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216 : प्राकृत व्याकरण
'उक्षाः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'उच्छा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष्' के स्थान पर 'छ्' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ्' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति और २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति होकर 'उच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'क्षतम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत 'छयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छयं रूप सिद्ध हो जाता है।
'सादृक्ष्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सारिच्छं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'द्द' के स्थान पर 'रि' आदेश; २-१७ से'क्ष के स्थान पर 'छ' की प्राप्तिः २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छछ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व'छ' को 'च्' की प्राप्ति; २-७८ से 'य्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सारिच्छ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'स्थगितम्' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'छइअं भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ के स्थान पर 'छ' का आदेश; १-१७७ से 'ग्' का और 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर 'छइअरूप सिद्ध हो जाता है। __ 'इक्षुः' संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में 'इक्खू रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष्' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर 'इक्खू' रूप सिद्ध हो जाता है। __ क्षीरम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप 'खीरं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'खीरं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सादृक्ष्यम्' संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप 'सारिक्खं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'द' के स्थान पर 'रि' आदेश की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सारिक्खं' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१७।।
क्षमायां को ।। २-१८ ॥ को पृथिव्यां वर्तमाने क्षमा शब्दे संयुक्तस्य छो भवति ।। छमा पृथिवी । लाक्षणिकस्यापि क्ष्मादेशस्य भवति। क्ष्मा । छमा ।। कविति किम् । खमा क्षान्तिः ।। ___ अर्थः- यदि 'क्षमा' शब्द का अर्थ पृथिवी हो तो 'क्षमा' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। मूल-सूत्र में जो 'कौ लिखा हुआ है; उसका अर्थ 'पृथिवी' होता है। उदाहरण इस प्रकार है:- क्षमा-छमा अर्थात् पृथिवी।। पृथिवी में सहनशीलता का गुण होता है। इसी सहनशीलता वाचक गुण को संस्कृत-भाषा में 'क्ष्मा' भी कहते हैं; तदनुसार जैसा गुण जिसमें होता है: उस गण के अनुसार ही उसकी संज्ञा संस्थापित करना 'लाक्षणिक-तात्पर्य कहलाता है। अतः पृथिवी में सहनशीलता का गुण होने से पृथिवी की एक संज्ञा को 'क्ष्मा' भी कहते हैं। जो कि लाक्षणिक आदेश रूप है। इस लाक्षणिक-आदेश रूप शब्द 'क्ष्मा' में रहे हुए हलन्त संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष् के स्थान पर 'छ' होता है। जैसे:-क्ष्मा-छमा।।
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