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________________ 214 : प्राकृत व्याकरण द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१६ से 'श्चि' के स्थान पर 'ञ्चु' का आदेश; १-२५ से आदेश रूप से प्राप्त 'ञ्चु' में स्थित हलन्त ''का अनुस्वारः १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विंचुआ' रूप सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप 'विञ्छिओ' में सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-२१ से 'श्च' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-२६ से आदेश रूप से प्राप्त 'छ' के पूर्व में अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से आगम रूप से प्राप्त अनुस्वार को परवर्ती छ' होने के कारण से छ वर्ग के पंचमाक्षर रूप हलन्त 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'विञ्छिओ' रूप सिद्ध हो जाता है। छोऽक्ष्यादौ ॥ २-१७ ॥ अक्ष्यादिषु संयुक्तस्य छो भवति। खस्यापवादः ॥ अच्छिं । उच्छू । लच्छी । कच्छो। छीअं। छीरं । सरिच्छो । वच्छो । मच्छिआ । छेत्तं । छुहा । दच्छो । कुच्छी । वच्छं। छुण्णो । कच्छा । छारो । कुच्छेअयं । छुरो । उच्छा । छयं । सारिच्छं ।। अक्षि । इक्षु । लक्ष्मी । कक्ष । क्षुत । क्षीर । सदृक्ष । वृक्ष । मक्षिका । क्षेत्र । क्षुघ् । दक्षा कुक्षि । वक्षस् । क्षुण्ण । कक्षा । क्षार । कौक्षेयक । क्षुर । उक्षन् । क्षत । सादृक्ष्य।। क्वचित् स्थगित शब्दे पि । छइअं ।। आर्षे । इक्खू । खीरं । सारिक्खमित्साद्यपि दृश्यते॥ ___ अर्थः- इस सूत्र में उल्लिखित अक्षि आदि शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' का 'छ' होता है। सूत्र संख्या २-३ में कहा गया है कि 'क्ष' का 'ख' होता है। किन्तु इस सूत्र में कहा जा रहा है कि संयुक्त 'क्ष' का 'छ' होता है। अतः इस सूत्र को सूत्र संख्या २-३ का अपवाद माना जाय। 'क्ष' के स्थान पर प्राप्त 'छ' सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार हैं:अक्षिम् अच्छिं। इक्षुः उच्छू। लक्ष्मी: लच्छी। कक्षः कच्छो। क्षुतम् छी क्षीरम्-छीरं। सदृशः-सरिच्छो। वृक्षः=वच्छो। मक्षिका मच्छिआ। क्षेत्रम्-छेत्तं। क्षुधा-छुहा। दशः=दच्छो। कुक्षिः कुच्छी। वक्षस् वच्छं। क्षुण्णः-छुण्णो। कक्षा-कच्छा। क्षारः-छारो। कौक्षेयकम्:-कुच्छेअयं। क्षुरः-छुरो। उक्षा उच्छा। क्षतम्-छयं। सादृश्यम्-सारिच्छं।। कभी-कभी 'स्थगित' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। जैसेः= स्थगितम्-छइ। आर्ष प्राकृत में इक्षुः का इक्खु भी पाया जाता है। क्षीरम् का खीरं भी देखा जाता है और सादृक्ष्यम् का सारिक्खम् रूप भी आर्ष प्राकृत में होता है। इस प्रकार के रूपान्तर स्वरूप वाले अन्य शब्द भी आर्ष-प्राकृत में देखे जाते हैं। अच्छिं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है। उच्छू रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९५ में की गई है। 'लक्ष्मीः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'लच्छी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति; और १-११ से अन्त्य विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप होकर 'लच्छी' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'कक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कच्छो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'कच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है। छीअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११२ में की गई है। 'क्षीरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छीर' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छीर रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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