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________________ 312 : प्राकृत व्याकरण में सूत्र संख्या २-५३ से 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' के स्थान पर 'प्' की प्राप्ति; २-१५४ से त्व' के स्थान पर 'इमा' आदेश १-१० से 'फ' में रहे हुए 'अ' का आगे 'इ' रहने से लोप; १-५ से 'फ्' के आगे रही हुई 'इ' के साथ संधि; और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप होकर प्रथम रूप 'पुप्फिमा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(पुष्पत्वम्=) 'पुप्फत्तणं' में 'पुप्फ' तक प्रथम रूप के समान ही साधनिका; २-१५४ से 'त्व' के स्थान पर 'त्तणं' आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप पुप्फत्तणं सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप- (पुष्पत्वम्-) 'पुप्फत्तं' में 'पुप्फ' तक प्रथम रूप के समान ही साधनिका; २-७९ से 'व' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; और शेष साधनिका द्वितीय रूप के समान ही होकर तृतीय रूप 'पुप्फत्तं' सिद्ध हो जाता है। 'पीनता' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पीयणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और १-१८० से शेष 'आ' को 'या' की प्राप्ति होकर 'पीणया' रूप सिद्ध हो जाता है। पीणदा रूप देशज-भाषा का है; अतः इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है।। २-१५४।। अनङ्कोठात्तैलस्य डेल्लः ।। २-१५५।। अकोठ वर्जिताच्छब्दात्परस्य तैल प्रत्ययस्य डेल्ल इत्यादेशो भवति।। सुरहि-जलेण कडु-एल्लं।। अनङ्कोठादिति किम्। अङ्कोल्ल तेल्लं। ____ अर्थः-'अङ्कोठ' शब्द को छोड़कर अन्य किसी संस्कृत शब्द में "तैल'' प्रत्यय लगा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में इस "तैल'' प्रत्यय के स्थान पर 'डेल्ल' अर्थात् 'एल्ल' आदेश हुआ करता है। जैसे:- सुरभि-जलेन कटु-तैलम् सुरहि-जलेण कडुएल्लं। प्रश्नः- 'अङ्कोठ' शब्द के साथ में तैल' प्रत्यय रहने पर इस 'तैल' प्रत्यय के स्थान पर 'एल्ल' आदेश क्यों नहीं होता है? उत्तरः- प्राकृत भाषा में परम्परागत रूप से 'अङ्कोठ' शब्द के साथ "तैल' प्रत्यय होने पर "तैल के स्थान पर 'एल्ल' आदेश का अभाव पाया जाता है; अतः इस रूप को सूत्र संख्या २-१५५ के विधान क्षेत्र से पृथक् ही रखा गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- अङ्कोठ तैलम्-अङ्कोल्ल तेल्लं।। 'सुरभि-जलेन' संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुरहि-जलेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा'='आ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व स्थित 'ल' के 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होकर 'सुरहि-जलेण' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कटुतैलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कडुएल्ल' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-१५५ से संस्कृत प्रत्यय 'तैल' के स्थान पर प्राकृत में 'एल्ल' आदेश ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कडुएल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'अंकोठ तैलम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अङ्कोल्ल-तेल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२०० से 'ठ' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति २-९८ से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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