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260 : प्राकृत व्याकरण ___ 'उद्विग्नः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'उव्विग्गों होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व 'व्व की प्राप्ति; २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उव्विग्गो रूप सिद्ध हो जाता है।
"द्विगुणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वि-उणो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; १-१७७ से 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
'बीओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५ में की गई है।
'कल्मषम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कम्मर्स होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'म' को द्वित्व 'मम' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' को 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कम्मस' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सव्वं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
'शुल्वम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सुवं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स्'; २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सुव्वं रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'काव्यम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कव्वं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व'व्व की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'कव्वं रूप सिद्ध हो जाता है।
"कुल्या संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुल्ला' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप और २-८९ से शेष 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर कुल्ला' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'माल्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मल्ल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से शेष 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मल्ल रूप सिद्ध हो जाता है।
"दिओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९४ में की गई है। 'दुआई रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९४ में की गई है। 'बार और 'दार दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७९ में की गई है।
'उद्विग्नः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उव्विग्गो' और 'उव्विण्णो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप उव्विग्गा की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से शेष 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-७७ से 'ग्' का लोप; २-८९ से शेष 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति; १-२२८ से दोनों 'न' के स्थान पर 'पण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उव्विण्णो रूप सिद्ध हो जाता है।
'वन्द्र रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५३ में की गई है। ।। २-७९।।
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