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320 प्राकृत व्याकरण
'कुत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कहि', 'कह' और 'कत्थ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-७१ से 'कु' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और २ - १६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि' 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप 'कहि', 'कह' और 'कत्थ' सिद्ध हो जाते हैं।
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'अन्यत्र' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अन्नहि', 'अन्नह' और 'अन्नत्थ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और २ - १६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप 'अन्नहि, 'अन्नह' और 'अन्नत्थ' सिद्ध हो जाते हैं। ।। २- १६१ ।।
वैकाद्दः सि सिअं इआ ।। २-१६२ ।।
एक शब्दात् परस्य दा प्रत्ययस्य सि सिअं इआ इत्यादेशा वा भवन्ति ।। एकदा । एक्कसि । एक्कसिअं । एक्कइआ । पक्षे । एगया ||
अर्थः- संस्कृत शब्द 'एक' के पश्चात् रहे हुए 'दा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से ‘सि' अथवा सिअं अथवा 'इआ' आदेशों की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एकदा एक्कसि अथवा एक्कसिअं अथवा एक्कइआ । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में एगया भी होता है।
'एकदा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एकदा', 'एक्कसि', 'एक्कसिअं', 'एक्कइआ' और एगया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'एकदा ' संस्कृत रूपवत् होने से इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है। अन्य द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपों में सूत्र संख्या २- ९८ से 'क' के स्थान पर द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और २ - १६२ से संस्कृत प्रत्यय 'दा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'सि', “सिअं" और "इआ" आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से 'एक्कसि', 'एक्कसिअं और 'एक्कइआ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पंचम रूप- (एकदा =) 'एगया' में सूत्र संख्या १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप और १ - १८० से लोप हुए 'द्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर 'एगया' रूप सिद्ध हो जाता है ।। २ - १६२ ।।
डिल्ल - डुल्लौ भवे
।। २ - १६३ ।। भवेर्थे नाम्नः परौ इल्ल उल्ल इत्येतो डिलो प्रत्ययौ भवतः । । अप्पुल्लं ।। आल्वालावपीच्छन्त्यन्ये ॥
अर्थः- भव-अर्थ में अर्थात् 'अमुक में विद्यमान' इस अर्थ में प्राकृत-संज्ञा - शब्द में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे :- ग्रामे भवा = ग्रामेयका - गामिल्लिआ; पुराभवं पुरिल्लं; अधो- भवं अधस्तनम् - हेट्ठिल्लं; उपरि-भवं=उपरितनम्=उवरिल्लं और आत्मनि - भवं आत्मीयम्=अप्पुल्लं ।। कोई कोई व्याकरणाचार्य 'अमुक' में विद्यमान अर्थ में 'आलु' और 'आल' प्रत्यय भी मानते हैं।
गामिल्लिआ । पुरिल्लं । हेट्ठिल्लं । उवरिल्लं ।
'ग्रामेयका' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गामिल्लिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र्' का लोप; २-१६३ से संस्कृत 'तत्र भव' वाचक प्रत्यय 'इय' के स्थान पर प्राकृत मे 'इल्ल' की प्राप्ति; ३ - ३१ से प्राप्त पुल्लिंग रूप 'गामिल्ल' में स्त्रीलिंग 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - १० से 'ल्ल' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने
लोप; १-८४ से प्राप्त दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और १ - १७७ से 'क्' का लोप होकर 'गामिल्लिआ' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पुराभवम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पुरिल्लं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - १६३ से संस्कृत 'तत्र भव' वाचक प्रत्यय 'भव' के स्थान पर प्राकृत मे 'इल्ल' की प्राप्ति; १ - १० से 'रा' में स्थित 'आ' स्वर का आगे
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