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316 : प्राकृत व्याकरण
शोभावान् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोहिल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २६० से 'श्' के स्थान पर ‘स्' की प्राप्ति; १ - १८७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश; १ - १० से प्राप्त 'हा' में स्थित 'आ' के आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ह' में आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सोहिल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'छायावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छाइल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'य्' का लोप; २-१५९ से ‘वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश १- १० से लोप हुए 'य्' में शेष 'आ' का आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' की होने से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छाइल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'यामवान्' संस्कृत विशेषण रूप । इसका प्राकृत रूप 'जामइल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २४५ से 'य्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जामइल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'विकारवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विआरूल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १७७ से 'क्' का लोप; २-१५९ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश; १ - १० से 'र्' में स्थित 'अ' का आगे स्थित 'उल्ल' का 'उ' की होने से लोप; १-५ सें र्' में 'उ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ि के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विआरूल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'श्मश्रुवान् ' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मंसुल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से हलन्त व्यञ्जन प्रथम 'शू' का लोप; १ - २६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २- ७९ से ' श्रु' में स्थित 'र्' का लोप; १-२६० से लोप, हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु' के 'श' को 'स्' की प्राप्ति; २- १५९ से वाला - अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश १-१० से 'सु' में स्थित 'उ' का आगे स्थित 'उल्ल' का 'उ' होने से लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मंसुल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'दर्पवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दप्पुल्लो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष बचे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २- १५९ से वाला - अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश १-१० से 'प' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन द्वितीय 'प्' में आगे रहे हुए 'उल्ल' प्रत्यय के 'उ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दप्पुल्लो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'शब्दवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सद्दालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २ - ७९ से हलन्त व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'द' को द्वित्व 'इ' की प्राप्ति; २ - १५९ से वाला-अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में ' आल' आदेश; १-५ से 'द्द' में स्थित 'अ' स्वर के साथ प्राप्त ‘आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सद्दालो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जटावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जडालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १९५ से 'ट' के
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