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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 211
त्योऽचैत्ये ।। २-१३ ।। चैत्यवर्जिते त्यस्य चो भवति ॥ सच्चं । पच्चओ ।। अचैत्य इति किम् । चइत्त।।
अर्थः- चैत्य शब्द को छोड़कर यदि अन्य किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' रहा हुआ हो तो उस संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' के स्थान पर 'च' होता है। जैसे:- सत्यम् सच्चं। प्रत्ययः पच्चओ इत्यादि।।
प्रश्न:- 'चैत्य में स्थित 'त्य' के स्थान पर 'च' का निषेध क्यों किया गया है ?
उत्तरः- क्योंकि 'चैत्य' शब्द का प्राकृत रूपान्तर चइत्तं उपलब्ध है- परम्परा से प्रसिद्ध है; अतः चैत्य में स्थित 'त्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- चैत्यम्=चइत्त।
'सत्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सच्चं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्य के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व ‘च्च' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'सच्चं रूप सिद्ध हो जाता है।
"प्रत्यय' संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर 'पच्चओ' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-१३ से 'त्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व'च्च' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'पच्चओ' रूप सिद्ध हो जाता है। चइत्तं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५१ में की गई है। ।। २-१३ ।।
प्रत्यूषे षश्च हो वा ।। २-१४ ।। प्रत्यूषे त्यस्य चो भवति, तत्संनियोगे च षस्य हो वा भवति ।। पच्चूहो । पच्चूसो॥
अर्थः- 'प्रत्यूष' शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' का 'च' होता है। इस प्रकार 'च' की प्राप्ति होने पर अन्तिम 'ष' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसेः- प्रत्यूषः पच्चूहो अथवा पच्चूसो।।
'प्रत्यूषः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'पच्चूहो' और 'पच्चूसो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-१४ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'च' को द्वित्व ‘च्च' की प्राप्ति; २-१४ से 'ष' का प्रथम रूप में विकल्प से 'ह' और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से १-२६० से 'ष' का 'स' एवं ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से 'पच्चूहा' और 'पच्चूसो' दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ।। २-१४ ।।
त्व-थ्व-द्व-ध्वां-च-छ-ज-झाः क्वचित् ।। २-१५ ।। एषां यथासंख्यमेते क्वचित् भवन्ति ।। भुक्त्वा ।। भोच्चा ।। ज्ञात्वा । णच्चा ।। श्रुत्वा ।। सोच्चा ।। पृथ्वी।। पिच्छी।। विद्वान् । विज्जो ।। बुद्ध्वा । बुज्झा ॥
भोच्चा सयलं पिच्छि विज्जं बुज्झा अणण्णय-ग्गामि।
चईऊण तवं काउं सन्ती पत्तो सिवं परमं ।। अर्थः- यदि किसी शब्द में 'त्व' रहा हुआ हो तो कभी-कभी इस संयुक्त व्यञ्जन 'त्व' के स्थान पर 'च' होता है, 'थ्व' के स्थान पर 'छ' होता है; 'द्व' के स्थान पर 'ज' होता है और 'ध्व' के स्थान पर 'झ' होता है। मूल सूत्र में 'क्वचित्' . लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य यही होता है कि 'त्व' 'थ्व' 'द्व' और 'ध्व' के स्थान पर क्रम से च, छ, ज और झ की
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