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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 315
प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पियुहत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५८।।।
आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणामतोः ।। २-१५९।। आलु इत्यादयो नव आदेशा मतोः स्थाने यथाप्रयोगं भवन्ति।। आलु॥ नेहालू। दयालू। ईसालू। लज्जालुआ।। इल्ल। सोहिल्लो। छाइल्लो। जामइल्लो। उल्ल। विआरूल्लो। मंसुल्लो। दप्पुल्लो। आल। सद्दालो। जडालो। फडालो। रसालो। जोण्हालो॥ वन्त। घणवन्तो। भत्तिवन्तो।। मन्त। हणुमन्तो। सिरिमन्तो। पुण्णमन्तो।। इत्त कव्वइत्तो। माणइत्तो।। इर। गव्विरो। रेहिरो।। मण। धणमणो।। केचिन्मादेशमपीच्छन्ति। हणुमा।। मतोरिति किम्। धणी। अत्थिओ।। ___ अर्थ:- 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मत्' और 'वत्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'नव' आदेश होते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार है:- आल, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर और मण। आलु से सम्बन्धित उद प्रकार है:- स्नेहमान्नेहालू। दयावान् दयालू। ईर्ष्यावान्-ईसालू। लज्जावत्या लज्जालुआ।। इल्ल से सम्बंधित उदाहरणः शोभावान् सोहिल्लो। छायावान् छाइल्लो। यामवान् जामइल्लो। उल्ल से सम्बंधित उदाहरणः-विकारवान्-विआरूल्लो। श्मश्रुवान् मंसुल्लो। दर्पवान् दप्पुल्लो।। आल से संबंधित उदाहरणः- शब्दवान् सद्दालो। जटावान् जडालो। फटावान्-फडालो। रसवान्-रसालो। ज्योत्स्नावान् जोण्हालो। वन्त से संबंधित उदाहरण:- धनवान् धणवन्तो। भक्तिमान् भत्तिवन्तो। मन्त से संबंधित उदाहरणः हनुमान् हनुमन्तो। श्रीमान् सिरिमन्तो। पुण्यवान्=पुण्णमन्तो। इत्त से संबंधित उदाहरण:- काव्यवान् कव्वइत्तो। मानवान् माणइत्तो।। इर से संबंधित उदाहरण:-गर्ववान् गव्विरो। रेखावान् रेहिरो, मण से संबंधित उदाहरणः-धनवान् धणमणो इत्यादि।। कोई-कोई आचार्य 'मत्' और 'वत्' के स्थान पर 'मा' आदेश की प्राप्ति का भी उल्लेख करते हैं; जैसे:- हनुमान् हणुमा।। प्रश्नः- वाला-अर्थक' मत् और वत् का ही उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- संस्कृत में 'वाला' अर्थ में 'मत्' एवं 'वत्' के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों की भी प्राप्ति हुआ करती है। जैसे-धनवाला धनी और अर्थ वाला-अर्थिक; इसलिये आचार्य श्री का मन्तव्य यह है कि उपरोक्त प्राकृत भाषा में वाला' अर्थ को बतलाने वाले जो नव-आदेश कहे गये हैं: वे केवल संस्कत प्रत्यय 'मत' अथवा 'वत' के स्थान पर ही आदेश रूप से प्राप्त हुआ करते हैं; न कि अन्य वाला' अर्थक प्रत्ययों के स्थान पर आते हैं। इसलिये मुख्यतः 'मत्' और 'वत्' का उल्लेख किया गया है। प्राप्त 'वाला' अर्थक अन्य संस्कृत-प्रत्ययों का प्राकृत-विधान अन्य सूत्रानुसार होता है। जैसे:धनी-धणी और अर्थिकः-अत्थिओ इत्यादि। ___ 'स्नेहमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नेहालू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय मान्' के स्थान पर 'आलु' आदेश; १-५ से 'ह' में स्थित 'अ' के साथ 'आलु' प्रत्यय के 'आ' की संधि और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व स्वर उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर'उ' को दीर्घ स्वर'ऊ की प्राप्ति होकर 'नेहाल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दयालू' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'ईर्ष्यावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ईसालू होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; २-१५९ से वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर 'आलु' आदेश और शेष साधनिका नेहालू' के समान ही होकर 'ईसालू' रूप सिद्ध हो जाता है।
लज्जावत्या संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लज्जालुआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१५९ से 'वाला-अर्थक संस्कृत स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'वती' के स्थान पर 'आलु' आदेश; १-५ से 'ज्जा' में स्थित 'आ' के साथ 'आलु' प्रत्यय के 'आ' की सधि और ३-२९ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'लज्जालुआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
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