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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 247 प्रश्न-'श्च' के स्थान पर प्राप्त होने वाले 'च्छ' में स्थित 'अ' स्वर को यथा-स्थिति प्राप्त होने पर अर्थात् 'अ' का 'अ' ही रहने पर 'य' के स्थान पर इन उपरोक्त चार आदेशों की प्राप्ति होती है ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि उपरोक्त ‘च्छ' में स्थित 'अ' को 'ए' की प्राप्ति हो जाती है; तो संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर ऊपर वर्णित एवं क्रम से प्राप्त होने वाले चार आदेशों की प्राप्ति नहीं होगी। यों प्रमाणित होता है कि चार आदेशों की क्रमिक प्राप्ति 'अ' की यथास्थिति बनी रहने पर ही होती है; अन्यथा नहीं। पक्षान्तर में वर्णित ‘च्छ' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति हो जाती है; तो संस्कृत शब्द आश्चर्यम् का एक अन्य ही प्राकृत रूपान्तर-हो जाता है। जो कि इस प्रकार है:- आश्चर्यम्-अच्छेरं।। अच्छरिअंरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। अच्छअरं, अच्छरिज्जं, अच्छरीअं, और अच्छेरं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५८ में की गई है ।। २-६७।। पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये ल्लः ।। २-६८।। एषुर्यस्य ल्लो भवति। पर्यस्तं पल्लटं पल्लत्थं। पल्लाणं । सोअमल्लं ।। पल्लको इति च पल्यंक शब्दस्य यलोपे द्वित्वे च।। पलिअंको इत्यपि । चौर्य-समत्वात्।। ___ अर्थः- संस्कृत शब्द 'पर्यस्त' 'पर्याण' और 'सौकुमार्य' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है। जैसे:- पर्यस्तम्=पल्लट् अथवा पल्लत्थं।। पर्याणम्=पल्लाणं।। सौकुमार्यम्=सोअमल्ल।। संस्कृत शब्द पल्यंक का प्राकृत रूप पल्लंको होता है। इसमें संयुक्त व्यञ्जन 'ल्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं हुई है। किन्तु सूत्र संख्या २-७८ के अनुसार 'य' का लोप और २-८९ के अनुसार शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर पल्लंको रूप बनता है। सूत्रान्तर की साधनिका से पल्लङ्कः का द्वितीय रूप पलिअंको भी होता है। 'चौर्य समत्वात् से सूत्र संख्या २-१०७ का तात्पर्य है। जिसके विधान के अनुसार संस्कृत रूप ‘पल्यंक' के प्राकृत रूपान्तर में हलन्त ल्' व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' स्वर की प्राप्ति होती है। इस प्रकार द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति के प्रति सूत्र संख्या का ध्यान रखना चाहिये। ऐसा ग्रंथकार का आदेश है। 'पर्यस्तम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर 'पल्लर्ट' और 'पल्लत्थं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'पल्लट्ट' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'पल्लत्थं की सिद्धि सूत्र संख्या २-४७ में की गई है। अन्तर इतना सा है कि वहां पर 'पल्लत्थो' रूप पुल्लिंग में दिया गया है एवं यहां पर 'पल्लत्थं रूप नपुंसकलिंग में दिया गया है। इसका कारण यह है कि यह शब्द विशेषण है; और विशेषण-वाचक शब्द तीनों लिंगो में प्रयुक्त हुआ करते हैं। 'पल्लाणं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५२ में की गई है। 'सोअमल्लं' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०७ में की गई है। __ 'पल्यंकः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पल्लंको' और 'पलिअंको' भी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पल्लंको' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (पल्यंक:)-पलिअंका में सूत्र संख्या २-१०७ से हलन्त व्यञ्जन 'ल' में 'य' वर्ण आगे रहने से आगम रूप 'इ' स्वर की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'पलिअंका' भी सिद्ध हो जाता है। ॥२-६८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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