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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 215
सरिच्छो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। 'वृक्षः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वच्छो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'मक्षिका' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'मच्छिआ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-८९ प्राप्त; 'छ्' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति और १-१७७ से 'क्' का लोप होकर 'मच्छिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षेत्रम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छेत्तं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-७९ से प्राप्त 'त्र' में 'स्थित' 'र' का लोप; २-८९ से 'शेष' 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छेत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।
छुहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई है।
'दक्षः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'दच्छो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'छ्' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
कुच्छी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है।
'वक्षः' वक्षस् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वच्छं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त, पूर्व 'छ्' को 'च' की प्राप्ति; १–११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'वच्छं रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षुण्णः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छुण्णो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छुण्णो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कक्षाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कच्छा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ्' को द्वित्व'छ्छ्' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' को 'च्' की प्राप्ति होकर 'कच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'क्षारः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'छारो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छारा'रूप सिद्ध हो जाता है।
कुच्छेअयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६१ में की गई है। 'क्षुरः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'छुरा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छु' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'छुरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
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