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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 295
'अचलपुरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'अलचपुरं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११८ से 'च' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में व्यत्ययः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अलचपुरं' रूप सिद्ध हो जाता है।।२-११८||
महाराष्ट्र ह-रोः ॥ २-११९।। महाराष्ट्र शब्दे हरोर्व्यत्ययो भवति।। मरहटुं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द महाराष्ट्र के प्राकृत-रूपान्तर में 'ह' वर्ण का और 'र' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे:- महाराष्ट्रम्-मरहटुं।। मरहटुं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९९ में की गई है।। २-११९।।
हृदे ह-दोः ।। २-१२०॥ हद शब्दे हकार दकारयोर्व्यत्ययो भवति।। दहो।। आर्षे। हरए महपुण्डरिए।।
अर्थः- संस्कृत शब्द हृद के प्राकृत रूपान्तर में 'ह' वर्ण का और 'द्' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे-हदः-दहो।। आर्ष-प्राकृत में हृदः का रूप हरए भी होता है। जैसे-हद:महापुण्डरीकः हरए महपुण्डरिए।।
'दहो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-८० में की गई है। 'हरए' आर्ष-प्राकृत रूप है। अतः साधनिका का अभाव है।
'महापुण्डरीकः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महापुण्डरिए होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-१०१ से'ई' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; और ४-२८७ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १-१० से लोप हए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ' का आगे 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति हो जाने से लोप होकर 'महपुण्डरिए' रूप सिद्ध हो जाता है।। २-१२०।।
हरिताले र-लोर्न वा ।। २-१२१।। हरिताल शब्दे रकारलकारयो र्व्यत्ययो वा भवति। हलिआरो हरिआलो।।
अर्थ:- संस्कृत शब्द हरिताल के प्राकृत रूपान्तर में 'र' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय वैकल्पिक रूप से होता है। जैसे:- हरितालः हलिआरो अथवा हरिआलो।।
'हरितालः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत-रूप 'हलिआरो' और 'हरिआलो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२१ से 'र' और 'ल' का परस्पर में व्यत्यय; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हलिआरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(हरिताल:= ) 'हरिआलो' में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'हलिआरो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२१।।
लघुके ल-होः ।। २-१२२।। लघुक शब्दे घस्य हत्वे कृते लहोर्व्यत्ययो वा भवति।। हलुओ लहुआ। घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वात् हो न प्राप्नोतीति हकरणम्।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'लघुक' में स्थित 'घ' व्यञ्जन के स्थान पर सूत्र संख्या १--१८७ से 'ह' आदेश की प्राप्ति करने पर इस शब्द के प्राकृत रूपान्तर में प्राप्त 'ह' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:- लघुकम् हलुअं अथवा लहु।। सूत्र संख्या १-१८७ में ऐसा विधान है कि ख, घ, थ, ध और भ वर्ण शब्द के
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