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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 241 के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है। जैसे-पुष्पम्=पुप्फ।। शष्पम् सप्फ।। निष्पेषः निप्फेसो।। निष्पावः निप्फावो।। स्पन्दनम् फन्दणं और प्रतिस्पर्धिन्=पाडिप्फद्धी।। 'बहुलं' सूत्र के अधिकार से किसी किसी शब्द में 'ष्प' अथवा 'स्प' के होने पर भी इन संयक्त व्यञ्जनों के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे-बहस्पतिः बहप्फई अथवा बहुप्पई।। किसी किसी शब्द में तो संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' और 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे-निष्प्रभः निप्पहो।। निष्पुंसनम्-णिप्पुंसण।। परस्परम् परोप्परं।। इत्यादि।।
पुप्फ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३६ में की गई है।
'शष्पम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सप्फ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनस्वार होकर 'सप्फ रूप सिद्ध हो जाता है। __ 'निष्पेषः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्फेसो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निप्फेसो' रूप सिद्ध हो जाता है।
"निष्पावः' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्फावो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'फ' को 'प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निप्फावो' रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'स्पन्दनम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'फन्दणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'फन्दणं रूप सिद्ध हो जाता है।
पाडिप्फद्धी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है।
'बृहस्पतिः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'बुहप्फई' और 'बुहप्पई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'फ्' को 'प्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'बुहप्फई सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप बुहप्पई में सूत्र संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-७७ से 'स्' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'बुहप्पई भी सिद्ध हो जाता है। ___ 'निष्प्रभः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निप्पहो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से'' का लोप; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निप्पहो' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'निष्पुंसनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णिप्पुंसणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'ष' का लोप; २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १-२२८ से दोनों 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर "णिप्पुंसणं' रूप सिद्ध हो जाता है।
'परोप्परं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६२ में की गई है। ।। २-५३।।
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