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________________ 266 : प्राकृत व्याकरण द्वितीय रूप 'मंसू' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६ में की गई है। तृतीय रूप-(श्मश्रुः= ) 'मस्सू' में सूत्र संख्या २-८६ से आदि में स्थित 'श् व्यञ्जन का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'र' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'श्' को 'स्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को द्वित्व ‘स्स्' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'मस्सू भी सिद्ध हो जाता है। 'श्मशानम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मसाण होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-८६ से आदि में स्थित 'श्' व्यञ्जन का लोपः १-२६० से 'द्वितीय 'श' का 'स': १-२२८ से 'न' का 'ण': ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में आकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'मसाण रूप सिद्ध हो जाता है। आर्ष-प्राकृत में 'श्मशानम्' के 'सीआणं' और 'सुसाणं' दोनों रूप होते हैं; इनकी साधनिका प्राकृत-नियमों के अनुसार नहीं होती है इसीलिये ये आर्ष-रूप कहलाते हैं। २-८६।। श्चो हरिश्चन्द्रे ॥ २-८७॥ हरिश्चन्द्रशब्दे श्च इत्यस्य लुग् भवति।। हरिअन्दो।।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'हरिश्चन्द्र' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'श्च' का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। जैसे:हरिश्चन्द्रः हरिअन्दो।। 'हरिश्चन्द्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'हरिअन्दा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-८७ से संयुक्त व्यञ्जन 'श्च' का लोप; २-८० से 'द्र' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'हरिअन्दो' रूप सिद्ध हो जाता है। रात्रौ वा ।। २-८८॥ रात्रिशब्दे संयुक्तस्य लुग् वा भवति।। राई रत्ती।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'रात्रि' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन '' का विकल्प से प्राकृत रूपान्तर में लोप होता है। जैसे:रात्रि: राई अथवा रत्ती।। 'रात्रि: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'राई' और 'रत्ती होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्र' का विकल्प से लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'राई सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(रात्रि:= ) 'रत्ती' की सिद्धि सूत्र संख्या २-७९ में की गई है।।२-८८।। अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् ।। २-८९॥ पदस्यानादौ वर्तमानस्य शेषस्यादेशस्य च द्वित्वं भवति।। शेष। कप्पतरू। भुत्त। दुद्ध। नग्गो। उक्का। अक्को। मुक्खो। आदेश। डक्को। जक्खो। रग्गो। किच्ची। रुप्पी।। क्वचिन्न भवति। कसिणो। अनाद विति किम्। खलिओ थेरो। खम्भो। द्वयोस्तु। द्वित्व-मस्त्येवेऽऽति न भवति। विञ्चुओ। भिण्डिवालो।। अर्थः- यदि किसी संस्कृत शब्द का कोई वर्ण नियमानुसार प्राकृत-रूपान्तर में लुप्त होता है; तदनुसार उस लुप्त होने वाले वर्ण के पश्चात जो वर्ण शेष रहता है: अथवा लप्त होने वाले उस वर्ण के स्थान पर नियमानसार जो कोई दसरा वर्ण आदेश रूप से प्राप्त होता है एवं यह शेष वर्ण अथवा आदेश रूप से प्राप्त वर्ण यदि उस शब्द के आदि- (प्रारंभ) में स्थित न हो तो उस शेष वर्ण का अथवा आदेश रूप से प्राप्त वर्ण का द्वित्व वर्ण हो जाता है। लुप्त होने के पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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