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240 प्राकृत व्याकरण
द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २- ७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'भस्सो' भी सिद्ध हो जाता है।
'आत्मन्' संस्कृत मूल शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'अप्पा', 'अप्पाणो' और 'अत्ता' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र 'संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व 'अ' की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'नू' का लोप और ३-४९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में अन्त्य 'न' का लोप हो जाने पर एवं प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर शेष अन्तिम व्यञ्जन 'प' में वैकल्पिक रूप से 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अप्पा' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'अप्पाणो' में 'अप्प' पर्यन्त तो प्रथम रूप के समान ही सूत्र - साधनिका की प्राप्ति; और शेष 'आणो' में सूत्र संख्या २-५६ से वैकल्पिक रूप से 'आण' आदेश की प्राप्ति एवं ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'अप्पाणो' भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप 'अत्ता' में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; और ३- ४९ से (अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में स्थित अन्त्य 'न्' का लोप होकर) प्रथमा विभक्ति में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'अत्ता' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २- ५१ ।।
डुम - क्मोः ।। २-५२ ॥
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मक्मोः पो भवति ।। कुड्मलम् । कुम्पलं । रूक्मिणी । रूप्पिणी । क्वचित् च्मोपि ।। रूच्मी रूप्पी ।।
अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'ड्म' अथवा ' क्म' रहा हुआ होता है; तो ऐसे शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में इन संयुक्त व्यञ्जन 'ड्म' अथवा 'क्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'ड्म' का उदाहरण-कुड्मलम्=कुम्पलं ।। ' क्म' का उदाहरण-रूक्मिणी-रूप्पिणी इत्यादि । । कभी-कभी 'क्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति भी हो जाती है। जैसे:- रूक्मी रूमी अथवा रूप्पी |
'कुड्मलम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कुम्पलं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ड्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; १ - २६ से प्रथम आदि स्वर 'उ' पर अनुस्वार रूप आगम की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के आगे 'प' वर्ण की स्थिति होने से पवर्ग के पंचमाक्षर रूप हलन्त 'म्' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार की प्राप्ति होकर 'कुम्पल' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रुक्मिणी' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'रुप्पिणी' होता है। इसमें सूत्र संख्या २ - ५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; और २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति होकर 'रूप्पिणी' रूप सिद्ध हो जाता है।
'रुक्मी' संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप 'रुच्मी' और 'रुप्पी' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५२ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'क्म' के स्थान पर 'च्म' की प्राप्ति होकर प्रथम रुप 'रूच्मी' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में 'रुप्पी' सूत्र संख्या २-५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति और २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति होकर 'रुप्पी' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-५२।।
ष्प- स्पयोः फः ।। २-५३।।
ष्प-स्पयोः फो भवति ।। पुष्पम् । पुष्कं ॥ शष्पम् । सप्फं । निष्पेषः। निप्फेसो।। निष्पावः । निप्फावो।। स्पन्दनम्। फन्दणं।। प्रतिस्पर्धिन् । पाडिप्फद्धी ।। बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । बुहप्फई बुहप्पई ।। क्वचिन्न भवति ।। निप्पहो। णिप्पुंसणं । परोप्परम् ॥
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अर्थः-जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'प्प' अथवा 'स्प' होता है; तो प्राकृत रूपान्तर में इन संयुक्त व्यञ्जनों
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