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248 : प्राकृत व्याकरण
बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा ।। २-६९।।
अनयोः संयुक्तस्य सो वा भवति ।। बहस्सई बहप्फई || भयस्सई || भयप्फई । वणस्सई वणप्फई ||
अर्थः- संस्कृत शब्द 'बृहस्पति' और 'वनस्पति' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर विकल्प से 'स' की प्राप्ति हुआ करती है। ‘विकल्प' से कहने का तात्पर्य यह है कि सूत्र संख्या २-५३ में ऐसा विधान कर दिया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है । किन्तु यहां पर पुनः उसी संयुक्त व्यंजन 'स्प' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति का उल्लेख करते हैं, अतः 'वदतो वचन - व्याघात' के दोष से सुरक्षित रहने के लिये मूल - सूत्र में विकल्प अर्थ वाचक 'वा' शब्द का कथन करना पड़ा है। यह ध्यान में रखना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार हैं: - बृहस्पतिः - बहस्सइ अथवा बहप्फई और भयस्सई अथवा भयप्फइ | | वनस्पतिः- वणस्सई अथवा वणप्फई ||
'बृहस्पति' : संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बहस्सई' और 'बहप्फइ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २ - ६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'बहस्सई' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप बहफ की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १३८ में की गई है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भयस्सई' और 'भयप्फई' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १३७ से प्राप्त 'बह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति; २ - ६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की विकल्प से प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भयस्सई' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (बृहस्पतिः=) भयप्फई में सूत्र संख्या १ - १२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - १३७ से प्राप्त 'बह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २ - ९० प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'त्' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भयप्फइ' भी सिद्ध हो जाता है।
'वनस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'वणस्सई' और 'वणप्फई' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से ‘न' का ‘ण'; २-६९ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर विकल्प से 'स' की प्राप्ति; २ - ८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १ - १७७ से 'तू' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'वणस्सइ' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (वनस्पतिः=) वणप्फई में सूत्र संख्या - १ - २२८ से 'न' का 'ण'; २ - ५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'वणप्फई' सिद्ध हो जाता है ।। २-६९ ।।
बाष्पे हो श्रुणि ।। २-७०।।
बाष्प शब्दे संयुक्तस्य हो भवति अश्रुण्यमिधेये । बाहो नेत्र जलम् ।। अश्रुणीति किम् ।। बप्फो ऊष्मा ।। अर्थः- यदि संस्कृत शब्द 'बाष्प' का अर्थ आंसूवाचक हो तो ऐसी स्थिति में 'बाष्प' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे:- बाष्प:- बाहो अर्थात् आंखो का पानी आंसू ।।
प्रश्न:- अश्रुवाचक स्थिति में ही 'बाष्प' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं; ऐसा क्यों कहा गया है ?
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