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________________ 34 : प्राकृत व्याकरण १ - २९ से 'मां' पर स्थित अनुस्वार का लोप ; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मासल' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (मांसलम् = ) 'मंसल' में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'मां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर 'मंसल' भी सिद्ध हो जाता है। "कांस्यम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कास' और 'कंस' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २९ से 'क' पर स्थित अनुस्वर का लोप; २-७८ से 'य्' का लोप; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'कास' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप - (कांस्यम् = ) 'कंस' में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'कां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'कंस' भी सिद्ध हो जाता है। 'पांसुः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पासू' और 'पंसू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ - २९ से 'पाँ' पर स्थित अनुस्वार का लोप; और ३- १९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पासू' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (पांसु = ) 'पंसू' में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'पां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'पंसू ' भी सिद्ध हो जाता है। 'कथम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कह' और 'कह' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - १८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और १ - २९ से अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'कह' और 'कह' सिद्ध हो जाते हैं। 'एवम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एव' और 'एवं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'एव' और ' एवं ' सिद्ध हो जाते हैं। 'नूनम् ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप 'नूण' / 'नूणं' होते हैं। १ - २२८ से द्वितीय 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'नूण' और 'नूणं' सिद्ध हो जाते हैं। 'इदानीम् ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप इआणि और इआणिं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - २७७ से 'द्' का लोप; १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति; १ - ८४ से दीर्घ स्वर 'इ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'इआणि' और 'इआणिं' सिद्ध हो जाते हैं। 'इदानीम् ' संस्कृत अव्यय रूप है। इसके शौरसेनी भाषा में 'दाणि' और 'दाणिं' रूप होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४- २७७ से 'इदानीम्' के स्थान पर 'दाणि' आदेश और १ - २९ से अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'दाणि' और 'दाणिं' सिद्ध हो जाते हैं। 'किम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कि' और 'किं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ - २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १ - २९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों रूप 'कि' और 'किं' सिद्ध हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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