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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 243 द्वितीय रूप सूत्र संख्या १-९२ से ह्रस्वः स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और २ - ७९ से 'व्' का लोप होकर 'जीहा' रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-५७।। वा विह्वले वौ वरच ।। २-५८।। विह्वले ह्रस्व भो वा भवति । तत्संनियोगे च विशब्दे वस्य वा भो भवति ।। भिब्भलो विब्भलो विहलो ॥ अर्थः- संस्कृत विह्वल शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न' स्थान पर 'भ' की प्राप्ति विकल्प से होती है। इसी प्रकार से जिस रूप में 'ह्व' स्थान पर 'भ' की प्राप्ति होगी; तब आदि वर्ण 'वि' में स्थित 'व्' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति होती है। जैसे-विह्वलः - भिब्भलो अथवा विब्भलो और बिहलो । 'विह्वल : संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप भिब्भला; ' 'विब्भला' और 'विहलो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५८ से संयुक्त 'ह्र' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व 4 'भूभ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त, पूर्व ' भ्' को 'ब्' की प्राप्ति; २ - ५८ की वृत्ति से आदि में स्थित 'वि' के 'व' को आगे 'भ' की उपस्थिति होने के कारण से विकल्प से 'भ्' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भिब्भला' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में २-५८ की वृत्ति से वैकल्पिक पक्ष होने के कारण आदि वर्ण 'वि' को 'भि' की प्राप्ति नहीं होकर 'वि' ही कायम रहकर और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'विब्भलो' भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप में सूत्र संख्या २- ७९ से द्वितीय 'व्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'विहलो' रूप भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-५८ ।। वोर्ध्वे ।। २-५९। ऊर्ध्व शब्दे संयुक्तस्य भो भवति ।। उब्भं उद्धं ।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'ऊर्ध्व' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति होती है। जैसे-ऊ र्वम् = उब्भं अथवा उद्ध ।। 'ऊर्ध्वम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'उब्भं' और 'उद्ध' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से आदि में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २ - ५९ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व ' भ्भ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' भ्' को 'ब' की प्राप्ति; २- ७९ से रेफ रूप 'र्' का लोप; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'उब्भ' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के दोनों का लोप ; २-८९ से शेष 'घ' को द्वित्व ' ध्ध' की साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'उद्ध' भी सिद्ध हो जाता है।।२-५९।। कश्मीरे म्भो वा ।। २-६० ।। स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र्' और 'व' प्ति; २ - ९० से प्राप्त पूर्व 'धू' को 'द्' की प्राप्ति और शेष कश्मीर शब्दे संयुक्तस्य म्भो वा भवति ।। कम्भारा कम्हारा ।। अर्थः- संस्कृत शब्द 'कश्मीर' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'रम' के स्थान पर विकल्प से 'म्भ' की प्राप्ति होती है। जैसे - कश्मीरा = कम्भारा अथवा कम्हारा ।। 'कश्मीरा' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कम्भारा' और 'कम्हारा' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २ - ६० से संयुक्त व्यञ्जन 'रम' के स्थान पर विकल्प से 'म्भ' की प्राप्ति; १ - १०० से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर 'आ' की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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