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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 35 'करोमि' संस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप 'करेमि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत घातु 'कृ' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'अर्' आदेश; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु कर में विकरण प्रत्यय 'ए' की संधि
और ३-१४१ से वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की संयोजना होकर 'करेमि' रूप सिद्ध हो जाता है।
"संमुखम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'समुहं' और 'संमुहं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२९ से 'सं पर स्थित अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'समुहं' और 'संमुह सिद्ध हो जाते हैं।
"किंशुकम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केसुअं और किंसुअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८६ से 'इ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; १-२९ से 'कि' पर स्थित अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'केसुअं' और 'किंसुअं सिद्ध हो जाते
___'सिंहः' संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप 'सीहो' और 'सिंघो' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-९२ से हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२९ से अनुस्वार का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सीहो' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(सिंहः =) सिंघो में सूत्र संख्या १-२६४ से अनुस्वार के पश्चात् रहे हुए 'ह' के स्थान पर 'घ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'सिंघो' भी सिद्ध हो जाता है।।१-२९।।
- वर्गेन्त्यो वा ।। १-३० ।। __ अनुस्वारस्य वर्गे परे प्रत्यासत्ते स्तस्यैव वर्गस्यान्त्यो वा भवति।। पङ्को पंको। सङ्को संखो। अङ्गणं अंगणं। लघं। लंघण। कञ्चुओ कंचुओ। लञ्छणं लंछणं। अजिअं अजिओ सञ्झा संझा। कण्टओ कंटओ। उक्कण्ठा उक्कंठा। कण्डं कंड। सण्ढो संढो। अन्तरं अंतरं। पन्थो पंथो। चन्दो चंदो बन्धवो बंधवो। कम्पइ कंपइ। वम्फइ वंफइ। कलम्बो कलंबो। आरम्भो आरंभो।। वर्ग इति किम्। संसओ। संहरइ।। नित्यमिच्छन्त्यन्ये।।
अर्थः-प्राकृत-भाषा के किसी शब्द में यदि अनुस्वार रहा हुआ हो और उस अनुस्वार के आगे यदि कोई वर्गीय-(कवर्ग-चवर्ग-टवर्ग-तवर्ग और पवर्ग का) अक्षर आया हुआ हो तो जिस वर्ग का अक्षर आया हुआ हो; उसी वर्ग का पञ्चम-अक्षर उस अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हो जाया करता है। जैसे-क वर्ग के उदाहरणः- पङ्क=पको अथवा पंको; शङ्खः सङ्को अथवा संखो; अङ्गणम् अङ्गणं अथवा अंगणं; लङ्घनम् लघणं अथवा लंघणं। च वर्ग के उदाहरणः- कञ्चुक-कञ्चुओ अथवा कंचुओ; लाञ्छनम् लञ्छणं अथवा लंछणं; अजितम् अजिअं अथवा अजि। सन्ध्यासञ्झा अथवा संझो। ट वर्ग के उदाहरण-कण्टक: कण्टओ अथवा कटओ;
अथवा उक्कंठाः काण्डम कण्डं अथवा कंडः षण्ढः =सण्ढो अथवा संढो। त वर्ग के उदाहरण-अन्तरमअन्तरं अथवा अंतरं; पंथः पन्थो अथवा पंथो; चन्द्रः-चन्दो अथवा चंदो; बान्धवः बन्धवो अथवा बंधवो। कम्पते-कम्पइ अथवा कंपइ; कांक्षति-वम्फइ अथवा वंफइ; कलंब-कलम्बो अथवा कलंबो और आरंभ आरम्भो अथवा आरंभो इत्यादि।
प्रश्नः- अनुस्वार के आगे वर्गीय अक्षर आने पर ही अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से उसी अक्षर के वर्ग का पंचम अक्षर हो जाता है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ?
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