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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 319 'सर्वतः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सव्वत्तो', 'सव्वदो' और 'सव्वओ' होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष बचे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और २-१६० संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'सव्वत्तो' और 'सव्वदो' यों प्रथम दो रूपों की सिद्धि हो जाती है। तृतीय रूप 'सव्वआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-३७ में की गई है। 'एकतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एकत्तो' और 'एकदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'एकत्तो' और 'एकदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ 'अन्यतः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अन्नत्तो' और 'अनदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'अन्नत्तो' और 'अन्नदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'कुतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कत्तो' और 'कदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-७१ से 'कु' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; और २-१६० संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'कत्तो' और 'कदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'यतः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जत्तो' और 'जदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और २-१६० संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'जत्तो' और 'जदो यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। 'ततः' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तत्तो' और 'तदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'तत्तो' और 'तदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। __'इतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इत्तो' और 'इदो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'त्तो और दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'इत्तो' और 'इदो' यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। २-१६०।। त्रपो हि-ह-त्थाः ॥ २-१६१॥ त्रप प्रत्ययस्य एते भवन्ति।। यत्र। जहि। जह। जत्था तत्र। तहि। तह। तत्था कुत्र। कहि। कह। कत्थ। अन्यत्र। अन्नहि। अनह। अन्नत्थ॥ अर्थः- संस्कृत में स्थान वाचक 'त्र' के स्थान पर प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' यों तीन आदेश क्रम से होते हैं। उदाहरण इस प्रकार हैं:- यत्र-जहि अथवा जह अथवा जत्थ।। तत्र-तहि अथवा तह अथवा तत्थ।। कुत्र-कहि अथवा कह अथवा कत्थ और अन्यत्र-अनहि अथवा अन्नह अथवा अन्नत्थ।। 'यत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जहि', 'जह' और 'जत्थ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और २-१६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप जहि' 'जह' और 'जत्थ' सिद्ध हो जाते हैं। 'तत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तहि', 'तह' और 'तत्थ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप 'तहि', 'तह' और 'तत्थ' सिद्ध हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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