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________________ 210 : प्राकृत व्याकरण पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'थम्भिज्जइ' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में उसी सूत्र संख्या २-९ से 'स्त' का विकल्प से 'ठ' और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'ठम्भिज्जइ' भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-९।। रक्ते गो वा ।। २-१० ।। रक्त शब्दे संयुक्तस्य गो वा भवति ।। रग्गो रत्तो ।। अर्थः- रक्त शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'ग' होता है। जैसे:- रक्तः रग्गो अथवा रत्तो।। रक्तः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'रग्गो' और 'रत्ता' होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१० से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'ग' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'रग्गो' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'क्' का लोप; २-८९ से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर 'रत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१०।। शुल्के ङ्गो वा ।। २-११ ।। शुल्क शब्दे संयुक्तस्य ङ्गो वा भवति ।। सुङ्गं सुक्कं ।। अर्थः- 'शुल्क' शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ल्क' के स्थान पर विकल्प से 'ङ्ग' की प्राप्ति होती है और इससे शुल्क के प्राकृत-रूपान्तर में दो रूप होते हैं जो कि इस प्रकार है:- शुल्कम्-सुंगं और सुक्क।। "शुल्कम्' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सुंग' और 'सुक्क' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-११ से 'ल्क' के स्थान पर विकल्प से 'ङ्ग' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर प्रथम रूप 'सुगं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'सुक्क' में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' २-७९ से 'ल' का लोप; २-८९ से शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप 'सुक्क भी सिद्ध हो जाता है। ।। २-११ ॥ कृति-चत्वरे चः ।। २-१२ ।। अनयोः संयुक्तस्य चो भवति ।। किच्ची । चच्चरं ।। अर्थः- 'कृत्ति' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और 'चत्वर' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर भी 'च' की प्राप्ति होती है। जैसे:- कृत्तिः किच्ची और चत्वरम्-चच्चरं।। __ 'कृत्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'किच्ची' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१२ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च'; ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर 'किच्ची' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'चत्वरम्' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'चच्चर होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१२ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'चच्चर' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001942
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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