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318 : प्राकृत व्याकरण
आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कव्वइत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'मानवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माणइत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'माणइत्तो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गर्ववान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गव्विरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'इर' आदेश; १-१० से प्राप्त 'व्व' में रहे हुए 'अ' का आगे प्राप्त 'इर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'व्व्' में आगे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'गव्विरो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'रेखावान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रेहिरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'इर' आदेश; १-१० से प्राप्त 'ह' में रहे हुए 'आ' का आगे प्राप्त 'इर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त् 'ह' में आगे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रेहिरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'धनवान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धणमणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१५९ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मण' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'धणमणो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'हनुमान्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हणुमा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और २-१५९ की वृत्ति से संस्कृत 'वाला-अर्थक' प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मा' आदेश की प्राप्ति होकर 'हणुमा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'धनी संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'धणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न्' का 'ण' होकर 'धणी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'आर्थिक' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'अत्थिओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ्' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त हुए 'प्रथम' 'थ' के स्थान पर 'त' की प्राप्तिः १-७७ से'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अत्थिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१५९।।
त्तो दो तसो वा ।। २-१६०।। तसः प्रत्ययस्य स्थाने तो दो इत्यादेशौ वा भवतः।। सव्वत्तो सव्वदो। एकतो एकदो। अन्नत्तो अन्नदो। कत्तो कदो। जत्तो जदो। तत्तो तदो। इत्तो इदो।। पक्षे सव्वओ इत्यादि।
अर्थः- संस्कृत में-'अमुक से' अर्थ में प्राप्त होने वाले 'तः' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'तो' और 'दो' ऐसे ये दो आदेश वैकल्पिक रूप से प्राप्त हुआ करते हैं। जैसे:- सर्वतः-सव्वत्तो अथवा सव्वदो। वैकल्पिक पक्ष में 'सव्वओ' भी होता है। एकतः एकत्तो अथवा एकदो। अन्यतः अन्नत्तो अथवा अन्नदो। कुत्तः=कुत्तो अथवा कदो। यतः जत्तो अथवा जदो। ततः तत्तो अथवा तदो। इतः =इत्तो अथवा इदो। इत्यादि।
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