________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 311 'पान्थः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पहिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १५२ से 'न' के स्थान पर 'इक' आदेश; १ - १८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - १७७ से आदेश प्राप्त 'इक' के 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पहिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २- १५२ ।।
ईयस्यात्मनो णयः ।। २- १५३।।
आत्मनः परस्य यस्य णय इत्यादेशो भवति ।। आत्मीयम् अप्पणयं ।
अर्थः- 'आत्मा' शब्द में यदि 'ईय' प्रत्यय रहा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में इस 'ईय' प्रत्यय के स्थान पर 'णय' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे- आत्मीयम् अप्पणयं । ।
'आत्मीयम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अप्पणय' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - ५१ से 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २-१५३ से संस्कृत प्रत्यय 'ईय' के स्थान पर 'णय' आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अप्पणयं रूप सिद्ध हो
जाता है। ।। २ - १५३ ।।
त्वस्य डिमा - त्तणौ वा ।। २- १५४।।
त्व प्रत्ययस्य डिमा त्तण इत्यादेशौ वा भवतः । पीणिमा । पुप्फिमा । पीणत्तणं । पुप्फत्तणं । पक्षे। पीणत्तं । पुप्फत्तं ।। इम्नः पृथ्वादिषु नियतत्वात् तदन्य प्रत्ययान्तेषु अस्य विधिः । । पीनता इत्यस्य प्राकृते पीणया इति भवति । पीणदा इति तु भाषान्तरे । ते नेह ततो दा न क्रियते ।।
अर्थः- संस्कृत में प्राप्त होने वाले 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'इमा' और 'त्तण' प्रत्यय का आदेश हुआ करता है। जैसे:- पीनत्वम् - पीणिमा अथवा पीणत्तणं और वैकल्पिक पक्ष में पीणत्तं भी होता है। पुष्पत्वम्=पुप्फिमा अथवा पुप्फत्तणं और वैकल्पिक पक्ष में पुप्फत्तं भी होता है। संस्कृत भाषा में पृथु आदि कुछ शब्द ऐसे हैं; जिनमें 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर इसी अर्थ को बतलाने वाले 'इमन्' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। उनका प्राकृत रूपान्तर अन्य सूत्रानुसार हुआ करता है। संस्कृत शब्द 'पीनता' का प्राकृत रूपान्तर 'पीणया' होता है। किसी अन्य भाषा में 'पीनता' का रूपान्तर 'पीणदा' भी होता है। तदनुसार 'ता' प्रत्यय के स्थान पर 'दा' आदेश नहीं किया जा सकता है। अतः पीणदा रूप को प्राकृत रूप नहीं समझा जाना चाहिये।
'पीनत्वम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पीणिमा, 'पीणत्तणं' और 'पीणत्तं' होते हैं। इसमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १५४ से संस्कृत प्रत्यय ' त्वम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इमा' आदेश की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पीणिमा' की सिद्धि हो जाती है।
द्वितीय रूप-(पीनत्वम्=) 'पीणत्तणं' में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २ - १५४ से संस्कृत प्रत्यय 'त्व' के स्थान पर ' त्तण' आदेश; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर 'पीणत्तणं द्वितीय रूप भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप- (पीनत्वम्=) 'पीणत्तं' में सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २- ७९ से 'व्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और शेष साधनिका द्वितीय रूप के समान होकर तृतीय रूप 'पीणत्त' भी सिद्ध हो जाता है।
'पुष्पत्वम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पुप्फिमा, पुप्फत्तणं' और 'पुप्फत्त* होते हैं। इनमें से प्रथम रूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org