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________________ 264 : प्राकृत व्याकरण १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' आदेश की प्राप्ति; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'अ' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दइवज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप (देवज्ञः=) 'दइवण्णू' में सूत्र संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' आदेश की प्राप्ति; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व ‘ण्ण' की प्राप्ति; १-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'दइवण्णू' सिद्ध हो जाता है। 'इंगितज्ञः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'इंगिअज्जो' और 'इंगिअण्णू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व ‘ज्ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'इंगिअज्जो' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (इंगितज्ञः-) 'इंगिअण्णू में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति १-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'इंगिअण्णू' सिद्ध हो जाता है। "मनोज्ञम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मणोज और 'मणोण्ण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन '' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'मणोज सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (मनोज्ञम्= ) 'मणोण्ण में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'मणोण्ण भी सिद्ध हो जाता है। अहिज्जो और अहिण्णू रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५६ में की गई है। 'प्रज्ञा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पज्जा' और 'पण्णा ' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन '' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पज्जा' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पण्णा की सिद्धि सूत्र संख्या २-४२ में की गई है। आज्ञा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अज्जा' और 'आणा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त् व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित '' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व ‘ज्ज' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अज्जा सिद्ध हो जाता है। . द्वितीय रूप (आज्ञा-) आणा में सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'आणा' रूप सिद्ध हो जाता है। 'संज्ञा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'संजा' और 'सण्णा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज्' का लोप होकर प्रथम रूप 'संजा' सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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