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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 213 १-२२८ से दोनों 'न' के स्थान पर दो 'ण' की क्रम से प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से द्वितीय 'ण' को द्वित्व ‘ण्ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-९७ से 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-४२ से संबोधन के एकवचन में दीर्घ ईकारान्त में हस्व इकारान्त की प्राप्ति होकर 'अणण्ण'-ग्गामि रूप सिद्ध हो जाता है। 'त्यक्त्वा' संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चइउण' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-८६ से 'त्यक् संस्कृत धातु के स्थान पर 'चय्' आदेश की प्राप्ति; ४-२३९ से धात्विक विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ३–१५७ से लोप हुए 'य' में से शेष बचे हुए धात्विक विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर 'त्ण' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-१७७ से 'त्' का लोप होकर 'चइउण' रूप सिद्ध हो जाता है। 'तपः' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'तव होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'तवं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'कर्तुम् संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'काउं' होता है। मूल संस्कृत धातु 'कृ' है। इसमें सूत्र संख्या १–१२६ से 'ऋ' का 'अ'; ४-२१४ से प्राप्त 'अ' को 'आ' की प्राप्ति १-१७७ से संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त में प्राप्त 'तुम' प्रत्यय के 'त्' का लोप और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर काउं रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा ४-२१४ से 'अ' को 'आ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर 'काउं' रूप सिद्ध हो जाता है। 'शान्तिः' संस्कृत प्रथमान्त रूप है इसका प्राकृत रूप 'सन्ती' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'सन्ती' रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'प्राप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पत्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; पर'अ'की प्राप्तिः २-७७ से द्वितीय 'प' का लोप: २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पत्ता' रूप सिद्ध हो जाता है। 'शिवम्' संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सिवं' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सिवं रूप सिद्ध हो जाता है। "परमम् संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'परम' होता है इसमें सूत्र संख्या १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर 'परमं रूप सिद्ध हो जाता है। ।।२-१५।। वृश्चिके श्चेञ्चुर्वा ।। २-१६।। वृश्चिके श्वेः सस्वरस्य स्थाने ञ्चुरादेशो वा भवति। छापवादः ।। विञ्चुओ विंचुओ। पक्षे। विञ्छिओ॥ अर्थः- वृश्चिक शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन सहित और उसमें स्वर रहे हुए के साथ 'श्चि' के स्थान पर अर्थात् संपर्ण"श्चि' के स्थान पर विकल्प से 'ञ्च'का आदेश होता है। सत्र संख्या २-२१ में ऐसा विधान है कि श्व' के स्थान पर 'छ' होता है। जबकि इसमें 'श्चि' के स्थान पर 'ञ्चु' का आदेश बतलाया गया है; अतः इस सूत्र को सूत्र संख्या २-२१ का अपवाद समझना चाहिये।। उदाहरण इस प्रकार है: वृश्चिकः='विंञ्चुओ' या 'विंचुओ'। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विञ्छिओ' भी होता है।। 'वृश्चिकः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'विञ्चुओ', 'विंचुओ और विच्छिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप "विञ्चुओ की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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