SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 263 'तीक्ष्णम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'तिक्खं और 'तिण्ह होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-८२ से 'ण' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'तिक्खं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप तिण्हं की सिद्धि सूत्र संख्या २-७५ में की गई है। । २-८२।। ज्ञोबः ।। २-८३॥ ज्ञः संबन्धिनो बस्य लुग् वा भवति।। जाणं णाण। सव्वज्जो सव्वण्णू। अप्पज्जो अप्पण्णू। दइवज्जो दइवण्णू। इंगिअज्जो। इंगिअण्णू। मणोज्जी मणोण्ण। अहिज्जो अहिण्णू। पज्जा पण्णा। अज्जा आणा। संजा सण्णा।। क्वचिन्न भवति विण्णाणं॥ ____ अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' होता है; तब प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित 'ब' व्यञ्जन का विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे:-ज्ञानम्-जाणं अथवा णाणं। सर्वज्ञः सव्वज्जो अथवा सव्वण्णू।। आत्मज्ञः अप्पज्जो अथवा अप्पण्णू।। दैवज्ञः दइवज्जो अथवा दइवण्णू। इंगितज्ञ-इंगिअज्जो अथवा इंगिअण्णू।। मनोज्ञम्=मणोज्ज अथवा मणोण्णं। अभिज्ञः अहिज्जो अथवा अहिण्णू। प्रज्ञा-पज्जा अथवा पण्णा। आज्ञा अज्जा अथवा आणा।। संज्ञा-संजा अथवा सण्णा।। किसी किसी शब्द में स्थित 'ज्ञ' व्यञ्जन में सम्मिलित 'ब' व्यञ्जन का लोप नहीं होता है। जैसे:-विज्ञान-विण्णाणं। इस उदाहरण में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' की परिणति के अन्य नियमानुसार 'ण' में हो गई है। किन्तु सूत्र संख्या २-८२ के अनुसार लोप अवस्था नहीं प्राप्त हुई है।। ___ 'ज्ञानम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत-रूप 'जाण और 'णार्ण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित 'अ' व्यञ्जन का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'जाण' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'णाणं' की सिद्धि सूत्र संख्या २-४२ में की गई है। 'सव्वज्जो' और 'सव्वण्णू दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५६ में की है। 'आत्मज्ञः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अप्पज्जा' और 'अप्पण्णू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ब्' का लोप; २-८९ से 'ज्ञ' में स्थित 'ब्' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अप्पज्जा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (आत्मज्ञः=) अप्पण्णू में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; १-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अप्पण्णू भी सिद्ध हो जाता है। 'देवज्ञः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दइवज्जा' और 'दइवण्णू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy