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242 : प्राकृत व्याकरण
भीष्मे ष्मः ।। २-५४ ।। भीष्मे ष्मस्य फो भवति ।। भिप्फो।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'भीष्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है। जैसे:भीष्मः-भिप्फो।। ___ 'भीष्मः' संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भिप्फो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-५४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भिप्फो' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-५४।।
श्लेष्मणि वा ।। २-५५॥ श्लेष्म शब्दे ष्मस्य फो वा भवति ॥ सेफो सिलिम्हो।।
अर्थ:- संस्कृत शब्द 'श्लेष्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर विकल्प से 'फ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- श्लेष्मा सेफो अथवा सिलिम्हो।।
'श्लेष्मा' संस्कृत (श्लेष्मन्) का प्रथमान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सेफो' और 'सिलिम्हो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७९ से 'ल' का लोप; १-२६० से शेष 'श' को 'स्' की प्राप्ति; २-५५ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर विकल्प से 'फ' की प्राप्ति; १-११ से मूल शब्द में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; १-३२ से मूल शब्द 'अकारान्त' होने से मूल शब्द को पुल्लिंगत्व की प्राप्ति और तदनुसार ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सेफा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-८४ से 'श्ले' में स्थित दीर्घ स्वर 'ए' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होने से 'श्लि' हुआ; २-१०६ से हलन्त व्यञ्जन 'श' में 'इ' आगम रूप स्वर की प्राप्ति होने से 'शिलि' रूप हुआ; १-२६० से 'श' का 'स' होने से 'सिलि' की प्राप्ति; २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; और शेष साध निका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सिलिम्हो' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-५५।।
ताम्राभेम्बः ॥२-५६।। अनयोः संयुक्तस्य मयुक्तो बो भवति।। तम्बं। अम्बं।। अम्बिर तम्बिर इति देश्यो।।
अर्थ:- संस्कृत शब्द 'ताम्र और 'आम्र में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'म्र के स्थान पर 'म्ब' की प्राप्ति होती है। जैसे ताम्रम्=तम्बं और आम्रम् अम्ब।। देशज बोली में अथवा ग्रामीण बोली में ताम्र का तम्बिर और आम्र का अम्बिर भी होता है। ___ 'तम्बं' और 'अम्बं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-८४ में की गई है। अम्बिर और तम्बिर रूप देशज है; तदनुसार देशज शब्दों की साधनिका प्राकृत भाषा के नियमों के अनुसार नहीं की जा सकती है।।।२-५६।।
ह्रो भो वा ॥ २-५७।। ह्वस्य भो वा भवति।। जिब्मा जीहा।।
अर्थः- यदि किसी संस्कृत शब्द में 'ह्व' हो तो इस संयुक्त व्यञ्जन 'ह्व' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति होती है। जैसे:- जिह्वा-जिब्भा अथवा जीहा।।
"जिह्वा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'जिब्मा' और 'जीहा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५७ . से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्व' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व 'भ्भ' की प्राप्ति और
२-९० से प्राप्त पूर्व 'भ' को 'ब्' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'जिब्भा' सिद्ध हो जाता है।
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