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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 313 प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अंकोल्ल-तेल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५५।।
___ यत्तदेतदोतोरित्तिअ एतल्लुक् च ।। २-१५६॥ एभ्यः परस्य डावादेरतोः परिमाणर्थस्य इत्तिअ इत्यादेशो भवति।। एतदो लुक् च।। यावत्।। जित्ति। तावत्। तित्ति। एतावत्। इत्ति।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'यत्', तत्' और 'एतत्' में संलग्न परिमाण वाचक प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्तिअ' आदेश होता है। 'एतत्' से निर्मित 'एतावत्' के स्थान पर तो केवल 'इत्तिअ' रूप ही होता है अर्थात् ‘एतावत्' का लोप होकर केवल 'इत्तिअ' रूप ही आदेशवत् प्राप्त होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-यावत्-जित्तिअं; तावत्-तित्तिअं; और एतावत्-इत्तिा
'यावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जित्तिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-१५६ से 'आवत्' प्रत्यय के स्थान पर 'इत्तिअ' आदेश; १-५ से प्राप्त 'ज्' के साथ 'इ' की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'जित्तिअं रूप सिद्ध हो जाता है। __ तावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्तिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५६ से 'आवत्' प्रत्यय के स्थान पर 'इत्तिअ आदेश; १-५ से प्रथम 'त्' के साथ 'इ' की संधि; और शेष साधनिका उपरोक्त 'जित्तिअं रूप के समान ही होकर तित्तिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
एतावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इत्तिअं होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१५६ से 'एतावत्' का लोप और 'इत्तिअ आदेश की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'जित्तिों रूप के समान ही होकर 'इत्ति रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५६||
इदं किमश्च डेत्तिअ-डेत्तिल-डेदहाः ।। २-१५७।। इदं किं भ्यां यत्तदेतद्यश्च परस्यातो डवितोर्वा डित एत्तिअ एत्तिल एद्दह इत्यादेशा भवन्ति एतल्लुक च॥ इयत्। एत्ति। एत्तिलं। एद्दह।। कियत्। केत्ति केत्तिलं। केद्दहं।। यावत्। जेत्ति जेत्तिलं। जेद्दह।। तावत्। तेत्ति। तेत्तिलं। तेहह।। एतावत्। एत्ति। एत्तिलं। एद्दह।।
अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्', 'किम्', यत्', 'तत्', और 'एतत्' में संलग्न परिमाण वाचक प्रत्यय 'अतु-अत्' अथवा 'डावतु (ड्' की इत्संज्ञा होकर शेष) आवतु आवत्' के स्थान पर प्राकृत में 'एत्तिअ' अथवा 'एत्तिल' अथवा 'एद्दह' आदेश होते हैं। एतत्' से निर्मित 'एतावत्' का लोप होकर इसके स्थान पर केवल 'एत्ति अथवा 'एत्तिलं' अथवा 'एद्दह रूपों की आदेश रूप से प्राप्ति होती है। उपरोक्त सर्वनामों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- इयत् एत्तिअं, एत्तिल्लं अथवा एद्दह। कियत-केत्तिअं, केत्तिलं और केद्दह। यावत्-जेत्तिअं, जेत्तिलं और जेद्दह। तावत्-तेत्तिअं, तेत्तिलं और तेद्दह। एतावत्-एत्तिअं, एत्तिलं और एद्दह।
'इयत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एत्तिअं', 'एत्तिलं' और 'एव्ह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१५७ की वृत्ति से 'इय्' का लोप; २-१५७ से शेष 'अत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'एत्तिअं, 'एत्तिलं' और 'एदह' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'क्रियत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'केत्ति, 'केत्तिलं' और 'केद्दह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या
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