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________________ 296 : प्राकृत व्याकरण आदि में स्थित न हों तो इन वर्गों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। तद्नुसार 'लघुक' में स्थित 'घ' के स्थान पर प्राप्त होने वाला 'ह' शब्द के आदि स्थान पर आ गया है; एवं इस विधान के अनुसार 'घ' के स्थान पर इस आदि 'ह' की प्राप्ति नहीं होनी चाहिये थी। परन्तु यहां 'ह' की प्राप्ति व्यत्यय नियम से हुई है; अतः सूत्र संख्या १-१८७ से आबधित होता हुआ और इस अधिकृत विधान से व्यत्यय की स्थिति को प्राप्त करता हुआ 'ह' आदि में स्थित रहे तो भी नियम विरूद्ध नहीं है। __ 'लघुकम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'हलुअं' और 'लहुअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति; २-१२२ से प्राप्त 'ह' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय; १-१७७ से 'क्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'हलुअंऔर 'लहु दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है।।२-१२२।। ललाटे ल-डोः ॥ २-१२३।। ललाट शब्दे लकार डकारयो र्व्यत्ययो भवति वा।। णडालं। णलाडं। ललाटे च {१-२५७} इति आदे र्लस्य णविधानादिह द्वितीयो लः स्थानी।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'ललाट' के प्राकृत रूपान्तर में सूत्र संख्या १-१९५ से 'ट' के स्थान पर प्राप्त 'ड' वर्ण का और द्वितीय 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:- ललाटम् ‘णडालं' अथवा णलाड।। मूल संस्कृत लकार है इनमें से प्रथम 'ल' कार के स्थान पर सत्र संख्या १-२५७ से 'ण' की प्राप्ति हो जाती है। अतः सूत्र संख्या २-१२३ में जिन 'ल' वर्ण की और 'ड' वर्ण की परस्पर में व्यत्यय स्थिति बतलाई है; उनमें 'ल' कार द्वितीय के सम्बन्ध में विधान है-ऐसा समझना चाहिये।। 'ललाटम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णडालं' और 'णलाड' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप णडालं की सिद्धि सूत्र संख्या १-४७ में की गई है। द्वितीय रूप-(ललाटम्) णलाडं में सूत्र संख्या १-२५७ से प्रथम 'ल' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'णलाड' भी सिद्ध हो जाता है।।२-१२३।। ह्ये ह्योः ।। २-१२४॥ ह्यशब्दे हकारयकारयोर्व्यत्ययो वा भवति।। गुह्यम्। गुह्यं गुज्झं।। सह्यः। सह्यो सज्झो।। अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'ह्य' व्यञ्जन रहे हुए हों तो ऐसे संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में 'ह' वर्ण और 'य' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय हो जाता है। जैसे:- गुह्यम् गुह्यं अथवा गुज्झं और सह्यः सह्यो अथवा सज्झो।। इत्यादि अन्य शब्दों के संबंध में भी यही स्थिति जानना।। 'गुह्यम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'गुह्य' और 'गुज्झं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-११४ से 'ह' वर्ण की और 'य' वर्ण की परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'गुह्यं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप गुज्झ की सिद्धि सूत्र संख्या २-२६ में की गई है। 'सह्यः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सह्ये' और 'सज्झो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२४ से 'ह' वर्ण की और 'य' वर्ण की परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सह्या' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'सज्झो' की सिद्धि सूत्र संख्या २-२६ में की गई है।।२-१२४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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