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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 113 सदृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप सरिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिसो रुप सिद्ध हो जाता है। सरिच्छो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है। एतादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप एआरिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' और 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एआरिसो रुप सिद्ध हो जाता हैं। ___ भवादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप भवारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भवारिसो रुप सिद्ध हो जाता है। यादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप जारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज्'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जारिसो रुप सिद्ध हो जाता हैं। तादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप तारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तारिसो रुप सिद्ध हो जाता है। केरिसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०५ में की गई है। एरिसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०५ में की गई है। अन्यादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप अन्नारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से 'न्' का द्वित्व 'न्'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्नारिसो रुप सिद्ध हो जाता है। अस्मादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप अम्हारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७४ से 'स्म्' के स्थान पर 'म्ह का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अम्हारिसो रुप सिद्ध हो जाता है। युष्मादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप तुम्हारिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४६ से 'य' के स्थान पर 'त्' का आदेश; २-७४ से 'ष्म्' के स्थान पर 'म्ह' का आदेश; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुम्हारिसो रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१४२।। आदृते ढिः ।। १-१४३।। आदृत शब्दे ऋतो ढिरादेशो भवति ।। आढिओ।। अर्थः-आदृत शब्द में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'ढि' आदेश होता है। जैसे-आदृतः का आढिओ।। आदृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप आढिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४३ से 'ऋ' की 'ढि'; १-१७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आढिआ रुप सिद्ध हो जाता है।।१-१४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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