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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 147 स्वर के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार नहीं हुआ करता है । जैसे:- शकुनः- सउणो । प्रगुणः-पउणो। प्रचुरं =पउरं । राजीवम्=राईवं। निहतः=निहओ। निनदः=निनओ। वायुः=वाऊ। कतिः=कई।।
निहतः और निनदः में नियमानुसार लुप्त होने वाले 'त्' और 'द्' व्यञ्जन वर्णो के पश्चात् शेष 'अः' रहता है। न कि 'अ' । तदनुसार इन शब्दों में शेष 'अः' के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं हुई है।
प्रश्न- शेष रहने वाले 'अ' वर्ण के पूर्व में 'अ' अथवा आ' हो तो उस शेष 'अ' के स्थान पर 'य' कार होता है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः-क्योंकि यदि शेष रहे हुए 'अ' वर्ण के पूर्व में ' अ अथवा आ' स्वर नहीं होगा तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे- लोकस्य लोअस्स । देवरः- देअरो। किन्तु किसी किसी शब्द में लुप्त होने वाले व्यञ्जन वर्णों में से शेष 'अ' वर्ण के पूर्व में यदि 'अ अथवा आ' नहीं होकर कोई अन्य स्वर भी रहा हुआ उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर 'य' कार भी होता हुआ देखा जाता है। जैसे- पिवति पियइ।। इत्यादि।।
तित्थयरो सयढं और नयरं की सिद्धि सूत्र संख्या १ - १७७ में की गई है।
मङको रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १३० में की गई है।
कहो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १९७७ में की गई है।
काच-मणिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप काय- मणी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'च्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर काय - मणी रूप सिद्ध हो जाता है।
रययं पयावई, रसायलं और मयणो रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १७७ में की गई है।
पातालम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पायालं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'तू' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पायालं रूप सिद्ध हो जाता है।
‘गया'; 'नयणं'; 'दयालू'; और लायण्णं रूपों की भी सिद्धि सूत्र - संख्या १-१७७ में की गई है।
शकुनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सउणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से क् का लोप; १-२२८ से ‘न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पडणो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १-१७७ से ग् का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रचुरम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पउरं होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १७७ से 'च्' का लोप; ३- २५ से प्रथम विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पउरं रूप सिद्ध हो जाता है।
राजीवम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप राइवं होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर राईवं रूप सिद्ध हो जाता है।
निहतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निहओ होता है। इसमें सूत्र- संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निहओ रूप सिद्ध हो जाता है।
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