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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 293
॥ एक स्वरे श्वः-स्वे ।। २-११४।। एक स्वरे पदे-यो श्वस् श्व इत्येतो तयोरन्त्य व्यञ्जनात् पूर्व उद् भवति।। श्वःकृतम्। सुवे कयं।। स्वे जनाः।। सुवे जणा।। एक स्वर इति किम्। स्व-जनः। स-यणो।।
अर्थः- जब 'श्वस्' और 'स्व' शब्द एक स्वर वाले ही हों; अर्थात् इन दोनों में से कोई भी समास रूप में अथवा अन्य किसी रूप में स्थित न हों; और इनकी स्थिति एक स्वर वाली ही हो तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' अथवा 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:-श्वः कृतम्-सुवेकयं।। स्वेजनाः-सुवे जणा।।
प्रश्नः- 'एक स्वर वाला' ही हो; तभी उनमें आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि श्वः और स्व शब्द में समास आदि में रहने के कारण से एक से अधिक स्वरों की उपस्थिति होगी तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'श्' अथवा 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-स्व-जनः-स-यणो।। इस उदाहरण में 'स्व' शब्द 'जन' के साथ संयुक्त होकर एक पद रूप बन गया है; और इससे इसमें तीन स्वरों की प्राप्ति जैसी स्थिति बन गई है; अतः 'स्व' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्में आगम रू भी अभाव हो गया है। यों अन्यत्र भी जान लेना एवं एक स्वर से प्राप्त होने वाली स्थिति का भी ध्यान रख लेना चाहिये।
"श्वः' (श्वस्') संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुवे' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११४ से संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'शु में स्थित 'श्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-५७ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप होकर 'सुवे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कयं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १–१२६ में की गई है।
'स्व' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुवे' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११४ से संयुक्त व्यञ्जन 'वे' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होकर 'सुवे' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जनाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जणा' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त
और लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर 'जणा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्व-जनः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'स-यणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'व' का लोप; १-१७७ से 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हए 'ज' में से शेष रहे हए 'अ'को 'य' की प्राप्ति: १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'स-यणो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-११४।।
ज्यायामीत् ।। २-११५।। ज्याशब्दे अन्त्य-व्यञ्जनात् पूर्व ईद् भवति।। जीआ।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'ज्या' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' में आगम रूप 'ई' की प्राप्ति होती है। जैसे:-ज्या जीआ।।
'ज्या' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जीआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११५ से संयुक्त व्यञ्जन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' में आगम रूप 'ई' की प्राप्ति और २-७८ से 'य' का लोप होकर 'जीआ' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-११५।।
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