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________________ 262 : प्राकृत व्याकरण विकल्प से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'द्रहों' और 'दहो' दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ 'शिक्षन्ताम् संस्कृत विधिलिंगात्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिक्खन्तु होता है। इसमें से सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख् को क्' की प्राप्ति; ३-१७६ से संस्कृत विधि लिंगात्मक प्रत्यय 'न्ताम्' के स्थान पर प्रथम पुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'न्तु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'सिक्खन्त रूप सिद्ध हो जाता है। 'तरूण्यः संस्कृत रूप है। इसके स्थान पर देशज-भाषा में परम्परा से रूढ़ शब्द 'वोद्रहीओ' प्रयुक्त होता आया है। इसका पुल्लिंग रूप 'वोद्रह' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-३१ से पुल्लिंग से स्त्रीलिंग रूप बनाने में प्राप्त 'ई' प्रत्यय से 'वोद्रही रूप की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वोद्रहीओं रूप सिद्ध हो जाता है। 'तरुण संस्कृत शब्द है। इसका देशज भाषा में रूढ़ रूप 'वोद्रह होता है। यहां पर समासात्मक वाक्य में आया हुआ है, अतः इसमें स्थित विभक्ति-प्रत्यय का लोप हो गया है। __ 'हदे ' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'द्रहम्मि' होता है। इसमें से सूत्र संख्या २-१२० से 'ह' और 'द' का परस्पर में व्यत्यय; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संयुक्त प्रत्यय 'ङि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'द्रहम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। 'पतिता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पडिआ होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२१९ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; और १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप होकर 'पडिआ रूप सिद्ध हो जाता है।। २-८०।। धात्र्याम् ।। २-८१॥ धात्री शब्दे रस्य लुग् वा भवति।। धत्ती। हस्वात् प्रागेव रलोपे धाई। पक्षे। धारी॥ अर्थः- संस्कृत शब्द 'धात्री' में रहे हुए 'र' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप होता है। धात्री धत्ती अथवा धारी।। आदि दीर्घ स्वर 'आ' के हस्व नहीं होने की हालत में और साथ में 'र' का लोप होने पर संस्कृत रूप 'धात्री' का प्राकृत में तीसरा रूप धाई भी होता है। यों संस्कृत रूप धात्री के प्राकृत में तीन रूप हो जाते हैं, जो कि इस प्रकार है:धत्ती, धाई और धारी।। _ 'धात्री संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'धत्ती', 'धाई और 'धारी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-८१ से 'र' का (वैकल्पिक रूप से) लोप; और २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'धत्ती' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (धात्री-) 'धाई में सूत्र संख्या २-८१ से (वैकल्पिक रूप से) 'र' का लोप और २-७७ से 'त्' का लोप होकर द्वितीय रूप 'धाई भी सिद्ध हो जाता है। ___ तृतीय रूप (धात्री=) 'धारी में सूत्र संख्या २-७७ से 'त्' का लोप होकर तृतीय रूप 'धारी' भी सिद्ध हो जाता है।। २-८१।। तीक्ष्णे णः ।। २-८२॥ तीक्ष्ण शब्दे णस्य लुग् वा भवति।। तिक्खं। तिण्हं।। अर्थः- संस्कृत शब्द तीक्ष्ण में रहे हुए 'ण' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप हुआ करता है। जैसे:- तीक्ष्णम्-तिक्खं अथवा तिण्ह।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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