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314 : प्राकृत व्याकरण २-१५७ की वृत्ति से 'इय्' का लोप; २-१५७ से शेष 'अत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिअ', 'एत्तिल' और 'एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; १-५ से शेष 'क्' के साथ प्राप्त प्रत्ययों की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्'का अनुस्वार होकर क्रम से 'केत्तिअं, 'केत्तिलं' और 'केद्दहं रूपों की सिद्धि हो जाती है। __'यावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जेत्ति, 'जेत्तिल' और 'जेद्दह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह प्रत्ययों की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'ज्' के साथ प्राप्त प्रत्ययों की संधि और शेष साधनिका उपरोक्त 'केत्तिअं- आदि रूपों के समान ही होकर क्रम से 'जेत्तिअं, 'जेत्तिलं' और 'जेद्दह' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'एतावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एत्ति, 'एत्तिल' और 'एव्ह होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१५७ से मूल रूप 'एतत्' का लोप; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त 'केत्तिअं- आदि रूपों के समान ही होकर क्रम स 'एत्तिअं, 'एत्तिलं' और 'एद्दह' रूपों की सिद्धि हो जाती है।
'तावत्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तेत्तिअं, 'तेत्तिलं' और 'तेद्दह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११ से मूल रूप 'तत्' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह' प्रत्ययों की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त केत्तिअं आदि रूपों के समान ही होकर क्रम से 'तेत्तिअं, 'तेत्तिल' और 'तेद्दह' रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। २-१५७।।
कृत्वसो हुत्तं ।। २-१५८॥ __ वारे कृत्वस् (हे. ७-२) इति यः कृत्वस् विहितस्तस्य हुत्तमित्यादेशो भवति।। सयहुत्तं। सहस्सहुत्त।। कथं प्रियाभिमुखं पियहुत्तं। अभिमुखार्थेन हुत्त शब्देन भविष्यति।। ____ अर्थः- संस्कृत भाषा में वार' अर्थ में कृत्वः' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उसी कृत्वः' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'हुत्त आदेश की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- शतकृत्वः सयहुत्तं और सहस्त्रकृत्वः सहस्सहुत्तं इत्यादि।
प्रश्न:- संस्कृत रूप 'प्रियाभिमुख' का प्राकृत रूपान्तर 'पियहुत्त' होता है। इसमें प्रश्न यह है कि 'अभिमुख' के स्थान पर 'हुत्तं की प्राप्ति कैसे होती है ?
उत्तर:- यहां पर हुत्त' प्रत्यय की प्राप्ति कृत्वः' अर्थ में नहीं हुई है; किन्तु अभिमुख' अर्थ में ही 'हुत्त' शब्द आया हुआ है। इस प्रकार यहां पर यह विशेषता समझ लेनी चाहिये। __'शतकृत्वः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सयहुत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१५८ से 'वार-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय कृत्व' के स्थान पर प्राकृत में हुत्त आदेश; और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग अर्थात् 'स्' का लोप होकर 'सयहुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सहस्र-कृत्वः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सहस्सहुत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से '' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'स' को द्वित्व स्स' की प्राप्ति; शेष साधनिका उपरोक्त सय-हुत्तं के समान होकर 'सहस्सहुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
'प्रियाभिमुखम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पियहुत्तंहोता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१५८ की वृत्ति से 'अभिमुख' के स्थान पर 'हुत्त आदेश की
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