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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 297
स्तोकस्य थोक्क-थोव-थेवाः ।। २-१२५।। स्तोक शब्दस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति वा।। थोक्कं थोवं थेवं। पक्षे। थो।
अर्थः- संस्कृत शब्द स्तोक के प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से तीन आदेश इस प्रकारसे होते हैं। स्तोकम्-थोक्कं, थोवं और थेव।। वैकल्पिक-स्थिति होने से प्राकत-व्याकरण के सत्रों के विधानानसार स्तोकम क त रूप थोअं भी होता है।
'स्तोकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चार होते हैं। जो कि इस प्रकार हैं: थोक्कं, थोव, थेवं और थो इनमें से प्रथम तीन रूपों की प्राप्ति सूत्र संख्या २-१२५ के विधानानुसार आदेश रूप से होती है; आदेश-प्राप्त-रूप में साधनिका का अभाव होता है। ये तीनों रूप प्रथमान्त हैं; अतः इनमें सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ये प्रथम तीनों रूप थोक्कं, थोवं और थेवं सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्थ रूप थोअं की सिद्धि सूत्र संख्या २-४५ में की गई है।।२-१२५।।
दुहितृ-भगिन्योधूआ-बहिण्यौ ।। २-१२६।। अनयोरेतावादेशौ वा भवतः।। धूआ दुहिआ। बहिणी भइणी।।
अर्थः- संस्कृत शब्द दुहित-(प्रथमान्त रूप दुहिता) के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से 'धूआ की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द भगिनी के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश-रूप से 'बहिणी' की प्राप्ति होती है। जैसे:-दुहिता धूआ अथवा दुहिआ और भगिनी-बहिणी अथवा भइणी।। ___ 'दुहिता' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप धूआ और 'दुहिआ' होते हैं। प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२६ से संपूर्ण संस्कृत शब्द दुहिता के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'धूआ' रूप आदेश की प्राप्ति; अतः साधनिका का अभाव होकर प्रथम रूप 'धूआ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(दुहिता-) दुहिआ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप होकर द्वितीय रूप दुहिआ की सिद्धि हो जाती है।
'भगिनी संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बहिणी' और 'भइणी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२६ से संपूर्ण संस्कृत शब्द भगिनी के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'बहिणी' रूप आदेश की प्राप्ति; अतः साधनिका का अभाव होकर प्रथम रूप 'बहिणी' सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप-(भगिनी=) 'भइणी' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भइणी' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२६ ।।
वृक्ष-क्षिप्तयो रुक्ख-छूढौ ।।२-१२७।। वृक्ष-क्षिप्तयोर्यथासंख्यं रुक्ख-छूढ इत्यादेशो वा भवतः। रुक्खो वच्छो। छूढं खित्तं। उच्छूढं। उक्खित्त।।
अर्थः- संस्कृत शब्द वृक्ष के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से 'रूक्ख' की प्राप्ति होती है। जैसे:- वृक्षः रूक्खो अथवा वच्छो।। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द 'क्षिप्त' के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में आदेश-रूप से 'छूढ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- क्षिप्तम्='छूढं अथवा खित्तं।।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- उत्क्षिप्तम् उच्छूढं अथवा उक्खित्त।।
'वृक्षः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'रुक्खो ' और 'वच्छो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२७ से 'वृक्ष के स्थान पर वैकल्पिक रूप 'रूक्ख' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'रूक्खो ' सिद्ध हो जाता है।
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