण-धम्मो पु. (जिन-धर्मः) तीर्थकर द्वारा प्ररूपित धर्म; झडिलो १-१८७।
झत्ति जिण्णे वि (जीर्णे) पचा हुआ होने पर; पुराना होने पर;
१-१०२।
पुं (जिष्णुः) जीतने वाला; विजयी; विष्णु, सूर्य, इन्द्र; २-७५। वि. (यावत्) जितना; २-१५६। स्त्री. (
जिह्वा) जीभ, रसना; २-५७। न (जीवितम्) जिन्दगी; जीवन; १-२७१: २-२०४। स्त्री. (ज्या) धनुष की डोर; पृथिवी, माता, २-११५। जिअइ अक (जीवति) वह जीता है; १-१०१। जिअइ अक. (जीवति), (जीवति) वह जीता है; वह जीता रहे; १-१०१। न (जीवितम्) जिन्दगी, जीवन; १-२७१। स्त्री. (जिहा) जीभ, रसना; १-९२; २-५७। स्त्री (द्युतिः) कान्ति, तेज, प्रकाश; चमक; २-२४। सक (जुगुप्सति) वह घृणा करता है, वह निन्दा करता है; २-२१॥ न. (युग्मम्) युगल; द्वन्द्व, उभय; २-६२, ७८ । वि (जीर्ण) जूना, पुराना; १-१०२। न (युग्मम्) युगल, दोनों, उभय, २-६२। सर्व (युष्मद्) तू अथवा तुम वाचक सर्वनाम; १-२४६। पुं (युवति-जनः) जवान स्त्री-पुरूष; १-४। अक (खेंत्ष्यति) वह खेद करेगी; २-२०४। कृद (खेदन्त्याः ) खेद करती हुई का; २-१९३ न (जूरणे-खेदे) झूरना करने पर; खेद प्रकट करने पर; २-१९३।
अ. (पाद-पूरणार्थम्) छंद की पूर्ति अर्थ में प्रयोग किया जाने वाला अव्यय; २-२१७१ वि (ज्येष्ठतरः) अपेक्षाकृत अधिक बढ़ा; २-१७२। सर्व पु. (येन) जिससे, जिसके द्वारा; १-३६ ; २-१८३॥ जेत्तिलं, जेद्दहं वि (यावत्) जितना; २-१५७/ सर्व स्त्री (या) जो (स्त्री); १-२७१। सर्व न (यत्) जो; १-२४, ४२; २-१८४, २०६। सर्व पुं. (यम्) जिसको; ३-३३। अ. (यत्) क्योंकि; कारण कि; सम्बंध-सूचक अव्यय; १-२४। पुं. (द्योतः) प्रकाश-शील; २-२४। स्त्री (ज्योत्स्नावान्) चन्द्र प्रकाश; २-७५। वि (ज्योत्स्नावान्) चांदनी के प्रकाश सहित; २-१५९। न (योवनम्) जवानी; तारूण्य १-१५९;२-९८१
जूरणे
जह
जेट्टयरो
...
पु (ध्वजः) ध्वजा; पताका; २-२७) वि (जटिल:) जटा वाला; तापस; १-१९४। अ. (झटिति) झट से ऐसा; २-४२॥ दे न (ताम्बूलम्) पान; २-१७४। न पु. (ध्यानम्) ध्यान, चिन्ता, विचार,
झाणं
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
झिज्जइ
झीणं
झुणी
(ट)
टक्को टगरो
टसरो
टूवरो
(ठ)
ठड्डो
ठम्भिज्जइ
ठम्भो ठविओ
ठीणं
डक्को
परिशिष्ट-भाग : 393 उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरणः; २-२६।
णच्चा कृद (ज्ञात्वा) जान करके; २-१५। क्रिया (क्षीयते) वह क्षीण होता है; वह कृश होता णडं न (नडम्) तृण-विशेष; भीतर से पोला, बाण है; २-३
के आकार का घास; १-२०२। वि (क्षीणम्) क्षय-प्राप्त; विनष्ट; विच्छिन्न, कश; णडालं न. (ललाटम्) ललाटः भाल, कपाल; १-४७, २-३।
२५७;२-१२३। स्त्री (ध्वनिः) ध्वनि, आवाज; १-५२। णरो पुं. (नरः) मनुष्य; पुरूष; १-२२९।
णलं
न (नडम्) तृण-विशेष; १-२०२। पुं. (टक्कः ) देश-विशेष; १-१९५।
णलाडं
न (ललाटम्) भाल, कपाल; २-१२३। पु. (तगरः) वृक्ष-विशेष; तगर का वृक्ष; १-२०५। णवर अ (केवलम्) केवल, फक्त; २-१८७, १९८५
(त्रसरः) टसर; एक प्रकार का सूत; १-२०५। णवरं अ (केवलम्) केवल, फक्त; २-१९८, २०४। पुं. (तूवरः) जिसके दाढ़ी-मूंछ न उगी हो, ऐसा णवरि अ. (आनन्तर्य-अर्थ) अनन्तर, बाद में; २-१८८ चपरासी; १-२०५।
णवि अ (वैपरीत्य-अर्थो) विपरीतता-सूचक,
निषेधार्थक; २-१७८।। वि (स्तब्ध) हक्का बक्का; कुण्ठित, जड़; णाइ
अ (नत्रर्थे) नहीं अर्थक अव्यय; २-१९०। २-३९।
णाडी स्त्री (नाडी) नाड़ी, नस, सिरा; १-२०२। कि (स्तम्भ्यते) उससे हक्का बक्का हुआ जाता णाण न (ज्ञानम्) ज्ञान, बोध, चैतन्य, बुद्धि; २-४२, है;२-९।
८३। पुं. (स्तम्भ) खम्भा; थम्भा; स्तम्भ; २-९।
णामुक्कसिअं दे. (कार्यम्) कार्य, काम, काज; २-१७४ । ठाविओ वि (स्थापितः) स्थापना किया हुआ;
स्त्री (नार्यः) नारियां; १-८॥ १-६७|
णाली स्त्री (नाडी) नाडी, रस, सिरा; १-२०२। न (स्त्यानं) आलस्य; प्रतिध्वनि; १-७४; २-३३।। णाहलो पुं. (लाहलः) म्लेच्छ पुरूषों की एक जाति विशेष:
१-२५६॥ वि. (दष्टः) डसा हुआ; दाँत से काटा हुआ; २.-२,
णिअम्ब पु. (नितम्ब) कमर के नीचे का पार्श्ववर्ती भाग:
१-४।
णिच्चलो पुं (दण्डः ) जीव-हिंसा; लाठी, सजा; १-२१७॥
वि (निश्चल:) स्थिर, द्दढ़, अचल; २-७७।
णिडालं न (ललाटम) ललाट; १-४७,२५७ वि (दष्टः) जिसको दांत से काटा गया हो वह;
णिल्लज्ज १-२१७/
वि (निर्लज्ज) लज्जा रहित; २-२०२। वि (दग्धः) जलाया हुआ; १-२१७।
णिव्वडन्ति अक (भवन्ति) होते हैं; २-१८७। पुं. (दर्भः) तृण-विशेष; कुश; १-२१७॥
णीसहेहिं वि (निःसहै :) मन्दों से; अशक्तों से; २-१७९ । पुं. (दम्भः ) माया, कपट; १-२१७
णुमज्जइ अक. (निमज्जति) वह डूबता है; १-९४ । पुं. (दरः) भय, डर; १-२१७।
णुमण्णो वि. (निमग्नः) डूबा हुआ; १-९४, १७४।
णेअं सक. (दंशति) वह काटता है; १-२१८।
कृ. (ज्ञेयम्) जानने योग्य; २-१९३। न (दशनम्) दंश, काटना; १-२१७॥
न (नीडम्) घाँसला; २-९९/ सक (दहति) वह जलाता है; १-२१८।
पहाविओ पु. (नापितः) नाई, हज्जाम; १-२३०॥ पु. (दाहः) ताप, जलन, गरमी, रोग-विशेष; १-२१७/
अ. (तत्) वाक्य-आरंभक अव्यय विशेष; १-२४, पुं. (डिम्भः) बालक, बच्चा, शिशु; १-२०२।
४१; २-९९, १७६, १८४, १९८। स्त्री. (दोला) झूला, हिंडोला; १-२०७।
पु. सर्व (तम् उसको; १-७। पु. (दोहदः) गर्भिणी स्त्री की अभिलाषा विशेष; त.
न सर्व (तत्) वह, उसको; १-२४, ४१; २-९९, १-२१७।
१७६, १८४, १९८।
स्त्री सर्व (ताम्) उसको; २-१९८। अ. (न) नहीं; मत; २-१८०, १९८।
सर्व (तेन) उससे १-३३; २-१८३, १८६, २०४। अ (अव-धारण-अर्थ) निश्चय वाचक अर्थ में: ताए सर्व स्त्री (तस्यै) उसके लिये; २-१९३। २-१८४।
सर्व (ते) वे; १-२६९; २-१८४। स्त्री. (नदी) नदी, जल-धारा; १-२२९।
तइअं
वि (तृतीयम्) तीसरा; १-१०१। वि (नतः) नमा हुआ; प्रणत; झुका हुआ; २-१८०।
तओ अ. (ततः) अब, इसके बाद १-२०९।
तंसं न (लांगलम्) हल; कृषि-औजार १-२५६।
वि न (त्रयस्त्रम्) त्रिकोण; तीन कोने वाला; न (लांगूलम्) पूंछ; १-२५६।
१-२६; २-९२।
८९।
डण्डो
डट्ठो
ड्डढो डब्भो डम्भो डरो डसइ डसण डहइ डाहा
णेड्ड
.
AI.
डिम्भा डोला डोहलो
.
स
णइ
गई णओ णङ्गल णगुलं
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
394 : प्राकृत व्याकरण
तक्करो तग्गुणा तच्चं तठं तडी तणं तणुवी
तत्तिल्ले तत्ता
तत्तो
तत्थ
अ. (तावत्) तब तक, १-११, २७१; २-१९६। अ. (इति) इस प्रकार; १-४२। पुं. (त्रिदश) देवता; २-१७६। पु. (त्रिदशेश) देवेन्द्र; १-१०॥ न वि (तीक्ष्णम्) तेज, तीखा, धारदार; २-८२। दे स्त्री (?) कमल की रज; २-१७४। न (तिग्मम्) तीक्ष्ण, तेज २-६२। न वि (तीक्ष्णम्) तीखा, तेज; २-७५, ८२। (नक्षत्र विशेष अर्थ भी है)। वि (तावत्) उतना; २-१५६। पुं. (तित्तिरः) तीतर, पक्षी विशेष; १-९०। पु. (तीर्थकरः) तीर्थकर, जिन; १-१७७। न (तीर्थम्) तीर्थ; साधु-साध्वी-श्रावकश्राविकाओं का समूह; १-८४,१०४; २-७२,९०॥ पु. (तीर्थकरः) तीर्थकर, जिन; १-१७७, १८० वि (तृप्तम्) संतुष्ट; १-१२८॥ न (तिग्मम्) तीक्ष्ण, तेज २-६२। (आर्ष) पुं. (तिर्यक्) पशु-पक्षी आदि तिर्यच प्राणी; २-१४३। पु (तिर्यक् ) पशु-पक्षी आदि तिर्यंच प्राणी; २-१४३। संख्या वाचक वि (त्रिंशत) तीस; संख्या विशेष; १-८,९२। सर्व (त्वया, तुभ्यम्, तव) तुझ से, तेरे लिये, तेरा;
तत्थं तदो
तद्दिअस तन्तु तवइ तविओ तत्तो
पुं. (तस्करः) चोर; २-४।
ताव पुं. (तद्गुणाः) वे गुण; १-११॥
ति . न. (तथ्यम्) सत्य, सच्चाई; २-२१ ।
तिअस वि. (त्रस्तम्) डरा हुआ; २-१३६।
तिअसीसो स्त्री. (तटी) किनारा; १-२०२।
तिक्खं न (तृणम्) तिनका, घास; १-१२६।
तिड्गिच्छि स्त्री (तन्वी) ईषत् प्राग्-भारा नामक पृथ्वी; तिग्गं २-११३।
तिण्हं दे वि (तत्परे) तत्पर; २-२०३। अ. (ततः) उससे, उस कारण से; बाद में; तित्तिअं २-१६०
तित्तिरो वि (तृप्तः) गरम किया हुआ २-१०५॥ तित्थगरो अ. (तत्र) वहां, उसमें; २-१६१।
तित्थं वि (त्रस्तम्) डरा हुआ; २-१३६। अ. (ततः) उससे, उस कारण से, बाद में; तित्थयरो २-१६०॥
तिप्पं दे. न (तदिवस) प्रतिदिन, हर रोज; २-१७४।। तिम्म पुं. (तन्तु) सूत, धागा; १-२३८।
तिरिआ अक. (तपति) वह गरम होता है; १-२३१॥ वि (तृप्तः) तपा हुआ; २-१०५।
तिरिच्छि वि (तृप्तः) तपा हुआ; गरम हुआ; २-१०५। अ (तद्) वाक्य के प्रारंभिक अर्थ में प्रयोग किया तीसा जाने वाला अव्यय; २-१७६ । पुं. (तमः) अन्धकार; १-११; ३२॥ न. (ताम्रम्) तांबा, धातु-विशेष; १-८४; २-५६। दे वि (ताम्र) ताम्र-वर्ण वाला; २-५६। पु. (ताम्र) वर्ण-विशेष; २-४५ । न (ताम्बूलम्) पान; १-१२४ । अ. (तदानीम्) उस समय में; १-१०१। अक (शक्) समर्थ होना। सक (तर) तैरना। हे कृ (तरितुम्) तैरने के लिये; २-१९८| पुं. (तरणिः ) सूर्य; १-३१। वि. (तरल) चंचल; १-७।
तुण्हिओ पु. (तरू) वृक्ष; १-१७७।
तुण्हिओ तलवोण्टं न (ताल वृन्तम्) ताड़ का पंखा; १-६७। तुप्पं न. (तडागम्) तालाब, सरोवर; १-२०३। तुम्हारिसो वि. (तप्तः) गरम किया हुआ; २-१०५/ पुं. (स्तवः) स्तुति, स्तवन, गुण-कीर्तन; २-४६। तुम्हेञ्चयं अ (तथा) वैसे, उसी प्रकार से; १-६७, १७१। तूणं अ (तथा) वैसे, उसी प्रकार से; १-१६७/ अ. (तत्र) वहां, उसमें; २-१६१। अ. (तदा); तब तक; १-२७१। पुं. (तातः) पिता, तात; १-२०९।
तेआलीसा पुं. (नाम रस) कमल, पद्य, ताम्र , स्वर्ण, धतूरे तेओ का पौधा; १-६। वि. (तादृशः) वैसा, उस तरह का; १-१४२।। तेत्ति न. (ताल वृन्तम्) ताड़ का पंखा; १-६७; २-३१।। तेत्ति न. (ताल वृन्तम्) ताड़ का पंखा; १-६७;। तेत्तीसा
तमो
तम्बिर तम्बो तम्बोलं तयाणिं
तुमे
तरिङ
तुच्छं
तरणी
तरल तरू तलवेण्टं तलायं तविओ तवो
सर्व (त्वम्, त्वाम्) (त्वत्, तव, तयति) तू, तुझको, तुझ से, तेरा, २-१८०। सर्व (तव, तुभ्यम्) तुम्हारा; तेरे लिये; २-१९३/ सर्व (त्वाम्, त्वया, तव, तुभ्यम्, त्वयि) तुझको, तुझसे, तेरा, तेरे लिये; २-२०४। वि. (तुच्छम्) अल्प, हल्का, हीन, जघन्य, नगण्य; १-२०४। वि (तूष्णीकः) मौन रहा हुआ; २-९९। तुण्हिक्क वि (तूष्णीकः) मौन रहा हुआ; २-९९। न. (घृतम्) घी, घृत; १-२००। वि. (युष्माद्दशः) आपके जैसा, तुम्हारे जैसा; १-१४२, २४६। वि (योष्माकम्) आपका, तुम्हारा; २-१४९। (तूणम्) तीर रखने का पदार्थ विशेष, भाथा, तरकस; १-१२५/ न. (तूर्यम्) वाद्य, बाजा; २-६३। न. (तीर्थम्) पवित्र स्थान; १-१०४; २-७२। वि (त्रिचत्वारिंशत्) तिरियालीस; २-१७४ । पु. (तेजः) तेज, कान्ति, प्रकाश; १-३२। (तेन) उससे; १-३३; २-१८३, १८६, २०४। वि. (तावत्) उतना; २-१५७। तेत्तिलं वि (तावत्) उतना; २-१५७। संख्या वाचक विशेष (त्रयस्त्रिंशत्) तेतीस;
तह
तहा तहि
तूर
ता
तूह
ताआ तामरस
तेण
तारिसो तालवेण्टं तालवोण्टं
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 395
तेद्दहं तेरह तेलोक्कं
तेल्ल
तेल्ल
ते लोक्कं तेवण्णा तेवीसा
१-१६५। वि (तावत्) उतना; २-१५७/
दइच्चो संख्या वाचक वि. (त्रयोदश) तेरह; १-१६५, २६२। दइन्नं न (त्रैलोक्यम्) तीन जगत्, स्वर्ग, मर्त्य और
ग, मत्य और दइवअं पाताल लोक १-१४८; २-९७१
दइवज्जो न (तैल) तेल; १-२००। तेल्लंन (तैलम्) तेल; २-९८,१५५/
दइवण्णू न (त्रैलोक्यम्) तीन जगत; २-९७।
दइवं वि (त्रिपंचाशत्) त्रेपन; २-१७४।
दंसणं वि (त्रयोविंशतिः) तेबीस; १ १६५। न (तूणं) इशुधि, भाथा, तरकस; १-१२४। । दक्खिणो न (तूणीरम्) शरधि, भाथा, तरकस; १-१२४। न (तुण्डम्) मुख, मुँह; १-११६।
दच्छो अ. (इति) समाप्ति, एवम्, इस प्रकार; १-४२ १;
दर्छ २-१९३।
तोणं
तोणीरं तोण्ड
त्ति
(थ)
दड्डो
थण थणहरो थम्भिज्जइ
थम्भो थवो थाणुणो थिण्णं
थी
दयाल
पुं. (दैत्यः) दानव, असूर; १-१५१। न (दैन्यम्) दीनता, गरीबपन; १-१५१ । न. (दैवतम्) देवतापन; १-१५१। पु (दैवज्ञः) ज्योतिषी; ज्योतिष शास्त्र का विद्वान; २-८३॥ पुं. (दैवज्ञः) ज्योतिषी; २-८३। नं. (दैवम्) दैव, भाग्य; १-१५३; २-९९। नं (दर्शनम्) सम्यक्त्व दर्शन, श्रद्धा. १-२६ ; २-१०५। वि पु (दक्षिणः) चतुर अथवा दाहिना, दक्षिण दिशा में रहा हुआ; १-४५; २-७२। वि. (दक्षः) निपुण, चतुर; २-१७। . हे. कृ. (दृष्टुम्) देखने के लिये; २-१४६। वि (दष्टः) जिसको दांत से काटा गया हो वह; १-२१७१ वि (दग्धः ) जला हुआ; १-२१७, २-४०। पुं. (दनुज वधः) दैत्य-घात, दानव-हत्या; १-२६७। पुं. (दनुजेन्द्रः) राक्षसों का राजा; १-६। पुं. (दनुज वध) दैत्य-घात, दानव-हत्या १-२६७। दण्डो पुं. (दण्डः) दांडी, लकड़ी; १-७। पुं वि (दर्पवान्) घमंडी, अहंकारी; २-१५९। पुं. (दर्भः) तृण-विशेष; डाभ, कुश; १-२१७! पुं. (दम्भः ) माया, कपट; १-२१७। पु. (दयालु :) दया वाला, करूण, दयालु; १-१७७,१८०२-१५९। अ. (ईषदर्थ च) ईषत्, थोड़ा, अल्प; १-२१७; २-२२५। पुं. (दरः) भय डर; १-२१७) वि (हप्त) गर्विष्ठ, अभिमानी; १-१४४; २-९६। वि. (हप्तः) अभिमानी, अहंकारी; १-१४४। न. (दर्शनम्) अवलोकन; श्रद्धा; २-१०५/ सक (दलयन्ति) वे टुकड़े करते हैं; २-२०४। वि (दलितः) विकसित; १-२१७/ अक (दरिद्राति) दरिद्र होता है; १-२५४। वि (दरिद्रः) निर्धन, दीन; १-२५४ । पुं. (दवाग्निः ) जंगल की अग्नि; १-६७। पु. (दबः) जंगल की अग्नि; वन की अग्नि; १-१७७। वि. (दश) दश; १-२१९, २६०, २६२। पुं. (दशन) दांत; १-१४६। न (दशन) दांत से काटना; १-२१७/
(दराबलः) भगवान बुद्ध; १-२६२। (दशमुखः) रावण; १-२६२।
(दशरथः) एक राजा; १-२६२। पुं. (दशाह :) समुद्र विजय आदि दस यादव; २-८५/ वि (दग्धः) जला हुआ; २-४०।
थीणं
दरो
पुं (स्तन) थन, कुच, पयोधर; १-८४। पुं. (स्तन-भरः) स्तन का बोझ; १-१८७। दणुअवहो अक. (स्तम्भ्यते) उससे स्तम्भ समान हुआ जाता
दणुइन्द है; २-९।
दणुवहो पुं. (स्तम्भः) खम्भा, थम्भा; २-८-९।
दण्ड, पुं. (स्तवः) स्तुति, स्तवन, गुण-कीर्तन; २-४६। दप्पुल्लो पुं (स्थाणोः) महादेव का, शिव का; २-७। दब्भो वि. (स्त्यानम्) कठिन, जमा हुआ;१-७४; २-९९। दम्भो स्त्री (स्त्री) स्त्री, महिला, नारी; २-१३०। वि. (स्त्यानम्) कठिन, जमा हुआ; १-७४, २-३३, ९९। स्त्री (स्तुतिः) स्तवन, गुण-कीर्तन; २-४५। वि. (स्थूलः) मोटा; २-९९। वि (स्तावकः) स्तुति करने वाला; १-७५ । दरिअ अ (कुत्सायां निपातः) घृणा योग्य अथवा निंदा दरिओ योग्य के लिये प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय; दरिसणं २-२००।
दलन्ति पुं. (स्तेनः) चोर, तस्कर; १-१४७॥
दलिओ स्त्री (स्थूणा) खम्भा, खूटी; १-१२५। दलिद्दाइ पु. (स्थूल भद्रः) स्थूल भद्र नामक जेन महा दलिद्दो अणगार; १-२५५।
दवग्गी पुं. (स्तेनः) चोर, तस्कर; १-१४७।
दवो न (स्थैर्यम्) स्थिरता; २-१०७। वि. (स्थविर) वृद्ध, स्थविर; १-१६६; २-८९। दस वि (स्तोकम्) अल्प, थोड़ा; २-१२५।
दसण वि (स्तोकम्) अल्प, थोड़ा;२-४५, १२५ । दसणं वि. (स्तोकम्) अल्प, थोड़ा; २-१२५ । दसबलो स्त्री. (स्थूणा) खम्भा, खूटी; १-१२५। दसमुहो न. (स्त्रोत्रम्) स्तुति, स्तवन; २-४५।
दसरहो वि. (स्थूलः) मोटा; २-९९)
दसारो वि. (स्थूलम्) मोटा; १-१२४, २१५/ वि. (स्तोकम्) अल्प, थोड़ा; २-१२५/ दड्डो
थुल्लो थुवओ
थूणो थूणा थूल-भद्दो
थेणो थेरि थेरो थेवं थोअं थोक्कं थोणा थोत्तं
64.64.4..
थोरो
थोरं
थोवं
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
396 : प्राकृत व्याकरण
दह
दहबलो
दहमुहो दहरहो
हि
दहिसरो
दहीसरो
दहो
दा
दाघो दाडिमं
दाढा
दाणवो
दाणिं
दामं
दारं
दालिद्द
दामिमं
दावग्गी
दासो
दाहिणो
दाहो
दिओ
दिअर
दिअरो
दिग्घो
दिट्ठ
दिट्टि
दिट्टिआ
दिट्ठिक्क दिएणं
दिप्पइ
दिरओ
दिवसो
दिवहो
दिसा
दिहा
दिही
वि (दश) दश; १ - २६२ /
पुं. (दश बलः) भगवान् बुद्ध; १-२६२ ।
पु. ( दश मुखः) रावण; १-२६२ ।
पु. (दशरथ) एक राजा १-२६२। न. ( दधि) दही; २-५॥
पु (दधीश्वरः) दही का स्वामी; १-५१
पु (दधीश्वरः) दही का स्वामी; १-५॥
पु (द्रहः) बड़ा, जलाशय, झील, सरोवर, हृदः
२-८०१२०१
(धातु) देने अर्थ में २- १०६
देमि सक (दर्द) में देता हूँ: २ १०६ । देइ स ( ददते) वह देता है २ २०६। दत्तो वि (दत्त) दिया हुआ; १-४६। दिण्णं वि (दत्तम् ) दिया हुआ; १-४६ २-४३१ पु (दाह) ताप, जलन्, दहन, गरमी १-२६४१ नं. (दाडिमम्) फल- विशेष, अनार, १ २०२ ॥
स्त्री (दृष्ट्रा) बड़ा दांत, दांत विशेष २ १३९ /
पु (दानव) दैत्य, असुर, दनुज १-१७७१
*
दाणि अ (इदानीम्:) इस समय, अभी; १ - २९। न (दामः) माला; रस्सी विशेष; १-३२ ।
न (द्वारं) दरवाजा; १-७९; २- ७९, ११२ । न (दारिद्रयम्) निर्धनता, दीनता; १ - २५४ ।
न (दाडिमम् ) फल- विशेष अनार १ २०२ । पु ( दवाग्निः) जंगल की अग्नि १६७।
पु (दासः) नौकर; २ - २०६ ।
वि (दक्षिण) चतुर अथवा दाहिना; दक्षिण दिशा में रहा हुआ; १४५ २७२॥
पु (दाह) ताप, जलन, गरमी, रोग विशेष:
१-२१७।
पु (द्विजः) ब्राह्मण आदि १ - ९४; २- ७९ । पु (देवर) पति का छोटा भाई २ २०५ पु (देवर) पति का छोटा भाई १-४६ ।
(वि) (दीर्घ) ऊंचा, लंबा; २ - ९१ । वि (दृष्टम् ) देखा हुआ; १- ४२, १२८ । स्त्री. (दृष्टिः) नजर, देखने रूप संज्ञा; १- १२८
१-३४।
अ ( दिष्टया) मंगल सूचक अव्यय विशेष;
२- १०४।
वि (इष्टेक) देखा है एक १-८४ ।
वि (दत्तम्) दिया हुआ; १४६ २-४३॥ अंक. (दीच्यते) वह चमकता है, तेज होता है,
जलता है १-२२३।
पु. ( द्विरदः) हस्ती, हाथी, दो दांत वाला; १-१४। पु ( दिवसः) दिन; १ - २६३ ।
पु (दिवस) दिन, दिवस; १ - २६३ ।
स्त्री. (दिक) दिशा; १ - १९ ।
अ (द्विधा) दो प्रकार १- ९७|
स्त्री (घृतिः) धैर्य, धीरज १- २०९; २- १३१ ।
दीप्
दीहरं दीहाउसो
दीहाउ
दीहो
दीहं
दुअल्लं
दुआई
दुआरं
दुइओ
दुइओ
दुठणो
दुऊलं
दुक्कडं
दुक्करं
दुक्करयारय
दुक्खं
दुक्खओ
दुक्खिआ
दुगुल्लं
दुग्गाएवी
दुग्गावी
दुद्ध
दुमत्तो
दुरवगाहं
दुरूत्तरं
दुरेहो दुवणं
(धातु) प्रकाशित होना।
दिप्पई अक ( दीप्यते) चमकता है, तेज होता है;
१- २२३।
'प्र' उपसर्ग के साथ
पलीवेइ अक (प्रदीप्यते) वह विशेष रूप से चमकता है; १ - २२१ ।
पलिविअं वि (प्रदीपितम् ) विशेष रूप से चमक वाला ; १-१०१ ।
पलितं वि (प्रदीप्तम्) ज्वलितः प्रज्वलित १-२२१४ वि (दीर्घम् ) लम्बा, २-१७१४
वि पु (दीर्घायु) लम्बी उम्र वाला; चिरंजीवी
१-२०१
विपु (दीर्घायुः) बड़ी आयु वाला; १२०॥ वि (दीर्घ) लम्बा, आयतः २ ९९। वि (दीर्घम् ) लम्बा २-१७१ ।
न (दुकलम् ) वस्त्र महिन कपड़ा : १ ११९ ।
पु (द्विजाति) ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य १ ९४
२-७९।
म द्वारम्) दरवाजा १-७९।
वि (द्वितीय) दूसरा १-९४, १०१।
दुइअ वि. (द्वितीय) दूसरा १-१०१।
वि ( द्विगुणः) दुगुना दुना १९४३
न (दुकूलम्) वस्त्र, महिन कपड़ा; ११९॥
न (दुष्कृतम्) पाप-कर्म, निन्द्य आचरणः १- २०६ । वि (दुष्करम्) जो दुख से किया जा सके; कष्ट
साध्य:-२-२०४ |
वि (दुष्कर कारक) मुश्किल कार्य को करने वाला;
२- २०४।
न ( दुखम् ) कष्ट, पीड़ा, क्लेश, २- ७२, ७७। दुक्खे न (दुःखे) दुख में २- ७२।
दुक्खा पु (दुखः) नानाविध कष्ट १-३३॥ दुखाई न दुःखानि) अनेक प्रकार के संकट;
१-३३।
वि (दुःखित) पीड़ित, दुःखित, १-१३। वि (दुखित) दुखयुक्त; २ ७२॥
आर्ष: (दुकूलम् ) वस्त्र, महिन कपड़ा; १ - ११९ । स्त्री (दुर्गा देवी) पार्वती, देवी विशेष १-२७० । स्त्री ( दुर्गादेवी) गौरी पार्वती देवी विशेष १-२७०।
न (दुग्धम् ) दूध, खीर, २- ७७, ८९ ।
वि (द्विमात्र) दो मात्रा वाला स्वर वर्ण १- ९४। न (दुरवगाहम्) स्नान करने में कठिनाई वाला स्थान; १ - १४ ।
न (दुरूत्तरम्) अनिष्ठ उत्तर; उतरने में अशक्यः
१-१४।
पुं (द्विरेफः ) भ्रमर, भँवरा १-१४।
न द्विवचनम् ) दो का बोधक व्याकरण प्रसिद्ध प्रत्यय; १- ९४ ।
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 397
दुवारं
दोला
दुविहो दुसहो
दुस्सहो
द्रहम्भि
दुहाइअं
दुहिओ दूसहो
धत्थो
दुहिओ
न (द्वारम्) दरवाजा; २-११२। दुवारिओ पु (दीवारिकाः) द्वारपाल; १-१६०।। दुवालसंग आर्ष न (द्वादशांगे) बारह जैन आगम ग्रन्थों में; दोवयणं
१-२५४। वि (द्विविधः) दो प्रकार का; १-९४।
दोहलो वि (दुस्सहः) जो कठिनाई से सहन किया जा सके। १-११५/
दोहा वि (दुस्सहः) जो दुख पूर्वक सहन किया जा सके; दोहाइअं
१-१३,११५/ दुहवो-दुहओ वि (दुर्भगः) खोटे भाग्य वाला, अभागा, अप्रिय, द्रहो
अनिष्ठ, १-११५, १९२। न (दुःखम्) दुःख, कष्ट, पीड़ा; २७२। अ (द्विधा) दो प्रकार का; १-९७। वि (द्विधाकृतम्) दो प्रकार से किया हुआ; १-९७, धओ १२६।
धट्ठज्जुणो दुहिअए वि( दुःखितके) पीड़ित में, दुःखयुक्त में; २-१६४। धट्ठो दुहिआ
स्त्री (दुहिता) लड़की की पुत्री; २-१२६/ धणंजओ वि (दुखितः) पीड़ित, दुखी; १-१३।
धणमणो पु वि (दुस्सहः) जो दुःख से सहन किया जाय; धणी १-१३, ११५।
धणुहं दूसासणो पू (दुश्शासनः) कौरवो का भाई; १-४३।
धण दुहवो वि (दुर्भगः) अभागा; अप्रिय; अनिष्ठ; १-११५, धत्ती
१९२। वि (दुःखित) दु:खयुक्त; १-१३।
धन्ना अ (संमुखी करणे निपातः) सम्मुख करने के अर्थ में अथवा सखी के आमन्त्रण अर्थ में प्रयोक्तव्य धम्मिल्लं
अव्यय; २-१९६। देअरो पु (देवरः) देवर, पति का छोटा भाई; १-१८०। धरणीहर देउलं न (देव कुलम्) देव कुल; १-२७१ ।
धरिओ सक. (ददन्ते) वे देते है; २-२०४।
न (द्वारम्) दरवाजा; १-७९; २-११२। देव पु (देव) देव, परमेश्वर, देवाधिदेव; १-७९। देवउलं न (देव कुलम्) देव कुल; १-२७१ देवत्थुई, देवथुई स्त्री, (देव-स्तुतिः) देव का गुणानुवाद;
२-९७ देवदत्तो पु (देवदत्तः) देवदत्त; १-४६।
पु (देव) दे; १-२६। देवाई न (देवाः) देव-वर्ग; १-३४।
धारा पु (देवाः ) देव-वर्ग; १-३४।
धारी देवाणि न (देवाः ) देव-वर्ग; १-३४।
धाह देवनाग सुवण्ण न (देवनाग सुवर्ण) वस्तु-विशेष का नाम;
१-२६। देवरो पु (देवरः) पति का छोटा भाई; १-१४६। धिज्जं देवासुरी वि (देवासुरी) देवता और राक्षस सम्बन्धी; १-७९। धिट्रो पु (देव) देवता; १-१७७।
धिधि न (देवम्) भाग्य, प्रारब्ध, देव, पूर्व कृत कर्म; १-१५३।
धिप्पई देसित्ता सक (देशयित्वा) कह करके; उपदेश देकर; धिरत्थ
१-८८) स्त्री (दोला) झूला, हिंडोला; १-२१७। न (द्विवचनम्) दो का बोधक व्याकरण प्रसिद्ध प्रत्ययः१-९४। पु (दोहदः) गर्भिणी स्त्री का मनोरथ: १-२१७, २२१) अ (द्विवा) दो प्रकार (वाला) १-९७। वि (द्विघा कृतः) जिसका दो खण्ड किया गया हो वह; १-९७। पु (द्रहः) बड़ा जलाशय, झील, सरोवर, द्रह; २-८०। पु (द्रह) बड़े जलाशय में, झील में; २-८७।
(ध) पु (ध्वजः) ध्वजा, पताका; २-२२७/ पु (धृष्टद्युम्नः) राजा द्रुपद का एक पुत्र; २-९४॥ वि (धृष्टः) घीठ, प्रगल्भ, निर्लज्ज, १-१३०॥ पु (धनंजयः) धनंजय, अर्जुन; १-१७७; २-१८५/ धणवन्तो वि (धनवान्) धनी, धनवान्, २-१५९। वि (धनी) धनिक, धनवान्; २-१५९। न (धनुः) धनुष्; १-२२। पुन (धनुः) धनुष्; १-२२। स्त्री (धात्री) घाय-माता, उपमाता; २-८१। वि (ध्वस्तः) धवंस को प्राप्त; नष्ट; २-७९ । स्त्री (धन्या) एक स्त्री का नाम, धन्य-स्त्री; २-१८४। धम्मेल्लं न (धम्मिल्लम्) संयत केश; बंधा हुआ केश; १-८५। पु (धरणी धर) पर्वत, पहाड़; २-१६४। वि (धृत) धारण किया हुआ; १-३९॥ अक़ (धाव्) दौड़ना सक (घा) धारण करना। "नि" उपसर्ग के साथ में। निहित्ता वि (निहितः) धारण किया हुआ; २-९६। निहिओ वि (निहितः) धारण किया हुआ; २-१९॥ "श्रद्" के साथ में। सहि वि (श्रद्वितम्) जिस पर श्रद्धा की गई हो वह; १-१२। स्त्री (धात) धाई, उपमाता; २-८१। स्त्री (धारा) धार, नोक, अणी; १-७, १४५/ स्त्री (धात्री) धाई, उपमाता; २-८१ । देशज स्त्री (?) एक प्रकार की पुकार, चिल्लाहट; २-१९२। स्त्री (धृतिः) धैर्य, धीरज; १-१२८; २-१३१॥ न (धैर्यम्) धैर्य, धीरज: २-६४। वि (धृष्टः) धीठ, प्रगल्म, निर्लज्ज; १-१३०१ देशज़ अ (धिक् धिक्) धिक् धिक्, छी छी; २-१७४। अक (दीप्यते) चमकता है, जलता है; १-२२३। अ (धिगस्तु) धिक्कार हो; २-१७४।
देन्ति
धा
देवं
धाई
देवा
धिई
देवो
देव्वं
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
398 : प्राकृत व्याकरण
a - Qaf नि ।
पुन (नयन) आंख, नेत्र; १-१७७, १८०, २२८। पुनं (नयनानि) आंखे; १-३३। न (नयनानि) आंखे; १-३३। न (नगर) नगर, शहर, पुर; १-१७७, १८०। पुन (नरः) मनुष्य, पुरूष; १-२२९। पु (नाराच) शरीर की रचना का एक प्रकार; १-६७/ पु (नरेन्द्रः ), राजा; १-८४ अ (केवलम्) केवल, विशेष, सिर्फ; २-२०४। वि (नवः) नया, नूनत, नवीन; २-१६५। वि (नवः) नया, नूनत, नवीन; २-१६५।
नई
नाणां
धीरं न (धैर्यम्) धीरज, को; १-१५५; २-६४। नयणं धीरिअं न (धैर्यम्) धीरज, धीरता; २-१०७।
नयणा धत्तिमा पु स्त्री. (धूर्तत्वम्) धूर्तता, ठगाई; १-३५।
नयणाई धुत्तो पु (धूर्तः) ठग, वञ्चक, जूआ खेलने वाला; नयरं १-१७७; २-३०।
नरो धुरा स्त्रीः (धुर) गाड़ी आदि का अग्र भाग; धूरी; १-१६। नराओ धुवसि
अक़ (धूनसि) तूं कम्पता है; २-१६। धूआ स्त्री (दुहिता) लड़की की पुत्री; २-१२६/ नरिन्दो धूम
वडलो पु (धूम पटल;) धूम-समूह; २-१९८| नवरं धोरणि स्त्री. (धोरणि) पक्ति, कतार; १-७।
नवल्लो (न)
नवो अ (न) नहीं; १-६,४२; २-१८०, १९३, १९८,१९९, नश्२०३, २०४, २०५, २०६, २१७) स्त्री (नदी); हे नई (हे नदि) हे नदी १-२८९।
स्त्री (नदी) नदी; १-२२९। नइगामो पु (नदी-ग्रामः, नईग्गामो (नदी ग्रामः) नदी के नह किनारे पर स्थित ग्राम; २-९७।
नहा नईसोत्तं न (नदीस्त्रोतः) नदी का झरना; १-४।
नह नई-सोत्तं (नदी स्त्रोतः) १-४।
नहयले न उणा न उण, न उणाई, न उणो अ (नपुनः) फिर से
नाओ नहीं; १-६५।
नाणं नओ पु (नगः) पहाड़, वृक्ष; १-१७७। नक्कंचरो पु (नक्तंचरः) राक्षस चोर, बिडाल; १-१७६। नाम नक्खा पु (नखानि) नख, नाखून; २-९०, ९९। नग्गो वि (नग्नः) नंगा, वस्त्र रहित; २-७८,८९॥ नच्चइ अक़ (नृत्यति) वह नाचता है।
नारइओ नच्चाविआई वि (नर्तितानि) नचाई हुई को; १-३३।
नाराओ नई अक (नृत्यते) (नध्यते) उससे नाचा जाता है। नडो
पु (नट:) नट; १-१९५|| नत्तिओ पु (नप्तृकः) पौत्र; पुत्र का अथवा पुत्री का.; नाविओ
१-१३७। नत्तुओ पु (नृप्तृकः) पौत्र, पुत्र का अथवा पुत्री का पुत्र; निअत्तसु १-३७)
निअत्तं नभं
न (नभस्) आकाश गगन; १-८७) अक़ (नम्) भार के कारण से झुकना; सक (नम्) निअम्ब नमस्कार करना।
निउअं नमिमो सक (नमामः) हम नमस्कार करते हैं निउरं १-१८३। नओ वि (नतः) नमा हुआ, झुका हुआ; २-१८०। निक्कओ "उद्" के साथ में
निक्कम्प उन्नयं वि (उन्नत) उन्नत, ऊंचा; १-१२। निक्खं "प्र" के साथ में
निच्चलो पणवह सक (प्रनमय) तुम नमस्कार करते हो; निच्चल २-१९५/
निज्झरो नमिर व (नमन शील) नमने के स्वभाव वाला; २-१४५/
निठुरो नमोक्कारा पु (नमस्कारः) नमस्कार; १-६२, २-४| पु (नर्म) हंसी, मजाक; १-३२।
निठुलो
नावा
"प्र" उपसर्ग के साथ में - पणठु वि (प्रनष्ट) विशेष रूप से नष्ट हुआ; १-१८७। न (नख) नख, नाखून; १-६,७/ न (नखानि) नख, नाखून; २-९०, ९९। न (नभः) आकाश; १-३२, १८७। न (नभस्तले) आकाश तल में; २-२०३। पु (न्यायः) न्याय नीति; १-२२९/ पु (नाग) सर्प, सांप; १-२६। न (ज्ञानम्) ज्ञान, बोध, चैतन्य, बुद्धि; २-१०४ । अ (नाम) संभावना, आमन्त्रण, संबोधन,ख्याति वाक्यालंकार-पाद-पूर्ति अर्थ में ; प्रयोक्तव्य अव्यय; २-२१७। वि (नारकिकः) नरक का जीव; १-७९ । पु (नाराच:) शरीर की रचना का एक प्रकार; १-६७/ स्त्री (नौः) नौका, जहाज; १-१६४। पु (नापितः) नाई, हज्जाम; १-२३०| पु (नाथः) स्वामी, मालिक; १-१८७, २-७८| अक (निवृत्त) पीछे हट जा, रूक जा; २-१९६। वि (निवृत्तम्) निवृत्त, प्रवृत्त, विमुख हटा हुआ; १-१३२। न (नितम्ब) कमर के नीचे का भाग-पुढे १-४। वि (निवृतम्) परिवेष्टित,घेराया हुआ; १-१३१। न (नपुरम्) स्त्री के पांव का एक आभूषण; १-१२३ पु (निष्क्रय) वेतन, मजदूरी; २-४। नः (निष्कम्पम्) कम्पन्न रहित, स्थिर २-४। पुन (निष्कम्) सोना,मोहर, मुद्रा, रूपया; २-४। वि (निश्चल) स्थिर, दृढ़, अचल; २-२११। वि (निश्चलः) स्थिर, दृढ़, अचल; २-२१ । पु (निर्झरः) झरना, पहाड़ से गिरते हुए पानी का प्रवाह; १-९८; २-९०। वि (निष्ठुरः) निष्ठुर पुरूष, कठोर आदमी; १-२५४,२-७७। वि (निष्ठुरः) निष्ठुर पुरूष, कठोर आदमी;
नाहो
नम्
नम्मो
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
निएण्णसो
निण्णं
निद्धणो
निद्धं
निनओ
निप्पहो
निप्पिहो
निप्पुंसणं
निप्फन्दा
निष्फावो
निप्फेसो
निब्भरो
निविडं
निम्बो
निम्मल
निम्मल्लं
निम्मोओ
निरन्तरं
निरवसेसं
निरूविअं
निलयाए
निल्लज्ज
निल्लज्जो
निल्लज्जिमा
निवडइ
निवत्तओ
निवत्तणं
निविड
निवुतं
निवो निव्वत्तओ
निव्वअं
निव्वुई
निब्बुओ
निसंसो
निसढो
निसमण
निसाअरो
१-२५४।
पु (निर्णसः) निश्चय, अवधारण, फैसला; १ - ९३॥ वि (निम्नम् ) नीचे, अधस्; २-४२। वि ( निर्धनः ) धन रहित, अकिंचन; २-९० । (स्निग्धम् ) स्नेह, रस - विशेष; स्नेह युक्त,
न
चिकना; २ - १०९ ।
पु ( निनदः ) १ - १८० ।
वि (निष्प्रभः) निस्तेज, फीका, २-५३ । वि (निस्पृहः) स्पृहा रहित, निर्मम २-५३ ।
न (निस्युसनम्) पोछना, अभिमर्दन, मार्जन २-५३१
वि (निष्पन्दा) चलन रहित, स्थिर, २ - २११ ।
पु (निष्पावः ) धान्य- विशेष; २-५३ । पु (निष्पेषः) पेषण, पीसना, संघर्ष २-५३ वि ( निर्भर: ) पूर्ण, भरपूर, व्यापक,
२-९०१
१ २०२ ॥
वि (निविडम् ) सान्द्र, धना, गाढ पु (निम्बः) नीम का पेड़ ; १ - २३० । वि ( निर्मल) मल रहित, विशुद्ध; २- २११ । न (निर्माल्यम्) निर्मलत्व; १-३८॥
पु (निर्मोकः) कञ्चूक, सर्प की त्वचा, २ १८२ ।
"
फैलने वाला;
अ ( निरन्तरम्) सदा, लगातार १ - १४ ।
न वि (निरवशेषम् ) सम्पूर्ण; १ - १४ ।
वि (निरूपितम् ) देखा हुआ; प्रतिपादित, कहा हुआ; २-४०
स्त्री (निलयायाः) स्थान वाली का; १ - ४२ । वि निर्लज्ज) लज्जा रहित; २-१९७
वि ( निर्लज्ज :) लज्जा रहित; २- २००१
पु स्त्री (निर्लज्जत्वम्) निर्लजपन, बैशर्मी; १ - ३५ । अक़ (निपतति ) वह गिरता है; १-९४ ।
लोटने वाला,
वि (निवर्तकः) वापिस आने वाला, वापिस करने वाला; २-३०१
न (निवर्तनम् ) निवृत्ति; जहां रास्ता बंद होता हो
वह स्थान; २ ३०१
वि (निविडम् ) सान्द्र, घना, गाढ़; १ - २०२ । वि (निवृत्तम्) निवृत्त, हटा हुआ, प्रवृति-विमुख;
१-१३२।
पु (नृपः ) राजा, नरेश; १ - १२८ ।
वि (निवर्तकः) निष्पन्न करने वाला, बनाने वाला;
२-३०।
वि ( निर्वृतम्) निर्वृति प्राप्त १-१३१ ।
स्त्री (निर्वृतिः) निर्वाण, मोक्ष, मुक्ति; १ - १३१ । वि ( निर्वृतः ) निर्वृत्ति - प्राप्तः १ - २०९ ।
(नृशंसः) क्रूर, निर्दय; १ - १२८, २६० । पु (निषध:) निषध देश का राजा, स्वर- विशेष, देश - विशेष, १ - २२६ ।
न (निशमन) श्रवण, आकर्षन १ - २६९ ।
पु (निशाकरः ) चन्द्रमा १-८: (निशाचरः ) राक्षस
आदि।
-
निसायरो
निसिअरो
निसीढो निसीहो
निस्सह निस्साहाई
निहआ
निहट्टं
निहसो निहि-निही निहिओ
निहुअं निहेलणं
नी
नीचअं
नीडं
नीमी
नीमो
नीलुप्पल नीलुप्पलं नीवी
नीवा
नीसरइ
नीसहो
नीसह नीसामन्नेहिं
नीसासूसासा
नीसासो
निसित्ता
नीसो
3
नुउरं नूण- नूणं
नेउरं
नेडुं नेड
नेत्ता
नेत्ताई
परिशिष्ट - भाग : 399
पु (निशाचरः) रात्रि में चलने वाला राक्षस आदि;
१-७२।
पु (निशिचरः) रात्रि में चलने वाले राक्षस आदि; १-८, ७२।
पु (निशीथः) मध्य रात्रि १२१६ |
पु (निशीध:) मध्यरात्रि, प्रकाश का अभाव;
१-२१६।
विन (निःसहम् ) असहनीय, अशक्त; १-१३| विन (निःसहानि) अशक्त १-९३१
वि (निहत) मारा हुआ; १-१८०१ वि ( निघृष्ट) घिसा हुआ; २- १७४ |
पु (निकष :) कसौटी का पत्थर; १ - १८६, २६० / स्त्री (निधि) खजाना; १-३५।
निहित्तो वि ( निहित ) स्थापित रखा हुआ; २ ९९॥ वि (निवृतम्) उपशान्त, गुप्त, प्रच्छन्न १-१३१। देशज न (निलयः ) गृह घर, मकान् २ १७४
"आ" उपसर्ग के साथ में
आणिअं वि (आनीतम्) लाया हुआ; १ - १०१ । " उप" उपसर्ग के साथ में
उवणिअं वि (उपनीतम्) ले जाया हुआ; १-१०१ । उवणिओ वि. (उपनीतः) ले जाया हुआ; १ - १०१ । अ (नीचे) नीचा, अर्धा स्थितः १- १५४॥ (नीडम्) घोंसला १-१०६, २०२२ ९९। स्त्री (नीवी) मूल-धन, पूंजी, नाड़ा, इजार बन्द
१- २५९॥
पु (नीपः) कदम्ब का पेड़ १-२३४। न (नीलोत्पल) नील रंग का कमल २- १८२ ॥ (नीलोत्पलम्) नील रंग का कमल; १८४। स्त्री (नीवी) मूल-धन, पूंजी, नाड़ा, इजार बन्द;
१-२५९।
पु (नीपः) कदम्ब का पेड़ १-२३४। अक (निसंरति) निकलता है; १-९३।
विषु (निस्सहः) अशक्त १-४३१ न (निर्- सहम्) असहनीय १-१३१
वि ( निस्सामान्यैः) असाधारणों से; २ - २१२ । पुं (निश्वासोच्छ्वासो) श्वासोश्वास १-१०। वि (निश्वासः) निःश्वास लेने वाला; १-९३;
२-९२।
वि (निषिक्तः) अत्यन्त सिक्त; गीला १-४३। पु (निःस्वः) १४३॥
अ (नु) निश्चय अर्थक अव्यय अव्यय २- २०४ ॥ न (नूपुरम् ) स्त्री के पांव का आभूषण; १ - १२३ । अ (नूनम् ) निश्चय अर्थक, हेतु अर्धक अव्ययः
१-२९।
न (नूपुरम् ) स्त्री के पांव का आभूषण; १ - १२३ । न. (नीडम्) घोंसला २- ९९ ।
पुंन (नेत्राणि) आंखे १-२३।
न (नेत्राणि) आंखे १-३३।
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
400 : प्राकृत व्याकरण
नेरइओ
नेहाल
नेहो
नोमालिआ
नोहलिया
पच्छा
पइट्ठा
पइटाणं
पइटिअं पइण्णा पइसमयं पइहरं पई पईवं पईवो पईहरं पउट्ठो पउट्ठो
पट्टणं
पठ
वि (नैरयिकः) नरक में उत्पन्न हुआ जीव; १-७९। पच्चओ वि (स्नेहालुः) प्रेम करने वाला; २-१५९। पु (स्नेहः) तैल आदि चिकना रस, प्रेम; २-७७ पच्चडिअ १०२। स्त्री (नवमालिका) सुगन्धित फूल वाला वृक्ष पच्चूसो विशेष; १-१७०।
पच्छं स्त्री (नव फलिका) जाती फले, नवोत्पन्न फले. पच्छा नूतन फल वालो; १-१७०। (प)
पच्छिम स्त्री. (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा, इज्जत, सम्मान; १-३८, २०६।
पच्छे कम्म न (प्रतिष्ठानम्) स्थिति, अवस्थान, आधार, आश्रय; १-२०६।
पज्जत्तं वि (प्रतिष्ठितम्) रहा हुआ; १-३८|
पज्जन्तो स्त्री, (प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञा, प्रण, शपथ; १-२०६। न (प्रतिसमयम्) प्रतिक्षण, हर समय; १-२०६। पज्जा न (पतिगृहम्) पति का घर; १-४।
पज्जाओ पु (पतिः) स्वामी, १-५।। वि (प्रतीपम्) प्रतिकूल; १-२०६।
पज्जुण्णो पु (प्रदीपः) दीपक, दीया; १-२३१॥
पञ्चावणा न (पतिगृहम्) पति का घर; १-४। पु वि (प्रवृष्टः) बरसा हुआ; १-१३१ । पु (प्रकोष्ठः) कोहनी के नीचे के भाग का नाम; पट्ठी १-१५६। वि (प्रगुण:) पटु, निर्दोष, तैयार; १-१८०। पढइ स्त्री (पवृत्तिः) प्रवर्तन, समाचार, कार्य; १-१३१। पडसुआ न (पद्मम्) कमल; १-६१; २-११२। पु (पौर-जन) नगर-निवासी, नागरिक; १-१६२।। पडाया वि (प्रचुरम्) प्रभूत, बहुत; १-१८०)
पडायाणं न (पौरूषम्) पुरूषत्व, पुरूषार्थ; १-१११, १६२। पु (पौर) नगर में रहने वाला; १-१६१।
पडिकरइ पु (पयः) दूध और जल; १-३२। पु (प्रयोगः) काम में लाना; शब्द योजनाः पडिकूलं १-२४५)
पडिक्कूलं पु (पंक:) कीचड़; १-३०।
पडिनिअत्तं वि (पांसनः) कलंकित करने वाला; दूषण लगाने पडिप्फद्धी वाला; १-७०।
पडिभिन्नो स्त्री (पांसुली) कल्टा, व्यभिचारिणी स्त्री: पडिमा २-१७९। पु (पांसु) (पांशू) धूली, रज, रेणु; १-२९,७०।। पडिवआ पु (परों) कुठार, कुल्हाडा; १-२६)
पडिवण्णं वि (पक्वम्) पका हुआ; १-४७, २-७९। पडिवया वि (पक्वा) पकी हुई; २-१२९।
पडिसारो देशज वि (समर्थः) समर्थ, शक्त; २--१७४ | पु (पक्ष) तरफ, ओर २-१६४।
पडिसिद्धी पु (पक्ष) पक्ष में, तरफदार में, जत्था में; २-१४७। पु (पक्षः) आधा महीना; २-१०६।
पडिसोओ पंको पु (पंकम्) कीचड़; १-३०। न (प्रावरणम्) वस्त्र, कपड़ा; १-१७५/
पु (प्रत्ययः) व्याकरण में शब्द के साथ जड़ने वाला शब्द विशेषः २-१३। देशज वि (?) (क्षरित) झरा हुआ; टपका हुआ; २-१७४। पच्चूहो पु (प्रत्ययः) प्रातःकाल; २-१४। वि (पथ्यम्) हितकारी; २-२१ । वि (पथ्या) हितकारिणी; २-२१ ।
अ (पश्चात्) पीछे; २-२१॥ वि न (पश्चिमम्) पश्चिम दिशा का, पाश्चात्य; पश्चिम दिशा; २-२१॥ न (पश्चात्-कर्म) पीछे किया जाने वाला कार्य: १-७९। वि (पर्याप्तम्) पर्याप्त, काफी; २-२४। पु (पर्यन्तः) अन्त सीमा तक; प्रान्त भाग; १-५७; २-६५। स्त्री (प्रज्ञा) बुद्धि, मति; २-८३। पु (पर्यायः) समान अर्थ का वाचक शब्द; उत्पन्न होने वाली नूतन अवस्था; २-२४। पु (प्रद्युम्नः) श्रीकृष्ण का पुत्र प्रद्युम्न; २-४२। स्त्री न देशज (पञ्च पञ्चाशत्) पचपनः संख्या विशेष ; २-१७४। न (पतनम्) नगर, शहर; २-२९। वि (पृष्ठी) पीछे वाली; १-१२९, २-९०। सक (पठ्) पढ ना। सक (पठति) वह पढ़ता है; १-१९९, २३१ । स्त्री (प्रति श्रुत) प्रतिध्वनि, प्रतिज्ञा, १-२६; ८८, २०६। स्त्री (पताका) ध्वजा; १-२०६। न (पर्याणम्) घोड़े आदि का साज सामान; १-२५२। सक (प्रति करोति) वह प्रतिकार करता है: १-२०६। वि (प्रतिकूलम्) विपरीत, अनिष्ट; २-९७। वि (प्रतिकूलम्) विपरीत, अनिष्ट; २-९७। वि (प्रतिनिवृत्तम्) पीछे लौटा हुआ; १-२०६। पुवि (प्रतिस्पर्धी) प्रतिस्पर्धा करने वाला; १-४४| वि (प्रतिभिन्न) उस जैसा; १-६। स्त्री (प्रतिमा) प्रतिमा, जैन-शास्त्रोक्त नियम-विशेष; १-२०६। स्त्री (प्रतिपत्) पक्ष की प्रथम तिथि; १-४४। वि (प्रतिपन्नम्) प्राप्त; स्वीकृत, आश्रित; १-१०६/ स्त्री (प्रतिपत्) पक्ष की प्रथम तिथि; १-२०६। पु (प्रतिसारः) सजावट; अपसरण, विनाश; १-२०६। स्त्री (प्रतिसिद्धिः) अनुरूप सिद्धि अथवा प्रतिकूल सिद्धि १-४४, २-१७४। आर्ष पु (प्रतिस्त्रोतः) प्रतिकूल प्रवाह;उल्टा प्रवाहः २-९८।
पउणो पउत्ती पउमं पउरजण पउरं
पउरिसं
पउरो
पओ पओओ
पंको पंसणो
पंसुलि
पसू पक्क पक्का पक्कलो पक्ख पक्खे पक्खो
पंगुरणं
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
पडिहारो
पडिहासो
पविच्छिर पढइ
पढमो
पदुमं
पणट्ट
पणवण्णा
पणवह
पण्डवो
पण्णरह
पण्णा
पण्णासा
पण्णा
पण्णा
पन्हुओ
पण्हो
पत्
पतुं
पत्तेअं
पत्तो
पत्थरो
पत्थवो
पन्ति
पन्ती
पन्थो
पन्थं
पमुक्क पम्मुक्क
पम्हल
पम्हाई
पयट्टइ
पयट्टो
पयर्ड
पययं
पयरणं
पयरो
पु (प्रतिहार : ) द्वारपाल १ - २०६ ।
पयरो
पु (प्रतिभासः) प्रतिभास, आभास, मालूम होना पवाई
१- २०६।
पयागजलं
देशज वि (2) सदृश, समान २ १७४। सक, ( पठति) वह पढ़ता है: १ १९९, २३१। वि (प्रथम) पहला आध्य १-२१५ ॥
पयारो
पावई
पढमं विन (प्रथमम् ) पहला १-५५। विन (प्रथमम् ) पहला १-५५/
वि (प्रनष्ट) अधिक मात्रा में नाश प्राप्त ११८७१ देशज स्त्री न (पञ्च पञ्चाशत् ) पचपन; संख्या विशेष २-१७४॥
सक (प्रणमत) नमस्कार करें; २-१९५।
पु (पाण्डवः) राजा पाण्डु का पुत्र १-७०१ वि (पञ्चदश) पन्द्रह : २-४३ ।
स्त्री (प्रज्ञा) बुद्धि, मति २-४२, ८३
देशज स्त्री (पञ्चाशत्) पचास २-४३।
पु. ( प्राज्ञः) बुद्धिमान १-५६॥
स्त्री प्रश्न) प्रश्न १-१५॥
परमं
परम्मुहो परहूओ
वि (प्रस्तुत) झरा हुआ; जिसने झरने को प्रारम्भ परामरिसो
किया हो; २७५॥
पु (प्रश्नः) प्रश्न १-३५ २७५॥
परामुटो
परिघट्ट
परिद्वविओ
पडिया वि (पतिता) गिरी हुई गिरे हुए; २-८० ।
"नि" उपसर्ग के साथ में
निवडई अकु (निपतति) वह नीचे गिरता है;
१- ९४1
पत्तलं न (पत्रम्) जिस पर लिखा जाता है वह
कागज, पत्ता, २- १७३ ।
विन (प्रत्येकम् ) हर एक, २- २१०१
वि ( प्राप्तः ) मिला हुआ; पाया हुआ; २-१५ ।
पु (प्रस्तर) पत्थर २-४५१
पत्थावो पु (प्रस्तावः) अवसर, प्रसंग, प्रकरण;
१-३८१
स्त्री (पंक्ति) कतार, श्रेणी; १-६ ॥ स्त्री (पंक्ति) कतार, श्रेणी १-२५१
पु (पान्थः) पथिक, मुसाफिर; १-३०।
पु (पन्थम्) मार्ग को १-८८१
वि (प्रमुक्तम्) परित्यक्त २-९७१
वि (प्रमुक्तम्) परित्यक्त २ ९७१
वि (पक्ष्मल) सुन्दर केश और सुन्दर आंखों वाला;
२-७४।
पुन (पक्ष्माणि) आंखों के बाल; भौंह; २-७४ | अक (प्रवर्तते) वह प्रवृत्ति करता है; २-३०। वि (प्रवृतः ) जिसने प्रवृत्ति की हो वह २ २९ ।
पर
पर
परउट्टो
परक्क
परिट्ठा, परिट्ठाविओ
परिट्टि
परिणामो
परोप्परं
परोप्पर
परोहो
पलक्खो
पलय
पलही पलिअंडो
पलिअं
पलितं
पलिलं
पलिविअं
पलीवइ
(प्रकटम् ) प्रकट, व्यक्त, खुला; १-४४। वि (प्राकृतम्) स्वाभाविक: १-६७१
न प्रकरणम्) प्रस्ताव, प्रसंग, एकार्थ प्रतिपादक ग्रन्थ १- २४६ ।
पलोएसु
पल्लङ्की
पु (प्रकार) भेद, किस्म, ढंग, रीति, तरह; १- ६८ । पल्लट्टो
परिशिष्ट-भाग 401
पु (प्रचारः) प्रचार, फैलाव; १- ६८ । पु (पदातिः) पैदल सैनिक; २ - १६८ । न (प्रयाग जलम् ) गंगा और यमुना के जल का संगम, १--१७७ ।
पु (प्रकार अथवा प्रचारः) भेद, ढंग अथवा प्रचार; १-६८ ।
पु (प्रजापतिः) ब्रह्मा अथवा कुम्भकार; १-१७७,
१८० ।
पारिज्जइ २ - २०८
वि (पर) अन्य, तत्पर, श्रेष्ठ प्रकर्ष, दूरवर्ती, अनात्मीय; २- ७२, ८७
पु (परपुष्ट) अन्य से पालित, कोयल पक्षी;
१-१७९।
वि (परकीयम्) दूसरे का; दूसरे से संबंधित
२- १४८।
वि (परमं ) श्रेष्ठ; २- १५/
पुवि (पराङ्गमुख) विमुख, फिरा हुआ; १-२५। पु (परभृतः) कोयल १-१३१ ॥
पु ( परामर्श:) विचार, युक्ति; स्पर्श, न्यायशास्त्रोक्त व्याप्ति २ - १०५ ॥
वि (परामृष्टः ) विचारित, स्पष्ट किया हुआ;
१-१३१।
वि (परिघृष्टम् ) जिसका घर्षण किया गया हो वह;
२-१७४।
वि (प्रतिस्थापितः ) विरोधी - रूप से स्थापित;
१-६७/
स्त्री (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा; १-३८ ।
वि (प्रतिस्थापित ) विरोधी रूप से स्थापितः १६७१
वि (प्रतिष्ठितम्) रहा हुआ; १-३८ ।
पु (परिणामः) फल; २ - २०६ ।
वि (परस्परम् ) आपस में १ ६२, २-५३। वि (परस्पर) आपस में १-८।
पु (प्ररोह :) उत्पत्ति, अंकुर; १ - ४४।
पु (प्लक्ष) बढ़ का पेड़ २१०३।
पु (प्रलय) युगान्त, विनाश; १-८७ । देशज पु (कर्पासः) कपास; २-१७४। पु ( पर्यङ्कः) पलंग, खाट; २-६८ ।
न (पलितम्) वृद्ध अवस्था के कारण बालों का पकना, बदन की झुर्रियां १ - २१२ ।
वि. (प्रदीप्तम्) ज्वलित; १-२२१।
न (पलितम्) वृद्ध अवस्था के कारण से बालों का श्वेत हो जाना; १ - २१२ ॥
वि (प्रदीपितम् ) जलाया हुआ १-१०१। पलीवेइ सक (प्रदीपयति) वह जलाता है, सुलगाता है; १-१२१ ।
सक (प्रलोकय) देखो; २ - १८१ ।
पु ( पर्यङ्को) पलंग, खाट २-६८।
वि ( पर्यस्तः) क्षिप्त, विक्षिप्त, हत, पतित; २-४७ ।
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
402 : प्राकृत व्याकरण
वि (पाणिनीयाः) पाणिनी ऋषि से संबंधित; २-१४७ न (पानीयम्) पानी, जल; १०१। न (प्रकटम्) प्रकट; १-४४ | वि (प्राकृतम्) स्वाभाविक; १-६७। न (पादपतनम्) पैर में गिरना, प्रणाम विशेष; १-२७०। न (पादपीठम्) पैर रखने का आसन; १-२७० पु (प्राकारः) किला, दुर्ग; १-२६८। न (पातालम्) पाताल, रसा-तल, अधो भुवन १-१८० वि (प्रावारकः) आच्छादक, ढाँकने वाला; १-२७१। वि (परकीयम्) दूसरे से सम्बन्धित; १- ४४, २-१४८ वि. (पारकीयम्) दूसरे से सम्बन्धित; १- ४४ ; २-२७१ स्त्री (पापर्द्धिः) शिकार, मृगया; १-२३५। पारेवओ पु (पारापतः) पक्षि-विशेष, कबूतर; १-८०। पु (प्राकारः) किला, दुर्ग; १-२६८। पु (प्ररोहः) उत्पत्ति, अंकुर; १-४४। न (पाद-पतनम्) पैरो में गिरना, प्रणाम-विशेष; १-२७०। न (पापम्) पाप, अशुभ कर्म, पुद्गल; १-१७७,
पवासू
पल्लद्रं वि (पर्यस्तम्) क्षिप्त, हत, विक्षिप्त, पतित; २-६८। पाणिणीआ पल्लत्थो वि (पर्यस्तः) क्षिप्त, हत, विक्षिप्त, पतित; २-४७। पल्लत्थं वि (पर्यस्तम्) क्षिप्त, हत, विक्षिप्त, पतित; २-६८। पाणीअं पल्लविल्लेण पु (पल्लवेन) पल्लव से, नूतन पत्ते से; २-१६४। पायडं पल्लाणं न (पर्याणम्) घोड़े आदि का साज सामान; पाययं १-२५२; २-६८।
पायवडणं पल्हाओ पु (प्रह्लादः) हिरण्यकश्यप नामक दैत्य का पुत्र; २-७६।
पायवीढं पवट्रो वि (प्रवृष्टः) बरसा हुआ; १-१५६।
पायारो पवत्तओ वि (प्रवर्तकः) प्रवर्तक, प्रवृति करने वाला; २-३०। पायालं पवत्तणं न (प्रवर्तनम्) प्रवृत्ति; २-३०। पवहो पु (प्रवाहः) प्रवृत्ति, बहाव; १-६८।
पारओ पवहेण पु. (प्रवाहेन:) बहाव द्वारा; १-८२।
पारकेरं वि (प्रवासिन) मुसाफिरी करने वाला यात्री; १-४४।
पारक्वं पवाहो पु (प्रवाहः) प्रवृत्ति; बहाव; १-६८। पवाहेण पु (प्रवाहेन) बहाव द्वारा; १-८२।
पारद्वी पवो पु (प्लवः) पूर, उछल-कूद; २-१०६। पारावओ पसढिलं वि (प्रशिथिलम्) विशेष ढीला; १-८९। पसत्थो वि (प्रशस्तः) प्रशंसनीय, श्लाघनीय, श्रेष्ठ; पारो २-४५।
पारोहो पसिअ अक (प्रसीद) प्रसन्न हो; १-१०१, २-१९६। पावडणं पसिढिलं वि (प्रशिथिलम्) विशेष ढीला; १-८९। पसिद्धी स्त्री (प्रसिद्धि) १-४४। पसूण न (प्रसून) फूल, पुष्प; १-१६६, १८१। पहरो पु (प्रहारः) मार, प्रहार; १-६८।
पावयणं पहिओ पु (पान्थ;) मार्ग में चलने वाला, यात्री, मुसाफिर; पावरणं २-१५२।
पावारओ अ. (प्रभृति) प्रारम्भ कर, वहां से शुरू कर, लेकर; पावासओ १-१३१,२०६
पावासू पहो पु (पन्थाः ) मार्ग; १-८८।
पावीद (धातु) पीने अर्थ में।
पासइ पियइ सक (पिवति) पीता है; १-१८०
पासं पाइक्को पु (पदातिः) पांव से चलने वाला पैदल सैनिक; पासाणो २-१३८
पासाया पाउओ वि (प्रावृतः) आच्छादित, ढंका हुआ; १-१३१। पासिद्धि पाउरणं न (प्रावरणम्) वस्त्र, कपड़ा, १-१७५/
पासुत्तो पाउसो
पु (प्रावृट) वर्षा-ऋतु; १-१९, ३१, १३१ । पासू पाओ पु (पादः) पॉव; १-५।।
पाहाणो पाडलिउत्ते न (पाटलिपुत्रे) पाटलि-पुत्र नगर में; २-१५० पाहुडं पाडिएक्कं पाडिक्कं न (प्रत्येकम्) हर एक; २-२१०। पिअ पाडिप्फद्धी पुवि (प्रतिस्पर्धी) प्रतिस्पर्धा करने वाला; १-४४, २०६; २-५३।
पिओ पाडिवआ पाडिवया स्त्री (प्रतिपद्) प्रतिपदा, एकम् तिथि; पिआई १-१५, ४४।
पिअ पाडिसिद्धी स्त्री (प्रतिसिद्धिः) अनुरूप सिद्धि, प्रतिकूल सिद्धि १-४४; २-१७४।
पिउओ पाणि न (पानीयम्) पानी, जल; १-१०१,२-१९४ पिउच्छा
पावं
२३१॥
पहुडि
पा
न (प्रवचनम्) प्रवचन; १-४४। न (प्रावरणम्) वस्त्र, कपड़ा; १-२७५ । वि (प्रावरकः) आच्छादक; ढाँकने वाला; १-२७१। वि पु (प्रवासिन्) प्रवास करने वाला; १-९५। वि पु (प्रवासिन्) प्रवास करने वाला; १-४४ | नं (पाद-पीठम्) पैर रखने का आसन; १-२७०। सक (पश्यति) वह देखता है; १-४३। नं (पार्वम्) कन्धे के नीचे का भाग; पांजर २-९२। पु (पाषाणः) पत्थर; १-२६२। पु (प्रासादाः) महल; २-१५०। स्त्री (प्रसिद्धि;) प्रसिद्धि; १-४४। वि (प्रसुप्त) सोया हुआ; १-४४। पु (पांसुः) धूलि, रज, रेणु; १-२९, ७०। पु (पाषाण:) पत्थर १-२६२। नं (प्राभृतम्) उपहार, भेंट; १-१३१, २०६। अ (अपि) भी; १-४१; २-१९८, २०४, २१८। वि (प्रिय) प्यारा; २-१५८ वि (प्रियः) प्यारा; १-४२; ९१। वि (प्रियाणि) प्रिय; २-१८७। वयंसा पु (प्रिय वयस्यः) प्यारा मित्र, प्रिय सखा; २-१८६। पु (पितृक:) पिता से सम्बन्धित; १-१३१। स्त्री (पितृष्वसा) पिता की बहन; २-१४२।
पिअ
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 403
पिउल्लओ पिउवई पिउवणं पिउसिआ
पुधं
पिउहरं पिक्कं पिच्छि पिच्छी पिजरयं
पिटुं
पिट्टि
पुरओ
पिट्ठी
पुरिमं
पिढरो पिण्डं पि, पियइ पिलुटुं पिलोसो पिव
वि (पुनरूक्तम्) फिर से कहा हुआ; २-१७९। अ (पुनः) फिर से; १-६५/ वि (पुण्यवान्) पुण्यवाला, भाग्यवाला; १-१५९। अ (पुनः) फिर से; २-१७४। अ (पृथक्) अलग, जुदा १-१८८ न (पुन्नागानि) पुन्नाग के फूल- (फूलों को); १-१९०१ न (पुष्पत्वम्) पुष्पपना; फूल पना; २-१५४। पुप्फत्त न (पुष्पत्वम्) पुष्पपना, फूल पना; २-१५४। न (पुष्पम्) फूल; कुसुम; १-२३६, २-५३, ९०। स्त्री (पुष्पत्वम्) पुष्पपना, फूलपना; २-१५४ । अ (पुरतः) आगे से, पहले से; १-३७/ पु (पुरन्दरः) इन्द्र, देवराज, गन्ध द्रव्य विशेष; १-१७७) स्त्री (पुर) नगरी; शहर; १-१६/ न (पूर्वम्) पहिले, काल-मान विशेष; २-१३५। वि (पूर्वभवं) पहिले होने वाला; पूर्ववर्ती; २-१६३। वि (पुरो) पहिले, २-१६४। पु (पुरूषः) पुरूष व्यक्ति; १-४२, ९१, १११; २-१८५। पु (पुरूषाः) पुरूष, व्यक्ति; २-२०२। न (पुराकर्म) पहिले के कर्मः १-५७। सक (पश्य) देखो; २-२११। पु (पुलक) रोमाञ्च को; २-२०४। स्त्री (पौलोमी) इन्द्राणी; १-१६० पु (पुर्वाह्नः) दिन का पूर्व भाग; १-६७; २-७५। न (पूर्वम्) पहिले; काल मान-विशेष; २-१३५ पु (पूर्वाह्नः) दिन का पूर्व भाग; १-६७। स्त्री (पृथिवी) पृथ्वी, धरती, भूमि; १-८८, १३१ । अ (पृथक्) अलग, जुदा; १-१३७, १८८। स्त्री (पृथिवी) पृथ्वी, धरती, भूमि; १-२१६। पु (पृथ्वीशः) राजा, पृथ्वी पति; १-६। स्त्री (पृथिवी) पृथ्वी, धरती, १-१३१; २-११३ पु (पुष्यः) पुष्य नक्षत्र, १-४३। स्त्री (पेया) पीने योग्य वस्तु-विशेष; यवागू; १-२४८ न (पीयूषम्) अमृत, सुधा; १-१०५।
पुरिसो
पु (पितृकः) पिता से सम्बन्धित; २-१६४। पुणरूत्तं पु (पितृ पतिः) यम, यमराज; १-१३४। पुणाइ न (पितृवनम्) पिता का वन; १-१३४।
पुण्णमन्तो स्त्री (पितृष्वसा) पिता की बहन; १-१३४; पुणो २-१४२। न (पितृगृहम्) पिता का घर; १-१३४॥
पुन्नामाई विन (पक्वम्) पक्का हुआ; १-४७; २-७९। स्त्री (पृथ्वीम्) पृथ्वी को; २-१|
पुप्फत्तणं स्त्री (पृथ्वी) पृथ्वी; १-१२८, २-१५/
पुप्फत्तणं वि (पिञ्जरकम्) पीले रंग वाला; २-१६४। न (पृष्ठम्) पीठ; १-३५; विन (पिष्ट) पीसा हुआ; । १-८५।
पुप्फिमा स्त्री (पृष्ठम्) पीठ; १-१२९॥ स्त्री (पृष्ठम्) पीठ, शरीर के पीछे का भाग; पुरंदरो १-३५,१२९॥ पु (पिठरः) मन्थान-दण्ड, मथनिया; १-२०१। पुरा न (पिण्डम्) समूह, संघात; १-८५। अ (पृथक्) अलग; १-१८८।।
पुरिल्लं सक (पिवति) वह पीता है; १-१८०।
पुरिल्लो वि (प्लुष्टम्) दग्ध; जला हुआ; २-१०६ । पु (प्लोषः) दाह, जलन; २-१०६। अ (इव) उपमा, सादृश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा; पुरिसा २-१८२।
पुरेकम्म पु(पिशाचः) पिशाच, व्यन्तर देवों की एक जाति; पुलअ १-१९३।
पुलयं पु (पिशाच) पिशाच, व्यन्तर देवों की एक जाति; पुलोमी १-१९३।
पुव्वण्हो वि (पिशाची) भूताविष्ट; भूत आदि से घिराया पुव्वं हुआ; १-१७७।
पुव्वण्हो पु (पिठरः) मन्थान-दंड, मथनिया; १-२०१। पुहई अ (पृथक्) अलग, जुदा; १-२४, १३७, १८८। पुहं पीअलं वि (पीतम्) पीत वर्ण वाला, पीला; पुहवी १-२१३,२-१७३। वि (पीडितम्) पीड़ा से अभिभूत, दुखित, दबाया पुहुवी हुआ; १-२०३।
पूसो न (पीठम्) आसन, पीढा; १-१०६ ।
पेआ पोणत्तं वि (पीनत्वम्) मोटापन, मोटाई; २-१५४। पीणया वि दे (पीनता) मोटापन, मोटाई; २-१५४। पेऊसं वि (पीनत्वम्) मोटापन, मोटाई; २-१५४। पेच्छवि (पीतम्) पीत वर्ण वाला, पीला; १-२१३; २-१७३। न (पुच्छम्) पूंछ; १-२६। पु (पुंजाः ) ढंग, राशि, ढेर; १-१६६। वि (पृष्ठः) पूछा हुआ; २-३४। वि (स्पृष्टः) छुआ हुआ; १-१३१। वि (प्रथमम्) पहला; १-५५॥ स्त्री (पृथिवी) पृथ्वी, धरती, भूमि; १-८८, २१६। पिण्डं वि (प्रथमम्) पहला; १-५५।
पिसल्लो
पिसाओ
पिसाची
पिहडो
पिहं
पीअं
पुहवीसो
पीडिअं
पीढं पीणतं पीणदा पीणिमा पीवलं
पुन्छ
पेज्जा
पुंजा पुढो
पेच्छसि सक (प्रेक्षसे) तू देखता है; २-२०५। पेच्छ सक (प्रेक्षस्व) देख; देखो; १-२३। पेच्छइ सक (प्रेक्षते) वह देखता है; २-१४३। स्त्री (पेया) पीने योग्य वस्तु विशेष; यवागू; १-२४८ न (पेष्टम्) पीसा हुआ आटा, चूर्ण आदि; १-८५। न (पीडम्) आसन, पीढ़ा, १-१०६। न (पिण्डम्) पिण्ड, समूह, संघात; १-८५/ न (प्रेम) प्रेम, स्नेह; २-९८|
पुट्ठो
पुढम पुढवी पुढुमं
पेम्म
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
404 : प्राकृत व्याकरण
पेरन्तो
पेरन्तं पेलवाणं पेसो पोक्खरं पोक्खरिणी
पोग्गलं
पोत्थओ
पोप्फलं पोप्फली पोम्म पोरो
बले
फडाला फणसो फणी फन्दणं फरूसो फलं फलिहा
पु (पर्यन्तः) अन्त, सीमा, प्रान्त, भाग; १-५८, बप्फो २.-६५।
बम्भचेरं न (पर्यन्तम्) अन्त, सीमा, प्रान्त, भाग; २-९३।। बम्भणो वि (पेलवानाम्) कोमल का; मृदु का; १-२३८। बम्हचरिअं वि (प्रेष्यः) भेजने योग्य ; २-९२। न (पुष्करम्) पद्म, कमल; १-११६; २-४। बम्हचेरं स्त्री (पुष्करिणी) जलाशय विशेष, चोकोर बावड़ी, कमलिनी; २-४|
बम्हणो न (पुद्गलम्) रूप आदि युक्त मूर्त-द्रव्य विशेष; बम्हा १-११६।
बरिहो पु (पुस्तकः) लीपने पोतने का काम करने वाला; बलया १-११६॥ न (पूगफलम्) सुपारी; १-१७०।
बली स्त्री (पूगफली) सुपारी का पेड़; १-१७० । न (पदम) कमल; १-६१,२-११२। पु (पूतरः) जल में होने वाला क्षुद्र जन्तु; १-१७०। (फ)
बहप्पई वि (फटावान्) फन वाला, सांप; २-१५९। पु (पनसः) कटहर का पेड़; १-२३२।
बहप्फई पु (फणी) सांप; फन वाला; १-२३६। न (स्पन्दनम्) थोड़ा हिलना-फिरना; २-५३। बहला वि (परूषः) कर्कशः कठिन; १-२३२। बहस्सई न (फलम्) फल; १-२३/ स्त्री (परिखा) खाई; किले या नगर के चारों ओर बहिद्धा की नहर; १-२३२, २५४। पु (स्फटिकः) स्फटिक मणि; १-१८६, १९७।।
बहिणी पु (परिघः) अर्गला, आगल; ज्योतिष-शास्त्र बहिरो प्रसिद्ध एक योग; १-२३२, २५४। सक (पाटयति) वह फाड़ता है; १-१९८, २३२। बहु पु (पारिभद्रः) फरहद का पेड़ देवदारू अथवा बहुअं निम्ब का पेड़; १-२३२, २५४।
बहुअयं सक (पाटयति) वह फाड़ता है; १-१९८, २३२। बहुहरो वि (स्पर्शः) स्पर्श, छूना; २-९२।
बहु वल्लह (देशज) सक (?) २-१७४ |
बहुप्पई
बहुवी (देशज) पु (बलीवर्दः) बैल, वृषभ; २-१७४।।
बहेडओ बढलो वि पु (बठरः) मूर्ख छात्र १-२५४।। पु (बद्धफलः) करञ्ज का पेड़; २-९७।
बाम्हणो स्त्री (बन्दि) हठ-हत-स्त्री, बांदी; २-१७६ ।
बारं स्त्री (बन्दिनाम्) बाँदी दासियों का; १-१४२। बारह सक (बध्नाति) वह बांधता है; १-१८७।
बाह हे कृ (बन्धितुम्) बांधने के लिये; १-१८१। । बाहो अणुबद्ध वि (अनुबद्धम्) अनुकूल रूप से बंधा बाहइ हुआ;२-१८४। आबन्धतीए वक (आस्बध्नत्या) बांधती हुई के; बाहाए १-७ पु (बन्धः) बंधन, जीव कर्म-संयोग); १-१८७। बाहू बधवा (बान्धवः) कुटुम्ब संबंधित पुरूष; १-३०। बिइओ
पु (वाष्पः) भाप, उष्मा; २-७०। न (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य व्रत, शील व्रत; २-७४ पु (ब्राह्मणः) ब्राह्मण २-७४। न (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य व्रत, शील व्रत; २-६३, १०७ न (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य व्रत; १-५९, २-६३,७४, ९३१ पु (ब्राह्मण) ब्राह्मण; १-६७; २-७४। पु (ब्रह्मा) ब्रह्मा, विधाता; २-७४। पु (बर्हः) मयूर, मोर; २-१०४। बलाया स्त्री (बलाका) बगुले की एक जाति; १-६७) पु स्त्री. (बलिः) बल वाली अथवा बल वाला; १-३५। अ (निर्धारण निश्चये च निपात:) निश्चय निर्णय-अर्थक अव्यय; २-१८५। पु (बृहस्पतिः) ज्योतिष्क देव-विशेष, देव-गुरू; १-१३७ पु (बृहस्पतिः) ज्योतिष्क देव-विशेषः देव-गुरू: १-१३८,२-६९,१३७। वि (बहला) निबिड, निरंतर, गाढः २-१७७। पु (बृहस्पतिः) ज्योतिष्क देव-विशेष, देव-गुरू; २-६९,१३७। (देशज) अ (?) बाहर अथवा, मैथुन, स्त्री सम्भोग; २-१७४। स्त्री (भगिनी) बहिन; २-१२६। वि (बधिरः) बहरा, जो सुन नहीं सकता हो वह; १-१८७| वि (बहु) बहुत; प्रचुर, प्रभूत; २-१६४। वि (बहुक) प्रचुर प्रभूत, बहुत; २-१६४। वि (बहुक) प्रचुर प्रभूत, बहुत; २-१६४। वि (बहुतरः) बहुत में से बहुत; १-१७७॥ वि (बहुवल्लभ) प्रभूत वल्लभ; २-२०२। बहुप्फई पु वृहस्पति देवताओं का गुरू; २-५३। क्रि वि (वहबी) अत्यन्त, अतिशय; २-११३ पु (विभीतकः) बहेड़ा; फल-विशेष; १-८८,१०५, २०६। पु (ब्राह्मणः) ब्राह्मण; १-६७। न (द्वारम्) दरवाजा; १-७९; २-७९, ११२। संख्या वि (द्वादश) बारह; १-२१९, २६२। पु(वाष्पः) अश्रु, आंसु; १-८२। पु (वाष्पः) अश्रु, आंसुः २-७०। सक (बाधते) विरोध करता है, पीड़ा पहुंचाता है; १-१८७) स्त्री (बाहुणा) भुजा से; १-३६। बाहिरं अ (बहिः) बाहर; २-१४०। पु (बाहूः) भुजा; १-३६। वि (द्वितीयः) दूसरा; १-५, ९४ ।
फलिहो फलिहो
फाढेइ फालिहद्दो
फालेइ फासो फुम्फुल्लइ
बइल्लो बढरा बद्धफलो बन्दि बन्दीणं बन्धई बन्धेउं
बाहिं
बन्धो बन्धवो
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 405
बिइज्जो बिउणो बिहिओ
बिन्दूई
बिल्लं
देव-गुरू; २-६९,१३७। पुं. (भरत:) ऋषभदेव स्वामी के बड़े लड़के. प्रथम चक्रवर्ती; १-२१४। अ. (भवतः) आप से; १-३७) सर्व (भवन्तः) आप श्रीमान्, तुम; २-१७४ । सर्व (भवन्तः) आप, तुम; १-३७। वि (भवादृशः) तुम्हारे जैसा, आपके तुल्य; १-१४२। वि (भव्यः) सुन्दर, श्रेष्ठ, मक्ति-योग्य: २-१०७ पुं. (भ्रमरः) भंवरा, अलि, मधुकर; १-२४४;
बिस
बिसी बिहप्पई बिहप्फई
२५४।
बिहस्सई बीओ बीहेमि
बुज्झा बुहप्पई
बुहप्फई बुहस्सई
बुंधं
बेल्लं बोरं बोरी
वि (द्वितीयः) दूसरा; १-२४८। वि (द्विगुणः) दो गुणा; दूणा, १-९४, १-७९। भरहो वि (बृहितः) पुष्ट; उपचित, १-११८। बिन्दुणो (बिन्दवः) अनेक बिन्दु अथवा बिन्दुओं भवओ को; १-३४।
भवन्तो न (बिल्लम्) बिल्व का फल; १-८५।
भवन्तो न (बिस) कमल; १-७, २३८।
भवारिसो स्त्री. (वृषी) ऋषि का आसन; १-१२८| पुं (बृहस्पतिः) देवताओं का गुरू; २-१३७। भविओ पु. (बृहस्पतिः) देवताओं का गुरू; १-१३८; भसलो २-१३७। पु (बृहस्पतिः) देवताओं का गुरू; २-६९, १३७। भस्सो सं वि (द्वितीयः) दूसरा; १-५, २४८; २-७९। भाउओ अक. (बिभेमि) में डरता हूं; १-१६९।
भाणं सं कृ. (बुद्धवा) बोध प्राप्त करके; २-१५। पुं. (बृहस्पतिः) देवताओं का गुरू; २-५३, १३७। भामिणी पुं. (बृहस्पतिः) देवताओं का गुरू; २-१३७॥ भायणं पु. (बृहस्पतिः) देवताओं का गुरू; २-१३८,२-५३, १३७॥
भायणा न. (बुध्नम्) मूल-मात्र; २-२६।
भारिआ न (बिल्वम्) बिल्व पेड़ का फल; १-८५।। भासा न (बदरम्) बेर का फल; १-१७०।
भिउडी स्त्री. (बदरी) बेर का गाछ; १-१७०।
भिऊ
भिङ्गारो स्त्री (भगिनी) बहिन; स्वसा; २-१२६ । भिङ्गो पुं (भैरव:) भैरवराग, भयानक रस, नदविशेषः भिण्डिवालो १-१५१॥
भिप्फो पुं. (भयः) डर, त्रास; १-१८७।
भिब्भलो स्त्री (भार्या) पत्नी, स्त्री; २-२४। पुं. दे. (विष्णुः) विष्णु, श्री कृष्ण; २-१७४। भिमोरो पुं. (भट) योद्धा, शूर, वीर; १-१९५।। वि. (भणितम्) कहा हुआ, बोला हुआ; २-१९३ ।। भिसओ १९९।
भिसिणी वि (भणिता) बोलने वाली,कहने वाली; २-१८६। वि (भणन-शीला) बोलने के स्वभाव वाली; भीआए २-१८०
भुअयन्तं वि. (भक्तिमान्) भक्ति वाला, भक्त; २-१५९। न (भद्रम्) मंगल, कल्याण; २-८०। न. (भद्रम्) मंगल, कल्याण; २-८०। पुं. (भस्मः ) राख, ग्रह विशेष; २-५१॥
भुज् स्त्री (भूः) नेत्र के ऊपर की केश-पक्ति; २-१६७।। भोच्चा पुं. (भ्रमर) भंवरा, अलि, मधुकर; १-६, २-१८३। भुत्तं पुं. (भ्रमरः) भंवरा, अलि, मधुकर; १-२४४, भुमया
(भ)
भइणी
भइरवो
भओ भज्जा भट्रिओ भडो भणि
पुं. (भस्मा) राख, ग्रह-विशेष; २-५१। पु. (भ्रातकः) भाई, बन्धु; १-१३१। न (भाजनम्) पात्र, आधार-योग्य, बरतन; १-२६७। स्त्री. (भामिनी) महिला, स्त्री; १-१९०। न (भाजन) पात्र, आधार-योग्य, बरतन; १-२६७; २-२११ भायणाईन (भाजनानि) पात्र, बरतन; १-३३। स्त्री. (भार्या) पत्नी, स्त्री; २-२४, १०७। स्त्री (भाषा) बोली, भाषा; १-२११। स्त्री. (मृकुटी) भौह का विकार, भृकुटी; १-२१०। पुं. (भृगुः) भृगु नामक एक ऋषि; १-१२८। पुं. (भङ्गरः) भ्रमर; भंवरा; १-१२८। पु. (भृङ्ग) स्वर्ण मय जल-पात्र; १-१२८। पुं (भिन्दिपालः) शस्त्र-विशेष; २-३८,८९| वि (भीष्मः) भय जनक, भयंकर; २-५४। वि (विव्हलः) व्याकुल, घबडाया हुआ; २-५८, ९०| देशज ' (हिमोरः) हिम का मध्य भाग (?); २-१७४। पुं. (भिषक्) वैद्य, चिकित्सक; १-२८। स्त्री (बिसीनी) कमलिनी, पदमिनी; १-१३८, २-२१११ स्त्री (भीतया) डरी हुई से; २-१९३। भुआयन्तं न. (भुज-यन्त्रम्) बाहु - यन्त्र, भुजा-यन्त्र; १-४। स्त्री. (भृतिः) भरण, पोषण, वेतन, मूल्य; १-१३१॥ सक खाना, भक्षण करना, भोगना। सक संबं कृ. (भुक्त्वा ) भोग करके; २-१५/ वि (भुक्तम्) भोगा हुआ; २-७७, ८९। स्त्री (भ्रमया) भोंह वाली; आँख के ऊपर की रोम-राजि वाली; १-१२१; २-१६७। अक होना। होई अक (भवति) वह होता है; १-९; २-२०६। हुज्ज विधि (भव, भवतात्) तू हो; २-१८०। होही भूतकाल (अभवत्) वह हुआ;
भणिआ भणिरी
भत्तिवन्तो
भदं भद्द
भप्पो भमया
भमर
भमरो
२५४।
भमिअ भमिरो
सं कृ (भ्रान्त्वा ) घूम करके; २-१४६ वि (भ्रमण-शीलः) घूमने के स्वभाव वाला; २-१४५। भयस्सई पुं. (बृहस्पतिः) ज्योतिष्क देव-विशेष,
भयप्पड़
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
406 : प्राकृत व्याकरण
मअंको
मट्ठ
बहुत्तं वि (प्रभूतम्) बहुत; १-२३३; २९८१
तल्लीन होता है; १-९४। भेडो वि (देशज) (भेरः) भीरू, कातर, डरपोक;
णुमण्णो वि (निमग्नः) डूबा हुआ, तल्लीन हुआ; १-२५१
१-९४,१७४। भेत्तुआण संबक (भित्वा) भेदन करके; २-१४६।
न. (मद्यम्) दारू; मदिरा: २-२४। भोअण-मत्ते न (भोजन-मात्र) भोजन-मात्र में; १-१०२।। मज्जाया स्त्री (मर्यादा) सीमा, हद, अवधि, कूल, किनारा; भोअण-मेत्तं न (भोजन-मात्र) भोजन-मात्र; १-८१।
२-२४। भोच्चा संब कृ. (भुक्त्वा ) खा करके, पालन करके, भोग मज्जारो पुं. (मार्जारः) बिल्ला, बिलाव; १-२६; २-१३२। करके, अनुभव करके, २-१५।
मज्झण्हो मज्झन्न पु. (मध्यान्ह :) दिन का मध्य भाग; भ्रम अक. (भ्रम) घूमना, भ्रमण करना, चक्कर खाना;
दोपहर; २-८४. भमिअ संब कृ. (भ्रमित्वा) घूम करके; मए सर्व (मया) मज्झं न. (मध्यम्) संख्या विशेष, अन्त्य और परार्ध्य मुझ से; २-१९९, २०१, २०३।
के बीच की संख्या; २-२६, ९०। पुं. (मृगांक:) चन्द्रमा; १-१३८/
मज्झिमो पुं. (मध्यम्) मध्यम; १-४८॥ मइलं वि. (मलिनम्) मैला, मल-युक्त; अस्वच्छ; मंजरो पुं. (मार्जारः) मंजार, बिलाव, बिल्ला; २-१३२। २-१३८)
मंजारो पुं. (मार्जारः) मंजार, बिलाव, बिल्ला, बिलाव; मईअ वि (मदीय) मेरा, अपना; २-१४७।
१-२६। मउ-अत्तयाइ वि (मृदुकत्वेन) कोमलपन से, सुकुमारता से; मट्टिआ स्त्री. (मृत्तिका) मिट्टी; २-२९। २-१७२।
वि न (मृष्टम्) मार्जित, शुद्ध, चिकना; १-१२८। मउअं न. (मृदुकम्) कोमलता; १-१२७।
मट्ठा वि (मृष्टाः) घिसे हुए; चिकने किये हुए; २-१७४ । मउडं
न. (मुकुटम्) मुकुट, सिरपंच; १-१०७/ मडप्फर (देशज) पुं(गर्वः) अभिमान, अहंकार; २-१७४। मउण न. (मौनम्) मौन; १-१६२।
मडयं न. (मृतकम्) मुर्दा, शव, लाश; १-२०६। मउत्तणं न. (मृदुत्वम्) कोमलता; १-१२७।
मडह सरिआ वि (हे मृतक-सदृश!) हे मुर्दे के समान; २-२०१। मउरं न (मुकुरम्) मौर (आम मंजरी);बकुल का पेड़, मड्डिओ वि (मृदितः) जिसका मर्दन किया गया हो वह; शीशा; १-१०७।
२-३६। मउलणं न (मुकुलनम्) थोड़ी विकसित कली: २-१८४। मढो पुं. (मठः) सन्यासिओं का आश्रम, व्रतियों का मउलं न (मुकुलम्) थोड़ी विकसितंकली; १-१०७।
निवास स्थान; १-१९९। मउली
स्त्री पुं (मौलिः) मुकुट, बांधे हुए बाल; १-१६२। मणयं अ (मनाक्) अल्प, थोड़ा; २-१६९। मउलो स्त्री पु. (मुकुलम्) थोड़ी विकसित कली; मणसिला स्त्री (मनशिला) लाल वर्ण की एक उप धातु: १-१०७
१-२६। मउवी वि (मृद्वी) कोमलता वाली, २-११३।
मणहरं
वि. (मनोहरम्) रमणीय, सुन्दर; १-१५६। मऊरो पु. (मयूरः) पक्षि-विशेष; मोर; १-१७१। मणसिला स्त्री (मन-शिला) लालवर्ण की एक उपधातु, मऊहो पुं. (मयूख:) किरण, रश्मि, कान्ति तेज, १-१७१।
मैनशील; १-२६। पुं. (मृगः) हरिण; १-१२६।
मणसिणी पुंस्त्री (मनस्वी) मनस्विनी, प्रशस्त मंजारो पुं. (मार्जारः) बिलाव, बिल्ला; १-२६।
मन वाला अथवा प्रशस्त मन वाली; १-२६, ४४। मंसं न (मांसम्) मांस, गोश्त; १-२९; ७०।
मणा
अ. (मनाक्) अल्प सा, थोड़ा सा; २-१६९। मंसलं वि (मांसलम्) पुष्ट, पीन, उपचित; १-२९ । मणासिला स्त्री. (मनःशिला) लालवर्ण की एक उपधातु, मंसुल्लो वि (श्मश्रुमान) दाढ़ी-मुंछ वाला; २-१५९।
मैनशील; १-२६, ४३। मंसू पुं. न (श्मश्रुः) दाढ़ी मूंछ १-२६; २-८६।। मणि अ. (मनाक्) अल्प, थोड़ा; २-१६९। मग्गओ अ. (मार्गतः) मार्ग से; १-३७।
मणुअत्तं
न (मनुजत्वम्) मनुष्यता; १-८) मग्गन्ति क्रिया (मगन्ते) ढूंढे जाते हैं, अनुसन्धान किये मणमो पुं. (मनुष्यः ) मनुष्य; १-४३। जाते हैं; १-३४।
मणे
अ (विमर्श-अर्थक) विचार-कल्पना के अर्थ में मग्गू पुं. (मद्गुः ) पक्षि-विशेष; जल काक; २-७७।
प्रयोग किया जाने वाला अव्यय-विशेष; २-२०७। मघोणो देशज पुं. (मघवान्) इन्द्र, २-१७४।
मणोजं मणोपणं वि. (मनोज्ञम्) सुन्दर, मनोहर; २-८३ पुं. (मृत्युः) मौत, मृत्यु, मरण; यमराज; १-१३०। मणोसिला स्त्री. (मनःशिला) लालवर्ण की एक उपधातुः मच्छरो मच्छलो वि. (मत्सरः) ईर्ष्यालू, द्वेषी, क्रोधी,
१-२६। कृपण; २-२९।
मणोहरं वि. (मनोहरम्) रमणीय, सुन्दर; १-२५६। मच्छिआ स्त्री. (मक्षिका) मक्खी; जन्तु-विशेष; २-१७।। मण्डलग्गं न. (मण्डलाग्रम्) मण्डल का अग्र भाग तलवार मज्ज
१-३४। णुमज्जइ अक क्रिया (निमज्जति) डूबता है, मण्डलग्गो पुं. (मण्डलाग्रः) तलवार, खड्ग; १-३४।
मओ
मणंसी
म
मच्चू
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 407
मत्ते
मन्
मन्तू
माईणं
मण्डुक्को पुं. (मण्डूकः) मेंढक, दादुर; २-९८।
महिवालो न. (मात्रे) मात्र में; १-१०२।।
महुअं
महुरव्व मन्ने सक (मन्ये) मैं मानता हूं; १-१७१। महुलट्ठी माणिओ वि (मानितः) माना हुआ, सन्मान किया हुआ; २-१८०।
महूअं पुं (मन्युः) क्रोध, अहंकार, अफसोस: २-४४ महेला मन्दरयड पुं (मन्दर तट) मेरू पर्वत का तट किनारा २-१७४। मा मन्नू पुं. (मन्युः ) क्रोध, अहंकार, अफसोस; २-२५, माई ४४
माइहरं मन्ने सक (मन्ये) मैं मानता हूं;१-१७१। मम्मणं न (मन्मनम्) अव्यक्त वचन; २-६१।। माउअं मम्मो पुं. (मर्म) रहस्यपूर्ण गुप्त बात; जीवन स्थान, माउआ
सन्धि ; १-३२। मयगलो वि (मदकल:) मद के उत्कट, नशे में चूर; माउओ
१-१८२। मयंको
पु. (मृगांक) चन्द्रमा; १-१३०, १७७, १८०। मोउक्कं मयच्छि स्त्री (मृगाक्षी) हरिण के नैत्रों जैसी सुन्दर नेत्रों माउच्छा
वाली स्त्री २-१९३। मयणो पुं (मदना) कन्दर्प,कामदेव; १-१७७, १८०, २२८। माउत्तणं मयर-द्वय पु. (मकर-ध्वज) कन्दर्प, कामदेव; १-७। माउमण्डलं मरगय
पुं. (मरकत) नीलवर्ण वाला रत्न-विशेष; पन्ना; माउलुंग २-१११।
माउसिआ मरगयं न. (मरकतम्) नीलवर्ण वाला रत्न विशेष; १-१८२।
माउहरं मरणा वि (मरणा) मृत्यु धर्म वाले; १-१०३।
माणइ मरहट्टो पु. (महाराष्ट्र:) प्रान्त विशेष; मराठा वाड़ा; १-६९।
न. (महाराष्टम्) प्रान्त विशेष; मराठा वाडा; । माणइत्तो १-६९; २-१११॥
माणंसी मलय पुं. (मलय) पर्वत विशेष; मलयाचल; २..९७।। माणसिणी मलिअ वि. (मृदित) मसला हुआ; १-७॥
माणस्स मलिणं मलिनं वि (मलिनम्) मैला, मल युक्त; २-१३८।। माणिओ मल्ल
न (माल्यम्) स्निग्ध, कोमल, सुकुमाल, मामि
चिकना; १-१३०। मसाणं न (श्मशानम्) मसाण, मरघट; २-८६। मसिणं वि (मसृणम्) स्निग्ध, चिकना, कोमल, मायन्दो
सुकुमाल; १-१३०॥ पु.न. (श्मश्रुः) दाढ़ी-मूंछ; २-८६।
माला महइ महए सक. (कांक्षति) वह इच्छा करता है; १-५।। मालस्स महण्णव पुं. (महार्णव) महासमुद्रः १-२६९।
मास महन्तो वि (महान्) अत्यन्त बड़ा; २-१७४।
मासलं महपिउल्लओ वि (महापितृकः) पितामह से संबंधित; २-१६४। महपुण्डरिए पुं. (महापुण्डरीक:) ग्रह विशेष; २-१२० । माहप्पो महमहिअ वि (महमहित) फैला हुआ; १-४६।
मोहप्पं महा-पसु पुं. (महापशु) बड़े पशु; १-८।
माहुलिंग महिमा पुं स्त्री. (महिमा) महत्व, महानता; १-३५। माहो महिला स्त्री (महिला) स्त्रा, नारा; १-१०६ महिवटुं
न. (मही-पृष्ठम्) पृथ्वी का तल; १-११९। मिअङ्को
पुं. (मही-पालः) राजा; १-२३१ । न (मधूकम्) महुआ का फल; १-१२२॥ अ. (मथुरावत्) मथुरा नगरी के समान; २-१५०। स्त्री (मधु-यष्टिः) औषधि-विशेष इक्षु, ईख; १-२४७। न (मधूकम्) महुआ का फल; १-१२२ । स्त्री (महिला) स्त्री नारी; १-१४६। अ. (मा) मत, नहीं; २-२०१। अ. (मा) मत, नहीं; २-१९१। न. (मातृ-गृहम्) माता का घर; १-१३५। स्त्री. (मातृणाम्) माताओं का, की, के; १-१३५ / वि (मृदुकम्) कोमल, सुकुमाल; २-९९ । स्त्री. (मातृका) माता संबंधी; स्वर आदि मूल वर्ण; १-१३१॥ वि (मातृक:) माता संबंधी; स्वर आदि मल वर्ण; १-१३१॥ न (मृदुत्वम्) कोमलता; १-१२७; २-२, ९९। स्त्री. (मातृष्वसा) माता की बहिन, मौसी; २-१४२। न (मृदुत्वम्) कोमलता; २-२॥ न. (मातृ-मण्डलम्) माताओं का समूह; १-१३४ | न. (मातुलिंगम्) बीजोरे का फल; १-१२४ । स्त्री. (मातृष्वसा) माता की बहिन; मौसी; १-१३४;२-१४२। न (मातृगृहम्) माता का घर; १-१३४, १३५। सक (मानयति) वह सन्मान करता है, अनुभव करता है; १-२२८। पुं. (मानवान्) इज्जत वाला; २-१५९। पु. (मनस्वी) अच्छे मन वाला, १-४४। स्त्री (मनस्विनी) अच्छे मन वाली; १-४४। पुन (मानाय) मान के लिये; २-१५। वि (मानितः) सन्मान किया हुआ; २-१८। अ (सखि-आमन्त्रण-अर्थक) सहेली को बुलाने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय विशेष; २-१९५। देशज पु. (माकन्दः) आम्र , आम का पेड़; २-१७४। स्त्री (माला) माला; २-१८२। वि (मालस्य) माला वाले का; १-४। न (मासम्) माँस, गोश्त; १-२९; ७०। वि न (मांसलम्) पीन, पुष्ट, उपचित; १-२९/ पुं. न. (श्मश्रुः) दाढ़ी-मूंछ; २-८६ । पुं. (माहात्मयम्) बड़प्पन; १-३३। पुं. (माहात्म्यम्) बड़प्पन; १-३३। न (मातुलिंगम्) बीजोरे का फल; १-२१४ । पु. (माघः) कवि विशेष; एक महीने का नाम; १-१८७) पुं. (मृगांक:) चन्द्रमा; १-२३०।
मरहट्ठ
मस्सू
मासू
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
408 : प्राकृत व्याकरण
मिइंगो
मिच्चू
मिच्छा मिट्ठ मिरि मिलाइ
मुसा
मुह
मिलाणं मिलिच्छो मिव
पुं. (मृदंगः) मृदंग; वाजा विशेष; १-१३७। मुरूक्खो पु. (मृत्युः ) मृत्यु, मरण, यमराज; १-१३०॥
मुव्वहइ अ. (मिथ्या) असत्य, झूठ; २-२१ । वि (मृष्ठं) मीठा, मधुर; १-१२८
मुसलं न. पु. (मरिचम्) मरिच का गांछ; मिरच; १-१४६। अक (म्लायति) वह म्लान होता है, निस्तेज होता मुसावाओ है; २-१०६।
मुह वि (म्लानम्) म्लान, निस्तेज; २-१०६ । पुं. (म्लेच्छ:) म्लेच्छ, अनार्य पुरूष; १-८४। मुहलो अ. (इव) उपमा, साद्दश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा के संयोग में काम आने वाला अव्यय विशेष; २-१८२। मुहुत्तो न (मिथुनम्) स्त्री-पुरूष का जोडा; दम्पति; ज्योतिष्-प्रसिद्ध एक राशि; १-१८८।
मुहुल्लं न. (मिश्रम्) मिलावट वाला; १-४३; २-१७०।। वि. (मिश्रितम्) संयुक्त, मिला हुआ; २-१७०। पुं. (मृदङ्गः) मृदङ्ग; १-४६, १३७। वि. (मुक्तः) छोड़ा हुआ, व्यक्त; मोक्ष-प्राप्त; २-२॥
मूसावाओ वि (मूकः) गूंगा; वाक्-शक्ति से रहित; २-९९। मेढी वि (मूर्ख:) मूर्ख, अज्ञानी; २-८९, ११२।।
मिहुणं
मीसं मीसालिअं
मूओ मूसओ
मुइंगो मुक्को
मूसलं
मूसा
मुक्को मुक्खो
वि (मूर्खः) मूर्ख, अज्ञानी; २-१९२। सक (उद्वहति) वह धारण करता है; वह उठाता है; २-१७४। न. (मुसलम्) मूसल; १-११३। अ. (मृषा) मिथ्या, अनृत, झूठ; १-१३६ । पु. (मृषावादः) मिथ्या वचन, झूठे बोल; १-१३६ । न. (मुख) मुंह, वदन, मुख; १-२४९। न. (मुखम्) मुंह, वदन, मुख; १-१८७; २-१६४ वि (मुखरः) वाचाल, बकवादी, बहुत बोलने वाला; १-२५४। पु. (मुहूर्तः) दो घड़ी का काल; अड़तालीस मिनिट का समय; २-३०॥ न. (मुखम्) मुह, मुख; २-१६४! वि (मूकः) वाक् शक्ति से रहित, गूंगा; २-९९ । पुं. (मूषकः) चूहा; १-८८। न (मुसलम्) मूसल; १-११३। अ (मृषा) मिथ्या, अनृत, झूठ; १-१३६। पु. (मृषावादः) मिथ्या वचन, झूठे बोल; १-१३६ । पु. (मेढिः) खलिहान में पशु को बांधने का काष्ठ-विशेष; १-२१५ न (मात्रम्) मात्र, सीमान्त; १-८१। स्त्री देशज (?) (मिरा) मर्यादा, १-८७॥ स्त्री (मेखला) कांची, करघनी, कटि में पहिनने का आभूषण; १-१८७। पुं. (मेघाः ) बादल; १-१८७) पुं. (मेघः) बादल; १-१८७) न (मोक्षम्) छुटकारा, मुक्ति ; २-१७६ | पुं. (मुद्गरः) मोगरा का गाछ, पेड़ विशेष, मृद्गर; १-११६; २-७७। न (मुण्डम्) मुण्ड, मस्तक, सिर; १-११६, २०२। संब कृ. (मुक्त्वा ) छोड़ करके; २-१४६। स्त्री. (मुस्ता) मोथा, नागर मोथा नामक ओषधि विशेष; १-११६। अ (मुधा) व्यर्थ, फिजूल; २-२१४| पुं. (मयूरः) पक्षि-विशेष; मोर; १-१७१। न (मूल्यम्) कीमत; १-१२४। अ. (मृषा) झूठ, मिथ्या, अनृत; १-१३६। पु. (मृषावादः) मिथ्या वचन, झूठे बोल; १-१३६ । पुं. (मयूखः) किरण, रश्मि, तेज, कान्ति, शोभा, १-१७१।
मुच्
मेत्तं
.मबछुटकारा, माछ,पेड़
मुच्छा मुञ्जायणो
मुट्ठी मुणसि
मुणन्ति अमुणन्ती मुणिआ. मुणालं मुणिन्दो मुण्ढा मुत्ताहलं मुत्ती मुत्तो
मुच्चइ सक. (मुंचति) वह छोड़ता है; २-२०६। मेरा मोत्तुं सं कृ. (मुक्त्वा ) छोड़ करके, २-१४६। मेहला मुत्तो वि (मुक्तः ) छुटा हुआ; २-२। मुक्का, पम्मुक्क, पमुक्कं वि (प्रमुक्तम्) छुटा मेहा हुआ; २-९७।
मेहो स्त्री (मूर्छा) मोह, बेहोशी, आसक्ति; २-९०।। मोक्खं पुं. (मोजायनः) ऋषि विशेष; १-१६०।
मोग्गरो पुं.स्त्री. (मुष्टि:) मुट्टी, मूठी, मुक्का ; २-३४। सक. (जानासि) तूं मानता है; २-२०९। मोण्डं सक (जानन्ति) वे जानते हैं; २-२०४। मोत्तं वि क (अजानन्ती) नहीं जानती हुई। मोत्था वि (ज्ञाता) जानी हुई; जान ली गई; २-१९९।। न. (मुणालम्) पद्म, कमल; १-१३१। मोरउल्ला पुं. (मुनीन्द्रः) मुनियों के आचार्य; १-८४। मोरो पुं. (मुर्भा) मस्तक, सिर; १-२६, २-४१॥ मोल्लं न (मुक्ताफलम्) मोती; १-२३६।
मोसा स्त्री (मूर्तिः) रूप, आकार, काठिन्य; २-३०।। मोसावाओ वि (मूर्त:) आकृति वाला, कठिन, मूढ़, मोहो मूर्छायुक्त; २-३०। वि. (मुक्तः) छुटा हुआ; त्यक्त; मुक्ति-प्राप्त; २-२ वि. (मुग्ध) मोह-युक्त, सुन्दर, मनोहर, मूढ़; १-१६६। मुद्धाए स्त्री. (मुग्धया) मोहित हुई स्त्री से; १-५। वि (मुग्धम्) मूढ, सुन्दर, मोह-युक्त; २-७७। पुं. (मूर्धा) मूर्धा, मस्तक, सिर; २-४१। पुं. (मुरन्दले!) हे मुरन्दल; २-१९४|
मुत्तो
मुद्ध
अ. (च) हेतु-सूचक, संबंध-सूचक अव्यय, और २-१८४; ३-५७। यडं न (तटम्) किनारा; १-४। जामि अक. (यामि) मैं जाता हूं; २-२०४।
मुद्धाइ, मुद्धं मुद्धा
मुरन्दले
अ (पाद पूरणे) श्लोक चरण की पूर्ति के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय विशेष; २-११७)
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 409
रअणीअरो
रग्गो रच
पु (रजनीकरः) रात्रि में चलने वाले राक्षस आदिः रिऊ १-८
रिक्खा स्त्री (रति) नाम-विशेष: कामदेव की स्त्री। रिक्खं पुं. (रक्तः ) लाल वर्ण, २-१०, ८९।
रिच्छो
रिच्छं विरएमि अक. (विरमामि) में क्रीडा करता हूं; रिज्जू २-२०३।
रिण (देशज वि) (रणरणकम्) निश्वास, उद्वेग, रिद्धी उत्कण्ठा ; २-२०४। न (अरण्यम्) जंगल; १-६६।
रिसहो स्त्री (रात्रिः) रात, निशा; २-७९, ८८| वि पु. (रक्तः) लाल वर्ण वाला; २-१०॥
रणरणयं
रणं रत्ती
रिसी
रभ
रू
रयणं रयणीअरो रयदं रयय रवी रस रसायलं
पुं. (रिपुः) शत्रु, दुश्मन; १-१७७, २३१ । पुं. (ऋक्षः) रीछ, भालू; २-१९।। पुं. (ऋक्षम्) रीछ को; भालू को; २-१९। पुं. (ऋक्षः) रौंछ, भालू; १-१४०, २-१९। पुं. (ऋक्षम्) रीछ को, भालू को; २-१९। वि (ऋजुः) सरल, निष्कपट, सीधा; १-१४१। न (ऋणम्) ऋण, कर्ज; १-१४१।। स्त्री (ऋद्धिः ) संपत्ति, समृद्धि, वैभव; १-१२८, १४०; २-४१ पुं. (ऋषभः) प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ; १-१४१ । पुं. (ऋषिः) ऋषि; मुनि, साधु, ज्ञानी महात्मा; १-१४१। न. (रूतम्) शब्द, आवाज; २-१८३। पुं. न. (वृक्ष) पेड़, गाच्छ, पादप; २-१९॥ पुं. (वृक्षः) पेड़, गाच्छ, पादप; २-१२७) न. (वृक्षाः) पेड़, गाच्छ, पादप; १-३४| पुं. (वृक्षाः) पेड़, गाच्छ, पादप; १-३४| वि (रूदितम्) रोया हुआ; रूदन किया हुआ; १-२०९। पुं. (रूद्रः) महादेव, नाम-विशेष; २-८०। स्त्री (रूद्रः) महादेव, नाम-विशेष; २-८०। स्त्री (रूक्मिणी) नाम विशेष; वासुदेव की पत्नी; २-५२। वि (रूक्मी) सोना वाला, चांदी वाला; २-५२, ८९॥ पुं. (रूधिर) रक्त; खून; १-६। पुं. (रूपः) आकृति; १-१४२। पु. (रूपेण) आकृति से; आकार से; २-१८४। अ. (रे) परिहास, अधिक्षेप, आक्षेप, तिरस्कार आदि अर्थक अव्यय; २-२०१। पुं. (रेफ:) 'र' अक्षर, रकार; दुष्ट, निर्दय, गरीब; १-२३६। अक (राजते) शोभित होती है; २-२११॥ स्त्री (रेखा) चिन्ह विशेष, लकीर २-७/ पुं. (रेखावान्) रेखा वाला; २-१५९। वि (रोदिता) रोने वाला; २-१४५। पुं. (रोषम्) क्रोध को; २-१९०, १९१।
(ल) पुन (लक्षण) अन्य से भेद-सूचक चिन्ह; वस्तु-स्वरूप; २-१७४। न (लक्षण) लक्षण, चिन्ह, २-३। पु. (लग्नः) स्तुति-पाठक; २-७८। न (लांगलम्) हल; १-२५६। न (लांगूलम्) पुच्छ, पूंछ; १-२५६। न (लंघनम्) भोजन नहीं करना; १-३०। स्त्री. (लक्ष्मीः ) संपत्ति, वैभव क्रान्ति; २-१७। न (लांछनम्) चिन्ह, अंकन; १-२५; ३०। न (लांछनम्) चिन्ह, अंकन; १-३०।
रूवो
आढत्तो, आरद्धो वि (आरब्धः) शुरू किया हुआ; रूक्ख १-१३८
रूक्खो
रूक्खाई गइ अक आत्मनेपदी (रमते) वह क्रीड़ा करता रूक्खा 6%;१-२०२।
रूण्णं रमिअ संब कृ. (रमित्वा) रमण करके; २-१४६। न (रत्नम्) रत्न, माणिक्य, मणि; २-१०१। रूद्दो पुं. (रजनीचरः) रात्रि में चलने वाला राक्षस, १-८।। न (रजतम्) चांदी नामक धातु; १-२०९। रूप्पिणी न (रजतम्) चांदी नामक धातुः१-१७७; १८०, २०९। पु. (रविः) सूर्य; १-१७२।
रूप्पी पु.न. (रस) मधुर आदि रस; २-१। न (रसातलं) पाताल लोक, पृथ्वी के नीचे का रूहिर अतिम भाग; १-१७७, १८०। . (रसालः) आम्र वृक्ष, आम का गाछ; २-१५९। रूवेण स्त्री. (रश्मिः ) किरण, रस्सी; १-३५; २-७४,७८ वि रहस्यम् गुह्य, गोपनीय; एकान्त का; २-१९८, २०४।
रेभो पुं. (रघुपतिना) रघुपति से; २-१८८। न. (राजकीयम्) राज-संबंधी; २-१४८ स्त्री. (रात्रिः) रात, निशा; २-८८५ न (राजीवम्) कमल, पद्म; १-१८०।
रेहिरो न. (राजकुलम्) राज-समूह; राजा का वंश; रोविरो १-२६७/ पुं. (रागः) रंगना; रंजन; १-६८। पुं. (राम) श्री रामचन्द्रजी; २-१६४।।
लक्खण न. (राजकुलम्) राज-समूह; राजा का वंश; १-१६७|
लक्खणं न (राजकीयम्) राज संबंधी; २-१४८
लग्गो न (राजवार्तिकम्) राज संबंधी वार्ता-समूह; २-३०। लंगलं न. (राजगृहम्) राजा का महल; २-१४४। लंगूलं अ (रे) संभाषण अथवा संबोधन अर्थक अव्यय; लंघणं २-२१७|
लच्छी पु. (ऋतु:) ऋतु; दो मास का काल विशेष; लंछणं १-१४१,२०९।
लंछणं
रसालो रस्सी
रहुवइणा राइक्कं
रेहइ रेहा
राई
राईवं
राउलं
रोसं
राओ राम रायउलं
रायरं रायवट्ठयं रायहरं
रिऊ
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
410 : प्राकृत व्याकरण
लज्जालुआ स्त्री (लज्जावती) लज्जावाली; २-१५९। वइएहो वि (वैदहः) मिथिला देश का निवासी विशेष; लज्जालुइणी स्त्री. (लज्जावती) लज्जावाली;२-१७४ ।
१-१५१। लज्जिरो वि (लज्जावान्) लज्जा शील; २-१४५। वइजवणो __ वि. (वैजवनः) गोत्र-विशेष में उत्पन्न; १-१५१। लट्ठो स्त्री (यष्टिः ) लाठी, छड़ी; १-२४७; २-३४। वइदब्भो पु. (वैदर्भ) विदर्भ देश का राजा आदि। लण्हं न (श्लक्ष्णम्) लोहा, धातु-विशेष; २-७७। वइरं न (वज्रम) रत्न-विशेष, हीरा, ज्योतिष् प्रसिद्ध
एक योग; १-६; २-१०५। लब्भइ सक (लभते) वह प्राप्त करता है; १-१८७। वइरं न (वैरम्) शत्रुता, दुश्मनी की भावना; १-१५२। लिच्छइ सक (लिप्सते) वह लालसा करता है, वइसम्पायणो पु. (वैशम्पायनः) व्यास ऋषि का शिष्य; १-१५२। प्राप्त करना चाहता है; २-२१॥
वइसवणो पु. (वैश्रवणः) कुबेर; १-१५२। लल्लक्क वि देशज, (?) भीम, भयंकर; २-१७४ । वइसालो वि (वैशालः) विशाला में उत्पन्न; १-१५१। लवण नं (लवण) नमक; १-१७१ ।
वइसाहो पु. (वैशाखः) वैशाख नामक मास विशेष लहुअं न (लघुक) कृष्णागुर, सुगन्धित धूप द्रव्य विशेष;
१-१५१। २-१२२।
वइसिअं न (वैशिकम्) जैने तर शास्त्र विशेष लहवी स्त्री वि (लध्वी) मनोहर, सुन्दर; छोटी; २-११३।
काम-शास्त्र; १-१५२। लाउं लाऊ न (अलाबुम्) तुम्बड़ी, फल-विशेष; वइस्साणरो पुं. (वैश्वानरः) वह्नि, चित्रक, वृक्ष, सामवेद का १-६६।
अवयव विशेष; १-१५१। लायण्णं न (लावण्यम्) शरीर-सौन्दर्य, कान्ति; १-१७७, वसिओ वि (वांशिकः) बांस-वाद्य बजाने वाला; १-७० १८०
वंसो पुं. (वंशः) संतान-संतति, साल-वृक्ष, बांस; लासं न (लास्यम्) वाद्य, नृत्य और गीतमय नाटक
१-२६० विशेष; २-९२।
वक्क न. (वाक्य) पद समुदाय; शब्द-समूह; २-१७४ लाहइ सक (श्लाघते) वह प्रशंसा करता है; १-१८७।।
न. (वल्कलम्) वृक्ष की छाल; २-७९/ लाहलो पु. (लाहलः) म्लेच्छ-जाति-विशेष; १-२५६। वक्खाणं न (व्याख्यानम्) कथन, विवरण, विशद रूप से लिहइ सक (लिखति) वह लिखता है; १-१८७।
अर्थ-प्ररूपण, २-९०। लित्तो वि (लिप्तः) लीपा हुआ; लगा हुआ; १-६। वग्गो पु. (वर्ग:) जातीय समूह; ग्रन्थ-परिच्छेद-सर्ग, लिम्बो पुं. (निम्बः) नीम का पेड़; १-२३०॥
अध्ययन, १-१७७,२-७९। लुक्को वि (रूग्णः ) बीमार, रोगी, भग्न; १-२५४; २-२। वग्गे पुं. (वर्ग) वर्ग में, समूह में; १-६।। लुग्गो वि (रूग्णः ) बीमार, रोगी, भग्न; २-२।
पुं. (व्याघ्र) बाघ, एरण्ड का पेड़, करंच वृक्ष; लेहेण वि (लेखेण) लेख से; लिखे हुए से; २-१८९।
२-९०॥ लोओ पुं. (लोकः) लोक, जगत् संसार; १-१७७; २-२००। वंक वि न (वक्रम्) बांका, टेढा, कुटिल; १-२६। लोअस्स
पुं. (लोकस्य) लोक का; प्राणी वर्ग का; १-१८०। वच् लोअणा पुन (लोचनानि) आंखे अथवा आंखों को;
वोत्तुं हे कृ. (वक्तुम्) बोलने के लिये; २-२१७ १-३३;२-७४।
वाइएण वि (वाचितेन) पढ़े हुए से, बांचे हुए से; लोअणाई पुन (लोचनानि) आंखे अथवा आंखों को;
२-१८९ १-३३॥
न (वक्षस्) छाती, सीना; २-१७) लोअणाणं पुन (लोचनानाम्) आंखो का, की, के; वच्छो पुं. (वृक्षः) पेड़, द्रुमः; २-१७, १२७॥ २-१८४।
वच्छं पुं. (वृक्षम्) वृक्ष को; १-२३। लोगस्स पुं. (लोकस्य) लोक का, संसार का, प्राणी वर्ग वच्छस्स पुं. (वृक्षस्य) वृक्ष का; १-२४९। का; १-१७७।
वच्छाओ
पुं. (वृक्षात्) वृक्ष से; १-५॥ लोणं न (लवणम्) नमक; १-१७१।
वच्छेण वच्छेण पुं. (वृक्षेन) वृक्ष द्वारा, वृक्ष से; १-२७/ लोद्धओ पुं. (लुब्धकः) लोभी, शिकारी; १-११६; २-७९। वच्छेसु वच्छेसु पुं. (वृक्षेषु) वृक्षों में; वृक्षों के ऊपर; १-२७।
वज्जं
नः (वज्रम्) रत्न-विशेष, हीरा, एक प्रकार का अ. (वा) अथवा, १-६७।
लोहा; १-१७७; २-१०५। व्व
व अ. (इव) उपमा, सादृश्य, तुलना, उत्प्रेक्षार्थक वज्ज न (वर्यम्) श्रेष्ठ; २-२४। अव्यय विशेष; २-३४; १८२।
वज्झए कर्मणि व विध्यते) मारा जाता है; २-२६ । वइआलिओ वि (वैतालिकः) मंगल-स्तुति आदि से जगाने वजरा पु. (मार्जारः) मंजार, बिल्ला, बिलाव: २-१३२। वाला मागध आदि; १-१५२।
न (वृत्तम्) गोलाकार; १-८४ । वइआलीअं न (वैतालीयम) छन्द-विशेष; १-१५१। वटा
स्त्री (वार्ता) बात, कथा; २-३०। वइएसो वि (वैदेशः) विदेशी, परदेशी; १-१५१। वट्टी स्त्री (वर्तिः) बत्ती, आंख में सुरमा लगाने की
सलाई; २-३०।
वग्यो
वच्छं
वर्ट
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
बटुल
वट्टो
वट्ठ
वडिस
वड्डयर
वढो
चढरो
वफ
वणं
वणम्मि
वणे
वणस्सइं
वणिआ
वणे
वणोली
वण्णो
वही
वतनक
वतनके
वत्तं
वत्ता
वतिआ
वत्तिओ
वन्दणं
वन्दामि
वन्दे
वन्दित्त
वन्दारया
वन्द्रं
वम्फइ
वंफड़
वम्महो
वम्मिओ
वम्हलो
वयंसो
वयणं
वि. न. (वर्तुलम्) गोल, वृत्ताकार, एक प्रकार का कंद मूल; २-३०।
पुं. (वृत्त:) गोल, पद्य, श्लोक, कछुआ; २- २९ । नं. (पृष्टम् ) पीछे का तल १-८४, १२९ । न. (वडिशम्) मच्छली पकड़ने का कांटा;
१- २०२।
दे. वि. (बृहत्तरम्) विशेष बड़ा २-१७४।
देश. पुं. (वडः) दरवाजे का एक भाग; २- १७४ वढलो पुं. (बठरः) मूर्ख, छात्र, शठ, धूर्त, मन्द, आलसी; १-२५४ ।
पुं. (वनस्पति) फूल के बिना ही जिसमें फल लगते हों वह वृक्ष; २-६९।
न. ( वनम् ) अरण्य, जंगल; १ - १७२ । वर्णमि न (वने) जंगल में, अरण्य में; १ - २३ । न. (वने) जंगल में; २- १७८ ।
पुं. ( वनस्पतिः) फूल के बिना ही जिसमें फल लगते हों वह वृक्ष; २-६९ ।
स्त्री. ( वनिता) स्त्री, महिला, नारी; २ - १२८ । अ. (निश्चययादि अर्थक निपातम् ) निश्चय, विकल्प, अनुकम्पनीय अर्थक अव्यय २ - २०६ । स्त्री. (बनावली) अरण्य भूमि ; २ - १७७ ॥ पुं. (वर्ण:) प्रशंसा, श्लाघा, कुंकुम, १-१४२। गीत क्रम, चित्र १-१७७१
पुं. (वलि) अग्नि, चित्रक वृक्ष, भिलाका का पेड़; २-७५।
(पै.) न. ( वदनम् ) मुंह, मुख; उक्ति, कथन
२-१६४।
(पै.) न. ( वदने) मुख में, मुंह पर उक्ति में;
२-१६४।
न. (पात्रम्) भाजन बरतन १-१४५। स्त्री. (वार्ता) बात, कथा; २-३०।
स्त्री. (वर्तिका) बत्ती, सलाई, कलम २-३०। वि. (वार्तिकः) कथाकार; २-३०१
न. ( वन्दनम् ) प्रणाम, स्तवन, स्तुति १ - १५१ । सक. (वन्दै) मैं वंदना करता हूं; १-६ । सक (वन्दे) में वंदना करता हूँ; १-२४। वन्दित्ता सं. कृ. ( वृन्दित्वा) वंदना करके ; २- १४६ । वि. ( वृन्दारका) मनोहर, मुख्य, प्रधान १-१३२ । न. (वन्द्रम) समूह, यूथ १-५३ २-७९८ सक. (कांक्षति) वह इच्छा करता है; १-३०। सक. (कांक्षति) वह इच्छा करता है; १-३०। पुं. ( मन्मथः) कामदेव, कंदर्प, १ - २४२, २ - ६१ । पुं. (वल्मीकः) कीट विशेष द्वारा कृतमिट्टी का स्तूप: १-१०१।
दे. पु. (? अपस्मारः) केशर; २- १७४ ।
पु. ( वयस्यः) समान आयु वाला मित्र १-२६
२- १८६ ।
न. ( वचनं ) उक्ति, कथन, वचन, १ - २२८ 1
वयणा
वयं
वर
वरिअं
वरिसं
वरिसा
वरिससयं
वर्त्त
वर्ध
वर्ष
वलयाणलो
वलयामुहं
वलिसं
वलुणो
वल्ली
वसई
वसन्ते
वसही
परिशिष्ट-भाग : 411
वयणाई न ( वचनानि) उक्तियां, विविध कथन: १-३३।
न. (वयस्) आयु, उम्र १-३२।
पाठओ वि. (प्रावृत्तः) ढंका हुआ १-१३१/ निउअं वि (निवृतम्) परिवेष्टित, घेराया हुआ;
१-१३१।
निव्वअं वि. (निर्वृतम्) निवृति प्राप्त; १--१३१। निव्वुओ वि. (निर्वृतः ) निवृति प्राप्त ; १ - २०९ । विउ वि (विवृतम्) विस्तृत व्याख्यात १-१३१। संवुअं वि (संवृतम्) संकडा, अविस्तृत ; १ - १३५ ॥ वि. (वृतम् ) स्वीकृति, जिसकी सगाई की गई हो
वह; २-१०७१
न. ( वर्षम् ) मेघ, भारत आदि क्षेत्र; २ - १०५। स्त्री (वर्षा) वृष्टि, पानी का बरसना । न. ( वर्ष - शतम्) सौ वर्ष; २ - १०५ । - (धातु) व्यवहार आदि अर्थ ।
वित्तं न ( वृत्तम्) वृत्ति, वर्तन, व्यवहार; १ - १२८ । वट्टो पुं (वृत्त) कूर्म, कछुआ २ २९ ।
निअत्तसु आज्ञा अक (निवर्त्तस्व) निवृत्त हो;
२-१९६।
निवृत्तं वि (निवृत्तम्) निवृत्त, हटा हुआ, प्रवृत्ति - विमुख १-१३२॥
निअत्तं वि (निवृत्तम्) निवृत्त, हटा हुआ, प्रवृत्ति - विमुख १९३२॥
पडिनिअत्तं वि. (प्रतिनिवृत्तम्) पीछे लौटा हुआ;
१- २०६।
पयट्टइ अक (प्रवर्तते वह प्रवृत्ति करता है; २-३०1 पयट्टो वि (प्रवतः ) जिसने प्रवृत्ति की हो वह
२-२९।
संवट्टि वि. (संवर्तितम् ) संवर्त युक्त २-३०। - (धातु) बढ़ने अर्थ में।
विद्ध वि (वृद्ध) बुड्ढा १-१२८ २-४० / बुढो पुं (वृद्ध) बुड्ढा १-१३२ २ ४० ९० ॥ - (धातु) बरसने अर्थ में
विट्ठो, बुट्टो वि (वृष्टः ) बरसा हुआ, १-१३७। पट्टो पुं. वि. (प्रवृष्टः ) बरसा हुआ, १-१३१ | पुं (वडवानलः) वडवाग्नि, वडवानलः १- १७७। न. (वडवामुखम् ) वडवाग्नि, १ - २०२ ।
न. (बडिशम्) मछली पकड़ने का कांटा; १ - २०२ । पु. ( वरुणः) वरूणवर द्वीप का एक अधिष्ठाता देव; १ - २५४ ।
स्त्री (वल्ली) लता, बेल १-५८१
स्त्री. ( वसतिः) स्थान, आश्रय, वास, निवास; १-२१४।
पुं. (बसन्ते) ऋतु- विशेष में; चैत्र वैशाख मास के समय में; १ - १९० ।
स्त्री ( वसति) स्थान, आश्रय, वास,
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
412 : प्राकृत व्याकरण
वसहो वह
विउअं
वहु
वहुत्तं वहुमुह
वाइएण वाउलो वाउल्लो वाणारसी वामेअरो वायरणं
विज्जं
वारं
वारणं
वारिमई
निवास;१-२१४
विशेष; १-१७७। पुं. (वृषभ्) बेल; १-१२६, १३३।
विआरूल्लो वि (विकारवान्) विकार वाला, विकारयुक्त; (धातु) धारण करने आदि अर्थ में।
२-१५९। वहसि सक (वहसि) तू पहुंचाता है, तू धारण विइण्हो वि (वितृष्णः) तृष्णा रहित, निस्पृह; १-१२८ करता है; २-१९४।
वि. (विवृतम्) विस्तृत, व्याख्यात, खुला हुआ वहइ सक (वहति) वह धारण करता है; १-३८
१-१३१॥ स्त्री. (वधूः) बहू; १-६।
विउसग्गो पुं (व्युत्सर्गः) परित्याग, तप-विशेष; २-१७४ । वहुआइ स्त्री (वध्वा; वधूकायाः) बहू के १-७। विउसा वि (विद्वांसः) विज्ञ, पण्डित; २-१७४ | वि (प्रभुत्तम्) बहुत प्रचुर; १-२३३; २९८॥ विउहो वि पु. (विबुधः) पण्डित, विद्वान्, देव, सुर; वहूमुहं न. (वधू-मुखम्) बहू का मुख; १-४!
१-१७७) अ. (वा) अथवा; १-६७।।
विओओ पु. (वियोगः) जुदाई, बिछोह, विरह; १-१७७। न (वाचितेन) पढ़े हुए से; बाँचे हए से; २-१८९। विकासरो पु (विकस्वरः) खिलने वाला; १-४३। वि (वातूलः) वात-रोगी, उन्मत्तः१-१२९; २-९९। विक्कवो वि (विक्लव:) व्याकुल, बेचैन; २-७९। वि (वातूलः) वात-रोगी, उन्मत्तः २-९९। विंचुओ पु. (वृश्चिक:) बिच्छू; २-१६। स्त्री. (वाणारसी) बनारस; २-११६।
विच्छड्डो पु. (विच्छ्र्दः ) ऋद्वि, वैभव, संपत्ति, विस्तार; वि पुं. (वामेतरः) दाहिना; १-३६।
२-३६। न (व्याकरणम्) व्याकरण, कथन, प्रतिपादन; विजणं न (व्यंजनम्) पंखा; १-१७७। १-२६८
पुं. (विद्वान्) पण्डित, जानकार; २-१५। न. (द्वारम्) दरवाजा; १-७९।
विज्जू स्त्री (विद्युत्) बिजली; १-१५; २-१७३। न (व्याकरणम्) व्याकरण, कथन, प्रतिपादन, विज्जुणा विज्जूए स्त्री (विद्युता) बिजली से; १-३३। उपदेश; १-२६८।
विज्जुला स्त्री विद्युत्) बिजली; १-६; २-१७३। वारीमई, स्त्री. (वारिमतिः) पानी वाली; १-४। विज्झाइ अक (विष्माति) बुझता है, ठण्डा होता है, गुल वारिहरो पुं. (वारिधरः) बादल।
होता है; २-२८। वि (व्याप्तः) किसी कार्य में लगा हुआ; १-२०६। विञ्चुओ पुं. (वृश्चिकः) बिच्छू; १-१२८; २-१६; ८९ वासेसी, पुं. (व्यासर्षिः) व्यास-ऋषि १-५।। विच्छओ पुं. (वृश्चिकः) बिच्छू; १-२३। न (वर्ष-शतम्) सौ वर्ष; २-१०५।
विछिओ पुं. (वृश्चिक) बिच्छू; १-२६ । पुं (वर्षः) एक वर्ष; १-४३।।
पुं (विन्धयः) विन्ध्याचल पर्वत; १-४२। न (वर्षम्) वर्ष; २-१०५।
विंझो
पुं (विन्धयः) विन्ध्याचल पर्वत; व्याध; १-२५, पुं. (वर्षा;) अनेक वर्ष; १-४३; २-१०५।
२-२६, ९२। वाहित्तो वि (व्याहतः) उक्त, कथित; २-९९। विट्ठी स्त्री (वृष्टिः ) वर्षा, वारिस; १-१३७/ वि (व्याहतम्) कहा हुआ; १-१२८।
वि (वृष्टिः ) बरसा हुआ; १-१३७) पुं. (व्याघ्रः) लुब्धक,शिकारी, बहेलिया;१-१८७।। विड्डा स्त्री. (व्रीडा) लज्जा, शरम; २-९८। वि (बाह्यः) बाहिर का; २-७८|
विडिडर वि (व्रीडावाला) लज्जा वाला; २-१७४ । अ. (अपि) भी; १-६,३३,४१,९७; २-१९३,१९५, विणओ पुं (विनयः) नम्रता; १-२४५। २१८।
विणोअ पु. (विनोद) खेल, क्रीडा, कौतुक, कुतूहल; अव (इव) उपमा, सादृश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा
१-१४६/ अर्थक अव्यय; २-१८२।।
विण्टं न (वृन्तम्) फल-पत्र आदि का बन्धन; १-१३९ । पु.न. (विचकिल) पुष्पविशेष, वृक्ष विशेष; विण्णाणं न (विज्ञानम्) सद्बोध, विशिष्ट ज्ञान; २-४२; १-१६६। वि (विकट) प्रकट, खुला, प्रचण्ड, १-१४६। विण्णायं न (विज्ञातम्) जाना हुआ, विदित; २-१९९। स्त्री (वितर्दिः) वेदिका, हवन-स्थान; २-३६।।
पुं. (विष्णुः) व्यक्ति विशेष का नाम; १-८५। वि (विदग्धः) निपुण, कुशल, पंडित; २-४०।
२-७५। पु.न (व्यञ्जनम्) पंखा; १-४६।
वित्ती
स्त्री. (वृत्तिः) जीविका, निर्वाह-साधन; १-१२८ । स्त्री. (वेदना) ज्ञान, सुख-दु:ख आदि का वित्तं न (वृत्तम्) वृत्ति, वर्तन; १-१२८। अनुभव, पीड़ा; १-१४६।
विदुरो वि (विदुरः) विचक्षण, धीर, नागरिक; १-१७७। कुसुम-सरो वि (विकसित कुसुमशरः) खिले हुए विद्दाओ वि (विद्रुतः) विनष्ट, पलायित; १-१०७। फूल रूप बाण वाला; १-९१।।
वि (वृद्ध) वृद्धि-प्राप्त, निपुण; १-१२८; २-४। न (वितानम्) विस्तार; यज्ञ, अवसर, आच्छादन विप्पवो पु. (विप्लवः) देश का उपद्रव; विविध झगड़े
वावडो वासइसी वाससयं वासो वासं वासा वाहिओ वाहित्त वाहो वाहो वि
विंझ
वि?
विअ
विअइल्ल
८३॥
विण्हू
विअड विअड्डी विअड्डो विअणं विअणा
विअसिअ
विद्ध
विआणं
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
२-१०६।
विप्पो विब्भलो
पुं. (विप्रः ) ब्राह्मण, द्विज; १ - १७७ । वि. (विह्वलः) व्याकुल, घबराया हुआ; २-५८ा विम्हओ वि. (विस्मयः) आश्चर्य, चमत्कृतः २ - ७४ । विम्हणिज्जं वि (विस्मयनीयम्) आश्चर्य के योग्य; १-२४८१ विम्हयणीअं वि (विस्मयनीयम्) आश्चर्य के योग्य; १ - २४८ । विम्हर सक. (विस्मरथ) तुम भूलते हो ।
विरला वि. (विरला) अल्प, थोड़े ; २-७२ । वि. न. (विरसम्) रसहीन; १-७ ।
पुं. (विरहा) वियोग, विच्छोह, जुदाई, १ - १९१५ । स्त्री. (विरहाग्निः) वियोग रूपी अग्नि; १-८४ | स्त्री ( वनिता) स्त्री, महिला, नारी; २ - १२८ । न. (व्यलीकम् ) मिथ्या १-४६ ।
वि. (व्रीडितम् ) लज्जित १ - १०१ ।
विरसं
विरहो
विरहग्गी
विलया
विलिअं
विलिअं
विव
विश्
विसदो
विसण्ठुल
विसंतवो
विसमो विसम
विसमइओ
विसमायवो
विसयं
विसी
विसेसो
वि. (विषमः) ऊंचा - नीचा; १ - २४१ | आयवो (विषमातपः) कठोर धूप; १-५ । विसमओ वि. पु. ( विषमयः) विष का बना हुआ;
१-५०१
पुं (विषमातपः) कठोर धूप; १-५१
न. ( विषयम् ) गृह, घर, संभव, संभावना; २ - २०९ । विससिज्जन्त व. कृ. (विशस्यमानः ) हिंसा किये जाते हुए; १-८ विसाओ पुं. (विषादः) खेद, शोक, अफसोस; १-१५५ । स्त्री. (वृसी) ऋषि का आसन; १-१२८ । पुं. नि. (विशेषः) भिन्नताओं वाला; १ - २६० । विस्सोअसिआ स्त्री (विस्रोतसिका) विमार्ग-गमन, दुष्ट-चिंतन
विहडप्फड विहत्थी
विहलो विहवेहिं
विहि
अ. (इव) उपमा, साद्दश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा अर्थक अव्यय विशेष; २ - १८२ ।
विहूणो
विसइ अक (विशति ) प्रवेश करता है; १२६०१ निवेसिआण वि (निवेसितानाम्) रहे हुओं का
१-६०।
वि. (विषमः) समान स्थिति वाला नहीं ऊंचा - नीचा; १ - २४१ ।
वि. (विसंस्थुलम् ) विहल, व्याकुल, अव्यवस्थित; २-३२॥
पुं. वि. (द्विषन्तपः) शत्रु को तपाने वाला, दुश्मन
को हैरान करने वाला; १-१७७१
२-९८१
देशज (?) २ - १७४ |
स्त्री. (वितस्तिः) परिमाण विशेष; बारह अंगुल
का परिमाण; १ - २१४ ।
वि. (विह्वल) व्याकुल; तल्लीन; २-५८, ९३
•
पु. (विभवेः) वैभव द्वारा, विविध सामग्री द्वारा
१-१३४।
पं. (विधि) भाग्य २ - २०६ ।
विही स्त्री पुं. (विधि:) प्रकार भेद रीति; १-३५ । विहीणो वि. (विहीनः ) रहित; १ - १०३ | वि. (विहीन) रहित १ - १०३३
वीइ
वीरिअं
वीसम्भो
बीसा
वीसामो
वीसामो
बीसासो
वीसुं
वुट्ठी
बुट्टी
बुड्ढो
वुत्तन्तो
वुन्दं
वुन्दारया
बुन्दावणो
वुन्द्रं वेअणा
बेअसो
वे आलिओ
वेइल्लं वैकुण्ठो
वेज्जो
वेडिसो
वेदुज्ज
वेणुलठ्ठी
वेणू
वेण्टे
वेण्ड्
बेरं
वेरि
वेरूलिअं
वेलुवणं
बेलू वेल्लन्तो
वेल्ली
वेविरो
वेव्व
स्त्री. ( वीचि) लहर ; १ - ४ |
न. ( वीर्यम्) शरीर स्थित एक धातुः शुक्र, तेज, दीप्ति; १-१०७१
परिशिष्ट भाग 413
पुं. (विस्रम्भः) विश्वास, श्रद्धा १०४३। चौसम अक (विश्राम्यति वह विश्राम करता है; १ - ४३ ।
स्त्री (विंशतिः) संस्था विशेष, बीस १ २८ ९२०
.
पुं (विष्वाणः) आहार भोजन १-४३१
पुं. (विश्रामः) विश्राम लेना; १-४३ ।
पुं. (विश्वास) विश्वास १-४३।
अ. (विष्वक्) सब ओर से, चारों ओर से १-२४, ४३, ५२॥
स्त्री. (वृष्टिः ) वर्षा; १-१३७ ।
स्त्री. (वृद्धि) बढना, बढ़ाव, व्याकरण में प्रसिद्ध एक संज्ञा; १ - १३१, २-४०/
वि. (वृद्ध); पंडित, जानकार; १-१३१; २-४०।
पुं. ( वृत्तान्तः ) खबर, समाचार, हकीकत, बात
१-१३१।
न. (वृन्दम्) समूह, यूथ; १-१३१ ।
वि. (वृन्दारकाः) मनोहर, मुख्य, प्रधान १-१३२ । पुं. ( वृन्दावन) मथुरा के पास का स्थान-विशेष;
१-१३१।
न. (वृन्दम् ) समूह, यूथ; १-५३ ।
स्त्री. ( वेदना) ज्ञान, सुख-दुःख आदि का
अनुभव, पीड़ा, संताप; १ - १४६ ।
पुं. (वेतसः) बेंत का पेड़; १ - २०७ । वि.पुं. (वैतालिकः ) मंगल स्तुति आदि से जगाने वाला मागध आदि; १ - १५२।
न. (विचकिलम्) पुण्य-विशेष; १ - १६६; २-९८ । (वैकुण्ठः) विष्णु का धामः १ - १९९ ॥
पु. ( वैद्यः) वैद्य, चिकित्सक, हकीम, १ - १४८;
२-२४।
पु. ( वेतसः) बेंत की लकड़ी; १-४६, २०७ न. (वेडूर्यम्) रत्न की एक जाति; २- १३३ । स्त्री. (वेणुयष्टिः) बांस की लाठी, छड़ी; १-२४७ । पुं (वेणुः) वाद्य विशेष, बंसी १ २०३३ न. ( वृन्तम्) फल- पत्र आदि का बंधन; १ - १३९; २-३१।
पुं. (विष्णु) व्यक्ति विशेष का नाम; १-८५ । न. (वैरम्) दुश्मनाई, शत्रुता १-१५२॥
पुं, (वैरि) शत्रु १- ६ ।
न. (वैडूर्यम्) रत्न की एक जाति: २ १३३॥ वेलवण न ( वेणुवनम् ) बांसों का वन; १४ । पु. ( वेणु) बाँस १- २०३ ।
व. कृ. ( रममाणः) क्रीडा करता हुआ; १-६६ / स्त्री. (वल्ली) लता, बेल; १-५८ ।
वि. (वपनशीलः) कांपने वाला; २- १४५ । अ. (आमन्त्रण अर्थक)
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
414: प्राकृत व्याकरण
सइरं सई
वेव्वे वेसम्पायणो वेसवणो वेसिअं
वेसो वेहव्वं वोक्कन्त वोण्टं वोत्तुं वोद्रह वोद्रहीओ वोसिरणं व्व
शक्
आमंत्रण-अर्थक;२-१९४। आमन्त्रण-अर्थक; २-१९३, १९४| पु. (वैशम्पायन:) व्यास ऋषि का शिष्य; १-१५२। सउणो पुं (वैश्रवणः) कुबेर; १-१५२। न (वैशिकम्) जैनेतर शास्त्र विशेष, काम शास्त्र; सउरा १-१५२।
सउहं वि (द्वेष्यः) द्वेष करने योग्य, अप्रीति कर; २-९। संवच्छरो न (वैधव्यम्) विधवापन, रांडपन; १-१४८। संवट्रिअं वि (व्युत्क्रान्तम्) विपरीत क्रम में स्थित; १-११६। न (वृन्तम्) फल-पत्र आदि का बंधन; १-३९। संवत्तओ हे कृ. (वक्तुम्) बोलने के लिये; २-२१७। संवत्तणं दे वि. (तरूण), युवा; २-८०1 स्त्री. (तरूण्यः ) तरूण महिलाएं; २-८०। संवरो न. (व्युत्सर्जनम्) परित्याग; २-१७४। अव (इव) समान, उस जैसा; १-६, ७, ६६; संवुडो २-३४, १२९, १५०, १८२, २११।
संसओ
संसिद्धिओ सिक्खन्तु आज्ञार्थक (शिक्षव्यम्) शिक्षाशील हों; संहारो २-८०१
सक्कयं (धातु) शोभने अर्थ में।
सक्कारो सोहइ अकर्मक आत्मने (शोभते) वह सुशोभित सक्कालो होता है; १-१८७, २६०। (धातु) विश्राम अर्थ में।
सक्को विसमइ अक (विश्राम्यति) विश्राम करता है; सक्खं १-४३॥ (धातु) सुनने अर्थ में।
सक्खिणो सोउआण स कृ. (श्रुत्वा) सुन करके; २-१४६ संकरो सोच्चा सं कृ (श्रुत्वा ) सुन करके; २-१५। सुओ वि. (श्रुतः) सुना हुआ; १-२०९। (धातु) आलिंगन अर्थ में।
संखायं सिलिट्ठ वि. (श्लिष्टम्) आलिंगन किया हुआ; २-१०६।
संखो आले?अं हे. कृ. (आश्लेष्टुम्) आलिंगन करने के लिये; १-२४; २-१६४।
संखो आलेट्छु हे. कृ. (आश्लेप्टुम्) आलिंगन करने के संग. लिये; २-१६४।
संगमो आलिद्धो वि.पु. (आश्लिष्टः) आलिंगित; २-४९, संगहिआ ९०। (धातु) श्वास लेना।
संघारो ऊससइ सक (उच्छ्वसति) वह ऊंचा सांस लेता संघो है; १-११४। वीससइ सक (विश्वसिति) वह विश्वास करता सचावं है १-४३॥
सच्चं
.
न (स्वैरम्) स्वछन्दता; १-१५१। स्त्री. (शची) इन्द्राणी; १-१७७। पु. (शकुनिः) चील-पक्षी, शुभाशुभ सूचक बाहुस्पन्दन आदि शकुन १-१८०। पु. (सौराः) ग्रह-विशेष; सूर्य-संबंधी; १-१६२। न (सौधम्) राज-प्रासाद; चाँदी; १-१६२। संवच्छलो पु. (संवत्सरः) वर्ष, साल; २-२१॥ वि (संविर्तितम्) पिंडीभूत, एकत्रित; संवर्तयुक्त; २-३०। पु (संवर्तकः) बलदेव, वडवानल; २-३०। न (संवर्तनम्) जहां पर अनेक मार्ग मिलते हों, वह स्थान; २-३०। पुं (संवरः) कर्म-निरोध, मत्स्य की एक जाति; दैत्य विशेष; १-१७७। पुं. (संवृतः) आवृत, संगीपित; १-१७७। पु. (संशयः) संदेह, शंका; संशय, १-३०। . वि (सासिद्धिकः) स्वभाव सिद्ध, १-७०। पुं. (संहारः) बहु-जंतु-क्षय; प्रलय; १-२६४ । वि (संस्कृतम्) संस्कार-युक्त; १-२८; २-४ | पु. (सत्कारः) सन्मान, आदर, पूजा; १-२८; २-४ । पु. (सत्कारः) संस्कार, सन्मान, आदर, पूजा; १-२५४| वि. (शक्तः) समर्थ, शक्ति युक्त; २-२। अव (साक्षात्) प्रत्यक्ष, आंखों के सामने, प्रकट; १-२४१ वि (साक्षिण:) गवाह, साक्षी; २-१७४। पु. (शंकरः) शिव, महादेव; १-१७७। न (श्रृंखलम्) सांकल, बेड़ी, आभूषण-विशेष; १-१८९॥ वि (संस्त्यानम्) आवाज करने वाला, प्रतिध्वनि; १-७४। पुं. (शंख:) शंख, जल-जन्तु-विशेष; १-३०, १८७1 पु. (शंख:) शंख, जल-जन्तु-विशेष, १-३०। न. (श्रृंगम्) सींग; १-१३० । पु. (संगमः) मेल, मिलाप; १-१७७। वि (संगृहिता) जिसका संचय किया गया हो वह; २-१९८ पु. (संहारः) बहु जन्तु-क्षय; प्रलय; १-२६४। पु. (संघः) साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका का समुदाय; प्राणी समूह; १-१८७) न (सचापम्) धनुष्य सहित; १-१७७। न. (सत्यम्) यथार्थ-भाषण; सत्य-युग, सिद्धांत; २-१३। वि. (सच्छायम्) छाया सहित; कान्ति-युक्त; १-२४९॥ वि (सच्छायम्) छाया-सहित; तुल्य, सदृश; १-२४९।
संकलं
श्लिष्
श्वस
सच्छायं
सइ
सइ
सर्व (सः) वह; २-१८४। अ. (सकृत्) एक समय, एक बार; १-१२८ अ (सदा) हमेशा, निरन्तर; १-७२। न (सैन्यम्) सेना, लश्कर; १-१५१।
सच्छाहं
सइन्नं
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
सज्जणो
सज्जो
सज्झ
सज्झसं
सज्झाओ
सज्झो संझत्तिओ
संजमो
संजा
संजोगो
संझा
संठविआ
सड्ढा
सढा
सढिलं
सढो
सणिअं
सणिच्छरो
सणिद्धं
सणेहो
सहो
संढो
सण्णा
सहं
सण्डं
सत्तरी
सत्तावीसा
सतो
सत्थि
सत्थो
सद्
पु. (सज्जनाः) अच्छा पुरुष; १-१११।
पुं (षड्ज) स्वर-विशेष २-७७॥
न. (साध्यम्) सिद्ध करने योग्य, मन्त्र - विशेष; सद्दालो
२-२६ ।
सद्दो
सद्धा
सन्तो
न. (साध्यसम्) भय, डर; २-२६
पु. ( स्वाध्यायः) शास्त्र का पठन, आवर्तन आदि;
२- २६|
वि (सह्य) सहन करने योग्य २-२६, १२४ वि. ( सांयत्रिक: ) जहाज से यात्रा करने वाला मुसाफिर, १-७०।
पुं; (संयमः ) चारित्रव्रत, नियन्त्रण, काबू १-२४५॥ स्त्री. (संज्ञा) आख्या, नाम, सूर्य की पत्नी गायत्री; २-८३।
पु. ( संयोगः ) संबन्ध, मेल-मिलाप, मिश्रण;
१- २४५१
स्त्री. (सन्ध्या) सांझ, संध्या ९ ६ २५, ३०
२-९२।
संज्ञा स्त्री (सन्ध्या) सांझ, संध्या १-३०। सठाविओ वि. (संस्थापित:) अच्छी तरह से स्थापित १- ६७ ।
स्त्री. (श्रद्धा) विश्वास; २- ४१।
स्त्री (सटा) सिंह आदि की जटा; व्रती का
केश- समूह शिखा १-१९६४
वि. (शिथिलम्) ढीला; १-८९ ।
वि. (शठः) धूर्त, मायावी, कपटी १ १९९॥
अ. ( शनैः) धीरे; २- १६८ ।
पु. ( शनैश्चरः) शनिग्रह; १ - १४९ ।
न. (स्निग्धम् ) चांवल का माँड, चिकना, २- १०९ । पु. ( स्नेह :) प्रेम, प्रीति, स्निग्धरस; चिकनाई
२-१०२।
पुं. (षण्ड: ) सांड, वृषभ, बैल, १ - २६० ॥
सण्ढो पुं. (षण्ढः) नपुंसक; १-३०१
स्त्री. (संज्ञा) सूर्य की पत्नी गायत्री, आख्या
"
नाम; २--४२, ८३ |
न. ( श्लक्ष्णम्) लोहा २ ७५, ७९। वि. (सूक्ष्मम्) छोटा, बारीक; १-११८ वि. ( सप्ततिः) सित्तर साठ और दश वि (सप्तविंशतिः) सत्ताईस १-४ वि. ( शक्तः) समर्थ, शक्तिवान् २ २ अव. (स्वस्ति) आशीर्वाद, क्षेम, कल्याण, मंगल;
२-४५1
पुं (सार्थ) समूह १ ९७/
२-७५ |
१-२१०१
ओसिअन्त व. कृ. ( अवसीदंतम् ) पीड़ा पाते हुए को; १-१०११
नुमण्णो वि (निषण्णः) बैठा हुआ, स्थित
१- १७४।
पसिअ अक (प्रसीद) प्रसन्न हो; १ - १०१; २ - १९६ ।
संदट्टो
सपावं
सपिवासो
सप्फ
सप्फलं
सब्भाव
सभरी
सभलं
सभिक्खू
समए
समत्तो
समप्पेतून
समं
समा
समरो
समवाओ
समिन्झाइ
समिद्धी
समुद्धो
समुहं
समोसर
संपआ
संपइ
संपया
संपयं
संफासो
संभ
ओ
संमड्डो
सम्म
सम्म
संमुहं
सयहुतं
सयढो
परिशिष्ट- भाग : 415
सहिओ वि. ( श्रदधीतम्) विश्वासपूर्वक धारण किया हुआ; १-१२।
वि. (शब्दवान्) शब्द वाला; २- १५९।
पु. (शब्द) ध्वनि, आवाज १२६० २७९ ॥
स्त्री (श्रद्धा) विश्वास १-१२ २ ४१ श
.
वि. (सन्त) अस्तिस्वरूप वाले १-३७१ वि. (संदष्ट) जो काटा गया हो वह २-३४१ न. (सपापम्) पाप सहित १-१७७१ सप्पिवासो वि (सपिपास) तृषातुर, सतृष्ण
२-९७॥
न. (शष्यम्) बालतृण, नया घास २-५३॥ न. (सफलम् ) सार्थक, फल सहित २ २०४३ न (सद्भावम्) सद्भाव, सुन्दर भाव २ - १९७॥ स्त्री. (शफरी) मछली; १ - २३६ ।
वि. (सफलम् ) फल सहित सार्थक १ २३६ ॥ पु. ( सद्- भिक्षुः) श्रेष्ठ साधु १-११। (ण) पु. ( समय ) समय में ३-१३७३ वि. (समाप्त) पूर्ण, पूरा, जो सिद्ध हो चुका
हो
वह; २-४५ ॥
सं. कृ. ( समर्पित्वा) समर्पण करके २ १६४ | अ. (समम्) साथ; २- २०१ ।
वि. (समा) समानता वाली, तुल्यतावाली १ - २६९ पु. ( शबर) भील जाति विशेष १-२५८॥
पु. ( समवायः) संबन्ध विशेष; गुण-गुणी आदि का संबंध; १ - १७७ ।
अक (समिन्द्धे) वह चमकता है; २-२८॥ स्त्री ( समृद्धि) समृद्धि; धन-संपत्ति १-४४,
१२८|
समुद्रो पु (समुद्र) सागर, समुद्र २८०॥
अ. (सम्मुखम् ) सामने १-२९।
अक (समपसर) दूर सरक; २-१९७ ।
स्त्री (संपत्) संपदा, धन-वैभव १-१५।
अ. (संप्रति) इस समय में वर्तमान में, अधुना,
*
अब १- २०६ ।
स्त्री (संपद्) संपदा, धन-वैभव १-१५१
.
वि. (सांप्रतम् ) वर्तमान विद्यमान १ २०९ ॥
पु. ( संस्पर्शः ) स्पर्शः १ - ४३ ।
पु. ( संभ्रम) घवराहट; १-८1
वि. ( संमर्दितः) संघृष्ट अच्छी तरह से घिसा हुआ; २-३६।
पु. ( संमर्दः) युद्ध लड़ाई, परस्पर संघर्ष २-३६ अ. (सम्यक्) अच्छी तरह से; १-२४ ।
न. (शर्मन्) सुख; १-३२ (प्रथमा एकवचन रूप- शर्म) ।
अ. (सम्मुखम् ) सामने १-२९। अ. ( शतकृत्वः) सौ बार २- १५८।
सयं न ( शतम्) सौ; २ - १०५।
पु. ( शकट: ) गाड़ी; १-१९६ ।
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
416 : प्राकृत व्याकरण
सयणो
सयं
सयलं
सया
सहो
सर्
सरो सरओ
सररुहं
सरि
सरिआ
सरिच्छो
सरिया
सरिस
सरिसव
सरो
सरोरुहं
सलाहा
सलिल
सवइ
सवलो सवहो
सव्वं
सव्वओ सव्वङ्गिओ
सव्वज्जो
सयढं व. (शकटम्) गाड़ी, नगर - विशेष; १ - १७७, सव्वत्तो
१८०/
सव्वदो
पुं. (स्वजन) अपना आदमी: २ ११४।
अ. (स्वयम्) खुद ब खुद २२०९ । वि. (सकल) सम्पूर्ण, सबः २ १५॥ अ. (सदा) हमेशा, निरन्तर; १-७२। वि. पुं. (सह्यः) सहन करने योग्य; २- १२४ । (धातु) सरकने अर्थ में
ओसरइ अवसरइ, अक (अपसरति) वह पीछे हटता है, नीचे सरकता है; १-१७२। ओसारिअं अवसारिअं वि (अपसारितं ) पीछे हटाया हुआ, नीचे सरकाया हुआ; १-१७२ । समोसर अक आज्ञा (समपसर) दूर सरक २-१९७।
.
अलग किया हुआ; २-२१। नीसरइ अक (निर्सरति) वह बाहिर निकलता है;
१-९३।
सहा
सहावो
ऊसरइ अक. (उत्सरति) वह ऊपर सरकता है; सहि
१-११४१
सहिआ
ऊसारिओ वि. (उत्सारितः) ऊपर सरकाया हुआ;
सहि अहिं
पुं. (शरः) बाण; १-७, ९१ ।
पुं. (शरद्) ऋतु- विशेष; आश्विन कार्तिक मास; १-१८, ३१ ।
न. (सरोरूहम्) कमल; १ - १५६ ।
वि. (सदृक्) सदृश, सरीखा, तुल्य; १ - १४२ । स्त्री. (सरित्) नदी; १ - १५/
वि (सदृशः) सदृश, समान, तुल्य १-१४४,
•
१४२, २-१७१
स्त्री (सरिद्) नदी २ १५१
वि. (सदृश) समान, सरीखा, तुल्य; २ - १९५ । सरिसो वि (सदृशः) समान तुल्य १-१४२ । खलो पु. ( सर्पप- खलः) सरसों के खलिहान को साफ करने वाला; १ - १८७१
पु. ( स्मर) कामदेव २ ७४, ७८१
न (सरोरुहम्) कमल; १-१५६१ स्त्री. (रलाघा) प्रशंसा, तारीफ, २- १०१ । पु. न. ( सलिल) पानी, जल; १-८२ ।
अक (शपति) वह शाप देती है; १-३३। वि. (शबलः) रंग-बिरंगा, चित्र-विचित्र ; १ - २३७ पुं. ( शपथः) सौगंध आक्रोश वचन, गाली; १-१७९; २३१।
वि. पु. ( सर्वम्) सब को तमाम को; १-१७७;
+
२-७९।
अ. ( सर्वत) सब प्रकार से १३७ २ १६० वि. (सर्वागीणः) जो सभी अंगो में व्याप्त हो ऐसा;
२- १५१।
सव्वण्णू पु. ( सर्वज्ञः) जो सब कुछ जानता हो
वह ; १-५६, २-८३।
सह सहकारी
सहरो
सहलं
सहस्स
सहस्ससिरो
सा
सा साठउअर्थ
साणो
सामओ
सामच्छं
सामा
सामिद्धि
सायरो
सारंग
सारिक्खं
सारिच्छो
अ. (सर्वतः) सब प्रकार से; २- १६० । अ. ( सर्वतः) सब प्रकार से २-१६०१ संवुअवि (संवृतम्) ढंका हुआ, संकड़ा, अविवृतः १ १३१ ।
"
सहइ अक (राजते) वह सुशोभित होता है; १-६॥ सहयारों पु. ( सहकार ) आम का पेड़, मदद सहायता; १-१७७ ।
-
स्त्री. (शफरी) मछली; १ - २३६ ।
वि. (सफलम् ) फल- युक्त सार्थक; १-२३६ ।
.
पुन (सहस्र) हजार दस सौ २ १५८६
वि. पु. ( सहस्र शिरः) प्रभूत मस्तक वाला, विष्णु;
२-१९८।
२-७८१
स्त्री. (समृद्धिः) समृद्धि, धन-वैभव १४४१ पुं. (सागर) समुद्र २-१८२१
न. (शाङ्गम्) विष्णु का धनुष प्रधान दल, श्रेष्ठ अवयव २ १००/
वि. (सादृश्यम्) समान, तुल्य; २-१७।
वि. (सहशः) सदृश, समान, तुल्य १ - ४४/ सारिच्छं वि. न. ( सादृश्यं) तुल्यता, समानता; २-१७१
सालवाहणो पुं. ( शातवाहनः) शालवाहन नामक एक व्यक्ति;
१-२११।
सालाहणो
सालाहणी
सावगो
सावो
सासं
साह
स्त्री (सभा) सभा समिति, परिषद १ - १८७३ पु. (स्वभाव) स्वभाव प्रकृति, निसर्ग १२८७१ स्त्री. (सखि) सहेली, संगिनी २- १९५ ।
वि. (सहदयाः) सुन्दर चित्त वाले परिपक्व बुद्धि वाले; १ - २६९ ।
1
वि. (सहृदयैः) सुन्दर विचारशील पुरूषों द्वारा;
१-२६९।
स्त्री. सर्व (सा) वह (स्त्री); १-३३ २- १८०
२०४ |
पु. स्त्री (स्वान) कुत्ता, अथवा कुत्तिया १५% साऊअयं न (स्वादुदकम् ) स्वादिष्ट जल; १-५१ पु. (श्वान) कुत्ता १-५२।
पु. ( श्यामाक) धान्य विशेषः १-७१। सामत्थं न (सामर्थ्यम्) समर्थता, शक्ति २-२२॥ स्त्री (श्यामा) श्याम वर्ण वाली स्त्री १ २६०,
पुं. ( शातवाहनः) शालवाहन नामक एक व्यक्ति; १-८; २११ ॥
स्त्री ( शातवाहनी) शाल वाहन से संबंध रखने वाली; १ - २११ ।
पु. ( श्रावकः) जैन- उपासक गृहस्थ; श्रावक;
१-१७७१
पु. ( शाप) शाप, आक्रोश, शपथ, सौगन; १-१७९, २३१ ।
न. ( सस्यम्) खेत में उगा हुआ हरा धान; १-४ /
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-भाग : 417
साहा
साहुली साहू साहेमि सि सिआ
सिआलो सिआवाओ
सिंहदत्तो सिंहराओ
सिंग
सिंगारो सिंघो सिच
साहसू आज्ञा सक (कथय) कहो; २-१९७१ सिम्भो पु. (श्लेश्मा) श्लेष्मा, कफ; २-७४। साहेमि वर्त सक. (कथयामि) मैं कहता हूँ; सिरं न (शिरस्) मस्तक, सिर; १-३२॥ २-२०४।
सिरविअणा स्त्री (शिरोवेदना) सिर की पीड़ा; १-१५६। स्त्री (शाखा) डाली; एक ही आचार्य की सिरा स्त्री (शिरा) नस, नाड़ी, रग; १-२६६। शिष्य-परम्परा; १-१८७)
सिरी
स्त्री (श्री:) लक्ष्मी, संपत्ति, शोभा;२-१०४। दे. स्त्री. (शाखा) डाली; २-१७४ ।
सिरि स्त्री (श्री) लक्ष्मी, शोभा; २-१९८५ पु. (साधुः) साधु, यति, महाव्रती; १-१८७। सिरीए स्त्री (श्रियाः) लक्ष्मी का, शोभा का; २-१९८१ सक (कथयामि) मैं कहता हूं; २-२०४। सिरिमन्तो वि (श्रीमान्) शोभा वाला; शोभा-युक्त; अक. (असि) तू हैं; २-२१७।।
२-१५९। अ (स्यात्) प्रशंसा, अस्तित्व, सत्ता, संशय, सिरिसो पु. (शिरीषः) सिरसा का वृक्ष; १-१०१। प्रश्न, निश्चय, विवाद आदि सूचक अव्यय; सिरोविअणा स्त्री (शिरोवेदना) सिर की वेदना; १-१५६। २-१०७
सिल स्त्री (शिला) चट्टान विशेष; १-४। पुं (श्रृंगाल:) सियार, गीदड़, पशु-विशेष; १-१२८। सिलिट्रं वि (श्लिष्टम्) मनोज्ञ,सुन्दर, आलिगित; २-१०६। पु (स्याद्वादः) अनेकान्त दर्शन; जैन दर्शन का सिलिम्हो पु. (श्लेष्मा) श्लेष्मा, कफ,२-५५, १०६। सिद्धान्त विशेष; २-१०७।
सिलेसो पु. (श्लेषः) वज्र लेप आदि संघान; संसर्ग; पु. (सिंहदत्तः) व्यक्तिवाचक नाम; १-९२।
२-१०६। पु. (सिंहराजः) केशरीसिंह; १-९२॥
सिलोओ पु. (श्लोकः) श्लोक, काव्य; २-१०६। न (श्रृंगम्) सींग, विषाण; १-१३०।
सिवम न (शिवम्) मंगल, कल्याण, सुख; २-१५। पु. (श्रृंगारः) काव्य में प्रसिद्ध रस-विशेष; १-१२८ सिविणो पु. (स्वप्नः) सपना; १-४६, २५९, २-१०८ पु. (सिंहः) सिंह; १-२९, २६४।
सिविणए पु. (स्वप्न के) स्वप्न में, सपने में;
२-१८६। ऊसित्तो वि (उत्सिक्तः) गर्वित, उद्धत: १-११४। सिहर न. (शिखरः) पर्वत के ऊपर का भाग, चोटी, श्रृंग; नीसित्तो वि (निष्पक्तः) अत्यन्त सिक्त, गीला;
२-९७) १-४३।
सीअरो पु. (शीकरः) पवन से क्षिप्त जल, फुहार, जल सिज्जइ अक (स्वेद्यति) वह पसीना वाली होती
कण; १-८४। है; २-१८०।
सीभरो पु. (शीकरः) पवन से फेंका हुआ जल, फुहार, वि (सृष्टम्) रचित, निर्मित; १-१२८१
जल कण; १-८४। स्त्री (सृष्टिः) विश्व-निर्माण, बनाई हुई; १-१२८, सीआणं न (श्मशानम्) श्मशान, मसाण, मरघट; २-८६।
सीलेण न (शीलेन) चारित्र से, सदाचार से, २-१८४ । वि पु. (शिथिलः) ढीला, जो मजबूत न हो वह; सीसं न (शीर्णम्) मस्तक, माथा; २-९२। मंद:१-२१५।
पुं. (शिष्यः) शिष्य, चेला; १-४३। सिढिलं वि न (शिथिलम्) ढीला, मंद, १-८९। सीहो पु. (सिंहः) सिह, केशरी, मृगराज; १-२९, ९२, वि पु. (शिथिरः) ढीला; मंद; १-२१५, २५४।
२६४;२-१८५। वि (स्निग्धम्) चिकना, तेल वाला; २-१०९। सीहेण पु. (सिंहेन) सिंह से, मृगराज द्वारा; १-१४४; पु. (सिंहः) मृग-राज, केशरी; २-७५।
२-९६। न (सिक्थम्) धान्य कण, औषधि-विशेष; सीहरो पु (शीकरः) पवन से फेंका हुआ जल कण; २-७७
फुहार; १-१८४। पु. (सिद्धकः) सिन्दूर वार नामक वृक्ष-विशेष; सुअ वि. (श्रुत) सुना हुआ शास्त्र; २-१७४। १-१८७/
वि (शुक्लम्) सफेद वर्ण वाला; श्वेत; २-१०६ । न. (सिन्दूरम्) सिन्दूर, रक्त-वर्णीय चूर्णविशेष सुउरिसो पु. (सुपुरूषः) अच्छा पुरूष, सज्जन; १-८; १७७ । १-८५/
सुओ वि. (श्रुतः) सुना हुआ, आकर्णित; १-२०९। न. (सैन्धवम्) सेंधा नमक, लवण विशेष; सुकडं न. (सुकृतम्) पुण्य, उपकार; अच्छी तरह से १-१४९।
निर्मित; १-२०६। न (सैन्यम्) सेना, लश्कर; १-१५० ।
वि. (सुकुमारः) अति कोमल, सुन्दर, कुमार स्त्री (शुक्तिः ) सोप, जल में पाया जाने वाला
अवस्था वाला; १-१७१। पदार्थ विशेष; २-१३८।
सुकुसुमं न. (सुकुसुमम्) सुन्दर फूल; १-१७७/ स्त्री (शिफा) वृक्ष का जटाकार मूल; १-२३६।।
सुक्क
वि (शुक्ल) शुक्ल पक्ष; २-१०६। पु. (स्वप्नः) स्वप्न, सपना; १-४६; २५९।
सुक्कं न (शुल्कम्) चुंगी, मूल्य आदि; २-११।
सिटुं
सिट्ठी
२३४॥
सिढिलो
सीसो
सिढिलो सिणिद्ध सिंहो सित्थं
सिद्धओ
सुइलं
सिन्दूर
सिन्धवं
सिन्नं सिप्पी
सुकुमालो
सिभा
सिमिणो
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
418 : प्राकृत व्याकरण
सुहओ
सुक्कं सुक्किलं सुक्खं सुगओ सुगन्धत्तणं
सुहओ सुहकरो सुहदो
सुगं सुज्जो
वि पु. (सुभगः) अच्छे भाग्य वाला; १-११३, १९२। वि (सुखदः) सुख को देने वाला; १-१७७। वि (सुखकरः) सुख को करने वाला; १-१७७ । वि (सुखदः) सुख को देने वाला; १-१७७१ सुहेण न (सुखेन) सुख से; १-२३१॥ वि (सुक्ष्मम्) छोटा; २-१०१। वि (सुखकरः) सुख को करने वाला; १-१७७ । आर्ष वि. (सूक्ष्मम्) अत्यन्त छोटा, बारीक; १-११८; २-११३। न. (सुखेन) सुख से; १-२३१।
सुणओ
सुण्डो
सुण्हं
सुण्हा
सुण्हा सुतारं
सुत्ती सुत्तो
सुदंसणो
सुदरिसणो
सेज्जा सेन्दूरं
सुद्धोअणी
सुन्दरि सुन्दरिअं
वि (शुष्कम्) सूखा हुआ; २-५। वि (शुक्लम्) सफेद वर्ण वाला श्वेत; २-१०६। वि (शुष्कम्) सूखा हुआ; २-५। वि (सुगतः) अच्छी गति वाला; १-१७७। न (सौगन्धत्वम्) अच्छा गन्धपना; १-१६०। न. (शुल्कम्) चूंगी, मूल्य आदि २-११। पुं. (सूर्यः) सूरज, रवि, आक का पेड़, दैत्य विशेष; सुहमं २-६४।
सहुयरो पु. (शुनकः) कुत्ता; १-५२। ।
सुहुमं पु. (शोण्डः ) दारू-शराब पीने वाला; १-१६०। वि (सूक्ष्मम्) अति छोटा; १-११८
सुहेण स्त्री (सास्ना) गौ का गल-कम्बल; गाय का सूचमड़ा विशेष; १-७५) स्त्री (स्नुषा) पुत्र-वधू; १-२६१ । वि (सुतारम्) अत्यन्त निर्मल; अत्युच्च आवाज सूरो वाला;१-१७७ स्त्री (शुक्तिः ) सीप, घोंघा; २-१३८, २११। सूरिओ वि (सुप्तः) सोया हुआ; २-७७॥
सूरिसो वि (सुदर्शनः) जिसका दर्शन सुन्दर हो वह; । सूसासो २-१०५।
सूहवो वि. (सुदर्शनः) जिसका दर्शन सुन्दर हो वह; २-१०५॥ वि (शुद्धम्) पवित्र, निर्दोष; १-२६०॥ पु. (शौद्धोदनिः) बुद्ध देव, गौतम; १-१६०। स्त्री (सुन्दरि) उत्तम स्त्री २-१९६|
सेनं न (सौन्दर्यम्) सुन्दरता; १-१६०; २-१०७/ सेफो न (सौन्दर्यम्) सुन्दरता;१-५७, १६०,२-६३,९३।। सेभालिआ न. (सुप्रभातम्) अच्छा प्रातःकाल २-२०४। पु. (सुपुरूषाः) अच्छे पुरूष, सज्जन; २-१८४ सेरं अक. (स्वपिति) वह सोती है; २-१७९। न (शुल्बम्) तांबा नामक धातु विशेष, रस्सी सेला २-७९)
सेवा न. (सुमनस्) अच्छा मन; १-३२। आर्ष पु. (स्वप्नः) स्वप्न, सपना; १-४६ । पु. (सुह्याः) देश-विशेष; २-७४। पु. (सुराष्ट्राः ) अच्छे देश; २-३४।
सेहालिआ स्त्री. (सुरवधूः) देवता की बहु; १-९७) पु. स. (सुरभि) तुगन्ध; २-१५५।
सोअमल्लं स्त्री. (सुरा) मदिरा, शराब, दारू १-१०२। नं. (मुध्नम्) २-११६।
सोउआण अक (स्वपिति) वह सोता है; १-६४। सोच्चा पु. (सुपर्ण) गरूड़-पक्षी; १-२६।
सोण्डीरं वि. (सौवर्णिकः) स्वर्णमय, सोने का बना हुआ;
सोत्तं १-१६०।
सोमालो वि (स्वे) सम गोत्री; अपने स्व जाति के; २-११४।
सोरिअं अ (श्व:) आने वाला कल; २-११४।
सोवई स्त्री (स्नुषा) पुत्र-वधू; १-२६१।
सोहइ न (श्मशानम्) मसाण, मरघट; २-८६ ।
सुन्दरं
सुपहायं
सेयं
सुपुरिसा सुप्पइ सुब्बं
पसूण न (प्रसुन) फूल, पुष्प; १-१६६। प्रसूणं न (प्रसूनम्) फूल, पुष्प; १-१८१। पु. (सूरः) सूर्य, रवि; २-६४। (सूर्यः) सूर्य, रवि; २-६४,२०७४ पु. (सूर्यः) सूरज, रवि; २-१०७। पुं. (सुपुरूषः) अच्छा पुरूष, सज्जन; १-८। वि. (सोच्छ्वासः) ऊर्ध्वश्वास वाला; १-१५७/ वि (सुभगः) अच्छे भाग्य वाला; १-११३, १९२ से (तस्य) उसका; २-१८८। स्त्री (शय्या) बिछौना; १-५७; २-२४। न. (सिन्दूरम्) सिन्दूर, रक्त वर्ण का चूर्ण विशेष; १-८५। न (सैन्यम) सेना, लश्कर, फौज; १-१५०। पु. (श्लेष्मा) कफ, श्लेष्मा; २-५५। स्त्री (सेफालिका) लता-विशेष; १-२३६। न (श्रेयस्) कल्याणकारी; १-३२। वि (स्मेरम्) खिलने के स्वभाव वाला विक स्वर; २-७८/ पुं. (शैलाः) पर्वतों का समूह; १-४८। सेव्वा स्त्री (सेवा) सेवा, आराधना, चाकरी; २-९९। वि (शेषः) बाकी, अवशिष्ट: शेष; १-२६०। सेसस्स वि (शेषस्य) बाकी रहे हुए का; २-१८२। स्त्री (शैफालिका) लता-विशेष; १-२३६ । सर्व (सः) वह; १-१७, १७७,२-९९, १८०। न. (सीकुमार्यम्) सुकुमारता, अति कोमलता; १-१०७;२-६८। संकृ. (श्रुत्वा) सुन करके; २-१४६। सं.कृ. (श्रुत्वा) सुन करके; २-१५ । न. (शौण्डीर्यम्) पराक्रम, शूरता, गर्व; २-६३। न (स्रोतस्) प्रवाह, झरना; छिद्र; २-९८॥ वि. (सुकुमारः) अति कोमल, सुन्दर, कुमार अवस्था वाला; १-१७१, १५४। न (शौर्यम्) शूरता, पराक्रम; २-१०७/ अक (स्वपिति) वह सोता है; १-६४। अक (शोभते) वह शोभा पाता है; १-१८७।
सुमणं
सेसो
सुमिणो सुम्हा सुरहा सुरबहू सुरहि
सुरा सुरूग्धं सुवइ सुवण्ण
सुवण्णिओ
सुवे
सुवे
सुसा सुसाणं
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
हद्धी
परिशिष्ट-भाग : 419 सोहिल्लो पु वि (शोभावान्) शोभायुक्त; २-१५९॥ हणुमतो पु. (हनुमान्) अञ्जना सुन्दरी का पुत्र, हनुमान १-१२१; सोअरिअं न. (सौन्दर्यम्) सुन्दरता; १-१।
२-१५९। स्खल -(धातु) (खिसकने) अर्थ में
हणुमा पु. (हनुमान) हनुमान, अञ्जना सुन्दरी का पुत्र; २-१५९/ खलिअ वि (स्खलित) जिसने त्रुटि की हो वह; नीचे खिसका हुआ; १-४।
हत्थुल्ला पु. (हस्तौ) दो हाथ; २-१६४।
हत्थो खलिओ वि (स्खलितः) जिसने त्रुटि की हो वह;
पु. (हस्तः ) हाथ; २-४५, ९०। २-७७।
हत्था पु. (हस्ती) दो हाथ; २-२६४। खलिअंवि (स्खलितम्) खिसका हुआ; २-८९।
अ. (हा ! धिक्) खेद अनुताप, धिक्कार अर्थक अव्यय; स्तम्भ -(धातु) चकित होना, स्तम्भ समान होना।
२-१९२। थम्भिज्जइ, ठम्भिज्जइ, भावे प्रयोग
हण- (धातु) हनन अर्थ मेंअक (स्तम्भ्यते) उससे हक्का-बक्का हुआ जाता
हयं वि (हतम्) मारा हुआ, नष्ट हुआ;१-२०९; १-१०४। है; २-९।
निहओ वि (निहतः) विशेष रूप से मारा हुआ; थम्भिज्जइ, ठम्भिज्जइ, भावे प्रयोग
१-१८० अक (स्तम्भ्यते) उससे स्तम्भ समान हुआ जाता हन्द अ (गृहणार्थे) ग्रहण करो-लेओ' के अर्थ में प्रयुक्त है;२-९।
होने वाला अव्यय; २-१८१॥ स्त्यासंखाय सं वि (संस्त्यानम्) सान्द्र, निविड़,
हन्दि अ. (विषादादिषु) विषाद, खेद, विकल्प, पश्चाताप, प्रतिध्वनि, आलस्य; १-७४।
निश्चय, सत्य, ग्रहाण-(लेओ) आदि अर्थक अव्यय;
२-१८०,१८१। स्था- (धातु) ठहरने अर्थ में
हे सर्व (अहम्) मै; १-४०। चिटुइ अक. (तिष्ठति) वह ठहरता है; १-१९९२-३६ ।
हयासो ठाइ अक (तिष्ठति) वह ठहरता है; १-१९९।
वि (हताशः) जिसकी आश नष्ट हो गई हो वह, ठविआ ठाविओ वि (स्थापितः), जिसकी स्थापना की गई
निराश; १-२०९ । हो वह; १-६७।
हयासस्स वि. (हताशस्य) हताश की, निराश की;
२-१९५। पइट्रिअं परिट्रवि (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठा प्राप्त को; १-३८। परिट्रविओ परिद्राविओ वि (प्रतिस्थापित:) जिसके स्थान पर
सक (हरति) वह हरण करता है; नष्ट करता है; अथवा जिसके विरुद्ध में स्थापना की गई हो वह;
१-१५५ । १-६७।
हरन्ति सक (हरन्ति) वे हरण करते है; आकर्षित करते हैं; परिट्रविरं वि (परिस्थापितम्) विशेष रूप में जिसकी स्थापना
२-२०४ । की गई हो वह, अथवा उसको; १-१२९ संठविओ
हिअं वि (हतम्) हरण किया हुआ; चुराया हुआ; संठाविओ वि (संस्थापितः) व्यवस्थित रूप में
१-१२८। जिसकी स्थापना की गई हो वह; १-१६७।
ओहरइ सक (अवहरति) वह अपहरण करता है; १७२। स्मर- (धातु)
अवहडं वि (अपहतम्) चुराया हुआ; अपहरण किया विम्हरिमो सक (विस्मरामः) हम भूलते हैं; २-१९३
हुआ; १-२०६। स्वप्
आहड वि (आहतम्) कहा हुआ; १-१२८|
वाहित्तं वि (व्याहृतम्) कहा हुआ; १-१२८। सोवई, सुवइ, अक. (स्वपिति) वह सोता है, सोती है
वाहिओ, वाहित्तो वि (व्याहतः) उक्त,कथित २-९९। १-६४। सुप्पई अक. (स्वपिति) सोती है;२-१७९ ।
संहरइ सक (संहरति) वह हरण करता है, चुराता है;
१-३० सुत्तो वि (सुप्तः) सोया हुआ; २-७७। पसुत्तो, पासुत्तो वि. (प्रसुप्तः) (विशेष ढंग से) सोया
हर पु. (हर) महादेव, शंकर; १-१८३। हुआः १-४४।
हरस्स पु. (हरस्य) हर की, महादेव की, शंकर की;
१-१५८ (हा) अ. (पाद-पूर्ति-अर्थे) पाद-पूर्ति के अर्थ में,
पु. (हदे) बडे जलाशय में; २-१२० । सम्बोधन अर्थ में काम आने वाला अव्यय; १-६७।
हरक्खन्दा हरखन्दा पं (हरस्कन्दी) महादेव और कार्तिकेय; २-९७
हरडई स्त्री (हरीतकी) हरड नामक औषधि विशेषः १-९९, पु. (हंसः) पक्षी-विशेष; हंस; २-१८२। हंहो
२०६। अ. (हं, भोः, हंहो!) संबोधन, तिरस्कार; गर्व, प्रश्न आदि अर्थक अव्यय;२-२१७।
नं. (गृहम) घर, मकान; १-१३४, १३५।
हर
3.
हंसो
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
420 : प्राकृत व्याकरण
हरे
हुत्तं
अं
हरिअंदो पु.. (हरिश्चन्द्रः) हरिश्चन्द्र नामक राजा, २-८७) हिअं वि (हदम्) हरण किया हुआ, चुराया हुआ; १-१३६। हरिआलो पु. (हरिताल;) हरताल, वस्तु विशेष; २-१२१॥ हिअअं न (हृदयम्) हृदय; १-१२८, २-२०४ । हरिसो पु. (हर्षः) सुख, आनन्द, प्रमोद, खुशी; २-१०५। . हित्थं वि (त्रस्तम्) त्रस्त, भयभीत डरा हुआ; २-१३६।
अ (अरे !) तिरस्कार, निन्दा, संभाषण, रति कलह हिर अ (किल) सम्भावना, निश्चय, पादपूर्त्ति अर्थक अर्थक अव्यय; २-२०२।
अव्यय; २-१८६। पु. (हरः) महादेव, शंकर, शिव; १-५१।
हिरिओ वि. (हीतः) लज्जित; २-१०४। हलद्दा हलद्दी स्त्री. (हरिद्रा) हल्दी, औषधि-विशेष; १-८८५ हिरी स्त्री. (ह्रीः) लज्जा; शरम; २-१०४। हला अ (हला) सखी को आमंत्रण करने के अर्थ में प्रयुक्त ही अ. (आश्चर्यादौ निपातः) आश्चर्य आदि अर्थक होने वाला अव्यय; २-१९५।
अव्यय; २-२१७। हलिआरा पु. (हरितालः); वस्तु विशेष; २-१२१ ॥
हीरो पु. (हरः) महादेव, शंकर, १-५१॥ हलिओ पु. (हालिकः) हल जोतने वाला; १-६७।
अ. (खलू) निश्चय, तर्क, वितर्क, संशय, सम्भावना, हलिदो पु. (हारिद्रः) वृक्ष-विशेष; १-२५४।
विस्मय आदि अर्थक अव्यय; २-१९८१ हलिद्दा स्त्री (हरिद्रा) औषधि-विशेष, हल्दी; १-८८|
विधि अक. (भव, भवतात्) तू हो; २-१८०१ हलिद्दी स्त्री (हरिद्रा) औषधि विशेष हल्दी; १-८८, २५४।।
वि. (हूतम्) होमा हुआ, हवन किया हुआ; २-९९। हलुअं वि (लघुकम्) छोटा, हल्का २-१२२।।
प्रत्यय (कृत्वस् अर्थक) (अमुक) वार, दफा अर्थक हले अ (सखी-आमंत्रण) हे सखि! सखी के सम्बोधनार्थक
प्रत्यय; २-१५८ अव्यय; २-१९५।
अ. (दान पृच्छा निवारणे निपातः) दान, पूंछना, हल्लफल देशज (?)२-२-१७४।
निवारण करना अर्थक अव्यय; २-१९७। हस् (धातु) हंसना।
वि. (हूतम्) होमा हुआ, हवन किया हुआ; २-९९। हसइ अक. (हसति) वह हंसता है; २-१९५।
वि. (हीनः) न्यून, अपूर्ण; १-१०३। ऊहसिअं ओहसिअं, उवहसि वि न (उपहसितम्) हंसी हे। अ (निपात विशेषः) सम्बोधन, आह्वान, ईर्ष्या आदि किया हुआ, हंसाया हुआ, १-१७३।
अर्थक अव्यय; २-२१७। हसिरो वि (हसनशील:) हास्य कर्ता, हंसने की आदत वाला; हे, अ. (अदस्) नीचे; २-१४१।। २-१४५।
हेटिल्लं वि (अधस्तनम्) नीचे का; २-१॥ हा अ (हा) विषाद-खेद अर्थक अव्यय: १-६७:२-१७८, हो । अ. (हो) विस्मय, आश्चर्य, संबोधन, आमंत्रण अर्थक १९२,२१७/
अव्यय; २-२१७। हीणो वि (हीनः) न्यून रहित, हल्की श्रेणी का; १-१०३। होइ अक. (भवति) वह होता है; १-९, २-२०६। हीणं वि (हीनम्:) न्यून रहित, हल्की श्रेणी का; १-१०४। होही अ. (भविष्यति) होगी; २-१८०। हूणो वि (होनः) न्यून रहित, हल्की श्रेणी का; १-१०३। पहीण वि (प्रहीण) नष्ट हुआ, १-१०३। विहीणो विहूणो, वि. (विहीनः) रहित; १-१०३। हालिओ पु. (हालिकः) हल जोतने वाला; १-६७। हाहा अ. (हाहा) विलाप, हाहाकार, शोकध्वनि अर्थक
अव्यय; २-२१७। हिअअं न (हदयम्) अन्तःकरण, हृदय;मन; १-१२८|
हिअयं न (हदयम्) अन्तः करण, हृदय, मन; १-२६९; २-२०४। हिअय न. (हृदय), हदय, २-२०१॥ हिअयए न. (हदयके) हृदय में; २-१६४। हिअए न (हदये) हृदय में, अंत:करण में, मन में; १-१९९। (खर) हिअओ वि (खर-हृदयः) कठोर हृदय वाला, निर्दय; २-१८६। हिअस्स वि (हदयस्स) हृदय वाले का; १-२६९।
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________ संस्थान-परिचय आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान आचार्य श्री नानालालजी म.सा. के 1681 के उदयपुर वर्षावास की स्मृति में जनवरी 1683 में स्थापित किया गया। संस्थान का मुख्य उद्देश्य जैन-विद्या एवं प्राकृत के विद्वान तैयार करना, अप्रकाशित जैन-साहित्य का प्रकाशन करना, जैन-विद्या में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों को अध्ययन की सुविधा प्रदान करना, जैन-संस्कृति की सुरक्षा के लिये जैन आचार, दर्शन और इतिहास पर वैज्ञानिक दृष्टि से ग्रंथ तैयार कर प्रकाशित करवाना एवं जैन-विद्या के प्रसार की दृष्टि से संगोष्ठियाँ, भाषण, समारोह आदि आयोजित करना है। यह संस्थान श्री अ.भा.सा.जैन संघ, बीकानेर की. एक मुख्य प्रवृत्ति है। -संस्थान राजस्थान सोसायटीज़ एक्ट 1658 के अंतर्गत रजिस्टर्ड है तथा संस्थान को अनुदान के रूप में दी गई धनराशि पर आयकर अधिनियम की धारा 80 (G) और 12 (A) के अंतर्गत छूट प्राप्त है। जैन-धर्म और संस्कृति के इस पुनीत कार्य में ओप इस प्रकार सहभागी बन सकेंते हैं:१. व्यक्ति या संस्था रु. एक लाखे या इससे अधिक देकर परमे संरक्षक सदस्य बन सकते हैं। ऐसे सदस्यों के नाम अनुदान तिथि क्रम से संस्थान के लेटरपेड पर दर्शाये जाते हैं। 2. रु.५१००० देकर संरक्षक सदस्य बन सकते हैं। 3. रु.२५०००-देकर हितेषी सदस्य बन सकते हैं। 4. रु. 11000 देकर सहायक सदस्य बन सकते हैं। रु. 1000 देकर साधारण सदस्य बन सकते हैं। संघ, ट्रेस्ट, बोर्ड, सोसायटी आदि जो एक साथ रु.२०,००० का अनुदान प्रदान करती है वह संस्था संस्थाम-परिषद की संस्था-संदस्थ होगी। अपने बुजुर्गों की स्मृति में भवन निर्माण हेतु व अन्य आवश्यक यंत्रादि हेतु अनुदान देकर आप इसकी सहायता कर सकते हैं। अपने घर पर पड़ी प्राचीन पांडुलिपियाँ, आगम-साहित्य व अन्य उपयोगी साहित्य प्रदान कर सहायता कर सकते हैं। आपका यह सहयोग ज्ञान साधना के रथ को प्रगति के पथ पर अग्रेसर करेगा। Printed by: New United Printes, Udr. Ph.:24156561 For Priyale & Personal use only