________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 245 द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'तिग्गं' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-६२।।
ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये यो रः ॥२-६३।। एषुर्यस्य रो भवति। जापवादः।। बम्हचे।। चौर्य समत्वाद् बम्हचरिओ तुरं। सुन्देरं। सोंडीर।।
अर्थः- संस्कृत शब्द ब्रह्मचर्य, तूर्य, सौन्दर्य और शौण्डीर्य में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-२४ में कहा गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होती है; जबकि इस सूत्र संख्या २-६३ में विधान किया गया है कि ब्रह्मचर्य आदि इन चार शब्दों में स्थित 'र्य के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है; जैसे- ब्रह्मचर्यम् ब्रह्मचेरं। तूर्यम्-तूरं। सौन्दर्यम् सुन्देरं और शौण्डीयम्=सोण्डीरं।। सूत्र संख्या २-१०७ के विधान से अर्थात् 'चौर्य-सम' आदि के उल्लेख से ब्रह्मचर्यम्' का वैकल्पिक रूप से 'बम्हचरिअं भी एक प्राकृत रूपान्तर होता है।
बम्हचेरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५९ में की गई है।
'ब्रम्हचर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बम्हचरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से आदि अथवा प्रथम 'र' का लोप; २-७४ से 'ह्म के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; २-१०७ से 'र्य' में स्थित 'र' में 'इ' रूप आगम की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'बम्हचरिअं रूप सिद्ध हो जाता है।
'तूर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तूर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६३ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तूरं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सुन्दरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५७ में की गई है।
'शौण्डीर्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सोण्डीर' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१५९ से दीर्घ स्वर औ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ओ' की प्राप्ति; २-६३ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सोण्डीरं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-६३।।
धैर्य वा ॥२-६४॥ धैर्ये र्यस्य रो वा भवति ।। धीरं धिज्जं ।। सूरो सुज्जो इति तु सूर-सूर्य-प्रकृति-भेदात्।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'धैर्य' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर विकल्प से 'र' की प्राप्ति होती है। जैसेर्यम् धीरं अथवा धिज्ज।। संस्कृत शब्द 'सूर्य के प्राकृत रूपान्तर 'सूरो' और 'सुज्जो' यों दोनों रूप नहीं माने जाय, किन्तु एक ही रूप 'सुज्जो' ही माना जाय। क्योंकि प्राकृत रूपान्तर 'सरो' का संस्कृत रूप 'सूर' होता है और 'सूर्यः' का 'सुज्जो ।। यों शब्द-भेद से अथवा प्रकृति-भेद से 'सूरो' और 'सुज्जो' रूप होते हैं; यह ध्यान में रखना चाहिये।।
"धैर्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर 'धीरं' और 'धिज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'धीर की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५५ में की गई है।
द्वितीय रूप 'धिज्ज में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर (अर्थात् 'ऐ' का पूर्व रूप-अ+इ)='इ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप 'धिज्ज' भी सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org