SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 146 : प्राकृत व्याकरण जउँणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४ में की गई है। चामुण्डा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चाउँण्डा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७८ से 'म्' का लोप और इसी सूत्र से अनुनासिक की प्राप्ति होकर चाउँण्डा रूप सिद्ध हो जाता है। कामुकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप काउँओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७८ से 'म्' का लोप और इसी सूत्र से शेष 'उ' पर अनुनासिक की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काउँओ रूप सिद्ध हो जाता है। अणिउँतय, अइमुतय और अइमुत्तयं रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है।। १-१७८।। नावर्णात् पः।। १-१७९।। अवर्णात् परस्यानादेः पस्य लुग् न भवति।। सवहो। सावो।। अनादेरित्येव परउट्ठो।। अर्थः यदि किसी शब्द में 'प' आदि रूप से स्थित नहीं हो तथा ऐसा वह 'प' यदि 'अ' स्वर के पश्चात् स्थित हो तो उस 'प' व्यबजन का लोप नहीं होता है। जैसे शपथः सवहो। शापः सावो। प्रश्न-'अनादि रूप से स्थित हो' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर-क्योंकि आदि रूप से स्थित 'प्' का लोप होता हुआ भी देखा जाता है। जैसे :- पर-पुष्ट:=परउट्टो।।। शपथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सवहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श्' का 'स्' १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१८७ से 'थ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सवहो रूप सिद्ध हो जाता है। शापः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सावो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श्' का 'स्' १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सावो रूप सिद्ध हो जाता है। पर-पुष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पर-उ8ो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'प्' का लोप; २-३४ से ष्ट का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'' का 'ट्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर-उट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१७९।। अवर्णो य श्रुतिः।। १-१८०।। क ग च जेत्यादिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात् परो लघु प्रयत्नतर यकार श्रुतिर्भवति।। तित्थयरो। सयढं। नयंर। मयङको। कयग्गहो। कायमणी। रययं। पयावई रसायलं। पायलं। मयणो। गया। नयण। दयाल। लायण्ण।। अवर्ण इति किम्। स उणो। पउणो। पउ। राईवं। निहओ। निनओ। वाऊ। कई। अवर्णादित्येव। लोअस्स। देअरो॥ क्वचिद् भवति। पियइ। अर्थः-क, ग, च, ज इत्यादि व्यञ्जन वर्णो के लोप होने पर शेष 'अ' वर्ण के पूर्व में 'अ अथवा आ रहा हुआ हो तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार हुआ करता है; जैसे-तीर्थकरः-तित्थयरो। शकटम् सयढं। नगरम् नयरं। मृगाङक: मयङको। कच-ग्रहः कयग्गहो। काचमणिः कायमणी। रजतम्=रययं। प्रजापतिः पयावई। रसातलम्-रसायल। पातालम्=पायालं। मदनः मयणो। गदा-गया। नयनम् नयणी दयालुः=दयालू। लावण्यम् लायण्ण।। प्रश्नः-लुप्त व्यञ्जन-वों में से शेष 'अ' वर्ण का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः-क्योंकि यदि लुप्त व्यञ्जन वर्णो में 'अ' स्वर के अतिरिक्तं कोई भी दूसरा स्वर हो; तो उन शेष किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy