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36 : प्राकृत व्याकरण
उत्तरः- यदि अनुस्वार के आगे वर्गीय अक्षर नहीं होकर कोई स्वर अथवा अवर्गीय-व्यञ्जन आया हुआ होगा तो उस अनुस्वार के स्थान पर किसी भी वर्ग का ('म्' के अतिरिक्त) पंचम अक्षर नहीं होगा; इसलिये 'वर्ग' शब्द का भार-पूर्वक उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है-संशय-संसओ और संहरति-संहरइ; इत्यादि। किन्ही-किन्ही व्याकरणाचार्यों का मत है कि प्राकृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए अनुस्वार की स्थिति नित्य अनुस्वार रूप ही रहती है एवं उसके स्थान पर वर्गीय पंचम-अक्षर की प्राप्ति जैसी अवस्था नहीं प्राप्त हुआ करती है। __ 'पंकः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पङ्को और पंको होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ङ्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर 'ङ्' वैकल्पिक रूप से और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप पङ्को' तथा 'पंको' सिद्ध हो जाते हैं।
'शंखः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सङ्खो और संखो होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'पङ्को-पंकों के अनुसार ही १-२५; १-३० और ३-२ से प्राप्त होकर क्रम से दोनों रूप संलों और संखा सिद्ध हो जाते हैं। ____ अङ्गणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अङ्गणं' और 'अंगण' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त ङ् के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'ङ्' व्यञ्जन की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'अंङ्गणं' और 'अंगणं' सिद्ध हो जाते हैं। __ 'लङ्घनम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'लङ्घणं' और लंघणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त अङ्गणं-अंगणं के अनुसार ही १-२५,१-३०, ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर क्रमशः दोनों रूप 'लङ्घणं' और 'लंघणं सिद्ध हो जाते हैं।
'कञ्चुकः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'कञ्चुओ' और 'कंचुओ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ब्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त '' व्यञ्जन की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'कञ्चुओ' और 'कंचुओ' सिद्ध हो जाते हैं।
'लाञ्छनम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'लञ्छणं' और लंछणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ला' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त 'ज्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'अ' व्यञ्जन की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'लञ्छणं' और 'लंछणं सिद्ध हो जाते हैं। __ 'अञ्जितम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अजिअं और अजिअं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ब्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ब्' व्यञ्जन की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'अजिअं और 'अजिअं दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
'सन्ध्या' संस्कत रूप है। इसके प्राकत रूप 'सञ्झा' और 'संझा' होते हैं। इनमें सत्र संख्या १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्या के स्थान पर 'झा' की प्राप्ति और १-३० से पूर्व
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