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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 317 स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में ' आल' आदेश; १-५ से प्राप्त 'डा' में स्थित 'आ' स्वर के साथ प्राप्त 'आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जडालो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'फटावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फडालो' होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त 'जडालो' रूप के समान ही होकर 'फडालो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'रसवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रसालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'आल' आदेश; १-५ से 'स' में स्थित 'अ' स्वर के साथ आगे प्राप्त 'आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रसालो' रूप सिद्ध हो जाता है। ‘ज्योत्स्नावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जोण्हालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २- ७७ से 'तू' का लोप; २- ७५ से 'स्न्' के स्थान पर 'ह' आदेश; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'आल' आदेश; १-५ से 'ह' में स्थित 'आ' स्वर के साथ आगे आये हुए 'आल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जोण्हालो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'धनवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धणवन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २- १५९ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धणवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'भक्तिमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भत्तिवन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से 'क्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'क्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ति' में स्थित 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भत्तिवन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। ' हणुमन्तो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १२१ में की गई है। 'श्रीमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिरिमन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १०४ से 'श्री' में स्थित 'श्' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १ - २६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ 'री' में स्थित 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति; २- १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में ' मन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिरिमन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। ‘पुण्यवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुण्णमन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मन्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पुण्णमन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'काव्यवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कव्वइत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २ - १५९ से 'वाला - अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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