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________________ 246 : प्राकृत व्याकरण 'सूरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'सूरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सूरा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'सूर्यः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'सुज्जो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त; 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'सुज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है।।। २-६४।।। एतः पर्यन्ते ।। २-६५॥ पर्यन्ते एकारात् परस्य र्यस्य रो भवति ।। पेरन्तो ॥ एत इति किम्। पज्जन्तो।। अर्थः- संस्कृत शब्द पर्यन्त में सूत्र संख्या १-५८ से 'प' वर्ण में 'ए' की प्राप्ति होने पर संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है। जैसे:-पर्यन्तः पेरन्तो।। प्रश्नः- पर्यन्त शब्द में स्थित 'प' वर्ण में 'ऐ' की प्राप्ति होने पर ही संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है-ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि पर्यन्त शब्द में स्थित 'प' वर्ण में 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है तो संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति नहीं होकर 'ज्ज' की प्राप्ति होती है। अतः संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति तभी होती है; जबकि प्रथम वर्ण 'प' में 'ए' की प्राप्ति हो; अन्यथा नहीं। ऐसा स्वरूप विशेष समझाने के लिये ही 'एतः' का विधान करना पड़ा है। पक्षान्तर का उदाहरण इस प्रकार है:- पर्यन्तः पज्जन्तोः।। 'पेरन्तो' और 'पज्जन्तो' दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५८ में की गई है।। २-६५।। आश्च र्य ।। २-६६ ॥ आश्चर्ये ऐतः परस्य यस्य रो भवति।। अच्छेरं।। एत इत्येव । अच्छरिआ। अर्थः- संस्कृत शब्द 'आश्चर्य' में स्थित 'श्च' व्यञ्जन में रहे हुए 'अ' स्वर को 'ए' की प्राप्ति होने पर संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है। जैसे:-आश्चर्यम्=अच्छेरं।। प्रश्नः- 'श्च' व्यञ्जन में स्थित 'अ' स्वर को 'ए' की प्राप्ति होने पर ही 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः- यदि 'श्च' के 'अ' को 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है तो 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति नहीं होकर 'रिअंकी प्राप्ति होती है। जैसे:- आश्चर्यम्=अच्छरि।। 'अच्छेरं' और 'अच्छरि दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। ॥ २-६६।। अतो रिआर-रिज्ज-रीअं ।। २-६७।। आश्चर्ये अकारात् परस्य यस्य रिअ अर रिज्ज रीअ इत्येते आदेशा भवन्ति।। अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरिज्जं अच्छरी। अत इति किम्। अच्छेरं।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'आश्चर्य में स्थित 'श्च' के स्थान पर प्राप्त होने वाले ‘च्छ' में रहे हुए 'अ' को यथा-स्थिति प्राप्त होने पर अर्थात् 'अ' स्वर का 'अ' स्वर ही रहने पर संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर क्रम से चार आदेशों की प्राप्ति होती है। वे क्रमिक आदेश इस प्रकार हैं:- 'रिअं; 'अर' 'रिज्ज; और री।। इनके क्रमिक उदाहरण इस प्रकार हैं:- आश्चर्यम्=अच्छरिअं अथवा अच्छअरं अथवा अच्छरिज्जं और अच्छरी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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