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________________ 148 : प्राकृत व्याकरण वायुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वाऊ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर को दीर्ध 'ऊ' की प्राप्ति होकर वाऊ रूप सिद्ध हो जाता है। कई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–१२८ में की गई है। लोकस्य संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोअस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-१० से पृष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोअस्स रूप सिद्ध हो जाता है। देवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप देअरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देअरो रूप सिद्ध हो जाता है। पिवति संस्कृत सकर्मक क्रिया रूप है। इसका प्राकृत रूप पियइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में पुल्लिंग में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पियइ रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१८०।। कब्ज-कर्पर कीले कः खोऽपष्पे।। १-१८१॥ एषु कस्य खो भवति पुष्पं चेत् कुब्जाभिधेयं न भवति।। खुज्जो। खप्परं। खीलओ।। अपुष्प इति किम्। बंधेउं कुज्जय-पसूण। आर्षेऽन्यात्रापि। कासितं। खासिओ कसितं। खसि।। अर्थः-कुब्ज; कर्पर; और कीलक शब्दों में रहे हुए 'क' वर्ण का 'ख' हो जाता है। किन्तु यह ध्यान में रहे कि कुब्ज शब्द का अर्थ 'पुष्प' नहीं हो तभी 'कुब्ज' में स्थित 'क' का 'ख' होता है; अन्यथा नहीं। जैसे-कुब्जः खुज्जो। कर्परम् खप्परं। कीलक:=खीलओ।। प्रश्न:-'कुब्ज' का अर्थ फूल-'पुष्प' नहीं हो; तभी कुब्ज में स्थित 'क' का 'ख' होता है ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः-क्योंकि यदि कुब्ज का अर्थ पुष्प होता हो तो कुब्ज में स्थित 'क' का 'क' ही रहता है। जैसे:-बंधितुम् कुब्जक-प्रसूनम= बंधेउं कुज्जय-पसूण।। आर्ष-प्राकृत में उपरोक्त शब्दों के अतिरिक्त अन्य शब्दों में भी 'क' के स्थान पर 'ख' का आदेश होता है। जैसे:-कासितम्-खासि कसितम खसिअं इत्यादि।। ___ कुब्जः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप खुज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ से 'क्' को 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। कर्परम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खप्परं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ से 'क' को 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपंसकलिग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खप्परं रूप सिद्ध हो जाता है। __ कीलकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खिलिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८१ से प्रथम 'क' को 'ख' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खिलिओ रूप सिद्ध हो जाता है। बंधितुम् संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बंधेउं होता है। इसमें संस्कृत मूल धातु 'बंध' है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त 'ध्' में 'अ' की प्राप्ति; संस्कृत (हेमचन्द्र) व्याकरण के ५-१-१३ सूत्र से हेत्वर्थ कृदन्त में 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं सूत्र संख्या ३-१५७ से 'ध' में प्राप्त 'अ' को 'ए' की प्राप्ति; १-१७७ से 'तुम्' प्रत्यय में स्थित 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर बंधेउं रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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