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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 249 उत्तरः- संस्कृत शब्द 'बाष्प' के दो अर्थ होते हैं; प्रथम तो आंसू और द्वितीय भाप । तद्नुसार अर्थ-भिन्नता से रूप-भिन्नता भी हो जाती है। अतएव 'बाष्प' शब्द के आंसू अर्थ में प्राकृत रूप बाहा होता है और भाप अर्थ में प्राकृत रूप बप्फो होता है। यों रूप-भिन्नता समझाने के लिये ही संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' होता है ऐसा स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा है। यों तात्पर्य-विशेष को समझ लेना चाहिये। बाष्प: (आँसू) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बाहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७० से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बाहो' रूप सिद्ध हो जाता है। 'वाष्पः' (भाप) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'बप्फो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को प्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'बप्फो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७० ।। कार्षापणे ।। २- ७१॥ कार्षापणे संयुक्तस्य हो भवति ।। काहावणो ।। कथं कहावणो । ह्रस्वः संयोगे (१ - ८४ ) इति पूर्वमेव हस्वत्वे पश्चादादेशे । कर्षापण शब्दस्य वा भविष्यति ।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'कार्षापण' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है । जैसे:- कार्षापण:- काहावणो ।। प्रश्न:- प्राकृत रूप 'कहावणो' की प्राप्ति किस शब्द से होती है ? उत्तरः- संस्कृत शब्द ‘कार्षापण' में सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होने से 'कहावणो' रूप बन जाता है। इसी प्रकार से 'कहावणो' रूप माना जाय तो प्राप्त हस्व स्वर 'आ' के स्थान पर पुनः 'आ' स्वर रूप आदेश की प्राप्ति हो जायेगी और काहावणो रूप सिद्ध हो जायेगा ।। अथवा मूल शब्द 'कर्षापण' माना जाय तो इसका प्राकृत रूपान्तर 'कहावणो' हो जायगा; यों 'कार्षापण ' 'काहावणो' और कर्षापण: से 'कहावणी' रूपों की स्वयमेव सिद्धि हो जायेगी। 'कार्षापण:' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत 'काहावणो' और 'कहावणो' होते हैं; इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७१ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्ष' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'काहावणो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (कर्षापणः) 'कहावणा' में सूत्र संख्या १ - ८४ से 'का' में दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'कहावणो' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-७१।। दुःख - दक्षिण- तीर्थे वा ।। २-७२।। एषु संयुक्तस्य हो वा भवति ।। दुहं दुक्खं । पर- दुक्खे दुक्ख विरला । दाहिणो दक्खिणो। तूहं तित्थं।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'दुःख'; 'दक्षिण' और 'तीर्थ' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ख'; 'क्ष' और 'र्थ' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- दुःखम् दुहं अथवा दुक्खं ।। पर- दुःखे दुःखिताः विरलाः-पर- दुक्खे दुक्खि विरला ।। इस उदाहरण में संयुक्त व्यञ्जन 'खः' के स्थान पर वैकल्पिक स्थिति की दृष्टि से 'ह' रूप आदेश को प्राप्ति नहीं करके जिव्हा - मूलीय चिन्ह का लोप सूत्र संख्या २- ७७ से कर दिया है। शेष उदाहरण इस प्रकार है:- दक्षिण:-दाहिणा अथवा दक्खिणा || तीर्थम् - तूहं अथवा तित्थं । । 'दुःखम् ' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दुहं' और 'दुक्ख' होते हैं; इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २- ७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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