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294 : प्राकृत व्याकरण
करेणु-वाराणस्योर-जो-र्व्यत्ययः ।। २-११६।। अनयो रेफणकारयोर्व्यत्ययः स्थितिपरिवृत्तिर्भवति।। कणेरू। वाणारसी। स्त्रीलिंग निर्देशात् पुसि न भवति। एसो करेणु॥
अर्थः- संस्कृत शब्द 'करेणु' और 'वाराणसी में स्थित 'र' वर्ण और 'ण' का प्राकृत-रूपान्तर में परस्पर में व्यत्यय अर्थात् अदला-बदली हो जाती है। 'ण' के स्थान पर 'र' और 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार की वर्णो सम्बन्धी परस्पर में होने वाली अदला-बदली को संस्कृत भाषा में व्यत्यय कहते हैं। ऐसे व्यत्यय का दसर स्थित 'परिवृत्ति' भी है। उदाहरण इस प्रकार है-करेणुः कणेरू।। वाराणसी-वाणारसी। इन दोनों उदाहरणों में 'ण' और 'र' का परस्पर में व्यत्यय हुआ है। करेणु संस्कृत शब्द के हाथी अथवा हथिनी' यों दोनों लिंग वाचक अर्थ होता है;
सार'र' और 'ण' वणों का परस्पर में व्यत्यय केवल स्त्रीलिंग वाचक अर्थ में ही होता है। पुल्लिग-वाचक अर्थ ग्रहण करने पर इस
इन 'ण' और 'र' वर्णो का परस्पर में व्यत्यय नहीं होगा। जैसे:- एषः करेणुः एसो करेणू यह हाथी।। करेणुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप (स्त्रीलिंग में) 'कणेरू' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११६ से 'र' वर्ण का और 'ण' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'कणेरू' रूप सिद्ध हो जाता है। ___'वाराणसी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'वाणारसी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११६ से 'र' वर्ण का और 'ण' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय होकर 'वाणारसी' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'एषः' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'एसो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८५ से मूल संस्कृत एतद् सर्वनाम के स्थान पर एस रूप की आदेश प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि'
'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एसो' रूप सिद्ध हो जाता है। एष: एसो की साधनिका निम्न प्रकार से भी हो सकती है। सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और १-३७ से 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर 'एसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
करेणुः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप (पुल्लिंग में)-'करेणू' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-१९ से 'प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'करेणू रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-११६।।
आलाने लनोः ।। २-११७॥ आलान शब्दे लनोर्व्यत्ययो भवति।। आणालो। आणाल-क्खम्भो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द आलान के प्राकृत रूपान्तर में 'ल' वर्ण का और 'न' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे:-आलानः=आणालो।। आलान-स्तम्भः आणाल-क्खम्भो।। ___ 'आलानः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत-रूप आणालो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११७ से 'ल' वर्ण का और 'न' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'आणालो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'आणाल'-खम्भो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९७ में की गई है।। २-११७।।
अचलपुरे च-लोः ।। २-११८।। अचलपुर शब्दे चकार लकारयो र्व्यत्ययो भवति।। अलचपुरं।।
अर्थः- संस्कृत शब्द अचलपुर के प्राकृत-रूपान्तर में 'च' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे:- अचलपुरम् अलचपुरं।।
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