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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 267 शेष-अनादि-वर्ण के द्वित्व होने के उदाहरण इस प्रकार है:- कल्पतरू: कप्पतरू। भुक्तम्-भुत्तं। दुग्धम् दुद्धी नग्नः नग्गो। उल्का-उक्का। अर्कः अक्को। मूर्खः=मुक्खो।। आदेश रूप से प्राप्त होने वाले वर्ण के द्वित्व होने के उदाहरण इस प्रकार है:- दष्टः-डक्को। यक्षः जक्खो। रक्तः रग्गो। कृतिः किच्ची। रुक्मी-रुप्पी।। कभी-कभी लोप होने के पश्चात् शेष रहने वाले वर्ण का द्वित्व होना नहीं पाया जाता है। जैसे:-कृत्स्नः कसिणो यहां पर 'त्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'स्' को द्वित्व स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्यत्र भी जानना। प्रश्नः- अनादि में स्थित हो तभी उस शेष वर्ण का अथवा आदेश-प्राप्त वर्ण का द्वित्व होता है ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर- क्योंकि यदि वह शेष वर्ण अथवा आदेश प्राप्त वर्ण शब्द के प्रारंभ में ही स्थित होगा तो उसका द्वित्व नहीं होगा; इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं:- स्खलितम्-खलिओ स्थविरः-थेरो। स्तम्भः खम्भो।। इन उदाहरणों में शेष वर्ण अथवा आदेश-प्राप्त वर्ण शब्दों के प्रारंभ में ही रहे हुए हैं; अतः इनमें द्वित्व की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना चाहिये। जिन शब्दों में शेष वर्ण अथवा आदेश प्राप्त वर्ण पहले से ही दो वर्ण रूप से स्थित हैं; उनमें पुनः द्वित्व की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण इस प्रकार है:- वृश्चिकः-विञ्चुओ और भिन्दिपालः भिण्डिवालो।। इत्यादि।। इन उदाहरणों में क्रम से 'श्चि' के स्थान पर दो वर्ण रूप 'ञ्चु की प्राप्ति हुई है और 'न्द' के स्थान पर दो वर्ण रूप ‘ण्ड' की प्राप्ति हुई है; अतः अब इनमें और द्वित्व वर्ण करने की आवश्यकता नहीं है। यों अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना चाहिये। ___ 'कल्पतरुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कप्पतरू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'कप्पतरू रूप सिद्ध हो जाता है। भुत्तं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७७ में की गई है। दुद्धं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७७ में की गई है। नग्गो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७८ में की गई है। उक्का रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७९ में की गई है। अक्को रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'मूर्खः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मुक्खों होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मुक्खो रूप सिद्ध हो जाता है। 'डक्को ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-२ में की गई है। 'यक्षः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'जक्खो ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जक्खो रूप सिद्ध हो जाता है। 'रग्गो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१० में की गई है। 'किच्ची' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१२ में की गई है। 'रुप्पी' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५२ में की गई है। 'कसिणो' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २–७५ में की गई है। 'स्खलितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'खलिों होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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