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| हिन्दी-व्याख्याता पं रत्न उपाध्याय श्री प्यारचंद जी महाराज आचार्य हेमचन्द्र रचित प्राकृत-व्याकरण के ऊपर सरल और प्रसाद गुण सम्पन्न हिन्दी टीका के प्रणेता उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज सा है। आप श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय में प्रख्यात मुनिराज हो गये हैं। आपकी संगठन-शक्ति, व्यवस्था-कौशल, समयज्ञता एवं विचक्षणता तो आदर्श ही थी; किन्तु आपके हदय की विशालता, प्रकृति की भद्रता, गुणों की ग्राह्यता, विद्याभिरूचि, साहित्य-प्रेम और साहित्य-रचना-शक्ति भी महान थी। आप अपने गुरुदेव श्री 1008 श्री चौथमलजी महाराज सा के प्रधान और योग्य सम्मतिदाता शिष्य थे। आपने विक्रम संवत् 1669 के फाल्गुन शुक्ला पंचमी तिथि पर जैन-मुनि दीक्षा अंगीकार की थी। यह दीक्षा समारोह भारतीय-इतिहास में सुप्रसिद्ध वीर-भूमि चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में सुसंपन्न हुआ था। आपने अपने पूज्य गुरुदेव की जैसी सेवा की ओर जैसा उनका यश-सौरभ प्रसारित किया; वह स्थानकवासी मुनियों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य घटना है। ___ आप बाल-ब्रह्मचारी थे; आपने सतरह वर्ष जैसी प्रथम यौवन-अवस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आपका जन्म स्थान रतलाम (मध्य प्रदेश) है और आपके माता-पिता का शुभ नाम कम से श्रीमती मानकुंवरबाई और श्री पूनमचंदजी सा बोथरा (ओसवाल-जाति) है। आपका जन्म विक्रम संवत् 1952 है। जिस दिन से आपने जैन मुनि की दीक्षा-ग्रहण की थी; उस दिन से आपने आने गुरुदेव की अनन्य-भक्ति भाव सेवा-शुश्रुषा करनी प्रारम्भ कर दी। गुरुदेव की प्रसिद्धि के पीछे आपने अपने व्यक्तित्व को भी विस्मरण-सा कर दिया था। ___ आप स्पष्ट वक्ता थे और निर्भीक उपदेशक भी। इसी प्रकृति विशेषता के कारण से अखिल भारतीय स्थानकवासी समाज के सभी मुनियों को एक सूत्र में बांधने के शुभ प्रयन्न में उल्लेखनीय सहयोग प्रदान करके अपनी आपने कुशाग्र बुद्धि का जैसा प्रदर्शन किया; वह जैन मुनि इतिहास का एक अत्यन्त उज्ज्वल अंश है।
स्थानकवासी समाज के विद्वान मुनिवरों ने तथा सद्-गृहस्थ नेताओं ने आपकी विद्वत्ता और सच्चारित्र-शीलता को देख करके ही 'गणी' 'मंत्री' और 'उपाध्याय' जैसी महत्त्वपूर्ण पदवियों से आपको विभूषित किया था। आप 'हिन्दी, गुजराती, प्राकृत, संस्कृत, मराठी और कन्नड़' यों छह भाषाओं के ज्ञाता थे। आपने अनेक साहित्यिक पुस्तकों की रचना की है; जिनमें यह प्राकृत-व्याकरण, जैन-जगत के उज्ज्वल तारे और जैन जगत की महिलाएं आदि प्रमुख हैं।
आपके उपदेशों से प्रेरित होकर जैन-सद् गृहस्थों ने छोटी बड़ी अनेक संस्थाओं को संस्थापित किया है। आपने अपने जीवनकाल में पैदल ही पैदल हजारों माइलों की पदयात्रा की है तथा सैकड़ों हजारों श्रोताओं को सन्मार्ग पर प्रेरित किया। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मेवाड़, मालवा, मध्य प्रदेश, बरार, खानदेश, बम्बई, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र प्रदेश और कर्णाटक प्रान्त आदि विविध भारतीय क्षेत्र आपके चरणरज से गौरवान्वित हुए हैं।
नित नूतन पढ़ने में और सर्व ग्राह्य-भाग को संग्रह करने में तथा कल्याण मय पाठ्य सामग्री को प्रकाशित करने में आपकी हार्दिक अभिरूचि थी। इस संबंध में इतना ही पर्याप्त होगा कि चौंसठ वर्ष जैसी पूर्ण वृद्धावस्था में भी रायचूर के चातुर्मास में आप कन्नड़ भाषा का नियमित रूप से प्रतिदिन अध्ययन किया करते थे एवं कन्नड़ भाषा के वाक्यों को एक बाल विद्यार्थी के समान उच्च स्वर से कण्ठस्थ याद किया करते थे। आगन्तुक दर्शनार्थी और उपस्थित श्रोता-वृन्द आपके मधुर, कोमल कांत पदावलि से आनंद-विभोर हो जाया करते थे। आप जैन-दर्शन के अगाध विद्वान थे इसलिये जैन-दर्शन पर आपके अधिकार पूर्ण व्याख्यान होते थे। यह लिखना सर्वसाधारण जनता की दृष्टि से उचित ही समझा जायेगा कि जैन-मुनि पांच महाव्रतों के धारक होते हैं; तदनुसार आप 'अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह' व्रत के मन, वचन एवं काया से सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में भी प्रतिपालक थे।
हमारे चरित्र-नायक श्री उपाध्यायजी महाराज अखिल भारतीय स्थानकवासी समाज में अन्यन्त श्रद्धा पात्र तथा
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