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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 261 द्रे रो न वा ।। २-८०॥ द्रशब्दे रेफस्य वा लुग् भवति।। चन्दो चन्द्रो। रुद्दो रुद्रो। भदं भद्र। समुद्दो समुद्रो।। हृदशब्दस्य स्थितिपरिवृत्ती द्रह इति रूपम्। तत्र द्रहो दहो। केचिद् रलोपं नेच्छन्ति। द्रह शब्दमपि कश्चित् संस्कृत मन्यते।। वोद्रहायस्तु तरूणपुरुषादिवाचका नित्यं रेफसंयुक्ता देश्या एव। सिक्खन्तु वोद्रहीओ। वोद्रह-द्रहम्मि पडिआ।। __अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में 'द्र' होता है; उनके प्राकृत-रूपान्तर में 'द्र' में स्थित रेफ रूप 'र' का विकल्प से लोप होता है। जैसे:-चन्द्रः-चन्दो अथवा चन्द्रो।। रूद्रः रूद्दो अथवा रूद्रो।। भद्रम् भदं अथवा भद्र।। समुद्रः समुद्दो अथवा समुद्रो।। संस्कृत शब्द 'हृद' के स्थान पर वर्णो का परस्पर में व्यत्यय अर्थात् अदला बदली होकर प्राकृत रूप 'द्रह' बन जाता है। इस वर्ण-व्यत्यय से उत्पन्न होने वाली अवस्था की स्थिति-परिवृत्ति' भी कहते हैं। इसलिये संस्कृत रूप 'हृदः' के प्राकृत रूप द्रहो अथवा दहो दोनों होते हैं। कोई-कोई प्राकृत व्याकरण के आचार्य 'द्रह' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप होना नहीं मानते हैं; उनके मतानुसार संस्कृत रूप 'हृदः' का प्राकृत रूप केवल 'द्रहो' ही होगा; द्वितीय रूप 'दहो' नहीं बनेगा। कोई कोई आचार्य 'द्रह' शब्द को प्राकृत नहीं मानते हुए संस्कृत शब्द के रूप में ही स्वीकार करते हैं। इनके मत से 'द्रहो' और 'दहो' दोनों रूप प्राकृत में होंगे। 'वोद्रह' शब्द देशज-भाषा का है और यह 'तरूण-पुरुष' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसमें स्थित रेफ 'रूप' 'र' का कभी भी लोप नहीं होता है। 'वोद्रह' पुल्लिंग है और 'वोद्रही स्त्रीलिंग बन जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- शिक्षन्ताम् तरूणयः सिक्खन्तु-वोद्रहीओ अर्थात् नवयुवती स्त्रियां शिक्षाग्रहण करें। तरूण-हदे पतिता-वोद्रह द्रहम्मि पडिआ अर्थात् वह (नवयुवती) तरूण पुरुष रूपी तालाब में गिर पड़ी। (तरूण पुरुष के प्रेम में आसक्त हो गई)। यहाँ पर 'वोद्रह' शब्द का उल्लेख इसलिये करना पड़ा कि यह देशज है; न संस्कृत भाषा का है और न प्राकृत भाषा का है तथा इसमें स्थित रेफ रूप 'र' का लोप भी कभी नहीं होता है। अतः सूत्र संख्या २-८० के सम्बन्ध से अथवा विधान से यह शब्द मुक्त है; इसी तात्पर्य को समझाने के लिये इस शब्द की चर्चा सूत्र की वृत्ति में की गई है; जो कि ध्यान में रखने योग्य है।। चन्दो और चन्द्रो दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-३० में की गई है। 'रुद्र: संस्कत रूप है। इसके प्राकत रूप'रूहो और 'रूद्रों होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र सं संख्या २-८० से रेफ रूप द्वितीय'र'का विकल्प से लोपः २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'रूद्दो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (रूद्रः) 'रूद्रों में सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'रूद्रो' भी सिद्ध हो जाता है। ___ 'भद्रम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'भई और 'भद्र होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८० से रेफ रूप'र' का लोप; २-८९ से शेष 'द' को द्वित्व '६' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'भई सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (भ ) 'भद्र की साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र संख्या ३-२५ और १-२३ के विधानानुसार जान लेना चाहिये। 'समुद्रः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'समुद्दों' और 'समुद्रो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८० से रेफ रूप 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'द्' को द्वित्व 'द्द' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'समुद्दो' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (समुद्रः=) 'समुद्रो' की साधनिका सूत्र संख्या ३-२ के विधानानुसार जान लेना चाहिये। 'द्रहः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'द्रहों और 'दहा' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-८० से रेफ रूप 'र' का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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