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________________ 114 : प्राकृत व्याकरण अरिर्दृप्ते ।। १-१४४ ।। दृप्त शब्दे ऋतो रिरादेशो भवति ।। दरिओ । दरिअ - सीहेण ।। अर्थः- दृप्त शब्द में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'अरि' आदेश होता है। दृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप दरिओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४४ से 'ऋ' के स्थान पर 'अरि' का आदेश; २-७७ से 'प्' का लोप; १ - १७७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दरिओ रुप सिद्ध हो जाता हैं। दृप्त-सिंहेन संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप दरिअ - सीहेण होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४४ से 'ऋ' के स्थान पर ‘अरि' का आदेश; २- ७७ से 'प्' का लोप; १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - ९२ से ह्रस्व 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२९ से अनुस्वार का लोप; ३ - ६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति; और ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'ह' के 'अ' को 'ए' होकर 'दरिअ - सीहेण' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-१४४। लृत इलि: क्लृप्त केलृन्ने ।। १-१४५ ।। अनयार्तृत इलिरादेशो भवति ।। किलिन्न- कुसुमोवयारेसु।। धारा किलिन्न-वतं।। अर्थः- क्लृप्त और क्लृन्न इन दोनों शब्दों में रही हुई 'लू' के स्थान पर 'इलि' का आदेश होता है। जैसे- क्लृप्त-कुसुमोपचारेषु-किलित-कुसुमोवयारेसु ।। धारा-क्लृन्न-पात्रम्-धारा-किलिन्न-वर्त्त ।। क्लृप्त - कुसुमोपचारेषु संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किलित्त - कुसुमोवयारेसु होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४५ से 'लू' के स्थान पर 'इलि' का आदेश; २- ७७ से 'प्' का लोप; २-८९ से 'त्' का द्वित्व 'त्त'; १-२३१ से 'प' का 'व'; १-१७७ से' च्' का लोप; १ - १८० से शेष 'आ' का 'या' ; १ - २६० से ' ष्' का 'स्' और ३- १५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त 'सु' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'र' के 'अ' का 'ए' होकर किलित्त - कुसुमोवयारेसु रूप सिद्ध हो जाता है। धारा-क्लृन्न-पात्रम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप धारा- किलिन्न-वत्तं होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१४५ से 'लृ' के स्थान पर 'इलि' का आदेश; १ - २३१ से 'प' का 'व'; १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७९ से 'र्' का लोप; २-८९ शेष ‘त्' का द्वित्व ‘त्त'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर धारा- किलिन्न-वत्तं रूप सिद्ध हो जाता है । । १ - १४५ ।। एतइद्वा वेदना-चपेटा - देवर - केसरे ।। १-१४६ ।। वेदनादिषु एतइत्त्वं वा भवति ।। विअणा वेअणा । चविडा । विअडचवेडा विणोआ । दिअरो देवरो ।। मह महिअ दसण - किसरं । केसरं । । महिला महेला इति तु महिला महेलाभ्यां शब्दाभ्यां सिद्धम् ॥ अर्थः- वेदना, चपेटा, देवर, और केसर; इन शब्दों में रही हुई 'ए' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे- वेदना-विअणा और वेअणा || चपेटा = चविडा । । विकट - चपेटा - विनोदा- विअड-चवेडा विणोआ ।। देवरः = दिअरो और देवरो ।। मह महित - दशन केसरम् = मह महिअ - दसण - किसरं ।। अथवा केसरं । । महिला और महेला इन दोनों शब्दों की सिद्धि क्रम से महिला और महेला शब्दों से ही जानना । इसका तात्पर्य यह है कि 'महेला' शब्द में रही हुई 'ए' की 'इ' नहीं होती है। दोनों ही शब्दों की सत्ता पारस्परिक रूप से स्वतंत्र ही है। वेदना संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप विअणा और वेअणा होते हैं। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; १- २२८ से 'न' का 'ण' होकर क्रम से विअणा और वेअणा रूप सिद्ध हो जाते हैं। चपेटा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चविडा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४६ से 'ए' का विकल्प से 'इ'; १-२३१ से ‘प्' का 'व्'; और १ - १९५ से 'ट्' का 'ड्' होकर चविडा रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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