________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 145 असुकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप असुगो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से और ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर असुगो रूप सिद्ध हो जाता है।
श्रावकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सावगो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २ - ७९ से 'र्' का लोप; १ - २६० से शेष ‘श्' का ‘स् ं; १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सावगो रूप सिद्ध हो जाता है।
आकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आगारो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगारो रूप सिद्ध हो जाता है।
तीर्थकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्थगरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति, २ - ७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'थ' को द्वित्व ' थ्थ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व' थ्' को ' त् की प्राप्ति; १ - २९ से अनुस्वार का लोप; १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ि के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तित्थगरो रूप सिद्ध हो जाता है।
आकर्षः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आगरिसा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति २- १०५ से 'र्ष' के पूर्व में 'इ' का आगम होकर 'र्' को 'रि' की प्राप्ति; १ - २६० से 'ष' के स्थान पर 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगरिसो रूप सिद्ध हो जाता है।
लोकस्य संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोगस्स होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ की वृत्ति से और ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३- १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोगस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
उद्योतकराः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उज्जो अगरा होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- २४ से 'घ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' का द्वित्व 'ज्ज्' ; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १७७ की वृत्ति से अथवा ४- ३९६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप एवं ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व 'अ' का दीर्घ 'आ' होकर उज्जो अगरा रूप सिद्ध हो जाता है।
आकुञ्चनम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष- प्राकृत रूप आउण्टणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १ - १७७ से 'क्' का लोप; १-१७७ से की वृत्ति से 'च' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; १-३० से 'ञ्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आउण्टणं रूप सिद्ध हो जाता है।।। १-१७७।।
यमुना - चामुण्डा - कामुकातिमुक्तके मोनुनासिकश्च ।। १ - १७८ ।।
एषु मस्य लुग् भवति, लुकि च सति मस्य स्थाने अनुनासिको भवति ।। जउँणा । चाउँण्डा । काउँओ । अणिउँतय ।। क्वचिन्न भवति । अइमुंतयं । अइमुत्तयं ॥
अर्थ::-यमुना, चामुण्डा, कामुक और अतिमुक्तक शब्दों में स्थित 'म्' का लोप होता है और लुप्त हुए 'म्' के स्थान पर 'अनुनासिक' रूप की प्राप्ति होती है। जैसे-यमुना-जउँणा | चामुण्डा-चाउँण्डा। कामुकः-काउँओ। अतिमुक्तकम्=अणिउँतयं ।। कभी कभी 'म्' का लोप नहीं भी होता है और तदनुसार अनुनासिक की भी प्राप्ति नहीं होती है । जैसे-अतिमुक्तकम् अइमुंतयं और अइमुत्तयं।। इस उदाहरण में अनुनासिक के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति हुई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org