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________________ 298 : प्राकृत व्याकरण द्वितीय रूप 'वच्छो' की सिद्धि सूत्र संख्या २-१७ में की गई है। 'क्षिप्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'छूढ़' और 'खित्त' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'छूढं की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९ में की गई है। द्वितीय रूप-(क्षिप्तम्=) 'खित्तं' में सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप खित्तं भी सिद्ध हो जाता है। 'उत्क्षिप्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उच्छूढं' और 'उक्खित्तं' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२७ से संस्कृत शब्दांश ‘क्षिप्त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से आदेश रूप से 'छूढ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छूढ़' में स्थित 'छ' वर्ण को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'उच्छूट सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(उत्क्षिप्तम्=) 'उक्खित्तं' में सूत्र संख्या २-७७ से प्रथम हलन्त् 'त्' और हलन्त 'प्' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति; पुनः २-८९ से लोप हुए 'प्' में से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान होकर द्वितीय रूप 'उक्खित्तं' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२७।। वनिताया विलया ।। २-१२८॥ वनिता शब्दस्य विलया इत्यादेशो वा भवति।। विलया वणिआ।। विलयेति संस्कृते पीति केचित्।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'वनिता' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'विलया' ऐसा आदेश होता है। जैसे:- वनिता- (वैकल्पिक-आदेश)-विलया और (व्याकरण-सम्मत)-वणिआ।। कोई कोई वैयाकरण-आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि संस्कृत भाषा में वनिता' अर्थवाचक 'विलया' शब्द उपलब्ध है और उसी 'विलया' शब्द का ही प्राकृत-रूपान्तर विलया होता है। ऐसी मान्यता किन्हीं किन्हीं आचार्य की जानना।। ___ 'वनिता' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विलया' और 'वणिआ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या २-१२८ से आदेश रूप से 'विलया' होता है। द्वितीय रूप-(वनिता=) 'वणिआ' में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर वणिआ रूप सिद्ध हो जाता है। 'विलया' संस्कृत रूप (किसी २ आचार्य के मत से-) है; इसका प्राकृत रूप भी ‘विलया' ही होता है।।२-१२८।। गौणस्येषतकरः ।। २-१२९॥ ईषच्छब्दस्य गौणस्य कूर इत्यादेशो वा भवति ॥ चिंचव्व कूर-पिक्का। पक्षे ईसि।। अर्थः- वाक्यांश में गौण रूप से रहे हुए संस्कृत अव्यय रूप 'ईषत्' शब्द के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'कूर' आदेश की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे-चिंचा इव ईषत्-पक्वा-चिंचव्व कूर-पिक्का अर्थात् चिंचा-(वस्तु-विशेष) के समान थोड़ी सी पकी हुई।। इस उदाहरण में 'ईषत्' के स्थान पर 'कूर' आदेश की प्राप्ति हुई है। पक्षान्तर में 'ईषत्' का प्राकृत-रूप 'ईसि होता है। 'ईषत्-पक्वा में दो शब्द है प्रथम शब्द गौण रूप से घिरा हुआ है और दूसरा शब्द मुख्य रूप से स्थित है। इस सूत्र में यह उल्लेख कर दिया गया है कि 'कूर' रूप आदेश की प्राप्ति 'ईषत्' शब्द के गोण रहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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