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________________ द्वितीय रूप सण्णा की सिद्धि सूत्र संख्या २- ४२ में की गई है। विण्णाणं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २- ४२ में की गई है। । २-८३।। मध्याह्ने हः ।। २-८४॥ मध्याह्ने हस्य लुग् वा भवति ।। मज्झन्नो मज्झण्हो || अर्थः- संस्कृत शब्द 'मध्याह्न' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से 'ह' का लोप होकर 'न' शेष रहता है। जैसे:- मध्याह्नः = मज्झन्नो अथवा मज्झण्हो।। वैकल्पिक पक्ष होने से प्रथम रूप में 'न' के स्थान पर 'न' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में 'न' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति हुई है। 'मध्याह्न': संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मज्झन्नो' और 'मज्झण्हों' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झ्झ' की प्राप्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'झू' को 'ज्' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-८४ से संयुक्त व्यञ्जन 'हन' में से 'ह' का विकल्प से लोप; २-८९ से शेष 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'गज्झन्नों' सिद्ध हो जाता है। प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 265 द्वितीय रूप (मध्यान्ह्नः=) 'मज्झहा' में 'मज्झ' तक की साधनिका प्रथम रूप के समान ही; तथा आगे सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मज्झण्हा' भी सिद्ध हो जाता है । । २-८४ ।। दशा ।। २-८५ ।। पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम्। दशार्हे हस्य लुग् भवति ।। दसारो।। अर्थः- संस्कृत शब्द ‘दशाह' में स्थित 'दश' और 'अर्ह' शब्दों का पृथक्-पृथक् अर्थ नहीं करते हुए तथा इसको एक ही अर्थ-वाचक शब्द मानते हुए इसका 'बहुब्रीहि समास' में विशेष अर्थ स्वीकार किया जाय तो 'दशाह' में स्थित 'ह' व्यञ्जन का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता हैं। जैसे:- दशार्हः-दसारो अर्थात् यादव - विशेष । 'दशाह:' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'दसारों' होता है। इसमें से सूत्र संख्या १ - २६० से 'श' का 'स'; २-८५ से 'ह' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दसारो' रूप सिद्ध हो जाता है । । २-८५ ।। आदेः : श्मश्रु - श्मशाने ।। २-८६।। Jain Education International अनयोरादेर्लुग् भवति।। मासू मंसू मस्सू । मसाणं ।। आर्षे श्मशान - शब्दस्य सीआणं सुसामित्यपि भवति।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'श्मश्रु' और 'श्मशान' में आदि 'श्' व्यञ्जन का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है। जैसे:श्मश्रुः-मासू अथवा मंसू अथवा मस्सू ।। श्मशानम् - मसाणं | | आर्ष- प्राकृत में ' श्मशान' शब्द के दो अन्य रूप और भी पाये जाते हैं; जो कि इस प्रकार है:- श्मशानम्-सीआणं और सुसा ।। 'श्मश्रुः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मासू', 'मंसू' और 'मस्सू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८६ से आदि में स्थित ‘श्' व्यञ्जन का लोप; १-४३ से 'म' में स्थित हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; २-७९ से ‘र्' का लोप; १-२६० से 'र्' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'श्' को 'स' की प्राप्ति और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मासू' सिद्ध हो जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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